Darkk Soul
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
शैली
"लगता है मैडम को बहुत भूख लगी थी आज."
रोटी का एक निवाला मुंह में रखते हुए सुधीर मुस्करा कर बोला. सुधीर की बात शैली के कानों में मानो पड़ी ही नहीं. वो काँटे वाले चम्मच से पहले डबल आमलेट के 1 बड़े से टुकड़े को खाई, फिर प्लेट में ही रखे दो अंडों में से एक उठा कर थोड़ा-थोड़ा कर के खाने लगी.
सुधीर ने दोबारा पूछने का कष्ट नहीं किया. उसका इंश्योरेंस वाला जॉब उसे अक्सर देर शाम को लौटने को मजबूर करती है. आज भी यही हुआ --- रात के 9 बज गए उसे घर लौटने में. कुछ देर आराम करने के बाद अपनी धर्मपत्नी को खाना लगाने के बारे में पूछा. भूख तो शैली को भी लगी थी. अतः उसने तुरंत हाँ कर दी.
आम तौर पर दोनों पति-पत्नी रात को थोड़ा ही खाते हैं पर आज शैली कुछ ज़्यादा ही खा रही है देख कर सुधीर को बहुत आश्चर्य हुआ.
खाने की बात दोबारा छेड़ कर सुधीर ने किसी और विषय पर बात करने का सोचा,
"राजू आया था क्या आज?"
"नहीं." अंगुलियाँ चाटते शैली बहुत छोटा सा उत्तर दी.
"ओफ़्फ़्फ़..! परेशान हो गया इस लड़के से. जब भी फोन करो, कहता है की आज जाऊँगा, कल जाऊँगा... पर आता नहीं है. ऐसे कैसे चलेगा?"
"किसी और लड़के को बुला लो."
"वही करूँगा. इसे 1 अंतिम अवसर दूंगा --- अगर आ गया तो ठीक है; वर्ना इसके मालिक से ही कहूँगा कोई दूसरा लड़का भेजने के लिए. कुछ और दिन की देरी सह लोगी न तुम?"
"हम्म." --- शैली पूर्ववत शुष्क स्वर में बोली.
"नाराज़ हो क्या किसी बात पर?" सुधीर तनिक चिंतित होते हुए पूछा.
"नहीं. क्यों?"
"बस ऐसे ही." सुधीर बात को आगे बढ़ाना नहीं चाहा.
खाते - खाते शैली का हाथ थोड़ा धीरे चलने लगा. अपने रूखे हरकत का आभास हुआ उसे. तुरंत ही अपनी आवाज़ में नरमी लाते हुए प्यार से पूछी,
"और कुछ लोगे?"
"हम्म?"
सुधीर की प्लेट की ओर आँखों से इशारा करते हुए दोबारा पूछी,
"और कुछ चाहिए?"
कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था सुधीर ने की उसकी नज़र शैली की नाईटी से झाँकती 2 इंच की क्लीवेज पर पड़ गई जोकि उस समय बहुत प्यारी लग रही थी...
मुस्करा कर बोला,
"तुम."
जवाब सुनते ही शैली की आँखों में शरारत तैर गई और होंठों में मुस्कान...
------------------- और फ़िर आधी रात तक बेडरूम में दोनों की यौन-कुश्ती चलती रही.
अगले दिन, ऑफिस के लिए निकलते हुए रास्ते में 'मनसुख एंड संस' के मालिक के भाई से मिलकर उसी दिन राजू या कोई और इलेक्ट्रीशियन को घर भेजने के लिए बोल दिया.
कुछ दूर आगे बढ़ कर 1 मंदिर के पास अपनी गाड़ी रोका. मंदिर के बगल में स्थित 1 कुटिया के दरवाज़े पर दस्तक देते हुए पुकारा,
"पंडित जी!"
2-3 बार पुकारने के बाद एक अधेड़ आयु की महिला मुस्कराती हुई अंदर से आई..
"अरे माँ जी आप! नमस्ते, पंडितजी नहीं हैं क्या?"
"नहीं. वो घर के काम से निकले हैं."
"ओह... ठीक है --- ये कुछ सामान लाया हूँ..." कहते हुए सुधीर ने 2 जूट के थैले आगे बढ़ा दिया.
जैसे ही पंडिताइन ने उन थैलों को छुआ, उनके पूरे शरीर में एक तेज़ सिहरन दौड़ गई. एक क्षण के लिए उनके चेहरे का रंग ही मानो उड़ गया. वो बड़े विस्मय से सुधीर को देखी और "अभी आई" बोल कर थैलों को बिना लिए ही अंदर के कमरे की ओर तेज़ कदमों से चली गई. वहाँ पूजा घर में एक जगह रखे एक पात्र से गंगाजल लेकर स्वयं पर छिड़क कर देवी माँ की फोटो के पास रखे एक लाल फूल को हाथ में ले कर १ मंत्र पढ़ते हुए कागज़ के एक छोटे टुकड़े में लपेट कर लाल धागे से बाँधते हुए बाहर दरवाज़े पर आई और अब तक असमंजस की स्थिति में खड़े सुधीर को वो बँधा कागज़ का टुकड़ा देते हुए बोली,
"बेटा, इसे अच्छे से रखो --- कहीं गिरना या छूटना नहीं चाहिए. बहुत सावधानी से रखना.... और, शैली कैसी है?"
"वो ठीक है माँ जी, पर आप ऐसे क्यों....?" सुधीर की बात ख़त्म होने से पहले ही पंडिताइन बोली, "कुछ नहीं बेटा, बस ऐसे ही पूछी; लेकिन मेरी ये बात याद रखना की ये जो कागज़ मैंने तुम्हें बाँध कर दिया है ये हमेशा तुम्हारे पास रहे. ठीक है?"
"ठीक है माँ जी, आप जैसा कहें." कह कर सुधीर ने उन दो थैलों को फिर आगे बढ़ा दिया. पंडिताइन थैलों को स्वीकार करते हुए सुधीर की मंगल कामना के आशय से ढेर सारी आशीर्वाद दी.
पंडिताइन को प्रणाम कर के मन में कई तरह के सवाल लिए सुधीर ऑफिस के लिए निकल गया.
शाम को घर लौटते समय रास्ते में 'मनसुख एंड संस्' के मालिक मनसुख भाई से भेंट हो गई. औपचारिक कुशलक्षेम वाले बातों के बाद अचानक से याद आने पर सुधीर ने पूछा, "अच्छा मनसुख भाई, आज कोई मेरे घर गया की नहीं? राजू तो बस १ बार; पहले दिन ही गया था उसके बाद कभी आया नहीं. भाई, आपके यहाँ तो और भी लोग काम करते हैं न? उन्हीं में से किसी और को भेज दो. बिजली की समस्या से अब और मुकाबला नहीं किया जा रहा."
सुधीर न जाने इसी तरह कितनी ही और बातें करता पर मनसुख भाई के गंभीर और घोर चिंतित चेहरे को देख कर उसे अपनी बातों पर ब्रेक देना पड़ा. धीरे से पूछा,
"क्या हुआ? सब ठीक है न?"
जवाब में मनसुख भाई कुछ कदमों की दूरी पर स्थित १ चाय की टपरी की ओर इशारा करते हुए बोला, "आओ, उधर बैठते हैं."
सुधीर के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही मनसुख उधर चला गया. सुधीर भी अपनी गाड़ी को चुपचाप टपरी की ओर बढ़ा दिया.
चाय का आर्डर दे कर पास रखे बैठने के लिए पाँच बेंचों में से एक उठा कर मनसुख थोड़ा पीछे चला गया और १ जगह रख कर खुद उसपे बैठते हुए सुधीर को भी बैठने का इशारा किया.
"राजू हो या पप्पू, कोई भी तेरे घर जाने के लिए राजी नहीं है."
"क्या!? लेकिन क्यों?" सुधीर हैरान हो गया.
मनसुख तनिक चुप रह कर बोला, "सुन पाएगा?"
"पहले बताइए तो सही."
"उन्हें तुम्हारे घर जाने से डर लगता है."
"ऐसा क्यों?" सुधीर की उत्सुकता और उत्तेजना बढ़ने लगी.
"उन्हें तुम्हारी बीवी से डर लगता है."
"मेरी बीवी से? ---- हाहाहा --- बीवी से तो पति को डरना चाहिए." सुधीर हँस पड़ा. उसे वाकई लगा की मनसुख मज़ाक कर रहा है… वह खिलखिला कर हँसने लगा. मनसुख उसे टोकते हुए बोला,
"दो दिन राजू को भेजा था और एक दिन पप्पू को. राजू का पहला दिन तो ठीकठाक गुज़रा था पर अगले दिन न जाने वहाँ ऐसा क्या हुआ की वो अब वहाँ जाना तो क्या, जाने की बात करने से भी कतराता है. उसके मना कर देने पर पप्पू को भेजा था --- उसकी भी डर से बहुत बुरी हालत थी. पूछने पर दोनों लगभग एक सा जवाब देते हैं; ---- 'घर का वातावरण बहुत भारी है. मरघट सी चुप्पी छाई रहती है.... और न जाने क्या-क्या --- दोनों तो शैली जी की आँखों के रंग का बदल जाने का भी दावा करते हैं.'
" क.. क्या... आँखों का... रंग बदल... क्या बकवास है. कहाँ है वो दोनों, मुझे बात करनी है उसने." सुधीर को बिल्कुल भी ऐसी बातों पर यकीन नहीं हुआ.
विवशता में सिर न में हिलाते हुए मनसुख बोला, "वे दोनों ही कुछ दिनों की छुट्टी ले कर अपने - अपने गाँव चले गए हैं."
कुछ क्षण दोनों चुप रहे --- मनसुख को समझ नहीं आ रहा था की सभी बातें सुधीर को कैसे बताए और सुधीर को मनसुख की कही गई बातें ठीक से गले से नहीं उतर रही थी.
अचानक मनसुख को कुछ सूझा --- सुधीर की ओर थोड़ा झुक कर पूछा, "उस रात के बाद कोई उपाय किए थे?"
सवाल सुनते ही सुधीर की आँखों के आगे करीब दो सप्ताह पहले घटी १ घटना मानो तैर सी गई....
'एक रात सुधीर पत्नी शैली के साथ मनसुख भाई की गाड़ी से एक पार्टी से लौट रहा था. कार मनसुख ही चला रहा था. बगल की सीट पे उसकी बीवी बैठी थी. चारों काफ़ी हँसी - ख़ुशी ढेर सारी बातें कर रहे थे. दोनों की ही बीवियाँ बहुत बातूनी हैं और कभी भी किसी भी विषय पर बात कर लेती हैं. उस रात को भी यही कर थी दोनों. खिलखिला कर हँस रही थी और बातें कर रही थी. दोनों मर्द तो बस उनकी बातें सुन-सुन कर बीच - बीच में हँस - मुस्करा दे रहे थे.
"ज़रा रोकिएगा." मनसुख की पत्नी दीप्ति बोली.
मनसुख दीप्ति की मंशा समझ कर कार को तुरंत ही साइड कर के रोक दिया. अब रात के इस घनघोर अँधेरे में दीप्ति जाए तो जाए कैसे? इसलिए वो शैली की ओर देखी. शैली तो जैसे तैयार बैठी थी --- फिर वो और दीप्ति तेज़ क़दमों से गाड़ी से यही कोई 10 क़दमों की दूरी पर स्थित झाड़ियों के पीछे चली गयीं.
सुधीर और मनसुख गाड़ी से बाहर निकल कर सुट्टा सुलगा लिए.
अभी कुछ ही क्षण बीते थे की दीप्ति दौड़ती, चीखती-चिल्लाती हुई उन दोनों की ओर भाग कर आती हुई दिखाई दी. उन दोनों के पास आ कर रोते हुए पीछे झाड़ियों की ओर इशारा करने लगी. सुधीर शैली को पुकारते हुए उन झाड़ियों की तरफ़ दौड़ा; मनसुख दीप्ति को ले कर सुधीर के पीछे हो लिया. जब तीनों एकसाथ उस जगह पहुँचे तो वहाँ का नज़ारा देख कर कुछ पलों के लिए उनको खुद की भी सुध न रही.
शैली एक पेड़ के सामने निर्विकार भाव से खड़ी थी. उस जगह पर बड़ी तेज़ प्रवाह से हवा चल रही थी --- और इसी हवा से शैली के अब तक जुड़े में बँधे लम्बे बाल खुल चुके थे और बहुत ही भयानक तरीके लहरा रहे थे. शैली एकटक दृष्टि से उस पेड़ को देखे जा रही थी. पहले सुधीर ने ३-४ बार शैली को आवाज़ दी और फिर मनसुख और दीप्ति ने भी उसे ज़ोरों से पुकारा --- किन्तु शैली पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वो चुपचाप बुत बनी खड़ी रही.
अब तक वहाँ के माहौल से सुधीर और दंपति द्वय को ये आभास हो चुका था की जो कुछ भी हो रहा है वो अत्यंत अशुभ और अमांगलिक है. ईश्वर का नाम लेते हुए सुधीर आगे बढ़ा और शैली को पुकारते हुए पीछे से उसके कँधे को छुआ. छूते ही शैली बेसुध हो कर गिर पड़ी थी. किसी तरह से उसे सँभालते हुए घर लाया था सुधीर.
अगले ३-४ दिनों तक बहुत बीमार रही थी शैली. बेहोशी की हालत में अनर्गल बातें कर रही थी. तब दीप्ति के सुझाव पर मनसुख ने माता रानी मंदिर वाले पंडितजी से सुधीर की भेंट करवाई थी और पंडितजी के द्वारा घर इत्यादि के शुद्धिकरण के बाद अगले दिन से ही शैली की तबियत में सुधार होने लगा था. शैली के पूरी तरह से ठीक हो जाने के कारण ही सुधीर का भरोसा माता रानी और पंडितजी पर और भी ज़्यादा बढ़ गया था --- इसलिए अवसर पाते ही पंडितजी के लिए कुछ न कुछ ले कर जाता था.'
(वर्तमान में)....
परेशान सा शक्ल बनाते हुए सुधीर बोला,
"नहीं भाई, मैंने तो और कोई उपाय नहीं किया."
उसकी बात खत्म होते - होते मनसुख पूछ बैठा, "अच्छा, इधर कुछ दिनों से अपनी वाइफ में कोई बदलाव महसूस किए हो क्या?"
"हाँ, उसकी भूख बहुत बढ़ गयी है...." थोड़ा नियंत्रित हो कर बोला सुधीर --- भूख खाने के मामले में और सेक्स के मामले में; दोनों में ही कई गुना बढ़ चुकी है उसकी बीवी, ये बात वो अपने तक में ही रखना चाहता है.
मनसुख कुछ बोलता; उसके पहले ही सुधीर का सेलफोन बजने लगा ---- पंडितजी का था ---- रिसीव करते ही उनका बड़ा चिंतित, गंभीर व उद्विग्नतायुक्त स्वर सुनाई दिया. दोनों के बीच कुछ देर बातें हुई. जब कॉल डिस्कनेक्ट कर मनसुख की ओर देखा तो मनसुख ने पाया कि सुधीर पहले से भी कहीं अधिक चिंताग्रस्त और रुआँसा लग रहा है. पूछने पर बोला, "पंडितजी कह रहे थे की आज की रात बहुत भयंकर है. मुझे अत्यंत सावधान रहना होगा. शैली से आज रात दूरी बनाए रखनी है और अलग कमरे में सोना है."
मनसुख को बहुत अजीब लगा ये... तुरंत ही पंडितजी के ऐसा कहने का कारण पूछ बैठा.
सुधीर बेबसी में सिर हिलाते हुए बोला, "पता नहीं. तुमने तो सुना ही अभी, मैंने भी उनसे कारण जानना चाहा पर उन्होंने बार-बार यही कहा की आज की रात बहुत खतरनाक है."
मनसुख को भी समझ नहीं आया की इस पर क्या कहा जाए. इसलिए सुधीर को ढाँढस बँधाया और ईश्वर पर भरोसा रखने बोला. सच कहा जाए तो अब मनसुख को भी किसी अनहोनी का डर लगने लगा था.
कुछ देर बैठ कर दोनों अपने - अपने घरों की ओर बढ़ गए.
-------
रात में खाना खा कर दोनों सोने चले गए. सुधीर काम का बहाना कर दूसरे कमरे में चला गया. वो अक्सर ही दूसरे कमरे में ऑफिस के बचे-खुचे कामकाज निपटाता रहता है ताकि शैली को सोने में परेशानी न हो. आज तो वैसे भी दोनों में बहुत कम बात हुई. सुधीर ने नोटिस किया की शैली आज अपने प्लेट में बहुत कम खाना परोसी है. पूछने पर बोली की उसका खाना खाने का कोई खास मन नहीं है आज.
"सॉरी शैली, बहुत दिन हो गए तुमको बाहर कहीं खाने को ले कर नहीं गया. एक नया रेस्टोरेंट खुला है कुछ ही दूरी पर; सोच रहा हूँ हम कल वहाँ खाने चलें --- चलोगी?"
"हम्म... ठीक है. आज कुछ और खा लूँगी." शैली काँटावाला चम्मच से पनीर का एक टुकड़ा मुँह में रखते हुए एक खास अंदाज़ में बोली. इस अंदाज़ को सुधीर बखूबी समझता है; इसलिए पहले तो वो झेंप गया और फिर दूसरे ही पल खुद को संयत करते हुए ऑफिस के काम को निपटाने की बात बोला.
इसपर शैली पहले तो आश्चर्य से सुधीर को देखी, फिर बच्चों सा मुँह बना कर उसे चिढ़ाई और फिर एक अलग ही अदा-ओ-अंदाज़ में बोली, "सारे मर्द एक जैसे ही होते हैं --- बोलो कुछ, वो समझेंगे कुछ! हमेशा यही सब चलता है दिमाग में. तुम्हें सफाई देने या खुश होने की ज़रूरत नहीं है. मैं वाकई कुछ और खाने की बात कर रही थी. समथिंग वैरी टेस्टी."
सुधीर ज़रा सा मुस्कराया. शाम से ही उसके दिमाग में पंडितजी के दिए गए निर्देश घूम रहे हैं.
खाना ख़त्म कर मुँह धोने के तुरंत बाद ही सुधीर दूसरे कमरे में जा कर अंदर से दरवाज़ा बंद कर लिया --- और दिनों की की भाँति शैली को किस कर के गुड नाईट नहीं बोला --- पर हैरानी की बात तो ये हुई की इस पर शैली भी कुछ नहीं बोली. हल्का सा भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
कुछ देर तक फाइलों को उलट - पलट कर देखने के बाद सुधीर १ नॉवेल ले कर बेड पर लेट गया. रात में सोने से पहले कुछ देर किताब पढ़ना बहुत पसंद है सुधीर को. आज भी यही करने का इरादा है.
पढ़ते-पढ़ते कब आँख लगी इसका पता ही नहीं चला उसे. गहरी नींद में होने के कारण जब एकदम से हड़बड़ा कर उठा तब कुछ क्षणों के लिए दिमाग सुन्न सा हो गया था. संयत होते ही गौर किया, दरवाज़े पर लगातार दस्तक हो रही है --- किन्तु मृदु , हल्के हाथों से --- आराम से.
दस्तकों को सुन ही रहा था की कानों में एक मीठी आवाज़ आई, "सुधीर!"
‘शैली?! अभी--?!’ सुधीर दीवार घड़ी की ओर देखा... २:३० बज रहे हैं!! 'शैली अभी...ऊफ्फ' सोचना बहुत कुछ चाहा उसने पर सोच न पाया.
अचानक से दस्तक पर ध्यान गया... 'कुछ अलग लग रहा है न?! य.. ये... ये तो हाथों से की जाने वाली दस्तक नहीं है.... पर... है तो दस्तक ही.... ओह... ओह नहीं.. ये तो न... नाखूनों से...!'
सुधीर इतना तो समझ गया शैली नाखूनों से दरवाज़े पर 'खट-खट' की आवाज़ से दस्तक कर रही है लेकिन ये नहीं समझ पाया की उसके नाखून भला इतने बड़े कब हो गए. एक तो शैली को बड़े नाख़ून रखना कतई पसंद नहीं और वैसे भी रोज़ ही सुधीर की नज़र किसी न किसी कारणवश शैली के हाथों पर जाती रही है --- अगर हाल - फ़िलहाल में उसने नाख़ून बढ़ाए होते तो सुधीर को मालूम चल जाता.
नाखूनों से दस्तक देने के साथ ही साथ दरवाज़े को खरोंचें जाने की भी आवाज़ आने लगी...
इस बार बहुत अजीब तरह से शैली उसे पुकारी,
"सस्स.... स... सु.. सुधीरररर..!!"
पूरा शरीर काँप गया उसका --- पल भर में पसीने में नहा गया. बहुत खतरनाक, डरावने तरीके से उसे बुला रही थी शैली.
"स... सु.. सुधीरररर.... प्लीज़ सुनो.... दर...वाज़ा... खोलो..." शैली की आवाज़ में प्यार है, प्यास है लेकिन न जाने क्यों बिल्कुल अलग और डरावना है.
सुधीर मना करने के लिए बोलने जा ही रहा था --- पर ये क्या --- डर के मारे उसके आवाज़ को लकवा मार गया शायद. बेचारा जितना ज़ोर लगाता कुछ बोलने के लिए, उतना ही उसका शरीर काँपने लगता --- दिल की धड़कने बढ़ जाती.
"सुधीररर... क्या हुआ.. तुम्हारी धड़कन... इतनी... क.. क्यों... तेज़ है....???"
'य.. ये क्या... श.. शैली म... मेरी धड़कन स... सुन रही है.... प.. पर क... कैसे??' सुधीर कुछ नहीं बोला, सिर्फ़ सोचा --- गला तो पहले से ही सूख गया था उसका.
"हाँ सुधीर, म.. मैं सुन सकती हूँ... ही - ही - ही... दर... वाज़ा खोलो न... मुझे तुम्हारे सा... साथ सो.. सोना है.. अकेले न.. नींद नहीं आती न... ही - ही - ही"
‘श.. श.... शैली...? ये... शैली नहीं हो सकती... ये.. ऐसे सर्द, बुढ़िया जैसी हँसी शैली की नहीं हो सकती....’
कुछ देर तक यही खेल चलता रहा.
फिर एकाएक ऐसा लगा की शैली धीरे - धीरे दरवाज़े से दूर हट गई. वो शायद किसी और कमरे में चली गई है. पास रखे पानी के बोतल से पानी पीने लगा था सुधीर की कि तभी उसे हड्डी टूटने जैसा शब्द सुनाई दिया.
फिर...
'चर्र्ब - चर्र्ब' की आवाज़ से कुछ चबा कर खाने जैसा सुनाई दिया.
हर 1 से 2 मिनट के अंदर 'चर्र्ब - चर्र्ब' की आवाज़ बिल्कुल साफ़ --- बहुत साफ़ सुनाई देने लगी --- इसके अलावा रात के इस पहर में हर ओर केवल सन्नाटा छाया हुआ था. एक शायद रह - रह कर झींगुरों की आवाज़ वातावरण में तैर रही थी. और हाँ, काफ़ी देर से हवाओं के तेज़ चलने का आभास हो रहा था सुधीर को.
पसीने की एक पतली धारा सिर के पिछले हिस्से से बहती हुई रीढ़ की हड्डी के सीध में कमर तक चली गई. शाम को फ़ोन पर पंडितजी के साथ हुई बात और उनके द्वारा दिए गए सख्त निर्देश अक्षरशः स्वतः स्मरण होने लगे सुधीर को... 'बेटा, कुछ भी हो जाए, आधी रात के बाद अपने कमरे का दरवाज़ा बिल्कुल मत खोलना.'
अचानक 'धड़ाम' से बहुत ज़ोर की आवाज़ हुई.
सुधीर कुछ देर रुक कर आगे बढ़ा और बहुत धीरे से दरवाज़ा खोला.... शैली की चिंता होने लगी थी.
बड़े हॉल वाले कमरे को छोड़ बाकी सारे कमरों की लाइट ऑफ थी. हॉल रूम से ३ कदम आगे बालकनी का दरवाज़ा खुला था और वहाँ से पूर्णिमा की चाँद की रौशनी अंदर हॉल रूम के एक बड़े हिस्से को प्रकाशित कर रही थी. बालकनी का दरवाज़ा का खुला रहना अजीब था क्योंकि रात में यह दरवाज़ा हमेशा बंद रहता है. दूसरे कमरों की ओर देखता सुधीर को बालकनी में कुछ हिलता हुआ प्रतीत हुआ. हॉल को पार करते - करते देखा, बालकनी वाले फ़र्श पर किसी की परछाई बन रही है.
उत्सुकता के साथ - साथ डर का एक सिहरन दौड़ गया पूरे शरीर में.
दरवाज़े से दूरी बनाए रखते हुए सुधीर ने बालकनी में झाँका --- और इसी के साथ दुनिया भर का आश्चर्य और भय का पिटारा मानो उसकी झोली में आ गिरा हो ---- आँखें देख कर भी भरोसा नहीं कर पा रही....
शैली बालकनी के रेलिंग पर दोनों पैरों के पंजों के बल पर बैठी, माँस के एक बड़े से टुकड़े को बहुत चाव से चाट - चाट कर खा रही है!! बाल बिखरे, फैले हुए हैं --- ठीक वैसे ही जैसे उस रात को उस पेड़ के सामने खड़े रहने के समय था! उसके दोनों हाथों की अंगुलियों के नाख़ून 4-5 इंच लंबे और नुकीले हो गए हैं! सामने के दाँत भी जंगली जानवरों के दाँतों के समान लंबे और नुकीले हैं!
हाथों में पकड़े माँस को बिना रत्ती भर के दिक्कत के वो अपने पैने दाँतों से फाड़ और चबाए जा रही थी --- न जाने कितने दिनों की भूखी थी वो --- खाने की तीव्रता व मुँह के किनारों से टपकते लार तो इसी बात की चुगली कर रहे थे. गुलाबी नाईटी खून से तर थी.
"शैलीsss!" सुधीर के गले से एक घुटी सी चीख निकली. चीख निकल तो गई लेकिन इसी के साथ उसे डर ने और कस कर जकड़ लिया; क्योंकि... शैली उसकी आवाज़ सुन चुकी थी --- और --- अब उसकी लाल आँखें सुधीर को एकटक घूरने लगीं. सुधीर की धड़कन तेज़ हो गई, नथुनों से निकलती साँसों की आवाज़ अब उसे खुद सुनाई देने लगीं, शरीर का तापमान एक ही समय उठता और गिरता महसूस होने लगा.
शैली अपने पति को देखते हुए बालकनी से नीचे उतरी; माँस को अभी भी पकड़े हुए थी... दो कदम आगे बढ़ कर ठिठक गई... लाल आँखों से सुधीर के कुर्ते के दायीं पॉकेट की ओर देखी... सुधीर को ध्यान आया --- पंडिताइन द्वारा दिए गए उस कागज़ के टुकड़े को उसने सोने के समय रुमाल के एक कोने से बाँध कर पॉकेट में रख लिया था. शैली को आगे बढ़ते न देख कर सुधीर को उस कागज़ की याद आई... इससे थोड़ी हिम्मत बँधी. इतना समझ गया की कम से कम उसकी जान पर कोई आफ़त नहीं आने वाली... इसलिए जहाँ था वहीं खड़े रहने का फैसला किया.
इधर शैली से आगे न बढ़ा जा रहा था... सुधीर की आँखों में आँखें डाल कर उसे देखने लगी. सुधीर ने देखा की शैली की आँखें किसी बिल्ली की तरह हो गई है.. और चमकीली भी..
अचानक से शैली की आँखें नम हो गईं... अब तक पशुता की झलक देती चेहरे और आँखों में एकदम से मानवीयता दिखने लगी --- ढेर सारा दर्द, पीड़ा, शिकायत... और न जाने क्या - क्या...
सुधीर अपने अगले कदम के बारे में सोच ही रहा था की ठीक तभी शैली हाथों से माँस के उस टुकड़े को गिरा दी और एकदम सीधी खड़ी हो गई... ऊपर आसमान की ओर सिर उठाई और पूर्णिमा की गोल चाँद को देखते हुए एक हृदयविदारक कर्णभेदी चीख चीखी... ऐसी खतरनाक व भयानक चीख थी की मानो कान के पर्दे फट कर उनसे खून ही निकल जाए.
यह चीख रात के सन्नाटे में दूर - दूर तक फैलती चली गई... एक अजीब सी तड़प व विवशता का आभास दे गई वह चीख..
चीख कई क्षणों तक गूँजती रही.
जब वातावरण शांत हुआ तब बहुत आर्त दृष्टि से अपने पति को देखी... कुछ क्षण सुधीर के चेहरे को निहारने के बाद एकदम से पलटी और दौड़ कर बालकनी के रेलिंग पर चढ़ कर एक घोर असंभव और विश्वास से परे, एक बहुत ही लम्बी दूरी की छलाँग लगाई...
"शैलीsss!!" सुधीर एक बदहवास पागल की तरह चिल्लाता हुआ बालकनी के पास आ कर खड़ा हुआ... पर ये क्या?!! शैली का कहीं भी कोई निशान तक नहीं. इधर-उधर और जहाँ तक नज़र जा सकती थी वहाँ तक देखा सुधीर ने --- शैली कहीं नहीं दिखी. पूर्णिमा की चाँद की रौशनी भी शायद उसे ढूँढ़ पाने में अक्षम थी.
रुँधा गला और आँखों में आँसू लिए सुधीर वहीं खड़ा रहा... मन में ये ज्वलंत आशा लिए की शायद अभी शैली कहीं टहलती हुई दिख जाएगी.
समाप्त
रोटी का एक निवाला मुंह में रखते हुए सुधीर मुस्करा कर बोला. सुधीर की बात शैली के कानों में मानो पड़ी ही नहीं. वो काँटे वाले चम्मच से पहले डबल आमलेट के 1 बड़े से टुकड़े को खाई, फिर प्लेट में ही रखे दो अंडों में से एक उठा कर थोड़ा-थोड़ा कर के खाने लगी.
सुधीर ने दोबारा पूछने का कष्ट नहीं किया. उसका इंश्योरेंस वाला जॉब उसे अक्सर देर शाम को लौटने को मजबूर करती है. आज भी यही हुआ --- रात के 9 बज गए उसे घर लौटने में. कुछ देर आराम करने के बाद अपनी धर्मपत्नी को खाना लगाने के बारे में पूछा. भूख तो शैली को भी लगी थी. अतः उसने तुरंत हाँ कर दी.
आम तौर पर दोनों पति-पत्नी रात को थोड़ा ही खाते हैं पर आज शैली कुछ ज़्यादा ही खा रही है देख कर सुधीर को बहुत आश्चर्य हुआ.
खाने की बात दोबारा छेड़ कर सुधीर ने किसी और विषय पर बात करने का सोचा,
"राजू आया था क्या आज?"
"नहीं." अंगुलियाँ चाटते शैली बहुत छोटा सा उत्तर दी.
"ओफ़्फ़्फ़..! परेशान हो गया इस लड़के से. जब भी फोन करो, कहता है की आज जाऊँगा, कल जाऊँगा... पर आता नहीं है. ऐसे कैसे चलेगा?"
"किसी और लड़के को बुला लो."
"वही करूँगा. इसे 1 अंतिम अवसर दूंगा --- अगर आ गया तो ठीक है; वर्ना इसके मालिक से ही कहूँगा कोई दूसरा लड़का भेजने के लिए. कुछ और दिन की देरी सह लोगी न तुम?"
"हम्म." --- शैली पूर्ववत शुष्क स्वर में बोली.
"नाराज़ हो क्या किसी बात पर?" सुधीर तनिक चिंतित होते हुए पूछा.
"नहीं. क्यों?"
"बस ऐसे ही." सुधीर बात को आगे बढ़ाना नहीं चाहा.
खाते - खाते शैली का हाथ थोड़ा धीरे चलने लगा. अपने रूखे हरकत का आभास हुआ उसे. तुरंत ही अपनी आवाज़ में नरमी लाते हुए प्यार से पूछी,
"और कुछ लोगे?"
"हम्म?"
सुधीर की प्लेट की ओर आँखों से इशारा करते हुए दोबारा पूछी,
"और कुछ चाहिए?"
कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था सुधीर ने की उसकी नज़र शैली की नाईटी से झाँकती 2 इंच की क्लीवेज पर पड़ गई जोकि उस समय बहुत प्यारी लग रही थी...
मुस्करा कर बोला,
"तुम."
जवाब सुनते ही शैली की आँखों में शरारत तैर गई और होंठों में मुस्कान...
------------------- और फ़िर आधी रात तक बेडरूम में दोनों की यौन-कुश्ती चलती रही.
अगले दिन, ऑफिस के लिए निकलते हुए रास्ते में 'मनसुख एंड संस' के मालिक के भाई से मिलकर उसी दिन राजू या कोई और इलेक्ट्रीशियन को घर भेजने के लिए बोल दिया.
कुछ दूर आगे बढ़ कर 1 मंदिर के पास अपनी गाड़ी रोका. मंदिर के बगल में स्थित 1 कुटिया के दरवाज़े पर दस्तक देते हुए पुकारा,
"पंडित जी!"
2-3 बार पुकारने के बाद एक अधेड़ आयु की महिला मुस्कराती हुई अंदर से आई..
"अरे माँ जी आप! नमस्ते, पंडितजी नहीं हैं क्या?"
"नहीं. वो घर के काम से निकले हैं."
"ओह... ठीक है --- ये कुछ सामान लाया हूँ..." कहते हुए सुधीर ने 2 जूट के थैले आगे बढ़ा दिया.
जैसे ही पंडिताइन ने उन थैलों को छुआ, उनके पूरे शरीर में एक तेज़ सिहरन दौड़ गई. एक क्षण के लिए उनके चेहरे का रंग ही मानो उड़ गया. वो बड़े विस्मय से सुधीर को देखी और "अभी आई" बोल कर थैलों को बिना लिए ही अंदर के कमरे की ओर तेज़ कदमों से चली गई. वहाँ पूजा घर में एक जगह रखे एक पात्र से गंगाजल लेकर स्वयं पर छिड़क कर देवी माँ की फोटो के पास रखे एक लाल फूल को हाथ में ले कर १ मंत्र पढ़ते हुए कागज़ के एक छोटे टुकड़े में लपेट कर लाल धागे से बाँधते हुए बाहर दरवाज़े पर आई और अब तक असमंजस की स्थिति में खड़े सुधीर को वो बँधा कागज़ का टुकड़ा देते हुए बोली,
"बेटा, इसे अच्छे से रखो --- कहीं गिरना या छूटना नहीं चाहिए. बहुत सावधानी से रखना.... और, शैली कैसी है?"
"वो ठीक है माँ जी, पर आप ऐसे क्यों....?" सुधीर की बात ख़त्म होने से पहले ही पंडिताइन बोली, "कुछ नहीं बेटा, बस ऐसे ही पूछी; लेकिन मेरी ये बात याद रखना की ये जो कागज़ मैंने तुम्हें बाँध कर दिया है ये हमेशा तुम्हारे पास रहे. ठीक है?"
"ठीक है माँ जी, आप जैसा कहें." कह कर सुधीर ने उन दो थैलों को फिर आगे बढ़ा दिया. पंडिताइन थैलों को स्वीकार करते हुए सुधीर की मंगल कामना के आशय से ढेर सारी आशीर्वाद दी.
पंडिताइन को प्रणाम कर के मन में कई तरह के सवाल लिए सुधीर ऑफिस के लिए निकल गया.
शाम को घर लौटते समय रास्ते में 'मनसुख एंड संस्' के मालिक मनसुख भाई से भेंट हो गई. औपचारिक कुशलक्षेम वाले बातों के बाद अचानक से याद आने पर सुधीर ने पूछा, "अच्छा मनसुख भाई, आज कोई मेरे घर गया की नहीं? राजू तो बस १ बार; पहले दिन ही गया था उसके बाद कभी आया नहीं. भाई, आपके यहाँ तो और भी लोग काम करते हैं न? उन्हीं में से किसी और को भेज दो. बिजली की समस्या से अब और मुकाबला नहीं किया जा रहा."
सुधीर न जाने इसी तरह कितनी ही और बातें करता पर मनसुख भाई के गंभीर और घोर चिंतित चेहरे को देख कर उसे अपनी बातों पर ब्रेक देना पड़ा. धीरे से पूछा,
"क्या हुआ? सब ठीक है न?"
जवाब में मनसुख भाई कुछ कदमों की दूरी पर स्थित १ चाय की टपरी की ओर इशारा करते हुए बोला, "आओ, उधर बैठते हैं."
सुधीर के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही मनसुख उधर चला गया. सुधीर भी अपनी गाड़ी को चुपचाप टपरी की ओर बढ़ा दिया.
चाय का आर्डर दे कर पास रखे बैठने के लिए पाँच बेंचों में से एक उठा कर मनसुख थोड़ा पीछे चला गया और १ जगह रख कर खुद उसपे बैठते हुए सुधीर को भी बैठने का इशारा किया.
"राजू हो या पप्पू, कोई भी तेरे घर जाने के लिए राजी नहीं है."
"क्या!? लेकिन क्यों?" सुधीर हैरान हो गया.
मनसुख तनिक चुप रह कर बोला, "सुन पाएगा?"
"पहले बताइए तो सही."
"उन्हें तुम्हारे घर जाने से डर लगता है."
"ऐसा क्यों?" सुधीर की उत्सुकता और उत्तेजना बढ़ने लगी.
"उन्हें तुम्हारी बीवी से डर लगता है."
"मेरी बीवी से? ---- हाहाहा --- बीवी से तो पति को डरना चाहिए." सुधीर हँस पड़ा. उसे वाकई लगा की मनसुख मज़ाक कर रहा है… वह खिलखिला कर हँसने लगा. मनसुख उसे टोकते हुए बोला,
"दो दिन राजू को भेजा था और एक दिन पप्पू को. राजू का पहला दिन तो ठीकठाक गुज़रा था पर अगले दिन न जाने वहाँ ऐसा क्या हुआ की वो अब वहाँ जाना तो क्या, जाने की बात करने से भी कतराता है. उसके मना कर देने पर पप्पू को भेजा था --- उसकी भी डर से बहुत बुरी हालत थी. पूछने पर दोनों लगभग एक सा जवाब देते हैं; ---- 'घर का वातावरण बहुत भारी है. मरघट सी चुप्पी छाई रहती है.... और न जाने क्या-क्या --- दोनों तो शैली जी की आँखों के रंग का बदल जाने का भी दावा करते हैं.'
" क.. क्या... आँखों का... रंग बदल... क्या बकवास है. कहाँ है वो दोनों, मुझे बात करनी है उसने." सुधीर को बिल्कुल भी ऐसी बातों पर यकीन नहीं हुआ.
विवशता में सिर न में हिलाते हुए मनसुख बोला, "वे दोनों ही कुछ दिनों की छुट्टी ले कर अपने - अपने गाँव चले गए हैं."
कुछ क्षण दोनों चुप रहे --- मनसुख को समझ नहीं आ रहा था की सभी बातें सुधीर को कैसे बताए और सुधीर को मनसुख की कही गई बातें ठीक से गले से नहीं उतर रही थी.
अचानक मनसुख को कुछ सूझा --- सुधीर की ओर थोड़ा झुक कर पूछा, "उस रात के बाद कोई उपाय किए थे?"
सवाल सुनते ही सुधीर की आँखों के आगे करीब दो सप्ताह पहले घटी १ घटना मानो तैर सी गई....
'एक रात सुधीर पत्नी शैली के साथ मनसुख भाई की गाड़ी से एक पार्टी से लौट रहा था. कार मनसुख ही चला रहा था. बगल की सीट पे उसकी बीवी बैठी थी. चारों काफ़ी हँसी - ख़ुशी ढेर सारी बातें कर रहे थे. दोनों की ही बीवियाँ बहुत बातूनी हैं और कभी भी किसी भी विषय पर बात कर लेती हैं. उस रात को भी यही कर थी दोनों. खिलखिला कर हँस रही थी और बातें कर रही थी. दोनों मर्द तो बस उनकी बातें सुन-सुन कर बीच - बीच में हँस - मुस्करा दे रहे थे.
"ज़रा रोकिएगा." मनसुख की पत्नी दीप्ति बोली.
मनसुख दीप्ति की मंशा समझ कर कार को तुरंत ही साइड कर के रोक दिया. अब रात के इस घनघोर अँधेरे में दीप्ति जाए तो जाए कैसे? इसलिए वो शैली की ओर देखी. शैली तो जैसे तैयार बैठी थी --- फिर वो और दीप्ति तेज़ क़दमों से गाड़ी से यही कोई 10 क़दमों की दूरी पर स्थित झाड़ियों के पीछे चली गयीं.
सुधीर और मनसुख गाड़ी से बाहर निकल कर सुट्टा सुलगा लिए.
अभी कुछ ही क्षण बीते थे की दीप्ति दौड़ती, चीखती-चिल्लाती हुई उन दोनों की ओर भाग कर आती हुई दिखाई दी. उन दोनों के पास आ कर रोते हुए पीछे झाड़ियों की ओर इशारा करने लगी. सुधीर शैली को पुकारते हुए उन झाड़ियों की तरफ़ दौड़ा; मनसुख दीप्ति को ले कर सुधीर के पीछे हो लिया. जब तीनों एकसाथ उस जगह पहुँचे तो वहाँ का नज़ारा देख कर कुछ पलों के लिए उनको खुद की भी सुध न रही.
शैली एक पेड़ के सामने निर्विकार भाव से खड़ी थी. उस जगह पर बड़ी तेज़ प्रवाह से हवा चल रही थी --- और इसी हवा से शैली के अब तक जुड़े में बँधे लम्बे बाल खुल चुके थे और बहुत ही भयानक तरीके लहरा रहे थे. शैली एकटक दृष्टि से उस पेड़ को देखे जा रही थी. पहले सुधीर ने ३-४ बार शैली को आवाज़ दी और फिर मनसुख और दीप्ति ने भी उसे ज़ोरों से पुकारा --- किन्तु शैली पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वो चुपचाप बुत बनी खड़ी रही.
अब तक वहाँ के माहौल से सुधीर और दंपति द्वय को ये आभास हो चुका था की जो कुछ भी हो रहा है वो अत्यंत अशुभ और अमांगलिक है. ईश्वर का नाम लेते हुए सुधीर आगे बढ़ा और शैली को पुकारते हुए पीछे से उसके कँधे को छुआ. छूते ही शैली बेसुध हो कर गिर पड़ी थी. किसी तरह से उसे सँभालते हुए घर लाया था सुधीर.
अगले ३-४ दिनों तक बहुत बीमार रही थी शैली. बेहोशी की हालत में अनर्गल बातें कर रही थी. तब दीप्ति के सुझाव पर मनसुख ने माता रानी मंदिर वाले पंडितजी से सुधीर की भेंट करवाई थी और पंडितजी के द्वारा घर इत्यादि के शुद्धिकरण के बाद अगले दिन से ही शैली की तबियत में सुधार होने लगा था. शैली के पूरी तरह से ठीक हो जाने के कारण ही सुधीर का भरोसा माता रानी और पंडितजी पर और भी ज़्यादा बढ़ गया था --- इसलिए अवसर पाते ही पंडितजी के लिए कुछ न कुछ ले कर जाता था.'
(वर्तमान में)....
परेशान सा शक्ल बनाते हुए सुधीर बोला,
"नहीं भाई, मैंने तो और कोई उपाय नहीं किया."
उसकी बात खत्म होते - होते मनसुख पूछ बैठा, "अच्छा, इधर कुछ दिनों से अपनी वाइफ में कोई बदलाव महसूस किए हो क्या?"
"हाँ, उसकी भूख बहुत बढ़ गयी है...." थोड़ा नियंत्रित हो कर बोला सुधीर --- भूख खाने के मामले में और सेक्स के मामले में; दोनों में ही कई गुना बढ़ चुकी है उसकी बीवी, ये बात वो अपने तक में ही रखना चाहता है.
मनसुख कुछ बोलता; उसके पहले ही सुधीर का सेलफोन बजने लगा ---- पंडितजी का था ---- रिसीव करते ही उनका बड़ा चिंतित, गंभीर व उद्विग्नतायुक्त स्वर सुनाई दिया. दोनों के बीच कुछ देर बातें हुई. जब कॉल डिस्कनेक्ट कर मनसुख की ओर देखा तो मनसुख ने पाया कि सुधीर पहले से भी कहीं अधिक चिंताग्रस्त और रुआँसा लग रहा है. पूछने पर बोला, "पंडितजी कह रहे थे की आज की रात बहुत भयंकर है. मुझे अत्यंत सावधान रहना होगा. शैली से आज रात दूरी बनाए रखनी है और अलग कमरे में सोना है."
मनसुख को बहुत अजीब लगा ये... तुरंत ही पंडितजी के ऐसा कहने का कारण पूछ बैठा.
सुधीर बेबसी में सिर हिलाते हुए बोला, "पता नहीं. तुमने तो सुना ही अभी, मैंने भी उनसे कारण जानना चाहा पर उन्होंने बार-बार यही कहा की आज की रात बहुत खतरनाक है."
मनसुख को भी समझ नहीं आया की इस पर क्या कहा जाए. इसलिए सुधीर को ढाँढस बँधाया और ईश्वर पर भरोसा रखने बोला. सच कहा जाए तो अब मनसुख को भी किसी अनहोनी का डर लगने लगा था.
कुछ देर बैठ कर दोनों अपने - अपने घरों की ओर बढ़ गए.
-------
रात में खाना खा कर दोनों सोने चले गए. सुधीर काम का बहाना कर दूसरे कमरे में चला गया. वो अक्सर ही दूसरे कमरे में ऑफिस के बचे-खुचे कामकाज निपटाता रहता है ताकि शैली को सोने में परेशानी न हो. आज तो वैसे भी दोनों में बहुत कम बात हुई. सुधीर ने नोटिस किया की शैली आज अपने प्लेट में बहुत कम खाना परोसी है. पूछने पर बोली की उसका खाना खाने का कोई खास मन नहीं है आज.
"सॉरी शैली, बहुत दिन हो गए तुमको बाहर कहीं खाने को ले कर नहीं गया. एक नया रेस्टोरेंट खुला है कुछ ही दूरी पर; सोच रहा हूँ हम कल वहाँ खाने चलें --- चलोगी?"
"हम्म... ठीक है. आज कुछ और खा लूँगी." शैली काँटावाला चम्मच से पनीर का एक टुकड़ा मुँह में रखते हुए एक खास अंदाज़ में बोली. इस अंदाज़ को सुधीर बखूबी समझता है; इसलिए पहले तो वो झेंप गया और फिर दूसरे ही पल खुद को संयत करते हुए ऑफिस के काम को निपटाने की बात बोला.
इसपर शैली पहले तो आश्चर्य से सुधीर को देखी, फिर बच्चों सा मुँह बना कर उसे चिढ़ाई और फिर एक अलग ही अदा-ओ-अंदाज़ में बोली, "सारे मर्द एक जैसे ही होते हैं --- बोलो कुछ, वो समझेंगे कुछ! हमेशा यही सब चलता है दिमाग में. तुम्हें सफाई देने या खुश होने की ज़रूरत नहीं है. मैं वाकई कुछ और खाने की बात कर रही थी. समथिंग वैरी टेस्टी."
सुधीर ज़रा सा मुस्कराया. शाम से ही उसके दिमाग में पंडितजी के दिए गए निर्देश घूम रहे हैं.
खाना ख़त्म कर मुँह धोने के तुरंत बाद ही सुधीर दूसरे कमरे में जा कर अंदर से दरवाज़ा बंद कर लिया --- और दिनों की की भाँति शैली को किस कर के गुड नाईट नहीं बोला --- पर हैरानी की बात तो ये हुई की इस पर शैली भी कुछ नहीं बोली. हल्का सा भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
कुछ देर तक फाइलों को उलट - पलट कर देखने के बाद सुधीर १ नॉवेल ले कर बेड पर लेट गया. रात में सोने से पहले कुछ देर किताब पढ़ना बहुत पसंद है सुधीर को. आज भी यही करने का इरादा है.
पढ़ते-पढ़ते कब आँख लगी इसका पता ही नहीं चला उसे. गहरी नींद में होने के कारण जब एकदम से हड़बड़ा कर उठा तब कुछ क्षणों के लिए दिमाग सुन्न सा हो गया था. संयत होते ही गौर किया, दरवाज़े पर लगातार दस्तक हो रही है --- किन्तु मृदु , हल्के हाथों से --- आराम से.
दस्तकों को सुन ही रहा था की कानों में एक मीठी आवाज़ आई, "सुधीर!"
‘शैली?! अभी--?!’ सुधीर दीवार घड़ी की ओर देखा... २:३० बज रहे हैं!! 'शैली अभी...ऊफ्फ' सोचना बहुत कुछ चाहा उसने पर सोच न पाया.
अचानक से दस्तक पर ध्यान गया... 'कुछ अलग लग रहा है न?! य.. ये... ये तो हाथों से की जाने वाली दस्तक नहीं है.... पर... है तो दस्तक ही.... ओह... ओह नहीं.. ये तो न... नाखूनों से...!'
सुधीर इतना तो समझ गया शैली नाखूनों से दरवाज़े पर 'खट-खट' की आवाज़ से दस्तक कर रही है लेकिन ये नहीं समझ पाया की उसके नाखून भला इतने बड़े कब हो गए. एक तो शैली को बड़े नाख़ून रखना कतई पसंद नहीं और वैसे भी रोज़ ही सुधीर की नज़र किसी न किसी कारणवश शैली के हाथों पर जाती रही है --- अगर हाल - फ़िलहाल में उसने नाख़ून बढ़ाए होते तो सुधीर को मालूम चल जाता.
नाखूनों से दस्तक देने के साथ ही साथ दरवाज़े को खरोंचें जाने की भी आवाज़ आने लगी...
इस बार बहुत अजीब तरह से शैली उसे पुकारी,
"सस्स.... स... सु.. सुधीरररर..!!"
पूरा शरीर काँप गया उसका --- पल भर में पसीने में नहा गया. बहुत खतरनाक, डरावने तरीके से उसे बुला रही थी शैली.
"स... सु.. सुधीरररर.... प्लीज़ सुनो.... दर...वाज़ा... खोलो..." शैली की आवाज़ में प्यार है, प्यास है लेकिन न जाने क्यों बिल्कुल अलग और डरावना है.
सुधीर मना करने के लिए बोलने जा ही रहा था --- पर ये क्या --- डर के मारे उसके आवाज़ को लकवा मार गया शायद. बेचारा जितना ज़ोर लगाता कुछ बोलने के लिए, उतना ही उसका शरीर काँपने लगता --- दिल की धड़कने बढ़ जाती.
"सुधीररर... क्या हुआ.. तुम्हारी धड़कन... इतनी... क.. क्यों... तेज़ है....???"
'य.. ये क्या... श.. शैली म... मेरी धड़कन स... सुन रही है.... प.. पर क... कैसे??' सुधीर कुछ नहीं बोला, सिर्फ़ सोचा --- गला तो पहले से ही सूख गया था उसका.
"हाँ सुधीर, म.. मैं सुन सकती हूँ... ही - ही - ही... दर... वाज़ा खोलो न... मुझे तुम्हारे सा... साथ सो.. सोना है.. अकेले न.. नींद नहीं आती न... ही - ही - ही"
‘श.. श.... शैली...? ये... शैली नहीं हो सकती... ये.. ऐसे सर्द, बुढ़िया जैसी हँसी शैली की नहीं हो सकती....’
कुछ देर तक यही खेल चलता रहा.
फिर एकाएक ऐसा लगा की शैली धीरे - धीरे दरवाज़े से दूर हट गई. वो शायद किसी और कमरे में चली गई है. पास रखे पानी के बोतल से पानी पीने लगा था सुधीर की कि तभी उसे हड्डी टूटने जैसा शब्द सुनाई दिया.
फिर...
'चर्र्ब - चर्र्ब' की आवाज़ से कुछ चबा कर खाने जैसा सुनाई दिया.
हर 1 से 2 मिनट के अंदर 'चर्र्ब - चर्र्ब' की आवाज़ बिल्कुल साफ़ --- बहुत साफ़ सुनाई देने लगी --- इसके अलावा रात के इस पहर में हर ओर केवल सन्नाटा छाया हुआ था. एक शायद रह - रह कर झींगुरों की आवाज़ वातावरण में तैर रही थी. और हाँ, काफ़ी देर से हवाओं के तेज़ चलने का आभास हो रहा था सुधीर को.
पसीने की एक पतली धारा सिर के पिछले हिस्से से बहती हुई रीढ़ की हड्डी के सीध में कमर तक चली गई. शाम को फ़ोन पर पंडितजी के साथ हुई बात और उनके द्वारा दिए गए सख्त निर्देश अक्षरशः स्वतः स्मरण होने लगे सुधीर को... 'बेटा, कुछ भी हो जाए, आधी रात के बाद अपने कमरे का दरवाज़ा बिल्कुल मत खोलना.'
अचानक 'धड़ाम' से बहुत ज़ोर की आवाज़ हुई.
सुधीर कुछ देर रुक कर आगे बढ़ा और बहुत धीरे से दरवाज़ा खोला.... शैली की चिंता होने लगी थी.
बड़े हॉल वाले कमरे को छोड़ बाकी सारे कमरों की लाइट ऑफ थी. हॉल रूम से ३ कदम आगे बालकनी का दरवाज़ा खुला था और वहाँ से पूर्णिमा की चाँद की रौशनी अंदर हॉल रूम के एक बड़े हिस्से को प्रकाशित कर रही थी. बालकनी का दरवाज़ा का खुला रहना अजीब था क्योंकि रात में यह दरवाज़ा हमेशा बंद रहता है. दूसरे कमरों की ओर देखता सुधीर को बालकनी में कुछ हिलता हुआ प्रतीत हुआ. हॉल को पार करते - करते देखा, बालकनी वाले फ़र्श पर किसी की परछाई बन रही है.
उत्सुकता के साथ - साथ डर का एक सिहरन दौड़ गया पूरे शरीर में.
दरवाज़े से दूरी बनाए रखते हुए सुधीर ने बालकनी में झाँका --- और इसी के साथ दुनिया भर का आश्चर्य और भय का पिटारा मानो उसकी झोली में आ गिरा हो ---- आँखें देख कर भी भरोसा नहीं कर पा रही....
शैली बालकनी के रेलिंग पर दोनों पैरों के पंजों के बल पर बैठी, माँस के एक बड़े से टुकड़े को बहुत चाव से चाट - चाट कर खा रही है!! बाल बिखरे, फैले हुए हैं --- ठीक वैसे ही जैसे उस रात को उस पेड़ के सामने खड़े रहने के समय था! उसके दोनों हाथों की अंगुलियों के नाख़ून 4-5 इंच लंबे और नुकीले हो गए हैं! सामने के दाँत भी जंगली जानवरों के दाँतों के समान लंबे और नुकीले हैं!
हाथों में पकड़े माँस को बिना रत्ती भर के दिक्कत के वो अपने पैने दाँतों से फाड़ और चबाए जा रही थी --- न जाने कितने दिनों की भूखी थी वो --- खाने की तीव्रता व मुँह के किनारों से टपकते लार तो इसी बात की चुगली कर रहे थे. गुलाबी नाईटी खून से तर थी.
"शैलीsss!" सुधीर के गले से एक घुटी सी चीख निकली. चीख निकल तो गई लेकिन इसी के साथ उसे डर ने और कस कर जकड़ लिया; क्योंकि... शैली उसकी आवाज़ सुन चुकी थी --- और --- अब उसकी लाल आँखें सुधीर को एकटक घूरने लगीं. सुधीर की धड़कन तेज़ हो गई, नथुनों से निकलती साँसों की आवाज़ अब उसे खुद सुनाई देने लगीं, शरीर का तापमान एक ही समय उठता और गिरता महसूस होने लगा.
शैली अपने पति को देखते हुए बालकनी से नीचे उतरी; माँस को अभी भी पकड़े हुए थी... दो कदम आगे बढ़ कर ठिठक गई... लाल आँखों से सुधीर के कुर्ते के दायीं पॉकेट की ओर देखी... सुधीर को ध्यान आया --- पंडिताइन द्वारा दिए गए उस कागज़ के टुकड़े को उसने सोने के समय रुमाल के एक कोने से बाँध कर पॉकेट में रख लिया था. शैली को आगे बढ़ते न देख कर सुधीर को उस कागज़ की याद आई... इससे थोड़ी हिम्मत बँधी. इतना समझ गया की कम से कम उसकी जान पर कोई आफ़त नहीं आने वाली... इसलिए जहाँ था वहीं खड़े रहने का फैसला किया.
इधर शैली से आगे न बढ़ा जा रहा था... सुधीर की आँखों में आँखें डाल कर उसे देखने लगी. सुधीर ने देखा की शैली की आँखें किसी बिल्ली की तरह हो गई है.. और चमकीली भी..
अचानक से शैली की आँखें नम हो गईं... अब तक पशुता की झलक देती चेहरे और आँखों में एकदम से मानवीयता दिखने लगी --- ढेर सारा दर्द, पीड़ा, शिकायत... और न जाने क्या - क्या...
सुधीर अपने अगले कदम के बारे में सोच ही रहा था की ठीक तभी शैली हाथों से माँस के उस टुकड़े को गिरा दी और एकदम सीधी खड़ी हो गई... ऊपर आसमान की ओर सिर उठाई और पूर्णिमा की गोल चाँद को देखते हुए एक हृदयविदारक कर्णभेदी चीख चीखी... ऐसी खतरनाक व भयानक चीख थी की मानो कान के पर्दे फट कर उनसे खून ही निकल जाए.
यह चीख रात के सन्नाटे में दूर - दूर तक फैलती चली गई... एक अजीब सी तड़प व विवशता का आभास दे गई वह चीख..
चीख कई क्षणों तक गूँजती रही.
जब वातावरण शांत हुआ तब बहुत आर्त दृष्टि से अपने पति को देखी... कुछ क्षण सुधीर के चेहरे को निहारने के बाद एकदम से पलटी और दौड़ कर बालकनी के रेलिंग पर चढ़ कर एक घोर असंभव और विश्वास से परे, एक बहुत ही लम्बी दूरी की छलाँग लगाई...
"शैलीsss!!" सुधीर एक बदहवास पागल की तरह चिल्लाता हुआ बालकनी के पास आ कर खड़ा हुआ... पर ये क्या?!! शैली का कहीं भी कोई निशान तक नहीं. इधर-उधर और जहाँ तक नज़र जा सकती थी वहाँ तक देखा सुधीर ने --- शैली कहीं नहीं दिखी. पूर्णिमा की चाँद की रौशनी भी शायद उसे ढूँढ़ पाने में अक्षम थी.
रुँधा गला और आँखों में आँसू लिए सुधीर वहीं खड़ा रहा... मन में ये ज्वलंत आशा लिए की शायद अभी शैली कहीं टहलती हुई दिख जाएगी.
समाप्त