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Story Line: based on one sided love, it is a story of 2 cusions who brought up together and are best friend with each other, one develops hee feeling for other, but other is in love with someone else.
Negative points: too much predictable, lacks connection and also the end is not justifiable untill writer has plan to bring another episode. Also best friend share everything, how Faisal missed to tell her about Shahnaaz?
Thanks for suggestion... And I know this story notfit for usc competition.
Mujhse kisi ne bola tha ki tumhe kya pata ek writer ko public me kitne thoughts se gujarna padta hai.... Bas wahi dekhna chahta tha... Kaysa lagta hai
btw it's my first try to wrote a story and I don't know how wrote a better story..
JOKER.
कहानी horror genre की प्रतीत होती है कहानी की गति तेज लगती है horror है पर थोड़ा सा है थोड़ी सी mystry भी होती है। कहानी की पकड़ अच्छी है कहीं भी बोर न करती है।
Ending थोड़ी सरल लगती है ajay को थोड़ा सा struggle और करना चाहिए था।
कहानी की शुरुआती मुझे पसंद आई।
वैसे एक doubt था कि जब अजय पहली बार तेरहवीं मंजिल गया और वापिस घर गया था तो next day उसका घर पता करने जाता है तब तोह उसे कोई पहचान नहीं पाता है guards वाघेरा। पर जिस रात अजय के साथ जो भी हुआ उसके बाद गार्ड्स उसे घर के अंदर कैसे आने देते हैं।
क्या अजय के साथ जो भी हुआ उसके असर next day होता है।
Language मैं भी कोई भी गलती नजर नहीं है।senctence भी सही लिखे है ऐसा न लगता कि इसे दोबारा पढ़े समझने के लिए। Story का flow बढ़िया है।
Overall it's a good concept aap iss aur acha likh sakte the thodi se aur details karke
Thanks for suggestion... And I know this story notfit for usc competition.
Mujhse kisi ne bola tha ki tumhe kya pata ek writer ko public me kitne thoughts se gujarna padta hai.... Bas wahi dekhna chahta tha... Kaysa lagta hai
btw it's my first try to wrote a story and I don't know how wrote a better story..
चेतावनी: यह कहानी पारिवारिक व्यभिचार के विषय पर आधारित है, जिसमें माता और पुत्र के यौन-संबंधों का विस्तृत विवरण है। जो पाठक, ऐसी सामग्री से असहज हैं, वह कृपया इसे न पढ़ें। यह कहानी, पूरी तरह से काल्पनिक है और इसमें लिखी गई किसी भी घटना, व्यक्ति, स्थिति या विधि का वास्तविक जीवन से, कोई संबंध नहीं है। किसी भी समानता का होना केवल संयोग है।
सन १०२६ की बात है.. जब पूरा प्रदेश कई छोटी छोटी रियासतों में विभाजित था।
यह कथा, ऐसी ही एक वैतालनगर नामक छोटी सी रियासत की है। सामान्य सी रियासत थी। सीमित क्षेत्र, साधारण किसान प्रजा और छोटी सी सेना वाली इस रियासत के अवशेषों में जो सब से अनोखा था, वह था पिशाचिनी का प्रासाद। कोई नहीं जानता था की यह प्रासाद अस्तित्व में कब और कैसे आया.. हाँ, अपने पुरखों से इस विषय में, अनगिनत किस्से व दंतकथाएं अवश्य सुनी थी।
पिशाचिनी के इस प्रासाद में, किसी भी प्रकार की कोई प्रतिमा या बुत नहीं था, ना ही कोई प्रतीक या प्रतिरूप। थे तो केवल पुरुषों और स्त्रीओं के अति-आकर्षक संभोगरत शिल्प, जिन्हें बलुआ पत्थर से अति सुंदरतापूर्वक तराशा गया था। जिस प्रकार स्त्रीओं के लचकदार सुवक्र देहों को, पेड़ और लताओं से लिपटे हुए, चंचल मुद्रा में दिखाया गया था, वह अत्यंत मनोहर था। यह प्रासाद, कला और स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण था। स्त्री-रूप की मादक कामुकता को कलाकार के निपुण कौशल्य ने अभिवृद्धित किया था। स्त्री के नग्न कामुक सौन्दर्य और संभोगक्रिया को एक उत्सव के स्वरूप में स्थापित करता यह प्रासाद, एक रहस्यमयी और कौतुहलपूर्ण स्थान था।
चूँकि उस युग के अधिकांश अभिलेख और साहित्य लुप्त हो चुके थे, इसलिए उसके वास्तविक इतिहास का यथार्थ में पता लगाना अत्यंत कठिन था। हालाँकि, कुछ पांडुलिपियाँ अभी भी प्राप्त थी, जो उस युग को समझने में सहायक बन रही थी। उनमें से अधिकांश को, सामान्य प्रजा के लिए, प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया था क्योंकि उन लिपियों की सामग्री, उनकी मान्यताओं और संस्कृति को ठेस पहुंचा सकती थी, उन्हें आंदोलित कर सकती थी। इस अभिलेख में लिखित एक प्रसंग था, जो संभवतः पिशाचिनी प्रासाद के पीछे की कहानी हो सकता था। मूल कथा, पद्य स्वरूप में और अति-प्राचीन लिपि में थी। इसे पढ़ते समय, यह ज्ञात रहें कि उस काल में नग्नता वर्जित नहीं थी, संभोग को एक उत्सव की तरह मनाया जाता था। यथार्थ में कहें तो उस काल में, कुछ भी वर्जित नहीं था।
उस लिपि का सम्पूर्ण अनुवाद बड़ा कठिन है, पर अर्थ का निष्कर्ष कुछ इस प्रकार है
॥पांडुलिपि की पहली गाथा का अनुवाद॥
जन्मदात्री के उन्नत मादक मनोहारी स्तन
कामांग में असीम वासना, जैसे धधकता ज्वालामुखी
चुंबन करे पुत्र, उस माता की मांग के सिंदूर को
जननी को कर वस्त्र-विहीन, शयन-आसन पर करता प्रस्थापित
नाम है उसका, कालाग्नि और वो है एक पिशाचिनी
यह है उसका आख्यान, एक अनाचार की कथा, व्यभिचार की कथा
पृथ्वी सभी की माता है। वह प्रकाश संग संभोग कर जीवन की रचना करती है। वह कभी किसी की वास्तविक माता का रूप धारण कर या फिर किसी अन्य स्वरूप में, हर जीव को असीम प्रेम देती है। यह शुद्ध प्रेम बढ़ते हुए अपनी पूर्णता को तब प्राप्त करता है, जब वह संभोग में परिवर्तित होता है। हर प्रेम को अपनी पूर्णता प्राप्त करने का अधिकार है, अन्यथा उस जीव की आत्मा, बिना पानी के पौधों की तरह अतृप्त रह जाती है।
यह जीवदायी शक्ति, किसी स्वजन या आत्मीय संबंधी का रूप भी ले सकती है या वह किसी की बेटी, माँ, बहन, मौसी, दादी.. यहाँ तक कि प्रेमिका या पत्नी के रूप में भी प्रकट हो सकती है। स्त्री का, किसी भी प्रकार का स्वरूप, पुरुष के जीवन के शून्यवकाश को भरने के लिए, स्त्री स्वरूप को किसी न किसी रूप में अवतरित होना ही पड़ता है, ताकि वह विभिन्न रूप में, प्रेम का आदान-प्रदान कर सके। यह स्वरूप माता या बहन के प्रेम के रूप में भी हो सकता है; और यह प्रेम यौनसंबंधों का स्वरूप भी धारण कर सकता है। किंवदंती के अनुसार ऐसी ही एक स्त्री का जन्म, शाकिनी के रूप में हुआ था, जो वैतालनगर रियासत के राजकुमार कामशस्त्र की मां थी।
राजकुमार कामशस्त्र वैतालनगर के राजा रतिदंड का पुत्र था। पतला गौरवर्ण शरीर और चमकदार चेहरे पर बालक जैसी निर्दोषता लिप्त थी और साथ ही, एक अनोखी दिव्यता की झलक भी थी। उसके पिता रतिदंड ने उसे राजपुरोहित के पद पर नियुक्त किया था और उसे यह विशेषाधिकार प्रदान किया गया था की हर महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले, कामशस्त्र से परामर्श अनिवार्य रूप से किया जाएँ। राजकुमार कामशस्त्र का स्थान, राजा के सिंहासन के बगल में था और शासन के हर निर्णय में वह अपने प्रभाव का पूर्ण उपयोग भी करता था।
सायंकाल का अधिकतर समय वह उस पिशाचिनी प्रासाद में, साधना करते हुए व्यतीत करता था। कामशस्त्र के दो रूप थे, एक राजा के दरबार में कर्तव्यनिष्ठ राजपुरोहित का तो दूसरा अपने महल में, एक पुत्र के स्वरूप में। उसकी अति आकर्षक देहसृष्टि वाली माँ शाकिनी, उसे स्नेह से राजा कहकर पुकारती थी।
जब उसकी आयु इक्कीस वर्ष की थी, तब उसके पिता, महाराजा रतिदंड की मृत्यु हो गई और उसका राज्याभिषेक किया गया। अब राजपुरोहित के पद के साथ, उसे राजा होने का कर्तव्य भी निभाना था। कामशस्त्र ने ज्यादातर प्रसंगों को अच्छी तरह से संभाला किन्तु अपनी अनुभवहीनता के चलते उसने कुछ गलतियां भी कीं। चूंकि वह आयु में छोटा था और अल्प-अनुभवी भी, इसलिए वह अपनी विधवा माता से, विभिन्न विषयों पर चर्चा करता था। कई मुद्दों पर वह दोनों एक-दूसरे से परामर्श करते रहते और अक्सर वे नैतिकता के विषय पर विस्तृत चर्चा करते। अधिकतर उनकी बातों का विषय यह होता था की प्रजाजनों के लिए नैतिक संहिता कैसी होनी चाहिए। दरबार में भी इस मुद्दे पर सामाजिक मर्यादा और नैतिकता पर प्रश्न होते रहते।
राजा तब हैरान रह जाता था, जब एक ही परिवार के सभ्यों के आपस में विवाह के मामले सामने आते थे। यह किस्से उसे चकित कर देते थे और चौंकाने वाली बात तो यह थी की ऐसे मामले पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ चुके थे। ऐसे उदाहरण भी थे, जब पुत्रों ने अपनी माताओं से विवाह किया था या फिर भाइयों ने धन और संपत्ति के संरक्षण के लिए, अपनी बहनों से शादी की थी।
दरबारी जीवन के अलावा, कामशस्त्र एक असामान्य सा जीवन जीता था। दरबार से जब वह अपने महल लौटता तब उसकी सुंदर लचकदार शरीर की साम्राज्ञी माँ शाकिनी, कुमकुम, पुष्प तथा इत्र से भरी थाली लेकर उसके स्वागत के लिए तैयार रहती। शाकिनी उसका पुष्पों से व इत्र छिड़ककर स्वागत करती और राजा उसके पैर छूता। राजपरिवार का पहले से चला आया अनकहा रिवाज था, इस तरह पुत्र प्रवेश के लिए अनुमति माँगता और माता उसे अंदर आने की आज्ञा देती थी। उसके पश्चात, महल के सभी दासियों को कमरे से बाहर जाने का आदेश दिया जाता।
युवान राजा फिर कुछ समय के लिए विराम करता और उसकी माता शाकिनी, अपने कामुक शरीर पर, सुंदर से रेशमी वस्त्र और गहने धारण कर, राजा को अपने कक्ष में आमंत्रित करती। उस काल में विधवाएँ सामान्य जीवन जी सकती थी। उन्हें रंगबिरंगी वस्त्र पहनने की और साज-सजावट करने की पूर्ण स्वतंत्रता भी थी।
शाकिनी का कमरा पुष्पों से सजा हुआ था। फर्श पर लाल रेशम की चादरें बिछी हुई थी। कक्ष में पूरी तरह से सन्नाटा छाया हुआ था और मेहंदी के पुष्पों की मनोहक सुगंध, वातावरण को मादकता से भर रही थी। राजा एक सामान्य सी धोती और कुर्ता पहनकर कमरे में प्रवेश करें, उससे पहले, शाकिनी कुछ सुगंधित मोमबत्तियाँ प्रज्वलित करती थी। राजा के कक्ष-प्रवेश के पश्चात, वह उसे उसका कुर्ता उतारने और केवल धोती में ही बैठने का निर्देश करती है। कामशस्त्र के पास, शाही वस्त्रों को उतारकर, केवल धोती पहनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। उसे लज्जा इसलिए आती थी क्योंकि उसने धोती के नीचे कुछ भी नहीं पहना होता था।
पूरा दिन अपने राजसी कर्तव्य को निष्ठा से निभाने के बाद, वे दोनों साधना करने एक साथ बैठते थे। कामशस्त्र के पिता, महाराजा रतिदंड एक तांत्रिक थे। उन्होंने किसी शक्ति की उपासना प्रारंभ की थी और उसी दौरान उनकी मृत्यु हो गई थी। मृत्यु से पूर्व महाराजा ने अपनी पत्नी शाकिनी को उनकी साधना पूर्ण करने का निर्देश दिया था। एक ऐसी शक्ति की साधना, जिसे वह पहले ही जागृत कर चुके थे। यदि उस साधना को पूरा न किया जाएँ, तो वह शक्ति, शाही परिवार को ऐसा श्राप दे सकती थी, जो सभी सभ्यों की बुद्धि और विचार करने की क्षमता को कुंठित कर सकती थी, उनके मन में विकार व कुविचार को जन्म दे सकती थी, उन्हें विनाश के मार्ग पर भेज सकती थी। इसलिए शाकिनी अपने पति की मृत्यु के बाद, उस आज्ञा का पालन कर रही थी। माँ और बेटा दोनों मिलकर, उस सुगंधित कक्ष में एक साथ बैठकर घंटों तक साधना करते रहते थे।
हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से, उनके साधना करने के प्रणाली में काफी परिवर्तन आ गया था। प्रारम्भिक समय में, वह दोनों अपने शरीर को पूर्ण कपड़ों से ढँककर बैठते थे, पर दीर्घ प्रहरों की साधना में इससे कठिनाई होती थी। कुछ विशेष विधियों के लिए शाकिनी अति-अल्प वस्त्र धारण करती थी। कई मौकों पर, उभारदार स्तनों वाली माता और पुत्र के बीच, एक पतली सी सफेद पारदर्शी चादर ही रहती थी, जिसके आरपार वह अपने पुत्र को साधना करते हुए देखती थी।
समय बीतता गया और दिन-प्रतिदिन वस्त्रों की संख्या घटती गई क्योंकि समय गर्मियों का था और साधना करने से ऊर्जावान हो उठे शरीर, और भी अधिक गर्म हो जाते थे। कभी-कभी शाकिनी, बेटे के सामने ही अपनी उदार कामुकता को प्रकट करते हुए, उत्तुंग विराट स्तनों को ढँक रही चोली उतारकर, केवल कमर के नीचे का वस्त्र धारण कर बैठती थी। इस प्रथा का वह दोनों अब सालों से अनुसरण कर रहे थे। प्रायः दोनों को एक दूसरे की अर्ध-नग्नता से, न कोई संकोच था और ना ही किसी प्रकार की जुगुप्सा।
॥पांडुलिपि में लिखी गाथा का अनुवाद॥
स्पष्टवक्ता व सौन्दर्यवती
स्पर्श जनमावे सिहरन
थिरकें नितंब हो प्रफुल्ल
उभरे उरोज का द्रश्य सुहाना
आंगन में वह जब धोएं स्तन
देखें लिंग हो कठोर निरंतर
एक दिन की बात है। शाकिनी ने अपने पुत्र कामशस्त्र का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठने के लिए कहा। राजा ने पहले ही अपने शरीर के ऊपरी वस्त्र उतार दिए थे और नीचे धारण की हुई धोती के पतले वस्त्र से, उसके लिंग की कठोरता द्रश्यमान हो रही थी। शाकिनी ने अपना पल्लू झटकाकर गिरा दिया और कमर पर लपेटी हुई साड़ी को उतारना शुरू कर दिया। जैसे जैसे माता शाकिनी के वस्त्र उतरते गए, उनके गौर अंगों को देखकर राजा का सिर चकराने लगा। उसकी माँ के उन्नत स्तनों के बीच नजर आ रही लंबी दरार को देखकर उसकी सांसें फूलने लगी। साड़ी पूर्णतः उतर जाने पर अंदर पहना एक रेशम-जालीदार परिधान उजागर हुआ, जो शरीर के अंगों को छुपाता कम और दिखाता ज्यादा था। शाकिनी के चेहरे पर न कोई लज्जा थी और ना ही किसी प्रकार की हिचकिचाहट। बड़े ही उत्साह से वह अपनी चोली खोलने लगी।
अपनी माता को इस अवस्था में देखना, राजा के लिए किसी सदमे से कम नहीं था। किन्तु उसे इस बात की जिज्ञासा अवश्य थी की माता का आखिर प्रयोजन क्या था..!! राजा की सांसें बीच में तब अटक गईं, जब उसने अपनी माँ की गोरी फुर्तीली उंगलियों को बटन-दर-बटन, चोली खोलते हुए देखा। हर बटन के साथ उसकी सुंदर मां के स्तन का, और अधिक हिस्सा, उसकी नज़रों के सामने खुलता जा रहा था। बटनों को खोलते हुए माता शाकिनी, बड़ी ही मादकता से, अपने स्तनों के बीच की दरार पर अपनी उंगलियां फेर रही थी। जब वह अंतिम बटन पर पहुंची तब उसने अपने पुत्र को, उन मातृत्व के शाश्वत खजाने को, अनिमेष आँखों से तांकते हुए देखा - राजा जब शिशु-अवस्था में था, तब यही तो उसका भोजन स्थल हुआ करता था..!!
शाकिनी ने एक नजर अपने पुत्र की ओर देखा और मुस्कुराने लगी। राजा ने अपनी माँ की आँखों में आँखें डालकर देखा, यह आश्वासन देने के लिए, की वह अब भी, एक पुत्र की दृष्टि से ही देख रहा है..!! उस युवा पुत्र की पवित्र माँ ने, अपनी चोली को पूरी तरह से उतार दिया और उसे फर्श पर बिछी लाल मखमली चादर पर फेंक दिया। अपनी दोनों हथेली से, उन विराट चरबीदार स्तनों को दबाते हुए, स्तनाग्रों (निप्पलों) को मसल लिया। अब उसने अपने स्तनों को थोड़ा उभार दिया और कंधों को चौड़ा कर, उन उत्तुंग शिखरों को अपनी मर्जी से झूलने के लिए छोड़ दिया, ताकि उसका पुत्र, स्तनों के सौन्दर्य का अच्छी तरह रसपान कर सकें।
इस द्रश्य को देखकर राजा पागल सा हो रहा था और उसका मजबूत लिंग, नींद से जागे हुए असुर की तरह अंगड़ाई लेकर, धोती में उभार बना रहा था। उसकी विचार करने की क्षमता क्षीण हो रही थी। पूरा शरीर विशिष्ट प्रकार की गर्मी से झुलस रहा था। हर पल उसकी सांसें और अधिक तेज व भारी होती जा रही थी। वह अपनी माता की नग्नता को भोंचक्का होकर देख रहा था। हालांकि इससे पहले भी वह दोनों अल्प वस्त्रों में अर्धनग्न होकर एक दूसरे के सामने साधना कर चुके थे, पर आज उसका पौरुषत्व, सामाजिक मर्यादाओं पर हावी होता प्रतीत हो रहा था।
अपने नग्न स्तनों का वैभव दिखाते हुए, शाकिनी ने राजा कामशस्त्र को अपनी आँखें बंद कर, साधना में लीन होने के लिए कहा। दोनों के बीच एक पतला अर्ध-पारदर्शी पर्दा भी डाल दिया जिसमें एक छेद था, जहाँ से माँ और पुत्र, एक दूसरे को देख सकते थे। जल्द ही, दोनों साधना में ध्यानमग्न हो गए। उन्होंने एक साथ कुछ गाथाओं का पठन किया। हालाँकि, कर्तव्यनिष्ठ पुत्र उन गाथाओं का मन से पाठ कर रहा था, फिर भी वह अपनी माँ के अनावृत्त स्तनों से अपना ध्यान हटा नही पा रहा था। प्राकृतिक इच्छाओं और सामाजिक मर्यादाओं के बीच भीषण युद्ध चल रहा था उसके दिमाग में। उन दोनों मांसल उरोज की कल्पना उसे बंद आँखों में भी उत्तेजित कर रही थी। साधना के दौरान उसका मन, अपनी माँ के पूर्ण नग्न शरीर की कल्पना करने लगा और बेकाबू मन की इस क्रिया से, वह काफी अस्वस्थता का अनुभव कर रहा था। उसने अपनी माता के स्तनों को इतना गौर से देख लिया था की उन गोलों का परिघ, रंग, तने हुए स्तनाग्र, सब कुछ उसके मस्तिष्क में छप चुका था। अब जब भी वो अपनी आँखें बंद करता तब उसे अपनी माँ के वे बड़े-बड़े सुंदर सफेद टीले ही नजर आते थे।
कई पूर्णिमाओ की साधना के दौरान, उसने घंटों तक उन स्तनों को देखा था। निप्पलों के स्तन चक्रों को उसने इतने स्पष्ट रूप से देखा था कि कागज पर, बिना किसी त्रुटि के, बिल्कुल वैसा ही चक्र बना सकता था। उनकी स्तनाग्र (निप्पलें) तो अब उसे स्वप्न में भी नजर आने लगी थी। दोनों स्तन, मातृ-प्रेम के दो ऐसे मिनारे, जिनके पौष्टिक फव्वारों का लाभ उसने बचपन में भरपूर उठाया था। भूरे रंग के निप्पल, दो छोटे लिंगों की तरह सीधे खड़े थे। चूँकि माता शाकिनी, अक्सर अपनी चोली उतारने के बाद स्तनों और निप्पलों को एक साथ रगड़ती थीं, उसकी निप्पल अक्सर तंग और नुकीली हो जाती थी। दोनों के बीच, पतली चादर का पर्दा डालने से पहले, उसे अपनी माता के उन पुष्ट पयोधरों के दर्शन का लाभ मिलता।
उसके पश्चात, वे दोनों घंटों साधना करते थे। माता शाकिनी शायद वास्तव में साधना कर रही थी परंतु बेटा अपनी माँ के सुंदर स्तनों के अलावा किसी और वस्तु पर अपना ध्यान केंद्रित ही नहीं कर पा रहा था। दोनों स्तन ऐसे चुंबक बन गए थे जिस पर राजा कामशस्त्र का ध्यान और मन, चिपके ही रहते थे। साधना के बाद, वे अपना रात्रिभोजन भी उसी अवस्था में करते थे। चूंकि उन दिनों नग्नता वर्जित नहीं थी, इस कारण से शाकिनी को इसमें कुछ भी असहज या आपत्तिजनक प्रतीत नहीं होता था।
नग्नता भले ही सहज थी किन्तु अब माता-पुत्र के बीच जो चल रहा था वह पारिवारिक स्नेह से कुछ अधिक ही था। जब राजा अपनी माता से करीब होता था तब वह अपनी प्राकृतिक इच्छाओं को खुद पर हावी होने से रोक नहीं पाता था। एक बार शाकिनी रानीमहल के आँगन में नग्न होकर स्नान कर रही थी तब उसे देखकर राजा अपने वस्त्र में लगभग स्खलित ही हो गया।!! इतनी उम्र में भी शाकिनी का शरीर, तंग और कसा हुआ था। झुर्रियों रहित गोरा शरीर बेहद आकर्षक था। गोल घुमावदार गोरे कूल्हें, ऐसे लग रहे थे जैसे हस्तीदंत से बने हुए हो। और स्वर्ग की अप्सरा जैसे उन्मुक्त स्तन। गोरे तन पर पानी ऐसे बह रहा था जैसे वह चाँदनी से नहा रही हो। ऐसा नहीं था की केवल राजा ही ऐसा महसूस कर रहा था। शाकिनी के मन में भी यौन इच्छाएं जागृत हो रही थी।!!
जब युवा शाकिनी ने कामशस्त्र को जन्म दिया ,तब वह छोटे स्तनों वाली, पतली सी लड़की थी। प्रसव के पश्चात उसके स्तन, दूध से भरकर इतने उभर गए की फिर कभी पुराने कद पर लौट ही नहीं पाए और दिन-ब-दिन विकसित होते गए। वासना टपकाते, वह दो मांसल गोलों की सुंदरता को छिपाने के लिए उसकी तंग चोली कुछ अधिक कर भी नहीं पा रही थी। पूरी रियासत के सब से सुंदर स्तन थे वह..!! बड़ी गेंद जैसा उनका आकार और स्तन-चक्र पर स्थापित तनी हुई निप्पल। स्तनों के आकार के विपरीत, कमर पतली और सुगठित, सूडोल जांघें जैसे केले के तने। और नितंब ऐसे भरे भरे की देखते ही आरोहण करने का मन करें..!!
विधवा शाकिनी का जिस्म, कामवासना से झुलस रहा था। चूंकि वह एक रानी थी इसलिए वह किसी सामान्य नर से संभोग नहीं कर सकती थी। उसके संभोग साथी का शाही घराने से होना अनिवार्य था। वह अपने शरीर की कामाग्नि से अवगत थी और मन ही मन कई बार अपने पुत्र के पुष्ट लिंग को अपनी योनि में भरकर, पूरी रात संभोग करने के स्वप्न देख चुकी थी। हर गुजरते दिन के साथ यह इच्छा और भी अधिक तीव्र होती जा रही थी। पर वह एक पवित्र स्त्री थी और फिलहाल अपने पति की साधना को आगे बढ़ाना, उसकी प्राथमिकता थी।
शाकिनी को इसी साधना प्रक्रिया ने एक उपाय सुझाया। यदि वह साधना को संभोग से जोड़कर, उसे एक विधि के रूप में प्रस्तुत करें, तो क्या उसका पुत्र उसे करने के लिए राजी होगा?? इस प्रयोग के लिए वह अधीरता से शाम होने का प्रतीक्षा करने लगी
॥ पांडुलिपि की अगली गाथा का अनुवाद ॥
शाम ढलें, नभ रक्त प्रकाशें
योनि मदमस्त होकर मचलें
निशा देखें राह तिमिर की
कब आवै सजन जो भोगें
खनके चूड़ी, मटके जोबन
स्वयं को परोसे थाल में बैठी
हररोज की तरह राजा शाम को आया तब उसकी माता शाकिनी साड़ी का लाल जोड़ा पहने हुई थी। उसकी बाहें स्वर्ण आभूषणों से लदी हुई थी और कस्तूरी-युक्त पान चबाने से, उसके होंठ सुर्ख-लाल हो गए थे। ललाट पर कुमकुम और चेहरे पर खुमार - ऐसा खुमार, जो माताओं के चेहरों पर तब होता है, जब वह अपनी योनि, अपने पुत्र को अर्पण करने जा रही हो..! नवविवाहित दुल्हन जैसी चमक थी चेहरे पर। रेशमी साड़ी के नीचे जालीदार चोली, जिसपर कलात्मक कढ़ाई की गई थी। चोली के महीन कपड़ों से, शाकिनी की अंगूर जैसी निप्पलें, तनकर आकार बनाते नजर आ रही थी। राजा ने देखा की कई पुरुष सेवकों की नजर, उसकी माता के उन्नत शिखरों पर चिपकी हुई थी। इससे पहले की राजा अपनी जन्मदात्री के पैर छूता, दासियाँ ने दोनों पर फूलों की वर्षा कर दी।
यह देख शाकिनी मुस्कुराई और उसने कामशस्त्र को गले लगाते हुए अपने विशाल स्तन-युग्मों से दबा दिया। उनका आलिंगन नौकरों-दासियों के लिए, कक्ष छोड़कर चले जाने का संकेत था। वह आलिंगन काफी समय तक चला और उस दौरान राजा का लिंग, उसके वस्त्रों में उपद्रव करने लग गया था। आलिंगन से मुक्त होते ही, शाकिनी अपनी साड़ी और चोली उतारने लगी। राजा चकित होकर देखता रहा क्योंकि अब तक वह दोनों साधना के लिए बैठे भी नहीं थे और माता ने वस्त्र उतारने शुरू कर दिए थे..!!
"क्षमा चाहता हूँ माँ, पर आप इतनी जल्दी वस्त्र क्यों त्याग रही हो? साधना में बैठने से पहले, मुझे कुछ क्षण विराम तो करने दीजिए" राजा ने कहा
"मेरे राजा, आज विशेष अनुष्ठान करना है इसलिए जल्दी ही अपनी धोती पहन कर, साधना कक्ष की ओर प्रस्थान करो" कुटिल मुस्कान के साथ विराट स्तनधारी शाकिनी साधना कक्ष की ओर चल दी। वो पहले से ही कमर के ऊपर नग्न हो चुकी थी। हर कदम के साथ उसके मांसल स्तन यहाँ वहाँ झूलते हुए, राजा का वशीकरण कर रहे थे।
यंत्रवत राजा पीछे पीछे गया। उसे अपनी माँ की दृष्ट योजना का कोई अंदेशा नहीं था। जब उसने कक्ष में प्रवेश किया तो अंदर का द्रश्य चौंकाने वाला था.! कक्ष के बीचोंबीच एक बड़ा बिस्तर पड़ा था, जिसे ऐसा सजाया गया था, जैसे प्रथम रात्री को नवविवाहित जोड़ें के लिए सजाया जाता है। साथ ही, ऐसे वस्त्र थे, जो दूल्हा और दुल्हन विवाह के समय पहनते है। राजा ने विस्मय से अपनी माता के सामने देखा, जो कमर पर लपेटी साड़ी उतारकर, केवल साया पहने खड़ी थी। कठोर तने हुए स्तनों की निप्पल, राजा की आँखों में देख रही थी। शाकिनी के शरीर का एक भी उभार ऐसा नहीं था, जो द्रश्यमान न हो।!!
शाकिनी ने कामशस्त्र का हाथ पकड़ लिया और नयन से नयन मिलाते हुए कहा..
"प्यारे पुत्र, इस ब्रह्मांड में ऐसा कोई भी नहीं है, जो तुझसे मुझ जैसा स्नेह करता हो। इतने वर्षों से, तुम मेरे प्रमुख आधार बने रहें, खासकर तुम्हारे पिता के निधन के बाद, तुमने मेरी ऐसे देखभाल की है, जैसी कोई पुरुष अपनी स्त्री की करता है, और इस प्रक्रिया में, तूने अपनी युवावस्था के स्वर्णिम काल का भी व्यय कर दिया। काश, तुम्हारी यह बूढ़ी लाचार माँ, इस विषय में कुछ कर पाती..!! परंतु तुम्हें कुछ देने के बजाय मैं आज, तुमसे कुछ मांगने वाली हूँ। अपने लिए नहीं, तुम्हारे मृत पिता की आत्मा के लिए..! क्या तुम उनकी दिवंगत आत्मा की शांति हेतु मेरा साथ दोगे? बताओ पुत्र।!!!" शाकिनी बड़ी ही सावधानी और होशियारी से अपनी चाल चल रही थी
"हाँ माँ, निश्चित रूप से आपकी सहायता करूंगा, ऐसा करना तो हर बेटे का कर्तव्य है। और यह तो मेरा सौभाग्य होगा। आप जो कहेंगे, मैं वही करूँगा। पर वह क्या बात है जिसके बारे में मुझे ज्ञान नहीं है? कृपया बताने का कष्ट कीजिए"
"ठीक है पुत्र। यदि तुम सज्ज और तत्पर हो, तो मैं तुम्हें इस बारे में बताती हूँ। दरअसल, तुम्हारे पिता, एक उच्च कोटि के तांत्रिक थे। अपनी मृत्यु से पहले वह एक पिशाचिनी की साधना कर रहे थे। पिशाचिनी का आह्वान तो हो गया था, परंतु उसे तृप्त नहीं किया जा सका क्योंकि तुम्हारे पिता की असमय मृत्यु हो गई और अनुष्ठान अधूरा रह गया। अब हमें पिशाचिनी को तृप्त कर, उस अनुष्ठान को पूरा करना होगा, ताकि तुम्हारे पिता की आत्मा को मुक्ति मिलें" वासना में अंध हो चुकी शाकिनी ने बताया
विस्मित राजा ने पूछा "परंतु माँ, मुझे उस पिशाचिनी को तृप्त करने के लिए क्या करना होगा??"
शाकिनी को बस इसी पल का तो इंतज़ार था।!!
"पुत्र, मैं उसका आह्वान करूंगी और वह मेरे माध्यम से तुमसे बात करेगी। परंतु एक बात का ध्यान रहें, तुम्हें उसे पूर्णतः संतुष्ट करना होगा और वह जो चाहे उसे करने देना होगा। साधना के माध्यम से, मैंने जाना है, कि वह मेरे शरीर में प्रवेश करना चाहती है। आह्वान होते ही, वह मेरे अंदर प्रविष्ट हो जाएगी, फिर शब्द उसके होंगे और जुबान मेरी होगी। उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने का विचार भी मत करना, अन्यथा तुम्हारे पिता की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी। जो भी करना बड़ी सावधानी से करना। मेरी शुभेच्छा तुम्हारे साथ है " शाकिनी ने आखिर अपना जाल बिछा ही दिया, जिसमे उसका पुत्र फँसता जा रहा था। जैसा वह चाहती थी, वैसा ही हो रहा था। नतमस्तक होकर पुत्र अपनी माता की बात सुनता रहा।
अब दोनों जमीन पर बैठ गए और साधना करने लगे। शाकिनी ने एक दिए को छोड़कर, अन्य सारे दिये और मोमबत्तियाँ बुझा दी। सन्नाटे भरे अंधेरे से कक्ष का वातावरण काफी गंभीर और डरावना सा प्रतीत हो रहा था। कुछ देर बाद, शाकिनी जोर-जोर से रोने लगी, चीखने चिल्लाने लगी और फर्श पर गिर गई। यह केवल एक दिखावा था, अपने पुत्र को जताने के लिए, की पिशाचिनी उसके शरीर में प्रवेश कर चुकी थी।
"माँ, क्या हुआ??" चिंतित कामशस्त्र अपनी माँ के करीब जा बैठा और तब शाकिनी सीधी होकर बैठी और जोर से हंसने लगी। उसने टूटी कर्कश आवाज़ में कहा, "मैं तेरी माँ नहीं हूँ, मूर्ख, मैं एक पिशाचिनी हूँ, जिसका आह्वान तेरे पिता ने किया था।" फिर वह खिलखिलाकर डरावनी हंसी हंसने लगी। अपनी माँ को पिशाचिनी समझकर, कामशस्त्र नमन करते हुए झुक गया।
"हे पिशाचिनी, मैं आपके लिए कर सकता हूं? आप आदेश करें, मैं वहीं करूंगा किन्तु मेरे पिता की आत्मा को मुक्त कीजिए" राजा ने कहा,
शाकिनी मन ही मन प्रसन्न हो रही थी क्योंकि उसे प्रतीत हो गया था की उसके पुत्र को इस नाटक पर विश्वास हो चुका था।
शाकिनी उत्कृष्ट अभिनय कर रही थी और अपने बेटे को मूर्ख बना रही थी। अब वह पिशाचिनी के रूप में, अपनी वासना की आग बुझा सकती थी। लालसा और प्रत्याशा से उसका योनिमार्ग सिकुड़ने-खुलने लगा। वह क्षण आ पहुंची थी की वह अपने पुत्र के साथ संभोग कर सके।
शाकिनी ने गुर्राते हुए कहा "मूर्ख राजा, मेरी बात ध्यान से सुन, तुझे मेरे साथ मैथुन कर मुझे तृप्त करना होगा। यदि तू मुझे प्रभावशाली संभोग से संतुष्ट करने में सफल रहा, तभी मैं तेरे पिता की आत्मा को मुक्त करूंगी..! अन्यथा यदि तू मेरी वासना की भूख की अवज्ञा करेगा या फिर सक्षमता से संभोग कर, मेरी योनि द्रवित नहीं कर पाएगा, तो मैं तेरे पूरे परिवार को नष्ट कर दूँगी। साथ ही तेरी प्रजा को भी"
राजा यह सुनकर स्तब्ध रह गया..!! कंठ से कोई शब्द निकल ही नहीं रहा था। यह पिशाचिनी की बातें उसे भयभीत कर गई। फिर उसने अपने मनोबल को जागृत किया। पिशाचिनी के प्रस्ताव को आदेश मानकर, अचानक उसकी नसों में रक्त, तेजी से बहने लगा..!! परंतु उसका मन अब भी दुविधा में था। आखिर वह शरीर तो उसकी माँ का ही था। कैसे वह अपने जन्म-स्थान में लिंग-प्रवेश कर सकता है?? क्या वह यह घोर पाप कर पाएगा?? राज-दरबार में ऐसे कई प्रसंग आए थे, जब उसने माताओं को अपने पुत्रों से विवाह और संभोग करने की अनुमति दी थी। पर उसने अपनी ही माता के बारे में ऐसी कल्पना, स्वप्न में भी नहीं की थी..!!
अपने पुत्र के मस्तिष्क में चल रहे इस विचार-युद्ध को शाकिनी ने भांप लिया।
उसने कहा "तुझे दूल्हा बनकर और मुझे दुल्हन बनाकर, पवित्र अग्नि के सात फेरे लेने होंगे। मेरी मांग में सिंदूर भरना होगा। उसके पश्चात तुझे मेरे साथ तब तक संभोग करना होगा, जब तक मेरी राक्षसी योनि स्खलित न हो जाए। तभी मैं तेरी माँ का शरीर छोड़ूँगी और तेरे पिता की आत्मा को मुक्त करूंगी" इतना सुनते ही कामशस्त्र की बचीकूची झिझक भी गायब हो गई। अपने माता के शरीर, पिता की आत्मा और प्रजा की कुशलता के लिए, अब उसे आगे बढ़ना ही था।
उसने शाकिनी के शरीर को अपनी मजबूत बाहों में उठाया और उसे बिस्तर पर ले गया। फिर उसके शरीर को सहलाते हुए, उसे दुल्हन के वस्त्रों में सजाया। चोली पहनाते समय जब उसके विराट स्तन दब गए तब शाकिनी सिहर उठी। कितने वर्षों के बाद किसी पुरुष ने उसके स्तनों को दबाया था..!! अपने बेटे की मर्दाना पकड़ से वह चकित हो उठी। उसकी विशाल हथेलियाँ, उन असाधारण भारी स्तनों को पकड़ने के लिए उपयुक्त थे। अपनी माता के स्तनों को हथेलियों से सहारा देते हुए कामशस्त्र पर, उसने मदहोश अदा से लंबे बालों को गिराया। शाकिनी की कमर धनुष की प्रत्यंचा की तरह मूड गई।
कामशस्त्र ने अपनी माता के शरीर को, वस्त्र और आभूषण का उपयोग कर, दुल्हन की तरह सजा दिया। वास्तव में वह अप्सरा जैसी सौंदर्यवती प्रतीत हो रही थी और अपने पुत्र से संभोग करने के लिए व्याकुल हो रही थी।
कामशस्त्र ने दूल्हे के वस्त्र धारण किए और शाकिनी को बिस्तर पर लेटा दिया। बिस्तर पर रेशम की चादर फैली हुई थी और ढेर सारे पुष्प भी थे। कुछ पुष्प तो शाकिनी के स्तनों जितने बड़े थे। फिर पिशाचिनी के रूप में शाकिनी ने अपने पुत्र को बाहों में खींच लिया और जोर से चिल्लाई
"हे जड़बुद्धि, किस बात की प्रतीक्षा कर रहा है? तत्काल मेरे शरीर को ग्रहण कर मूर्ख..!! वासना की आग मुझे जला रही है।" अपनी माता के मुख से ऐसे अश्लील उच्चारण सुनकर कामशस्त्र स्तब्ध हो गया।!! उसने अपनी माँ को कदापि ऐसे शब्द का उपयोग करते नहीं सुना था किन्तु वो समझ रहा था की यह शब्द उसकी माता नहीं, परंतु उसके शरीर में प्रविष्ट पिशाचिनी बोल रही है। अपने पुत्र की इस भ्रांति का दुरुपयोग कर, शाकिनी बोलने की इस निर्बाध स्वतंत्रता का आनंद लेते हुए, नीच से नीच शब्द-प्रयोग करती जा रही थी
"हाँ, मैं वह सब करूँगा जो आप चाहती हैं। कृपया पथ प्रदर्शित करें और बताइए की मुझे आगे क्या करना है " राजा ने डरते हुए पूछा
अब पिशाचिनी ने बेतहाशा अपना सिर दायें-बाएं घुमाया और अपने वस्त्र फाड़ दिए और अपने सुव्यवस्थित बालों को नोचने लगी..!! शाकिनी यह सारी क्रियाएं इसलिए कर रही थी, ताकि उसके पुत्र के मन में एक असली पिशाचिनी की छाप पैदा कर सकें। उसने जानबूझकर अपनी निप्पल वाली जगह से चोली फाड़ दी और साड़ी को कमर तक इस तरह उठा दिया, ताकि उसकी जांघें और योनि के बाल उजागर हो जाएँ।
इस अत्यंत उत्तेजित कर देने वाले नज़ारे को देखते ही, राजा का लिंग कांप उठा। अपनी माँ का शरीर शांत करने के लिए वह नजदीक गया। शाकिनी अभी भी पागलपन करते हुए कांप रही थी..!! शाकिनी के उन्माद को शांत करने के लिए, वह उसके पीछे गया और अपने दोनों हाथों से उसकी नंगी कमर को जकड़ लिया।
अपनी नग्न गोरी त्वचा पर अपने पुत्र के हाथों का यह कामुक स्पर्श, शाकिनी को अत्यंत प्रसन्न कर गया। उसके शरीर में जैसे बिजली सी कौंध गई। शांत होने के बजाय वह ओर तीव्रता से कांपते हुए शरीर हिलाने लगी ताकि उसके पुत्र के स्पर्श का अधिक से अधिक अनुभव कर सकें। वह कामशस्त्र की हथेली को, अपनी पीठ से लेकर पेट तक रगड़ने लगी।
अपनी माँ को शांत करने के लिए उसने अपनी बाहों को, उसके कंधों से लपेट दिया। ऐसा करने से उसकी हथेली और शाकिनी की निप्पलों के बीच की दूरी कम होती गई और जैसे ही उसकी उंगलियों का स्पर्श निप्पलों पर हुआ, शाकिनी अनियंत्रित जुनून से थरथराने लगी। कामशस्त्र ने निःसंकोच होकर दोनों निप्पलों को रगड़ दिया। शाकिनी ने चोली इस तरह फाड़ी थी की उसके दोनों स्तन-चक्र (ऐरोला) उजागर हो गए थे। चोली के उन छेदों से, राजा ने स्तनों की नंगी त्वचा को सहलाना शुरू कर दिया, और उसकी माँ पिशाचिनी होने का ढोंग किए जा रही थी। शाकिनी की हवस और उत्तेजना अब शिखर पर थी।
अचानक वह कर्कश आवाज में चिल्लाई, "यह व्यर्थ क्रियाएं क्यों कर रहा है।!! तूने अपने लिंग को मेरी योनि में अब तक डाला क्यों नहीं? क्या यह करने भी तेरा कोई सेवक आएगा।!!! मूर्ख राजा" चिल्लाते हुए वह उठ खड़ी हुई और अपने सारे वस्त्र उतार फेंकें। साथ ही उसने हिंसक रूप से अपने पुत्र के वस्त्र भी फाड़ दिए। पिशाचिनी के रूप में, सम्पूर्ण नग्न होकर वह अपने पुत्र के चेहरे पर बैठ गईं।
बिस्तर पर लेटे हुए राजा के मुख पर मंडरा रही अपनी माता के जंघा मूल और उसके मध्य में योनि की दरार को देखकर उसे घृणा होने लगी। किन्तु उसे तुरंत ही अपने कर्तव्य की याद आई। अपनी माँ और प्रजा को बचाने और पिता की आत्मा की मुक्ति के लिए उसे यह करना ही होगा..!!
शाकिनी अपनी योनि को राजा की नाक पर रगड़ते हुए उसके मुँह की ओर ले गई। कामशस्त्र को अपनी माँ की योनि से तेज़ मूत्र की गंध आ रही थी (उस काल में गुप्तांगों की स्वच्छता को इतना प्राधान्य नहीं दिया जाता था) उसकी माँ ने कभी गुप्तांग के बालों को नहीं काटा था, इसलिए उनकी लंबाई चार इंच से अधिक हो गई थी।
राजा के चेहरे पर उसकी माँ के योनि के बाल चुभ रहे थे। न चाहते हुए भी, उसे अपना मुख योनिद्वार के करीब ले जाना पड़ा। प्रारंभ में घृणास्पद लगने वाला कार्य, तब सुखद लगने लगा, जब शाकिनी ने अपनी योनि के होंठों को राजा के होंठों पर रख दिया और उसका लंड तुरंत क्रियाशील होकर कठोर हो गया। उसके होंठ यंत्रवत खुल गए और उसकी जीभ शाकिनी की गहरी सुरंग में घुस गई। वही स्थान में, जहां से वह इस दुनिया में आया था। वही स्थान, जिसमे उसके पिता ने संभोग कर, पर्याप्त मात्रा में वीर्य स्खलित कर, उसका सर्जन किया था।
शुरू में योनि का स्वाद उसे नमकीन लगा था किन्तु योनिस्त्राव का रिसाव होते ही, उसे अनोखा स्वाद आने लगा। उसकी जीभ गहरी.. और गहरी घुसती गई। शाकिनी अपने पुत्र द्वारा हो रहे इस मुख-मैथुन का आनंद लेते हुए, खुशी से पागल हो रही थी। इसी परमानंद में, उसने राजा के चेहरे पर अपने कूल्हों को घुमाना शुरू कर दिया और उसके गुदाद्वार का कुछ हिस्सा राजा की जीभ पर रगड़ गया। शाकिनी की कामुकता और प्रबल हो रही थी।
अब तक धीरजपूर्वक सारी क्रियाएं कर रहे राजा के लिए, यह सब असहनीय होता जा रहा था। मन ही मन वह सोच रहा था की यह पिशाचिनी तो वाकई में बेहद गंदी और कुटिल है। इसे तो हिंसक संभोग कर, पाठ पढ़ाना ही चाहिए..!!
धीरे से उसने माँ की चूत से अपना चेहरा हटाया और मातृत्व के प्रतीक जैसे दोनों विराट स्तनों के सामने आ गया। आह्ह।!! कितना अद्भुत द्रश्य था..!! साधना के उन सभी वर्षों में, जब से शाकिनी अपने स्तन खोलकर बैठती थी, तब से राजा की निंद्रा अनियमित हो गई थी। स्वप्न में भी, उसे वह स्तन नजर आते थे। इससे पहले की वह अपने गीले अधरों से, उन उन्मुक्त निप्पलों का पान कर पाता, उसकी हथेलियों ने उन विराट स्तनों को पकड़ लिया। स्तनों पर पुत्र के हाथ पड़ते ही, शाकिनी शांत हो गई। उसे यह स्पर्श बड़ा ही आनंददायी और अनोखा प्रतीत हो रहा था।
राजा ने शाकिनी को अपनी ओर खींचा और उन शानदार स्तनों की निप्पलों को चूसना शुरू कर दिया, शाकिनी अपने पुत्र के बालों में बड़े ही स्नेह से उँगलियाँ फेर रही थी। यह द्रश्य देखने में तो सहज लग सकता था। माता की गोद में लेटा पुत्र स्तनपान कर रहा था। अंतर केवल इतना था की अमूमन बालक स्तनपान कर सो जाता है, पर यहाँ तो माता और उसका बालिग पुत्र, इस क्रिया को, होने वाले संभोग की पूर्वक्रीडा के रूप में देख रहे थे।
शाकिनी अपने पुत्र कामशस्त्र को, अपने अति-आकर्षक अंगों से, लुभा रही थी ताकि वह उसका कामदंड उसकी यौनगुफा में प्रवेश करने के लिए आतुर हो जाएँ..!! राजा कामशस्त्र उन निप्पलों को बारी बारी से, इतने चाव से चूस रहा था की दोनों निप्पलें लार से सन कर चमक रही थी। इतने चूसे-चबाए जाने पर भी, वह निप्पलें तनकर खड़ी थी, जैसे और अधिक प्रहारों के लिए अब भी उत्सुक हो..!! उत्तेजित राजा ने निप्पलों को उंगली और अंगूठे के बीच दबाकर मरोड़ दिया। अब वह धीरे धीरे नीचे की ओर अपना सिर लेकर गया। माता की योनि की तरफ नहीं, पर उसके सुंदर गोरे चरबीदार पेट की ओर। मांसल चर्बी की एक परत चढ़ा हुआ पेट और उसके बीच गहरे कुएं जैसी गोल नाभि, योनि की तरह ही प्रतीत हो रही थी। इतनी आकर्षक, की देखने वाले को अपना लिंग उसमें प्रविष्ट करने के लिए उकसा दें..!!
माता शाकिनी ने भांप लिया की खेल को अंतिम चरण तक ले जाने का समय आ चुका है। हवस और वासना अपने प्रखरता पर थी। दोनों के शरीर कामज्वर से तप रहे थे। वह उठी और बिस्तर पर अपने पैर पसारकर ऐसे बैठ गई, की उसकी बालों से आच्छादित योनि, खुलकर उजागर हो जाएँ। पहले तो उसने योनि के बालों को दोनों तरफ कर मार्ग को खोल दिया और फिर अपने पुत्र को ऊपर लेकर उसके लिंग का दिशानिर्देश करते हुए योनि-प्रवेश करवा दिया। राजा को विश्वास नहीं हो रहा था की उसका लिंग अपनी माता की यौन-गुफा से स्पर्श कर रहा है..!! योनि के होंठों ने, बड़ी ही आसानी से राजा के लिंग को मार्ग दिया और उसने अपनी कमर को हल्का सा धक्का दिया। यह वही स्थान था जहां उसका गर्भकाल व्यतीत हुआ था..!! इसी स्थान ने फैलकर, उसे इस सृष्टि में जन्म दिया था..!! और अब उसका पौरुषसभर लिंग, उत्तेजना और आनंद की तलाश में उसे छेद रहा था। उसका लिंग-मुंड(सुपाड़ा), योनि मार्ग की इतनी गहराई तक पहुँच चुका था, उसका एहसास तब हुआ, जब उसकी माता के मुख से दर्द और आनंद मिश्रित सिसकारी निकल गई..!! किन्तु जब उसने अपनी माँ के चेहरे की ओर देखा, तब उसे अब भी पिशाचिनी की वही हिंसक अश्लीलता नजर आ रही थी। शाकिनी अत्यंत कुशलता से उत्तेजित पिशाचिनी की आड़ में अपनी कामाग्नि तृप्त कर रही थी।
राजा अपनी कमर को आगे पीछे करते हुए संभोग में प्रवृत्त हो रहा था। इस बात की अवज्ञा करते हुए की जिस योनि को उसका लिंग छेद रहा था, वह उसकी माता की थी।!! शाकिनी की यौनगुफा को वर्षों के बाद कोई लिंग नसीब हुआ था। खाली पड़े इस गृह में, नए मेहमान के स्वागत के लिए, योनि की दीवारों ने रसों का स्त्राव शुरू किया और आगंतुक को उस शहद की बारिश से भिगोने लगी। उस अतिथि को, जो आज रात, लंबी अवधि तक यही रहने वाला था..!! राजा के धक्कों का अनुकूल जवाब देने के लिए, शाकिनी भी अपनी जांघों और कमर से, लयबद्ध धक्के लगाने लगी। दोनों के बीच ऐसा ताल-मेल बैठ गया था जैसे किसी संगीत-संध्या में सितारवादक और तबलची के बीच जुगलबंदी चल रही हो।!!
अब शाकिनी ने राजा की दोनों हथेलियों को पकड़कर, दोनों स्तनों पर रख दिया ताकि संभोग के धक्के लगाते वक्त उसे आधार मिलें। अपनी माता के स्तनों को मींजते हुए और योनि में दमदार धक्के लगाते हुए, राजा को अजीब सी घबराहट और हल्की सी हिचकिचाहट अनुभवित हो रही थी। बालों वाली उस खाई के अंदर-बाहर हो रहे लिंग को, स्वर्गीय अनुभूति हो रही थी। पूरा कक्ष, योनि और लिंग के मिलन तथा दोनों की जंघाओं की थपकियों की सुखद ध्वनि से गूंज रहा था। वातावरण में यौन रसों की मादक गंध भी फैल रही थी।
पुत्र द्वारा माता की योनि का कर्तव्यनिष्ठ संभोग, शाकिनी को आनंद के महासागर में गोते खिला रहा था। कामशस्त्र का लिंग-मुंड, योनि के अंदर, काफी विस्तृत होकर फुल चुका था। राजा ने अपनी माता की आँखों में देखा, किन्तु वह लिंग के अंदर बाहर होने की प्रक्रिया से परमानन्द को अनुभवित करते हुए, आँखें बंद कर लेटी हुई थी। एक पल के लिए, शाकिनी यह भूल गई, कि उसे पिशाचिनी के रूप में ही अभिनय करना था और आनंद की उस प्रखरता में, वह बोल पड़ी..
"अत्यंत आनंद आ रहा है मुझे, पुत्र..!! इस विषय में तुम्हें इतना ज्ञान कैसे है..!! तुम्हारी यह काम क्रीड़ाएं, मुझे उन्मत्त कर रही है..!! आह्ह!! और अधिक तीव्रता से जोर लगाओ.. तुम्हारे शक्तिशाली लिंग से आज मेरी आग बुझा दो..!! मेरी योनि की तड़प अब असहनीय हो रही है.. पर मुझे अत्याधिक प्रसन्नता भी हो रही है। ओह्ह..!!" शाकिनी यह भूल गई थी की ऐसा बोलने से, यह साफ प्रतीत हो रहा था की यह पिशाचिनी नहीं, पर राजा की माता, शाकिनी बोल रही थी..!! पर राजा इस समय कामलीला में इतना मग्न था, की उसे इस बात का एहसास तक नहीं हुआ।
राजा अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर, योनि में धक्के लगाए जा रहा था। हर धक्के के साथ, उसकी तीव्रता और जोर भी बढ़ रहा था। जब राजा ने माता शाकिनी के दोनों विराट स्तनों को बड़े जोर से भींचते हुए शानदार धक्के लगाए, तब शाकिनी विचार करने की शक्ति खो बैठी और जोर से चिल्लाई "ओह मेरे प्रिय पुत्र! मेरे राजा..!! बस इसी तरह धक्के लगाते हुए मुझे स्वर्ग की अनुभूति करा। मेरी योनि को चीर दे। निचोड़ दे इसे। अपनी भूखी माता को संतुष्ट करने का कर्तव्य निभा.. आह्ह..!!"
शाकिनी की कराहें जब चीखो में परिवर्तित हुई तब राजा को तत्काल ज्ञान हुआ..!! यह शब्द तो उसकी माता के है..!! पिशाचिनी के बोलने का ढंग तो भिन्न था।!! संभवतः वह पिशाचिनी, उसकी माता के शरीर का त्याग कर चुकी थी। तो क्या वास्तव में उसकी माता ही आनंद की किलकारियाँ लगा रही थी???
शाकिनी परमानन्द की पराकाष्ठा पर पहुंचकर स्खलित हो रही थी और साथ ही साथ पिशाचिनी का अभिनय करने का व्यर्थ प्रयत्न भी कर रही थी पर अब यह दोनों के लिए स्पष्ट हो चुका था की उसका अभिनय अब राजा के मन को प्रभावित नहीं कर रहा था।
स्खलित होते हुए उत्तेजना से थरथराती शाकिनी की योनि से पुत्र कामशस्त्र ने अपना विशाल लिंग बाहर खींच लिया। पूरा लिंग उसकी माता के कामरस से लिप्त होकर चमक रहा था। उसने शाकिनी से पूछा "माँ, क्या आप कुशल है? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है की पिशाचिनी आपका देह त्याग चुकी है। आप मुझे पुत्र कहकर संबोधित कर रही थी जब की वह पिशाचिनी तो मुझे अनुचित नामों से ही बुलाती थी..!! जब आपने मुझे पुत्र कहकर संबोधित किया, तभी मैं समझ गया और अपना लिंग बाहर निकाल लिया..!!" यह कहते हुए राजा ने देखा की उसका लिंग-मुंड, जो माता शाकिनी के योनिस्त्राव से लेपित था, वह अब भी योनिमुख के निकट था। जबरदस्त संभोग के कारण, शाकिनी का योनिमार्ग अब भी खुला हुआ था और थरथरा रहा था..!!
शाकिनी को यह प्रतीत हुआ की अब सत्य को अधिक समय तक अपने पुत्र से छुपाने का अर्थ नहीं है..!! उत्तेजना की चरमसीमा पर, उससे अभिनय करने में चूक हो गई और अब वह अपने पुत्र को और भ्रमित करने की स्थिति में नहीं थी। शाकिनी ने उलटी दिशा में एक करवट ली और बोली "हाँ मेरे पुत्र। पिशाचिनी मेरे देह को त्याग चुकी है। पर जाते जाते, वह मेरे शरीर में, प्रचुर मात्रा में कामवासना छोड़ गई है। तुम से विनती है, की इस सत्य की अवज्ञा कर तुम अपना कार्य जारी रखो, अन्यथा यह असंतोष की भावना, मेरे प्राण हर लेगी।!! मुझे यह ज्ञात है, की जो मैं तुमसे मांग रही हूँ वह उचित नहीं है, किन्तु अपनी विधवा वृद्ध माता के सुख के लिए, क्या तुम इतना नहीं कर सकते? मैं अंतिम निर्णय तुम पर छोड़ती हूँ। इस आशा के साथ की तुम मेरी यह इच्छा पूर्ण करोगे। यदि तुम्हें अब भी मेरा देह सुंदर और आकर्षक लगता हो तो।!!"
इतना कहकर, शाकिनी शांत हो गई और अपने पुत्र के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी।!! शाकिनी करवट लेकर कामशस्त्र की विरुद्ध दिशा में लेटी हुई थी ताकि सत्य उजागर करते समय, पुत्र की नज़रों का सामना न करना पड़े।
अपने पुत्र से की वह प्रार्थना आखिर सफल हुई। यह उसे तब प्रतीत हुआ जब उसकी योनि की मांसपेशियाँ फिर से विस्तृत हुई और एक जीवंत मांस का टुकड़ा, अंदर प्रवेश करते हुए योनि की दीवारों को चौड़ी करने लगा..!! इस अनुभूति से शाकिनी आनंद से कराह उठी..!! चूंकि वह कामशस्त्र की विरुद्ध दिशा में करवट लेकर लेटी थी इसलिए उसे यह पता ही न चला की कब उसके पुत्र ने, माता के दोनों नितंबों को हथेलियों से चौड़ा कर, योनिमार्ग को ढूंढकर अपना लिंग अंदर प्रवेश कर दिया..!!
लिंग को तीव्रता से आगे पीछे करते हुए वह अपने हाथ आगे की दिशा में ले गया और माता के स्तनों को दोनों हथेलियों से जकड़ लिया..!! यह स्थिति उसे और अधिक बल से धक्के लगाने में सहायक थी..!! शाकिनी के आनंद की कोई सीमा न रही..!!
"मेरे प्रिय राजा। आज मैं स्वयं को, ब्रह्मांड की सबसे भाग्यशाली स्त्री और माता समझती हूँ..!!" शाकिनी ने गर्व से कहा
राजा ने प्रत्युतर में कहा "हे माता, मैं आपसे इतना स्नेह करता हूँ की आज के पश्चात मैं आपको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूँ"
यह सुन, शाकिनी ने चिंतित स्वर में कहा "परंतु हमारा समाज और प्रजाजन, प्रायः इस संबंध को स्वीकार नहीं करेंगे। मेरे सुझाव है की हम अपना यह संबंध गुप्त रखें। यहाँ महल की चार दीवारों की सुरक्षा के बीच हम पति-पत्नी बने रह सकते है"
"समाज और प्रजाजनों की प्रतिक्रिया की चिंता मुझे नहीं है। मैं एक राजा हूँ, मेरे वचन ही नियम है। मेरी इच्छाएं कानून का पर्याय है। मैं यह घोषणा करता हूँ, की माता और पुत्र के वैवाहिक और शारीरिक संबंधों को वैद्य माना जाए और ऐसे संबंध स्थापित करने के लिए किसी की भी अनुमति की आवश्यकता न हो"
अपने पुत्र के इस निर्णय से प्रभावित होते हुए शाकिनी ने कहा "अब से मैं तुम्हारी पत्नी हूँ। मैं तुम्हारे वीर्य से गर्भधारण करना चाहती हूँ। तुम्हारी संतान को अपने गर्भ में जनना चाहती हूँ"
अति-उल्लास पूर्वक राजा ने कहा "हे माता। मेरी भार्या.. यह तो अति-सुंदर विचार है। पति और पत्नी के रूप में, हमारे प्रेम के प्रतीक रूप, मैं अपना पुष्ट वीर्य तुम्हारे गर्भाशय में प्रस्थापित करने के लिए उत्सुक हूँ..!!" राजा के मन में, उभरे हुए उदर वाली शाकिनी की छवि मंडराने लगी.. जो उनके संतान को, अपने गर्भ में पोषित कर रही हो.. इस कल्पना मात्र से ही वह रोमांचित हो उठा, की आने वाले समय में, उसकी माता गर्भवती होगी और उस दौरान वह उसके संग भरपूर संभोग कर पाएगा..!! माता-पुत्र से पति-पत्नी तक परिवर्तन की इस स्थिति पर उसे गर्व की अनुभूति हो रही थी।
शाकिनी भी उस विचार से अत्यंत रोमांचित थी की उसका पुत्र अपना बीज उसके गर्भाशय में स्थापित करने के लिए तत्पर था। एक शिशु, जिसका सर्जन, ऐसे माता और पुत्र मिलकर करेंगे, जो अब पति और पत्नी के अप्रतिबंधित संबंध से जुड़ गए थे। वह मन ही मन, उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगी, जब उसकी योनि फैलकर, उनकी संतान को जन्म देगी। उसके स्तन, गाढ़े दूध से भर जाएंगे.. और फिर उसी दूध से, वह उस शिशु तथा अपने स्वामी रूपी पुत्र का, एक साथ पोषण करेगी।
अब राजा ऐसे पथ पर पहुँच चुका था जहां से पीछे मुड़ने का कोई मार्ग न था। उसके अंडकोश में वीर्य घौल रहा था और वह जानता था की अब अपनी माता के गर्भ में उस वीर्य को पर्याप्त मात्रा में स्खलित करने का समय आ गया था। उसने शाकिनी की योनि में गहराई तक धक्का लगाया.. और उसके लिंग से, जैसे वीर्य का विस्फोट हुआ..!! उपजाऊ वीर्य की अनगिनत चिपचिपी बौछारों ने शाकिनी के गर्भ को पूर्णतः भर दिया। उसी वीर्य का कोई एक शुक्राणु, शाकिनी के अँड से मिलन कर, नए जीव की उत्पत्ति करने वाला था।
शाकिनी अपने योनि मार्ग की गहराई में, पुत्र के गर्म वीर्य को महसूस करते हुए चीख पड़ी "ओह मेरे राजा..!! तुमने मुझे आज पूर्णता का अनुभव दिया है। वचन देती हूँ, की मैं एक आदर्श पत्नी बनकर तुम्हें खुश और संतुष्ट रखूंगी तथा अपने इस संतान का निर्वाह करूंगी, जिसका हमने अभी अभी निर्माण किया है"
उस पूरी रात्री, दोनों के बीच घमासान संभोग होता रहा।
दूसरे दिन, राजा कामशस्त्र ने राजदरबार में यह ऐलान किया की वह अपनी माता को पत्नी के रूप में स्वीकार करता है क्योंकि उनके उपयुक्त कोई भी पुरुष अस्तित्व में नहीं था। शाकिनी से विवाह के पश्चात, राजा कामशस्त्र ने यह कानून का निर्माण किया, जिसके तहत, हर पुत्र का, अपनी माता के शरीर पर अधिकार होगा। पुत्र की अनुमति के बगैर, माता अपने स्वामी से भी संभोग नहीं कर पाएगी।
इस नए कानून के परिणाम स्वरूप, वैतालनगर की उस रियासत में, ऐसे असंख्य बालकों ने जन्म लिया, जो कौटुंबिक व्यभिचार से उत्पन्न हुए। राजा कामशस्त्र और शाकिनी के शारीरिक संबंधों ने भी, एक पुत्री को जन्म दिया, जिसे नाम दिया गया योनिप्रभा।
कामशस्त्र और शाकिनी के निधन के पश्चात, योनिप्रभा की पीढ़ी दर पीढ़ी से उत्पन्न होती संतानें, आज भी प्रदेश के कई प्रांतों में, अस्तित्व में होगी।
योनिप्रभा उस बात का प्रमाण थी की एक पुत्र ने अपनी माता के गर्भ में, अपना बीज स्थापित कर, उसका निर्माण किया था। एक ऐसे घोर पाप के परिणाम से, जो क्षमायोग्य ही नहीं है।!!
॥ पांडुलिपि की अंतिम गाथा का अनुवाद ॥
दोष रहे दोष ही, इच्छा जो कहो
पतन के दोष जो छिपे न छुपते
जल-स्नान किए न पातक मिटते
सहज बनाने की कोशिश व्यर्थ
कुंठित बुद्धि जो करें अनर्थ
प्रिय पाठक गण, कथा पढ़ने के पश्चात, आप लोगों का क्या प्रतीत हुआ? क्या यह पिशाचिनी के श्राप का परिणाम था, जिसने माता और पुत्र के विचारों को दूषित कर, उन्हें इस पापी मार्ग पर धकेल दिया?? या वह दोनों स्वयं ही, अपनी शारीरिक इच्छाओं को समर्पित हो गए थे?? अपने प्रतिभाव व विचार अवश्य प्रकट करें..
कभी कभी इस जगत को देख कर लगता है जेसे ये सारा जगत ही संभोगरत है भोग और सम्भोग से परमात्मा भी राज़ी दिखाई देता है ,
शायद इसलिए की भोग से हम जिंदा रहते हैं और सम्भोग से संसार …….
लेकिन फिर हम इसको इतना बुरा क्यूँ मानते हैं …
क्या कामवासना बुरी है ?
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वासना स्वाभाविक है। प्रकृति की भेंट है। परमात्मा का दान है।
वासना अपने—आप में बिल्कुल स्वस्थ है।
वासना के बिना जी ही न सकोगे, एक क्षण न जी सकोगे।
सच तो यह है, संसार के पुराने से पुराने शास्त्र एक बात कहते हैं : परमात्मा अकेला था। उसके मन में वासना जगी कि मैं दो होऊं, इससे संसार पैदा हुआ। परमात्मा में भी वासना जगी कि मैं दो होऊं, कि मैं अनेक होऊं, कि मैं फैलूं, विस्तीर्ण होऊं, तो संसार पैदा हुआ! हम परमात्मा की ही वासना के हिस्से हैं, उसकी ही वासना की किरणें हैं।
इसलिए पहली बात : वासना स्वाभाविक है। वासना प्राकृतिक है, नैसर्गिक है। वासना बुरी नहीं है, पाप नहीं है।
जिन्होंने तुमसे कहा वासना पाप है, वासना बुरी है, वासना से बचो, वासना से हटो, वासना से भागो, वासना को दबाओ, काटो, मारो— —उन्होंने वासना को रुग्ण कर दिया। दबाई गई वासना रुग्ण हो जाती है। जो भी दबाया जाएगा वही जहर हो जाता है। दबने से मिटता तो नहीं, भीतर— भीतर सरक जाता है। उसकी सहज प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, क्योंकि तुम उसे प्रकट नहीं होने देते। वह फिर असहज रूप से प्रकट होने लगता है। और असहज रूप से जब वासना प्रकट होती है, तो विकृति, तो रोग, तो रुग्ण। तो तुमने एक सुंदर कुरूप कर डाला।
वासना तो परमात्मा की दी हुई है, विकृति तुम्हारे महात्माओं की दी हुई है। महात्माओं से सावधान! अपने परमात्मा को महात्माओं से बचाओं। तुम्हारे महात्मा परमात्मा के एकदम विपरीत मालूम होते हैं। और तुम्हें यह समझ में आ जाए कि तुम्हारे महात्मा परमात्मा के विपरीत है; तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए कि जो परमात्मा ने दिया है स्वाभाविक, सरल, जो जीवन का आधार है, उसे नष्ट करने में लग हैं— —तो तुम्हारे जीवन से रुग्णता समाप्त हो जाएगी, वासना का रोग विलीन हो जाएगा, विकृति विदा हो जाएगी।
समझो। कामवासना है। स्वाभाविक है। तुमने पैदा नहीं की है। जन्म के साथ मिली है। जीवन का अंग है। अनिवार्य अंग है। तुम्हारे मां और पिता को कामवासना न होती तो तुम न होते। इसलिए शास्त्र ठीक ही कहते हैं कि परमात्मा में वासना उठी होगी, तभी संसार हुआ। तुम्हारे मां और पिता में वासना न उठती तो तुम न होते। तुममें वासना उठेगी तो तुम्हारे बच्चे होंगे।
यह जो जीवन की श्रंखला चल रही है, यह जो जीवन का सातत्य है, यह जो जीवन की सरिता बह रही है, इसके भीतर जल वासना का है।
वासना बुरी नहीं हो सकती, क्योंकि जीवन बुरा नहीं है। जीवन प्यारा है, अति सुंदर है। लेकिन वासना को दबाने में लग जाओ— — और विकृति शुरू हो जाती है। वासना के ऊपर चढ़कर बैठ जाओ, उसकी छाती पर बैठ जाओ, उसको प्रकट न होने दो, उसको दबाओ, काटो, छांटो, कि बस फिर विकृति शुरू होती है। फिर अड़चन शुरू होती है। फिर वासना ऐसे ढंग से प्रकट होने लगती है, जो कि स्वाभाविक नहीं है।
जैसे : एक सुंदर स्त्री को देखकर तुम्हारे मन में अहोभाव का पैदा होना जरा भी अशस्त्र नहीं है। सुंदर फूल को देखकर तुम्हारे मन में अगर यह भाव उठता है सुंदर है, तो कोई पाप तो नहीं है। चांद को देखकर सुंदर है, तो पाप तो नहीं है। तो मनुष्य के साथ ही भेद क्यों करते हो? सुंदर स्त्री, सुंदर पुरुष को देखकर सौंदर्य का बोध होगा। होना चाहिए। अगर तुममें जरा भी बुद्धिमत्ता है तो होगा। अगर बिल्कुल जड़बुद्धि हो तो नहीं होगा।
इसलिए सौंदर्य के बोध में तो कुछ बुराई नहीं है, लेकिन तत्क्षण तुम्हारे भीतर घबड़ाहट पैदा होती है कि पाप हो रहा है; मैंने इस स्त्री को सुंदर माना, यह पाप हो गया, कि मैने कोई अपराध कर लिया। अब तुम इस भाव को दबाते हो। तुम इस स्त्री की तरफ देखना चाहते हो और नहीं देखते। अब विकृति पैदा हो रही है। अब तुम और बहाने से देखते हो, किसी और चीज को देखने के बहाने से देखते हो। तुम किस को धोखा दे रहे हो? या तुम भीड़ में उस स्त्री को धक्का मार देते हो। यह विकृति है। या तुम बाजार से गंदी पत्रिकाएं खरीद लाते हो, उनमें नग्न स्त्रियों के चित्र देखते हो। यह विकृति है।
और यह विकृति बहुत भिन्न नहीं है— — जो तुम्हारे ऋषि— मुनियों को होती रही। तुमने कथाएं पढ़ी हैं न, कि ऋषि ने बहुत साधना की और साधना के अंत में अप्सराएं आ गईं आकाश से। उर्वश आ गई और उसके चारों तरफ नाचने लगी। पोरनोग्रेफी नई नहीं है। ऋषि— मुनियों को उसका अनुभव होता रहा है। वह सब तरह की अश्लील भाव— भंगिमाएं करने लगी ऋषि — मुनियों के पास।
अब किस अप्सरा को पड़ी है ऋषि— मुनि के पीछे पड़ने की! ऋषि— मुनियों के पास, बेचारों के पास है भी क्या, कि अप्सराएं उनको जंगल में तलाश जाएं और नग्न होकर उनके आस— पास नाचे! सच तो यह है कि ऋषि — मुनि अगर अप्सराओं के घर भी दरवाजे पर जाकर खड़े रहते तो क्यू में उनको जगह न मिलती। वहां पहले से ही लोग राजा — महाराजा वहां खड़े होते। ऋषि — मुनियों को कौन घुसने देता? मगर कहानियां कहती हैं कि ऋषि— मुनि अपने जंगल में बैठे हैं — — आंख बंद किए, शरीर को जला कर, गला कर, भूखे— प्यासे, व्रत — उपवास किए हुए — — और अप्सराएं उनकी तलाश में आती हैं।
ये अप्सराएं मानसिक हैं। ये उनके मन की दबी हुई वासनाएं हैं। ये कहीं हैं नहीं। ये बाहर नहीं है। यह प्रक्षेपण है। यह स्वप्न है। उन्होंने इतनी बुरी तरह से वासना को दबाया है कि वासना दबते— दबते इतनी प्रगाढ़ हो गई है कि वे खुली आंख सपने देखने लगे हैं, और कुछ नहीं। हैल्यूसिनेशन है, संभ्रम है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, किसी आदमी को ज्यादा दिन तक भूखा रखा जाए तो उसे भोजन दिखाई पड़ने लगता है। और किसी आदमी को वासना से बहुत दिन तक दूर रखा जाए तो उसकी वासना का जो भी विषय हो वह दिखाई पड़ने लगता है। भ्रम पैदा होने लगता है। बाहर तो नहीं है, वह भीतर से ही बाहर प्रक्षेपित कर लेता है। ये ऋषि— मुनियों के भीतर से आई हुई घटनाएं हैं, बाहर से इनका कोई संबंध नहीं है। कोई इंद्र नहीं भेज रहा है। कहीं कोई द्वंद्व नहीं है और न कहीं उर्वशी है। सब इंद्र और सब उर्वशिया मनुष्य के मन के भीतर का जाल हैं।
तो तुम अगर कभी यह सोचते हो कि जंगल में बैठने से उर्वशी आएगी, भूल से मत जाना, कोई उर्वशी नहीं आती। नहीं तो कई ऋषि—मुनि इसी में हो गए हों, बैठे हैं जंगल में जाकर कि अब उर्वशी आती होगी, अब उर्वशी आती होगी! उर्वशी तुम पैदा करते हो, दमन से पैदा होती है। यह विकृति है। इस स्थिति को मैं मानसिक विकार कहता हूं। यह कोई उपलब्धि नहीं है। यह विक्षिप्तता है। यह है वासना की रुग्ण दशा।
तुम्हारे भीतर जो स्वाभाविक है, उसको सहज स्वीकार करो। और सहज स्वीकार से क्रांति घटती है। जल्दी ही तुम वासना के पार चले जाओगे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वासना में सदा रहोगे। लेकिन पार जाने का उपाय ही यही है कि उसका सहज स्वीकार कर लो। दबाना मत, अन्यथा कभी पार न जाओगे। उर्वशिया आती ही रहेंगी।
तुमने देखा कि चूंकि पुरुषों ने ही ये शास्त्र लिखे हैं, इसलिए उर्वशियां आती हैं। स्त्रियां अगर शास्त्र लिखतीं और स्त्रियां अगर साधनाएं करती जंगलों में, पहाड़ों में, तुम क्या समझते हो उर्वशी आती? स्वयं इंद्र आते। तब उनकी कहानियों में उर्वशी इंद्र को भेजती, क्योंकि उर्वशी से काम नहीं चल सकता था। जो तुम्हारी वासना का विषय है वही आएगा। उन्होंने अप्सराएं नहीं देखी होती, उन्होंने देखे होते कि चलो हिंदकेसरी चले आ रहे हैं, कि विश्व— विजेता मुहम्मद अली चले आ रहे हैं। स्त्रियां देखती उस तरह के सपने कि कोई अभिनेता चला आ रहा है। कल्पना है तुम्हारी।
मनुष्य वासना के पार निश्चित जा सकता है, जाता है। जाना चाहिए। मगर वासना से लड़कर कोई वासना के पार नहीं जाता। जिससे तुम लड़ोगे उसी में उलझे रह जाओगे। दुश्मनी सोच—समझ लेना, क्योंकि जिससे तुम दुश्मनी लोग उसी जैसे हो जाओगे। यह राज की बात समझो। मित्रता तो तुम किसी से भी करो तो चल जाएगी, मगर दुश्मनी बहुत सोच—समझकर लेना, क्योंकि दुश्मन से हमें लड़ना पड़ता है। और जिससे हमें लड़ना पड़ता है, हमें उसी की तकनीक, उसी के उपाय करने पड़ते हैं।
हिटलर से लड़ते वक्त चर्चिल को हिटलर जैसा ही हो जाना पड़ा। इसके सिवाए कोई उपाय न था। जो धोखा— धड़ी हिटलर कर रहा था वहीं चर्चिल को करनी पड़ी। हिटलर तो हार गया, लेकिन हिटलरवाद नहीं हारा। हिटलरवाद जारी है। जो—जो हिटलर से लड़े वही हिटलर जैसे हो गए। जीत गए, मगर जब तक जीते तब तक हिटलर उनकी छाती पर सवार हो गया।
जिससे तुम लड़ते हो, स्वभावत : उसके जैसा ही तुम्हें हो जाना पड़ेगा। लड़ना है तो उसके रीति—रिवाज पहचानने होंगे, उसके ढंग—ढौल पहचानने होंगे, उसकी कुंजिया पकड़नी होंगी, उसके दांव—पेंच सीखने होंगे। उसी में तो तुम उस जैसे हो जाओगे।
दुश्मन बड़ा सोचकर चुनना। वासना को अगर दुश्मन बनाया तो तुम धीरे— धीरे वासना के दलदल में ही पड़ जाओगे, उसी में सह जाओगे।
वासना दुश्मन नहीं है। वासना प्रभु का दान है। इससे शुरू करो। इसे स्वीकार करो। इसको अहोभाव से, आनंद—भाव से अंगीकार करो। और इसको कितना सुंदर बना सकते हो, बनाओ। इससे लड़ो मत। इसको सजाओ। इसे श्रृंगार दो। इसे सुंदर बनाओ। इसको और संवेदनशील बनाओ। अभी तुम्हें स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है, अपनी वासना को इतना संवेदनशील बनाओ कि स्त्री के सौंदर्य में तुम्हें एक दिन परमात्मा का सौंदर्य दिखाई पड़ जाए। अगर चांदत्तारों में दिखता है तो स्त्री में भी दिखाई पड़ेगा। पड़ना ही चाहिए। अगर चांद तारों में है तो स्त्री में क्यों न होगा? स्त्री और पुरुष तो इस जगत की श्रेष्ठतम अभिव्यक्तियां है। अगर फूलों में है——गूंगे फूलों में——तो बोलते हुए मनुष्यों में न होगा? अगर पत्थर पहाड़ों में है——जडु पत्थर—पहाड़ो में ——तो चैतन्य मनुष्य में न होगा… संवेदनशील बनाओ।
वासना से भगो मत। वासना से डरो मत। वासना को निखारो, शद्ध करो। यही मेरी पूरी प्रक्रिया है जो मैं यहां तुम्हें दे रहा हूं। वासना को शद्ध करो, निखारो। वासना को प्रार्थनापूर्ण करो। वासना को ध्यान बनाओ। और धीरे—धीरे तुम चमत्कृत हो जाओगे कि वासना ही तुम्हें वहां ले आयी, जहां तुम जाना चाहते थे वासना से लड़कर और नहीं जा सकते थे।
प्रेम करो। प्रेम से बचो मत। गहरा प्रेम करो! इतना गहरा प्रेम करो कि जिससे तुम प्रेम करो, वहीं तुम्हारे लिए परमात्मा हो जाए। इतना गहरा प्रेम करो! तुम्हारा प्रेम अगर तुम्हारे प्रेम—पात्र को परमात्मा न बना सके तो प्रेम ही नहीं है, तो कहीं कुछ कमी रह गई। तुम्हारे महात्मा कहते हैं कि प्रेम के कारण तुम परमात्मा को नहीं पा रहे हो। मैं तुमसे कहता हूं : प्रेम की कमी के कारण तुम परमात्मा को नहीं पा रहे हो। इस भेद को समझ लेना। इसलिए अगर तुम्हारे महात्मा मुझसे नाराज हैं तो बिल्कुल स्वाभाविक है। अगर मैं सही हूं तो वे सब नाराज होने ही चाहिए।
मैं कह रहा हूं : प्रेम तुममें कम है, इसलिए महात्मा तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हारी वासना बड़ी अधूरी है, अपंग है। तुम्हारी वासना को पंख नहीं है। पंख दो! तुम्हारी वासना को उड़ना सिखाओ! तुम्हारी वासना जमीन पर सरक रही है। मैं कहता हूं: वासना को आकाश में उड़ना सिखाओ।
परमात्मा अगर वासना के द्वारा संसार में उतरा है, तो तुम वासना की ही सीढ़ी पर चढ़कर परमात्मा तक पहुंचोगे, क्योंकि जिस सीढ़ी से उतरा जाता है उसी से चढ़ा जाता है। फिर तुम्हें दोहरा कर कह दूं। पुराने शास्त्र कहते हैं : परमात्मा में वासना जगी कि मैं अनेक होऊं। अकेला—अकेला थक गया होगा। तुम भीड़ से थक गए हो, वह अकेला—अकेला थक गया था। वह उतरा जगत में। तुम भीड़ से थक गए हो, अब तुम वापिस एकांत पाना चाहते हो, मोक्ष पाना चाहते हो, कैवल्य पाना चाहते हो, ध्यान—समाधि पाना चाहते हो। चढ़ो उसी सीढ़ी से, जिससे परमात्मा उतरा।
तुम जिस रास्ते से चलकर मुझ तक आए हो, घर जाते वक्त उसी रास्ते से लौटोगे न! तुम यह तो नहीं कहोगे कि इस रास्ते से तो हम अपने घर से दूर गए थे, इसी रास्ते पर हम कैसे अपने घर के पास जाएं, यह तो बड़ा तर्क विपरीत मालूम पड़ता है। नहीं; तुम जानते हो कि तर्क विपरीत नहीं है। जो रास्ता यहां तक लाया है, वहीं तुम्हें घर वापस ले जाएगा; सिर्फ दिशा बदल जाएगी, चेहरा बदल जाएगा। अभी यहां आते वक्त मेरी तरफ मुंह था, जाते वक्त मेरी तरफ पीठ हो जाएगी। आते वक्त घर की तरफ पीठ थी, जाते वक्त घर की तरफ मुंह हो जाएगा। बस इतना—सा रूपांतरण। विरोध नहीं, वैमनस्य नहीं, दमन नहीं, जबर्दस्ती नहीं, हिंसा नहीं।
अपने भीतर कभी झांकने पर मुझ लगा है कि मेरी अनेक वासनाएं रुग्ण हैं। देखना, उनका विश्लेषण करना। जो—जो वासनाएं रुग्ण हों, समझ लेना। खोज करोगे, अनुभव में भी आ जाएगा। वे वे ही वासनाएं हैं, जिन—जिनको तुमने दबाया है या जिन— जिनको तुम्ह सिखाया गया है दबाओ। वे रुग्ण हो गई हैं। उन्हें अभिव्यक्ति का मौका नहीं मिला। ऊर्जा भीतर पड़ी—पड़ी सह गई है। ऊर्जा को बहने दो।
झरने रुक जाते हैं तो सह जाते हैं। नदी ठहर जाती है तो गंदी हो जाती है। स्वच्छता के लिए नीर बहता रहना चाहिए। बहते नीर बनो! पानी बहता रहे। बहाव को अवरुद्ध मत करो। नहीं तो तुम बीमार वासनाओं से घिर जाओगे। और बीमार वासनाएं हों तो आत्मा स्वस्थ नहीं हो सकती। वे बीमार वासनाएं आत्मा के गले में पत्थर की चट्टानों की तरह लटकी रहेंगी; आत्मा उठ नहीं सकती आकाश में। वे बीमार वासनाएं घाव की तरह होंगी। उनसे मवाद रिसती रहेगी।
क्रमश :
ओशो रजनीश द्वारा कामवासना के शोध
मेरे पास एक व्यक्ति आया , ” उसके सुन्दर जिस्म पे उसका मुरझाया चेहरा ऐसा ही था जैसे बिना मूर्ति का मंदिर ”
मैंने उसे अन्दर आने का निमंत्रण दिया वो अन्दर आया मैंने उसे ” ” चाय पानी पूंछा ” लेकिन उसने मना करते हुए कहा
मैं आपके पास एक समस्या लेकर आया हूँ मेरे एक मित्र ने मुझे आप के पास भेजा है और कहा है की वो तुम्हारी समस्या का समाधान कर सकते हैं
” फिर झिझकते हुए ” लेकिन मैं आप से कैसे कहू मैं समझ नहीं पा रहा हूँ ,
अब कहना तो आपको पड़ेगा ही
क्यूंकि मौन संवाद में मैं अभी निपुण नहीं हो पाया हूँ – मैंने उससे हल्का करते हुए कहा |
थोड़ी देर शांत रहने के बाद वो बोला – मेरी उम्र ३८ साल है मैं पेशे से वकील हूँ लेकिन मैं
काम-वासना से ग्रसित हूँ
मैं हरवक्त काम के विषय में सोंचता रहता हूँ मुझे इससे मुक्त होना है मैं काम से मुक्त होना चाहता हूँ मुझे मार्ग बताए ….
मैंने उसकी बातो को सुना फिर मैंने उससे कहा ,, ” मित्र मुझे थोड़ी देर का काम है आप यहीं बैठो मैं आधे घंटे में आता हूँ ,,
और तुम बिलकुल भी चिंता मत करो तुम्हारा काम हो गया समझो ....
मैं ऐसे प्रयोग जानता हूँ की तुम्हारा काम बिलकुल ख़त्म हो जायेगा तुम चाह कर भी सम्भोग न कर सकोगे ,
लेकिन
जब तक मैं आऊ तुम्हे ये सोंच लेना है की तुम ऐसा करोगे या नहीं , ” क्यूंकि उसके बाद उसे वापस नहीं लाया जा सकेगा ” आप समझ रहे हैं न …. !!
उसकी मौन स्वीकृति के बाद मैं उसे वहीँ पे छोड़ कर चला गया …..
” आधे घंटे बाद ” मैं वापस पहुंचा अब उसके चहरे पे तनाव की जगह चिंता की लकीरे थी |
मैंने उससे पूंछा अब आप बताए आपका क्या फैसला है ,
” वो बोला ” स्वामी जी मैं ऐसा सोंच कर नहीं आया था , मैं काम-वासना से पूरी तरह मुक्त नहीं होना चाहता , क्यूंकि इसमें आनंद भी मिलता है
अगर मैं मुक्त हो गया तो वो आनंद भी नहीं उठा पाऊंगा आपने मुझे दुविधा में डाल दिया , ” मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है ” आप ही बताइए ?
” मैंने कहा ”
ये दुविधा सिर्फ तुमको ही नहीं है ये संसार के ९९% लोगो को है बस वो कह नहीं पाते ,
एक तरफ तो वो काम को जीते हैं क्यूंकि इसमें जो आनंद है वो कही नहीं दूसरी तरफ नही
वो इससे मुक्त भी होना चाहते हैं क्यूंकि कुछ लोगो ने इसे पाप से जोड़ दिया है
उसके कारण तो उन्होंने पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किये लेकिन लाखो लोगो को बिना बात के पापी होने का कारण दे गए ,,
” सच तो ये है की कामवासना एक शब्द नहीं है ये दो हैं काम और वासना ..... काम तो शुद्ध है लेकिन वासना अशुद्ध ......
क्यूंकि वासना का अर्थ ही होता है ” और की मांग ” काम में कोई भी पाप नहीं है लेकिन जब हमारा चित इसी की मांग से भर जाता है तब ये पाप को जनम देता है ,
और और की मांग पैदा ही तब होती है जब हम काम में उतरे भी और उसे पाप भी माने जैसे जब हम ब्रत उपवास करते हैं और हमें भूंख लगे तो यदि हम ले तो पाप ,, ” लेकिन वो ही भोजन हम रोज लेते हैं एक ज़रूरत की तरह तो कोई पाप नहीं होता ...
सेक्स भी इसी तरह की ज़रूरत है शायद कुछ लोग मेरी बात से सहमत न हो
क्यूंकि वो कहेंगे
कि सेक्स की ज़रूरत तो
बच्चे पैदा करने के लिए होती है ,,
तो मैं उन्हें बताना और पूंछना चाहूँगा कि क्या जब उनकी पत्नी गर्भ धरण कर चुकी ... तो फिर उन्होने उसके साथ सेक्स किया या नहीं .... ??
और साथ ही साथ ये भी कहना चाहूँगा कि अगर ऐसा ही होता तो हम जानवर से आगे नहीं आये होते ,, क्यूंकि सिर्फ जानवर ही सेक्स बच्चे पैदा करने के लिए करते है |
कोई भी स्वस्थ इंसान ७ अरब बच्चे पैदा कर सकता है लेकिन क्या वो कर पाता है
” नहीं ”
और न ही करने की ज़रूरत है |
( मैं उन लोगो को बता दू कि जिस धार्मिक आधार के कारण वो सेक्स को बच्चे पैदा करने का जरिया बताते हैं उस धर्म का मूल आधार ही सेक्स है )
” मेरी बात को बीच में ही काट कर वो बोला ” ,,
” लेकिन स्वामी जी पहले मुझे ऐसा क्यूँ नहीं होता था अभी तीन चार साल से ही मैं अपने अन्दर सेक्स को और तीव्रता से महसूस कर रहा हूँ मैं जब जवान था तो मुझे कोई कोई ही स्त्री भाती थी लेकिन अब तो ये होता है कि हर स्त्री के साथ सेक्स का भाव उठता है ”
” ऐसा क्यूँ ”
हाँ ये है क्यूंकि तुम्हारा सेक्स अपनी अंतिम यात्रा पे है ” दिया जब फड-फडाता है तब वो बुझने वाला होता है वो ही तुम्हारे साथ हो रहा है ||
शायद आपको अजीब लग रही होगी मेरी बात क्यूंकि आप कहेंगे कि हमने वो लोग देखे हैं जो ८० साल कि उम्र में भी सेक्स करते हैं उनका सेक्स क्यूँ नहीं ख़तम हुआ | तो मैं आपको आज इसका पूरा विज्ञान बताता हूँ |
हर सात साल में मनुष्य के शरीर में बदलाव होते हैं
0 से 7 साल में सेक्स का कोई अनुभव नहीं होता |
7 से 14 साल के बीच सेक्स के बारे में समझ पैदा होती है
( इस वक़्त बच्चे का रुझान शरीर में होने वाले बदलाव कि तरफ होता है इस वक़्त उसे ज़रूरत होती है कुछ दोस्तों कि जिनसे वो शरीर में होने वाले बदलाव के बारे में बात कर पाए )
14 से 21 साल के बीच सेक्स तूफ़ान पे होता है
इस वक़्त हम विपरीत सेक्स पार्टनर की तलाश में रहते हैं और ये ही वक़्त होता है जब किसी को प्रेम होने की सबसे ज्यादा सम्भावना होती है अभी क्यूंकि सेक्स का आगमन हुआ ही होता है वो अपने भविष्य को लेकर चिंतित नहीं दिखता इसलिए वो अपने लिए एक योग्य पार्टनर की तलाश ( विज्ञानं के आधार पे योग्य पार्टनर का मतलब एक ऐसा जोड़ा जो स्वस्थ्य बच्चो को जनम दे सके ) करता है |
लेकिन आज कल फिल्मो के कारण हमारा यह नजरिया कहीं खो गया है उसकी जगह ले ली है फ़िल्मी हीरो हेरोइन ने और वहीँ से भटकन शुरू होती है हम जिस तरह के पार्टनर को खोजते हैं वो अक्सर कहीं पाए ही नहीं जाते हैं
फिर आता है चौथा बदलाव 21 से 28 के बीच जब उस तरह के पार्टनर की तलाश से थक कर हम या तो जल्दबाजी में किसी को वैसा मान बैठते हैं जो वैसा बिलकुल भी नहीं है हम शादी जैसी व्यवस्था का सहारा लेते हैं
फिर शुरू होता है हताशा का दौर 99% लोग वो तो पा नहीं पाते जो वो खोजते थे और जो मिला है उसे सामाजिक जिम्मेवारियो के कारण झेलना पड़ता है हताशा बढती जाती है |
इस दौर में सेक्स को सही से न जी पाने के कारण एक कुंठा का जन्म होता है जिससे जन्म लेती है
अगली अवस्था –
28 से 35 के बीच हमारी कुंठा के कारण से हम सेक्स को बुरा मान बैठते हैं और इसी उम्र के लोग समाज में सबसे ज्यादा सेक्स का विरोध करते नज़र आते हैं इसी उम्र में लोग ज्यादा तर किसी न किसी को अपना गुरु बना लेते हैं जो उनकी कुंठा को और बढ़ाते हैं |
35 से 42 का दौर सबसे नाज़ुक दौर होता है ये वो दौर होता है जब सेक्स की ताक़त कम होने लगती है |
इसी वक़्त ज्यादा तर लोग अपनी दबी वासनाओ को जल्द से जल्द जी लेना चाहता है इसलिए वो सभी में कुछ न कुछ सौंदर्य देखने लगता है यही कारण है की वो और अधिक कामुक हो जाता है |
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी उर्जा को किसी और दिशा में लगा पाते हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता है की वो सेक्स से मुक्त हो गए सेक्स उनके अन्दर कुंठा के रूप में रहता है ऐसे ही लोग व्यापारी , समाज सेवी , कवि इत्यादि हो जाते हैं उसका कारण समाज का डर भी होता है इनको अगर मौका मिले तो ये लोग भी काम में उतर जाते है लेकिन छुप कर ,,,,
लेकिन तीसरे वो लोग होते हैं जिन्होंने सेक्स को कुंठा नहीं बनाया होता है और युवा अवस्था से ही समझ से भरे होते हैं ये लोग उस वक़्त सेक्स पे कब्ज़ा कर पाते हैं ये ही कारण है की ज्यादा तर लोग 35 से 42 साल के बीच की आयु में ज्ञान को उपलब्ध हुए |
उसके बाद के समय में लोगो के जीवन में सेक्स का रोल बदल जाता है 42 के बाद ज्यादा तर लोग सेक्स को शरीर से कम दिमाग से ज्यादा जीते पाए जाते हैं आपने देखा होगा की कैसे इस उम्र में लोग सेक्स की चर्चा में रस लेते हैं , कुछ लोग जो सामाजिक कारणों से ऐसा करते नहीं पाए जाते हैं वो स्त्रियों को छुप के देखने में रस लेते हैं |
हमें सेक्स को कुंठा की तरह नहीं देखना चाहिए इसके साथ समझ से चलने की ज़रूरत है
ये कामवासना हमारे जीवन का मुख्य हिस्सा हैं फ़िर भी दुनियां इसे पाप की नज़र से देखती हैं
आपकी राय की ज़रूरत पड़ेगी ………… अभी बहुत कुछ है विचार करने को है
Artical bahut badhiya hai. Likhane se aap bahut badhiya writer bhi mahsus hote ho. Par yaar ye story contest hai. Aap is knowledge ko kisi do jano ke bich conversation kar ke ek story bana sakte the. Koi bat nahi
Amour -writer
कहानी में बहुत कुछ समेटा गया है
ऐसा लगता है कि एक किस्सा किसी को सुना रहा हु कि ये हुआ था मेरे साथ।
कहानी Hinglish (fonts english language hindi) में है क्योंकि आपने इसे hinglish में लिखा है इसमें spelling mistake होती है । और इसमें बहुत से words समझ नहीं आते है।
कहानी की pace तेज महसूस होती है पर इसी pace के साथ इतना सबकुछ लिखना और word limit के अंदर likhna सही लगता है।
इसकी ending थोड़ी unpredictable होती है सारे इशारे लड़की की मौत के ओर होते हैं पर राजन अपने आप को मार डाले ते है।
इस कहानी का plot अच्छा था कही कही थोड़ा horror create किया जा सकता था कही कहीं situation बहुत जल्दी lagti ki ऐसा कैसा हुआ इतनी जल्दी।
kinkystuff
Writer - kinkystuff
सबसे पहले तोह आपकी कहानी की लिखावट अच्छी है शब्द और वाक्य को सही तरीके से दर्शाया गया है।
प्लॉट के हिसाब से मुझे यह एक average कहानी लगी। न हीरो की कहानी समझ आई कि प्यार करता है पर कहता नहीं है और लड़की प्यार खोजती रही और खोजते खोजते विक्रांत जो कि शादी शुदा और उसके उसके इरादे समझे बग़ैर उससे प्यार कर बैठी।
लिखा आपने अच्छा है पर प्लॉट कोई और होता तो और अच्छी कहानी बनती
Details अच्छी लिखीं अपने।
Spelling की गलती भी नहीं होती है
दोस्तों ये कहानी वास्तविक है. पर काल्पनिक और नाटकीय रूप से दर्शा रही हु.
पानी से भरे दो घड़े सर पर और एक बगल मे लिए बिना तेज़ी से चलने की कोसिस कर रही थी. और पीछे पीछे उसका 17 साल का देवर चंदगी आलस करते हुए तेज़ी से चलने की कोसिस कर रहा था. मगर वो इतनी तेज़ चलना नहीं चाहता था. रोनी सूरत बनाए अपनी भाभी से शिकायत करने लगा.
चंदगी : भाबी इतना तेज़ किकन(कैसे) चलूँगा.
बिना : बावडे थारे भाई ने खेताम(खेत मे) जाणो(जाना) है. जल्दी कर ले.
बिना का सामना रास्ते मे तहजीब दार मनचलो से हो गया.
बग्गा राम चौधरी : रे यों किस की भउ(बहु) हे रे.
सेवा राम : अरे यों. यों तो अपने चंदगी पहलवान की भाबी(भाभी) है.
अपने देवर की बेजती सुनकर बिना का मनो खून जल गया. वो रुक गई. साड़ी और घूँघट किए हुए. ब्लाउज की जगह फुल बाई का शर्ट पहना हुआ. वो उन मंचलो की बात सुनकर रुक गई. और तुरंत ही पलटी.
बिना : के कहे है चौधरी.
सेवा राम : (तेवर) मेन के कहा. तू चंदगी पहलवान की भाबी ना से???
बिना : इतना घमंड अच्छा कोन्या चौधरी.
बग्गा राम : रे जाने दे रे. चंदगी पहलवान की भाबी बुरा मान गी.
बिना को बार बार पहलवान शब्द सुनकर बहोत गुस्सा आ रहा था.
बिना : ईब ते चौधरी. मारा चंदगी पहलवान जरूर बनेगा.
बिना की बात सुनकर बग्गा और सेवा दोनों हसने लगे.
सेवा राम : के कहे हे. चंदगी ने पहलवान बणाओगी(बनाएगी). जे चंदगी पहलवान बण गया. ते मै मारी पगड़ी थारे कदमा मे धर दूंगा.
बिना : चाल चंदगी.
बिना चंदगी को लेकर अपने घर आ गई. चंदगी राम का जन्म 9 नवम्बर 1937 हरियाणा हिसार मे हुआ था. वो बहोत छोटे थे. तब ही उनके पिता माडूराम और माता सवानी देवी का इंतकाल हो गया था. माता पिता ना होने के कारन सारी जिम्मेदारी बड़ा भाई केतराम पर आ गई. भाई केतराम और भाभी बिना ने चंदगी राम जी को माता और पिता का प्यार दिया. उनका पालन पोषण किया.
अपनी दो संतान होने के बावजूद बिना ने चंदगी राम जी को ही पहेली संतान माना.
केतराम और बिना के दो संतान थे. उस वक्त बेटा सतेंदर सिर्फ 2 साल का था. और बेटी पिंकी 5 साल की थी. बिना ने चंदगी राम जी को जब पागलवान बनाने का बीड़ा उठाया. उस वक्त चंदगी राम 17 साल के थे. मतलब की पहलवानी की शारुरत करने के लिए ज्यादा वक्त बीत चूका था. पहलवानी शुरू करने की सही उम्र 10 से 12 साल की ही सही मानी जाती है. पर बिना ने तो चंदगी राम को पहलवान बनाने की ठान ही ली थी. जब की चंदगी राम पढ़ाई मे तो अच्छे थे.
मगर शरीर से बहोत ही दुबले पतले. इतने ज्यादा दुबले पतले की 20 से 30 किलो का वजन उठाने मे भी असमर्थ थे. अक्सर लोग चन्दगीराम जी का मज़ाक उड़ाते रहते. कोई पहलवान कहता तो कोई कुछ और. मगर चन्दगीराम उनकी बातो पर ध्यान नहीं देते. वो पढ़ाई भी ठीक ठाक ही कर लेते. उस दिन बिना घर आई और घड़े रख कर बैठ गई. गुस्से मे वो बहोत कुछ बड़ बड़ा रही थी.
बिना : (गुस्सा) बेरा ना(पता नहीं) के समझ राख्या(रखा) है.
केतराम समझ गया की पत्नी देवी की किसी से कढ़ाई हो गई.
केतराम : री भगवान के हो गया. आज रोटी ना बणाओगी के.
बिना एकदम से भिन्ना कर बोली.
बिना : (गुस्सा) एक दिन रोटी न्या खाई ते थारी भैंस दूध ना देगी के. आज कोन्या रोटी मिलती.
(एक दिन रोटी नहीं खाई तो तुम्हारी भैंस दूध नहीं देगी क्या. आज कोई रोटी नहीं मिलेगी.)
केतराम बिना कुछ बोले अपना गमछा लिया और बहार चल दिया. वो जानता था की उसकी पत्नी खेतो मे खुद रोटी देने आ ही जाएगी. वो खेतो की तरफ रवाना हो गया. केतराम के जाने के बाद बिना ने चंदगी राम की तरफ देखा. जो अपनी भतीजी को पढ़ा रहा था. पर वक्त जाते उसका दिमाग़ ठंडा हुआ. वो सोच मे पड़ गई की मेने दावा तो ठोक दिया. मगर चंदगी राम पहलवान बनेगा कैसे. वो एक बाजरे की बोरी तो उठा नहीं पता. पहलवानी कैसे होंगी. बिना का दिल टूट गया.
पर बाद मे खयाल आया की इन सब मे पति को तो बिना रोटी दिए ही खेतो मे भेज दिया. बिना ने रोटी सब्जी बनाई और खाना लेकर पहोच गई खेतो मे. दोनों ही एक पेड़ की छाव मे बैठ गए. और केतराम रोटी खाते ये महसूस करता है की अब उसकी बीवी का मूड कुछ शांत है. पर कही खोई हुई है.
केतराम : री के सोचे है भगवान? (क्या सोच रही हो भगवान?)
बिना : (सोच कर) अममम.. मै न्यू सोचु हु. क्यों ना अपने चंदगी ने पहलवान बणावे(बनाए).
केतराम : बावणी होंगी से के. (पागल हो गई है क्या.) अपणे चंदगी के बस की कोनी. (अपने चंदगी के बस की नहीं है.)
बिना कुछ बोली नहीं. बस अपने पति को रोटी खिलाकर घर आ गई. पर अपने देवर को पहलवान बनाने का उसके दिमाग़ पर जो भुत चढ़ा था. वो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. जब वो घर आई तब उसने देखा की उसका देवर चंदगी एक कटोरी दूध मे रोटी डुबो डुबो कर रोटी खा रहा है. चंदगी राम हमेसा डेढ़ रोटी कभी दूध या दही से खा लेता. बस उसकी इतनी ही डाइट थी.
बिना : घ्यो ल्याऊ के? (घी लाऊ क्या?)
चंदगी ने सिर्फ ना मे सर हिलाया.
बिना : न्यू सुखी रोटी खाओगा. ते पागलवान कित बणोगा. (ऐसे सुखी रोटी खाएगा तो पहलवान कैसे बनेगा)
चंदगी ने अपना मुँह सिकोड़ा.
चंदगी : अमम.. मेरे बस की कोन्या. मे करू कोनी (मेरे बस की नहीं है. मै नहीं करूँगा.)
बिना चंदगी पर गुस्सा हो गई.
बिना : बावणा हो गयो से के. मारी नाक कटाओगा. तू भूल लिया. मेने बग्गा ते के कही.
(पागल हो गया है. मेरी नाक कटवाएगा. तू भूल गया मेने बग्गा से क्या कहा)
चंदगी राम कुछ नहीं बोला. मतलब साफ था. वो पहलवानी नहीं करना चाहता था. बिना वही तखत पर बैठ गई. उसकी आँखों मे अंशू आ गए. बिना ससुराल मे पहेली बार अपने सास ससुर के मरने पर रोइ थी. उसके बाद जब चंदगी ने अपना फेशला सुना दिया की वो पहलवानी नहीं करेगा. कुछ देर तो चंदगी इधर उधर देखता रहा. पर एक बार जब नजर उठी और अपनी भाभी की आँखों मे अंशू देखे तो वो भी भावुक हो गया.
वो खड़ा हुआ और तुरंत अपनी भाभी के पास पहोच गया. चंदगी बहोत छोटा था जब उनके माँ बाप का इंतकाल हो गया. उसके लिए तो भाई भाभी ही माँ बाप थे. माँ जैसी भाभी की आँखों मे चंदगी अंशू नहीं देख पाया.
चंदगी : भाबी तू रोण कित लग गी. (तू रोने क्यों लगी है.) अच्छा तू बोलेगी मै वाई करूँगा.
चंदगी ने बड़े प्यार से अपनी भाभी का चहेरा थमा. और उनकी आँखों मे देखने लगा. अपने हाथो से भाभी के अंशू पोछे. बिना ने तुरंत ही चंदगी का हाथ अपने सर पर रख दिया.
बिना : फेर खा कसम. मै जो बोलूंगी तू वाई करोगा.
चंदगी : हा भाभी तेरी कसम. तू बोलेगी मै वाई करूँगा.
बिना की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. चंदगी को कोनसा पहलवान बन ना था. वो तो बस वही कर रहा था. जो उसकी भाभी चाहती थी. बिना उस पल तो मुस्कुरा उठी. पर समस्या तो ये थी की अपने देवर को पहलवान बनाए कैसे. उसी दिन घर का काम करते सबसे पहला आईडिया आया. जब वो पोचा लगा रही थी. उसे महेसूद हुआ की जब वो पोचा लगाती उसकी कलाई और हाथो के पंजे थोडा दर्द करते. बिना ने तुरंत चादगी को आवाज दि.
बिना : रे चंदगी.... इत आइये. (इधर आना)
चंदगी तुरंत अपनी भाभी के पास पहोच गया. बिना ने लोहे की बाल्टी से गिला पोचा चंदगी को पकड़ाया.
बिना : निचोड़ या ने.
चंदगी मे ताकत कम थी. पर पोचा तो वो निचोड़ ही सकता था. उसने ठीक से नहीं पर निचोड़ दिया. और अपनी भाभी के हाथो मे वो पोचा दे दिया. भाभी ने फिर उसे भिगोया.
बिना : ले निचोड़.
चंदगी को कुछ समझ नहीं आया. वो हैरानी से अपनी भाभी के चहेरे को देखने लगा.
बिना : ले... के देखे है. (क्या देख रहा है.)
चादगी कुछ बोला नहीं. बस बिना के हाथो से वो पोचा लिया. और निचोड़ दिया. बिना ने फिर उसी पोचे को पानी मे डुबोया. जिस से चंदगी परेशान हो गया.
चंदगी : भाबी तू के करें है.
बिना : ससससस... तन मेरी कसम है. मै बोलूंगी तू वाई करोगा. इसने भिगो और निचोड़.
चंदगी वही करता रहा. जो उसकी भाभी चाहती थी. बिना उसे छोड़ कर अपने घर से बहार निकल गई. उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था. उसे पता था की इस से क्या होगा. तक़रीबन एक घंटा बिना ने चंदगी से पोचा निचोड़वाया. शाम होने से पहले जब केतराम नहीं आया. बिना ने कई सारी सूत की बोरी ढूंढी. और सब को एक पानी की बाल्टी मे भिगो दिया. पहले दिन के लिए उसने कुछ पांच ही बोरिया भिगोई. बिना ने केतराम को कुछ नहीं बताया. बस सुबह 4 बजे उसने घोड़े बेच कर सोए चंदगी को उठा दिया.
बिना : चंदगी... चंदगी...
चंदगी : (नींद मे, सॉक) हा हा हा के होया???
बिना : चाल खड्या(खड़ा) होजा.
चंदगी को नींद से पहेली बार ही किसी ने जगाया. वरना तो वो पूरी नींद लेकर खुद ही सुबह उठ जाया करता. लेकिन एक ही बार बोलने पर चंदगी खड़ा हो गया. और आंखे मलते बहार आ गया.
चंदगी : के होया भाबी? इतनी रात ने जाग दे दीं.(क्या हुआ भाभी? इतनी रात को जगा दिया)
बिना : रात ना री. ईब ते भोर हो ली. तन पहलवान बणना से के ना. जा भजण जा. अपणे खेता तक भज के जाइये.
(रात नहीं रही. सुबह हो चुकी है. तुझे पहलवान बन ना है या नहीं. रनिंग करने जा. अपने खेतो तक रनिंग कर के आ.)
चंदगी का मन नहीं था. पर उसे ये याद था की उसने अपनी भाभी की कसम खाई है. वो रनिंग करने चले गया. पहले तो अँधेरे से उसे डर लगने लगा. पर बाद मे उसने देखा की गांव मे कई लोग सुबह जल्दी उठ चुके है. वो मरी मरी हालत से थोडा थोडा दौड़ता. थक जाता तो पैदल चलने लगता. वो ईमानदारी से जैसे तैसे अपने खेतो तक पहोंचा. उसने देखा की गांव के कई बच्चे सुबह सुबह रनिंग करने जाते थे. वो जब वापस लौटा तो उसे एक बाल्टी पानी से भरी हुई मिली. जिसमे बोरिया भिगोई हुई है. बिना भी वही खड़ी मिली.
बिना : चाल निचोड़ या ने.
थोडा बहोत ही सही. पर रनिंग कर के चंदगी थक गया था. रोने जैसी सूरत बनाए चंदगी आगे बढ़ा. और बोरियो को निचोड़ने लगा. चंदगी के शरीर ने पहेली बार महेनत की थी. उस दिन से चंदगी की भूख बढ़ने लगी. बिना चंदगी से महेनत करवा रही थी. पर उसकी नजर सात गांव के बिच होने वाले दिवाली के मेले पर थी. जिसमे एक कुस्ती की प्रतियोगिता होती. जितने वाले को पुरे 101 रूपय का इनाम था. उस वक्त 100 रुपया बड़ी राशि थी. बिना के पास चंदगी को तैयार करने के लिए मात्र 7 महीने का वक्त था.
चंदगी महेनत नहीं करना चाहता था. पर उसने अपनी भाभी की बात कभी टाली नहीं. सिर्फ एक हफ्ते तक यही होता रहा. बिना सुबह चार बजे चंदगी को उठा देती. चंदगी मन मार कर रनिंग करने चले जाता. और आकर बाल्टी मे भीगी हुई बोरियो को निचोड़ने लगा. नतीजा यह हुआ की रनिंग करते चंदगी जो बिच बिच मे पैदल चल रहा था. वो कम हुआ. और भागना ज्यादा हुआ. एक हफ्ते बाद वो 5 बोरिया 10 हो गई. गीली पानी मे भोगोई हुई बोरियो को निचोड़ते चंदगी के बाजुओं मे ताकत आने लगी. जहा चंदगी ढीला ढाला रहता था.
वो एक्टिवेट रहने लगा. चंदगी की भूख बढ़ने लगी. उसे घी से चुपड़ी रोटियां पसंद नहीं थी. पर भाभी ने उस से बिना पूछे ही नहीं. बस घी से चुपड़ी रोटियां चंदगी की थाली मे रखना शुरू कर दिया. जहा वो डेढ़ रोटियां खाया करता था. वो 7 के आस पास पहोचने लगी. जिसे केतराम ने रात का भोजन करते वक्त महसूस किया. रात घर के आंगन मे बिना चूले पर बैठी गरमा गरम रोटियां सेक रही थी. पहेली बार दोनों भाइयो की थाली एक साथ लगी. दोनों भाइयो की थाली मे चने की गरमा गरम दाल थी.
पहले तो केतराम को ये अजीब लगा की उसका भाई घर के बड़े जिम्मेदार मर्दो के जैसे उसजे साथ खाना खाने बैठा. क्यों की चंदगी हमेशा उसके दोनों बच्चों के साथ खाना खाया करता था. बस एक कटोरी मीठा दूध और डेढ़ रोटी. मगर अब उसका छोटा भाई उसके बराबर था.
केतराम मन ही मन बड़ा ही खुश हो रहा था. पर उसने अपनी ख़ुशी जाहिर नहीं की. दूसरी ख़ुशी उसे तब हुई जब चंदगी की थाली मे बिना ने तीसरी रोटी रखी. और चंदगी ने ना नहीं की. झट से रोटी ली.
और दाल के साथ खाने लगा. केतराम ने अपने भाई की रोटियां गिनती नहीं की. सोचा कही खुदकी नजर ना लग जाए. पर खाना खाते एक ख़ुशी और हुई. जब बिना ने चंदगी से पूछा.
बिना : चंदगी बेटा घी दू के??
चंदगी ने मना नहीं किया. और थाली आगे बढ़ा दीं. वो पहले घी नहीं खाया करता था. रात सोते केतराम से रहा नहीं गया. और बिना से कुछ पूछ ही लिया.
केतराम : री मन्ने लगे है. अपणे चंदगी की खुराक बढ़ गी.
(मुजे लग रहा है. अपने चंदगी की डायट बढ़ गई.)
केतराम पूछ रहा था. या बता रहा था. पर बिना ने अपने पति को झाड दिया.
बिना : हे... नजर ना लगा. खाण(खाने) दे मार बेट्टा(बेटा) ने.
केतराम को खुशियों के झटके पे झटके मिल रहे थे. उसकी बीवी उसके छोटे भाई को अपने बेटे के जैसे प्यार कर रही थी. वो कुछ बोला नहीं. बस लेटे लेटे मुस्कुराने लगा.
बिना : ए जी. मै के कहु हु??
केतराम : हा..???
बिना : एक भैंस के दूध ते काम ना चलेगा. अपण(अपने) एक भैंस और ले ल्या??
केतराम : पिसे(पैसे) का ते ल्याऊ(लाऊ)???
बिना : बेच दे ने एक किल्ला.
केतराम यह सुनकर हैरान था. क्यों की परिवार का कैसा भी काम हो. औरत एड़ी चोटी का जोर लगा देती है. पर कभी जमीन बिक्री नहीं होने देती. हफ्ते भर से ज्यादा हो चूका था. लेटे लेटे वो भी अपने भाई को सुबह जल्दी उठते देख रहा था. दूसरे दिन ही केतराम ने अपने 20 किल्ले जमीन मे से एक किला बेच दिया. और भैंस खरीद लाया. अब घी दूध की घर मे कमी नहीं रही.
चंदगी राम को धीरे धीरे महेनत करने मे मझा आने लगा. वो खुद ही धीरे धीरे अपनी रनिंग कैपेसिटी बढ़ा रहा था. स्कूल मे सीखी पी.टी करने लगा. दूसरे लड़को को भी वो रनिंग करते देखता था. साथ वो लड़के जो एक्सरसाइज करते थे. देख देख कर वही एक्सरसाइज वो भी करने लगा. पर वो अकेला खेतो मे रनिंग कर रहा था. वो घर से खेतो तक भाग कर जाता. और अपने जोते हुए खेत मे अलग से रनिंग करता.
वहां अकेला एक्सरसाइज करता दंड करता. और घर आता तब उसकी भाभी जो बाल्टी मे बोरिया भिगो दिया करती थी. उन्हें कश के निचोड़ने लगा. इसी बिच बिना ने अपने कान की बलिया बेच दीं. और उन पेसो से वो चंदगी के लिए बादाम और बाकि सूखे मेवे खरीद लाई. उसने ये केतराम को भी नहीं बताया. ये सब करते 6 महीने गुजर चुके थे. चंदगी के शरीर मे जान आ गई. वो बोरी को इस तरह निचोड़ रहा था की बोरिया फट जाया करती. बोरिया भी वो 50, 50 निचोड़ कर फाड़ रहा था. पर बड़ी समस्या आन पड़ी.
मेले को एक महीना बचा था. और अब तक चंदगी को लड़ना नहीं आया था. रात सोते बिना ने अपने पति से चादगी के लिए सिफारिश की.
बिना : ए जी सुणो हो?? (ए जी सुनते हो?)
केतराम : हा बोल के बात हो ली??
बिना : अपणे चंदगी णे किसी अखाड़ेम भेज्यो णे. (अपने चादगी को किसी अखाड़े मे भेजो ना?)
केत राम : ठीक से. मै पहलवान जी से बात करूँगा.
बिना को याद आया के जिस पहलवान की केतराम बात कर रहे है. वो सेवाराम के पिता है.
बिना : ना ना. कोई दूसरेन देख्यो. (किसी दूसरे को देखो.) कोई ओर गाम मे? अपणा चंदगी देखणा मेणाम(मेले मे) दंगल जीत्तेगा.
केतराम : बावड़ी होंगी से के तू. मेणान एक मिहना बचया से.
(पागल हो गई है तू. मेले को एक महीना बचा है.)
बिना : ब्याह ते पेले तो तम भी कुस्ती लढया करते. तम ना सीखा सको के?
(शादी से पहले तो आप भी कुस्ती लड़ा करते थे. क्या आप नहीं सीखा सकते?)
केतराम : मन तो मेरा बाबा सिखाओता. सीखाण की मेरे बस की कोनी. (मुजे तो मेरे पिता सिखाया करते. सीखाना मेरे बस की नहीं है)
बिना : पन कोशिश तो कर ल्यो ने.
केतराम सोच मे पड़ गया. बिना उमीदो से अपने पति के चहेरे को देखती रही.
केतराम : ठीक से. सांज ने भेज दिए खेताम. (ठीक है. साम को भेज देना खेतो मे.)
बिना के ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. दिनचर्या ऐसे ही बीती. चंदगी का सुबह दौड़ना, एक्सरसाइज करना, और अपने भाभी के हाथो से भिगोई हुई बोरियो को निचोड़ निचोड़ कर फाड़ देना. बिना ने चंदगी को शाम होते अपने खेतो मे भेज दिया. केतराम ने माटी को पूज कर अखाडा तैयार किया हुआ था. उसने उसे सबसे पहले लंगोट बांधना सिखाया. लंगोट के नियम समझाए. और दाव पेज सीखना शुरू किया. केतराम ने एक चीज नोट की.
चंदगी राम की पकड़ बहोत जबरदस्त मजबूत है. उसकी इतनी ज्यादा पकड़ मजबूत थी की केतराम का छुड़ाना मुश्किल हो जाता था. बहोत ज्यादा तो नहीं पर चंदगी राम काफ़ी कुछ सिख गया था. बचा हुआ एक महीना और गुजर गया. और दिवाली का दिन आ गया. सुबह सुबह बिना तैयार हो गई. और चंदगी राम को भी तैयार कर दिया. पर केतराम तैयार नहीं हुआ. दरसल उसे बेजती का डर लग रहा था. उसकी नजरों मे चंदगी राम फिलहाल दंगल के लिए तैयार नहीं था.
वही चंदगी को भी डर लग रहा था. वो अपने भाई से सीखते सिर्फ उसी से लढा था. जिसे वो सब सामान्य लग रहा था. लेकिन अशली दंगल मे लड़ना. ये सोच कर चंदगी को बड़ा ही अजीब लग रहा था. बिना अपने पति के सामने आकर खड़ी हो गई.
बिना : के बात हो ली. मेणाम ना चलो हो के?? (क्या बात हो गई. मेले मे नहीं चल रहे हो क्या?)
केतराम : मन्ने लगे है बिना... अपणा चंदगी तियार कोनी. (मुजे लग रहा है बिना फिलहाल अपना चंदगी तैयार नहीं है)
बिना जोश मे आ गई. ना जाने क्यों उसे ऐसा महसूस हो रहा था की आज चंदगी सब को चौका देगा.
बिना : धरती फाट जागी. जीब मारा चंदगी लढेगा. (धरती फट जाएगी. जब मेरा चंदगी लढेगा.) चुप चाप चल लो. बइयर दंगल मा कोनी जावे. (चुप चाप चल लो. औरते दंगल मे नहीं जाती.)
केतराम जाना नहीं चाहता था. वो मुरझाई सूरत बनाए अपनी पत्नी को देखता ही रहा.
बिना : इब चाल्लो ने. (अब चलो ना.)
केतराम बे मन से खड़ा हुआ. और तैयार होकर बिना, चंदगी के साथ मेले मे चल दिया. घुंघट किए बिना साथ चलते उसके दिमाग़ मे कई सवाल चल रहे थे. वही चंदगी को भी डर लग रहा था. पर वो अपनी भाभी को कभी ना नहीं बोल सकता था. मेला सात, आठ गांव के बिच था. सुबह काफ़ी भीड़ आई हुई थी. चलते केतराम और चंदगी राम आते जाते बुजुर्ग को राम राम कहता. कोई छोटा उसे राम राम करता तो वो राम राम का ज़वाब राम राम से करता. मेले मे चलते हुए उन तीनो को माइक पर दंगल का अनाउंसमेंट सुनाई दे रहा था.
पिछले साल के विजेता बिरजू धानक से कौन हाथ मिलाएगा. उसकी सुचना प्रसारित की जा रही थी. बिरजू पिछले बार का विजेता सेवा राम का छोटा भाई था. वो पिछले साल ही नहीं पिछले 3 साल से विजेता रहा हुआ था.
बिना : ए जी जाओ णे. अपने चंदगी का नाम लखा(लिखा) दो ने.
केतराम ने बस हा मे सर हिलाया. और दंगल की तरफ चल दिया. वो बोर्ड मेम्बरो के पास जाकर खड़ा हो गया. कुल 24 पहलवानो ने अपना नाम लिखवाया था. जिसमे से एक चंदगी भी था. केतराम नाम लिखवाकर वापस आ गया. उसे बेजती का बहोत डर लग रहा था.
बिना : नाम लखा(लिखा) दिया के??
केतराम ने हा मे सर हिलाया. सिर्फ केतराम ही नहीं चंदगी राम भी बहोत डर रहा था. वो पहले भी कई दंगल देख चूका था. धोबी पछड़ पटकनी सब उसे याद आ रहा था. तो बिना का भी कुछ ऐसा ही हाल था. पर उसका डर थोडा अलग था. वो ये सोच रही थी की चंदगी को दंगल लढने दिया जाएगा या नहीं. तभि अनाउंसमेंट हुई. जिन जिन पहलवानो ने अपना नाम लिखवाया है. वो मैदान मे आ जाए.
बिना : (उतावलापन) जा जा चंदगी जा जा.
चंदगी : (डर) हा...
चंदगी डरते हुए कभी अपनी भाभी को देखता. तो कभी दंगल की उस भीड़ को.
बिना : ए जी. ले जाओ णे. याने. (ए जी. ले जाओ ना इसे.)
केतराम चंदगी को दंगल मे ले गया. बिना वहां नहीं जा सकती थी. औरतों को दंगल मे जाने की मनाई थी. अनाउंसमेंट होने लगी की सारे पहलवान तैयार होकर मैदान मे आ जाए. जब केतराम चंदगी को लेकर भीड़ हटाते हुए मैदान तक पहोंचा तो वहां पहले से ही सात, आठ पहलवान लंगोट पहने तैयार खड़े थे.
केतराम उसे बेमन से लाया था. क्यों की चंदगी अब भी दुबला पतला ही था. वही जो पहलवान मैदान मे पहले से ही खड़े थे. वो मोटे ताजे तगड़े थे. जब चंदगी भी अपना कुरता पजामा उतार कर लंगोट मे उनके बिच जाकर खड़ा हुआ. तो वो सारे चंदगी को हैरानी से देखने लगे. कुछ तो हस भी दिए. यह सब देख कर चंदगी और ज्यादा डरने लगा. वही बग्गा राम और सेवा राम भी पब्लिक मे वहां खड़े थे. और बग्गाराम की नजर अचानक चंदगी राम पर गई. वो चौंक गया.
बग्गाराम : (सॉक) रे या मे के देखुता. (रे ये मै क्या देख रहा हु.)
सेवा राम : (हेरत) के चंदगी????
बग्गाराम : भउ बावड़ी हो गी से. (बहु पागल हो गई है.) इसके ते हार्ड(हड्डिया) भी ना बचेंगे.
वही अनाउंसमेंट होने लगा. खेल का फॉर्मेट और नियम बताए गए. नॉकआउट सिस्टम था. 24 मे से 12 जीते हुए पहलवान और 12 से 6, 6 से 3 पहलवान चुने जाने थे. और तीनो मे से बारी बारी जो भी एक जीतेगा वो पिछली साल के विजेता बिरजू से कुस्ती लढेगा. पहले लाढने वाले पहलवानो की प्रतिद्वंदी जोडिया घोषित हो गई. चंदगी के सामने पास के ही गांव का राकेश लाढने वाला था. उसकी कुस्ती का नंबर पांचवा था.
सभी पहलवानो को एक साइड लाइन मे बैठाया गया. महेमानो का स्वागत हुआ. और खेल शुरू हुआ. चंदगी को बहोत डर लग रहा था. पहेली जोड़ी की उठा पटक देख कर चंदगी को और ज्यादा डर लगने लगा. वो जो सामने खेल देख रहा था. वे सारे दाव पेच उसके भाई केतराम ने भी उसे सिखाए थे. पर डर ऐसा लग रहा था की वही दावपेच उसे नए लगने लगे. पहेली जोड़ी से एक पहलवान बहोत जल्दी ही चित हो गया. और तुरंत ही दूसरी जोड़ी का नंबर आ गया. दूसरी कुस्ती थोड़ी ज्यादा चली.
पर नतीजा उसका भी आया. उसके बाद तीसरी और फिर चौथी कुस्ती भी समाप्त हो गई. अब नंबर चंदगी का आ गया. जीते हुए पहलवान पहेले तो पब्लिक मे घूमते. वहां लोग उन्हें पैसे इनाम मे दे रहे थे. आधा पैसा, एक पैसा जितना. उनके पास ढेर सारी चिल्लर पैसे जमा होने लगी. उसके बाद वो जीते पहलवान एक साइड लाइन मे बैठ जाते. और हरे हुए मुँह लटकाए मैदान से बहार जा रहे थे. बगल मे बैठा राकेश खड़ा हुआ.
राकेश : चाल. इब(अब) अपणा नम्बर आ लिया.
चंदगी डरते हुए खड़ा हुआ. और डरते हुए मैदान मे आ गया. सभी चंदगी को देख कर हैरान रहे गए. दूसरे गांव वाले भी चंदगी को जानते थे. राकेश के मुकाबले चंदगी बहोत दुबला पतला था. हलाकि चंदगी का बदन भी कशरती हो चूका था. उसने बहोत महेनत की थी. मैच रेफरी ने दोनों को तैयार होने को कहा. और कुश्ती शुरू करने का इशारा दिया. दोनों ही लढने वाली पोजीशन लिए तैयार थे. बस चंदगी थोड़ा डर रहा था. हिशारा मिलते ही पहले राकेश आगे आया. और चंदगी पर पकड़ बना ने की कोशिश करने लगा. वही पोजीसन चंदगी ने भी बनाई.
मगर वो पहले से बचने की कोशिश करने लगा. दोनों ही पहलवानो ने एक दूसरे की तरफ झूकते हुए एक दूसरे के बाजु पकडे. और दोनों ही एक दूसरे की तरफ झूक गए. दोनों इसी पोजीशन मे बस ऐसे ही खड़े हो गए. सब सोच रहे थे की राकेश अभी चंदगी को पटकेगा. पर वो पटक ही नहीं रहा था. कुछ ज्यादा समय हुआ तो मैच रेफरी आगे आए. और दोनों को छुड़वाने के लिए दोनों को बिच से पकड़ते है. लोगो ने देखा. सारे हैरान रहे गए. राकेश के दोनों हाथ झूल गए.
वो अपनी ग्रीप छोड़ चूका था. छूट ते ही वो पहले जमीन पर गिर गया. खुद चंदगी ने ही झट से उसे सहारा देकर खड़ा किया. मैच रेफरी ने राकेश से बात की. वो मुँह लटकाए मरी मरी सी हालत मे बस हा मे सर हिला रहा था. उसके बाद वो रोनी सूरत बनाएं मैदान के बहार जाने लगा. उसके दोनों हाथ निचे ऐसे झूल रहे थे. जैसे लकवा मार गया हो. हकीकत यह हुआ की चंदगी ने डर से राकेश पर जब ग्रीप ली. तो उसने इतनी जोर से अपने पंजे कस दिए की राकेश का खून बंद हो गया. और खून का बहाव बंद होने से राकेश के हाथ ही बेजान हो गए थे. यह किसी को समझ नहीं आया. पर वहां आए चीफ गेस्ट को पता चल गया था की वास्तव मे हुआ क्या है.
कुश्ती अध्यक्ष : (माइक पर) रे के कोई जादू टोना करया(किया) के???
तभि चीफ गेस्ट खड़े हुए. और ताली बजाने लगे. एकदम से पब्लिक मे हा हा कार मच गइ. माइक पर तुरंत ही चंदगी के जीत की घोसणा कर दीं गई. मैदान और भीड़ से दूर सिर्फ माइक पर कमेंट्री सुन रही बिना ने जब सुना की उसका लाडला देवर अपने जीवन की पहेली कुश्ती जीत गया है तो उसने अपना घुंघट झट से खोल दिया. और मुस्कुराने लगी. उसकी आँखों मे खुशियों से अंशू बहे गए. पर गांव की लाज सरम कोई देख ना ले.
उसने वापस घुंघट कर लिया. वो घुंघट मे अंदर ही अंदर मुस्कुरा रही थी. पागलो के जैसे हस रही थी. जैसे उस से वो खुशी बरदास ही ना हो रही हो. केतराम भी पहले तो भीड़ मे अपने आप को छुपाने की कोसिस कर रहा था. पर जब नतीजा आया. वो भी मुस्कुराने लगा. पर भीड़ मे किसी का भी ध्यान उसपर नहीं था. वो गरीब अकेला अकेला ही मुस्कुरा रहा था. वही जीत के बाद भी चंदगी को ये पता ही नहीं चल रहा था की हुआ क्या. पब्लिक क्यों चिल्ला रही है. उसे ये पता ही नहीं चला की वो मैच जीत चूका है. मैच रेफरी ने चंदगी से मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया.
मैच रेफरी : भाई चंदगी मुबरका. तू ते जीत गया.
तब जाकर चंदगी को पता चला. और वो मुस्कुराया. लेकिन चीफ गेस्ट बलजीत सिंह चंदगी को देख कर समझ गए थे की कुश्ती मे चंदगी ने एक नया अविष्कार किया है. मजबूत ग्रीप का महत्व लोगो को समझाया है. उसके बाद चादगी बारी बारी ऐसे ही अपनी सारी कुश्ती जीत ता चला गया. और आखरी कुश्ती जो बिरजू से थी. उसका भी नंबर आ गया. अनाउंसमेंट हो गया. अब बिरजू का मुकाबला चंदगी से होगा.
सभी तालिया बजाने लगे. चार मुकाबले जीत ने के बाद चंदगी का कॉन्फिडेंस लेवल बहोत ऊपर था.
वही बिरजू देख रहा था की चंदगी किस तरह अपने प्रतिद्वंदी को हरा रहा है. किस तरह वो बस पकड़ के जरिये ही पहलवानो के हाथ पाऊ सुन कर देता. राकेश मानसिक रूप से पहले ही मुकाबला हार गया. पर जब चंदगी के साथ उसकी कुश्ती हुई तो उसने खुदने महसूस किया की किस तरह चंदगी ने पकड़ बनाई. और वो इतनी जोर से कश्ता की खून का बहना ही बंद हो जा रहा है.
दो बार का चैंपियन राकेश बहोत जल्दी हार गया. और चंदगी राम पहलवान नया विजेता बना. उसे मान सन्मान मिला. और पुरे 101 रूपये का इनाम मिला. भीड़ से दूर बिना बेचारी जो माइक पर कमेंट्री सुनकर ही खुश हो रही थी. जीत के बाद चंदगी भाई के पास नहीं भीड़ को हटाते अपनी भाभी के पास ही गया. उसने अपनी भाभी के पाऊ छुए. यह सब सेवा राम और बग्गा राम ने भी देखा. वो अपना मुँह छुपाककर वहां से निकल गए.
गांव मे कई बार आते जाते बिना का सामना सेवा राम और बग्गा राम से हुआ. पर बिना उनसे कुछ बोलती नहीं. बस घुंघट किए वहां से चली जाती. बिना को ये जीत अब भी छोटी लग रही थी. वो कुछ और बड़ा होने का इंतजार कर रही थी. इसी बिच चंदगी राम उन्नति की सीढिया चढने लगा. वो स्कूल की तरफ से खेलते जिला चैंपियन बना. और फिर स्टेट चैंपियन भी बना.
बिना को इतना ही पता था. वो बहोत खुश हो गई. उसने अपने पति केतराम से कहकर पुरे गांव मे लड्डू बटवाए. और बिना खुद ही उसी नुक्कड़ पर लड्डू का डिब्बा लिए पहोच गई. बग्गा राम और सेवा राम ने भी बिना को आते देख लिया. और बिना को देखते ही वो वहां से मुँह छुपाकर जाने लगे. लेकिन बिना कैसे मौका छोड़ती.
बिना : राम राम चौधरी साहब. माराह चादगी पहलवान बण गया. लाड्डू (लड्डू) तो खाते जाओ.
ना चाहते हुए भी दोनों को रुकना पड़ा. बिना उनके पास घुंघट किए सामने खड़ी हो गई. और लड्डू का डिब्बा उनके सामने कर दिया.
बिना : लाड्डू खाओ चौधरी साहब. मारा चंदगी सटेट चैम्पयण ( स्टेट चैंपियन) बण गया.
बग्गा राम : भउ(बहु) क्यों भिगो भिगो जूता मारे है.
सेवा राम : हम ते पेले (पहले) ही सर्मिन्दा से. ले चौधरी सु. जबाण (जुबान) का पक्का.
बोलते हुए सेवाराम ने अपनी पघड़ी बिना के पेरो मे रखने के लिए उतरी. पर बिना ने सेवा राम के दोनों हाथो को पकड़ लिया. और खुद ही अपने हाथो से सेवा राम को उसकी पघड़ी पहनाइ.
बिना : ओओ ना जी ना. जाटा की पघड़ी ते माथे पे ही चोखी लगे है. जे तम ना बोलते तो मारा चंदगी कित पहलवान बणता. मे तो थारा एहसाण मानु हु. बस तम मारे चंदगी ने आशीर्वाद देओ.
(ओओ नहीं जी नहीं. जाटो की पघड़ी तो सर पर ही अच्छी लगती है. जो आप ना बोलते तो मेरा चंदगी कैसे पहलवान बनता. मै तो आप लोगो का एहसान मानती हु. बस आप मेरे चंदगी को आशीर्वाद दो.)
सेवा राम : थारा चंदगी सटेट चैम्पयण के बल्ड चैम्पयण बणेगा. देख लिए.
(तेरा चंदगी स्टेट चैंपियन क्या वर्ल्ड चैंपियन बनेगा. देख लेना.)
बिना ने झूक कर दोनों के पाऊ छुए. लेकिन चादगी राम इतने से रुकने वाले नहीं थे. वो स्पोर्ट्स कोटे से आर्मी जाट रेजीमेंट मे भार्थी हुए. दो बार नेशनल चैंपियन बने. उसके बाद वो हिन्द केशरी बने. 1969 मे उन्हें अर्जुन पुरस्कार और 1971 में पदमश्री अवार्ड से नवाजा गया। इसमें राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के अलावा हिंद केसरी, भारत केसरी, भारत भीम और रूस्तम-ए-हिंद आदि के खिताब शामिल हैं।
ईरान के विश्व चैम्पियन अबुफजी को हराकर बैंकाक एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतना उनका सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन माना जाता है। उन्होंने 1972 म्युनिख ओलम्पिक में देश का नेतृत्व किया और दो फिल्मों 'वीर घटोत्कच' और 'टारजन' में काम किया और कुश्ती पर पुस्तकें भी लिखी। 29 जून 2010 नइ दिल्ली मे उनका निधन हो गया. ये कहानी चंदगी राम जी को समर्पित है. भगवान उनकी आत्मा को शांति दे.
दोस्तों ये कहानी वास्तविक है. पर काल्पनिक और नाटकीय रूप से दर्शा रही हु.
पानी से भरे दो घड़े सर पर और एक बगल मे लिए बिना तेज़ी से चलने की कोसिस कर रही थी. और पीछे पीछे उसका 17 साल का देवर चंदगी आलस करते हुए तेज़ी से चलने की कोसिस कर रहा था. मगर वो इतनी तेज़ चलना नहीं चाहता था. रोनी सूरत बनाए अपनी भाभी से शिकायत करने लगा.
चंदगी : भाबी इतना तेज़ किकन(कैसे) चलूँगा.
बिना : बावडे थारे भाई ने खेताम(खेत मे) जाणो(जाना) है. जल्दी कर ले.
बिना का सामना रास्ते मे तहजीब दार मनचलो से हो गया.
बग्गा राम चौधरी : रे यों किस की भउ(बहु) हे रे.
सेवा राम : अरे यों. यों तो अपने चंदगी पहलवान की भाबी(भाभी) है.
अपने देवर की बेजती सुनकर बिना का मनो खून जल गया. वो रुक गई. साड़ी और घूँघट किए हुए. ब्लाउज की जगह फुल बाई का शर्ट पहना हुआ. वो उन मंचलो की बात सुनकर रुक गई. और तुरंत ही पलटी.
बिना : के कहे है चौधरी.
सेवा राम : (तेवर) मेन के कहा. तू चंदगी पहलवान की भाबी ना से???
बिना : इतना घमंड अच्छा कोन्या चौधरी.
बग्गा राम : रे जाने दे रे. चंदगी पहलवान की भाबी बुरा मान गी.
बिना को बार बार पहलवान शब्द सुनकर बहोत गुस्सा आ रहा था.
बिना : ईब ते चौधरी. मारा चंदगी पहलवान जरूर बनेगा.
बिना की बात सुनकर बग्गा और सेवा दोनों हसने लगे.
सेवा राम : के कहे हे. चंदगी ने पहलवान बणाओगी(बनाएगी). जे चंदगी पहलवान बण गया. ते मै मारी पगड़ी थारे कदमा मे धर दूंगा.
बिना : चाल चंदगी.
बिना चंदगी को लेकर अपने घर आ गई. चंदगी राम का जन्म 9 नवम्बर 1937 हरियाणा हिसार मे हुआ था. वो बहोत छोटे थे. तब ही उनके पिता माडूराम और माता सवानी देवी का इंतकाल हो गया था. माता पिता ना होने के कारन सारी जिम्मेदारी बड़ा भाई केतराम पर आ गई. भाई केतराम और भाभी बिना ने चंदगी राम जी को माता और पिता का प्यार दिया. उनका पालन पोषण किया.
अपनी दो संतान होने के बावजूद बिना ने चंदगी राम जी को ही पहेली संतान माना.
केतराम और बिना के दो संतान थे. उस वक्त बेटा सतेंदर सिर्फ 2 साल का था. और बेटी पिंकी 5 साल की थी. बिना ने चंदगी राम जी को जब पागलवान बनाने का बीड़ा उठाया. उस वक्त चंदगी राम 17 साल के थे. मतलब की पहलवानी की शारुरत करने के लिए ज्यादा वक्त बीत चूका था. पहलवानी शुरू करने की सही उम्र 10 से 12 साल की ही सही मानी जाती है. पर बिना ने तो चंदगी राम को पहलवान बनाने की ठान ही ली थी. जब की चंदगी राम पढ़ाई मे तो अच्छे थे.
मगर शरीर से बहोत ही दुबले पतले. इतने ज्यादा दुबले पतले की 20 से 30 किलो का वजन उठाने मे भी असमर्थ थे. अक्सर लोग चन्दगीराम जी का मज़ाक उड़ाते रहते. कोई पहलवान कहता तो कोई कुछ और. मगर चन्दगीराम उनकी बातो पर ध्यान नहीं देते. वो पढ़ाई भी ठीक ठाक ही कर लेते. उस दिन बिना घर आई और घड़े रख कर बैठ गई. गुस्से मे वो बहोत कुछ बड़ बड़ा रही थी.
बिना : (गुस्सा) बेरा ना(पता नहीं) के समझ राख्या(रखा) है.
केतराम समझ गया की पत्नी देवी की किसी से कढ़ाई हो गई.
केतराम : री भगवान के हो गया. आज रोटी ना बणाओगी के.
बिना एकदम से भिन्ना कर बोली.
बिना : (गुस्सा) एक दिन रोटी न्या खाई ते थारी भैंस दूध ना देगी के. आज कोन्या रोटी मिलती.
(एक दिन रोटी नहीं खाई तो तुम्हारी भैंस दूध नहीं देगी क्या. आज कोई रोटी नहीं मिलेगी.)
केतराम बिना कुछ बोले अपना गमछा लिया और बहार चल दिया. वो जानता था की उसकी पत्नी खेतो मे खुद रोटी देने आ ही जाएगी. वो खेतो की तरफ रवाना हो गया. केतराम के जाने के बाद बिना ने चंदगी राम की तरफ देखा. जो अपनी भतीजी को पढ़ा रहा था. पर वक्त जाते उसका दिमाग़ ठंडा हुआ. वो सोच मे पड़ गई की मेने दावा तो ठोक दिया. मगर चंदगी राम पहलवान बनेगा कैसे. वो एक बाजरे की बोरी तो उठा नहीं पता. पहलवानी कैसे होंगी. बिना का दिल टूट गया.
पर बाद मे खयाल आया की इन सब मे पति को तो बिना रोटी दिए ही खेतो मे भेज दिया. बिना ने रोटी सब्जी बनाई और खाना लेकर पहोच गई खेतो मे. दोनों ही एक पेड़ की छाव मे बैठ गए. और केतराम रोटी खाते ये महसूस करता है की अब उसकी बीवी का मूड कुछ शांत है. पर कही खोई हुई है.
केतराम : री के सोचे है भगवान? (क्या सोच रही हो भगवान?)
बिना : (सोच कर) अममम.. मै न्यू सोचु हु. क्यों ना अपने चंदगी ने पहलवान बणावे(बनाए).
केतराम : बावणी होंगी से के. (पागल हो गई है क्या.) अपणे चंदगी के बस की कोनी. (अपने चंदगी के बस की नहीं है.)
बिना कुछ बोली नहीं. बस अपने पति को रोटी खिलाकर घर आ गई. पर अपने देवर को पहलवान बनाने का उसके दिमाग़ पर जो भुत चढ़ा था. वो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. जब वो घर आई तब उसने देखा की उसका देवर चंदगी एक कटोरी दूध मे रोटी डुबो डुबो कर रोटी खा रहा है. चंदगी राम हमेसा डेढ़ रोटी कभी दूध या दही से खा लेता. बस उसकी इतनी ही डाइट थी.
बिना : घ्यो ल्याऊ के? (घी लाऊ क्या?)
चंदगी ने सिर्फ ना मे सर हिलाया.
बिना : न्यू सुखी रोटी खाओगा. ते पागलवान कित बणोगा. (ऐसे सुखी रोटी खाएगा तो पहलवान कैसे बनेगा)
चंदगी ने अपना मुँह सिकोड़ा.
चंदगी : अमम.. मेरे बस की कोन्या. मे करू कोनी (मेरे बस की नहीं है. मै नहीं करूँगा.)
बिना चंदगी पर गुस्सा हो गई.
बिना : बावणा हो गयो से के. मारी नाक कटाओगा. तू भूल लिया. मेने बग्गा ते के कही.
(पागल हो गया है. मेरी नाक कटवाएगा. तू भूल गया मेने बग्गा से क्या कहा)
चंदगी राम कुछ नहीं बोला. मतलब साफ था. वो पहलवानी नहीं करना चाहता था. बिना वही तखत पर बैठ गई. उसकी आँखों मे अंशू आ गए. बिना ससुराल मे पहेली बार अपने सास ससुर के मरने पर रोइ थी. उसके बाद जब चंदगी ने अपना फेशला सुना दिया की वो पहलवानी नहीं करेगा. कुछ देर तो चंदगी इधर उधर देखता रहा. पर एक बार जब नजर उठी और अपनी भाभी की आँखों मे अंशू देखे तो वो भी भावुक हो गया.
वो खड़ा हुआ और तुरंत अपनी भाभी के पास पहोच गया. चंदगी बहोत छोटा था जब उनके माँ बाप का इंतकाल हो गया. उसके लिए तो भाई भाभी ही माँ बाप थे. माँ जैसी भाभी की आँखों मे चंदगी अंशू नहीं देख पाया.
चंदगी : भाबी तू रोण कित लग गी. (तू रोने क्यों लगी है.) अच्छा तू बोलेगी मै वाई करूँगा.
चंदगी ने बड़े प्यार से अपनी भाभी का चहेरा थमा. और उनकी आँखों मे देखने लगा. अपने हाथो से भाभी के अंशू पोछे. बिना ने तुरंत ही चंदगी का हाथ अपने सर पर रख दिया.
बिना : फेर खा कसम. मै जो बोलूंगी तू वाई करोगा.
चंदगी : हा भाभी तेरी कसम. तू बोलेगी मै वाई करूँगा.
बिना की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. चंदगी को कोनसा पहलवान बन ना था. वो तो बस वही कर रहा था. जो उसकी भाभी चाहती थी. बिना उस पल तो मुस्कुरा उठी. पर समस्या तो ये थी की अपने देवर को पहलवान बनाए कैसे. उसी दिन घर का काम करते सबसे पहला आईडिया आया. जब वो पोचा लगा रही थी. उसे महेसूद हुआ की जब वो पोचा लगाती उसकी कलाई और हाथो के पंजे थोडा दर्द करते. बिना ने तुरंत चादगी को आवाज दि.
बिना : रे चंदगी.... इत आइये. (इधर आना)
चंदगी तुरंत अपनी भाभी के पास पहोच गया. बिना ने लोहे की बाल्टी से गिला पोचा चंदगी को पकड़ाया.
बिना : निचोड़ या ने.
चंदगी मे ताकत कम थी. पर पोचा तो वो निचोड़ ही सकता था. उसने ठीक से नहीं पर निचोड़ दिया. और अपनी भाभी के हाथो मे वो पोचा दे दिया. भाभी ने फिर उसे भिगोया.
बिना : ले निचोड़.
चंदगी को कुछ समझ नहीं आया. वो हैरानी से अपनी भाभी के चहेरे को देखने लगा.
बिना : ले... के देखे है. (क्या देख रहा है.)
चादगी कुछ बोला नहीं. बस बिना के हाथो से वो पोचा लिया. और निचोड़ दिया. बिना ने फिर उसी पोचे को पानी मे डुबोया. जिस से चंदगी परेशान हो गया.
चंदगी : भाबी तू के करें है.
बिना : ससससस... तन मेरी कसम है. मै बोलूंगी तू वाई करोगा. इसने भिगो और निचोड़.
चंदगी वही करता रहा. जो उसकी भाभी चाहती थी. बिना उसे छोड़ कर अपने घर से बहार निकल गई. उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था. उसे पता था की इस से क्या होगा. तक़रीबन एक घंटा बिना ने चंदगी से पोचा निचोड़वाया. शाम होने से पहले जब केतराम नहीं आया. बिना ने कई सारी सूत की बोरी ढूंढी. और सब को एक पानी की बाल्टी मे भिगो दिया. पहले दिन के लिए उसने कुछ पांच ही बोरिया भिगोई. बिना ने केतराम को कुछ नहीं बताया. बस सुबह 4 बजे उसने घोड़े बेच कर सोए चंदगी को उठा दिया.
बिना : चंदगी... चंदगी...
चंदगी : (नींद मे, सॉक) हा हा हा के होया???
बिना : चाल खड्या(खड़ा) होजा.
चंदगी को नींद से पहेली बार ही किसी ने जगाया. वरना तो वो पूरी नींद लेकर खुद ही सुबह उठ जाया करता. लेकिन एक ही बार बोलने पर चंदगी खड़ा हो गया. और आंखे मलते बहार आ गया.
चंदगी : के होया भाबी? इतनी रात ने जाग दे दीं.(क्या हुआ भाभी? इतनी रात को जगा दिया)
बिना : रात ना री. ईब ते भोर हो ली. तन पहलवान बणना से के ना. जा भजण जा. अपणे खेता तक भज के जाइये.
(रात नहीं रही. सुबह हो चुकी है. तुझे पहलवान बन ना है या नहीं. रनिंग करने जा. अपने खेतो तक रनिंग कर के आ.)
चंदगी का मन नहीं था. पर उसे ये याद था की उसने अपनी भाभी की कसम खाई है. वो रनिंग करने चले गया. पहले तो अँधेरे से उसे डर लगने लगा. पर बाद मे उसने देखा की गांव मे कई लोग सुबह जल्दी उठ चुके है. वो मरी मरी हालत से थोडा थोडा दौड़ता. थक जाता तो पैदल चलने लगता. वो ईमानदारी से जैसे तैसे अपने खेतो तक पहोंचा. उसने देखा की गांव के कई बच्चे सुबह सुबह रनिंग करने जाते थे. वो जब वापस लौटा तो उसे एक बाल्टी पानी से भरी हुई मिली. जिसमे बोरिया भिगोई हुई है. बिना भी वही खड़ी मिली.
बिना : चाल निचोड़ या ने.
थोडा बहोत ही सही. पर रनिंग कर के चंदगी थक गया था. रोने जैसी सूरत बनाए चंदगी आगे बढ़ा. और बोरियो को निचोड़ने लगा. चंदगी के शरीर ने पहेली बार महेनत की थी. उस दिन से चंदगी की भूख बढ़ने लगी. बिना चंदगी से महेनत करवा रही थी. पर उसकी नजर सात गांव के बिच होने वाले दिवाली के मेले पर थी. जिसमे एक कुस्ती की प्रतियोगिता होती. जितने वाले को पुरे 101 रूपय का इनाम था. उस वक्त 100 रुपया बड़ी राशि थी. बिना के पास चंदगी को तैयार करने के लिए मात्र 7 महीने का वक्त था.
चंदगी महेनत नहीं करना चाहता था. पर उसने अपनी भाभी की बात कभी टाली नहीं. सिर्फ एक हफ्ते तक यही होता रहा. बिना सुबह चार बजे चंदगी को उठा देती. चंदगी मन मार कर रनिंग करने चले जाता. और आकर बाल्टी मे भीगी हुई बोरियो को निचोड़ने लगा. नतीजा यह हुआ की रनिंग करते चंदगी जो बिच बिच मे पैदल चल रहा था. वो कम हुआ. और भागना ज्यादा हुआ. एक हफ्ते बाद वो 5 बोरिया 10 हो गई. गीली पानी मे भोगोई हुई बोरियो को निचोड़ते चंदगी के बाजुओं मे ताकत आने लगी. जहा चंदगी ढीला ढाला रहता था.
वो एक्टिवेट रहने लगा. चंदगी की भूख बढ़ने लगी. उसे घी से चुपड़ी रोटियां पसंद नहीं थी. पर भाभी ने उस से बिना पूछे ही नहीं. बस घी से चुपड़ी रोटियां चंदगी की थाली मे रखना शुरू कर दिया. जहा वो डेढ़ रोटियां खाया करता था. वो 7 के आस पास पहोचने लगी. जिसे केतराम ने रात का भोजन करते वक्त महसूस किया. रात घर के आंगन मे बिना चूले पर बैठी गरमा गरम रोटियां सेक रही थी. पहेली बार दोनों भाइयो की थाली एक साथ लगी. दोनों भाइयो की थाली मे चने की गरमा गरम दाल थी.
पहले तो केतराम को ये अजीब लगा की उसका भाई घर के बड़े जिम्मेदार मर्दो के जैसे उसजे साथ खाना खाने बैठा. क्यों की चंदगी हमेशा उसके दोनों बच्चों के साथ खाना खाया करता था. बस एक कटोरी मीठा दूध और डेढ़ रोटी. मगर अब उसका छोटा भाई उसके बराबर था.
केतराम मन ही मन बड़ा ही खुश हो रहा था. पर उसने अपनी ख़ुशी जाहिर नहीं की. दूसरी ख़ुशी उसे तब हुई जब चंदगी की थाली मे बिना ने तीसरी रोटी रखी. और चंदगी ने ना नहीं की. झट से रोटी ली.
और दाल के साथ खाने लगा. केतराम ने अपने भाई की रोटियां गिनती नहीं की. सोचा कही खुदकी नजर ना लग जाए. पर खाना खाते एक ख़ुशी और हुई. जब बिना ने चंदगी से पूछा.
बिना : चंदगी बेटा घी दू के??
चंदगी ने मना नहीं किया. और थाली आगे बढ़ा दीं. वो पहले घी नहीं खाया करता था. रात सोते केतराम से रहा नहीं गया. और बिना से कुछ पूछ ही लिया.
केतराम : री मन्ने लगे है. अपणे चंदगी की खुराक बढ़ गी.
(मुजे लग रहा है. अपने चंदगी की डायट बढ़ गई.)
केतराम पूछ रहा था. या बता रहा था. पर बिना ने अपने पति को झाड दिया.
बिना : हे... नजर ना लगा. खाण(खाने) दे मार बेट्टा(बेटा) ने.
केतराम को खुशियों के झटके पे झटके मिल रहे थे. उसकी बीवी उसके छोटे भाई को अपने बेटे के जैसे प्यार कर रही थी. वो कुछ बोला नहीं. बस लेटे लेटे मुस्कुराने लगा.
बिना : ए जी. मै के कहु हु??
केतराम : हा..???
बिना : एक भैंस के दूध ते काम ना चलेगा. अपण(अपने) एक भैंस और ले ल्या??
केतराम : पिसे(पैसे) का ते ल्याऊ(लाऊ)???
बिना : बेच दे ने एक किल्ला.
केतराम यह सुनकर हैरान था. क्यों की परिवार का कैसा भी काम हो. औरत एड़ी चोटी का जोर लगा देती है. पर कभी जमीन बिक्री नहीं होने देती. हफ्ते भर से ज्यादा हो चूका था. लेटे लेटे वो भी अपने भाई को सुबह जल्दी उठते देख रहा था. दूसरे दिन ही केतराम ने अपने 20 किल्ले जमीन मे से एक किला बेच दिया. और भैंस खरीद लाया. अब घी दूध की घर मे कमी नहीं रही.
चंदगी राम को धीरे धीरे महेनत करने मे मझा आने लगा. वो खुद ही धीरे धीरे अपनी रनिंग कैपेसिटी बढ़ा रहा था. स्कूल मे सीखी पी.टी करने लगा. दूसरे लड़को को भी वो रनिंग करते देखता था. साथ वो लड़के जो एक्सरसाइज करते थे. देख देख कर वही एक्सरसाइज वो भी करने लगा. पर वो अकेला खेतो मे रनिंग कर रहा था. वो घर से खेतो तक भाग कर जाता. और अपने जोते हुए खेत मे अलग से रनिंग करता.
वहां अकेला एक्सरसाइज करता दंड करता. और घर आता तब उसकी भाभी जो बाल्टी मे बोरिया भिगो दिया करती थी. उन्हें कश के निचोड़ने लगा. इसी बिच बिना ने अपने कान की बलिया बेच दीं. और उन पेसो से वो चंदगी के लिए बादाम और बाकि सूखे मेवे खरीद लाई. उसने ये केतराम को भी नहीं बताया. ये सब करते 6 महीने गुजर चुके थे. चंदगी के शरीर मे जान आ गई. वो बोरी को इस तरह निचोड़ रहा था की बोरिया फट जाया करती. बोरिया भी वो 50, 50 निचोड़ कर फाड़ रहा था. पर बड़ी समस्या आन पड़ी.
मेले को एक महीना बचा था. और अब तक चंदगी को लड़ना नहीं आया था. रात सोते बिना ने अपने पति से चादगी के लिए सिफारिश की.
बिना : ए जी सुणो हो?? (ए जी सुनते हो?)
केतराम : हा बोल के बात हो ली??
बिना : अपणे चंदगी णे किसी अखाड़ेम भेज्यो णे. (अपने चादगी को किसी अखाड़े मे भेजो ना?)
केत राम : ठीक से. मै पहलवान जी से बात करूँगा.
बिना को याद आया के जिस पहलवान की केतराम बात कर रहे है. वो सेवाराम के पिता है.
बिना : ना ना. कोई दूसरेन देख्यो. (किसी दूसरे को देखो.) कोई ओर गाम मे? अपणा चंदगी देखणा मेणाम(मेले मे) दंगल जीत्तेगा.
केतराम : बावड़ी होंगी से के तू. मेणान एक मिहना बचया से.
(पागल हो गई है तू. मेले को एक महीना बचा है.)
बिना : ब्याह ते पेले तो तम भी कुस्ती लढया करते. तम ना सीखा सको के?
(शादी से पहले तो आप भी कुस्ती लड़ा करते थे. क्या आप नहीं सीखा सकते?)
केतराम : मन तो मेरा बाबा सिखाओता. सीखाण की मेरे बस की कोनी. (मुजे तो मेरे पिता सिखाया करते. सीखाना मेरे बस की नहीं है)
बिना : पन कोशिश तो कर ल्यो ने.
केतराम सोच मे पड़ गया. बिना उमीदो से अपने पति के चहेरे को देखती रही.
केतराम : ठीक से. सांज ने भेज दिए खेताम. (ठीक है. साम को भेज देना खेतो मे.)
बिना के ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. दिनचर्या ऐसे ही बीती. चंदगी का सुबह दौड़ना, एक्सरसाइज करना, और अपने भाभी के हाथो से भिगोई हुई बोरियो को निचोड़ निचोड़ कर फाड़ देना. बिना ने चंदगी को शाम होते अपने खेतो मे भेज दिया. केतराम ने माटी को पूज कर अखाडा तैयार किया हुआ था. उसने उसे सबसे पहले लंगोट बांधना सिखाया. लंगोट के नियम समझाए. और दाव पेज सीखना शुरू किया. केतराम ने एक चीज नोट की.
चंदगी राम की पकड़ बहोत जबरदस्त मजबूत है. उसकी इतनी ज्यादा पकड़ मजबूत थी की केतराम का छुड़ाना मुश्किल हो जाता था. बहोत ज्यादा तो नहीं पर चंदगी राम काफ़ी कुछ सिख गया था. बचा हुआ एक महीना और गुजर गया. और दिवाली का दिन आ गया. सुबह सुबह बिना तैयार हो गई. और चंदगी राम को भी तैयार कर दिया. पर केतराम तैयार नहीं हुआ. दरसल उसे बेजती का डर लग रहा था. उसकी नजरों मे चंदगी राम फिलहाल दंगल के लिए तैयार नहीं था.
वही चंदगी को भी डर लग रहा था. वो अपने भाई से सीखते सिर्फ उसी से लढा था. जिसे वो सब सामान्य लग रहा था. लेकिन अशली दंगल मे लड़ना. ये सोच कर चंदगी को बड़ा ही अजीब लग रहा था. बिना अपने पति के सामने आकर खड़ी हो गई.
बिना : के बात हो ली. मेणाम ना चलो हो के?? (क्या बात हो गई. मेले मे नहीं चल रहे हो क्या?)
केतराम : मन्ने लगे है बिना... अपणा चंदगी तियार कोनी. (मुजे लग रहा है बिना फिलहाल अपना चंदगी तैयार नहीं है)
बिना जोश मे आ गई. ना जाने क्यों उसे ऐसा महसूस हो रहा था की आज चंदगी सब को चौका देगा.
बिना : धरती फाट जागी. जीब मारा चंदगी लढेगा. (धरती फट जाएगी. जब मेरा चंदगी लढेगा.) चुप चाप चल लो. बइयर दंगल मा कोनी जावे. (चुप चाप चल लो. औरते दंगल मे नहीं जाती.)
केतराम जाना नहीं चाहता था. वो मुरझाई सूरत बनाए अपनी पत्नी को देखता ही रहा.
बिना : इब चाल्लो ने. (अब चलो ना.)
केतराम बे मन से खड़ा हुआ. और तैयार होकर बिना, चंदगी के साथ मेले मे चल दिया. घुंघट किए बिना साथ चलते उसके दिमाग़ मे कई सवाल चल रहे थे. वही चंदगी को भी डर लग रहा था. पर वो अपनी भाभी को कभी ना नहीं बोल सकता था. मेला सात, आठ गांव के बिच था. सुबह काफ़ी भीड़ आई हुई थी. चलते केतराम और चंदगी राम आते जाते बुजुर्ग को राम राम कहता. कोई छोटा उसे राम राम करता तो वो राम राम का ज़वाब राम राम से करता. मेले मे चलते हुए उन तीनो को माइक पर दंगल का अनाउंसमेंट सुनाई दे रहा था.
पिछले साल के विजेता बिरजू धानक से कौन हाथ मिलाएगा. उसकी सुचना प्रसारित की जा रही थी. बिरजू पिछले बार का विजेता सेवा राम का छोटा भाई था. वो पिछले साल ही नहीं पिछले 3 साल से विजेता रहा हुआ था.
बिना : ए जी जाओ णे. अपने चंदगी का नाम लखा(लिखा) दो ने.
केतराम ने बस हा मे सर हिलाया. और दंगल की तरफ चल दिया. वो बोर्ड मेम्बरो के पास जाकर खड़ा हो गया. कुल 24 पहलवानो ने अपना नाम लिखवाया था. जिसमे से एक चंदगी भी था. केतराम नाम लिखवाकर वापस आ गया. उसे बेजती का बहोत डर लग रहा था.
बिना : नाम लखा(लिखा) दिया के??
केतराम ने हा मे सर हिलाया. सिर्फ केतराम ही नहीं चंदगी राम भी बहोत डर रहा था. वो पहले भी कई दंगल देख चूका था. धोबी पछड़ पटकनी सब उसे याद आ रहा था. तो बिना का भी कुछ ऐसा ही हाल था. पर उसका डर थोडा अलग था. वो ये सोच रही थी की चंदगी को दंगल लढने दिया जाएगा या नहीं. तभि अनाउंसमेंट हुई. जिन जिन पहलवानो ने अपना नाम लिखवाया है. वो मैदान मे आ जाए.
बिना : (उतावलापन) जा जा चंदगी जा जा.
चंदगी : (डर) हा...
चंदगी डरते हुए कभी अपनी भाभी को देखता. तो कभी दंगल की उस भीड़ को.
बिना : ए जी. ले जाओ णे. याने. (ए जी. ले जाओ ना इसे.)
केतराम चंदगी को दंगल मे ले गया. बिना वहां नहीं जा सकती थी. औरतों को दंगल मे जाने की मनाई थी. अनाउंसमेंट होने लगी की सारे पहलवान तैयार होकर मैदान मे आ जाए. जब केतराम चंदगी को लेकर भीड़ हटाते हुए मैदान तक पहोंचा तो वहां पहले से ही सात, आठ पहलवान लंगोट पहने तैयार खड़े थे.
केतराम उसे बेमन से लाया था. क्यों की चंदगी अब भी दुबला पतला ही था. वही जो पहलवान मैदान मे पहले से ही खड़े थे. वो मोटे ताजे तगड़े थे. जब चंदगी भी अपना कुरता पजामा उतार कर लंगोट मे उनके बिच जाकर खड़ा हुआ. तो वो सारे चंदगी को हैरानी से देखने लगे. कुछ तो हस भी दिए. यह सब देख कर चंदगी और ज्यादा डरने लगा. वही बग्गा राम और सेवा राम भी पब्लिक मे वहां खड़े थे. और बग्गाराम की नजर अचानक चंदगी राम पर गई. वो चौंक गया.
बग्गाराम : (सॉक) रे या मे के देखुता. (रे ये मै क्या देख रहा हु.)
सेवा राम : (हेरत) के चंदगी????
बग्गाराम : भउ बावड़ी हो गी से. (बहु पागल हो गई है.) इसके ते हार्ड(हड्डिया) भी ना बचेंगे.
वही अनाउंसमेंट होने लगा. खेल का फॉर्मेट और नियम बताए गए. नॉकआउट सिस्टम था. 24 मे से 12 जीते हुए पहलवान और 12 से 6, 6 से 3 पहलवान चुने जाने थे. और तीनो मे से बारी बारी जो भी एक जीतेगा वो पिछली साल के विजेता बिरजू से कुस्ती लढेगा. पहले लाढने वाले पहलवानो की प्रतिद्वंदी जोडिया घोषित हो गई. चंदगी के सामने पास के ही गांव का राकेश लाढने वाला था. उसकी कुस्ती का नंबर पांचवा था.
सभी पहलवानो को एक साइड लाइन मे बैठाया गया. महेमानो का स्वागत हुआ. और खेल शुरू हुआ. चंदगी को बहोत डर लग रहा था. पहेली जोड़ी की उठा पटक देख कर चंदगी को और ज्यादा डर लगने लगा. वो जो सामने खेल देख रहा था. वे सारे दाव पेच उसके भाई केतराम ने भी उसे सिखाए थे. पर डर ऐसा लग रहा था की वही दावपेच उसे नए लगने लगे. पहेली जोड़ी से एक पहलवान बहोत जल्दी ही चित हो गया. और तुरंत ही दूसरी जोड़ी का नंबर आ गया. दूसरी कुस्ती थोड़ी ज्यादा चली.
पर नतीजा उसका भी आया. उसके बाद तीसरी और फिर चौथी कुस्ती भी समाप्त हो गई. अब नंबर चंदगी का आ गया. जीते हुए पहलवान पहेले तो पब्लिक मे घूमते. वहां लोग उन्हें पैसे इनाम मे दे रहे थे. आधा पैसा, एक पैसा जितना. उनके पास ढेर सारी चिल्लर पैसे जमा होने लगी. उसके बाद वो जीते पहलवान एक साइड लाइन मे बैठ जाते. और हरे हुए मुँह लटकाए मैदान से बहार जा रहे थे. बगल मे बैठा राकेश खड़ा हुआ.
राकेश : चाल. इब(अब) अपणा नम्बर आ लिया.
चंदगी डरते हुए खड़ा हुआ. और डरते हुए मैदान मे आ गया. सभी चंदगी को देख कर हैरान रहे गए. दूसरे गांव वाले भी चंदगी को जानते थे. राकेश के मुकाबले चंदगी बहोत दुबला पतला था. हलाकि चंदगी का बदन भी कशरती हो चूका था. उसने बहोत महेनत की थी. मैच रेफरी ने दोनों को तैयार होने को कहा. और कुश्ती शुरू करने का इशारा दिया. दोनों ही लढने वाली पोजीशन लिए तैयार थे. बस चंदगी थोड़ा डर रहा था. हिशारा मिलते ही पहले राकेश आगे आया. और चंदगी पर पकड़ बना ने की कोशिश करने लगा. वही पोजीसन चंदगी ने भी बनाई.
मगर वो पहले से बचने की कोशिश करने लगा. दोनों ही पहलवानो ने एक दूसरे की तरफ झूकते हुए एक दूसरे के बाजु पकडे. और दोनों ही एक दूसरे की तरफ झूक गए. दोनों इसी पोजीशन मे बस ऐसे ही खड़े हो गए. सब सोच रहे थे की राकेश अभी चंदगी को पटकेगा. पर वो पटक ही नहीं रहा था. कुछ ज्यादा समय हुआ तो मैच रेफरी आगे आए. और दोनों को छुड़वाने के लिए दोनों को बिच से पकड़ते है. लोगो ने देखा. सारे हैरान रहे गए. राकेश के दोनों हाथ झूल गए.
वो अपनी ग्रीप छोड़ चूका था. छूट ते ही वो पहले जमीन पर गिर गया. खुद चंदगी ने ही झट से उसे सहारा देकर खड़ा किया. मैच रेफरी ने राकेश से बात की. वो मुँह लटकाए मरी मरी सी हालत मे बस हा मे सर हिला रहा था. उसके बाद वो रोनी सूरत बनाएं मैदान के बहार जाने लगा. उसके दोनों हाथ निचे ऐसे झूल रहे थे. जैसे लकवा मार गया हो. हकीकत यह हुआ की चंदगी ने डर से राकेश पर जब ग्रीप ली. तो उसने इतनी जोर से अपने पंजे कस दिए की राकेश का खून बंद हो गया. और खून का बहाव बंद होने से राकेश के हाथ ही बेजान हो गए थे. यह किसी को समझ नहीं आया. पर वहां आए चीफ गेस्ट को पता चल गया था की वास्तव मे हुआ क्या है.
कुश्ती अध्यक्ष : (माइक पर) रे के कोई जादू टोना करया(किया) के???
तभि चीफ गेस्ट खड़े हुए. और ताली बजाने लगे. एकदम से पब्लिक मे हा हा कार मच गइ. माइक पर तुरंत ही चंदगी के जीत की घोसणा कर दीं गई. मैदान और भीड़ से दूर सिर्फ माइक पर कमेंट्री सुन रही बिना ने जब सुना की उसका लाडला देवर अपने जीवन की पहेली कुश्ती जीत गया है तो उसने अपना घुंघट झट से खोल दिया. और मुस्कुराने लगी. उसकी आँखों मे खुशियों से अंशू बहे गए. पर गांव की लाज सरम कोई देख ना ले.
उसने वापस घुंघट कर लिया. वो घुंघट मे अंदर ही अंदर मुस्कुरा रही थी. पागलो के जैसे हस रही थी. जैसे उस से वो खुशी बरदास ही ना हो रही हो. केतराम भी पहले तो भीड़ मे अपने आप को छुपाने की कोसिस कर रहा था. पर जब नतीजा आया. वो भी मुस्कुराने लगा. पर भीड़ मे किसी का भी ध्यान उसपर नहीं था. वो गरीब अकेला अकेला ही मुस्कुरा रहा था. वही जीत के बाद भी चंदगी को ये पता ही नहीं चल रहा था की हुआ क्या. पब्लिक क्यों चिल्ला रही है. उसे ये पता ही नहीं चला की वो मैच जीत चूका है. मैच रेफरी ने चंदगी से मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया.
मैच रेफरी : भाई चंदगी मुबरका. तू ते जीत गया.
तब जाकर चंदगी को पता चला. और वो मुस्कुराया. लेकिन चीफ गेस्ट बलजीत सिंह चंदगी को देख कर समझ गए थे की कुश्ती मे चंदगी ने एक नया अविष्कार किया है. मजबूत ग्रीप का महत्व लोगो को समझाया है. उसके बाद चादगी बारी बारी ऐसे ही अपनी सारी कुश्ती जीत ता चला गया. और आखरी कुश्ती जो बिरजू से थी. उसका भी नंबर आ गया. अनाउंसमेंट हो गया. अब बिरजू का मुकाबला चंदगी से होगा.
सभी तालिया बजाने लगे. चार मुकाबले जीत ने के बाद चंदगी का कॉन्फिडेंस लेवल बहोत ऊपर था.
वही बिरजू देख रहा था की चंदगी किस तरह अपने प्रतिद्वंदी को हरा रहा है. किस तरह वो बस पकड़ के जरिये ही पहलवानो के हाथ पाऊ सुन कर देता. राकेश मानसिक रूप से पहले ही मुकाबला हार गया. पर जब चंदगी के साथ उसकी कुश्ती हुई तो उसने खुदने महसूस किया की किस तरह चंदगी ने पकड़ बनाई. और वो इतनी जोर से कश्ता की खून का बहना ही बंद हो जा रहा है.
दो बार का चैंपियन राकेश बहोत जल्दी हार गया. और चंदगी राम पहलवान नया विजेता बना. उसे मान सन्मान मिला. और पुरे 101 रूपये का इनाम मिला. भीड़ से दूर बिना बेचारी जो माइक पर कमेंट्री सुनकर ही खुश हो रही थी. जीत के बाद चंदगी भाई के पास नहीं भीड़ को हटाते अपनी भाभी के पास ही गया. उसने अपनी भाभी के पाऊ छुए. यह सब सेवा राम और बग्गा राम ने भी देखा. वो अपना मुँह छुपाककर वहां से निकल गए.
गांव मे कई बार आते जाते बिना का सामना सेवा राम और बग्गा राम से हुआ. पर बिना उनसे कुछ बोलती नहीं. बस घुंघट किए वहां से चली जाती. बिना को ये जीत अब भी छोटी लग रही थी. वो कुछ और बड़ा होने का इंतजार कर रही थी. इसी बिच चंदगी राम उन्नति की सीढिया चढने लगा. वो स्कूल की तरफ से खेलते जिला चैंपियन बना. और फिर स्टेट चैंपियन भी बना.
बिना को इतना ही पता था. वो बहोत खुश हो गई. उसने अपने पति केतराम से कहकर पुरे गांव मे लड्डू बटवाए. और बिना खुद ही उसी नुक्कड़ पर लड्डू का डिब्बा लिए पहोच गई. बग्गा राम और सेवा राम ने भी बिना को आते देख लिया. और बिना को देखते ही वो वहां से मुँह छुपाकर जाने लगे. लेकिन बिना कैसे मौका छोड़ती.
बिना : राम राम चौधरी साहब. माराह चादगी पहलवान बण गया. लाड्डू (लड्डू) तो खाते जाओ.
ना चाहते हुए भी दोनों को रुकना पड़ा. बिना उनके पास घुंघट किए सामने खड़ी हो गई. और लड्डू का डिब्बा उनके सामने कर दिया.
बिना : लाड्डू खाओ चौधरी साहब. मारा चंदगी सटेट चैम्पयण ( स्टेट चैंपियन) बण गया.
बग्गा राम : भउ(बहु) क्यों भिगो भिगो जूता मारे है.
सेवा राम : हम ते पेले (पहले) ही सर्मिन्दा से. ले चौधरी सु. जबाण (जुबान) का पक्का.
बोलते हुए सेवाराम ने अपनी पघड़ी बिना के पेरो मे रखने के लिए उतरी. पर बिना ने सेवा राम के दोनों हाथो को पकड़ लिया. और खुद ही अपने हाथो से सेवा राम को उसकी पघड़ी पहनाइ.
बिना : ओओ ना जी ना. जाटा की पघड़ी ते माथे पे ही चोखी लगे है. जे तम ना बोलते तो मारा चंदगी कित पहलवान बणता. मे तो थारा एहसाण मानु हु. बस तम मारे चंदगी ने आशीर्वाद देओ.
(ओओ नहीं जी नहीं. जाटो की पघड़ी तो सर पर ही अच्छी लगती है. जो आप ना बोलते तो मेरा चंदगी कैसे पहलवान बनता. मै तो आप लोगो का एहसान मानती हु. बस आप मेरे चंदगी को आशीर्वाद दो.)
सेवा राम : थारा चंदगी सटेट चैम्पयण के बल्ड चैम्पयण बणेगा. देख लिए.
(तेरा चंदगी स्टेट चैंपियन क्या वर्ल्ड चैंपियन बनेगा. देख लेना.)
बिना ने झूक कर दोनों के पाऊ छुए. लेकिन चादगी राम इतने से रुकने वाले नहीं थे. वो स्पोर्ट्स कोटे से आर्मी जाट रेजीमेंट मे भार्थी हुए. दो बार नेशनल चैंपियन बने. उसके बाद वो हिन्द केशरी बने. 1969 मे उन्हें अर्जुन पुरस्कार और 1971 में पदमश्री अवार्ड से नवाजा गया। इसमें राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के अलावा हिंद केसरी, भारत केसरी, भारत भीम और रूस्तम-ए-हिंद आदि के खिताब शामिल हैं।
ईरान के विश्व चैम्पियन अबुफजी को हराकर बैंकाक एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतना उनका सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन माना जाता है। उन्होंने 1972 म्युनिख ओलम्पिक में देश का नेतृत्व किया और दो फिल्मों 'वीर घटोत्कच' और 'टारजन' में काम किया और कुश्ती पर पुस्तकें भी लिखी। 29 जून 2010 नइ दिल्ली मे उनका निधन हो गया. ये कहानी चंदगी राम जी को समर्पित है. भगवान उनकी आत्मा को शांति दे.
Bahut hi shaandaar kahani thi lekhika ji
Aur bahut hi motivation se bhari hui bi. Agar insaan chah le aur usme mehnat aur lagan shamil ho to kuch bi karna namumkin nhi hai Chandgi Ram ki mehnat aur apni bhabi ke prati sachi nishtha ne unhe mariyal se Chandgi se Chandgi Ram pehelvan bana diya. Aur ye baat ek baar phir sach ho gyi ki ek kamyaab mard ke peeche ek aurat ka hi hath hota hai chahe vo aurat phir uski maa ho, biwi ho, behan ya bhabi hi kyu na ho.
Wonderful story