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Welcome back bro, great update☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 26
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अब तक,,,,,
भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।
उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,
अभी मैं आधे रास्ते में ही था कि मेरे ज़हन में ख़याल आया कि एक बार मुरारी काका के खेतों की तरफ भी हो आऊं। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल को मुरारी काका के खेतों की तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ सुन कर खेतों में कटाई कर रहे किसानों का ध्यान मेरी तरफ गया। मैंने आम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल खड़ी की। आम के पेड़ के नीचे ही मुरारी काका का खलिहान बना हुआ था। सरोज काकी खलिहान में ही एक तरफ खटिया पर बैठी हुई थी। मुझे देखते ही वो खटिया से उठ गई।
"कटाई ठीक से चल रही है न काकी?" मैंने सरोज काकी के पास आते हुए पूछा तो काकी ने कहा____"हां बेटा ठीक से ही चल रही है। तुमने जिन दो लोगों को भेजा है उन्होंने आधे से ज़्यादा खेत काट दिया है। मुझे लगता है कि आज ही सब कट जाएगा।"
"तुम चिंता मत करना काकी।" काकी ने मुझे खटिया में बैठने का इशारा किया तो मैंने खटिया में बैठते हुए कहा____"कटाई के बाद ये दोनों तुम्हारी फसल की गहाई भी करवा देंगे।"
"वो तो ठीक है बेटा।" काकी ने थोड़े चिंतित भाव से कहा____"लेकिन मुझे चिंता जगन की है और गांव वालों की भी। जगन को तो मैं समझा दूंगी लेकिन गांव वालों को कैसे समझाऊंगी?"
"क्या मतलब??" मैंने न समझने वाले भाव से पूछा तो काकी ने कहा____"मतलब ये कि तुम्हारी इस मदद से गांव के कुछ लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। मुझे डर है कि वो कहीं ऐसी बातें न बनाएं जिससे मेरी और मेरी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लग जाए।"
"ये तुम क्या कह रही हो काकी?" मैंने हैरानी से कहा____"इसमें तुम्हारी और तुम्हारी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लगने वाली कौन सी बात हो जाएगी भला?"
"तुम समझ नहीं रहे हो बेटा।" सरोज ने बेबस भाव से कहा____"ये तो तुम भी जानते ही होंगे न कि सब तुम्हारे चरित्र के बारे में कैसी राय रखते हैं। तुम्हारे चरित्र के बारे में सोच कर ही गांव के कुछ लोग ऐसी बातें सोचेंगे और दूसरों से करेंगे भी। वो यही कहेंगे कि तुमने हमारी मदद सिर्फ इस लिए की होगी क्योंकि तुम्हारी मंशा मेरी बेटी को फ़साने की है।"
"तुम अच्छी तरह जानती हो काकी कि मेरे ज़हन में ऐसी बात दूर दूर तक नहीं है।" मैंने कहा____"मेरे चरित्र को जानने वालों को क्या ये समझ नहीं आता कि अगर मेरे मन में यही सब बातें होती तो क्या अब तक मैं तुम्हारी बेटी के साथ कुछ ग़लत न कर चुका होता?"
"मैं तो अच्छी तरह जानती हूं बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन लोगों को कैसे कोई समझा सकता है? उन्हें तो बातें बनाने के लिए मौका और मुद्दा दोनों ही मिल ही जाएगा न।"
"गांव और समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काकी।" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"तुम चाहे लाख नेक काम करो इसके बावजूद लोग तुम्हारी अच्छाई का गुड़गान नहीं करेंगे बल्कि वो सिर्फ इस बात की कोशिश में लगे रहेंगे कि तुम्हारे में बुराई क्या है और तुम्हारे बारे में बुरा कैसे कहा जाए? इस लिए अगर गांव समाज के लोगों का सोच कर चलोगी तो हमेशा दब्बू बन के ही रहोगी। जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगी। गांव समाज के लोग दूसरों की कमियां खोजने के लिए फुर्सत से बैठे होते हैं। उनके पास दूसरा कोई काम नहीं होता। तुम ये बताओ काकी कि गांव समाज में ऐसा कौन है जो दूध का धुला हुआ बैठा है? इस हमाम में सब नंगे ही हैं। कमियां सब में होती हैं। दब के रहने वाले लोग उनकी कमियों का किसी से ज़िक्र नहीं करते जबकि ख़ुद को अच्छा समझने वाले धूर्त किस्म के होते हैं जो सिर्फ ढिंढोरा पीटते हैं।"
"बात तो तुम्हारी ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने बेचैनी से पहलू बदला____"लेकिन इस समाज में अकेली औरत का जीना इतना आसान भी तो नहीं होता। ख़ास कर तब जब उसका मरद ईश्वर के घर पहुंच गया हो। उसे बहुत कुछ सोच समझ कर चलना पड़ता है।"
"मैं ये सब बातें जानता हूं काकी।" मैंने कहा____"लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि किसी से इतना दब के भी नहीं रहना चाहिए कि लोग उसे दबाते दबाते ज़मीन में ही गाड़ दें। अपना हर काम सही से करो और निडर हो कर करो तो कोई माई लाल कुछ नहीं उखाड़ सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं जगन काका से भी मिलना चाहता था। उनसे मिल कर परसों के कार्यक्रम के बारे में बात करनी थी।"
"जगन खाना खाने गया है।" सरोज काकी ने कहा____"आता ही होगा घर से। मुझे तो उसकी भी चिंता है कि कहीं वो इस सब से नाराज़ न हो जाए।"
"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मैं जगन काका को अच्छे से समझा दूंगा।"
मेरी बात सुन कर काकी अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र दूर से आते हुए जगन पर पड़ी। उसे देख कर सरोज काकी ने मुझे इशारा किया तो मैंने भी जगन की तरफ देखा। जगन हांथ में एक लट्ठ लिए तेज़ क़दमों से इसी तरफ चला आ रहा था। कुछ ही देर में जब वो हमारे पास आ गया तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। उसने घूर कर देखा मुझे।
"छोटे ठाकुर तुम यहाँ??" फिर उसने चौंकने वाले भाव से मुझसे कहा तो मैंने हल्की मुस्कान में कहा____"तुमसे ही मिलने आया था काका लेकिन तुम थे नहीं। काकी ने बताया कि तुम खाना खाने घर गए हुए हो तो सोचा तुम्हारे आने का इंतज़ार ही कर लेता हूं।"
"मुझसे भला क्या काम हो सकता है तुम्हें?" जगन ने घूरते हुए ही कहा मुझसे____"और ये मैं क्या देख रहा हूं छोटे ठाकुर? तुम्हारे गांव के ये दो मजदूर मेरे भाई के खेत की कटाई क्यों कर रहे हैं?"
"वो मेरे कहने से ही कर रहे हैं काका।" मैंने शांत भाव से कहा____"मुरारी काका ने मेरे लिए इतना कुछ किया था तो मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि उनके एहसानों का क़र्ज़ जितना हो सके तो चुका ही दूं। काकी ने तो इसके लिए मुझे बहुत मना किया लेकिन मैं ही नहीं माना। मैंने मुरारी काका का वास्ता दिया तब जा के काकी राज़ी हुई। तुम तो जानते हो काका कि मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे इस लिए ऐसे वक़्त में भी अगर मैं उनके परिवार के लिए कुछ न करूं तो मुझसे बड़ा एहसान फरामोश दुनिया में भला कौन होगा?"
मेरी बात सुन कर जगन मेरी तरफ देखता रह गया। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरी बातों में कहीं मेरा कोई निजी स्वार्थ तो नहीं है? कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जगन काका ने कहा____"माना कि ये सब कर के तुम मेरे भाई का एहसान चुका रहे हो छोटे ठाकुर लेकिन मैं ये हरगिज़ नहीं चाह सकता कि तुम्हारी वजह से मेरे गांव के लोग मेरे घर परिवार के बारे में उल्टी सीधी बातें करने लगें।"
"गांव समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काका।" मैंने वही बात दोहराई जो इसके पहले सरोज काकी से कही थी____"समाज के लोग तो दूसरों की कमियां ही खोजते रहते हैं। तुम चाहे लाख अच्छे अच्छे काम करो मगर समाज के लोग तुम्हारे द्वारा किए गए अच्छे काम में भी बुराई ही खोजेंगे। मेरे ऊपर मुरारी काका के बड़े उपकार हैं काका। आज अगर मैं ऐसे वक़्त में उनकी मदद नहीं करुंगा तो इसी गांव समाज के लोग मेरे बारे में ये कहते फिरेंगे कि जिस मुरारी ने मुसीबत में दादा ठाकुर के लड़के की इतनी मदद की थी उसने मुरारी के गुज़र जाने के बाद उसके परिवार की तरफ पलट कर ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि वो किस हाल में हैं? जगन काका दुनिया के लोग मौका देख कर हर तरह की बातें करना जानते हैं। तुम अच्छा करोगे तब भी वो तुम्हें ग़लत ही कहेंगे और ग़लत करोगे तब तो ग़लत कहेंगे ही। हालांकि इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें इंसान की अच्छाईयां भी दिखती हैं और वो दिल से क़बूल करते हुए ये कहते हैं कि फला इंसान बहुत अच्छा है।"
"शायद तुम ठीक कह रहे हो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ये सच है कि आज का इंसान कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचता है। तुमने जो कुछ कहा वो एक कड़वा सच है लेकिन ग़रीब आदमी करे भी तो क्या? समाज के ठेकेदारों के बीच उसे दब के ही रहना पड़ता है।"
"समाज के लोगों को ठेकेदार बनाया किसने है काका?" मैंने जगन काका की तरफ देखते हुए कहा____"हमारे तुम्हारे जैसे लोगों ने ही उन्हें ठेकेदार बना रखा है। ये ठेकेदार क्या दूध के धुले हुए होते हैं जो हर किसी पर कीचड़ उछालते रहते हैं? क्या तुम नहीं जानते कि समाज के इन ठेकेदारों का दामन भी किसी न किसी चीज़ से दाग़दार हुआ पड़ा है? लोग बड़े शौक से दूसरों पर ऊँगली उठाते हैं काका लेकिन वो ये नहीं देखते कि दूसरों की तरफ उनकी एक ही ऊँगली उठी हुई होती है जबकि उनकी खुद की तरफ उनकी बाकी की चारो उंगलियां उठी हुई होती हैं। समाज के सामने उतना ही झुको काका जितने में मान सम्मान बना रहे लेकिन इतना भी न झुको कि कमर ही टूट जाए।"
जगन काका मेरी बात सुन कर कुछ न बोले। पास ही खड़ी सरोज काकी भी चुप थी। कुछ देर मैं उन दोनों की तरफ देखता रहा उसके बाद बोला____"मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं काका कि अब मैं पहले जैसा नहीं रहा और आज भी यही कहता हूं। मैं सच्चे दिल से मुरारी काका के लिए कुछ करना चाहता हूं। मैं हर रोज़ ये सोचता हूं कि मुरारी काका मुझे ऊपर से देखते हुए सोच रहे होंगे कि उनके जाने के बाद मैं उनके परिवार के लिए कुछ करता हूं कि नहीं? उन्होंने मेरी मदद बिना किसी स्वार्थ के की थी तो क्या मैं इतना बेगैरत और असमर्थ हूं कि उनके एहसानों का क़र्ज़ भी न चुका सकूं? तुम ही बताओ काका कि तुम मेरी जगह होते तो क्या ऐसे वक़्त में मुरारी काका के परिवार वालों से मुँह मोड़ कर चले जाते? क्या तुम एक पल के लिए भी ये न सोचते कि तुम्हारे मुसीबत के दिनों में मुरारी काका ने तुम्हारी कितनी मदद की थी?"
"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मैं अभी तक तुम्हारे बारे में ग़लत ही सोच रहा था किन्तु तुम्हारी इन बातों से मुझे एहसास हो गया है कि तुम ग़लत नहीं हो। यकीनन तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो यही करता। मुझे ख़ुशी हुई कि तुम एक अच्छे इंसान की तरह अपना फ़र्ज़ निभा रहे हो।"
"अगर तुम सच में समझते हो काका कि मैं सच्चे दिल से अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूं।" मैंने कहा____"तो अब तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ निभाने से रोकोगे नहीं। परसों मुरारी काका की तेरहवीं है और मैं चाहता हूं कि मुरारी काका की तेरहवीं अच्छे तरीके से हो। जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुम मुझसे बेझिझक हो कर बोलो। वक़्त ज़्यादा नहीं है इस लिए अभी बताओ कि तेरहवीं के दिन किस किस चीज़ की ज़रूरत होगी। मैं हर ज़रूरत की चीज़ शहर से मगवा दूंगा।"
"इसकी क्या ज़रूरत है छोटे ठाकुर?" जगन ने झिझकते हुए कहा____"हम अपने हिसाब से सब कर लेंगे।"
"इसका मतलब तो यही हुआ न काका।" मैंने कहा____"कि तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ नहीं निभाने देना चाहते। मुरारी काका मेरे पिता समान थे इस नाते भी मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं अपना फ़र्ज़ निभाने में कोई कसर न छोडूं। मुझे मुरारी काका के लिए इतना कर लेने दो काका। तुम कहो तो मैं तुम्हारे पैरों में गिर कर इस सब के लिए तुमसे भीख भी मांग लूं।"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" मैं खटिया से उठ कर खड़ा हुआ तो जगन एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ा_____"ये कैसी बातें कर रहे हो तुम? तुम अगर सब कुछ अपने तरीके से ही करना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हें अब किसी भी बात के लिए मना नहीं करुंगा।"
"तो फिर चलो मेरे साथ।" मैंने कहा तो जगन ने चौंकते हुए कहा____"पर कहां चलूं छोटे ठाकुर?"
"अरे! मेरे साथ शहर चलो काका।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"परसों मुरारी काका की तेरहवीं है इस लिए आज ही शहर से सारा ज़रूरत का सामान खरीद कर ले आएंगे। उसके बाद बाकी का यहाँ देख लेंगे।"
"पर इस वक़्त कैसे?" जगन मेरी बातें सुन कर बुरी तरह हैरान था____"मेरा मतलब है कि क्या अभी हम शहर चलेंगे?"
"क्या काका।" मैंने कहा____"अभी जाने में क्या ख़राबी है? अभी तो पूरा दिन पड़ा है। हम शहर से सारा ज़रूरत का सामान ले कर शाम होने से पहले ही यहाँ आ जाएंगे।"
मेरी बात सुन कर जगन काका उलझन में पड़ गया था। हैरान तो सरोज काकी भी थी किन्तु वो ज़ाहिर नहीं कर रही थी। वो भली भाँति जानती थी कि इस मामले में मैं मानने वाला नहीं था। उधर जगन ने सरोज काकी की तरफ देखते हुए कहा____"भौजी तुम क्या कहती हो?"
"मैं क्या कहूं जगन?" सरोज काकी ने शांत भाव से कहा____"तुम्हें जो ठीक लगे करो। मुझे कोई समस्या नहीं है।"
"तो ठीक है फिर।" जगन ने जैसे फैसला करते हुए कहा____"मैं छोटे ठाकुर के साथ शहर जा रहा हूं। तेरहवीं के दिन जो जो सामान लगता हो वो सब बता दो मुझे।"
"क्या तुम्हें पता नहीं है?" सरोज काकी ने कहा____"कि तेरहवीं के दिन क्या क्या सामान लगता है?"
"थोड़ा बहुत पता तो है मुझे।" जगन ने कहा____"फिर भी अगर कुछ छूट जाए तो बता दो मुझे।"
जगन काका के कहने पर सरोज काकी सामान के बारे में सोचने लगी। इधर मैंने उन दोनों से कहा कि तुम दोनों तब तक सारे सामान के बारे में अच्छे से सोच लो तब तक मैं खाना खा के आता हूं। मेरी बात सुन कर दोनों ने हां में सिर हिला दिया। मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के सरोज काकी के घर की तरफ चल पड़ा। जगन काका से बात कर के अब मैं बेहतर महसूस कर रहा था। आख़िर जगन काका को मैंने इस सब के लिए मना ही लिया था।
जगन काका से हुई बातों के बारे में सोचते हुए मैं कुछ ही देर में मुरारी काका के घर पहुंच गया। मोटर साइकिल को मुरारी काका के घर के बाहर खड़ी कर के जैसे ही मैं नीचे उतरा तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। मैंने गर्दन मोड़ कर देखा दरवाज़े के उस पार हरे रंग का शलवार कुर्ता पहने अनुराधा खड़ी थी। सीने में उसके दुपट्टा नहीं था जिससे मुझे उसके सीने के उभार साफ़ साफ़ दिखाई दिए किन्तु मैंने जल्दी ही उसके सीने से अपनी नज़र हटा कर उसके चेहरे पर डाली तो उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान सजी दिखी मुझे। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिली तो वो जल्दी से पलट गई। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि उसने अपने गले में दुपट्टा नहीं डाला था। शायद मोटर साइकिल की आवाज़ सुन कर वो जल्दी से दरवाज़ा खोलने आई थी और इस जल्दबाज़ी में वो अपने गले में दुपट्टा डालना भूल गई थी। ख़ैर उसके पलट कर चले जाने से मैं हल्के से मुस्कुराया और फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।
मैं अंदर आँगन में आया तो देखा उसने अपने गले में दुपट्टा डाल लिया था। मैंने मन ही मन सोचा कि इस काम में बड़ी जल्दबाज़ी दिखाई उसने। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने मुझे अपने सीने के उभारों को देखते हुए देख लिया हो और उसे अचानक से याद आया हो कि वो जल्दबाज़ी में दुपट्टा डालना भूल गई थी। मुझे मेरा ये ख़याल जायज़ लगा क्योंकि मैंने देखा था कि वो जल्दी ही पलट गई थी।
"मैं आपके ही आने का इंतज़ार कर रही थी छोटे ठाकुर।" मुझे आँगन में आया देख उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमे स्वर में कहा____"ख़ाना तो कब का बना हुआ है।"
"हां वो मैं तुम्हारे खेतों की तरफ चला गया था।" मैंने कहा____"वहां पर जगन काका से काफी देर तक बातें होती रहीं। परसों काका की तेरहवीं है न तो उसी सिलसिले में बातें हो रही थी। अभी मुझे खाना खा कर जल्दी जाना भी है। मैं जगन काका को ले कर शहर जा रहा हूं ताकि वहां से ज़रूरी सामान ला सकूं।"
"क्या काका आपकी बात मान गए?" अनुराधा ने हैरानी भरे भाव से पूछा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे हिसाब से क्या उन्हें मेरी बात नहीं माननी चाहिए थी?"
"नहीं मेरे कहने का मतलब वो नहीं था।" अनुराधा ने झेंपते हुए जल्दी से कहा____"मैंने तो ऐसा इस लिए कहा कि वो आपसे नाराज़ थे।"
"वो बेवजह ही मुझसे नाराज़ थे अनुराधा।" मैंने कहा____"और ये बात तुम भी जानती हो। ख़ैर मैंने उन्हें दुनियादारी की बातें समझाई तब जा कर उन्हें समझ आया कि मैं मुरारी काका के लिए जो कुछ भी कर रहा हूं वो सच्चे दिल से ही कर रहा हूं।"
"आप हाथ मुँह धो लीजिए।" अनुराधा ने लोटे में पानी लाते हुए कहा____"मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।"
"क्या तुमने भी अभी खाना नहीं खाया?" वो मेरे क़रीब आई तो मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूंछा।
"वो मैं आपके आने का इंतज़ार कर रही थी।" उसने नज़र झुका कर कहा____"इस लिए मैंने भी नहीं खाया।"
"ये तो ग़लत किया तुमने।" मैंने उसके हाथ से पानी से भरा लोटा लेते हुए कहा____"मेरी वजह से तुम्हें भूखा नहीं रहना चाहिए था। अगर मैं यहाँ खाना खाने नहीं आता तो क्या तुम ऐसे ही भूखी रहती?"
"जब ज़्यादा भूख लगती तो फिर खाना ही पड़ता मुझे।" अनुराधा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"उस सूरत में आपको बचा हुआ खाना ही खाने को मिलता।"
"तो क्या हुआ।" मैंने नर्दे के पास पानी से हाथ धोते हुए कहा____"मैं बचा हुआ भी खा लेता। आख़िर तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाना मैं कैसे नहीं खाता?"
"अब बातें न बनाइए।" अनुराधा मुस्कुराते हुए पलट गई____"जल्दी से हाथ मुँह धो कर आइए।"
"जो हुकुम आपका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो वो कुछ न बोली, बल्कि रसोई की तरफ तेज़ी से बढ़ गई। मैं समझ सकता था कि मेरी बात सुन कर वो फिर से मुस्कुराई होगी। असल में जब वो मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हल्के गड्ढे पड़ जाते थे जिससे उसकी मुस्कान और भी सुन्दर लगने लगती थी।
मैं हाथ मुँह धो कर रसोई के पास बरामदे में आ गया। ज़मीन में एक चादर बिछी हुई थी और सामने लकड़ी का एक पीढ़ा रखा हुआ था। पीढ़े के बगल से लोटा गिलास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। इस वक़्त मेरी धड़कनें ये सोच कर थोड़ी बढ़ गईं थी कि इस वक़्त घर में मैं और अनुराधा दोनों अकेले ही हैं। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप भी था जो आज कहीं दिख नहीं रहा था। कुछ ही देर में अनुराधा आई और थाली को मेरे सामने लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में दाल चावल और पानी लगा कर हाथ से पोई हुई रोटियां रखी हुईं थी। थाली के एक कोने में कटी हुई प्याज अचार के साथ रखी हुई थी और एक तरफ हरी मिर्च। अनुराधा थाली रखने के बाद फिर से रसोई में चली गई थी और जब वो वापस आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी जिसमे भांटा का भरता था। भांटा का भरता देख कर मैं खुश हो गया।
"वाह! ये सबसे अच्छा काम किया तुमने।" मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"भांटा का भरता बना दिया तो कसम से दिल ख़ुशी से झूम उठा है। अब एक काम और करो और वो ये कि तुम भी अपनी थाली ले कर यहीं आ जाओ। तुम्हें भूखा रहने की अब कोई ज़रूरत नहीं है।"
"आप खा लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं बाद में खा लूंगी।"
"एक तो तुम मुझे छोटे ठाकुर न बोला करो।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"जब तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैं कितना बुड्ढा हूं। क्या मैं तुम्हें बुड्ढा नज़र आता हूं? अरे अभी तो मेरी उम्र खेलने कूदने की है। तुमसे भी मैं उम्र में छोटा ही होऊंगा।"
"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा पहले तो हंसी फिर आँखें फाड़ते हुए बोली____"आप मुझसे छोटे कैसे हो सकते हैं भला?"
"क्यों नहीं हो सकता?" मैंने कहा____"असल में मेरे दाढ़ी मूंछ हैं इस लिए मैं तुमसे बड़ा दिखता हूं वरना मैं तो तुमसे तीन चार साल छोटा ही होऊंगा।"
"मुझे बेवकूफ न बनाइए।" अनुराधा ने मुझे घूरते हुए कहा____"मां बता रही थी मुझे कि जब दादा ठाकुर की दूसरी औलाद तीन साल की हो गई थी तब मैं पैदा हुई थी। इसका मतलब आप मुझसे तीन साल बड़े हैं और आप खुद को मुझसे छोटा बता रहे हैं?"
"अरे! काकी ने तुमसे झूठ कह दिया होगा।" मैंने रोटी का निवाला मुँह में डालने के बाद कहा____"ख़ैर जो भी हो लेकिन अब से तुम मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और ये तुम्हें मानना ही होगा।"
"तो फिर मैं क्या कहूंगी आपको?" अनुराधा ने उलझन पूर्ण भाव से कहा तो मैंने कहा____"हम दोनों की उम्र में थोड़ा ही अंतर है तो तुम मेरा नाम भी ले सकती हो।"
"हाय राम!" अनुराधा ने चौंकते हुए कहा____"मैं भला आपका नाम कैसे ले सकती हूं? मेरे बाबू भी तो आपका नाम नहीं लेते थे तो फिर मैं कैसे ले सकती हूं। ना ना छोटे ठाकुर। मैं आपका नाम नहीं ले सकती। माँ को पता चल गया तो वो मुझे बहुत मारेगी।"
"काकी कुछ नहीं कहेगी तुम्हें।" मैंने कहा____"मैं काकी से कह दूंगा कि मैंने ही तुम्हें मेरा नाम लेने के लिए कहा है। चलो अब मेरा नाम ले कर मुझे पुकारो एक बार। मैं भी तो सुनूं कि तुम्हारे मुख से मेरा नाम कैसा लगता है?"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" अनुराधा बुरी तरह हड़बड़ा गई____"मैं आपका नाम नहीं ले सकती।"
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" मैंने कहा____"तो अब से मैं भी तुम्हें छोटी ठकुराइन कहा करुंगा।"
"छोटी ठकुराइन???" अनुराधा बुरी तरह चौंकी____"ये क्या कह रहे हैं आप?"
"सही तो कह रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ठाकुर तो तुम भी हो। काकी बड़ी ठकुराइन हो गई और तुम छोटी ठकुराईन।"
"ऐसे थोड़ी न होता है।" अनुराधा ने अपने हाथ को झटकते हुए कहा____"वो तो बड़े लोगों को ऐसा कहते हैं। हम तो ग़रीब लोग हैं।"
"इंसान छोटा बड़ा रुपए पैसे या ज़्यादा ज़मीन जायदाद होने से नहीं होता अनुराधा।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"बल्कि छोटा बड़ा दिल से होता है। जिसका दिल जितना अच्छा होता है वो उतना ही महान और बड़ा होता है। इन चार महीनों में इतना तो मैं देख ही चुका हूं कि तुम सबका दिल कितना बड़ा है और अच्छा भी है। इस लिए मेरी नज़र में तुम सब महान और बड़े लोग हो। ऐसे में अगर मैं तुम्हें ठकुराइन कहूंगा तो हर्गिज़ ग़लत नहीं होगा।"
"आप घुमावदार बातें कर के मुझे उलझा रहे हैं छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं तो इतना जानती हूं कि आज के ज़माने में दिल बड़ा होने से कुछ नहीं होता बल्कि जिसके पास आपके जैसा रुतबा और धन दौलत हो वही बड़ा आदमी होता है।"
"आज के ज़माने की सच्चाई भले ही यही हो।" मैंने कहा____"लेकिन असल सच्चाई वही है जिसके बारे में अभी मैं तुम्हें बता चुका हूं। हम ऐसे बड़े लोग हैं जो किसी की ज़रा सी बुरी बात भी बरदास्त नहीं कर सकते जबकि तुम लोग ऐसे बड़े लोग हो जो बड़ी से बड़ी बुरी बात भी बरदास्त कर लेते हो। तो अब तुम ही बताओ अनुराधा कि हम में से बड़ा कौन हुआ? बड़ा वही हुआ न जिसमें हर तरह की बात को सहन कर लेने की क्षमता होती है? रूपया पैसा धन दौलत ऐसी चीज़े हैं जिनके असर से इंसान घमंडी हो जाता है और वो इंसान को इंसान नहीं समझता जबकि जिसके पास इस तरह की दौलत नहीं होती वो कम से कम इंसान को इंसान तो समझता है। आज के युग में जो कोई इंसान को इंसान समझे वही बड़ा और महान है।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा इस बार कुछ न बोली। शायद इस बार उसे मेरी बात काटने के लिए कोई जवाब ही नहीं सूझा था। वैसे मैंने बात ग़लत नहीं कही थी, हक़ीक़त तो वास्तव में यही है। ख़ैर अनुराधा जब एकटक मेरी तरफ देखती ही रही तो मैंने बात बदलते हुए कहा____"तो ठकुराइन जी, आप अपनी भी थाली ले आइए और मुझ छोटे आदमी के साथ बैठ कर खाना खाइए ताकि मुझे भी थोड़ा अच्छा महसूस हो।"
"आप ऐसे बात करेंगे तो मैं आपसे बात नहीं करुंगी।" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"मुझे आपकी ऐसी बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी।"
"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर न कहो।" मैंने कहा____"मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता और अब अगर तुमने दुबारा मुझे छोटे ठाकुर कहा तो मैं ये खाना छोड़ कर चला जाऊंगा यहाँ से।"
"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा के माथे पर शिकन उभर आई____"भगवान के लिए ऐसी ज़िद मत कीजिए।"
"तुम भी तो ज़िद ही कर रही हो।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हें अपना तो ख़याल है लेकिन मेरा कोई ख़याल ही नहीं है। ये कहां का इन्साफ हुआ भला?"
अनुराधा मेरी बात सुन कर बेबस भाव से देखने लगी थी मुझे। उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव गर्दिश करते हुए नज़र आ रहे थे। इस वक़्त जिस तरह के भाव उसके चेहरे पर उभर आये थे उससे वो बहुत ही मासूम दिखने लगी थी और मैं ये सोचने लगा था कि कहीं मैंने उस पर कोई ज़्यादती तो नहीं कर दी?
"क्या हुआ?" फिर मैंने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देखे जा रही हो मुझे?"
"आप ऐसा क्यों चाहते हैं?" अनुराधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं आपका नाम लूं?"
"अगर सच सुनना चाहती हो तो सुनो।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तुम एक ऐसी लड़की हो जिसने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि ऐसा कैसे हुआ है लेकिन इतना ज़रूर समझ गया हूं कि ऐसा तुम्हारी वजह से ही हुआ है और मेरा यकीन करो अपनी फितरत बदल जाने का मुझे कोई रंज़ नहीं है। बल्कि एक अलग ही तरह का एहसास होने लगा है जिसकी वजह से मुझे ख़ुशी भी महसूस होती है। इस लिए मैं चाहता हूं कि मेरी फितरत को बदल देने वाली लड़की मुझे छोटे ठाकुर न कहे बल्कि मेरा नाम ले। ताकि छोटे ठाकुर के नाम का प्रभाव मुझ पर फिर से न पड़े।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगी थी। हालांकि मैंने उससे जो भी कहा था वो एक सच ही था। इन चार महीनो में यकीनन मेरी फितरत कुछ हद तक बदल ही गई थी वरना चार महीने पहले मैं घंटा किसी के बारे में ऐसा नहीं सोचता था।
"चार महीने पहले मैं एक ऐसा इंसान था अनुराधा।" उसे कुछ न बोलते देख मैंने कहा____"जो किसी के भी बारे में ऐसे ख़्याल नहीं रखता था बल्कि ये कहूं तो ज़्यादा बेहतर होगा कि अपनी ख़ुशी के लिए मैं जब चाहे किसी के भी साथ ग़लत कर बैठता था लेकिन जब से यहाँ आया हूं और इस घर से जुड़ा हूं तो मेरी फितरत बदल गई है और मेरी फितरत को बदल देने में तुम्हारा सबसे बड़ा योगदान है।"
"पर मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया।" अनुराधा ने बड़ी मासूमियत से कहा।
"कभी कभी ऐसा भी होता है अनुराधा कि किसी के कुछ न करने से भी बहुत कुछ हो जाता है।" मैंने कहा____"तुम समझती हो कि तुमने कुछ नहीं किया और ये बात वाकई में सच है मगर एक सच ये भी है कि तुम्हारे कुछ न करने से ही मेरी फितरत बदल गई है। तुम्हारी सादगी ने और तुम्हारे चरित्र ने मुझे बदल दिया है। शुरू में जब तुम्हें देखा था तो मेरे ज़हन में बस यही ख़्याल आया था कि तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह एक दिन अपने जाल में फांस लूंगा मगर तुम भी इस बात की गवाह हो कि मैंने तुम्हारे साथ कभी कुछ ग़लत करने का नहीं सोचा। असल में मैं तुम्हारे साथ कुछ ग़लत कर ही नहीं पाया। मेरे ज़मीर ने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत करने ही नहीं दिया। मैंने इस बारे में बहुत सोचा और तब मुझे एहसास हुआ कि ऐसा क्यों हुआ? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं खुश हूं कि तुमने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं इस बात से भी खुश हूं कि तुम्हारी ही वजह से मैंने दूसरी चीज़ों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। मेरी नज़र में तुम्हारा स्थान बहुत बड़ा है अनुराधा और इसी लिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरा नाम लो।"
"आप कुछ और लेंगे?" अनुराधा ने मेरी बात का जवाब दिए बिना पूछा____"भांटा का भरता और ले आऊं आपके लिए?"
"इतना काफी है।" मैंने कहा____"वैसे मुझे ख़ुशी होती अगर तुम भी मेरे पास ही बैठ कर खाना खाती।"
"वो मुझे आपके सामने।" अनुराधा ने नज़रें झुका कर कहा____"ख़ाना खाने में शर्म आएगी इस लिए पहले आप खा लीजिए, मैं बाद में खा लूंगी।"
"ख़ाना खाने में कैसी शर्म?" मैंने हैरानी से कहा____"मैं भी तो तुम्हारे सामने ही खा रहा हूं। मुझे तो शर्म नहीं आ रही बल्कि तुम सामने बैठी हो तो मुझे अच्छा ही लग रहा है।"
"आपकी बात अलग है।" अनुराधा ने लजाते हुए कहा____"आप एक लड़का हैं और मैं एक लड़की हूं।"
"ये तो कोई बात नहीं हुई।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हें मुझसे इतना शर्माने की कोई ज़रूरत नहीं है। ख़ैर अभी तो मुझे जल्दी जाना है इस लिए तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा लेकिन अगली बार अगर तुम ऐसे शरमाओगी तो सोच लेना फिर।"
"क्या मतलब???" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंक गई।
"अरे! डरो नहीं।" मैंने हंसते हुए कहा____"मैं तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा नहीं करुंगा बल्कि काकी से तुम्हारी शिकायत करुंगा कि तुम मुझसे शर्माती बहुत हो।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा मुस्कुरा कर रह गई। ख़ैर मैंने खाना ख़त्म किया और थाली में ही हाथ मुँह धो कर उठ गया। मेरे उठ जाने के बाद अनुराधा ने मेरी थाली को उठाया और एक तरफ रख दिया। मैं जानता था कि जब तक मैं यहाँ रहूंगा अनुराधा की साँसें उसके हलक में अटकी हुई रहेंगी जो की स्वाभाविक बात ही थी। मुझे जगन काका को ले कर शहर भी जाना था इस लिए मैं अनुराधा से बाद में आने का कह कर घर से बाहर निकल गया। अनुराधा से आज काफी बातें की थी मैंने और मुझे उससे बातें करने में अच्छा भी लगा था।
मोटर साइकिल को चालू कर के मैं वापस मुरारी काका के खेतों की तरफ चल दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। जगन, सरोज काकी के पास ही खड़ा हुआ था। उसने दूसरे कपड़े पहन रखे थे। शायद वो मेरे जाने के बाद फिर से घर गया था।
"अच्छे से खा लिया है न बेटा?" मैं जैसे ही खटिया में बैठा तो सरोज काकी ने मुझसे पूछा____"अनु ने खाना ठीक से दिया है कि नहीं?"
"हां काकी।" मैंने कहा____"मेरी वजह से वो भी भूखी ही बैठी थी। मैंने उससे कहा भी कि खाना खा लो लेकिन वो कहने लगी कि मेरे बाद खाएगी।"
"वो ऐसी ही है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"शर्मीली बहुत है वो।"
"काका सारे सामान के बारे में सोच लिया है न तुमने?" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सोच लिया है तो फिर हमें जल्द ही शहर चलना चाहिए। क्योंकि वक़्त से हमें लौटना भी होगा और बाकी के काम भी करने होंगे।"
"मैंने भौजी से पूछ कर सारे सामान के बारे में याद कर लिया है।" जगन काका ने कहा____"तुम्हारे जाने के बाद मैं भी घर गया था। वो क्या है न कि तुम्हारे साथ शहर जाऊंगा तो कपड़े भी तो ठीक ठाक होने चाहिए थे न।"
"तो चलो फिर।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और हां काका। खेतों की कटाई और गहाई की चिंता मत करना। ये दोनों मजदूर सब कर देंगे।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा छोटे ठाकुर।" जगन के चेहरे पर ख़ुशी की चमक नज़र आई____"चलो चलते हैं।"
मैंने मोटर साइकिल चालू किया तो जगन मेरे पीछे बैठ गया। उसके बैठते ही मैंने मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया। रास्ते में मैं और जगन काका दुनिया भर की बातें करते हुए शहर पहुंच गए। शहर में हमने अलग अलग दुकानों में जा जा कर सारा सामान ख़रीदा। सारे सामान का पैसा ज़ाहिर है कि मैंने ही दिया उसके बाद हम वापस गांव की तरफ चल पड़े। शाम होने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। मैंने मोटर साइकिल सीधा मुरारी काका के घर के सामने ही खड़ी की। जगन काका के दोनों हाथों में सामान था जो कि बड़े बड़े थैलों में था। घर के अंदर आ कर मैं आँगन में ही एक खटिया पर बैठ गया, जबकि जगन काका सारा सामान सरोज काकी के कमरे में रख आए।
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
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Khubsurat update dost☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 26
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अब तक,,,,,
भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।
उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,
अभी मैं आधे रास्ते में ही था कि मेरे ज़हन में ख़याल आया कि एक बार मुरारी काका के खेतों की तरफ भी हो आऊं। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल को मुरारी काका के खेतों की तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ सुन कर खेतों में कटाई कर रहे किसानों का ध्यान मेरी तरफ गया। मैंने आम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल खड़ी की। आम के पेड़ के नीचे ही मुरारी काका का खलिहान बना हुआ था। सरोज काकी खलिहान में ही एक तरफ खटिया पर बैठी हुई थी। मुझे देखते ही वो खटिया से उठ गई।
"कटाई ठीक से चल रही है न काकी?" मैंने सरोज काकी के पास आते हुए पूछा तो काकी ने कहा____"हां बेटा ठीक से ही चल रही है। तुमने जिन दो लोगों को भेजा है उन्होंने आधे से ज़्यादा खेत काट दिया है। मुझे लगता है कि आज ही सब कट जाएगा।"
"तुम चिंता मत करना काकी।" काकी ने मुझे खटिया में बैठने का इशारा किया तो मैंने खटिया में बैठते हुए कहा____"कटाई के बाद ये दोनों तुम्हारी फसल की गहाई भी करवा देंगे।"
"वो तो ठीक है बेटा।" काकी ने थोड़े चिंतित भाव से कहा____"लेकिन मुझे चिंता जगन की है और गांव वालों की भी। जगन को तो मैं समझा दूंगी लेकिन गांव वालों को कैसे समझाऊंगी?"
"क्या मतलब??" मैंने न समझने वाले भाव से पूछा तो काकी ने कहा____"मतलब ये कि तुम्हारी इस मदद से गांव के कुछ लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। मुझे डर है कि वो कहीं ऐसी बातें न बनाएं जिससे मेरी और मेरी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लग जाए।"
"ये तुम क्या कह रही हो काकी?" मैंने हैरानी से कहा____"इसमें तुम्हारी और तुम्हारी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लगने वाली कौन सी बात हो जाएगी भला?"
"तुम समझ नहीं रहे हो बेटा।" सरोज ने बेबस भाव से कहा____"ये तो तुम भी जानते ही होंगे न कि सब तुम्हारे चरित्र के बारे में कैसी राय रखते हैं। तुम्हारे चरित्र के बारे में सोच कर ही गांव के कुछ लोग ऐसी बातें सोचेंगे और दूसरों से करेंगे भी। वो यही कहेंगे कि तुमने हमारी मदद सिर्फ इस लिए की होगी क्योंकि तुम्हारी मंशा मेरी बेटी को फ़साने की है।"
"तुम अच्छी तरह जानती हो काकी कि मेरे ज़हन में ऐसी बात दूर दूर तक नहीं है।" मैंने कहा____"मेरे चरित्र को जानने वालों को क्या ये समझ नहीं आता कि अगर मेरे मन में यही सब बातें होती तो क्या अब तक मैं तुम्हारी बेटी के साथ कुछ ग़लत न कर चुका होता?"
"मैं तो अच्छी तरह जानती हूं बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन लोगों को कैसे कोई समझा सकता है? उन्हें तो बातें बनाने के लिए मौका और मुद्दा दोनों ही मिल ही जाएगा न।"
"गांव और समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काकी।" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"तुम चाहे लाख नेक काम करो इसके बावजूद लोग तुम्हारी अच्छाई का गुड़गान नहीं करेंगे बल्कि वो सिर्फ इस बात की कोशिश में लगे रहेंगे कि तुम्हारे में बुराई क्या है और तुम्हारे बारे में बुरा कैसे कहा जाए? इस लिए अगर गांव समाज के लोगों का सोच कर चलोगी तो हमेशा दब्बू बन के ही रहोगी। जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगी। गांव समाज के लोग दूसरों की कमियां खोजने के लिए फुर्सत से बैठे होते हैं। उनके पास दूसरा कोई काम नहीं होता। तुम ये बताओ काकी कि गांव समाज में ऐसा कौन है जो दूध का धुला हुआ बैठा है? इस हमाम में सब नंगे ही हैं। कमियां सब में होती हैं। दब के रहने वाले लोग उनकी कमियों का किसी से ज़िक्र नहीं करते जबकि ख़ुद को अच्छा समझने वाले धूर्त किस्म के होते हैं जो सिर्फ ढिंढोरा पीटते हैं।"
"बात तो तुम्हारी ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने बेचैनी से पहलू बदला____"लेकिन इस समाज में अकेली औरत का जीना इतना आसान भी तो नहीं होता। ख़ास कर तब जब उसका मरद ईश्वर के घर पहुंच गया हो। उसे बहुत कुछ सोच समझ कर चलना पड़ता है।"
"मैं ये सब बातें जानता हूं काकी।" मैंने कहा____"लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि किसी से इतना दब के भी नहीं रहना चाहिए कि लोग उसे दबाते दबाते ज़मीन में ही गाड़ दें। अपना हर काम सही से करो और निडर हो कर करो तो कोई माई लाल कुछ नहीं उखाड़ सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं जगन काका से भी मिलना चाहता था। उनसे मिल कर परसों के कार्यक्रम के बारे में बात करनी थी।"
"जगन खाना खाने गया है।" सरोज काकी ने कहा____"आता ही होगा घर से। मुझे तो उसकी भी चिंता है कि कहीं वो इस सब से नाराज़ न हो जाए।"
"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मैं जगन काका को अच्छे से समझा दूंगा।"
मेरी बात सुन कर काकी अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र दूर से आते हुए जगन पर पड़ी। उसे देख कर सरोज काकी ने मुझे इशारा किया तो मैंने भी जगन की तरफ देखा। जगन हांथ में एक लट्ठ लिए तेज़ क़दमों से इसी तरफ चला आ रहा था। कुछ ही देर में जब वो हमारे पास आ गया तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। उसने घूर कर देखा मुझे।
"छोटे ठाकुर तुम यहाँ??" फिर उसने चौंकने वाले भाव से मुझसे कहा तो मैंने हल्की मुस्कान में कहा____"तुमसे ही मिलने आया था काका लेकिन तुम थे नहीं। काकी ने बताया कि तुम खाना खाने घर गए हुए हो तो सोचा तुम्हारे आने का इंतज़ार ही कर लेता हूं।"
"मुझसे भला क्या काम हो सकता है तुम्हें?" जगन ने घूरते हुए ही कहा मुझसे____"और ये मैं क्या देख रहा हूं छोटे ठाकुर? तुम्हारे गांव के ये दो मजदूर मेरे भाई के खेत की कटाई क्यों कर रहे हैं?"
"वो मेरे कहने से ही कर रहे हैं काका।" मैंने शांत भाव से कहा____"मुरारी काका ने मेरे लिए इतना कुछ किया था तो मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि उनके एहसानों का क़र्ज़ जितना हो सके तो चुका ही दूं। काकी ने तो इसके लिए मुझे बहुत मना किया लेकिन मैं ही नहीं माना। मैंने मुरारी काका का वास्ता दिया तब जा के काकी राज़ी हुई। तुम तो जानते हो काका कि मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे इस लिए ऐसे वक़्त में भी अगर मैं उनके परिवार के लिए कुछ न करूं तो मुझसे बड़ा एहसान फरामोश दुनिया में भला कौन होगा?"
मेरी बात सुन कर जगन मेरी तरफ देखता रह गया। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरी बातों में कहीं मेरा कोई निजी स्वार्थ तो नहीं है? कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जगन काका ने कहा____"माना कि ये सब कर के तुम मेरे भाई का एहसान चुका रहे हो छोटे ठाकुर लेकिन मैं ये हरगिज़ नहीं चाह सकता कि तुम्हारी वजह से मेरे गांव के लोग मेरे घर परिवार के बारे में उल्टी सीधी बातें करने लगें।"
"गांव समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काका।" मैंने वही बात दोहराई जो इसके पहले सरोज काकी से कही थी____"समाज के लोग तो दूसरों की कमियां ही खोजते रहते हैं। तुम चाहे लाख अच्छे अच्छे काम करो मगर समाज के लोग तुम्हारे द्वारा किए गए अच्छे काम में भी बुराई ही खोजेंगे। मेरे ऊपर मुरारी काका के बड़े उपकार हैं काका। आज अगर मैं ऐसे वक़्त में उनकी मदद नहीं करुंगा तो इसी गांव समाज के लोग मेरे बारे में ये कहते फिरेंगे कि जिस मुरारी ने मुसीबत में दादा ठाकुर के लड़के की इतनी मदद की थी उसने मुरारी के गुज़र जाने के बाद उसके परिवार की तरफ पलट कर ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि वो किस हाल में हैं? जगन काका दुनिया के लोग मौका देख कर हर तरह की बातें करना जानते हैं। तुम अच्छा करोगे तब भी वो तुम्हें ग़लत ही कहेंगे और ग़लत करोगे तब तो ग़लत कहेंगे ही। हालांकि इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें इंसान की अच्छाईयां भी दिखती हैं और वो दिल से क़बूल करते हुए ये कहते हैं कि फला इंसान बहुत अच्छा है।"
"शायद तुम ठीक कह रहे हो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ये सच है कि आज का इंसान कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचता है। तुमने जो कुछ कहा वो एक कड़वा सच है लेकिन ग़रीब आदमी करे भी तो क्या? समाज के ठेकेदारों के बीच उसे दब के ही रहना पड़ता है।"
"समाज के लोगों को ठेकेदार बनाया किसने है काका?" मैंने जगन काका की तरफ देखते हुए कहा____"हमारे तुम्हारे जैसे लोगों ने ही उन्हें ठेकेदार बना रखा है। ये ठेकेदार क्या दूध के धुले हुए होते हैं जो हर किसी पर कीचड़ उछालते रहते हैं? क्या तुम नहीं जानते कि समाज के इन ठेकेदारों का दामन भी किसी न किसी चीज़ से दाग़दार हुआ पड़ा है? लोग बड़े शौक से दूसरों पर ऊँगली उठाते हैं काका लेकिन वो ये नहीं देखते कि दूसरों की तरफ उनकी एक ही ऊँगली उठी हुई होती है जबकि उनकी खुद की तरफ उनकी बाकी की चारो उंगलियां उठी हुई होती हैं। समाज के सामने उतना ही झुको काका जितने में मान सम्मान बना रहे लेकिन इतना भी न झुको कि कमर ही टूट जाए।"
जगन काका मेरी बात सुन कर कुछ न बोले। पास ही खड़ी सरोज काकी भी चुप थी। कुछ देर मैं उन दोनों की तरफ देखता रहा उसके बाद बोला____"मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं काका कि अब मैं पहले जैसा नहीं रहा और आज भी यही कहता हूं। मैं सच्चे दिल से मुरारी काका के लिए कुछ करना चाहता हूं। मैं हर रोज़ ये सोचता हूं कि मुरारी काका मुझे ऊपर से देखते हुए सोच रहे होंगे कि उनके जाने के बाद मैं उनके परिवार के लिए कुछ करता हूं कि नहीं? उन्होंने मेरी मदद बिना किसी स्वार्थ के की थी तो क्या मैं इतना बेगैरत और असमर्थ हूं कि उनके एहसानों का क़र्ज़ भी न चुका सकूं? तुम ही बताओ काका कि तुम मेरी जगह होते तो क्या ऐसे वक़्त में मुरारी काका के परिवार वालों से मुँह मोड़ कर चले जाते? क्या तुम एक पल के लिए भी ये न सोचते कि तुम्हारे मुसीबत के दिनों में मुरारी काका ने तुम्हारी कितनी मदद की थी?"
"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मैं अभी तक तुम्हारे बारे में ग़लत ही सोच रहा था किन्तु तुम्हारी इन बातों से मुझे एहसास हो गया है कि तुम ग़लत नहीं हो। यकीनन तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो यही करता। मुझे ख़ुशी हुई कि तुम एक अच्छे इंसान की तरह अपना फ़र्ज़ निभा रहे हो।"
"अगर तुम सच में समझते हो काका कि मैं सच्चे दिल से अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूं।" मैंने कहा____"तो अब तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ निभाने से रोकोगे नहीं। परसों मुरारी काका की तेरहवीं है और मैं चाहता हूं कि मुरारी काका की तेरहवीं अच्छे तरीके से हो। जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुम मुझसे बेझिझक हो कर बोलो। वक़्त ज़्यादा नहीं है इस लिए अभी बताओ कि तेरहवीं के दिन किस किस चीज़ की ज़रूरत होगी। मैं हर ज़रूरत की चीज़ शहर से मगवा दूंगा।"
"इसकी क्या ज़रूरत है छोटे ठाकुर?" जगन ने झिझकते हुए कहा____"हम अपने हिसाब से सब कर लेंगे।"
"इसका मतलब तो यही हुआ न काका।" मैंने कहा____"कि तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ नहीं निभाने देना चाहते। मुरारी काका मेरे पिता समान थे इस नाते भी मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं अपना फ़र्ज़ निभाने में कोई कसर न छोडूं। मुझे मुरारी काका के लिए इतना कर लेने दो काका। तुम कहो तो मैं तुम्हारे पैरों में गिर कर इस सब के लिए तुमसे भीख भी मांग लूं।"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" मैं खटिया से उठ कर खड़ा हुआ तो जगन एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ा_____"ये कैसी बातें कर रहे हो तुम? तुम अगर सब कुछ अपने तरीके से ही करना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हें अब किसी भी बात के लिए मना नहीं करुंगा।"
"तो फिर चलो मेरे साथ।" मैंने कहा तो जगन ने चौंकते हुए कहा____"पर कहां चलूं छोटे ठाकुर?"
"अरे! मेरे साथ शहर चलो काका।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"परसों मुरारी काका की तेरहवीं है इस लिए आज ही शहर से सारा ज़रूरत का सामान खरीद कर ले आएंगे। उसके बाद बाकी का यहाँ देख लेंगे।"
"पर इस वक़्त कैसे?" जगन मेरी बातें सुन कर बुरी तरह हैरान था____"मेरा मतलब है कि क्या अभी हम शहर चलेंगे?"
"क्या काका।" मैंने कहा____"अभी जाने में क्या ख़राबी है? अभी तो पूरा दिन पड़ा है। हम शहर से सारा ज़रूरत का सामान ले कर शाम होने से पहले ही यहाँ आ जाएंगे।"
मेरी बात सुन कर जगन काका उलझन में पड़ गया था। हैरान तो सरोज काकी भी थी किन्तु वो ज़ाहिर नहीं कर रही थी। वो भली भाँति जानती थी कि इस मामले में मैं मानने वाला नहीं था। उधर जगन ने सरोज काकी की तरफ देखते हुए कहा____"भौजी तुम क्या कहती हो?"
"मैं क्या कहूं जगन?" सरोज काकी ने शांत भाव से कहा____"तुम्हें जो ठीक लगे करो। मुझे कोई समस्या नहीं है।"
"तो ठीक है फिर।" जगन ने जैसे फैसला करते हुए कहा____"मैं छोटे ठाकुर के साथ शहर जा रहा हूं। तेरहवीं के दिन जो जो सामान लगता हो वो सब बता दो मुझे।"
"क्या तुम्हें पता नहीं है?" सरोज काकी ने कहा____"कि तेरहवीं के दिन क्या क्या सामान लगता है?"
"थोड़ा बहुत पता तो है मुझे।" जगन ने कहा____"फिर भी अगर कुछ छूट जाए तो बता दो मुझे।"
जगन काका के कहने पर सरोज काकी सामान के बारे में सोचने लगी। इधर मैंने उन दोनों से कहा कि तुम दोनों तब तक सारे सामान के बारे में अच्छे से सोच लो तब तक मैं खाना खा के आता हूं। मेरी बात सुन कर दोनों ने हां में सिर हिला दिया। मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के सरोज काकी के घर की तरफ चल पड़ा। जगन काका से बात कर के अब मैं बेहतर महसूस कर रहा था। आख़िर जगन काका को मैंने इस सब के लिए मना ही लिया था।
जगन काका से हुई बातों के बारे में सोचते हुए मैं कुछ ही देर में मुरारी काका के घर पहुंच गया। मोटर साइकिल को मुरारी काका के घर के बाहर खड़ी कर के जैसे ही मैं नीचे उतरा तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। मैंने गर्दन मोड़ कर देखा दरवाज़े के उस पार हरे रंग का शलवार कुर्ता पहने अनुराधा खड़ी थी। सीने में उसके दुपट्टा नहीं था जिससे मुझे उसके सीने के उभार साफ़ साफ़ दिखाई दिए किन्तु मैंने जल्दी ही उसके सीने से अपनी नज़र हटा कर उसके चेहरे पर डाली तो उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान सजी दिखी मुझे। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिली तो वो जल्दी से पलट गई। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि उसने अपने गले में दुपट्टा नहीं डाला था। शायद मोटर साइकिल की आवाज़ सुन कर वो जल्दी से दरवाज़ा खोलने आई थी और इस जल्दबाज़ी में वो अपने गले में दुपट्टा डालना भूल गई थी। ख़ैर उसके पलट कर चले जाने से मैं हल्के से मुस्कुराया और फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।
मैं अंदर आँगन में आया तो देखा उसने अपने गले में दुपट्टा डाल लिया था। मैंने मन ही मन सोचा कि इस काम में बड़ी जल्दबाज़ी दिखाई उसने। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने मुझे अपने सीने के उभारों को देखते हुए देख लिया हो और उसे अचानक से याद आया हो कि वो जल्दबाज़ी में दुपट्टा डालना भूल गई थी। मुझे मेरा ये ख़याल जायज़ लगा क्योंकि मैंने देखा था कि वो जल्दी ही पलट गई थी।
"मैं आपके ही आने का इंतज़ार कर रही थी छोटे ठाकुर।" मुझे आँगन में आया देख उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमे स्वर में कहा____"ख़ाना तो कब का बना हुआ है।"
"हां वो मैं तुम्हारे खेतों की तरफ चला गया था।" मैंने कहा____"वहां पर जगन काका से काफी देर तक बातें होती रहीं। परसों काका की तेरहवीं है न तो उसी सिलसिले में बातें हो रही थी। अभी मुझे खाना खा कर जल्दी जाना भी है। मैं जगन काका को ले कर शहर जा रहा हूं ताकि वहां से ज़रूरी सामान ला सकूं।"
"क्या काका आपकी बात मान गए?" अनुराधा ने हैरानी भरे भाव से पूछा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे हिसाब से क्या उन्हें मेरी बात नहीं माननी चाहिए थी?"
"नहीं मेरे कहने का मतलब वो नहीं था।" अनुराधा ने झेंपते हुए जल्दी से कहा____"मैंने तो ऐसा इस लिए कहा कि वो आपसे नाराज़ थे।"
"वो बेवजह ही मुझसे नाराज़ थे अनुराधा।" मैंने कहा____"और ये बात तुम भी जानती हो। ख़ैर मैंने उन्हें दुनियादारी की बातें समझाई तब जा कर उन्हें समझ आया कि मैं मुरारी काका के लिए जो कुछ भी कर रहा हूं वो सच्चे दिल से ही कर रहा हूं।"
"आप हाथ मुँह धो लीजिए।" अनुराधा ने लोटे में पानी लाते हुए कहा____"मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।"
"क्या तुमने भी अभी खाना नहीं खाया?" वो मेरे क़रीब आई तो मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूंछा।
"वो मैं आपके आने का इंतज़ार कर रही थी।" उसने नज़र झुका कर कहा____"इस लिए मैंने भी नहीं खाया।"
"ये तो ग़लत किया तुमने।" मैंने उसके हाथ से पानी से भरा लोटा लेते हुए कहा____"मेरी वजह से तुम्हें भूखा नहीं रहना चाहिए था। अगर मैं यहाँ खाना खाने नहीं आता तो क्या तुम ऐसे ही भूखी रहती?"
"जब ज़्यादा भूख लगती तो फिर खाना ही पड़ता मुझे।" अनुराधा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"उस सूरत में आपको बचा हुआ खाना ही खाने को मिलता।"
"तो क्या हुआ।" मैंने नर्दे के पास पानी से हाथ धोते हुए कहा____"मैं बचा हुआ भी खा लेता। आख़िर तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाना मैं कैसे नहीं खाता?"
"अब बातें न बनाइए।" अनुराधा मुस्कुराते हुए पलट गई____"जल्दी से हाथ मुँह धो कर आइए।"
"जो हुकुम आपका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो वो कुछ न बोली, बल्कि रसोई की तरफ तेज़ी से बढ़ गई। मैं समझ सकता था कि मेरी बात सुन कर वो फिर से मुस्कुराई होगी। असल में जब वो मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हल्के गड्ढे पड़ जाते थे जिससे उसकी मुस्कान और भी सुन्दर लगने लगती थी।
मैं हाथ मुँह धो कर रसोई के पास बरामदे में आ गया। ज़मीन में एक चादर बिछी हुई थी और सामने लकड़ी का एक पीढ़ा रखा हुआ था। पीढ़े के बगल से लोटा गिलास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। इस वक़्त मेरी धड़कनें ये सोच कर थोड़ी बढ़ गईं थी कि इस वक़्त घर में मैं और अनुराधा दोनों अकेले ही हैं। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप भी था जो आज कहीं दिख नहीं रहा था। कुछ ही देर में अनुराधा आई और थाली को मेरे सामने लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में दाल चावल और पानी लगा कर हाथ से पोई हुई रोटियां रखी हुईं थी। थाली के एक कोने में कटी हुई प्याज अचार के साथ रखी हुई थी और एक तरफ हरी मिर्च। अनुराधा थाली रखने के बाद फिर से रसोई में चली गई थी और जब वो वापस आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी जिसमे भांटा का भरता था। भांटा का भरता देख कर मैं खुश हो गया।
"वाह! ये सबसे अच्छा काम किया तुमने।" मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"भांटा का भरता बना दिया तो कसम से दिल ख़ुशी से झूम उठा है। अब एक काम और करो और वो ये कि तुम भी अपनी थाली ले कर यहीं आ जाओ। तुम्हें भूखा रहने की अब कोई ज़रूरत नहीं है।"
"आप खा लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं बाद में खा लूंगी।"
"एक तो तुम मुझे छोटे ठाकुर न बोला करो।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"जब तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैं कितना बुड्ढा हूं। क्या मैं तुम्हें बुड्ढा नज़र आता हूं? अरे अभी तो मेरी उम्र खेलने कूदने की है। तुमसे भी मैं उम्र में छोटा ही होऊंगा।"
"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा पहले तो हंसी फिर आँखें फाड़ते हुए बोली____"आप मुझसे छोटे कैसे हो सकते हैं भला?"
"क्यों नहीं हो सकता?" मैंने कहा____"असल में मेरे दाढ़ी मूंछ हैं इस लिए मैं तुमसे बड़ा दिखता हूं वरना मैं तो तुमसे तीन चार साल छोटा ही होऊंगा।"
"मुझे बेवकूफ न बनाइए।" अनुराधा ने मुझे घूरते हुए कहा____"मां बता रही थी मुझे कि जब दादा ठाकुर की दूसरी औलाद तीन साल की हो गई थी तब मैं पैदा हुई थी। इसका मतलब आप मुझसे तीन साल बड़े हैं और आप खुद को मुझसे छोटा बता रहे हैं?"
"अरे! काकी ने तुमसे झूठ कह दिया होगा।" मैंने रोटी का निवाला मुँह में डालने के बाद कहा____"ख़ैर जो भी हो लेकिन अब से तुम मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और ये तुम्हें मानना ही होगा।"
"तो फिर मैं क्या कहूंगी आपको?" अनुराधा ने उलझन पूर्ण भाव से कहा तो मैंने कहा____"हम दोनों की उम्र में थोड़ा ही अंतर है तो तुम मेरा नाम भी ले सकती हो।"
"हाय राम!" अनुराधा ने चौंकते हुए कहा____"मैं भला आपका नाम कैसे ले सकती हूं? मेरे बाबू भी तो आपका नाम नहीं लेते थे तो फिर मैं कैसे ले सकती हूं। ना ना छोटे ठाकुर। मैं आपका नाम नहीं ले सकती। माँ को पता चल गया तो वो मुझे बहुत मारेगी।"
"काकी कुछ नहीं कहेगी तुम्हें।" मैंने कहा____"मैं काकी से कह दूंगा कि मैंने ही तुम्हें मेरा नाम लेने के लिए कहा है। चलो अब मेरा नाम ले कर मुझे पुकारो एक बार। मैं भी तो सुनूं कि तुम्हारे मुख से मेरा नाम कैसा लगता है?"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" अनुराधा बुरी तरह हड़बड़ा गई____"मैं आपका नाम नहीं ले सकती।"
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" मैंने कहा____"तो अब से मैं भी तुम्हें छोटी ठकुराइन कहा करुंगा।"
"छोटी ठकुराइन???" अनुराधा बुरी तरह चौंकी____"ये क्या कह रहे हैं आप?"
"सही तो कह रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ठाकुर तो तुम भी हो। काकी बड़ी ठकुराइन हो गई और तुम छोटी ठकुराईन।"
"ऐसे थोड़ी न होता है।" अनुराधा ने अपने हाथ को झटकते हुए कहा____"वो तो बड़े लोगों को ऐसा कहते हैं। हम तो ग़रीब लोग हैं।"
"इंसान छोटा बड़ा रुपए पैसे या ज़्यादा ज़मीन जायदाद होने से नहीं होता अनुराधा।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"बल्कि छोटा बड़ा दिल से होता है। जिसका दिल जितना अच्छा होता है वो उतना ही महान और बड़ा होता है। इन चार महीनों में इतना तो मैं देख ही चुका हूं कि तुम सबका दिल कितना बड़ा है और अच्छा भी है। इस लिए मेरी नज़र में तुम सब महान और बड़े लोग हो। ऐसे में अगर मैं तुम्हें ठकुराइन कहूंगा तो हर्गिज़ ग़लत नहीं होगा।"
"आप घुमावदार बातें कर के मुझे उलझा रहे हैं छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं तो इतना जानती हूं कि आज के ज़माने में दिल बड़ा होने से कुछ नहीं होता बल्कि जिसके पास आपके जैसा रुतबा और धन दौलत हो वही बड़ा आदमी होता है।"
"आज के ज़माने की सच्चाई भले ही यही हो।" मैंने कहा____"लेकिन असल सच्चाई वही है जिसके बारे में अभी मैं तुम्हें बता चुका हूं। हम ऐसे बड़े लोग हैं जो किसी की ज़रा सी बुरी बात भी बरदास्त नहीं कर सकते जबकि तुम लोग ऐसे बड़े लोग हो जो बड़ी से बड़ी बुरी बात भी बरदास्त कर लेते हो। तो अब तुम ही बताओ अनुराधा कि हम में से बड़ा कौन हुआ? बड़ा वही हुआ न जिसमें हर तरह की बात को सहन कर लेने की क्षमता होती है? रूपया पैसा धन दौलत ऐसी चीज़े हैं जिनके असर से इंसान घमंडी हो जाता है और वो इंसान को इंसान नहीं समझता जबकि जिसके पास इस तरह की दौलत नहीं होती वो कम से कम इंसान को इंसान तो समझता है। आज के युग में जो कोई इंसान को इंसान समझे वही बड़ा और महान है।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा इस बार कुछ न बोली। शायद इस बार उसे मेरी बात काटने के लिए कोई जवाब ही नहीं सूझा था। वैसे मैंने बात ग़लत नहीं कही थी, हक़ीक़त तो वास्तव में यही है। ख़ैर अनुराधा जब एकटक मेरी तरफ देखती ही रही तो मैंने बात बदलते हुए कहा____"तो ठकुराइन जी, आप अपनी भी थाली ले आइए और मुझ छोटे आदमी के साथ बैठ कर खाना खाइए ताकि मुझे भी थोड़ा अच्छा महसूस हो।"
"आप ऐसे बात करेंगे तो मैं आपसे बात नहीं करुंगी।" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"मुझे आपकी ऐसी बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी।"
"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर न कहो।" मैंने कहा____"मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता और अब अगर तुमने दुबारा मुझे छोटे ठाकुर कहा तो मैं ये खाना छोड़ कर चला जाऊंगा यहाँ से।"
"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा के माथे पर शिकन उभर आई____"भगवान के लिए ऐसी ज़िद मत कीजिए।"
"तुम भी तो ज़िद ही कर रही हो।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हें अपना तो ख़याल है लेकिन मेरा कोई ख़याल ही नहीं है। ये कहां का इन्साफ हुआ भला?"
अनुराधा मेरी बात सुन कर बेबस भाव से देखने लगी थी मुझे। उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव गर्दिश करते हुए नज़र आ रहे थे। इस वक़्त जिस तरह के भाव उसके चेहरे पर उभर आये थे उससे वो बहुत ही मासूम दिखने लगी थी और मैं ये सोचने लगा था कि कहीं मैंने उस पर कोई ज़्यादती तो नहीं कर दी?
"क्या हुआ?" फिर मैंने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देखे जा रही हो मुझे?"
"आप ऐसा क्यों चाहते हैं?" अनुराधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं आपका नाम लूं?"
"अगर सच सुनना चाहती हो तो सुनो।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तुम एक ऐसी लड़की हो जिसने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि ऐसा कैसे हुआ है लेकिन इतना ज़रूर समझ गया हूं कि ऐसा तुम्हारी वजह से ही हुआ है और मेरा यकीन करो अपनी फितरत बदल जाने का मुझे कोई रंज़ नहीं है। बल्कि एक अलग ही तरह का एहसास होने लगा है जिसकी वजह से मुझे ख़ुशी भी महसूस होती है। इस लिए मैं चाहता हूं कि मेरी फितरत को बदल देने वाली लड़की मुझे छोटे ठाकुर न कहे बल्कि मेरा नाम ले। ताकि छोटे ठाकुर के नाम का प्रभाव मुझ पर फिर से न पड़े।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगी थी। हालांकि मैंने उससे जो भी कहा था वो एक सच ही था। इन चार महीनो में यकीनन मेरी फितरत कुछ हद तक बदल ही गई थी वरना चार महीने पहले मैं घंटा किसी के बारे में ऐसा नहीं सोचता था।
"चार महीने पहले मैं एक ऐसा इंसान था अनुराधा।" उसे कुछ न बोलते देख मैंने कहा____"जो किसी के भी बारे में ऐसे ख़्याल नहीं रखता था बल्कि ये कहूं तो ज़्यादा बेहतर होगा कि अपनी ख़ुशी के लिए मैं जब चाहे किसी के भी साथ ग़लत कर बैठता था लेकिन जब से यहाँ आया हूं और इस घर से जुड़ा हूं तो मेरी फितरत बदल गई है और मेरी फितरत को बदल देने में तुम्हारा सबसे बड़ा योगदान है।"
"पर मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया।" अनुराधा ने बड़ी मासूमियत से कहा।
"कभी कभी ऐसा भी होता है अनुराधा कि किसी के कुछ न करने से भी बहुत कुछ हो जाता है।" मैंने कहा____"तुम समझती हो कि तुमने कुछ नहीं किया और ये बात वाकई में सच है मगर एक सच ये भी है कि तुम्हारे कुछ न करने से ही मेरी फितरत बदल गई है। तुम्हारी सादगी ने और तुम्हारे चरित्र ने मुझे बदल दिया है। शुरू में जब तुम्हें देखा था तो मेरे ज़हन में बस यही ख़्याल आया था कि तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह एक दिन अपने जाल में फांस लूंगा मगर तुम भी इस बात की गवाह हो कि मैंने तुम्हारे साथ कभी कुछ ग़लत करने का नहीं सोचा। असल में मैं तुम्हारे साथ कुछ ग़लत कर ही नहीं पाया। मेरे ज़मीर ने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत करने ही नहीं दिया। मैंने इस बारे में बहुत सोचा और तब मुझे एहसास हुआ कि ऐसा क्यों हुआ? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं खुश हूं कि तुमने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं इस बात से भी खुश हूं कि तुम्हारी ही वजह से मैंने दूसरी चीज़ों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। मेरी नज़र में तुम्हारा स्थान बहुत बड़ा है अनुराधा और इसी लिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरा नाम लो।"
"आप कुछ और लेंगे?" अनुराधा ने मेरी बात का जवाब दिए बिना पूछा____"भांटा का भरता और ले आऊं आपके लिए?"
"इतना काफी है।" मैंने कहा____"वैसे मुझे ख़ुशी होती अगर तुम भी मेरे पास ही बैठ कर खाना खाती।"
"वो मुझे आपके सामने।" अनुराधा ने नज़रें झुका कर कहा____"ख़ाना खाने में शर्म आएगी इस लिए पहले आप खा लीजिए, मैं बाद में खा लूंगी।"
"ख़ाना खाने में कैसी शर्म?" मैंने हैरानी से कहा____"मैं भी तो तुम्हारे सामने ही खा रहा हूं। मुझे तो शर्म नहीं आ रही बल्कि तुम सामने बैठी हो तो मुझे अच्छा ही लग रहा है।"
"आपकी बात अलग है।" अनुराधा ने लजाते हुए कहा____"आप एक लड़का हैं और मैं एक लड़की हूं।"
"ये तो कोई बात नहीं हुई।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हें मुझसे इतना शर्माने की कोई ज़रूरत नहीं है। ख़ैर अभी तो मुझे जल्दी जाना है इस लिए तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा लेकिन अगली बार अगर तुम ऐसे शरमाओगी तो सोच लेना फिर।"
"क्या मतलब???" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंक गई।
"अरे! डरो नहीं।" मैंने हंसते हुए कहा____"मैं तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा नहीं करुंगा बल्कि काकी से तुम्हारी शिकायत करुंगा कि तुम मुझसे शर्माती बहुत हो।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा मुस्कुरा कर रह गई। ख़ैर मैंने खाना ख़त्म किया और थाली में ही हाथ मुँह धो कर उठ गया। मेरे उठ जाने के बाद अनुराधा ने मेरी थाली को उठाया और एक तरफ रख दिया। मैं जानता था कि जब तक मैं यहाँ रहूंगा अनुराधा की साँसें उसके हलक में अटकी हुई रहेंगी जो की स्वाभाविक बात ही थी। मुझे जगन काका को ले कर शहर भी जाना था इस लिए मैं अनुराधा से बाद में आने का कह कर घर से बाहर निकल गया। अनुराधा से आज काफी बातें की थी मैंने और मुझे उससे बातें करने में अच्छा भी लगा था।
मोटर साइकिल को चालू कर के मैं वापस मुरारी काका के खेतों की तरफ चल दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। जगन, सरोज काकी के पास ही खड़ा हुआ था। उसने दूसरे कपड़े पहन रखे थे। शायद वो मेरे जाने के बाद फिर से घर गया था।
"अच्छे से खा लिया है न बेटा?" मैं जैसे ही खटिया में बैठा तो सरोज काकी ने मुझसे पूछा____"अनु ने खाना ठीक से दिया है कि नहीं?"
"हां काकी।" मैंने कहा____"मेरी वजह से वो भी भूखी ही बैठी थी। मैंने उससे कहा भी कि खाना खा लो लेकिन वो कहने लगी कि मेरे बाद खाएगी।"
"वो ऐसी ही है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"शर्मीली बहुत है वो।"
"काका सारे सामान के बारे में सोच लिया है न तुमने?" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सोच लिया है तो फिर हमें जल्द ही शहर चलना चाहिए। क्योंकि वक़्त से हमें लौटना भी होगा और बाकी के काम भी करने होंगे।"
"मैंने भौजी से पूछ कर सारे सामान के बारे में याद कर लिया है।" जगन काका ने कहा____"तुम्हारे जाने के बाद मैं भी घर गया था। वो क्या है न कि तुम्हारे साथ शहर जाऊंगा तो कपड़े भी तो ठीक ठाक होने चाहिए थे न।"
"तो चलो फिर।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और हां काका। खेतों की कटाई और गहाई की चिंता मत करना। ये दोनों मजदूर सब कर देंगे।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा छोटे ठाकुर।" जगन के चेहरे पर ख़ुशी की चमक नज़र आई____"चलो चलते हैं।"
मैंने मोटर साइकिल चालू किया तो जगन मेरे पीछे बैठ गया। उसके बैठते ही मैंने मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया। रास्ते में मैं और जगन काका दुनिया भर की बातें करते हुए शहर पहुंच गए। शहर में हमने अलग अलग दुकानों में जा जा कर सारा सामान ख़रीदा। सारे सामान का पैसा ज़ाहिर है कि मैंने ही दिया उसके बाद हम वापस गांव की तरफ चल पड़े। शाम होने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। मैंने मोटर साइकिल सीधा मुरारी काका के घर के सामने ही खड़ी की। जगन काका के दोनों हाथों में सामान था जो कि बड़े बड़े थैलों में था। घर के अंदर आ कर मैं आँगन में ही एक खटिया पर बैठ गया, जबकि जगन काका सारा सामान सरोज काकी के कमरे में रख आए।
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
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Bahot khoob shaandaar update bhai☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 26
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अब तक,,,,,
भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।
उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,
अभी मैं आधे रास्ते में ही था कि मेरे ज़हन में ख़याल आया कि एक बार मुरारी काका के खेतों की तरफ भी हो आऊं। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल को मुरारी काका के खेतों की तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ सुन कर खेतों में कटाई कर रहे किसानों का ध्यान मेरी तरफ गया। मैंने आम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल खड़ी की। आम के पेड़ के नीचे ही मुरारी काका का खलिहान बना हुआ था। सरोज काकी खलिहान में ही एक तरफ खटिया पर बैठी हुई थी। मुझे देखते ही वो खटिया से उठ गई।
"कटाई ठीक से चल रही है न काकी?" मैंने सरोज काकी के पास आते हुए पूछा तो काकी ने कहा____"हां बेटा ठीक से ही चल रही है। तुमने जिन दो लोगों को भेजा है उन्होंने आधे से ज़्यादा खेत काट दिया है। मुझे लगता है कि आज ही सब कट जाएगा।"
"तुम चिंता मत करना काकी।" काकी ने मुझे खटिया में बैठने का इशारा किया तो मैंने खटिया में बैठते हुए कहा____"कटाई के बाद ये दोनों तुम्हारी फसल की गहाई भी करवा देंगे।"
"वो तो ठीक है बेटा।" काकी ने थोड़े चिंतित भाव से कहा____"लेकिन मुझे चिंता जगन की है और गांव वालों की भी। जगन को तो मैं समझा दूंगी लेकिन गांव वालों को कैसे समझाऊंगी?"
"क्या मतलब??" मैंने न समझने वाले भाव से पूछा तो काकी ने कहा____"मतलब ये कि तुम्हारी इस मदद से गांव के कुछ लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। मुझे डर है कि वो कहीं ऐसी बातें न बनाएं जिससे मेरी और मेरी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लग जाए।"
"ये तुम क्या कह रही हो काकी?" मैंने हैरानी से कहा____"इसमें तुम्हारी और तुम्हारी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लगने वाली कौन सी बात हो जाएगी भला?"
"तुम समझ नहीं रहे हो बेटा।" सरोज ने बेबस भाव से कहा____"ये तो तुम भी जानते ही होंगे न कि सब तुम्हारे चरित्र के बारे में कैसी राय रखते हैं। तुम्हारे चरित्र के बारे में सोच कर ही गांव के कुछ लोग ऐसी बातें सोचेंगे और दूसरों से करेंगे भी। वो यही कहेंगे कि तुमने हमारी मदद सिर्फ इस लिए की होगी क्योंकि तुम्हारी मंशा मेरी बेटी को फ़साने की है।"
"तुम अच्छी तरह जानती हो काकी कि मेरे ज़हन में ऐसी बात दूर दूर तक नहीं है।" मैंने कहा____"मेरे चरित्र को जानने वालों को क्या ये समझ नहीं आता कि अगर मेरे मन में यही सब बातें होती तो क्या अब तक मैं तुम्हारी बेटी के साथ कुछ ग़लत न कर चुका होता?"
"मैं तो अच्छी तरह जानती हूं बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन लोगों को कैसे कोई समझा सकता है? उन्हें तो बातें बनाने के लिए मौका और मुद्दा दोनों ही मिल ही जाएगा न।"
"गांव और समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काकी।" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"तुम चाहे लाख नेक काम करो इसके बावजूद लोग तुम्हारी अच्छाई का गुड़गान नहीं करेंगे बल्कि वो सिर्फ इस बात की कोशिश में लगे रहेंगे कि तुम्हारे में बुराई क्या है और तुम्हारे बारे में बुरा कैसे कहा जाए? इस लिए अगर गांव समाज के लोगों का सोच कर चलोगी तो हमेशा दब्बू बन के ही रहोगी। जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगी। गांव समाज के लोग दूसरों की कमियां खोजने के लिए फुर्सत से बैठे होते हैं। उनके पास दूसरा कोई काम नहीं होता। तुम ये बताओ काकी कि गांव समाज में ऐसा कौन है जो दूध का धुला हुआ बैठा है? इस हमाम में सब नंगे ही हैं। कमियां सब में होती हैं। दब के रहने वाले लोग उनकी कमियों का किसी से ज़िक्र नहीं करते जबकि ख़ुद को अच्छा समझने वाले धूर्त किस्म के होते हैं जो सिर्फ ढिंढोरा पीटते हैं।"
"बात तो तुम्हारी ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने बेचैनी से पहलू बदला____"लेकिन इस समाज में अकेली औरत का जीना इतना आसान भी तो नहीं होता। ख़ास कर तब जब उसका मरद ईश्वर के घर पहुंच गया हो। उसे बहुत कुछ सोच समझ कर चलना पड़ता है।"
"मैं ये सब बातें जानता हूं काकी।" मैंने कहा____"लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि किसी से इतना दब के भी नहीं रहना चाहिए कि लोग उसे दबाते दबाते ज़मीन में ही गाड़ दें। अपना हर काम सही से करो और निडर हो कर करो तो कोई माई लाल कुछ नहीं उखाड़ सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं जगन काका से भी मिलना चाहता था। उनसे मिल कर परसों के कार्यक्रम के बारे में बात करनी थी।"
"जगन खाना खाने गया है।" सरोज काकी ने कहा____"आता ही होगा घर से। मुझे तो उसकी भी चिंता है कि कहीं वो इस सब से नाराज़ न हो जाए।"
"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मैं जगन काका को अच्छे से समझा दूंगा।"
मेरी बात सुन कर काकी अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र दूर से आते हुए जगन पर पड़ी। उसे देख कर सरोज काकी ने मुझे इशारा किया तो मैंने भी जगन की तरफ देखा। जगन हांथ में एक लट्ठ लिए तेज़ क़दमों से इसी तरफ चला आ रहा था। कुछ ही देर में जब वो हमारे पास आ गया तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। उसने घूर कर देखा मुझे।
"छोटे ठाकुर तुम यहाँ??" फिर उसने चौंकने वाले भाव से मुझसे कहा तो मैंने हल्की मुस्कान में कहा____"तुमसे ही मिलने आया था काका लेकिन तुम थे नहीं। काकी ने बताया कि तुम खाना खाने घर गए हुए हो तो सोचा तुम्हारे आने का इंतज़ार ही कर लेता हूं।"
"मुझसे भला क्या काम हो सकता है तुम्हें?" जगन ने घूरते हुए ही कहा मुझसे____"और ये मैं क्या देख रहा हूं छोटे ठाकुर? तुम्हारे गांव के ये दो मजदूर मेरे भाई के खेत की कटाई क्यों कर रहे हैं?"
"वो मेरे कहने से ही कर रहे हैं काका।" मैंने शांत भाव से कहा____"मुरारी काका ने मेरे लिए इतना कुछ किया था तो मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि उनके एहसानों का क़र्ज़ जितना हो सके तो चुका ही दूं। काकी ने तो इसके लिए मुझे बहुत मना किया लेकिन मैं ही नहीं माना। मैंने मुरारी काका का वास्ता दिया तब जा के काकी राज़ी हुई। तुम तो जानते हो काका कि मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे इस लिए ऐसे वक़्त में भी अगर मैं उनके परिवार के लिए कुछ न करूं तो मुझसे बड़ा एहसान फरामोश दुनिया में भला कौन होगा?"
मेरी बात सुन कर जगन मेरी तरफ देखता रह गया। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरी बातों में कहीं मेरा कोई निजी स्वार्थ तो नहीं है? कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जगन काका ने कहा____"माना कि ये सब कर के तुम मेरे भाई का एहसान चुका रहे हो छोटे ठाकुर लेकिन मैं ये हरगिज़ नहीं चाह सकता कि तुम्हारी वजह से मेरे गांव के लोग मेरे घर परिवार के बारे में उल्टी सीधी बातें करने लगें।"
"गांव समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काका।" मैंने वही बात दोहराई जो इसके पहले सरोज काकी से कही थी____"समाज के लोग तो दूसरों की कमियां ही खोजते रहते हैं। तुम चाहे लाख अच्छे अच्छे काम करो मगर समाज के लोग तुम्हारे द्वारा किए गए अच्छे काम में भी बुराई ही खोजेंगे। मेरे ऊपर मुरारी काका के बड़े उपकार हैं काका। आज अगर मैं ऐसे वक़्त में उनकी मदद नहीं करुंगा तो इसी गांव समाज के लोग मेरे बारे में ये कहते फिरेंगे कि जिस मुरारी ने मुसीबत में दादा ठाकुर के लड़के की इतनी मदद की थी उसने मुरारी के गुज़र जाने के बाद उसके परिवार की तरफ पलट कर ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि वो किस हाल में हैं? जगन काका दुनिया के लोग मौका देख कर हर तरह की बातें करना जानते हैं। तुम अच्छा करोगे तब भी वो तुम्हें ग़लत ही कहेंगे और ग़लत करोगे तब तो ग़लत कहेंगे ही। हालांकि इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें इंसान की अच्छाईयां भी दिखती हैं और वो दिल से क़बूल करते हुए ये कहते हैं कि फला इंसान बहुत अच्छा है।"
"शायद तुम ठीक कह रहे हो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ये सच है कि आज का इंसान कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचता है। तुमने जो कुछ कहा वो एक कड़वा सच है लेकिन ग़रीब आदमी करे भी तो क्या? समाज के ठेकेदारों के बीच उसे दब के ही रहना पड़ता है।"
"समाज के लोगों को ठेकेदार बनाया किसने है काका?" मैंने जगन काका की तरफ देखते हुए कहा____"हमारे तुम्हारे जैसे लोगों ने ही उन्हें ठेकेदार बना रखा है। ये ठेकेदार क्या दूध के धुले हुए होते हैं जो हर किसी पर कीचड़ उछालते रहते हैं? क्या तुम नहीं जानते कि समाज के इन ठेकेदारों का दामन भी किसी न किसी चीज़ से दाग़दार हुआ पड़ा है? लोग बड़े शौक से दूसरों पर ऊँगली उठाते हैं काका लेकिन वो ये नहीं देखते कि दूसरों की तरफ उनकी एक ही ऊँगली उठी हुई होती है जबकि उनकी खुद की तरफ उनकी बाकी की चारो उंगलियां उठी हुई होती हैं। समाज के सामने उतना ही झुको काका जितने में मान सम्मान बना रहे लेकिन इतना भी न झुको कि कमर ही टूट जाए।"
जगन काका मेरी बात सुन कर कुछ न बोले। पास ही खड़ी सरोज काकी भी चुप थी। कुछ देर मैं उन दोनों की तरफ देखता रहा उसके बाद बोला____"मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं काका कि अब मैं पहले जैसा नहीं रहा और आज भी यही कहता हूं। मैं सच्चे दिल से मुरारी काका के लिए कुछ करना चाहता हूं। मैं हर रोज़ ये सोचता हूं कि मुरारी काका मुझे ऊपर से देखते हुए सोच रहे होंगे कि उनके जाने के बाद मैं उनके परिवार के लिए कुछ करता हूं कि नहीं? उन्होंने मेरी मदद बिना किसी स्वार्थ के की थी तो क्या मैं इतना बेगैरत और असमर्थ हूं कि उनके एहसानों का क़र्ज़ भी न चुका सकूं? तुम ही बताओ काका कि तुम मेरी जगह होते तो क्या ऐसे वक़्त में मुरारी काका के परिवार वालों से मुँह मोड़ कर चले जाते? क्या तुम एक पल के लिए भी ये न सोचते कि तुम्हारे मुसीबत के दिनों में मुरारी काका ने तुम्हारी कितनी मदद की थी?"
"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मैं अभी तक तुम्हारे बारे में ग़लत ही सोच रहा था किन्तु तुम्हारी इन बातों से मुझे एहसास हो गया है कि तुम ग़लत नहीं हो। यकीनन तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो यही करता। मुझे ख़ुशी हुई कि तुम एक अच्छे इंसान की तरह अपना फ़र्ज़ निभा रहे हो।"
"अगर तुम सच में समझते हो काका कि मैं सच्चे दिल से अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूं।" मैंने कहा____"तो अब तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ निभाने से रोकोगे नहीं। परसों मुरारी काका की तेरहवीं है और मैं चाहता हूं कि मुरारी काका की तेरहवीं अच्छे तरीके से हो। जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुम मुझसे बेझिझक हो कर बोलो। वक़्त ज़्यादा नहीं है इस लिए अभी बताओ कि तेरहवीं के दिन किस किस चीज़ की ज़रूरत होगी। मैं हर ज़रूरत की चीज़ शहर से मगवा दूंगा।"
"इसकी क्या ज़रूरत है छोटे ठाकुर?" जगन ने झिझकते हुए कहा____"हम अपने हिसाब से सब कर लेंगे।"
"इसका मतलब तो यही हुआ न काका।" मैंने कहा____"कि तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ नहीं निभाने देना चाहते। मुरारी काका मेरे पिता समान थे इस नाते भी मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं अपना फ़र्ज़ निभाने में कोई कसर न छोडूं। मुझे मुरारी काका के लिए इतना कर लेने दो काका। तुम कहो तो मैं तुम्हारे पैरों में गिर कर इस सब के लिए तुमसे भीख भी मांग लूं।"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" मैं खटिया से उठ कर खड़ा हुआ तो जगन एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ा_____"ये कैसी बातें कर रहे हो तुम? तुम अगर सब कुछ अपने तरीके से ही करना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हें अब किसी भी बात के लिए मना नहीं करुंगा।"
"तो फिर चलो मेरे साथ।" मैंने कहा तो जगन ने चौंकते हुए कहा____"पर कहां चलूं छोटे ठाकुर?"
"अरे! मेरे साथ शहर चलो काका।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"परसों मुरारी काका की तेरहवीं है इस लिए आज ही शहर से सारा ज़रूरत का सामान खरीद कर ले आएंगे। उसके बाद बाकी का यहाँ देख लेंगे।"
"पर इस वक़्त कैसे?" जगन मेरी बातें सुन कर बुरी तरह हैरान था____"मेरा मतलब है कि क्या अभी हम शहर चलेंगे?"
"क्या काका।" मैंने कहा____"अभी जाने में क्या ख़राबी है? अभी तो पूरा दिन पड़ा है। हम शहर से सारा ज़रूरत का सामान ले कर शाम होने से पहले ही यहाँ आ जाएंगे।"
मेरी बात सुन कर जगन काका उलझन में पड़ गया था। हैरान तो सरोज काकी भी थी किन्तु वो ज़ाहिर नहीं कर रही थी। वो भली भाँति जानती थी कि इस मामले में मैं मानने वाला नहीं था। उधर जगन ने सरोज काकी की तरफ देखते हुए कहा____"भौजी तुम क्या कहती हो?"
"मैं क्या कहूं जगन?" सरोज काकी ने शांत भाव से कहा____"तुम्हें जो ठीक लगे करो। मुझे कोई समस्या नहीं है।"
"तो ठीक है फिर।" जगन ने जैसे फैसला करते हुए कहा____"मैं छोटे ठाकुर के साथ शहर जा रहा हूं। तेरहवीं के दिन जो जो सामान लगता हो वो सब बता दो मुझे।"
"क्या तुम्हें पता नहीं है?" सरोज काकी ने कहा____"कि तेरहवीं के दिन क्या क्या सामान लगता है?"
"थोड़ा बहुत पता तो है मुझे।" जगन ने कहा____"फिर भी अगर कुछ छूट जाए तो बता दो मुझे।"
जगन काका के कहने पर सरोज काकी सामान के बारे में सोचने लगी। इधर मैंने उन दोनों से कहा कि तुम दोनों तब तक सारे सामान के बारे में अच्छे से सोच लो तब तक मैं खाना खा के आता हूं। मेरी बात सुन कर दोनों ने हां में सिर हिला दिया। मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के सरोज काकी के घर की तरफ चल पड़ा। जगन काका से बात कर के अब मैं बेहतर महसूस कर रहा था। आख़िर जगन काका को मैंने इस सब के लिए मना ही लिया था।
जगन काका से हुई बातों के बारे में सोचते हुए मैं कुछ ही देर में मुरारी काका के घर पहुंच गया। मोटर साइकिल को मुरारी काका के घर के बाहर खड़ी कर के जैसे ही मैं नीचे उतरा तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। मैंने गर्दन मोड़ कर देखा दरवाज़े के उस पार हरे रंग का शलवार कुर्ता पहने अनुराधा खड़ी थी। सीने में उसके दुपट्टा नहीं था जिससे मुझे उसके सीने के उभार साफ़ साफ़ दिखाई दिए किन्तु मैंने जल्दी ही उसके सीने से अपनी नज़र हटा कर उसके चेहरे पर डाली तो उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान सजी दिखी मुझे। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिली तो वो जल्दी से पलट गई। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि उसने अपने गले में दुपट्टा नहीं डाला था। शायद मोटर साइकिल की आवाज़ सुन कर वो जल्दी से दरवाज़ा खोलने आई थी और इस जल्दबाज़ी में वो अपने गले में दुपट्टा डालना भूल गई थी। ख़ैर उसके पलट कर चले जाने से मैं हल्के से मुस्कुराया और फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।
मैं अंदर आँगन में आया तो देखा उसने अपने गले में दुपट्टा डाल लिया था। मैंने मन ही मन सोचा कि इस काम में बड़ी जल्दबाज़ी दिखाई उसने। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने मुझे अपने सीने के उभारों को देखते हुए देख लिया हो और उसे अचानक से याद आया हो कि वो जल्दबाज़ी में दुपट्टा डालना भूल गई थी। मुझे मेरा ये ख़याल जायज़ लगा क्योंकि मैंने देखा था कि वो जल्दी ही पलट गई थी।
"मैं आपके ही आने का इंतज़ार कर रही थी छोटे ठाकुर।" मुझे आँगन में आया देख उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमे स्वर में कहा____"ख़ाना तो कब का बना हुआ है।"
"हां वो मैं तुम्हारे खेतों की तरफ चला गया था।" मैंने कहा____"वहां पर जगन काका से काफी देर तक बातें होती रहीं। परसों काका की तेरहवीं है न तो उसी सिलसिले में बातें हो रही थी। अभी मुझे खाना खा कर जल्दी जाना भी है। मैं जगन काका को ले कर शहर जा रहा हूं ताकि वहां से ज़रूरी सामान ला सकूं।"
"क्या काका आपकी बात मान गए?" अनुराधा ने हैरानी भरे भाव से पूछा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे हिसाब से क्या उन्हें मेरी बात नहीं माननी चाहिए थी?"
"नहीं मेरे कहने का मतलब वो नहीं था।" अनुराधा ने झेंपते हुए जल्दी से कहा____"मैंने तो ऐसा इस लिए कहा कि वो आपसे नाराज़ थे।"
"वो बेवजह ही मुझसे नाराज़ थे अनुराधा।" मैंने कहा____"और ये बात तुम भी जानती हो। ख़ैर मैंने उन्हें दुनियादारी की बातें समझाई तब जा कर उन्हें समझ आया कि मैं मुरारी काका के लिए जो कुछ भी कर रहा हूं वो सच्चे दिल से ही कर रहा हूं।"
"आप हाथ मुँह धो लीजिए।" अनुराधा ने लोटे में पानी लाते हुए कहा____"मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।"
"क्या तुमने भी अभी खाना नहीं खाया?" वो मेरे क़रीब आई तो मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूंछा।
"वो मैं आपके आने का इंतज़ार कर रही थी।" उसने नज़र झुका कर कहा____"इस लिए मैंने भी नहीं खाया।"
"ये तो ग़लत किया तुमने।" मैंने उसके हाथ से पानी से भरा लोटा लेते हुए कहा____"मेरी वजह से तुम्हें भूखा नहीं रहना चाहिए था। अगर मैं यहाँ खाना खाने नहीं आता तो क्या तुम ऐसे ही भूखी रहती?"
"जब ज़्यादा भूख लगती तो फिर खाना ही पड़ता मुझे।" अनुराधा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"उस सूरत में आपको बचा हुआ खाना ही खाने को मिलता।"
"तो क्या हुआ।" मैंने नर्दे के पास पानी से हाथ धोते हुए कहा____"मैं बचा हुआ भी खा लेता। आख़िर तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाना मैं कैसे नहीं खाता?"
"अब बातें न बनाइए।" अनुराधा मुस्कुराते हुए पलट गई____"जल्दी से हाथ मुँह धो कर आइए।"
"जो हुकुम आपका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो वो कुछ न बोली, बल्कि रसोई की तरफ तेज़ी से बढ़ गई। मैं समझ सकता था कि मेरी बात सुन कर वो फिर से मुस्कुराई होगी। असल में जब वो मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हल्के गड्ढे पड़ जाते थे जिससे उसकी मुस्कान और भी सुन्दर लगने लगती थी।
मैं हाथ मुँह धो कर रसोई के पास बरामदे में आ गया। ज़मीन में एक चादर बिछी हुई थी और सामने लकड़ी का एक पीढ़ा रखा हुआ था। पीढ़े के बगल से लोटा गिलास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। इस वक़्त मेरी धड़कनें ये सोच कर थोड़ी बढ़ गईं थी कि इस वक़्त घर में मैं और अनुराधा दोनों अकेले ही हैं। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप भी था जो आज कहीं दिख नहीं रहा था। कुछ ही देर में अनुराधा आई और थाली को मेरे सामने लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में दाल चावल और पानी लगा कर हाथ से पोई हुई रोटियां रखी हुईं थी। थाली के एक कोने में कटी हुई प्याज अचार के साथ रखी हुई थी और एक तरफ हरी मिर्च। अनुराधा थाली रखने के बाद फिर से रसोई में चली गई थी और जब वो वापस आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी जिसमे भांटा का भरता था। भांटा का भरता देख कर मैं खुश हो गया।
"वाह! ये सबसे अच्छा काम किया तुमने।" मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"भांटा का भरता बना दिया तो कसम से दिल ख़ुशी से झूम उठा है। अब एक काम और करो और वो ये कि तुम भी अपनी थाली ले कर यहीं आ जाओ। तुम्हें भूखा रहने की अब कोई ज़रूरत नहीं है।"
"आप खा लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं बाद में खा लूंगी।"
"एक तो तुम मुझे छोटे ठाकुर न बोला करो।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"जब तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैं कितना बुड्ढा हूं। क्या मैं तुम्हें बुड्ढा नज़र आता हूं? अरे अभी तो मेरी उम्र खेलने कूदने की है। तुमसे भी मैं उम्र में छोटा ही होऊंगा।"
"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा पहले तो हंसी फिर आँखें फाड़ते हुए बोली____"आप मुझसे छोटे कैसे हो सकते हैं भला?"
"क्यों नहीं हो सकता?" मैंने कहा____"असल में मेरे दाढ़ी मूंछ हैं इस लिए मैं तुमसे बड़ा दिखता हूं वरना मैं तो तुमसे तीन चार साल छोटा ही होऊंगा।"
"मुझे बेवकूफ न बनाइए।" अनुराधा ने मुझे घूरते हुए कहा____"मां बता रही थी मुझे कि जब दादा ठाकुर की दूसरी औलाद तीन साल की हो गई थी तब मैं पैदा हुई थी। इसका मतलब आप मुझसे तीन साल बड़े हैं और आप खुद को मुझसे छोटा बता रहे हैं?"
"अरे! काकी ने तुमसे झूठ कह दिया होगा।" मैंने रोटी का निवाला मुँह में डालने के बाद कहा____"ख़ैर जो भी हो लेकिन अब से तुम मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और ये तुम्हें मानना ही होगा।"
"तो फिर मैं क्या कहूंगी आपको?" अनुराधा ने उलझन पूर्ण भाव से कहा तो मैंने कहा____"हम दोनों की उम्र में थोड़ा ही अंतर है तो तुम मेरा नाम भी ले सकती हो।"
"हाय राम!" अनुराधा ने चौंकते हुए कहा____"मैं भला आपका नाम कैसे ले सकती हूं? मेरे बाबू भी तो आपका नाम नहीं लेते थे तो फिर मैं कैसे ले सकती हूं। ना ना छोटे ठाकुर। मैं आपका नाम नहीं ले सकती। माँ को पता चल गया तो वो मुझे बहुत मारेगी।"
"काकी कुछ नहीं कहेगी तुम्हें।" मैंने कहा____"मैं काकी से कह दूंगा कि मैंने ही तुम्हें मेरा नाम लेने के लिए कहा है। चलो अब मेरा नाम ले कर मुझे पुकारो एक बार। मैं भी तो सुनूं कि तुम्हारे मुख से मेरा नाम कैसा लगता है?"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" अनुराधा बुरी तरह हड़बड़ा गई____"मैं आपका नाम नहीं ले सकती।"
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" मैंने कहा____"तो अब से मैं भी तुम्हें छोटी ठकुराइन कहा करुंगा।"
"छोटी ठकुराइन???" अनुराधा बुरी तरह चौंकी____"ये क्या कह रहे हैं आप?"
"सही तो कह रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ठाकुर तो तुम भी हो। काकी बड़ी ठकुराइन हो गई और तुम छोटी ठकुराईन।"
"ऐसे थोड़ी न होता है।" अनुराधा ने अपने हाथ को झटकते हुए कहा____"वो तो बड़े लोगों को ऐसा कहते हैं। हम तो ग़रीब लोग हैं।"
"इंसान छोटा बड़ा रुपए पैसे या ज़्यादा ज़मीन जायदाद होने से नहीं होता अनुराधा।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"बल्कि छोटा बड़ा दिल से होता है। जिसका दिल जितना अच्छा होता है वो उतना ही महान और बड़ा होता है। इन चार महीनों में इतना तो मैं देख ही चुका हूं कि तुम सबका दिल कितना बड़ा है और अच्छा भी है। इस लिए मेरी नज़र में तुम सब महान और बड़े लोग हो। ऐसे में अगर मैं तुम्हें ठकुराइन कहूंगा तो हर्गिज़ ग़लत नहीं होगा।"
"आप घुमावदार बातें कर के मुझे उलझा रहे हैं छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं तो इतना जानती हूं कि आज के ज़माने में दिल बड़ा होने से कुछ नहीं होता बल्कि जिसके पास आपके जैसा रुतबा और धन दौलत हो वही बड़ा आदमी होता है।"
"आज के ज़माने की सच्चाई भले ही यही हो।" मैंने कहा____"लेकिन असल सच्चाई वही है जिसके बारे में अभी मैं तुम्हें बता चुका हूं। हम ऐसे बड़े लोग हैं जो किसी की ज़रा सी बुरी बात भी बरदास्त नहीं कर सकते जबकि तुम लोग ऐसे बड़े लोग हो जो बड़ी से बड़ी बुरी बात भी बरदास्त कर लेते हो। तो अब तुम ही बताओ अनुराधा कि हम में से बड़ा कौन हुआ? बड़ा वही हुआ न जिसमें हर तरह की बात को सहन कर लेने की क्षमता होती है? रूपया पैसा धन दौलत ऐसी चीज़े हैं जिनके असर से इंसान घमंडी हो जाता है और वो इंसान को इंसान नहीं समझता जबकि जिसके पास इस तरह की दौलत नहीं होती वो कम से कम इंसान को इंसान तो समझता है। आज के युग में जो कोई इंसान को इंसान समझे वही बड़ा और महान है।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा इस बार कुछ न बोली। शायद इस बार उसे मेरी बात काटने के लिए कोई जवाब ही नहीं सूझा था। वैसे मैंने बात ग़लत नहीं कही थी, हक़ीक़त तो वास्तव में यही है। ख़ैर अनुराधा जब एकटक मेरी तरफ देखती ही रही तो मैंने बात बदलते हुए कहा____"तो ठकुराइन जी, आप अपनी भी थाली ले आइए और मुझ छोटे आदमी के साथ बैठ कर खाना खाइए ताकि मुझे भी थोड़ा अच्छा महसूस हो।"
"आप ऐसे बात करेंगे तो मैं आपसे बात नहीं करुंगी।" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"मुझे आपकी ऐसी बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी।"
"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर न कहो।" मैंने कहा____"मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता और अब अगर तुमने दुबारा मुझे छोटे ठाकुर कहा तो मैं ये खाना छोड़ कर चला जाऊंगा यहाँ से।"
"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा के माथे पर शिकन उभर आई____"भगवान के लिए ऐसी ज़िद मत कीजिए।"
"तुम भी तो ज़िद ही कर रही हो।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हें अपना तो ख़याल है लेकिन मेरा कोई ख़याल ही नहीं है। ये कहां का इन्साफ हुआ भला?"
अनुराधा मेरी बात सुन कर बेबस भाव से देखने लगी थी मुझे। उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव गर्दिश करते हुए नज़र आ रहे थे। इस वक़्त जिस तरह के भाव उसके चेहरे पर उभर आये थे उससे वो बहुत ही मासूम दिखने लगी थी और मैं ये सोचने लगा था कि कहीं मैंने उस पर कोई ज़्यादती तो नहीं कर दी?
"क्या हुआ?" फिर मैंने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देखे जा रही हो मुझे?"
"आप ऐसा क्यों चाहते हैं?" अनुराधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं आपका नाम लूं?"
"अगर सच सुनना चाहती हो तो सुनो।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तुम एक ऐसी लड़की हो जिसने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि ऐसा कैसे हुआ है लेकिन इतना ज़रूर समझ गया हूं कि ऐसा तुम्हारी वजह से ही हुआ है और मेरा यकीन करो अपनी फितरत बदल जाने का मुझे कोई रंज़ नहीं है। बल्कि एक अलग ही तरह का एहसास होने लगा है जिसकी वजह से मुझे ख़ुशी भी महसूस होती है। इस लिए मैं चाहता हूं कि मेरी फितरत को बदल देने वाली लड़की मुझे छोटे ठाकुर न कहे बल्कि मेरा नाम ले। ताकि छोटे ठाकुर के नाम का प्रभाव मुझ पर फिर से न पड़े।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगी थी। हालांकि मैंने उससे जो भी कहा था वो एक सच ही था। इन चार महीनो में यकीनन मेरी फितरत कुछ हद तक बदल ही गई थी वरना चार महीने पहले मैं घंटा किसी के बारे में ऐसा नहीं सोचता था।
"चार महीने पहले मैं एक ऐसा इंसान था अनुराधा।" उसे कुछ न बोलते देख मैंने कहा____"जो किसी के भी बारे में ऐसे ख़्याल नहीं रखता था बल्कि ये कहूं तो ज़्यादा बेहतर होगा कि अपनी ख़ुशी के लिए मैं जब चाहे किसी के भी साथ ग़लत कर बैठता था लेकिन जब से यहाँ आया हूं और इस घर से जुड़ा हूं तो मेरी फितरत बदल गई है और मेरी फितरत को बदल देने में तुम्हारा सबसे बड़ा योगदान है।"
"पर मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया।" अनुराधा ने बड़ी मासूमियत से कहा।
"कभी कभी ऐसा भी होता है अनुराधा कि किसी के कुछ न करने से भी बहुत कुछ हो जाता है।" मैंने कहा____"तुम समझती हो कि तुमने कुछ नहीं किया और ये बात वाकई में सच है मगर एक सच ये भी है कि तुम्हारे कुछ न करने से ही मेरी फितरत बदल गई है। तुम्हारी सादगी ने और तुम्हारे चरित्र ने मुझे बदल दिया है। शुरू में जब तुम्हें देखा था तो मेरे ज़हन में बस यही ख़्याल आया था कि तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह एक दिन अपने जाल में फांस लूंगा मगर तुम भी इस बात की गवाह हो कि मैंने तुम्हारे साथ कभी कुछ ग़लत करने का नहीं सोचा। असल में मैं तुम्हारे साथ कुछ ग़लत कर ही नहीं पाया। मेरे ज़मीर ने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत करने ही नहीं दिया। मैंने इस बारे में बहुत सोचा और तब मुझे एहसास हुआ कि ऐसा क्यों हुआ? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं खुश हूं कि तुमने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं इस बात से भी खुश हूं कि तुम्हारी ही वजह से मैंने दूसरी चीज़ों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। मेरी नज़र में तुम्हारा स्थान बहुत बड़ा है अनुराधा और इसी लिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरा नाम लो।"
"आप कुछ और लेंगे?" अनुराधा ने मेरी बात का जवाब दिए बिना पूछा____"भांटा का भरता और ले आऊं आपके लिए?"
"इतना काफी है।" मैंने कहा____"वैसे मुझे ख़ुशी होती अगर तुम भी मेरे पास ही बैठ कर खाना खाती।"
"वो मुझे आपके सामने।" अनुराधा ने नज़रें झुका कर कहा____"ख़ाना खाने में शर्म आएगी इस लिए पहले आप खा लीजिए, मैं बाद में खा लूंगी।"
"ख़ाना खाने में कैसी शर्म?" मैंने हैरानी से कहा____"मैं भी तो तुम्हारे सामने ही खा रहा हूं। मुझे तो शर्म नहीं आ रही बल्कि तुम सामने बैठी हो तो मुझे अच्छा ही लग रहा है।"
"आपकी बात अलग है।" अनुराधा ने लजाते हुए कहा____"आप एक लड़का हैं और मैं एक लड़की हूं।"
"ये तो कोई बात नहीं हुई।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हें मुझसे इतना शर्माने की कोई ज़रूरत नहीं है। ख़ैर अभी तो मुझे जल्दी जाना है इस लिए तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा लेकिन अगली बार अगर तुम ऐसे शरमाओगी तो सोच लेना फिर।"
"क्या मतलब???" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंक गई।
"अरे! डरो नहीं।" मैंने हंसते हुए कहा____"मैं तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा नहीं करुंगा बल्कि काकी से तुम्हारी शिकायत करुंगा कि तुम मुझसे शर्माती बहुत हो।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा मुस्कुरा कर रह गई। ख़ैर मैंने खाना ख़त्म किया और थाली में ही हाथ मुँह धो कर उठ गया। मेरे उठ जाने के बाद अनुराधा ने मेरी थाली को उठाया और एक तरफ रख दिया। मैं जानता था कि जब तक मैं यहाँ रहूंगा अनुराधा की साँसें उसके हलक में अटकी हुई रहेंगी जो की स्वाभाविक बात ही थी। मुझे जगन काका को ले कर शहर भी जाना था इस लिए मैं अनुराधा से बाद में आने का कह कर घर से बाहर निकल गया। अनुराधा से आज काफी बातें की थी मैंने और मुझे उससे बातें करने में अच्छा भी लगा था।
मोटर साइकिल को चालू कर के मैं वापस मुरारी काका के खेतों की तरफ चल दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। जगन, सरोज काकी के पास ही खड़ा हुआ था। उसने दूसरे कपड़े पहन रखे थे। शायद वो मेरे जाने के बाद फिर से घर गया था।
"अच्छे से खा लिया है न बेटा?" मैं जैसे ही खटिया में बैठा तो सरोज काकी ने मुझसे पूछा____"अनु ने खाना ठीक से दिया है कि नहीं?"
"हां काकी।" मैंने कहा____"मेरी वजह से वो भी भूखी ही बैठी थी। मैंने उससे कहा भी कि खाना खा लो लेकिन वो कहने लगी कि मेरे बाद खाएगी।"
"वो ऐसी ही है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"शर्मीली बहुत है वो।"
"काका सारे सामान के बारे में सोच लिया है न तुमने?" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सोच लिया है तो फिर हमें जल्द ही शहर चलना चाहिए। क्योंकि वक़्त से हमें लौटना भी होगा और बाकी के काम भी करने होंगे।"
"मैंने भौजी से पूछ कर सारे सामान के बारे में याद कर लिया है।" जगन काका ने कहा____"तुम्हारे जाने के बाद मैं भी घर गया था। वो क्या है न कि तुम्हारे साथ शहर जाऊंगा तो कपड़े भी तो ठीक ठाक होने चाहिए थे न।"
"तो चलो फिर।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और हां काका। खेतों की कटाई और गहाई की चिंता मत करना। ये दोनों मजदूर सब कर देंगे।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा छोटे ठाकुर।" जगन के चेहरे पर ख़ुशी की चमक नज़र आई____"चलो चलते हैं।"
मैंने मोटर साइकिल चालू किया तो जगन मेरे पीछे बैठ गया। उसके बैठते ही मैंने मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया। रास्ते में मैं और जगन काका दुनिया भर की बातें करते हुए शहर पहुंच गए। शहर में हमने अलग अलग दुकानों में जा जा कर सारा सामान ख़रीदा। सारे सामान का पैसा ज़ाहिर है कि मैंने ही दिया उसके बाद हम वापस गांव की तरफ चल पड़े। शाम होने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। मैंने मोटर साइकिल सीधा मुरारी काका के घर के सामने ही खड़ी की। जगन काका के दोनों हाथों में सामान था जो कि बड़े बड़े थैलों में था। घर के अंदर आ कर मैं आँगन में ही एक खटिया पर बैठ गया, जबकि जगन काका सारा सामान सरोज काकी के कमरे में रख आए।
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
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Welcome back shubham bhai..☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 26
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अब तक,,,,,
भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।
उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,
अभी मैं आधे रास्ते में ही था कि मेरे ज़हन में ख़याल आया कि एक बार मुरारी काका के खेतों की तरफ भी हो आऊं। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल को मुरारी काका के खेतों की तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ सुन कर खेतों में कटाई कर रहे किसानों का ध्यान मेरी तरफ गया। मैंने आम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल खड़ी की। आम के पेड़ के नीचे ही मुरारी काका का खलिहान बना हुआ था। सरोज काकी खलिहान में ही एक तरफ खटिया पर बैठी हुई थी। मुझे देखते ही वो खटिया से उठ गई।
"कटाई ठीक से चल रही है न काकी?" मैंने सरोज काकी के पास आते हुए पूछा तो काकी ने कहा____"हां बेटा ठीक से ही चल रही है। तुमने जिन दो लोगों को भेजा है उन्होंने आधे से ज़्यादा खेत काट दिया है। मुझे लगता है कि आज ही सब कट जाएगा।"
"तुम चिंता मत करना काकी।" काकी ने मुझे खटिया में बैठने का इशारा किया तो मैंने खटिया में बैठते हुए कहा____"कटाई के बाद ये दोनों तुम्हारी फसल की गहाई भी करवा देंगे।"
"वो तो ठीक है बेटा।" काकी ने थोड़े चिंतित भाव से कहा____"लेकिन मुझे चिंता जगन की है और गांव वालों की भी। जगन को तो मैं समझा दूंगी लेकिन गांव वालों को कैसे समझाऊंगी?"
"क्या मतलब??" मैंने न समझने वाले भाव से पूछा तो काकी ने कहा____"मतलब ये कि तुम्हारी इस मदद से गांव के कुछ लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। मुझे डर है कि वो कहीं ऐसी बातें न बनाएं जिससे मेरी और मेरी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लग जाए।"
"ये तुम क्या कह रही हो काकी?" मैंने हैरानी से कहा____"इसमें तुम्हारी और तुम्हारी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लगने वाली कौन सी बात हो जाएगी भला?"
"तुम समझ नहीं रहे हो बेटा।" सरोज ने बेबस भाव से कहा____"ये तो तुम भी जानते ही होंगे न कि सब तुम्हारे चरित्र के बारे में कैसी राय रखते हैं। तुम्हारे चरित्र के बारे में सोच कर ही गांव के कुछ लोग ऐसी बातें सोचेंगे और दूसरों से करेंगे भी। वो यही कहेंगे कि तुमने हमारी मदद सिर्फ इस लिए की होगी क्योंकि तुम्हारी मंशा मेरी बेटी को फ़साने की है।"
"तुम अच्छी तरह जानती हो काकी कि मेरे ज़हन में ऐसी बात दूर दूर तक नहीं है।" मैंने कहा____"मेरे चरित्र को जानने वालों को क्या ये समझ नहीं आता कि अगर मेरे मन में यही सब बातें होती तो क्या अब तक मैं तुम्हारी बेटी के साथ कुछ ग़लत न कर चुका होता?"
"मैं तो अच्छी तरह जानती हूं बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन लोगों को कैसे कोई समझा सकता है? उन्हें तो बातें बनाने के लिए मौका और मुद्दा दोनों ही मिल ही जाएगा न।"
"गांव और समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काकी।" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"तुम चाहे लाख नेक काम करो इसके बावजूद लोग तुम्हारी अच्छाई का गुड़गान नहीं करेंगे बल्कि वो सिर्फ इस बात की कोशिश में लगे रहेंगे कि तुम्हारे में बुराई क्या है और तुम्हारे बारे में बुरा कैसे कहा जाए? इस लिए अगर गांव समाज के लोगों का सोच कर चलोगी तो हमेशा दब्बू बन के ही रहोगी। जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगी। गांव समाज के लोग दूसरों की कमियां खोजने के लिए फुर्सत से बैठे होते हैं। उनके पास दूसरा कोई काम नहीं होता। तुम ये बताओ काकी कि गांव समाज में ऐसा कौन है जो दूध का धुला हुआ बैठा है? इस हमाम में सब नंगे ही हैं। कमियां सब में होती हैं। दब के रहने वाले लोग उनकी कमियों का किसी से ज़िक्र नहीं करते जबकि ख़ुद को अच्छा समझने वाले धूर्त किस्म के होते हैं जो सिर्फ ढिंढोरा पीटते हैं।"
"बात तो तुम्हारी ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने बेचैनी से पहलू बदला____"लेकिन इस समाज में अकेली औरत का जीना इतना आसान भी तो नहीं होता। ख़ास कर तब जब उसका मरद ईश्वर के घर पहुंच गया हो। उसे बहुत कुछ सोच समझ कर चलना पड़ता है।"
"मैं ये सब बातें जानता हूं काकी।" मैंने कहा____"लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि किसी से इतना दब के भी नहीं रहना चाहिए कि लोग उसे दबाते दबाते ज़मीन में ही गाड़ दें। अपना हर काम सही से करो और निडर हो कर करो तो कोई माई लाल कुछ नहीं उखाड़ सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं जगन काका से भी मिलना चाहता था। उनसे मिल कर परसों के कार्यक्रम के बारे में बात करनी थी।"
"जगन खाना खाने गया है।" सरोज काकी ने कहा____"आता ही होगा घर से। मुझे तो उसकी भी चिंता है कि कहीं वो इस सब से नाराज़ न हो जाए।"
"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मैं जगन काका को अच्छे से समझा दूंगा।"
मेरी बात सुन कर काकी अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र दूर से आते हुए जगन पर पड़ी। उसे देख कर सरोज काकी ने मुझे इशारा किया तो मैंने भी जगन की तरफ देखा। जगन हांथ में एक लट्ठ लिए तेज़ क़दमों से इसी तरफ चला आ रहा था। कुछ ही देर में जब वो हमारे पास आ गया तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। उसने घूर कर देखा मुझे।
"छोटे ठाकुर तुम यहाँ??" फिर उसने चौंकने वाले भाव से मुझसे कहा तो मैंने हल्की मुस्कान में कहा____"तुमसे ही मिलने आया था काका लेकिन तुम थे नहीं। काकी ने बताया कि तुम खाना खाने घर गए हुए हो तो सोचा तुम्हारे आने का इंतज़ार ही कर लेता हूं।"
"मुझसे भला क्या काम हो सकता है तुम्हें?" जगन ने घूरते हुए ही कहा मुझसे____"और ये मैं क्या देख रहा हूं छोटे ठाकुर? तुम्हारे गांव के ये दो मजदूर मेरे भाई के खेत की कटाई क्यों कर रहे हैं?"
"वो मेरे कहने से ही कर रहे हैं काका।" मैंने शांत भाव से कहा____"मुरारी काका ने मेरे लिए इतना कुछ किया था तो मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि उनके एहसानों का क़र्ज़ जितना हो सके तो चुका ही दूं। काकी ने तो इसके लिए मुझे बहुत मना किया लेकिन मैं ही नहीं माना। मैंने मुरारी काका का वास्ता दिया तब जा के काकी राज़ी हुई। तुम तो जानते हो काका कि मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे इस लिए ऐसे वक़्त में भी अगर मैं उनके परिवार के लिए कुछ न करूं तो मुझसे बड़ा एहसान फरामोश दुनिया में भला कौन होगा?"
मेरी बात सुन कर जगन मेरी तरफ देखता रह गया। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरी बातों में कहीं मेरा कोई निजी स्वार्थ तो नहीं है? कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जगन काका ने कहा____"माना कि ये सब कर के तुम मेरे भाई का एहसान चुका रहे हो छोटे ठाकुर लेकिन मैं ये हरगिज़ नहीं चाह सकता कि तुम्हारी वजह से मेरे गांव के लोग मेरे घर परिवार के बारे में उल्टी सीधी बातें करने लगें।"
"गांव समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काका।" मैंने वही बात दोहराई जो इसके पहले सरोज काकी से कही थी____"समाज के लोग तो दूसरों की कमियां ही खोजते रहते हैं। तुम चाहे लाख अच्छे अच्छे काम करो मगर समाज के लोग तुम्हारे द्वारा किए गए अच्छे काम में भी बुराई ही खोजेंगे। मेरे ऊपर मुरारी काका के बड़े उपकार हैं काका। आज अगर मैं ऐसे वक़्त में उनकी मदद नहीं करुंगा तो इसी गांव समाज के लोग मेरे बारे में ये कहते फिरेंगे कि जिस मुरारी ने मुसीबत में दादा ठाकुर के लड़के की इतनी मदद की थी उसने मुरारी के गुज़र जाने के बाद उसके परिवार की तरफ पलट कर ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि वो किस हाल में हैं? जगन काका दुनिया के लोग मौका देख कर हर तरह की बातें करना जानते हैं। तुम अच्छा करोगे तब भी वो तुम्हें ग़लत ही कहेंगे और ग़लत करोगे तब तो ग़लत कहेंगे ही। हालांकि इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें इंसान की अच्छाईयां भी दिखती हैं और वो दिल से क़बूल करते हुए ये कहते हैं कि फला इंसान बहुत अच्छा है।"
"शायद तुम ठीक कह रहे हो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ये सच है कि आज का इंसान कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचता है। तुमने जो कुछ कहा वो एक कड़वा सच है लेकिन ग़रीब आदमी करे भी तो क्या? समाज के ठेकेदारों के बीच उसे दब के ही रहना पड़ता है।"
"समाज के लोगों को ठेकेदार बनाया किसने है काका?" मैंने जगन काका की तरफ देखते हुए कहा____"हमारे तुम्हारे जैसे लोगों ने ही उन्हें ठेकेदार बना रखा है। ये ठेकेदार क्या दूध के धुले हुए होते हैं जो हर किसी पर कीचड़ उछालते रहते हैं? क्या तुम नहीं जानते कि समाज के इन ठेकेदारों का दामन भी किसी न किसी चीज़ से दाग़दार हुआ पड़ा है? लोग बड़े शौक से दूसरों पर ऊँगली उठाते हैं काका लेकिन वो ये नहीं देखते कि दूसरों की तरफ उनकी एक ही ऊँगली उठी हुई होती है जबकि उनकी खुद की तरफ उनकी बाकी की चारो उंगलियां उठी हुई होती हैं। समाज के सामने उतना ही झुको काका जितने में मान सम्मान बना रहे लेकिन इतना भी न झुको कि कमर ही टूट जाए।"
जगन काका मेरी बात सुन कर कुछ न बोले। पास ही खड़ी सरोज काकी भी चुप थी। कुछ देर मैं उन दोनों की तरफ देखता रहा उसके बाद बोला____"मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं काका कि अब मैं पहले जैसा नहीं रहा और आज भी यही कहता हूं। मैं सच्चे दिल से मुरारी काका के लिए कुछ करना चाहता हूं। मैं हर रोज़ ये सोचता हूं कि मुरारी काका मुझे ऊपर से देखते हुए सोच रहे होंगे कि उनके जाने के बाद मैं उनके परिवार के लिए कुछ करता हूं कि नहीं? उन्होंने मेरी मदद बिना किसी स्वार्थ के की थी तो क्या मैं इतना बेगैरत और असमर्थ हूं कि उनके एहसानों का क़र्ज़ भी न चुका सकूं? तुम ही बताओ काका कि तुम मेरी जगह होते तो क्या ऐसे वक़्त में मुरारी काका के परिवार वालों से मुँह मोड़ कर चले जाते? क्या तुम एक पल के लिए भी ये न सोचते कि तुम्हारे मुसीबत के दिनों में मुरारी काका ने तुम्हारी कितनी मदद की थी?"
"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मैं अभी तक तुम्हारे बारे में ग़लत ही सोच रहा था किन्तु तुम्हारी इन बातों से मुझे एहसास हो गया है कि तुम ग़लत नहीं हो। यकीनन तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो यही करता। मुझे ख़ुशी हुई कि तुम एक अच्छे इंसान की तरह अपना फ़र्ज़ निभा रहे हो।"
"अगर तुम सच में समझते हो काका कि मैं सच्चे दिल से अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूं।" मैंने कहा____"तो अब तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ निभाने से रोकोगे नहीं। परसों मुरारी काका की तेरहवीं है और मैं चाहता हूं कि मुरारी काका की तेरहवीं अच्छे तरीके से हो। जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुम मुझसे बेझिझक हो कर बोलो। वक़्त ज़्यादा नहीं है इस लिए अभी बताओ कि तेरहवीं के दिन किस किस चीज़ की ज़रूरत होगी। मैं हर ज़रूरत की चीज़ शहर से मगवा दूंगा।"
"इसकी क्या ज़रूरत है छोटे ठाकुर?" जगन ने झिझकते हुए कहा____"हम अपने हिसाब से सब कर लेंगे।"
"इसका मतलब तो यही हुआ न काका।" मैंने कहा____"कि तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ नहीं निभाने देना चाहते। मुरारी काका मेरे पिता समान थे इस नाते भी मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं अपना फ़र्ज़ निभाने में कोई कसर न छोडूं। मुझे मुरारी काका के लिए इतना कर लेने दो काका। तुम कहो तो मैं तुम्हारे पैरों में गिर कर इस सब के लिए तुमसे भीख भी मांग लूं।"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" मैं खटिया से उठ कर खड़ा हुआ तो जगन एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ा_____"ये कैसी बातें कर रहे हो तुम? तुम अगर सब कुछ अपने तरीके से ही करना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हें अब किसी भी बात के लिए मना नहीं करुंगा।"
"तो फिर चलो मेरे साथ।" मैंने कहा तो जगन ने चौंकते हुए कहा____"पर कहां चलूं छोटे ठाकुर?"
"अरे! मेरे साथ शहर चलो काका।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"परसों मुरारी काका की तेरहवीं है इस लिए आज ही शहर से सारा ज़रूरत का सामान खरीद कर ले आएंगे। उसके बाद बाकी का यहाँ देख लेंगे।"
"पर इस वक़्त कैसे?" जगन मेरी बातें सुन कर बुरी तरह हैरान था____"मेरा मतलब है कि क्या अभी हम शहर चलेंगे?"
"क्या काका।" मैंने कहा____"अभी जाने में क्या ख़राबी है? अभी तो पूरा दिन पड़ा है। हम शहर से सारा ज़रूरत का सामान ले कर शाम होने से पहले ही यहाँ आ जाएंगे।"
मेरी बात सुन कर जगन काका उलझन में पड़ गया था। हैरान तो सरोज काकी भी थी किन्तु वो ज़ाहिर नहीं कर रही थी। वो भली भाँति जानती थी कि इस मामले में मैं मानने वाला नहीं था। उधर जगन ने सरोज काकी की तरफ देखते हुए कहा____"भौजी तुम क्या कहती हो?"
"मैं क्या कहूं जगन?" सरोज काकी ने शांत भाव से कहा____"तुम्हें जो ठीक लगे करो। मुझे कोई समस्या नहीं है।"
"तो ठीक है फिर।" जगन ने जैसे फैसला करते हुए कहा____"मैं छोटे ठाकुर के साथ शहर जा रहा हूं। तेरहवीं के दिन जो जो सामान लगता हो वो सब बता दो मुझे।"
"क्या तुम्हें पता नहीं है?" सरोज काकी ने कहा____"कि तेरहवीं के दिन क्या क्या सामान लगता है?"
"थोड़ा बहुत पता तो है मुझे।" जगन ने कहा____"फिर भी अगर कुछ छूट जाए तो बता दो मुझे।"
जगन काका के कहने पर सरोज काकी सामान के बारे में सोचने लगी। इधर मैंने उन दोनों से कहा कि तुम दोनों तब तक सारे सामान के बारे में अच्छे से सोच लो तब तक मैं खाना खा के आता हूं। मेरी बात सुन कर दोनों ने हां में सिर हिला दिया। मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के सरोज काकी के घर की तरफ चल पड़ा। जगन काका से बात कर के अब मैं बेहतर महसूस कर रहा था। आख़िर जगन काका को मैंने इस सब के लिए मना ही लिया था।
जगन काका से हुई बातों के बारे में सोचते हुए मैं कुछ ही देर में मुरारी काका के घर पहुंच गया। मोटर साइकिल को मुरारी काका के घर के बाहर खड़ी कर के जैसे ही मैं नीचे उतरा तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। मैंने गर्दन मोड़ कर देखा दरवाज़े के उस पार हरे रंग का शलवार कुर्ता पहने अनुराधा खड़ी थी। सीने में उसके दुपट्टा नहीं था जिससे मुझे उसके सीने के उभार साफ़ साफ़ दिखाई दिए किन्तु मैंने जल्दी ही उसके सीने से अपनी नज़र हटा कर उसके चेहरे पर डाली तो उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान सजी दिखी मुझे। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिली तो वो जल्दी से पलट गई। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि उसने अपने गले में दुपट्टा नहीं डाला था। शायद मोटर साइकिल की आवाज़ सुन कर वो जल्दी से दरवाज़ा खोलने आई थी और इस जल्दबाज़ी में वो अपने गले में दुपट्टा डालना भूल गई थी। ख़ैर उसके पलट कर चले जाने से मैं हल्के से मुस्कुराया और फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।
मैं अंदर आँगन में आया तो देखा उसने अपने गले में दुपट्टा डाल लिया था। मैंने मन ही मन सोचा कि इस काम में बड़ी जल्दबाज़ी दिखाई उसने। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने मुझे अपने सीने के उभारों को देखते हुए देख लिया हो और उसे अचानक से याद आया हो कि वो जल्दबाज़ी में दुपट्टा डालना भूल गई थी। मुझे मेरा ये ख़याल जायज़ लगा क्योंकि मैंने देखा था कि वो जल्दी ही पलट गई थी।
"मैं आपके ही आने का इंतज़ार कर रही थी छोटे ठाकुर।" मुझे आँगन में आया देख उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमे स्वर में कहा____"ख़ाना तो कब का बना हुआ है।"
"हां वो मैं तुम्हारे खेतों की तरफ चला गया था।" मैंने कहा____"वहां पर जगन काका से काफी देर तक बातें होती रहीं। परसों काका की तेरहवीं है न तो उसी सिलसिले में बातें हो रही थी। अभी मुझे खाना खा कर जल्दी जाना भी है। मैं जगन काका को ले कर शहर जा रहा हूं ताकि वहां से ज़रूरी सामान ला सकूं।"
"क्या काका आपकी बात मान गए?" अनुराधा ने हैरानी भरे भाव से पूछा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे हिसाब से क्या उन्हें मेरी बात नहीं माननी चाहिए थी?"
"नहीं मेरे कहने का मतलब वो नहीं था।" अनुराधा ने झेंपते हुए जल्दी से कहा____"मैंने तो ऐसा इस लिए कहा कि वो आपसे नाराज़ थे।"
"वो बेवजह ही मुझसे नाराज़ थे अनुराधा।" मैंने कहा____"और ये बात तुम भी जानती हो। ख़ैर मैंने उन्हें दुनियादारी की बातें समझाई तब जा कर उन्हें समझ आया कि मैं मुरारी काका के लिए जो कुछ भी कर रहा हूं वो सच्चे दिल से ही कर रहा हूं।"
"आप हाथ मुँह धो लीजिए।" अनुराधा ने लोटे में पानी लाते हुए कहा____"मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।"
"क्या तुमने भी अभी खाना नहीं खाया?" वो मेरे क़रीब आई तो मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूंछा।
"वो मैं आपके आने का इंतज़ार कर रही थी।" उसने नज़र झुका कर कहा____"इस लिए मैंने भी नहीं खाया।"
"ये तो ग़लत किया तुमने।" मैंने उसके हाथ से पानी से भरा लोटा लेते हुए कहा____"मेरी वजह से तुम्हें भूखा नहीं रहना चाहिए था। अगर मैं यहाँ खाना खाने नहीं आता तो क्या तुम ऐसे ही भूखी रहती?"
"जब ज़्यादा भूख लगती तो फिर खाना ही पड़ता मुझे।" अनुराधा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"उस सूरत में आपको बचा हुआ खाना ही खाने को मिलता।"
"तो क्या हुआ।" मैंने नर्दे के पास पानी से हाथ धोते हुए कहा____"मैं बचा हुआ भी खा लेता। आख़िर तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाना मैं कैसे नहीं खाता?"
"अब बातें न बनाइए।" अनुराधा मुस्कुराते हुए पलट गई____"जल्दी से हाथ मुँह धो कर आइए।"
"जो हुकुम आपका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो वो कुछ न बोली, बल्कि रसोई की तरफ तेज़ी से बढ़ गई। मैं समझ सकता था कि मेरी बात सुन कर वो फिर से मुस्कुराई होगी। असल में जब वो मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हल्के गड्ढे पड़ जाते थे जिससे उसकी मुस्कान और भी सुन्दर लगने लगती थी।
मैं हाथ मुँह धो कर रसोई के पास बरामदे में आ गया। ज़मीन में एक चादर बिछी हुई थी और सामने लकड़ी का एक पीढ़ा रखा हुआ था। पीढ़े के बगल से लोटा गिलास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। इस वक़्त मेरी धड़कनें ये सोच कर थोड़ी बढ़ गईं थी कि इस वक़्त घर में मैं और अनुराधा दोनों अकेले ही हैं। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप भी था जो आज कहीं दिख नहीं रहा था। कुछ ही देर में अनुराधा आई और थाली को मेरे सामने लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में दाल चावल और पानी लगा कर हाथ से पोई हुई रोटियां रखी हुईं थी। थाली के एक कोने में कटी हुई प्याज अचार के साथ रखी हुई थी और एक तरफ हरी मिर्च। अनुराधा थाली रखने के बाद फिर से रसोई में चली गई थी और जब वो वापस आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी जिसमे भांटा का भरता था। भांटा का भरता देख कर मैं खुश हो गया।
"वाह! ये सबसे अच्छा काम किया तुमने।" मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"भांटा का भरता बना दिया तो कसम से दिल ख़ुशी से झूम उठा है। अब एक काम और करो और वो ये कि तुम भी अपनी थाली ले कर यहीं आ जाओ। तुम्हें भूखा रहने की अब कोई ज़रूरत नहीं है।"
"आप खा लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं बाद में खा लूंगी।"
"एक तो तुम मुझे छोटे ठाकुर न बोला करो।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"जब तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैं कितना बुड्ढा हूं। क्या मैं तुम्हें बुड्ढा नज़र आता हूं? अरे अभी तो मेरी उम्र खेलने कूदने की है। तुमसे भी मैं उम्र में छोटा ही होऊंगा।"
"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा पहले तो हंसी फिर आँखें फाड़ते हुए बोली____"आप मुझसे छोटे कैसे हो सकते हैं भला?"
"क्यों नहीं हो सकता?" मैंने कहा____"असल में मेरे दाढ़ी मूंछ हैं इस लिए मैं तुमसे बड़ा दिखता हूं वरना मैं तो तुमसे तीन चार साल छोटा ही होऊंगा।"
"मुझे बेवकूफ न बनाइए।" अनुराधा ने मुझे घूरते हुए कहा____"मां बता रही थी मुझे कि जब दादा ठाकुर की दूसरी औलाद तीन साल की हो गई थी तब मैं पैदा हुई थी। इसका मतलब आप मुझसे तीन साल बड़े हैं और आप खुद को मुझसे छोटा बता रहे हैं?"
"अरे! काकी ने तुमसे झूठ कह दिया होगा।" मैंने रोटी का निवाला मुँह में डालने के बाद कहा____"ख़ैर जो भी हो लेकिन अब से तुम मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और ये तुम्हें मानना ही होगा।"
"तो फिर मैं क्या कहूंगी आपको?" अनुराधा ने उलझन पूर्ण भाव से कहा तो मैंने कहा____"हम दोनों की उम्र में थोड़ा ही अंतर है तो तुम मेरा नाम भी ले सकती हो।"
"हाय राम!" अनुराधा ने चौंकते हुए कहा____"मैं भला आपका नाम कैसे ले सकती हूं? मेरे बाबू भी तो आपका नाम नहीं लेते थे तो फिर मैं कैसे ले सकती हूं। ना ना छोटे ठाकुर। मैं आपका नाम नहीं ले सकती। माँ को पता चल गया तो वो मुझे बहुत मारेगी।"
"काकी कुछ नहीं कहेगी तुम्हें।" मैंने कहा____"मैं काकी से कह दूंगा कि मैंने ही तुम्हें मेरा नाम लेने के लिए कहा है। चलो अब मेरा नाम ले कर मुझे पुकारो एक बार। मैं भी तो सुनूं कि तुम्हारे मुख से मेरा नाम कैसा लगता है?"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" अनुराधा बुरी तरह हड़बड़ा गई____"मैं आपका नाम नहीं ले सकती।"
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" मैंने कहा____"तो अब से मैं भी तुम्हें छोटी ठकुराइन कहा करुंगा।"
"छोटी ठकुराइन???" अनुराधा बुरी तरह चौंकी____"ये क्या कह रहे हैं आप?"
"सही तो कह रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ठाकुर तो तुम भी हो। काकी बड़ी ठकुराइन हो गई और तुम छोटी ठकुराईन।"
"ऐसे थोड़ी न होता है।" अनुराधा ने अपने हाथ को झटकते हुए कहा____"वो तो बड़े लोगों को ऐसा कहते हैं। हम तो ग़रीब लोग हैं।"
"इंसान छोटा बड़ा रुपए पैसे या ज़्यादा ज़मीन जायदाद होने से नहीं होता अनुराधा।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"बल्कि छोटा बड़ा दिल से होता है। जिसका दिल जितना अच्छा होता है वो उतना ही महान और बड़ा होता है। इन चार महीनों में इतना तो मैं देख ही चुका हूं कि तुम सबका दिल कितना बड़ा है और अच्छा भी है। इस लिए मेरी नज़र में तुम सब महान और बड़े लोग हो। ऐसे में अगर मैं तुम्हें ठकुराइन कहूंगा तो हर्गिज़ ग़लत नहीं होगा।"
"आप घुमावदार बातें कर के मुझे उलझा रहे हैं छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं तो इतना जानती हूं कि आज के ज़माने में दिल बड़ा होने से कुछ नहीं होता बल्कि जिसके पास आपके जैसा रुतबा और धन दौलत हो वही बड़ा आदमी होता है।"
"आज के ज़माने की सच्चाई भले ही यही हो।" मैंने कहा____"लेकिन असल सच्चाई वही है जिसके बारे में अभी मैं तुम्हें बता चुका हूं। हम ऐसे बड़े लोग हैं जो किसी की ज़रा सी बुरी बात भी बरदास्त नहीं कर सकते जबकि तुम लोग ऐसे बड़े लोग हो जो बड़ी से बड़ी बुरी बात भी बरदास्त कर लेते हो। तो अब तुम ही बताओ अनुराधा कि हम में से बड़ा कौन हुआ? बड़ा वही हुआ न जिसमें हर तरह की बात को सहन कर लेने की क्षमता होती है? रूपया पैसा धन दौलत ऐसी चीज़े हैं जिनके असर से इंसान घमंडी हो जाता है और वो इंसान को इंसान नहीं समझता जबकि जिसके पास इस तरह की दौलत नहीं होती वो कम से कम इंसान को इंसान तो समझता है। आज के युग में जो कोई इंसान को इंसान समझे वही बड़ा और महान है।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा इस बार कुछ न बोली। शायद इस बार उसे मेरी बात काटने के लिए कोई जवाब ही नहीं सूझा था। वैसे मैंने बात ग़लत नहीं कही थी, हक़ीक़त तो वास्तव में यही है। ख़ैर अनुराधा जब एकटक मेरी तरफ देखती ही रही तो मैंने बात बदलते हुए कहा____"तो ठकुराइन जी, आप अपनी भी थाली ले आइए और मुझ छोटे आदमी के साथ बैठ कर खाना खाइए ताकि मुझे भी थोड़ा अच्छा महसूस हो।"
"आप ऐसे बात करेंगे तो मैं आपसे बात नहीं करुंगी।" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"मुझे आपकी ऐसी बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी।"
"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर न कहो।" मैंने कहा____"मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता और अब अगर तुमने दुबारा मुझे छोटे ठाकुर कहा तो मैं ये खाना छोड़ कर चला जाऊंगा यहाँ से।"
"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा के माथे पर शिकन उभर आई____"भगवान के लिए ऐसी ज़िद मत कीजिए।"
"तुम भी तो ज़िद ही कर रही हो।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हें अपना तो ख़याल है लेकिन मेरा कोई ख़याल ही नहीं है। ये कहां का इन्साफ हुआ भला?"
अनुराधा मेरी बात सुन कर बेबस भाव से देखने लगी थी मुझे। उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव गर्दिश करते हुए नज़र आ रहे थे। इस वक़्त जिस तरह के भाव उसके चेहरे पर उभर आये थे उससे वो बहुत ही मासूम दिखने लगी थी और मैं ये सोचने लगा था कि कहीं मैंने उस पर कोई ज़्यादती तो नहीं कर दी?
"क्या हुआ?" फिर मैंने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देखे जा रही हो मुझे?"
"आप ऐसा क्यों चाहते हैं?" अनुराधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं आपका नाम लूं?"
"अगर सच सुनना चाहती हो तो सुनो।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तुम एक ऐसी लड़की हो जिसने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि ऐसा कैसे हुआ है लेकिन इतना ज़रूर समझ गया हूं कि ऐसा तुम्हारी वजह से ही हुआ है और मेरा यकीन करो अपनी फितरत बदल जाने का मुझे कोई रंज़ नहीं है। बल्कि एक अलग ही तरह का एहसास होने लगा है जिसकी वजह से मुझे ख़ुशी भी महसूस होती है। इस लिए मैं चाहता हूं कि मेरी फितरत को बदल देने वाली लड़की मुझे छोटे ठाकुर न कहे बल्कि मेरा नाम ले। ताकि छोटे ठाकुर के नाम का प्रभाव मुझ पर फिर से न पड़े।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगी थी। हालांकि मैंने उससे जो भी कहा था वो एक सच ही था। इन चार महीनो में यकीनन मेरी फितरत कुछ हद तक बदल ही गई थी वरना चार महीने पहले मैं घंटा किसी के बारे में ऐसा नहीं सोचता था।
"चार महीने पहले मैं एक ऐसा इंसान था अनुराधा।" उसे कुछ न बोलते देख मैंने कहा____"जो किसी के भी बारे में ऐसे ख़्याल नहीं रखता था बल्कि ये कहूं तो ज़्यादा बेहतर होगा कि अपनी ख़ुशी के लिए मैं जब चाहे किसी के भी साथ ग़लत कर बैठता था लेकिन जब से यहाँ आया हूं और इस घर से जुड़ा हूं तो मेरी फितरत बदल गई है और मेरी फितरत को बदल देने में तुम्हारा सबसे बड़ा योगदान है।"
"पर मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया।" अनुराधा ने बड़ी मासूमियत से कहा।
"कभी कभी ऐसा भी होता है अनुराधा कि किसी के कुछ न करने से भी बहुत कुछ हो जाता है।" मैंने कहा____"तुम समझती हो कि तुमने कुछ नहीं किया और ये बात वाकई में सच है मगर एक सच ये भी है कि तुम्हारे कुछ न करने से ही मेरी फितरत बदल गई है। तुम्हारी सादगी ने और तुम्हारे चरित्र ने मुझे बदल दिया है। शुरू में जब तुम्हें देखा था तो मेरे ज़हन में बस यही ख़्याल आया था कि तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह एक दिन अपने जाल में फांस लूंगा मगर तुम भी इस बात की गवाह हो कि मैंने तुम्हारे साथ कभी कुछ ग़लत करने का नहीं सोचा। असल में मैं तुम्हारे साथ कुछ ग़लत कर ही नहीं पाया। मेरे ज़मीर ने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत करने ही नहीं दिया। मैंने इस बारे में बहुत सोचा और तब मुझे एहसास हुआ कि ऐसा क्यों हुआ? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं खुश हूं कि तुमने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं इस बात से भी खुश हूं कि तुम्हारी ही वजह से मैंने दूसरी चीज़ों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। मेरी नज़र में तुम्हारा स्थान बहुत बड़ा है अनुराधा और इसी लिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरा नाम लो।"
"आप कुछ और लेंगे?" अनुराधा ने मेरी बात का जवाब दिए बिना पूछा____"भांटा का भरता और ले आऊं आपके लिए?"
"इतना काफी है।" मैंने कहा____"वैसे मुझे ख़ुशी होती अगर तुम भी मेरे पास ही बैठ कर खाना खाती।"
"वो मुझे आपके सामने।" अनुराधा ने नज़रें झुका कर कहा____"ख़ाना खाने में शर्म आएगी इस लिए पहले आप खा लीजिए, मैं बाद में खा लूंगी।"
"ख़ाना खाने में कैसी शर्म?" मैंने हैरानी से कहा____"मैं भी तो तुम्हारे सामने ही खा रहा हूं। मुझे तो शर्म नहीं आ रही बल्कि तुम सामने बैठी हो तो मुझे अच्छा ही लग रहा है।"
"आपकी बात अलग है।" अनुराधा ने लजाते हुए कहा____"आप एक लड़का हैं और मैं एक लड़की हूं।"
"ये तो कोई बात नहीं हुई।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हें मुझसे इतना शर्माने की कोई ज़रूरत नहीं है। ख़ैर अभी तो मुझे जल्दी जाना है इस लिए तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा लेकिन अगली बार अगर तुम ऐसे शरमाओगी तो सोच लेना फिर।"
"क्या मतलब???" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंक गई।
"अरे! डरो नहीं।" मैंने हंसते हुए कहा____"मैं तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा नहीं करुंगा बल्कि काकी से तुम्हारी शिकायत करुंगा कि तुम मुझसे शर्माती बहुत हो।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा मुस्कुरा कर रह गई। ख़ैर मैंने खाना ख़त्म किया और थाली में ही हाथ मुँह धो कर उठ गया। मेरे उठ जाने के बाद अनुराधा ने मेरी थाली को उठाया और एक तरफ रख दिया। मैं जानता था कि जब तक मैं यहाँ रहूंगा अनुराधा की साँसें उसके हलक में अटकी हुई रहेंगी जो की स्वाभाविक बात ही थी। मुझे जगन काका को ले कर शहर भी जाना था इस लिए मैं अनुराधा से बाद में आने का कह कर घर से बाहर निकल गया। अनुराधा से आज काफी बातें की थी मैंने और मुझे उससे बातें करने में अच्छा भी लगा था।
मोटर साइकिल को चालू कर के मैं वापस मुरारी काका के खेतों की तरफ चल दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। जगन, सरोज काकी के पास ही खड़ा हुआ था। उसने दूसरे कपड़े पहन रखे थे। शायद वो मेरे जाने के बाद फिर से घर गया था।
"अच्छे से खा लिया है न बेटा?" मैं जैसे ही खटिया में बैठा तो सरोज काकी ने मुझसे पूछा____"अनु ने खाना ठीक से दिया है कि नहीं?"
"हां काकी।" मैंने कहा____"मेरी वजह से वो भी भूखी ही बैठी थी। मैंने उससे कहा भी कि खाना खा लो लेकिन वो कहने लगी कि मेरे बाद खाएगी।"
"वो ऐसी ही है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"शर्मीली बहुत है वो।"
"काका सारे सामान के बारे में सोच लिया है न तुमने?" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सोच लिया है तो फिर हमें जल्द ही शहर चलना चाहिए। क्योंकि वक़्त से हमें लौटना भी होगा और बाकी के काम भी करने होंगे।"
"मैंने भौजी से पूछ कर सारे सामान के बारे में याद कर लिया है।" जगन काका ने कहा____"तुम्हारे जाने के बाद मैं भी घर गया था। वो क्या है न कि तुम्हारे साथ शहर जाऊंगा तो कपड़े भी तो ठीक ठाक होने चाहिए थे न।"
"तो चलो फिर।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और हां काका। खेतों की कटाई और गहाई की चिंता मत करना। ये दोनों मजदूर सब कर देंगे।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा छोटे ठाकुर।" जगन के चेहरे पर ख़ुशी की चमक नज़र आई____"चलो चलते हैं।"
मैंने मोटर साइकिल चालू किया तो जगन मेरे पीछे बैठ गया। उसके बैठते ही मैंने मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया। रास्ते में मैं और जगन काका दुनिया भर की बातें करते हुए शहर पहुंच गए। शहर में हमने अलग अलग दुकानों में जा जा कर सारा सामान ख़रीदा। सारे सामान का पैसा ज़ाहिर है कि मैंने ही दिया उसके बाद हम वापस गांव की तरफ चल पड़े। शाम होने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। मैंने मोटर साइकिल सीधा मुरारी काका के घर के सामने ही खड़ी की। जगन काका के दोनों हाथों में सामान था जो कि बड़े बड़े थैलों में था। घर के अंदर आ कर मैं आँगन में ही एक खटिया पर बैठ गया, जबकि जगन काका सारा सामान सरोज काकी के कमरे में रख आए।
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
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