"कामवासना क्या है क्यू है "
कभी कभी इस जगत को देख कर लगता है जेसे ये सारा जगत ही संभोगरत है भोग और सम्भोग से परमात्मा भी राज़ी दिखाई देता है ,
शायद इसलिए की भोग से हम जिंदा रहते हैं और सम्भोग से संसार …….
लेकिन फिर हम इसको इतना बुरा क्यूँ मानते हैं …
क्या कामवासना बुरी है ?
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वासना स्वाभाविक है।
प्रकृति की भेंट है।
परमात्मा का दान है।
वासना अपने—आप में बिल्कुल स्वस्थ है।
वासना के बिना जी ही न सकोगे, एक क्षण न जी सकोगे।
सच तो यह है, संसार के पुराने से पुराने शास्त्र एक बात कहते हैं : परमात्मा अकेला था। उसके मन में वासना जगी कि मैं दो होऊं, इससे संसार पैदा हुआ। परमात्मा में भी वासना जगी कि मैं दो होऊं, कि मैं अनेक होऊं, कि मैं फैलूं, विस्तीर्ण होऊं, तो संसार पैदा हुआ!
हम परमात्मा की ही वासना के हिस्से हैं, उसकी ही वासना की किरणें हैं।
इसलिए पहली बात : वासना स्वाभाविक है। वासना प्राकृतिक है, नैसर्गिक है। वासना बुरी नहीं है, पाप नहीं है।
जिन्होंने तुमसे कहा वासना पाप है, वासना बुरी है, वासना से बचो, वासना से हटो, वासना से भागो, वासना को दबाओ, काटो, मारो— —उन्होंने वासना को रुग्ण कर दिया। दबाई गई वासना रुग्ण हो जाती है। जो भी दबाया जाएगा वही जहर हो जाता है। दबने से मिटता तो नहीं, भीतर— भीतर सरक जाता है। उसकी सहज प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, क्योंकि तुम उसे प्रकट नहीं होने देते। वह फिर असहज रूप से प्रकट होने लगता है। और असहज रूप से जब वासना प्रकट होती है, तो विकृति, तो रोग, तो रुग्ण। तो तुमने एक सुंदर कुरूप कर डाला।
वासना तो परमात्मा की दी हुई है, विकृति तुम्हारे महात्माओं की दी हुई है। महात्माओं से सावधान! अपने परमात्मा को महात्माओं से बचाओं। तुम्हारे महात्मा परमात्मा के एकदम विपरीत मालूम होते हैं। और तुम्हें यह समझ में आ जाए कि तुम्हारे महात्मा परमात्मा के विपरीत है; तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए कि जो परमात्मा ने दिया है स्वाभाविक, सरल, जो जीवन का आधार है, उसे नष्ट करने में लग हैं— —तो तुम्हारे जीवन से रुग्णता समाप्त हो जाएगी, वासना का रोग विलीन हो जाएगा, विकृति विदा हो जाएगी।
समझो। कामवासना है। स्वाभाविक है। तुमने पैदा नहीं की है। जन्म के साथ मिली है। जीवन का अंग है। अनिवार्य अंग है। तुम्हारे मां और पिता को कामवासना न होती तो तुम न होते। इसलिए शास्त्र ठीक ही कहते हैं कि परमात्मा में वासना उठी होगी, तभी संसार हुआ। तुम्हारे मां और पिता में वासना न उठती तो तुम न होते। तुममें वासना उठेगी तो तुम्हारे बच्चे होंगे।
यह जो जीवन की श्रंखला चल रही है, यह जो जीवन का सातत्य है, यह जो जीवन की सरिता बह रही है, इसके भीतर जल वासना का है।
वासना बुरी नहीं हो सकती, क्योंकि जीवन बुरा नहीं है। जीवन प्यारा है, अति सुंदर है। लेकिन वासना को दबाने में लग जाओ— — और विकृति शुरू हो जाती है। वासना के ऊपर चढ़कर बैठ जाओ, उसकी छाती पर बैठ जाओ, उसको प्रकट न होने दो, उसको दबाओ, काटो, छांटो, कि बस फिर विकृति शुरू होती है। फिर अड़चन शुरू होती है। फिर वासना ऐसे ढंग से प्रकट होने लगती है, जो कि स्वाभाविक नहीं है।
जैसे : एक सुंदर स्त्री को देखकर तुम्हारे मन में अहोभाव का पैदा होना जरा भी अशस्त्र नहीं है। सुंदर फूल को देखकर तुम्हारे मन में अगर यह भाव उठता है सुंदर है, तो कोई पाप तो नहीं है। चांद को देखकर सुंदर है, तो पाप तो नहीं है। तो मनुष्य के साथ ही भेद क्यों करते हो? सुंदर स्त्री, सुंदर पुरुष को देखकर सौंदर्य का बोध होगा। होना चाहिए। अगर तुममें जरा भी बुद्धिमत्ता है तो होगा। अगर बिल्कुल जड़बुद्धि हो तो नहीं होगा।
इसलिए सौंदर्य के बोध में तो कुछ बुराई नहीं है, लेकिन तत्क्षण तुम्हारे भीतर घबड़ाहट पैदा होती है कि पाप हो रहा है; मैंने इस स्त्री को सुंदर माना, यह पाप हो गया, कि मैने कोई अपराध कर लिया। अब तुम इस भाव को दबाते हो। तुम इस स्त्री की तरफ देखना चाहते हो और नहीं देखते। अब विकृति पैदा हो रही है। अब तुम और बहाने से देखते हो, किसी और चीज को देखने के बहाने से देखते हो। तुम किस को धोखा दे रहे हो? या तुम भीड़ में उस स्त्री को धक्का मार देते हो। यह विकृति है। या तुम बाजार से गंदी पत्रिकाएं खरीद लाते हो, उनमें नग्न स्त्रियों के चित्र देखते हो। यह विकृति है।
और यह विकृति बहुत भिन्न नहीं है— — जो तुम्हारे ऋषि— मुनियों को होती रही। तुमने कथाएं पढ़ी हैं न, कि ऋषि ने बहुत साधना की और साधना के अंत में अप्सराएं आ गईं आकाश से। उर्वश आ गई और उसके चारों तरफ नाचने लगी। पोरनोग्रेफी नई नहीं है। ऋषि— मुनियों को उसका अनुभव होता रहा है। वह सब तरह की अश्लील भाव— भंगिमाएं करने लगी ऋषि — मुनियों के पास।
अब किस अप्सरा को पड़ी है ऋषि— मुनि के पीछे पड़ने की! ऋषि— मुनियों के पास, बेचारों के पास है भी क्या, कि अप्सराएं उनको जंगल में तलाश जाएं और नग्न होकर उनके आस— पास नाचे! सच तो यह है कि ऋषि — मुनि अगर अप्सराओं के घर भी दरवाजे पर जाकर खड़े रहते तो क्यू में उनको जगह न मिलती। वहां पहले से ही लोग राजा — महाराजा वहां खड़े होते। ऋषि — मुनियों को कौन घुसने देता? मगर कहानियां कहती हैं कि ऋषि— मुनि अपने जंगल में बैठे हैं — — आंख बंद किए, शरीर को जला कर, गला कर, भूखे— प्यासे, व्रत — उपवास किए हुए — — और अप्सराएं उनकी तलाश में आती हैं।
ये अप्सराएं मानसिक हैं। ये उनके मन की दबी हुई वासनाएं हैं। ये कहीं हैं नहीं। ये बाहर नहीं है। यह प्रक्षेपण है। यह स्वप्न है। उन्होंने इतनी बुरी तरह से वासना को दबाया है कि वासना दबते— दबते इतनी प्रगाढ़ हो गई है कि वे खुली आंख सपने देखने लगे हैं, और कुछ नहीं। हैल्यूसिनेशन है, संभ्रम है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, किसी आदमी को ज्यादा दिन तक भूखा रखा जाए तो उसे भोजन दिखाई पड़ने लगता है। और किसी आदमी को वासना से बहुत दिन तक दूर रखा जाए तो उसकी वासना का जो भी विषय हो वह दिखाई पड़ने लगता है। भ्रम पैदा होने लगता है। बाहर तो नहीं है, वह भीतर से ही बाहर प्रक्षेपित कर लेता है। ये ऋषि— मुनियों के भीतर से आई हुई घटनाएं हैं, बाहर से इनका कोई संबंध नहीं है। कोई इंद्र नहीं भेज रहा है। कहीं कोई द्वंद्व नहीं है और न कहीं उर्वशी है। सब इंद्र और सब उर्वशिया मनुष्य के मन के भीतर का जाल हैं।
तो तुम अगर कभी यह सोचते हो कि जंगल में बैठने से उर्वशी आएगी, भूल से मत जाना, कोई उर्वशी नहीं आती। नहीं तो कई ऋषि—मुनि इसी में हो गए हों, बैठे हैं जंगल में जाकर कि अब उर्वशी आती होगी, अब उर्वशी आती होगी! उर्वशी तुम पैदा करते हो, दमन से पैदा होती है। यह विकृति है। इस स्थिति को मैं मानसिक विकार कहता हूं। यह कोई उपलब्धि नहीं है। यह विक्षिप्तता है। यह है वासना की रुग्ण दशा।
तुम्हारे भीतर जो स्वाभाविक है, उसको सहज स्वीकार करो। और सहज स्वीकार से क्रांति घटती है। जल्दी ही तुम वासना के पार चले जाओगे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वासना में सदा रहोगे। लेकिन पार जाने का उपाय ही यही है कि उसका सहज स्वीकार कर लो। दबाना मत, अन्यथा कभी पार न जाओगे। उर्वशिया आती ही रहेंगी।
तुमने देखा कि चूंकि पुरुषों ने ही ये शास्त्र लिखे हैं, इसलिए उर्वशियां आती हैं। स्त्रियां अगर शास्त्र लिखतीं और स्त्रियां अगर साधनाएं करती जंगलों में, पहाड़ों में, तुम क्या समझते हो उर्वशी आती? स्वयं इंद्र आते। तब उनकी कहानियों में उर्वशी इंद्र को भेजती, क्योंकि उर्वशी से काम नहीं चल सकता था। जो तुम्हारी वासना का विषय है वही आएगा। उन्होंने अप्सराएं नहीं देखी होती, उन्होंने देखे होते कि चलो हिंदकेसरी चले आ रहे हैं, कि विश्व— विजेता मुहम्मद अली चले आ रहे हैं। स्त्रियां देखती उस तरह के सपने कि कोई अभिनेता चला आ रहा है। कल्पना है तुम्हारी।
मनुष्य वासना के पार निश्चित जा सकता है, जाता है। जाना चाहिए। मगर वासना से लड़कर कोई वासना के पार नहीं जाता। जिससे तुम लड़ोगे उसी में उलझे रह जाओगे। दुश्मनी सोच—समझ लेना, क्योंकि जिससे तुम दुश्मनी लोग उसी जैसे हो जाओगे। यह राज की बात समझो। मित्रता तो तुम किसी से भी करो तो चल जाएगी, मगर दुश्मनी बहुत सोच—समझकर लेना, क्योंकि दुश्मन से हमें लड़ना पड़ता है। और जिससे हमें लड़ना पड़ता है, हमें उसी की तकनीक, उसी के उपाय करने पड़ते हैं।
हिटलर से लड़ते वक्त चर्चिल को हिटलर जैसा ही हो जाना पड़ा। इसके सिवाए कोई उपाय न था। जो धोखा— धड़ी हिटलर कर रहा था वहीं चर्चिल को करनी पड़ी। हिटलर तो हार गया, लेकिन हिटलरवाद नहीं हारा। हिटलरवाद जारी है। जो—जो हिटलर से लड़े वही हिटलर जैसे हो गए। जीत गए, मगर जब तक जीते तब तक हिटलर उनकी छाती पर सवार हो गया।
जिससे तुम लड़ते हो, स्वभावत : उसके जैसा ही तुम्हें हो जाना पड़ेगा। लड़ना है तो उसके रीति—रिवाज पहचानने होंगे, उसके ढंग—ढौल पहचानने होंगे, उसकी कुंजिया पकड़नी होंगी, उसके दांव—पेंच सीखने होंगे। उसी में तो तुम उस जैसे हो जाओगे।
दुश्मन बड़ा सोचकर चुनना। वासना को अगर दुश्मन बनाया तो तुम धीरे— धीरे वासना के दलदल में ही पड़ जाओगे, उसी में सह जाओगे।
वासना दुश्मन नहीं है। वासना प्रभु का दान है। इससे शुरू करो। इसे स्वीकार करो। इसको अहोभाव से, आनंद—भाव से अंगीकार करो। और इसको कितना सुंदर बना सकते हो, बनाओ। इससे लड़ो मत। इसको सजाओ। इसे श्रृंगार दो। इसे सुंदर बनाओ। इसको और संवेदनशील बनाओ। अभी तुम्हें स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है, अपनी वासना को इतना संवेदनशील बनाओ कि स्त्री के सौंदर्य में तुम्हें एक दिन परमात्मा का सौंदर्य दिखाई पड़ जाए। अगर चांदत्तारों में दिखता है तो स्त्री में भी दिखाई पड़ेगा। पड़ना ही चाहिए। अगर चांद तारों में है तो स्त्री में क्यों न होगा? स्त्री और पुरुष तो इस जगत की श्रेष्ठतम अभिव्यक्तियां है। अगर फूलों में है——गूंगे फूलों में——तो बोलते हुए मनुष्यों में न होगा? अगर पत्थर पहाड़ों में है——जडु पत्थर—पहाड़ो में ——तो चैतन्य मनुष्य में न होगा… संवेदनशील बनाओ।
वासना से भगो मत। वासना से डरो मत। वासना को निखारो, शद्ध करो। यही मेरी पूरी प्रक्रिया है जो मैं यहां तुम्हें दे रहा हूं। वासना को शद्ध करो, निखारो। वासना को प्रार्थनापूर्ण करो। वासना को ध्यान बनाओ। और धीरे—धीरे तुम चमत्कृत हो जाओगे कि वासना ही तुम्हें वहां ले आयी, जहां तुम जाना चाहते थे वासना से लड़कर और नहीं जा सकते थे।
प्रेम करो। प्रेम से बचो मत। गहरा प्रेम करो! इतना गहरा प्रेम करो कि जिससे तुम प्रेम करो, वहीं तुम्हारे लिए परमात्मा हो जाए। इतना गहरा प्रेम करो! तुम्हारा प्रेम अगर तुम्हारे प्रेम—पात्र को परमात्मा न बना सके तो प्रेम ही नहीं है, तो कहीं कुछ कमी रह गई। तुम्हारे महात्मा कहते हैं कि प्रेम के कारण तुम परमात्मा को नहीं पा रहे हो। मैं तुमसे कहता हूं : प्रेम की कमी के कारण तुम परमात्मा को नहीं पा रहे हो। इस भेद को समझ लेना। इसलिए अगर तुम्हारे महात्मा मुझसे नाराज हैं तो बिल्कुल स्वाभाविक है। अगर मैं सही हूं तो वे सब नाराज होने ही चाहिए।
मैं कह रहा हूं : प्रेम तुममें कम है, इसलिए महात्मा तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हारी वासना बड़ी अधूरी है, अपंग है। तुम्हारी वासना को पंख नहीं है। पंख दो! तुम्हारी वासना को उड़ना सिखाओ! तुम्हारी वासना जमीन पर सरक रही है। मैं कहता हूं: वासना को आकाश में उड़ना सिखाओ।
परमात्मा अगर वासना के द्वारा संसार में उतरा है, तो तुम वासना की ही सीढ़ी पर चढ़कर परमात्मा तक पहुंचोगे, क्योंकि जिस सीढ़ी से उतरा जाता है उसी से चढ़ा जाता है। फिर तुम्हें दोहरा कर कह दूं। पुराने शास्त्र कहते हैं : परमात्मा में वासना जगी कि मैं अनेक होऊं। अकेला—अकेला थक गया होगा। तुम भीड़ से थक गए हो, वह अकेला—अकेला थक गया था। वह उतरा जगत में। तुम भीड़ से थक गए हो, अब तुम वापिस एकांत पाना चाहते हो, मोक्ष पाना चाहते हो, कैवल्य पाना चाहते हो, ध्यान—समाधि पाना चाहते हो। चढ़ो उसी सीढ़ी से, जिससे परमात्मा उतरा।
तुम जिस रास्ते से चलकर मुझ तक आए हो, घर जाते वक्त उसी रास्ते से लौटोगे न! तुम यह तो नहीं कहोगे कि इस रास्ते से तो हम अपने घर से दूर गए थे, इसी रास्ते पर हम कैसे अपने घर के पास जाएं, यह तो बड़ा तर्क विपरीत मालूम पड़ता है। नहीं; तुम जानते हो कि तर्क विपरीत नहीं है। जो रास्ता यहां तक लाया है, वहीं तुम्हें घर वापस ले जाएगा; सिर्फ दिशा बदल जाएगी, चेहरा बदल जाएगा। अभी यहां आते वक्त मेरी तरफ मुंह था, जाते वक्त मेरी तरफ पीठ हो जाएगी। आते वक्त घर की तरफ पीठ थी, जाते वक्त घर की तरफ मुंह हो जाएगा। बस इतना—सा रूपांतरण। विरोध नहीं, वैमनस्य नहीं, दमन नहीं, जबर्दस्ती नहीं, हिंसा नहीं।
अपने भीतर कभी झांकने पर मुझ लगा है कि मेरी अनेक वासनाएं रुग्ण हैं। देखना, उनका विश्लेषण करना। जो—जो वासनाएं रुग्ण हों, समझ लेना। खोज करोगे, अनुभव में भी आ जाएगा। वे वे ही वासनाएं हैं, जिन—जिनको तुमने दबाया है या जिन— जिनको तुम्ह सिखाया गया है दबाओ। वे रुग्ण हो गई हैं। उन्हें अभिव्यक्ति का मौका नहीं मिला। ऊर्जा भीतर पड़ी—पड़ी सह गई है। ऊर्जा को बहने दो।
झरने रुक जाते हैं तो सह जाते हैं। नदी ठहर जाती है तो गंदी हो जाती है। स्वच्छता के लिए नीर बहता रहना चाहिए। बहते नीर बनो! पानी बहता रहे। बहाव को अवरुद्ध मत करो। नहीं तो तुम बीमार वासनाओं से घिर जाओगे। और बीमार वासनाएं हों तो आत्मा स्वस्थ नहीं हो सकती। वे बीमार वासनाएं आत्मा के गले में पत्थर की चट्टानों की तरह लटकी रहेंगी; आत्मा उठ नहीं सकती आकाश में। वे बीमार वासनाएं घाव की तरह होंगी। उनसे मवाद रिसती रहेगी।
क्रमश :
ओशो रजनीश द्वारा कामवासना के शोध
मेरे पास एक व्यक्ति आया , ” उसके सुन्दर जिस्म पे उसका मुरझाया चेहरा ऐसा ही था जैसे बिना मूर्ति का मंदिर ”
मैंने उसे अन्दर आने का निमंत्रण दिया वो अन्दर आया मैंने उसे ” ” चाय पानी पूंछा ” लेकिन उसने मना करते हुए कहा
मैं आपके पास एक समस्या लेकर आया हूँ मेरे एक मित्र ने मुझे आप के पास भेजा है और कहा है की वो तुम्हारी समस्या का समाधान कर सकते हैं
” फिर झिझकते हुए ” लेकिन मैं आप से कैसे कहू मैं समझ नहीं पा रहा हूँ ,
अब कहना तो आपको पड़ेगा ही
क्यूंकि मौन संवाद में मैं अभी निपुण नहीं हो पाया हूँ – मैंने उससे हल्का करते हुए कहा |
थोड़ी देर शांत रहने के बाद वो बोला – मेरी उम्र ३८ साल है मैं पेशे से वकील हूँ लेकिन मैं
काम-वासना से ग्रसित हूँ
मैं हरवक्त काम के विषय में सोंचता रहता हूँ मुझे इससे मुक्त होना है मैं काम से मुक्त होना चाहता हूँ मुझे मार्ग बताए ….
मैंने उसकी बातो को सुना फिर मैंने उससे कहा ,, ” मित्र मुझे थोड़ी देर का काम है आप यहीं बैठो मैं आधे घंटे में आता हूँ ,,
और तुम बिलकुल भी चिंता मत करो तुम्हारा काम हो गया समझो ....
मैं ऐसे प्रयोग जानता हूँ की तुम्हारा काम बिलकुल ख़त्म हो जायेगा तुम चाह कर भी सम्भोग न कर सकोगे ,
लेकिन
जब तक मैं आऊ तुम्हे ये सोंच लेना है की तुम ऐसा करोगे या नहीं , ” क्यूंकि उसके बाद उसे वापस नहीं लाया जा सकेगा ” आप समझ रहे हैं न …. !!
उसकी मौन स्वीकृति के बाद मैं उसे वहीँ पे छोड़ कर चला गया …..
” आधे घंटे बाद ” मैं वापस पहुंचा अब उसके चहरे पे तनाव की जगह चिंता की लकीरे थी |
मैंने उससे पूंछा अब आप बताए आपका क्या फैसला है ,
” वो बोला ” स्वामी जी मैं ऐसा सोंच कर नहीं आया था , मैं काम-वासना से पूरी तरह मुक्त नहीं होना चाहता , क्यूंकि इसमें आनंद भी मिलता है
अगर मैं मुक्त हो गया तो वो आनंद भी नहीं उठा पाऊंगा आपने मुझे दुविधा में डाल दिया , ” मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है ” आप ही बताइए ?
” मैंने कहा ”
ये दुविधा सिर्फ तुमको ही नहीं है ये संसार के ९९% लोगो को है बस वो कह नहीं पाते ,
एक तरफ तो वो काम को जीते हैं क्यूंकि इसमें जो आनंद है वो कही नहीं दूसरी तरफ नही
वो इससे मुक्त भी होना चाहते हैं क्यूंकि कुछ लोगो ने इसे पाप से जोड़ दिया है
उसके कारण तो उन्होंने पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किये लेकिन लाखो लोगो को बिना बात के पापी होने का कारण दे गए ,,
” सच तो ये है की कामवासना एक शब्द नहीं है ये दो हैं काम और वासना ..... काम तो शुद्ध है लेकिन वासना अशुद्ध ......
क्यूंकि वासना का अर्थ ही होता है ” और की मांग ” काम में कोई भी पाप नहीं है लेकिन जब हमारा चित इसी की मांग से भर जाता है तब ये पाप को जनम देता है ,
और और की मांग पैदा ही तब होती है जब हम काम में उतरे भी और उसे पाप भी माने जैसे जब हम ब्रत उपवास करते हैं और हमें भूंख लगे तो यदि हम ले तो पाप ,, ” लेकिन वो ही भोजन हम रोज लेते हैं एक ज़रूरत की तरह तो कोई पाप नहीं होता ...
सेक्स भी इसी तरह की ज़रूरत है शायद कुछ लोग मेरी बात से सहमत न हो
क्यूंकि वो कहेंगे
कि सेक्स की ज़रूरत तो
बच्चे पैदा करने के लिए होती है ,,
तो मैं उन्हें बताना और पूंछना चाहूँगा कि क्या जब उनकी पत्नी गर्भ धरण कर चुकी ... तो फिर उन्होने उसके साथ सेक्स किया या नहीं .... ??
और साथ ही साथ ये भी कहना चाहूँगा कि अगर ऐसा ही होता तो हम जानवर से आगे नहीं आये होते ,, क्यूंकि सिर्फ जानवर ही सेक्स बच्चे पैदा करने के लिए करते है |
कोई भी स्वस्थ इंसान ७ अरब बच्चे पैदा कर सकता है लेकिन क्या वो कर पाता है
” नहीं ”
और न ही करने की ज़रूरत है |
( मैं उन लोगो को बता दू कि जिस धार्मिक आधार के कारण वो सेक्स को बच्चे पैदा करने का जरिया बताते हैं उस धर्म का मूल आधार ही सेक्स है )
” मेरी बात को बीच में ही काट कर वो बोला ” ,,
” लेकिन स्वामी जी पहले मुझे ऐसा क्यूँ नहीं होता था अभी तीन चार साल से ही मैं अपने अन्दर सेक्स को और तीव्रता से महसूस कर रहा हूँ मैं जब जवान था तो मुझे कोई कोई ही स्त्री भाती थी लेकिन अब तो ये होता है कि हर स्त्री के साथ सेक्स का भाव उठता है ”
” ऐसा क्यूँ ”
हाँ ये है क्यूंकि तुम्हारा सेक्स अपनी अंतिम यात्रा पे है ” दिया जब फड-फडाता है तब वो बुझने वाला होता है वो ही तुम्हारे साथ हो रहा है ||
शायद आपको अजीब लग रही होगी मेरी बात क्यूंकि आप कहेंगे कि हमने वो लोग देखे हैं जो ८० साल कि उम्र में भी सेक्स करते हैं उनका सेक्स क्यूँ नहीं ख़तम हुआ | तो मैं आपको आज इसका पूरा विज्ञान बताता हूँ |
हर सात साल में मनुष्य के शरीर में बदलाव होते हैं
0 से 7 साल में सेक्स का कोई अनुभव नहीं होता |
7 से 14 साल के बीच सेक्स के बारे में समझ पैदा होती है
( इस वक़्त बच्चे का रुझान शरीर में होने वाले बदलाव कि तरफ होता है इस वक़्त उसे ज़रूरत होती है कुछ दोस्तों कि जिनसे वो शरीर में होने वाले बदलाव के बारे में बात कर पाए )
14 से 21 साल के बीच सेक्स तूफ़ान पे होता है
इस वक़्त हम विपरीत सेक्स पार्टनर की तलाश में रहते हैं और ये ही वक़्त होता है जब किसी को प्रेम होने की सबसे ज्यादा सम्भावना होती है अभी क्यूंकि सेक्स का आगमन हुआ ही होता है वो अपने भविष्य को लेकर चिंतित नहीं दिखता इसलिए वो अपने लिए एक योग्य पार्टनर की तलाश ( विज्ञानं के आधार पे योग्य पार्टनर का मतलब एक ऐसा जोड़ा जो स्वस्थ्य बच्चो को जनम दे सके ) करता है |
लेकिन आज कल फिल्मो के कारण हमारा यह नजरिया कहीं खो गया है उसकी जगह ले ली है फ़िल्मी हीरो हेरोइन ने और वहीँ से भटकन शुरू होती है हम जिस तरह के पार्टनर को खोजते हैं वो अक्सर कहीं पाए ही नहीं जाते हैं
फिर आता है चौथा बदलाव 21 से 28 के बीच जब उस तरह के पार्टनर की तलाश से थक कर हम या तो जल्दबाजी में किसी को वैसा मान बैठते हैं जो वैसा बिलकुल भी नहीं है हम शादी जैसी व्यवस्था का सहारा लेते हैं
फिर शुरू होता है हताशा का दौर 99% लोग वो तो पा नहीं पाते जो वो खोजते थे और जो मिला है उसे सामाजिक जिम्मेवारियो के कारण झेलना पड़ता है हताशा बढती जाती है |
इस दौर में सेक्स को सही से न जी पाने के कारण एक कुंठा का जन्म होता है जिससे जन्म लेती है
अगली अवस्था –
28 से 35 के बीच हमारी कुंठा के कारण से हम सेक्स को बुरा मान बैठते हैं और इसी उम्र के लोग समाज में सबसे ज्यादा सेक्स का विरोध करते नज़र आते हैं इसी उम्र में लोग ज्यादा तर किसी न किसी को अपना गुरु बना लेते हैं जो उनकी कुंठा को और बढ़ाते हैं |
35 से 42 का दौर सबसे नाज़ुक दौर होता है ये वो दौर होता है जब सेक्स की ताक़त कम होने लगती है |
इसी वक़्त ज्यादा तर लोग अपनी दबी वासनाओ को जल्द से जल्द जी लेना चाहता है इसलिए वो सभी में कुछ न कुछ सौंदर्य देखने लगता है यही कारण है की वो और अधिक कामुक हो जाता है |
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी उर्जा को किसी और दिशा में लगा पाते हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता है की वो सेक्स से मुक्त हो गए सेक्स उनके अन्दर कुंठा के रूप में रहता है ऐसे ही लोग व्यापारी , समाज सेवी , कवि इत्यादि हो जाते हैं उसका कारण समाज का डर भी होता है इनको अगर मौका मिले तो ये लोग भी काम में उतर जाते है लेकिन छुप कर ,,,,
लेकिन तीसरे वो लोग होते हैं जिन्होंने सेक्स को कुंठा नहीं बनाया होता है और युवा अवस्था से ही समझ से भरे होते हैं ये लोग उस वक़्त सेक्स पे कब्ज़ा कर पाते हैं ये ही कारण है की ज्यादा तर लोग 35 से 42 साल के बीच की आयु में ज्ञान को उपलब्ध हुए |
उसके बाद के समय में लोगो के जीवन में सेक्स का रोल बदल जाता है 42 के बाद ज्यादा तर लोग सेक्स को शरीर से कम दिमाग से ज्यादा जीते पाए जाते हैं आपने देखा होगा की कैसे इस उम्र में लोग सेक्स की चर्चा में रस लेते हैं , कुछ लोग जो सामाजिक कारणों से ऐसा करते नहीं पाए जाते हैं वो स्त्रियों को छुप के देखने में रस लेते हैं |
हमें सेक्स को कुंठा की तरह नहीं देखना चाहिए इसके साथ समझ से चलने की ज़रूरत है
ये कामवासना हमारे जीवन का मुख्य हिस्सा हैं फ़िर भी दुनियां इसे पाप की नज़र से देखती हैं
आपकी राय की ज़रूरत पड़ेगी ………… अभी बहुत कुछ है विचार करने को है