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Yamraaj

Put your Attitude on my Dick......
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Nice story
घोर पाप - एक वर्जित प्रेम कथा


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चेतावनी: यह कहानी पारिवारिक व्यभिचार के विषय पर आधारित है, जिसमें माता और पुत्र के यौन-संबंधों का विस्तृत विवरण है। जो पाठक, ऐसी सामग्री से असहज हैं, वह कृपया इसे न पढ़ें। यह कहानी, पूरी तरह से काल्पनिक है और इसमें लिखी गई किसी भी घटना, व्यक्ति, स्थिति या विधि का वास्तविक जीवन से, कोई संबंध नहीं है। किसी भी समानता का होना केवल संयोग है।

सन १०२६ की बात है.. जब पूरा प्रदेश कई छोटी छोटी रियासतों में विभाजित था।

यह कथा, ऐसी ही एक वैतालनगर नामक छोटी सी रियासत की है। सामान्य सी रियासत थी। सीमित क्षेत्र, साधारण किसान प्रजा और छोटी सी सेना वाली इस रियासत के अवशेषों में जो सब से अनोखा था, वह था पिशाचिनी का प्रासाद। कोई नहीं जानता था की यह प्रासाद अस्तित्व में कब और कैसे आया.. हाँ, अपने पुरखों से इस विषय में, अनगिनत किस्से व दंतकथाएं अवश्य सुनी थी।

पिशाचिनी के इस प्रासाद में, किसी भी प्रकार की कोई प्रतिमा या बुत नहीं था, ना ही कोई प्रतीक या प्रतिरूप। थे तो केवल पुरुषों और स्त्रीओं के अति-आकर्षक संभोगरत शिल्प, जिन्हें बलुआ पत्थर से अति सुंदरतापूर्वक तराशा गया था। जिस प्रकार स्त्रीओं के लचकदार सुवक्र देहों को, पेड़ और लताओं से लिपटे हुए, चंचल मुद्रा में दिखाया गया था, वह अत्यंत मनोहर था। यह प्रासाद, कला और स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण था। स्त्री-रूप की मादक कामुकता को कलाकार के निपुण कौशल्य ने अभिवृद्धित किया था। स्त्री के नग्न कामुक सौन्दर्य और संभोगक्रिया को एक उत्सव के स्वरूप में स्थापित करता यह प्रासाद, एक रहस्यमयी और कौतुहलपूर्ण स्थान था।

चूँकि उस युग के अधिकांश अभिलेख और साहित्य लुप्त हो चुके थे, इसलिए उसके वास्तविक इतिहास का यथार्थ में पता लगाना अत्यंत कठिन था। हालाँकि, कुछ पांडुलिपियाँ अभी भी प्राप्त थी, जो उस युग को समझने में सहायक बन रही थी। उनमें से अधिकांश को, सामान्य प्रजा के लिए, प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया था क्योंकि उन लिपियों की सामग्री, उनकी मान्यताओं और संस्कृति को ठेस पहुंचा सकती थी, उन्हें आंदोलित कर सकती थी। इस अभिलेख में लिखित एक प्रसंग था, जो संभवतः पिशाचिनी प्रासाद के पीछे की कहानी हो सकता था। मूल कथा, पद्य स्वरूप में और अति-प्राचीन लिपि में थी। इसे पढ़ते समय, यह ज्ञात रहें कि उस काल में नग्नता वर्जित नहीं थी, संभोग को एक उत्सव की तरह मनाया जाता था। यथार्थ में कहें तो उस काल में, कुछ भी वर्जित नहीं था।

उस लिपि का सम्पूर्ण अनुवाद बड़ा कठिन है, पर अर्थ का निष्कर्ष कुछ इस प्रकार है

॥पांडुलिपि की पहली गाथा का अनुवाद॥

जन्मदात्री के उन्नत मादक मनोहारी स्तन

कामांग में असीम वासना, जैसे धधकता ज्वालामुखी

चुंबन करे पुत्र, उस माता की मांग के सिंदूर को

जननी को कर वस्त्र-विहीन, शयन-आसन पर करता प्रस्थापित

नाम है उसका, कालाग्नि और वो है एक पिशाचिनी

यह है उसका आख्यान, एक अनाचार की कथा, व्यभिचार की कथा

पृथ्वी सभी की माता है। वह प्रकाश संग संभोग कर जीवन की रचना करती है। वह कभी किसी की वास्तविक माता का रूप धारण कर या फिर किसी अन्य स्वरूप में, हर जीव को असीम प्रेम देती है। यह शुद्ध प्रेम बढ़ते हुए अपनी पूर्णता को तब प्राप्त करता है, जब वह संभोग में परिवर्तित होता है। हर प्रेम को अपनी पूर्णता प्राप्त करने का अधिकार है, अन्यथा उस जीव की आत्मा, बिना पानी के पौधों की तरह अतृप्त रह जाती है।

यह जीवदायी शक्ति, किसी स्वजन या आत्मीय संबंधी का रूप भी ले सकती है या वह किसी की बेटी, माँ, बहन, मौसी, दादी.. यहाँ तक कि प्रेमिका या पत्नी के रूप में भी प्रकट हो सकती है। स्त्री का, किसी भी प्रकार का स्वरूप, पुरुष के जीवन के शून्यवकाश को भरने के लिए, स्त्री स्वरूप को किसी न किसी रूप में अवतरित होना ही पड़ता है, ताकि वह विभिन्न रूप में, प्रेम का आदान-प्रदान कर सके। यह स्वरूप माता या बहन के प्रेम के रूप में भी हो सकता है; और यह प्रेम यौनसंबंधों का स्वरूप भी धारण कर सकता है। किंवदंती के अनुसार ऐसी ही एक स्त्री का जन्म, शाकिनी के रूप में हुआ था, जो वैतालनगर रियासत के राजकुमार कामशस्त्र की मां थी।

राजकुमार कामशस्त्र वैतालनगर के राजा रतिदंड का पुत्र था। पतला गौरवर्ण शरीर और चमकदार चेहरे पर बालक जैसी निर्दोषता लिप्त थी और साथ ही, एक अनोखी दिव्यता की झलक भी थी। उसके पिता रतिदंड ने उसे राजपुरोहित के पद पर नियुक्त किया था और उसे यह विशेषाधिकार प्रदान किया गया था की हर महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले, कामशस्त्र से परामर्श अनिवार्य रूप से किया जाएँ। राजकुमार कामशस्त्र का स्थान, राजा के सिंहासन के बगल में था और शासन के हर निर्णय में वह अपने प्रभाव का पूर्ण उपयोग भी करता था।

सायंकाल का अधिकतर समय वह उस पिशाचिनी प्रासाद में, साधना करते हुए व्यतीत करता था। कामशस्त्र के दो रूप थे, एक राजा के दरबार में कर्तव्यनिष्ठ राजपुरोहित का तो दूसरा अपने महल में, एक पुत्र के स्वरूप में। उसकी अति आकर्षक देहसृष्टि वाली माँ शाकिनी, उसे स्नेह से राजा कहकर पुकारती थी।

जब उसकी आयु इक्कीस वर्ष की थी, तब उसके पिता, महाराजा रतिदंड की मृत्यु हो गई और उसका राज्याभिषेक किया गया। अब राजपुरोहित के पद के साथ, उसे राजा होने का कर्तव्य भी निभाना था। कामशस्त्र ने ज्यादातर प्रसंगों को अच्छी तरह से संभाला किन्तु अपनी अनुभवहीनता के चलते उसने कुछ गलतियां भी कीं। चूंकि वह आयु में छोटा था और अल्प-अनुभवी भी, इसलिए वह अपनी विधवा माता से, विभिन्न विषयों पर चर्चा करता था। कई मुद्दों पर वह दोनों एक-दूसरे से परामर्श करते रहते और अक्सर वे नैतिकता के विषय पर विस्तृत चर्चा करते। अधिकतर उनकी बातों का विषय यह होता था की प्रजाजनों के लिए नैतिक संहिता कैसी होनी चाहिए। दरबार में भी इस मुद्दे पर सामाजिक मर्यादा और नैतिकता पर प्रश्न होते रहते।

राजा तब हैरान रह जाता था, जब एक ही परिवार के सभ्यों के आपस में विवाह के मामले सामने आते थे। यह किस्से उसे चकित कर देते थे और चौंकाने वाली बात तो यह थी की ऐसे मामले पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ चुके थे। ऐसे उदाहरण भी थे, जब पुत्रों ने अपनी माताओं से विवाह किया था या फिर भाइयों ने धन और संपत्ति के संरक्षण के लिए, अपनी बहनों से शादी की थी।

दरबारी जीवन के अलावा, कामशस्त्र एक असामान्य सा जीवन जीता था। दरबार से जब वह अपने महल लौटता तब उसकी सुंदर लचकदार शरीर की साम्राज्ञी माँ शाकिनी, कुमकुम, पुष्प तथा इत्र से भरी थाली लेकर उसके स्वागत के लिए तैयार रहती। शाकिनी उसका पुष्पों से व इत्र छिड़ककर स्वागत करती और राजा उसके पैर छूता। राजपरिवार का पहले से चला आया अनकहा रिवाज था, इस तरह पुत्र प्रवेश के लिए अनुमति माँगता और माता उसे अंदर आने की आज्ञा देती थी। उसके पश्चात, महल के सभी दासियों को कमरे से बाहर जाने का आदेश दिया जाता।

युवान राजा फिर कुछ समय के लिए विराम करता और उसकी माता शाकिनी, अपने कामुक शरीर पर, सुंदर से रेशमी वस्त्र और गहने धारण कर, राजा को अपने कक्ष में आमंत्रित करती। उस काल में विधवाएँ सामान्य जीवन जी सकती थी। उन्हें रंगबिरंगी वस्त्र पहनने की और साज-सजावट करने की पूर्ण स्वतंत्रता भी थी।

शाकिनी का कमरा पुष्पों से सजा हुआ था। फर्श पर लाल रेशम की चादरें बिछी हुई थी। कक्ष में पूरी तरह से सन्नाटा छाया हुआ था और मेहंदी के पुष्पों की मनोहक सुगंध, वातावरण को मादकता से भर रही थी। राजा एक सामान्य सी धोती और कुर्ता पहनकर कमरे में प्रवेश करें, उससे पहले, शाकिनी कुछ सुगंधित मोमबत्तियाँ प्रज्वलित करती थी। राजा के कक्ष-प्रवेश के पश्चात, वह उसे उसका कुर्ता उतारने और केवल धोती में ही बैठने का निर्देश करती है। कामशस्त्र के पास, शाही वस्त्रों को उतारकर, केवल धोती पहनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। उसे लज्जा इसलिए आती थी क्योंकि उसने धोती के नीचे कुछ भी नहीं पहना होता था।

पूरा दिन अपने राजसी कर्तव्य को निष्ठा से निभाने के बाद, वे दोनों साधना करने एक साथ बैठते थे। कामशस्त्र के पिता, महाराजा रतिदंड एक तांत्रिक थे। उन्होंने किसी शक्ति की उपासना प्रारंभ की थी और उसी दौरान उनकी मृत्यु हो गई थी। मृत्यु से पूर्व महाराजा ने अपनी पत्नी शाकिनी को उनकी साधना पूर्ण करने का निर्देश दिया था। एक ऐसी शक्ति की साधना, जिसे वह पहले ही जागृत कर चुके थे। यदि उस साधना को पूरा न किया जाएँ, तो वह शक्ति, शाही परिवार को ऐसा श्राप दे सकती थी, जो सभी सभ्यों की बुद्धि और विचार करने की क्षमता को कुंठित कर सकती थी, उनके मन में विकार व कुविचार को जन्म दे सकती थी, उन्हें विनाश के मार्ग पर भेज सकती थी। इसलिए शाकिनी अपने पति की मृत्यु के बाद, उस आज्ञा का पालन कर रही थी। माँ और बेटा दोनों मिलकर, उस सुगंधित कक्ष में एक साथ बैठकर घंटों तक साधना करते रहते थे।

हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से, उनके साधना करने के प्रणाली में काफी परिवर्तन आ गया था। प्रारम्भिक समय में, वह दोनों अपने शरीर को पूर्ण कपड़ों से ढँककर बैठते थे, पर दीर्घ प्रहरों की साधना में इससे कठिनाई होती थी। कुछ विशेष विधियों के लिए शाकिनी अति-अल्प वस्त्र धारण करती थी। कई मौकों पर, उभारदार स्तनों वाली माता और पुत्र के बीच, एक पतली सी सफेद पारदर्शी चादर ही रहती थी, जिसके आरपार वह अपने पुत्र को साधना करते हुए देखती थी।

समय बीतता गया और दिन-प्रतिदिन वस्त्रों की संख्या घटती गई क्योंकि समय गर्मियों का था और साधना करने से ऊर्जावान हो उठे शरीर, और भी अधिक गर्म हो जाते थे। कभी-कभी शाकिनी, बेटे के सामने ही अपनी उदार कामुकता को प्रकट करते हुए, उत्तुंग विराट स्तनों को ढँक रही चोली उतारकर, केवल कमर के नीचे का वस्त्र धारण कर बैठती थी। इस प्रथा का वह दोनों अब सालों से अनुसरण कर रहे थे। प्रायः दोनों को एक दूसरे की अर्ध-नग्नता से, न कोई संकोच था और ना ही किसी प्रकार की जुगुप्सा।

॥पांडुलिपि में लिखी गाथा का अनुवाद॥

स्पष्टवक्ता व सौन्दर्यवती

स्पर्श जनमावे सिहरन

थिरकें नितंब हो प्रफुल्ल

उभरे उरोज का द्रश्य सुहाना

आंगन में वह जब धोएं स्तन

देखें लिंग हो कठोर निरंतर

एक दिन की बात है। शाकिनी ने अपने पुत्र कामशस्त्र का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठने के लिए कहा। राजा ने पहले ही अपने शरीर के ऊपरी वस्त्र उतार दिए थे और नीचे धारण की हुई धोती के पतले वस्त्र से, उसके लिंग की कठोरता द्रश्यमान हो रही थी। शाकिनी ने अपना पल्लू झटकाकर गिरा दिया और कमर पर लपेटी हुई साड़ी को उतारना शुरू कर दिया। जैसे जैसे माता शाकिनी के वस्त्र उतरते गए, उनके गौर अंगों को देखकर राजा का सिर चकराने लगा। उसकी माँ के उन्नत स्तनों के बीच नजर आ रही लंबी दरार को देखकर उसकी सांसें फूलने लगी। साड़ी पूर्णतः उतर जाने पर अंदर पहना एक रेशम-जालीदार परिधान उजागर हुआ, जो शरीर के अंगों को छुपाता कम और दिखाता ज्यादा था। शाकिनी के चेहरे पर न कोई लज्जा थी और ना ही किसी प्रकार की हिचकिचाहट। बड़े ही उत्साह से वह अपनी चोली खोलने लगी।

अपनी माता को इस अवस्था में देखना, राजा के लिए किसी सदमे से कम नहीं था। किन्तु उसे इस बात की जिज्ञासा अवश्य थी की माता का आखिर प्रयोजन क्या था..!! राजा की सांसें बीच में तब अटक गईं, जब उसने अपनी माँ की गोरी फुर्तीली उंगलियों को बटन-दर-बटन, चोली खोलते हुए देखा। हर बटन के साथ उसकी सुंदर मां के स्तन का, और अधिक हिस्सा, उसकी नज़रों के सामने खुलता जा रहा था। बटनों को खोलते हुए माता शाकिनी, बड़ी ही मादकता से, अपने स्तनों के बीच की दरार पर अपनी उंगलियां फेर रही थी। जब वह अंतिम बटन पर पहुंची तब उसने अपने पुत्र को, उन मातृत्व के शाश्वत खजाने को, अनिमेष आँखों से तांकते हुए देखा - राजा जब शिशु-अवस्था में था, तब यही तो उसका भोजन स्थल हुआ करता था..!!

शाकिनी ने एक नजर अपने पुत्र की ओर देखा और मुस्कुराने लगी। राजा ने अपनी माँ की आँखों में आँखें डालकर देखा, यह आश्वासन देने के लिए, की वह अब भी, एक पुत्र की दृष्टि से ही देख रहा है..!! उस युवा पुत्र की पवित्र माँ ने, अपनी चोली को पूरी तरह से उतार दिया और उसे फर्श पर बिछी लाल मखमली चादर पर फेंक दिया। अपनी दोनों हथेली से, उन विराट चरबीदार स्तनों को दबाते हुए, स्तनाग्रों (निप्पलों) को मसल लिया। अब उसने अपने स्तनों को थोड़ा उभार दिया और कंधों को चौड़ा कर, उन उत्तुंग शिखरों को अपनी मर्जी से झूलने के लिए छोड़ दिया, ताकि उसका पुत्र, स्तनों के सौन्दर्य का अच्छी तरह रसपान कर सकें।

इस द्रश्य को देखकर राजा पागल सा हो रहा था और उसका मजबूत लिंग, नींद से जागे हुए असुर की तरह अंगड़ाई लेकर, धोती में उभार बना रहा था। उसकी विचार करने की क्षमता क्षीण हो रही थी। पूरा शरीर विशिष्ट प्रकार की गर्मी से झुलस रहा था। हर पल उसकी सांसें और अधिक तेज व भारी होती जा रही थी। वह अपनी माता की नग्नता को भोंचक्का होकर देख रहा था। हालांकि इससे पहले भी वह दोनों अल्प वस्त्रों में अर्धनग्न होकर एक दूसरे के सामने साधना कर चुके थे, पर आज उसका पौरुषत्व, सामाजिक मर्यादाओं पर हावी होता प्रतीत हो रहा था।

अपने नग्न स्तनों का वैभव दिखाते हुए, शाकिनी ने राजा कामशस्त्र को अपनी आँखें बंद कर, साधना में लीन होने के लिए कहा। दोनों के बीच एक पतला अर्ध-पारदर्शी पर्दा भी डाल दिया जिसमें एक छेद था, जहाँ से माँ और पुत्र, एक दूसरे को देख सकते थे। जल्द ही, दोनों साधना में ध्यानमग्न हो गए। उन्होंने एक साथ कुछ गाथाओं का पठन किया। हालाँकि, कर्तव्यनिष्ठ पुत्र उन गाथाओं का मन से पाठ कर रहा था, फिर भी वह अपनी माँ के अनावृत्त स्तनों से अपना ध्यान हटा नही पा रहा था। प्राकृतिक इच्छाओं और सामाजिक मर्यादाओं के बीच भीषण युद्ध चल रहा था उसके दिमाग में। उन दोनों मांसल उरोज की कल्पना उसे बंद आँखों में भी उत्तेजित कर रही थी। साधना के दौरान उसका मन, अपनी माँ के पूर्ण नग्न शरीर की कल्पना करने लगा और बेकाबू मन की इस क्रिया से, वह काफी अस्वस्थता का अनुभव कर रहा था। उसने अपनी माता के स्तनों को इतना गौर से देख लिया था की उन गोलों का परिघ, रंग, तने हुए स्तनाग्र, सब कुछ उसके मस्तिष्क में छप चुका था। अब जब भी वो अपनी आँखें बंद करता तब उसे अपनी माँ के वे बड़े-बड़े सुंदर सफेद टीले ही नजर आते थे।

कई पूर्णिमाओ की साधना के दौरान, उसने घंटों तक उन स्तनों को देखा था। निप्पलों के स्तन चक्रों को उसने इतने स्पष्ट रूप से देखा था कि कागज पर, बिना किसी त्रुटि के, बिल्कुल वैसा ही चक्र बना सकता था। उनकी स्तनाग्र (निप्पलें) तो अब उसे स्वप्न में भी नजर आने लगी थी। दोनों स्तन, मातृ-प्रेम के दो ऐसे मिनारे, जिनके पौष्टिक फव्वारों का लाभ उसने बचपन में भरपूर उठाया था। भूरे रंग के निप्पल, दो छोटे लिंगों की तरह सीधे खड़े थे। चूँकि माता शाकिनी, अक्सर अपनी चोली उतारने के बाद स्तनों और निप्पलों को एक साथ रगड़ती थीं, उसकी निप्पल अक्सर तंग और नुकीली हो जाती थी। दोनों के बीच, पतली चादर का पर्दा डालने से पहले, उसे अपनी माता के उन पुष्ट पयोधरों के दर्शन का लाभ मिलता।

उसके पश्चात, वे दोनों घंटों साधना करते थे। माता शाकिनी शायद वास्तव में साधना कर रही थी परंतु बेटा अपनी माँ के सुंदर स्तनों के अलावा किसी और वस्तु पर अपना ध्यान केंद्रित ही नहीं कर पा रहा था। दोनों स्तन ऐसे चुंबक बन गए थे जिस पर राजा कामशस्त्र का ध्यान और मन, चिपके ही रहते थे। साधना के बाद, वे अपना रात्रिभोजन भी उसी अवस्था में करते थे। चूंकि उन दिनों नग्नता वर्जित नहीं थी, इस कारण से शाकिनी को इसमें कुछ भी असहज या आपत्तिजनक प्रतीत नहीं होता था।

नग्नता भले ही सहज थी किन्तु अब माता-पुत्र के बीच जो चल रहा था वह पारिवारिक स्नेह से कुछ अधिक ही था। जब राजा अपनी माता से करीब होता था तब वह अपनी प्राकृतिक इच्छाओं को खुद पर हावी होने से रोक नहीं पाता था। एक बार शाकिनी रानीमहल के आँगन में नग्न होकर स्नान कर रही थी तब उसे देखकर राजा अपने वस्त्र में लगभग स्खलित ही हो गया।!! इतनी उम्र में भी शाकिनी का शरीर, तंग और कसा हुआ था। झुर्रियों रहित गोरा शरीर बेहद आकर्षक था। गोल घुमावदार गोरे कूल्हें, ऐसे लग रहे थे जैसे हस्तीदंत से बने हुए हो। और स्वर्ग की अप्सरा जैसे उन्मुक्त स्तन। गोरे तन पर पानी ऐसे बह रहा था जैसे वह चाँदनी से नहा रही हो। ऐसा नहीं था की केवल राजा ही ऐसा महसूस कर रहा था। शाकिनी के मन में भी यौन इच्छाएं जागृत हो रही थी।!!

जब युवा शाकिनी ने कामशस्त्र को जन्म दिया ,तब वह छोटे स्तनों वाली, पतली सी लड़की थी। प्रसव के पश्चात उसके स्तन, दूध से भरकर इतने उभर गए की फिर कभी पुराने कद पर लौट ही नहीं पाए और दिन-ब-दिन विकसित होते गए। वासना टपकाते, वह दो मांसल गोलों की सुंदरता को छिपाने के लिए उसकी तंग चोली कुछ अधिक कर भी नहीं पा रही थी। पूरी रियासत के सब से सुंदर स्तन थे वह..!! बड़ी गेंद जैसा उनका आकार और स्तन-चक्र पर स्थापित तनी हुई निप्पल। स्तनों के आकार के विपरीत, कमर पतली और सुगठित, सूडोल जांघें जैसे केले के तने। और नितंब ऐसे भरे भरे की देखते ही आरोहण करने का मन करें..!!

विधवा शाकिनी का जिस्म, कामवासना से झुलस रहा था। चूंकि वह एक रानी थी इसलिए वह किसी सामान्य नर से संभोग नहीं कर सकती थी। उसके संभोग साथी का शाही घराने से होना अनिवार्य था। वह अपने शरीर की कामाग्नि से अवगत थी और मन ही मन कई बार अपने पुत्र के पुष्ट लिंग को अपनी योनि में भरकर, पूरी रात संभोग करने के स्वप्न देख चुकी थी। हर गुजरते दिन के साथ यह इच्छा और भी अधिक तीव्र होती जा रही थी। पर वह एक पवित्र स्त्री थी और फिलहाल अपने पति की साधना को आगे बढ़ाना, उसकी प्राथमिकता थी।

शाकिनी को इसी साधना प्रक्रिया ने एक उपाय सुझाया। यदि वह साधना को संभोग से जोड़कर, उसे एक विधि के रूप में प्रस्तुत करें, तो क्या उसका पुत्र उसे करने के लिए राजी होगा?? इस प्रयोग के लिए वह अधीरता से शाम होने का प्रतीक्षा करने लगी

॥ पांडुलिपि की अगली गाथा का अनुवाद ॥

शाम ढलें, नभ रक्त प्रकाशें

योनि मदमस्त होकर मचलें

निशा देखें राह तिमिर की

कब आवै सजन जो भोगें

खनके चूड़ी, मटके जोबन

स्वयं को परोसे थाल में बैठी

हररोज की तरह राजा शाम को आया तब उसकी माता शाकिनी साड़ी का लाल जोड़ा पहने हुई थी। उसकी बाहें स्वर्ण आभूषणों से लदी हुई थी और कस्तूरी-युक्त पान चबाने से, उसके होंठ सुर्ख-लाल हो गए थे। ललाट पर कुमकुम और चेहरे पर खुमार - ऐसा खुमार, जो माताओं के चेहरों पर तब होता है, जब वह अपनी योनि, अपने पुत्र को अर्पण करने जा रही हो..! नवविवाहित दुल्हन जैसी चमक थी चेहरे पर। रेशमी साड़ी के नीचे जालीदार चोली, जिसपर कलात्मक कढ़ाई की गई थी। चोली के महीन कपड़ों से, शाकिनी की अंगूर जैसी निप्पलें, तनकर आकार बनाते नजर आ रही थी। राजा ने देखा की कई पुरुष सेवकों की नजर, उसकी माता के उन्नत शिखरों पर चिपकी हुई थी। इससे पहले की राजा अपनी जन्मदात्री के पैर छूता, दासियाँ ने दोनों पर फूलों की वर्षा कर दी।

यह देख शाकिनी मुस्कुराई और उसने कामशस्त्र को गले लगाते हुए अपने विशाल स्तन-युग्मों से दबा दिया। उनका आलिंगन नौकरों-दासियों के लिए, कक्ष छोड़कर चले जाने का संकेत था। वह आलिंगन काफी समय तक चला और उस दौरान राजा का लिंग, उसके वस्त्रों में उपद्रव करने लग गया था। आलिंगन से मुक्त होते ही, शाकिनी अपनी साड़ी और चोली उतारने लगी। राजा चकित होकर देखता रहा क्योंकि अब तक वह दोनों साधना के लिए बैठे भी नहीं थे और माता ने वस्त्र उतारने शुरू कर दिए थे..!!

"क्षमा चाहता हूँ माँ, पर आप इतनी जल्दी वस्त्र क्यों त्याग रही हो? साधना में बैठने से पहले, मुझे कुछ क्षण विराम तो करने दीजिए" राजा ने कहा

"मेरे राजा, आज विशेष अनुष्ठान करना है इसलिए जल्दी ही अपनी धोती पहन कर, साधना कक्ष की ओर प्रस्थान करो" कुटिल मुस्कान के साथ विराट स्तनधारी शाकिनी साधना कक्ष की ओर चल दी। वो पहले से ही कमर के ऊपर नग्न हो चुकी थी। हर कदम के साथ उसके मांसल स्तन यहाँ वहाँ झूलते हुए, राजा का वशीकरण कर रहे थे।

यंत्रवत राजा पीछे पीछे गया। उसे अपनी माँ की दृष्ट योजना का कोई अंदेशा नहीं था। जब उसने कक्ष में प्रवेश किया तो अंदर का द्रश्य चौंकाने वाला था.! कक्ष के बीचोंबीच एक बड़ा बिस्तर पड़ा था, जिसे ऐसा सजाया गया था, जैसे प्रथम रात्री को नवविवाहित जोड़ें के लिए सजाया जाता है। साथ ही, ऐसे वस्त्र थे, जो दूल्हा और दुल्हन विवाह के समय पहनते है। राजा ने विस्मय से अपनी माता के सामने देखा, जो कमर पर लपेटी साड़ी उतारकर, केवल साया पहने खड़ी थी। कठोर तने हुए स्तनों की निप्पल, राजा की आँखों में देख रही थी। शाकिनी के शरीर का एक भी उभार ऐसा नहीं था, जो द्रश्यमान न हो।!!

शाकिनी ने कामशस्त्र का हाथ पकड़ लिया और नयन से नयन मिलाते हुए कहा..

"प्यारे पुत्र, इस ब्रह्मांड में ऐसा कोई भी नहीं है, जो तुझसे मुझ जैसा स्नेह करता हो। इतने वर्षों से, तुम मेरे प्रमुख आधार बने रहें, खासकर तुम्हारे पिता के निधन के बाद, तुमने मेरी ऐसे देखभाल की है, जैसी कोई पुरुष अपनी स्त्री की करता है, और इस प्रक्रिया में, तूने अपनी युवावस्था के स्वर्णिम काल का भी व्यय कर दिया। काश, तुम्हारी यह बूढ़ी लाचार माँ, इस विषय में कुछ कर पाती..!! परंतु तुम्हें कुछ देने के बजाय मैं आज, तुमसे कुछ मांगने वाली हूँ। अपने लिए नहीं, तुम्हारे मृत पिता की आत्मा के लिए..! क्या तुम उनकी दिवंगत आत्मा की शांति हेतु मेरा साथ दोगे? बताओ पुत्र।!!!" शाकिनी बड़ी ही सावधानी और होशियारी से अपनी चाल चल रही थी

"हाँ माँ, निश्चित रूप से आपकी सहायता करूंगा, ऐसा करना तो हर बेटे का कर्तव्य है। और यह तो मेरा सौभाग्य होगा। आप जो कहेंगे, मैं वही करूँगा। पर वह क्या बात है जिसके बारे में मुझे ज्ञान नहीं है? कृपया बताने का कष्ट कीजिए"

"ठीक है पुत्र। यदि तुम सज्ज और तत्पर हो, तो मैं तुम्हें इस बारे में बताती हूँ। दरअसल, तुम्हारे पिता, एक उच्च कोटि के तांत्रिक थे। अपनी मृत्यु से पहले वह एक पिशाचिनी की साधना कर रहे थे। पिशाचिनी का आह्वान तो हो गया था, परंतु उसे तृप्त नहीं किया जा सका क्योंकि तुम्हारे पिता की असमय मृत्यु हो गई और अनुष्ठान अधूरा रह गया। अब हमें पिशाचिनी को तृप्त कर, उस अनुष्ठान को पूरा करना होगा, ताकि तुम्हारे पिता की आत्मा को मुक्ति मिलें" वासना में अंध हो चुकी शाकिनी ने बताया

विस्मित राजा ने पूछा "परंतु माँ, मुझे उस पिशाचिनी को तृप्त करने के लिए क्या करना होगा??"

शाकिनी को बस इसी पल का तो इंतज़ार था।!!

"पुत्र, मैं उसका आह्वान करूंगी और वह मेरे माध्यम से तुमसे बात करेगी। परंतु एक बात का ध्यान रहें, तुम्हें उसे पूर्णतः संतुष्ट करना होगा और वह जो चाहे उसे करने देना होगा। साधना के माध्यम से, मैंने जाना है, कि वह मेरे शरीर में प्रवेश करना चाहती है। आह्वान होते ही, वह मेरे अंदर प्रविष्ट हो जाएगी, फिर शब्द उसके होंगे और जुबान मेरी होगी। उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने का विचार भी मत करना, अन्यथा तुम्हारे पिता की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी। जो भी करना बड़ी सावधानी से करना। मेरी शुभेच्छा तुम्हारे साथ है " शाकिनी ने आखिर अपना जाल बिछा ही दिया, जिसमे उसका पुत्र फँसता जा रहा था। जैसा वह चाहती थी, वैसा ही हो रहा था। नतमस्तक होकर पुत्र अपनी माता की बात सुनता रहा।

अब दोनों जमीन पर बैठ गए और साधना करने लगे। शाकिनी ने एक दिए को छोड़कर, अन्य सारे दिये और मोमबत्तियाँ बुझा दी। सन्नाटे भरे अंधेरे से कक्ष का वातावरण काफी गंभीर और डरावना सा प्रतीत हो रहा था। कुछ देर बाद, शाकिनी जोर-जोर से रोने लगी, चीखने चिल्लाने लगी और फर्श पर गिर गई। यह केवल एक दिखावा था, अपने पुत्र को जताने के लिए, की पिशाचिनी उसके शरीर में प्रवेश कर चुकी थी।

"माँ, क्या हुआ??" चिंतित कामशस्त्र अपनी माँ के करीब जा बैठा और तब शाकिनी सीधी होकर बैठी और जोर से हंसने लगी। उसने टूटी कर्कश आवाज़ में कहा, "मैं तेरी माँ नहीं हूँ, मूर्ख, मैं एक पिशाचिनी हूँ, जिसका आह्वान तेरे पिता ने किया था।" फिर वह खिलखिलाकर डरावनी हंसी हंसने लगी। अपनी माँ को पिशाचिनी समझकर, कामशस्त्र नमन करते हुए झुक गया।

"हे पिशाचिनी, मैं आपके लिए कर सकता हूं? आप आदेश करें, मैं वहीं करूंगा किन्तु मेरे पिता की आत्मा को मुक्त कीजिए" राजा ने कहा,

शाकिनी मन ही मन प्रसन्न हो रही थी क्योंकि उसे प्रतीत हो गया था की उसके पुत्र को इस नाटक पर विश्वास हो चुका था।

शाकिनी उत्कृष्ट अभिनय कर रही थी और अपने बेटे को मूर्ख बना रही थी। अब वह पिशाचिनी के रूप में, अपनी वासना की आग बुझा सकती थी। लालसा और प्रत्याशा से उसका योनिमार्ग सिकुड़ने-खुलने लगा। वह क्षण आ पहुंची थी की वह अपने पुत्र के साथ संभोग कर सके।

शाकिनी ने गुर्राते हुए कहा "मूर्ख राजा, मेरी बात ध्यान से सुन, तुझे मेरे साथ मैथुन कर मुझे तृप्त करना होगा। यदि तू मुझे प्रभावशाली संभोग से संतुष्ट करने में सफल रहा, तभी मैं तेरे पिता की आत्मा को मुक्त करूंगी..! अन्यथा यदि तू मेरी वासना की भूख की अवज्ञा करेगा या फिर सक्षमता से संभोग कर, मेरी योनि द्रवित नहीं कर पाएगा, तो मैं तेरे पूरे परिवार को नष्ट कर दूँगी। साथ ही तेरी प्रजा को भी"

राजा यह सुनकर स्तब्ध रह गया..!! कंठ से कोई शब्द निकल ही नहीं रहा था। यह पिशाचिनी की बातें उसे भयभीत कर गई। फिर उसने अपने मनोबल को जागृत किया। पिशाचिनी के प्रस्ताव को आदेश मानकर, अचानक उसकी नसों में रक्त, तेजी से बहने लगा..!! परंतु उसका मन अब भी दुविधा में था। आखिर वह शरीर तो उसकी माँ का ही था। कैसे वह अपने जन्म-स्थान में लिंग-प्रवेश कर सकता है?? क्या वह यह घोर पाप कर पाएगा?? राज-दरबार में ऐसे कई प्रसंग आए थे, जब उसने माताओं को अपने पुत्रों से विवाह और संभोग करने की अनुमति दी थी। पर उसने अपनी ही माता के बारे में ऐसी कल्पना, स्वप्न में भी नहीं की थी..!!

अपने पुत्र के मस्तिष्क में चल रहे इस विचार-युद्ध को शाकिनी ने भांप लिया।

उसने कहा "तुझे दूल्हा बनकर और मुझे दुल्हन बनाकर, पवित्र अग्नि के सात फेरे लेने होंगे। मेरी मांग में सिंदूर भरना होगा। उसके पश्चात तुझे मेरे साथ तब तक संभोग करना होगा, जब तक मेरी राक्षसी योनि स्खलित न हो जाए। तभी मैं तेरी माँ का शरीर छोड़ूँगी और तेरे पिता की आत्मा को मुक्त करूंगी" इतना सुनते ही कामशस्त्र की बचीकूची झिझक भी गायब हो गई। अपने माता के शरीर, पिता की आत्मा और प्रजा की कुशलता के लिए, अब उसे आगे बढ़ना ही था।

उसने शाकिनी के शरीर को अपनी मजबूत बाहों में उठाया और उसे बिस्तर पर ले गया। फिर उसके शरीर को सहलाते हुए, उसे दुल्हन के वस्त्रों में सजाया। चोली पहनाते समय जब उसके विराट स्तन दब गए तब शाकिनी सिहर उठी। कितने वर्षों के बाद किसी पुरुष ने उसके स्तनों को दबाया था..!! अपने बेटे की मर्दाना पकड़ से वह चकित हो उठी। उसकी विशाल हथेलियाँ, उन असाधारण भारी स्तनों को पकड़ने के लिए उपयुक्त थे। अपनी माता के स्तनों को हथेलियों से सहारा देते हुए कामशस्त्र पर, उसने मदहोश अदा से लंबे बालों को गिराया। शाकिनी की कमर धनुष की प्रत्यंचा की तरह मूड गई।

कामशस्त्र ने अपनी माता के शरीर को, वस्त्र और आभूषण का उपयोग कर, दुल्हन की तरह सजा दिया। वास्तव में वह अप्सरा जैसी सौंदर्यवती प्रतीत हो रही थी और अपने पुत्र से संभोग करने के लिए व्याकुल हो रही थी।

कामशस्त्र ने दूल्हे के वस्त्र धारण किए और शाकिनी को बिस्तर पर लेटा दिया। बिस्तर पर रेशम की चादर फैली हुई थी और ढेर सारे पुष्प भी थे। कुछ पुष्प तो शाकिनी के स्तनों जितने बड़े थे। फिर पिशाचिनी के रूप में शाकिनी ने अपने पुत्र को बाहों में खींच लिया और जोर से चिल्लाई

"हे जड़बुद्धि, किस बात की प्रतीक्षा कर रहा है? तत्काल मेरे शरीर को ग्रहण कर मूर्ख..!! वासना की आग मुझे जला रही है।" अपनी माता के मुख से ऐसे अश्लील उच्चारण सुनकर कामशस्त्र स्तब्ध हो गया।!! उसने अपनी माँ को कदापि ऐसे शब्द का उपयोग करते नहीं सुना था किन्तु वो समझ रहा था की यह शब्द उसकी माता नहीं, परंतु उसके शरीर में प्रविष्ट पिशाचिनी बोल रही है। अपने पुत्र की इस भ्रांति का दुरुपयोग कर, शाकिनी बोलने की इस निर्बाध स्वतंत्रता का आनंद लेते हुए, नीच से नीच शब्द-प्रयोग करती जा रही थी

"हाँ, मैं वह सब करूँगा जो आप चाहती हैं। कृपया पथ प्रदर्शित करें और बताइए की मुझे आगे क्या करना है " राजा ने डरते हुए पूछा

अब पिशाचिनी ने बेतहाशा अपना सिर दायें-बाएं घुमाया और अपने वस्त्र फाड़ दिए और अपने सुव्यवस्थित बालों को नोचने लगी..!! शाकिनी यह सारी क्रियाएं इसलिए कर रही थी, ताकि उसके पुत्र के मन में एक असली पिशाचिनी की छाप पैदा कर सकें। उसने जानबूझकर अपनी निप्पल वाली जगह से चोली फाड़ दी और साड़ी को कमर तक इस तरह उठा दिया, ताकि उसकी जांघें और योनि के बाल उजागर हो जाएँ।

इस अत्यंत उत्तेजित कर देने वाले नज़ारे को देखते ही, राजा का लिंग कांप उठा। अपनी माँ का शरीर शांत करने के लिए वह नजदीक गया। शाकिनी अभी भी पागलपन करते हुए कांप रही थी..!! शाकिनी के उन्माद को शांत करने के लिए, वह उसके पीछे गया और अपने दोनों हाथों से उसकी नंगी कमर को जकड़ लिया।

अपनी नग्न गोरी त्वचा पर अपने पुत्र के हाथों का यह कामुक स्पर्श, शाकिनी को अत्यंत प्रसन्न कर गया। उसके शरीर में जैसे बिजली सी कौंध गई। शांत होने के बजाय वह ओर तीव्रता से कांपते हुए शरीर हिलाने लगी ताकि उसके पुत्र के स्पर्श का अधिक से अधिक अनुभव कर सकें। वह कामशस्त्र की हथेली को, अपनी पीठ से लेकर पेट तक रगड़ने लगी।

अपनी माँ को शांत करने के लिए उसने अपनी बाहों को, उसके कंधों से लपेट दिया। ऐसा करने से उसकी हथेली और शाकिनी की निप्पलों के बीच की दूरी कम होती गई और जैसे ही उसकी उंगलियों का स्पर्श निप्पलों पर हुआ, शाकिनी अनियंत्रित जुनून से थरथराने लगी। कामशस्त्र ने निःसंकोच होकर दोनों निप्पलों को रगड़ दिया। शाकिनी ने चोली इस तरह फाड़ी थी की उसके दोनों स्तन-चक्र (ऐरोला) उजागर हो गए थे। चोली के उन छेदों से, राजा ने स्तनों की नंगी त्वचा को सहलाना शुरू कर दिया, और उसकी माँ पिशाचिनी होने का ढोंग किए जा रही थी। शाकिनी की हवस और उत्तेजना अब शिखर पर थी।

अचानक वह कर्कश आवाज में चिल्लाई, "यह व्यर्थ क्रियाएं क्यों कर रहा है।!! तूने अपने लिंग को मेरी योनि में अब तक डाला क्यों नहीं? क्या यह करने भी तेरा कोई सेवक आएगा।!!! मूर्ख राजा" चिल्लाते हुए वह उठ खड़ी हुई और अपने सारे वस्त्र उतार फेंकें। साथ ही उसने हिंसक रूप से अपने पुत्र के वस्त्र भी फाड़ दिए। पिशाचिनी के रूप में, सम्पूर्ण नग्न होकर वह अपने पुत्र के चेहरे पर बैठ गईं।

बिस्तर पर लेटे हुए राजा के मुख पर मंडरा रही अपनी माता के जंघा मूल और उसके मध्य में योनि की दरार को देखकर उसे घृणा होने लगी। किन्तु उसे तुरंत ही अपने कर्तव्य की याद आई। अपनी माँ और प्रजा को बचाने और पिता की आत्मा की मुक्ति के लिए उसे यह करना ही होगा..!!

शाकिनी अपनी योनि को राजा की नाक पर रगड़ते हुए उसके मुँह की ओर ले गई। कामशस्त्र को अपनी माँ की योनि से तेज़ मूत्र की गंध आ रही थी (उस काल में गुप्तांगों की स्वच्छता को इतना प्राधान्य नहीं दिया जाता था) उसकी माँ ने कभी गुप्तांग के बालों को नहीं काटा था, इसलिए उनकी लंबाई चार इंच से अधिक हो गई थी।

राजा के चेहरे पर उसकी माँ के योनि के बाल चुभ रहे थे। न चाहते हुए भी, उसे अपना मुख योनिद्वार के करीब ले जाना पड़ा। प्रारंभ में घृणास्पद लगने वाला कार्य, तब सुखद लगने लगा, जब शाकिनी ने अपनी योनि के होंठों को राजा के होंठों पर रख दिया और उसका लंड तुरंत क्रियाशील होकर कठोर हो गया। उसके होंठ यंत्रवत खुल गए और उसकी जीभ शाकिनी की गहरी सुरंग में घुस गई। वही स्थान में, जहां से वह इस दुनिया में आया था। वही स्थान, जिसमे उसके पिता ने संभोग कर, पर्याप्त मात्रा में वीर्य स्खलित कर, उसका सर्जन किया था।

शुरू में योनि का स्वाद उसे नमकीन लगा था किन्तु योनिस्त्राव का रिसाव होते ही, उसे अनोखा स्वाद आने लगा। उसकी जीभ गहरी.. और गहरी घुसती गई। शाकिनी अपने पुत्र द्वारा हो रहे इस मुख-मैथुन का आनंद लेते हुए, खुशी से पागल हो रही थी। इसी परमानंद में, उसने राजा के चेहरे पर अपने कूल्हों को घुमाना शुरू कर दिया और उसके गुदाद्वार का कुछ हिस्सा राजा की जीभ पर रगड़ गया। शाकिनी की कामुकता और प्रबल हो रही थी।

अब तक धीरजपूर्वक सारी क्रियाएं कर रहे राजा के लिए, यह सब असहनीय होता जा रहा था। मन ही मन वह सोच रहा था की यह पिशाचिनी तो वाकई में बेहद गंदी और कुटिल है। इसे तो हिंसक संभोग कर, पाठ पढ़ाना ही चाहिए..!!

धीरे से उसने माँ की चूत से अपना चेहरा हटाया और मातृत्व के प्रतीक जैसे दोनों विराट स्तनों के सामने आ गया। आह्ह।!! कितना अद्भुत द्रश्य था..!! साधना के उन सभी वर्षों में, जब से शाकिनी अपने स्तन खोलकर बैठती थी, तब से राजा की निंद्रा अनियमित हो गई थी। स्वप्न में भी, उसे वह स्तन नजर आते थे। इससे पहले की वह अपने गीले अधरों से, उन उन्मुक्त निप्पलों का पान कर पाता, उसकी हथेलियों ने उन विराट स्तनों को पकड़ लिया। स्तनों पर पुत्र के हाथ पड़ते ही, शाकिनी शांत हो गई। उसे यह स्पर्श बड़ा ही आनंददायी और अनोखा प्रतीत हो रहा था।

राजा ने शाकिनी को अपनी ओर खींचा और उन शानदार स्तनों की निप्पलों को चूसना शुरू कर दिया, शाकिनी अपने पुत्र के बालों में बड़े ही स्नेह से उँगलियाँ फेर रही थी। यह द्रश्य देखने में तो सहज लग सकता था। माता की गोद में लेटा पुत्र स्तनपान कर रहा था। अंतर केवल इतना था की अमूमन बालक स्तनपान कर सो जाता है, पर यहाँ तो माता और उसका बालिग पुत्र, इस क्रिया को, होने वाले संभोग की पूर्वक्रीडा के रूप में देख रहे थे।

शाकिनी अपने पुत्र कामशस्त्र को, अपने अति-आकर्षक अंगों से, लुभा रही थी ताकि वह उसका कामदंड उसकी यौनगुफा में प्रवेश करने के लिए आतुर हो जाएँ..!! राजा कामशस्त्र उन निप्पलों को बारी बारी से, इतने चाव से चूस रहा था की दोनों निप्पलें लार से सन कर चमक रही थी। इतने चूसे-चबाए जाने पर भी, वह निप्पलें तनकर खड़ी थी, जैसे और अधिक प्रहारों के लिए अब भी उत्सुक हो..!! उत्तेजित राजा ने निप्पलों को उंगली और अंगूठे के बीच दबाकर मरोड़ दिया। अब वह धीरे धीरे नीचे की ओर अपना सिर लेकर गया। माता की योनि की तरफ नहीं, पर उसके सुंदर गोरे चरबीदार पेट की ओर। मांसल चर्बी की एक परत चढ़ा हुआ पेट और उसके बीच गहरे कुएं जैसी गोल नाभि, योनि की तरह ही प्रतीत हो रही थी। इतनी आकर्षक, की देखने वाले को अपना लिंग उसमें प्रविष्ट करने के लिए उकसा दें..!!

माता शाकिनी ने भांप लिया की खेल को अंतिम चरण तक ले जाने का समय आ चुका है। हवस और वासना अपने प्रखरता पर थी। दोनों के शरीर कामज्वर से तप रहे थे। वह उठी और बिस्तर पर अपने पैर पसारकर ऐसे बैठ गई, की उसकी बालों से आच्छादित योनि, खुलकर उजागर हो जाएँ। पहले तो उसने योनि के बालों को दोनों तरफ कर मार्ग को खोल दिया और फिर अपने पुत्र को ऊपर लेकर उसके लिंग का दिशानिर्देश करते हुए योनि-प्रवेश करवा दिया। राजा को विश्वास नहीं हो रहा था की उसका लिंग अपनी माता की यौन-गुफा से स्पर्श कर रहा है..!! योनि के होंठों ने, बड़ी ही आसानी से राजा के लिंग को मार्ग दिया और उसने अपनी कमर को हल्का सा धक्का दिया। यह वही स्थान था जहां उसका गर्भकाल व्यतीत हुआ था..!! इसी स्थान ने फैलकर, उसे इस सृष्टि में जन्म दिया था..!! और अब उसका पौरुषसभर लिंग, उत्तेजना और आनंद की तलाश में उसे छेद रहा था। उसका लिंग-मुंड(सुपाड़ा), योनि मार्ग की इतनी गहराई तक पहुँच चुका था, उसका एहसास तब हुआ, जब उसकी माता के मुख से दर्द और आनंद मिश्रित सिसकारी निकल गई..!! किन्तु जब उसने अपनी माँ के चेहरे की ओर देखा, तब उसे अब भी पिशाचिनी की वही हिंसक अश्लीलता नजर आ रही थी। शाकिनी अत्यंत कुशलता से उत्तेजित पिशाचिनी की आड़ में अपनी कामाग्नि तृप्त कर रही थी।

राजा अपनी कमर को आगे पीछे करते हुए संभोग में प्रवृत्त हो रहा था। इस बात की अवज्ञा करते हुए की जिस योनि को उसका लिंग छेद रहा था, वह उसकी माता की थी।!! शाकिनी की यौनगुफा को वर्षों के बाद कोई लिंग नसीब हुआ था। खाली पड़े इस गृह में, नए मेहमान के स्वागत के लिए, योनि की दीवारों ने रसों का स्त्राव शुरू किया और आगंतुक को उस शहद की बारिश से भिगोने लगी। उस अतिथि को, जो आज रात, लंबी अवधि तक यही रहने वाला था..!! राजा के धक्कों का अनुकूल जवाब देने के लिए, शाकिनी भी अपनी जांघों और कमर से, लयबद्ध धक्के लगाने लगी। दोनों के बीच ऐसा ताल-मेल बैठ गया था जैसे किसी संगीत-संध्या में सितारवादक और तबलची के बीच जुगलबंदी चल रही हो।!!

अब शाकिनी ने राजा की दोनों हथेलियों को पकड़कर, दोनों स्तनों पर रख दिया ताकि संभोग के धक्के लगाते वक्त उसे आधार मिलें। अपनी माता के स्तनों को मींजते हुए और योनि में दमदार धक्के लगाते हुए, राजा को अजीब सी घबराहट और हल्की सी हिचकिचाहट अनुभवित हो रही थी। बालों वाली उस खाई के अंदर-बाहर हो रहे लिंग को, स्वर्गीय अनुभूति हो रही थी। पूरा कक्ष, योनि और लिंग के मिलन तथा दोनों की जंघाओं की थपकियों की सुखद ध्वनि से गूंज रहा था। वातावरण में यौन रसों की मादक गंध भी फैल रही थी।

पुत्र द्वारा माता की योनि का कर्तव्यनिष्ठ संभोग, शाकिनी को आनंद के महासागर में गोते खिला रहा था। कामशस्त्र का लिंग-मुंड, योनि के अंदर, काफी विस्तृत होकर फुल चुका था। राजा ने अपनी माता की आँखों में देखा, किन्तु वह लिंग के अंदर बाहर होने की प्रक्रिया से परमानन्द को अनुभवित करते हुए, आँखें बंद कर लेटी हुई थी। एक पल के लिए, शाकिनी यह भूल गई, कि उसे पिशाचिनी के रूप में ही अभिनय करना था और आनंद की उस प्रखरता में, वह बोल पड़ी..

"अत्यंत आनंद आ रहा है मुझे, पुत्र..!! इस विषय में तुम्हें इतना ज्ञान कैसे है..!! तुम्हारी यह काम क्रीड़ाएं, मुझे उन्मत्त कर रही है..!! आह्ह!! और अधिक तीव्रता से जोर लगाओ.. तुम्हारे शक्तिशाली लिंग से आज मेरी आग बुझा दो..!! मेरी योनि की तड़प अब असहनीय हो रही है.. पर मुझे अत्याधिक प्रसन्नता भी हो रही है। ओह्ह..!!" शाकिनी यह भूल गई थी की ऐसा बोलने से, यह साफ प्रतीत हो रहा था की यह पिशाचिनी नहीं, पर राजा की माता, शाकिनी बोल रही थी..!! पर राजा इस समय कामलीला में इतना मग्न था, की उसे इस बात का एहसास तक नहीं हुआ।

राजा अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर, योनि में धक्के लगाए जा रहा था। हर धक्के के साथ, उसकी तीव्रता और जोर भी बढ़ रहा था। जब राजा ने माता शाकिनी के दोनों विराट स्तनों को बड़े जोर से भींचते हुए शानदार धक्के लगाए, तब शाकिनी विचार करने की शक्ति खो बैठी और जोर से चिल्लाई "ओह मेरे प्रिय पुत्र! मेरे राजा..!! बस इसी तरह धक्के लगाते हुए मुझे स्वर्ग की अनुभूति करा। मेरी योनि को चीर दे। निचोड़ दे इसे। अपनी भूखी माता को संतुष्ट करने का कर्तव्य निभा.. आह्ह..!!"

शाकिनी की कराहें जब चीखो में परिवर्तित हुई तब राजा को तत्काल ज्ञान हुआ..!! यह शब्द तो उसकी माता के है..!! पिशाचिनी के बोलने का ढंग तो भिन्न था।!! संभवतः वह पिशाचिनी, उसकी माता के शरीर का त्याग कर चुकी थी। तो क्या वास्तव में उसकी माता ही आनंद की किलकारियाँ लगा रही थी???

शाकिनी परमानन्द की पराकाष्ठा पर पहुंचकर स्खलित हो रही थी और साथ ही साथ पिशाचिनी का अभिनय करने का व्यर्थ प्रयत्न भी कर रही थी पर अब यह दोनों के लिए स्पष्ट हो चुका था की उसका अभिनय अब राजा के मन को प्रभावित नहीं कर रहा था।

स्खलित होते हुए उत्तेजना से थरथराती शाकिनी की योनि से पुत्र कामशस्त्र ने अपना विशाल लिंग बाहर खींच लिया। पूरा लिंग उसकी माता के कामरस से लिप्त होकर चमक रहा था। उसने शाकिनी से पूछा "माँ, क्या आप कुशल है? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है की पिशाचिनी आपका देह त्याग चुकी है। आप मुझे पुत्र कहकर संबोधित कर रही थी जब की वह पिशाचिनी तो मुझे अनुचित नामों से ही बुलाती थी..!! जब आपने मुझे पुत्र कहकर संबोधित किया, तभी मैं समझ गया और अपना लिंग बाहर निकाल लिया..!!" यह कहते हुए राजा ने देखा की उसका लिंग-मुंड, जो माता शाकिनी के योनिस्त्राव से लेपित था, वह अब भी योनिमुख के निकट था। जबरदस्त संभोग के कारण, शाकिनी का योनिमार्ग अब भी खुला हुआ था और थरथरा रहा था..!!

शाकिनी को यह प्रतीत हुआ की अब सत्य को अधिक समय तक अपने पुत्र से छुपाने का अर्थ नहीं है..!! उत्तेजना की चरमसीमा पर, उससे अभिनय करने में चूक हो गई और अब वह अपने पुत्र को और भ्रमित करने की स्थिति में नहीं थी। शाकिनी ने उलटी दिशा में एक करवट ली और बोली "हाँ मेरे पुत्र। पिशाचिनी मेरे देह को त्याग चुकी है। पर जाते जाते, वह मेरे शरीर में, प्रचुर मात्रा में कामवासना छोड़ गई है। तुम से विनती है, की इस सत्य की अवज्ञा कर तुम अपना कार्य जारी रखो, अन्यथा यह असंतोष की भावना, मेरे प्राण हर लेगी।!! मुझे यह ज्ञात है, की जो मैं तुमसे मांग रही हूँ वह उचित नहीं है, किन्तु अपनी विधवा वृद्ध माता के सुख के लिए, क्या तुम इतना नहीं कर सकते? मैं अंतिम निर्णय तुम पर छोड़ती हूँ। इस आशा के साथ की तुम मेरी यह इच्छा पूर्ण करोगे। यदि तुम्हें अब भी मेरा देह सुंदर और आकर्षक लगता हो तो।!!"

इतना कहकर, शाकिनी शांत हो गई और अपने पुत्र के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी।!! शाकिनी करवट लेकर कामशस्त्र की विरुद्ध दिशा में लेटी हुई थी ताकि सत्य उजागर करते समय, पुत्र की नज़रों का सामना न करना पड़े।

अपने पुत्र से की वह प्रार्थना आखिर सफल हुई। यह उसे तब प्रतीत हुआ जब उसकी योनि की मांसपेशियाँ फिर से विस्तृत हुई और एक जीवंत मांस का टुकड़ा, अंदर प्रवेश करते हुए योनि की दीवारों को चौड़ी करने लगा..!! इस अनुभूति से शाकिनी आनंद से कराह उठी..!! चूंकि वह कामशस्त्र की विरुद्ध दिशा में करवट लेकर लेटी थी इसलिए उसे यह पता ही न चला की कब उसके पुत्र ने, माता के दोनों नितंबों को हथेलियों से चौड़ा कर, योनिमार्ग को ढूंढकर अपना लिंग अंदर प्रवेश कर दिया..!!

लिंग को तीव्रता से आगे पीछे करते हुए वह अपने हाथ आगे की दिशा में ले गया और माता के स्तनों को दोनों हथेलियों से जकड़ लिया..!! यह स्थिति उसे और अधिक बल से धक्के लगाने में सहायक थी..!! शाकिनी के आनंद की कोई सीमा न रही..!!

"मेरे प्रिय राजा। आज मैं स्वयं को, ब्रह्मांड की सबसे भाग्यशाली स्त्री और माता समझती हूँ..!!" शाकिनी ने गर्व से कहा

राजा ने प्रत्युतर में कहा "हे माता, मैं आपसे इतना स्नेह करता हूँ की आज के पश्चात मैं आपको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूँ"

यह सुन, शाकिनी ने चिंतित स्वर में कहा "परंतु हमारा समाज और प्रजाजन, प्रायः इस संबंध को स्वीकार नहीं करेंगे। मेरे सुझाव है की हम अपना यह संबंध गुप्त रखें। यहाँ महल की चार दीवारों की सुरक्षा के बीच हम पति-पत्नी बने रह सकते है"

"समाज और प्रजाजनों की प्रतिक्रिया की चिंता मुझे नहीं है। मैं एक राजा हूँ, मेरे वचन ही नियम है। मेरी इच्छाएं कानून का पर्याय है। मैं यह घोषणा करता हूँ, की माता और पुत्र के वैवाहिक और शारीरिक संबंधों को वैद्य माना जाए और ऐसे संबंध स्थापित करने के लिए किसी की भी अनुमति की आवश्यकता न हो"

अपने पुत्र के इस निर्णय से प्रभावित होते हुए शाकिनी ने कहा "अब से मैं तुम्हारी पत्नी हूँ। मैं तुम्हारे वीर्य से गर्भधारण करना चाहती हूँ। तुम्हारी संतान को अपने गर्भ में जनना चाहती हूँ"

अति-उल्लास पूर्वक राजा ने कहा "हे माता। मेरी भार्या.. यह तो अति-सुंदर विचार है। पति और पत्नी के रूप में, हमारे प्रेम के प्रतीक रूप, मैं अपना पुष्ट वीर्य तुम्हारे गर्भाशय में प्रस्थापित करने के लिए उत्सुक हूँ..!!" राजा के मन में, उभरे हुए उदर वाली शाकिनी की छवि मंडराने लगी.. जो उनके संतान को, अपने गर्भ में पोषित कर रही हो.. इस कल्पना मात्र से ही वह रोमांचित हो उठा, की आने वाले समय में, उसकी माता गर्भवती होगी और उस दौरान वह उसके संग भरपूर संभोग कर पाएगा..!! माता-पुत्र से पति-पत्नी तक परिवर्तन की इस स्थिति पर उसे गर्व की अनुभूति हो रही थी।

शाकिनी भी उस विचार से अत्यंत रोमांचित थी की उसका पुत्र अपना बीज उसके गर्भाशय में स्थापित करने के लिए तत्पर था। एक शिशु, जिसका सर्जन, ऐसे माता और पुत्र मिलकर करेंगे, जो अब पति और पत्नी के अप्रतिबंधित संबंध से जुड़ गए थे। वह मन ही मन, उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगी, जब उसकी योनि फैलकर, उनकी संतान को जन्म देगी। उसके स्तन, गाढ़े दूध से भर जाएंगे.. और फिर उसी दूध से, वह उस शिशु तथा अपने स्वामी रूपी पुत्र का, एक साथ पोषण करेगी।

अब राजा ऐसे पथ पर पहुँच चुका था जहां से पीछे मुड़ने का कोई मार्ग न था। उसके अंडकोश में वीर्य घौल रहा था और वह जानता था की अब अपनी माता के गर्भ में उस वीर्य को पर्याप्त मात्रा में स्खलित करने का समय आ गया था। उसने शाकिनी की योनि में गहराई तक धक्का लगाया.. और उसके लिंग से, जैसे वीर्य का विस्फोट हुआ..!! उपजाऊ वीर्य की अनगिनत चिपचिपी बौछारों ने शाकिनी के गर्भ को पूर्णतः भर दिया। उसी वीर्य का कोई एक शुक्राणु, शाकिनी के अँड से मिलन कर, नए जीव की उत्पत्ति करने वाला था।

शाकिनी अपने योनि मार्ग की गहराई में, पुत्र के गर्म वीर्य को महसूस करते हुए चीख पड़ी "ओह मेरे राजा..!! तुमने मुझे आज पूर्णता का अनुभव दिया है। वचन देती हूँ, की मैं एक आदर्श पत्नी बनकर तुम्हें खुश और संतुष्ट रखूंगी तथा अपने इस संतान का निर्वाह करूंगी, जिसका हमने अभी अभी निर्माण किया है"

उस पूरी रात्री, दोनों के बीच घमासान संभोग होता रहा।

दूसरे दिन, राजा कामशस्त्र ने राजदरबार में यह ऐलान किया की वह अपनी माता को पत्नी के रूप में स्वीकार करता है क्योंकि उनके उपयुक्त कोई भी पुरुष अस्तित्व में नहीं था। शाकिनी से विवाह के पश्चात, राजा कामशस्त्र ने यह कानून का निर्माण किया, जिसके तहत, हर पुत्र का, अपनी माता के शरीर पर अधिकार होगा। पुत्र की अनुमति के बगैर, माता अपने स्वामी से भी संभोग नहीं कर पाएगी।

इस नए कानून के परिणाम स्वरूप, वैतालनगर की उस रियासत में, ऐसे असंख्य बालकों ने जन्म लिया, जो कौटुंबिक व्यभिचार से उत्पन्न हुए। राजा कामशस्त्र और शाकिनी के शारीरिक संबंधों ने भी, एक पुत्री को जन्म दिया, जिसे नाम दिया गया योनिप्रभा।

कामशस्त्र और शाकिनी के निधन के पश्चात, योनिप्रभा की पीढ़ी दर पीढ़ी से उत्पन्न होती संतानें, आज भी प्रदेश के कई प्रांतों में, अस्तित्व में होगी।

योनिप्रभा उस बात का प्रमाण थी की एक पुत्र ने अपनी माता के गर्भ में, अपना बीज स्थापित कर, उसका निर्माण किया था। एक ऐसे घोर पाप के परिणाम से, जो क्षमायोग्य ही नहीं है।!!

॥ पांडुलिपि की अंतिम गाथा का अनुवाद ॥

दोष रहे दोष ही, इच्छा जो कहो

पतन के दोष जो छिपे न छुपते

जल-स्नान किए न पातक मिटते

सहज बनाने की कोशिश व्यर्थ

कुंठित बुद्धि जो करें अनर्थ

प्रिय पाठक गण, कथा पढ़ने के पश्चात, आप लोगों का क्या प्रतीत हुआ? क्या यह पिशाचिनी के श्राप का परिणाम था, जिसने माता और पुत्र के विचारों को दूषित कर, उन्हें इस पापी मार्ग पर धकेल दिया?? या वह दोनों स्वयं ही, अपनी शारीरिक इच्छाओं को समर्पित हो गए थे?? अपने प्रतिभाव व विचार अवश्य प्रकट करें..


॥ समाप्त ॥
 
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Adirshi भाई, आकाश की id को क्या हुआ है भाई?
 

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