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☆ प्यार का सबूत ☆ अध्याय - 28 ----------☆☆☆----------
अब तक,,,,,,
कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
अब आगे,,,,,
शहर से जब मैं वापस लौटा तो दोपहर के तीन बज गए थे। मैं सीधा मुरारी काका के घर ही आ गया था। मैंने मोटर साइकिल घर के बाहर खड़ी की और जैसे ही दरवाज़े के पास पंहुचा तो दरवाज़ा खुला। सरोज काकी ने दरवाज़ा खोला था। मैं अंदर आया तो देखा आँगन में जगन अपने बीवी बच्चों के साथ ही बैठा था। मुझे देखते ही जगन खटिया से उठ गया और मुझे बैठने को कहा तो मैं बैठ गया।
जगन की बीवी और उसके बच्चे अंदर बरामदे में बैठे थे और सरोज काकी आँगन में। घर के दूसरी तरफ एक बड़ा सा पेड़ था जिसकी छांव आँगन में रहती थी। बड़ा सा आँगन था इस लिए हवा आती रहती थी वरना तो इस वक़्त धूप में आंगन में बैठना मुश्किल ही हो जाता। ख़ैर सरोज काकी ने मुझसे खाने पीने का पूछा तो मैंने उसे बताया कि मैंने शहर में ही खा लिया है किन्तु ठंडा पानी ज़रूर पियूंगा।
"और काका कैसी चल रही है तैयारी?" मैंने अपने पास ही दूसरी खटिया में बैठे जगन काका से पूछा_____"सारा सामान इकठ्ठा हो गया न या अभी और भी किसी चीज़ की कमी है?"
"ज़रुरत का मुख्य सामान तो हम कल ही शहर से ले आए थे।" जगन ने कहा____"अब सिर्फ राशन ही रह गया था तो हमने उसकी भी ब्यवस्था कर ली है। कुल मिला कर सारी ब्यवस्था हो गई है बेटा।"
"फिर भी अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बेझिझक मुझसे बोल देना।" मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाल कर जगन की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे हैं इन्हें रख लो। कल ब्राम्हणों को दान दक्षिणा देने के काम आएंगे।"
पैसा देख कर जगन मेरी तरफ देखने लगा था और यही हाल लगभग सबका ही था। मैंने ज़ोर दिया तो जगन ने वो पैसा ले लिया। कुछ देर और बैठ कर मैंने कल तेरहवीं से सम्बन्धित कुछ बातें की उसके बाद मैं सरोज काकी के घर से निकल कर उस तरफ चल पड़ा जहां पर मेरा नया मकान बन रहा था।
पेड़ की छांव में मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं मजदूरों के पास आ गया। मुझे देखते ही सबने बड़े अदब से मुझे सलाम किया। काफी सारे मजदूर और मिस्त्री थे इस लिए मकान का निर्माण कार्य बड़ी तेज़ी चल रहा था। कुछ मजदूर आस पास की सफाई करने में लगे हुए थे ताकि मकान के आस पास की ज़मीन साफ़ रहे। मकान से कुछ ही दूर कुएं की खुदाई चल रही थी। मैंने पास जा कर देखा तो पता चला कुआं काफी गहरा हो गया है और उसमे भरपूर पानी भी है, जिसकी वजह से अंदर कुएं को और ज़्यादा खोदने में परेशानी हो रही थी। कुएं में इतना पानी था कि उसे खाली करना अब किसी के भी बस में नहीं था। मजदूरों ने जब ये बात मुझे बताई तो मैंने उन्हें खोदने से मना कर दिया और ये कहा कि कुएं की दीवारों को पक्का कर दो।
मैं शहर एक ज़रूरी काम से गया था। असल में मैं एक काम गुप्त रूप से करवाना चाहता था। ख़ैर कुछ देर रुकने के बाद मैं गांव की तरफ चलने ही लगा था कि सामने से एक मोटर साइकिल में भुवन आता दिखा मुझे। मुझे देखते ही उसने सलाम किया। मैंने उससे उसका हाल चाल पूछा और बुलेट को चालू कर के हवेली की तरफ चल दिया।
शाम अभी हुई नहीं थी। रास्ते में जब मैं आया तो मुझे याद आया कि पिछले दिन इसी रास्ते पर किसी ने मुझे रस्से द्वारा सड़क पर गिराने की कोशिश की थी। इस बात के याद आते ही मैं एकदम से सतर्क हो गया। हालांकि दुबारा ऐसा कुछ मेरे साथ हुआ नहीं बल्कि मैं बड़े आराम से गांव में दाखिल हो गया।
मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। रजनी का ख़याल आते ही मेरे मन में उसके लिए गुस्सा और नफ़रत भरने लगी। मैं उसे उसके किए की सज़ा देना चाहता था किन्तु उसके लिए अभी मेरे पास वक़्त नहीं था। वैसे भी आज कल मैं ऐसी ऐसी मुसीबतों में फंसा हुआ था कि एक नई मुसीबत को अपने गले नहीं लगाना चाहता था। मुंशी के घर के सामने से गुज़र कर जब मैं साहूकारों के सामने आया तो ये देख कर चौंका कि घर के बड़े से दरवाज़े के पास रूपा खड़ी थी और एक छोटे से बच्चे से बात कर रही थी। बुलेट की तेज़ आवाज़ उसके कानों में पड़ी तो उसने गर्दन घुमा कर सड़क की तरफ देखा। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर अपलक मेरी तरफ देखने लगी।
मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार को एकदम से धीमा कर दिया और होठों पर मुस्कान सजा कर उसकी तरफ देखा तो उसके होठों पर भी मुस्कान उभर आई किन्तु अगले ही पल वो तब हड़बड़ा गई जब मैंने अचानक से उसे देखते हुए आँख मार दी थी। रूपा ने घबरा कर इधर उधर देखा। इस वक़्त घर के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन किया कि मैं रूपा को अपने पास बुलाऊं किन्तु अगले ही पल मैंने अपना ये इरादा बदल दिया। मुझे अंदेशा था कि बुलेट की तेज़ आवाज़ घर के अंदर मौजूद बाकी लोगों के कानों में भी पहुंच गई होगी। रूपचंद्र अगर अंदर होगा तो वो फ़ौरन समझ जाएगा कि बुलेट में मैं ही होऊंगा।
मैंने रूपा को इशारा किया तो उसने चौंक कर पहले उस छोटे से बच्चे की तरफ देखा और फिर इधर उधर देखने के बाद मेरी तरफ देखते हुए इशारे से ही पूछा कि क्या है? वो छोटा सा बच्चा भी मेरी तरफ ही देख रहा था। मैंने रूपा को इशारे से ही कल मंदिर में मिलने के लिए कहा तो उसने झट से अपना सिर इंकार में ज़ोर ज़ोर से हिलाया। ये देख कर मैंने उसे आँखें दिखाई तो वो बेबस भाव से मुझे देखने लगी। मुझे उसकी बेबसी और मासूमियत पर बेहद तरस आया किन्तु मेरा उससे मिलना बेहद ज़रूरी था इस लिए मैंने इस बार उससे अनुरोध किया। मेरे अनुरोध पर उसने कुछ पल सोचा और फिर हां में सिर हिला दिया। रूपा जब मंदिर में मिलने के लिए राज़ी हो गई तो मैंने मुस्कुराते हुए मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया।
एक मुद्दत हो गई थी रूपा से मिले हुए और उसे प्यार किए हुए। पहले के और अब के हालात में बहुत ज़्यादा अंतर हो गया था। अब साहूकारों से हमारे रिश्ते सुधर चुके थे इस लिए मैं अपनी तरफ से ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता था और ना ही करना चाहता था जिसकी वजह से मेरी छवि फिर से बिगड़ जाए। ख़ैर रूपा के बारे में सोचते हुए मैं हवेली में दाखिल हुआ। मोटर साइकिल एक तरफ खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा। जैसा कि मैंने बताया था कि हवेली के बाहर बहुत बड़ा हरा भरा मैदान था जिसके एक छोर पर कई सारी जीपें और दूसरे छोर पर बग्घी और मोटर साइकिल वग़ैरा खड़ी रहतीं थी। मुख्य दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो देखा जगताप चाचा जी जीप में बैठ कर कहीं जाने को तैयार थे। वो मेरी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराए और फिर जीप को हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा दिया।
हवेली के अंदर आया तो मेरे ज़हन में बड़े भैया का ख़याल आ गया। मैं एक बार फिर से सोचने लगा कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि उन्होंने मुझसे इतने गुस्से में बात की थी जबकि होली के दिन वो मुझसे बड़े प्यार से और बड़ी ख़ुशी से बात कर रहे थे। होली के दिन उनका वर्ताव वैसा ही था जैसे के हमारा भरत मिलाप हुआ था किन्तु पिछले दिन का उनका वर्ताव मेरे लिए एकदम उम्मीद से परे था। बड़े भैया के उस वर्ताव की असल वजह को जानने के लिए मेरा भाभी से मिलना ज़रूरी था।
अंदर आया तो सबसे पहले मेरी मुलाक़ात कुसुम से हुई। मैंने उससे भाभी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो अपने कमरे में हैं। मैंने कुसुम से बड़े भैया के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो विभोर और अजीत के साथ जीप से कहीं गए हुए हैं। कुसुम की बात सुन कर मैंने सोचा भाभी से मिल कर बात करने का ये बढ़िया मौका है। ये सोच कर मैंने कुसुम से कहा कि बढ़िया गरम गरम चाय मेरे कमरे में ले कर आ।
आंगन से होते हुए जब मैं दूसरे छोर पर आया तो मेरी नज़र मेनका चाची पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ बात कर रहीं थी। नौकरानी की उम्र यही कोई तीस के आस पास थी। थोड़ी सांवली थी किन्तु जिस्म काफी कसा हुआ दिख रहा था। घागरा चोली पहने हुए थी वो। चोली में कैद उसकी भारी भरकम चूचियां ऐसी प्रतीत हो रहीं थी जैसे चोली को फाड़ कर बाहर ही आ जाएंगी। मैं जब थोड़ा क़रीब पंहुचा तो अनायास ही मेरी नज़र उसके नंगे पेट से नीचे फिसल कर उसके घाघरे में छुपे चौड़े कूल्हों से होते हुए नंगी टांगों पर और फिर पैरों पर आ कर ठहर गई। अपने पैरों में चांदी की मामूली सी पायल पहने थी वो किन्तु वो पायल वैसी ही थी जो चलने पर छन छन की आवाज़ करती थी। मेरे ज़हन में एकदम से विचार कौंधा कि क्या पिछली रात यही थी जो सीढ़ियों से उतर कर भागते हुए ऊपर से नीचे आई थी और जिसके पीछे मैं भी भागता हुआ आया था?
चाची के पास पंहुचा तो चाची ने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा। उस नौकरानी ने जब मुझे देखा तो उसने घबरा कर जल्दी से अपनी नज़रें नीचे कर ली। उसका घबरा कर इस तरह से अपनी नज़रें नीचे कर लेना मेरे मन में और भी ज़्यादा शक पैदा कर गया। मैं ये तो जानता था कि हवेली के नौकर और नौकरानियाँ मुझसे बेहद डरते थे किन्तु बिना वजह के इस तरह से तो बिलकुल भी नहीं।
उस नौकरानी की शक्ल अच्छे से देख कर मैं सीढ़ियों से ऊपर आ गया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। हवेली में कई ऐसे नौकर और नौकरानियाँ थी जिनके मैं नाम तक नहीं जानता था। जब से पिता जी ने नौकरानियों को मेरे कमरे में आने से शख़्त मना किया था तब से मेरा भी उनसे कोई वास्ता नहीं रहा था वरना तो आए दिन मैं हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे लेटा ही लेता था। अपनी हवस की आग को शांत करने के बाद मुझे उनसे कोई मतलब नहीं होता था। ख़ैर अभी जो नौकरानी चाची के पास खड़ी दिखी थी उस पर मेरा शक गहरा गया था और अब मैं अपने इस शक का समाधान करना चाहता था। अगर ये वही नौकरानी थी जो पिछली रात अँधेरे में अपनी छन छन करती पायल की आवाज़ के साथ नीचे भागती हुई गई थी तो मेरे लिए ये जानना बेहद ज़रूरी था कि वो उतनी रात को किसके कमरे में थी और क्या कर रही थी?
अपने कमरे में आ कर मैंने अपनी शर्ट उतारी और पंखा चालू कर के पलंग पर लेट गया। मैं सोच रहा था कि कल मुरारी काका की तेरहवीं हो जाने के बाद मैं हर उस चीज़ के बारे में गहराई से सोचूंगा और फिर उन सभी चीज़ों के बारे में जानने और सुलझाने की कोशिश शुरू करुंगा जिन चीज़ों की वजह से आज कल मेरी ज़िन्दगी झंड बनी हुई थी।
कुसुम चाय ले कर आई और पलंग पर ही मेरे पास बैठ गई। मैंने उसके हाथ से चाय का प्याला लिया और उसे मुँह से लगा कर उसकी एक चुस्की ली। कुसुम मेरी तरफ ही देख रही थी। मेरी नज़र जब उस पर पड़ी तो मैं हल्के से मुस्कुराया।
"अब तुझे क्या हुआ?" मैंने थोड़ा सा उठ कर पलंग की पिछली पुस्त से पीठ टिका कर कहा____"इस तरह मुँह क्यों लटका रखा है तूने? किसी ने कुछ कहा क्या?" "नहीं, किसी ने कुछ नहीं कहा भैया।" कुसुम ने कुछ सोचते हुए कहा____"लेकिन एक बात है जिसके बारे में सोच रही हूं कि आपको बताऊं कि नहीं?"
"अगर तुझे लगता है कि वो बात मुझे बताना तेरे लिए ज़रूरी है।" मैंने जैसे उसे समझाते हुए कहा____"तो बेझिझक हो कर बता दे। इसमें इतना सोचने की क्या बात है?" "सोचने की ही तो बात है भैया।" कुसुम ने बड़ी मासूमियत से कहा____"तभी तो सोच रही हूं।"
"तो फिर एक काम कर तू।" मैंने कहा____"और वो ये कि पहले तू दो चार दिन सोच ही ले, उसके बाद मुझे बता देना।" "अब और कितना सोचूं भैया?" कुसुम ने मानो झुंझला कर कहा____"जाने कब से तो सोच रही हूं मैं उस बात के बारे में। अब और नहीं सोचा जाता मुझसे।"
"चल अब मेरा भेजा मत खा।" मैंने चाय की एक और चुस्की लेने के बाद कहा____"जल्दी से बता कि ऐसी कौन सी बात है जिसके बारे में जाने कबसे तू इतना सोच रही है?" "पहले ये तो सुन लीजिए।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं सोच क्यों रही थी?"
"अच्छा ठीक है।" मैंने झुंझला कर कहा____"यही बता कि सोच क्यों रही थी तू?" "वो क्या है न कि।" कुसुम ने झिझकते हुए कहा____"जो बात मैं आपसे बताना चाहती थी वो ऐसी बात है कि मुझे आपसे बताने में शर्म आ रही है। इसी लिए तब से अब तक यही सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे...क्योंकि मुझे शर्म आएगी न।"
"तो क्या अब बताने में शर्म नहीं आएगी तुझे?" मैंने उसे घूरा। "अरे! ऐसे कैसे नहीं आएगी?" कुसुम ने अपना एक हाथ झटकते हुए कहा____"वो तो बहुत ज़्यादा आएगी भैया। इसी लिए तो इतने दिन से सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे?"
"मुझे तो लगता है कि।" मैंने कहा____"तू आज मेरे दिमाग़ का दही करने आई है। अरे! यार अगर तुझे कोई बात बतानी ही है तो बेझिझक बता दे न। फ़ालतू का मेरा समय क्यों बर्बाद कर रही है और मुझे परेशान क्यों कर रही है?"
"क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैला कर कहा____"मैं फ़ालतू की बात कर रही हूं और आपके दिमाग़ का दही कर रही हूं??? आप मेरे बारे में ऐसा कैसे बोल सकते हैं? जाइए मुझे कुछ नहीं बताना आपको।"
"हे भगवान!" मेरा मन किया कि मैं अपने बाल नोच लूं, किन्तु फिर ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े प्यार से कहा____"ग़लती हो गई मेरी प्यारी बहना। तू तो जानती है कि तेरा ये भाई बुद्धि से ज़रा पैदल है।"
"ख़बरदार।" मेरी बात पूरी होते ही कुसुम एक झटके में बोल पड़ी____"ख़बरदार जो आपने मेरे भैया को बुद्धि से पैदल कहा। अरे! मेरे भैया तो सबसे अच्छे हैं, मुझे अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं।"
"अगर ऐसा है।" मैंने गहरी सांस ली____"तो बता न मेरी प्यारी बहना कि वो कौन सी बात है जिसके बारे में तू इतने दिनों से सोचती आ रही है?" "पर भैया।" कुसुम ने बेबस भाव से कहा____"मैं वो बात आपको कैसे बताऊं? मुझे वो बात बताने में बहुत ज़्यादा शर्म आएगी। नहीं भैया नहीं, मैं वो बात आपको नहीं बता सकती।"
"तू रुक अभी बताता हूं तुझे।" मैंने चाय के प्याले को एक तरफ रखा और जैसे ही एक झटके से उसकी तरफ झपटा तो वो खिलखिला कर हंसती हुई कमरे से बाहर भाग गई, जबकि मैंने आगे का वाक्य मानो ख़ुद से ही कहा_____"इतनी देर से भेजा चाट रही है मेरा।"
कुसुम के जाने के बाद मैं वापस पलंग पर पहले की तरह पीठ टिका कर बैठ गया और ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि मेरी ये नटखट बहन कितनी सफाई से मेरा भेजा चाट कर चली गई है। ख़ैर चाय पीने के बाद मैं पलंग से नीचे उतरा और शर्ट पहन कर भाभी से मिलने के लिए कमरे से बाहर आ कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला।
लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए जैसे ही मैं भाभी के कमरे के सामने आया तो मेरी नज़र कमरे से बाहर निकल रही भाभी पर पड़ी। उन्हें कमरे से बाहर निकलते देख मैं रुक गया। उनकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी और अपने कमरे के बाहर मुझे देख कर वो रुक गईं थी। उनके खूबसूरत चेहरे पर पहले तो चौंकने के भाव उभरे फिर उनकी झील सी गहरी आँखों में सवालिया भाव नज़र आए मुझे।
"वैभव तुम??" फिर उन्होंने सामान्य भाव से कहा____"कहीं इस तरफ का रास्ता तो नहीं भटक गए?" "वो मैं आपसे मिलने आया था भाभी।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"असल में मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है। अगर आपके पास वक़्त हो तो...!"
"अपने देवर के लिए मेरे पास वक़्त ही वक़्त है वैभव।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"अन्दर आ जाओ।"
कहने के साथ ही भाभी वापस कमरे में चली गईं तो मैं भी चुप चाप कमरे में दाखिल हो गया। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही बढ़ गईं थी। मैं बहुत कोशिश करता था कि भाभी के सामने मैं सामान्य ही रहूं लेकिन पता नहीं क्यों उनके सामने आते ही मेरी धड़कनें थोड़ी तेज़ हो जाती थी और न चाहते हुए भी मैं उनके रूप सौंदर्य पर आकर्षित होने लगता था। ये अलग बात है कि इसके लिए बाद में मुझे बेहद पछतावा भी होता था।
"बैठो।" मैं अंदर आया तो भाभी ने कमरे में एक तरफ रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।
"अब बताओ।" मैं जैसे ही कुर्सी में बैठा तो भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए शांत भाव से कहा____"अपनी इस भाभी से ऐसी कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?" "असल में मुझे।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में आपसे कुछ पूछना था।"
"हां तो पूछो।" भाभी ने बड़ी बेबाकी से कहा तो मैं कुछ पलों तक उनके सुन्दर चेहरे की तरफ देखता रहा और फिर अपनी बढ़ चली धड़कनों को काबू करने का प्रयास करते हुए बोला____"होली वाले दिन बड़े भैया मुझसे बड़े ही अच्छे तरीके से मिले थे। यहाँ तक कि जब मैंने उनके पैर छुए थे तो उन्होंने खुश हो कर मुझे अपने गले से भी लगाया था। उसके बाद उन्होंने खुद उसी ख़ुशी में मुझे भांग वाला शरबत पिलाया था। उनके ऐसा करने से मैं भी बहुत खुश था लेकिन कल शाम को उनका वर्ताव ऐसा था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।"
"क्या हुआ था कल?" भाभी ने पूछा तो मैंने उन्हें कल शाम का सारा वाक्या विस्तार से बता दिया जिसे सुन कर उनके चेहरे पर वैसे भाव बिल्कुल भी नहीं उभरे जिसे आश्चर्य कहा जाता है। बल्कि मेरी बातें सुनने के बाद उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर गंभीर भाव से कहा____"पिछले कुछ समय से उनका वर्ताव ऐसा ही है वैभव। मुझे तो उनके ऐसे वर्ताव की आदत पड़ चुकी है किन्तु तुम्हारे लिए शायद ये नई बात होगी क्योंकि तुम तो हमेशा ही अपने में ही मस्त रहते थे। तुम्हें भला इस बात से कैसे कोई मतलब हो सकता था कि हवेली में रहने वाले तुम्हारे अपनों के बीच क्या चल रहा है या उनके हालात कैसे हैं? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं किसी को अपना दुःख नहीं दिखाती वैभव। जब से मुझे कुल गुरु के द्वारा ये पता चला है कि उनका जीवन काल बस कुछ ही समय का है तब से मैं इस कमरे में अकेले ही छुप कर अपने आँसू बहा लेती हूं। ईश्वर से हर वक़्त पूछती हूं कि उन्होंने ये कैसा इन्साफ किया है कि इतनी कम उम्र में मुझे विधवा बना देने का फैसला कर लिया है? आख़िर वो मुझे किस गुनाह की सज़ा देना चाहता है? अपनी समझ में तो मैंने ऐसा कोई गुनाह नहीं किया है जिसके लिए वो मेरे साथ ऐसा करे। दादा ठाकुर ने मुझे शख़्ती से मना किया था कि मैं उनके बारे में ये बातें हवेली में किसी को न बताऊं। मैं जानती हूं कि अपने बेटे के बारे में ये सब जान कर वो खुद भी अंदर से बेहद दुखी होंगे और शायद यही वजह है कि वो मौका देख कर मुझे इसके लिए समझाते रहते हैं। ईश्वर का खेल तो ईश्वर ही जानता है। वो जो भी करता है उसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होती है। दादा ठाकुर की इन्हीं बातों से खुद को तसल्ली देती रहती हूं। अब तो खुद को भी समझा लिया है कि इस बात के लिए रोने से भला क्या मिलेगा? इससे अच्छा तो ये है कि जिस ईश्वर ने ऐसा इंसाफ लिखा है उसी से उनकी ज़िन्दगी की भीख मांगू। क्या पता किसी दिन उस भगवान को मुझ पर तरस आ जाए।"
भाभी ये सब कहने के बाद सुबकने लगीं थी। उनका सुन्दर सा चेहरा एकदम से मलिन पड़ गया था। मैंने आज तक उन्हें बस मुस्कुराते हुए ही देखा था। मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि उन्होंने अपने अंदर इतना बड़ा दुःख दर्द दबा के रखा है। बिस्तर के किनारे पर बैठी सुबक रहीं भाभी को देख कर मेरे दिल में दर्द सा होने लगा। मेरा जी चाहा कि मैं पलक झपकते ही उनके पास जाऊं और उन्हें अपने सीने से छुपका लूं लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सका।
"भगवान के लिए ऐसे मत रोइए भाभी।" मुझसे रहा न गया तो मैंने आहत भाव से कहा____"मैं सच में बहुत शर्मिंदा हूं। आज तक मैं अपनी दुनिया में मस्त था। ये सच है कि आज तक मुझे अपने सिवा किसी से कोई मतलब नहीं था लेकिन अब मैं मतलब रखूंगा भाभी। आज मुझे अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा है कि मैंने आज तक जो कुछ किया वो मैंने क्यों किया? क्यों आज तक मैं अपनों से और अपनी ज़िम्मेदारियों से भागता रहा था? अगर मैंने ऐसा न किया होता तो आज हालात ऐसे न होते।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"तुम इस सबके लिए अपने आपको दोष मत दो। हां ये सच है कि तुम्हें अपनों का और अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़याल रखना चाहिए था लेकिन ये भी सच है कि जो कुछ भी होता है वो उस ऊपर वाले की मर्ज़ी से ही होता है। इस दुनिया में वही होता है वैभव जो सिर्फ ऊपर वाला चाहता है। उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। हम मामूली इंसान तो उसके हाथ की कठपुतली हैं।"
"मैं ये सब नहीं जानता भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मैं तो बस इतना समझ रहा हूं कि आज जैसे भी हालात बने हैं उन हालातों के लिए कहीं न कहीं मैं ख़ुद भी ज़िम्मेदार हूं। अपनी ख़ुशी के लिए मैंने हमेशा वही किया जिसने इस ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर ग्रहण लगाया। मैं बहुत बुरा हूं भाभी।"
"सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते वैभव।" भाभी बिस्तर से उतर कर मेरे पास आते हुए बोलीं____"मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें अपनी ग़लतियों का एहसास है और तुम अपनी ग़लतियों के लिए पछतावा कर रहे हो। मैं हमेशा यही कामना करती थी कि तुम सही रास्ते पर आ जाओ और अपने बिखर रहे परिवार को सम्हाल लो। आज ईश्वर ने शायद मेरी कामनाओं को पूरा कर दिया है। कोई इंसान ईश्वर के लेख को तो नहीं मिटा सकता लेकिन सब कुछ अच्छा करने का प्रयास तो कर ही सकता है। इस लिए मैं चाहती हूं कि अब से तुम वही करो जिससे ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर कोई आंच न आए। मैंने तो अपने उस दुःख को किसी तरह जज़्ब कर लिया है वैभव लेकिन माँ जी अपने बेटे के बारे में वो सब जान कर ख़ुद को सम्हाल नहीं पाएँगी। मैं नहीं चाहती कि किसी दिन ऐसा भी लम्हा आ जाए जो इस हवेली की दरो दीवार को हिला कर रख दे।"
"आप बहुत महान हैं भाभी।" मैंने श्रद्धा भाव से कहा____"इतने बड़े दुःख के बाद भी आप इस हवेली में रहने वालों और इस खानदान के बारे में इतना कुछ सोचती हैं। आप इतनी अच्छी कैसे हो सकती हैं भाभी? एक मैं हूं जो अपनी देवी सामान भाभी को देख कर अपनी नीयत ख़राब कर बैठता है। काश! वो ऊपर वाला बड़े भैया की जगह मेरे जीवन काल को समाप्त कर देता।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने जल्दी से आगे बढ़ कर मेरे सिर को अपने पेट के पास छुपकाते हुए कहा____"भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बस यही प्रार्थना करो कि किसी को भी कुछ न हो।"
भाभी की बात सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि भाभी के पेट से छुपका हुआ मैं बस यही सोच कर दुखी होता रहा कि काश मेरे भैया को मेरी उम्र लग जाए। कुछ देर बाद मैं भाभी से अलग हुआ। मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू तैर रहे थे। संसार भर की मासूमियत विद्यमान थी उस पाक़ चेहरे में।
"एक बात बताइए भाभी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भैया को अपने बारे में वो सब बातें कैसे पता हैं? क्या आपने उन्हें बताया है?" "वो असल में बात ये हुई थी।" भाभी ने कहा____"कि एक दिन दादा ठाकुर मुझे उन्हीं सब बातों के लिए समझा रहे थे तो तुम्हारे भैया ने सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने मुझसे उस बारे में पूछा था लेकिन मैंने जब उन्हें कुछ नहीं बताया तो उन्होंने अपनी कसम दे दी। उनकी कसम से मजबूर हो कर मुझे उन्हें सब कुछ बताना ही पड़ा।
☆ प्यार का सबूत ☆ अध्याय - 28 ----------☆☆☆----------
अब तक,,,,,,
कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
अब आगे,,,,,
शहर से जब मैं वापस लौटा तो दोपहर के तीन बज गए थे। मैं सीधा मुरारी काका के घर ही आ गया था। मैंने मोटर साइकिल घर के बाहर खड़ी की और जैसे ही दरवाज़े के पास पंहुचा तो दरवाज़ा खुला। सरोज काकी ने दरवाज़ा खोला था। मैं अंदर आया तो देखा आँगन में जगन अपने बीवी बच्चों के साथ ही बैठा था। मुझे देखते ही जगन खटिया से उठ गया और मुझे बैठने को कहा तो मैं बैठ गया।
जगन की बीवी और उसके बच्चे अंदर बरामदे में बैठे थे और सरोज काकी आँगन में। घर के दूसरी तरफ एक बड़ा सा पेड़ था जिसकी छांव आँगन में रहती थी। बड़ा सा आँगन था इस लिए हवा आती रहती थी वरना तो इस वक़्त धूप में आंगन में बैठना मुश्किल ही हो जाता। ख़ैर सरोज काकी ने मुझसे खाने पीने का पूछा तो मैंने उसे बताया कि मैंने शहर में ही खा लिया है किन्तु ठंडा पानी ज़रूर पियूंगा।
"और काका कैसी चल रही है तैयारी?" मैंने अपने पास ही दूसरी खटिया में बैठे जगन काका से पूछा_____"सारा सामान इकठ्ठा हो गया न या अभी और भी किसी चीज़ की कमी है?"
"ज़रुरत का मुख्य सामान तो हम कल ही शहर से ले आए थे।" जगन ने कहा____"अब सिर्फ राशन ही रह गया था तो हमने उसकी भी ब्यवस्था कर ली है। कुल मिला कर सारी ब्यवस्था हो गई है बेटा।"
"फिर भी अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बेझिझक मुझसे बोल देना।" मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाल कर जगन की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे हैं इन्हें रख लो। कल ब्राम्हणों को दान दक्षिणा देने के काम आएंगे।"
पैसा देख कर जगन मेरी तरफ देखने लगा था और यही हाल लगभग सबका ही था। मैंने ज़ोर दिया तो जगन ने वो पैसा ले लिया। कुछ देर और बैठ कर मैंने कल तेरहवीं से सम्बन्धित कुछ बातें की उसके बाद मैं सरोज काकी के घर से निकल कर उस तरफ चल पड़ा जहां पर मेरा नया मकान बन रहा था।
पेड़ की छांव में मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं मजदूरों के पास आ गया। मुझे देखते ही सबने बड़े अदब से मुझे सलाम किया। काफी सारे मजदूर और मिस्त्री थे इस लिए मकान का निर्माण कार्य बड़ी तेज़ी चल रहा था। कुछ मजदूर आस पास की सफाई करने में लगे हुए थे ताकि मकान के आस पास की ज़मीन साफ़ रहे। मकान से कुछ ही दूर कुएं की खुदाई चल रही थी। मैंने पास जा कर देखा तो पता चला कुआं काफी गहरा हो गया है और उसमे भरपूर पानी भी है, जिसकी वजह से अंदर कुएं को और ज़्यादा खोदने में परेशानी हो रही थी। कुएं में इतना पानी था कि उसे खाली करना अब किसी के भी बस में नहीं था। मजदूरों ने जब ये बात मुझे बताई तो मैंने उन्हें खोदने से मना कर दिया और ये कहा कि कुएं की दीवारों को पक्का कर दो।
मैं शहर एक ज़रूरी काम से गया था। असल में मैं एक काम गुप्त रूप से करवाना चाहता था। ख़ैर कुछ देर रुकने के बाद मैं गांव की तरफ चलने ही लगा था कि सामने से एक मोटर साइकिल में भुवन आता दिखा मुझे। मुझे देखते ही उसने सलाम किया। मैंने उससे उसका हाल चाल पूछा और बुलेट को चालू कर के हवेली की तरफ चल दिया।
शाम अभी हुई नहीं थी। रास्ते में जब मैं आया तो मुझे याद आया कि पिछले दिन इसी रास्ते पर किसी ने मुझे रस्से द्वारा सड़क पर गिराने की कोशिश की थी। इस बात के याद आते ही मैं एकदम से सतर्क हो गया। हालांकि दुबारा ऐसा कुछ मेरे साथ हुआ नहीं बल्कि मैं बड़े आराम से गांव में दाखिल हो गया।
मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। रजनी का ख़याल आते ही मेरे मन में उसके लिए गुस्सा और नफ़रत भरने लगी। मैं उसे उसके किए की सज़ा देना चाहता था किन्तु उसके लिए अभी मेरे पास वक़्त नहीं था। वैसे भी आज कल मैं ऐसी ऐसी मुसीबतों में फंसा हुआ था कि एक नई मुसीबत को अपने गले नहीं लगाना चाहता था। मुंशी के घर के सामने से गुज़र कर जब मैं साहूकारों के सामने आया तो ये देख कर चौंका कि घर के बड़े से दरवाज़े के पास रूपा खड़ी थी और एक छोटे से बच्चे से बात कर रही थी। बुलेट की तेज़ आवाज़ उसके कानों में पड़ी तो उसने गर्दन घुमा कर सड़क की तरफ देखा। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर अपलक मेरी तरफ देखने लगी।
मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार को एकदम से धीमा कर दिया और होठों पर मुस्कान सजा कर उसकी तरफ देखा तो उसके होठों पर भी मुस्कान उभर आई किन्तु अगले ही पल वो तब हड़बड़ा गई जब मैंने अचानक से उसे देखते हुए आँख मार दी थी। रूपा ने घबरा कर इधर उधर देखा। इस वक़्त घर के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन किया कि मैं रूपा को अपने पास बुलाऊं किन्तु अगले ही पल मैंने अपना ये इरादा बदल दिया। मुझे अंदेशा था कि बुलेट की तेज़ आवाज़ घर के अंदर मौजूद बाकी लोगों के कानों में भी पहुंच गई होगी। रूपचंद्र अगर अंदर होगा तो वो फ़ौरन समझ जाएगा कि बुलेट में मैं ही होऊंगा।
मैंने रूपा को इशारा किया तो उसने चौंक कर पहले उस छोटे से बच्चे की तरफ देखा और फिर इधर उधर देखने के बाद मेरी तरफ देखते हुए इशारे से ही पूछा कि क्या है? वो छोटा सा बच्चा भी मेरी तरफ ही देख रहा था। मैंने रूपा को इशारे से ही कल मंदिर में मिलने के लिए कहा तो उसने झट से अपना सिर इंकार में ज़ोर ज़ोर से हिलाया। ये देख कर मैंने उसे आँखें दिखाई तो वो बेबस भाव से मुझे देखने लगी। मुझे उसकी बेबसी और मासूमियत पर बेहद तरस आया किन्तु मेरा उससे मिलना बेहद ज़रूरी था इस लिए मैंने इस बार उससे अनुरोध किया। मेरे अनुरोध पर उसने कुछ पल सोचा और फिर हां में सिर हिला दिया। रूपा जब मंदिर में मिलने के लिए राज़ी हो गई तो मैंने मुस्कुराते हुए मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया।
एक मुद्दत हो गई थी रूपा से मिले हुए और उसे प्यार किए हुए। पहले के और अब के हालात में बहुत ज़्यादा अंतर हो गया था। अब साहूकारों से हमारे रिश्ते सुधर चुके थे इस लिए मैं अपनी तरफ से ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता था और ना ही करना चाहता था जिसकी वजह से मेरी छवि फिर से बिगड़ जाए। ख़ैर रूपा के बारे में सोचते हुए मैं हवेली में दाखिल हुआ। मोटर साइकिल एक तरफ खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा। जैसा कि मैंने बताया था कि हवेली के बाहर बहुत बड़ा हरा भरा मैदान था जिसके एक छोर पर कई सारी जीपें और दूसरे छोर पर बग्घी और मोटर साइकिल वग़ैरा खड़ी रहतीं थी। मुख्य दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो देखा जगताप चाचा जी जीप में बैठ कर कहीं जाने को तैयार थे। वो मेरी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराए और फिर जीप को हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा दिया।
हवेली के अंदर आया तो मेरे ज़हन में बड़े भैया का ख़याल आ गया। मैं एक बार फिर से सोचने लगा कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि उन्होंने मुझसे इतने गुस्से में बात की थी जबकि होली के दिन वो मुझसे बड़े प्यार से और बड़ी ख़ुशी से बात कर रहे थे। होली के दिन उनका वर्ताव वैसा ही था जैसे के हमारा भरत मिलाप हुआ था किन्तु पिछले दिन का उनका वर्ताव मेरे लिए एकदम उम्मीद से परे था। बड़े भैया के उस वर्ताव की असल वजह को जानने के लिए मेरा भाभी से मिलना ज़रूरी था।
अंदर आया तो सबसे पहले मेरी मुलाक़ात कुसुम से हुई। मैंने उससे भाभी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो अपने कमरे में हैं। मैंने कुसुम से बड़े भैया के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो विभोर और अजीत के साथ जीप से कहीं गए हुए हैं। कुसुम की बात सुन कर मैंने सोचा भाभी से मिल कर बात करने का ये बढ़िया मौका है। ये सोच कर मैंने कुसुम से कहा कि बढ़िया गरम गरम चाय मेरे कमरे में ले कर आ।
आंगन से होते हुए जब मैं दूसरे छोर पर आया तो मेरी नज़र मेनका चाची पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ बात कर रहीं थी। नौकरानी की उम्र यही कोई तीस के आस पास थी। थोड़ी सांवली थी किन्तु जिस्म काफी कसा हुआ दिख रहा था। घागरा चोली पहने हुए थी वो। चोली में कैद उसकी भारी भरकम चूचियां ऐसी प्रतीत हो रहीं थी जैसे चोली को फाड़ कर बाहर ही आ जाएंगी। मैं जब थोड़ा क़रीब पंहुचा तो अनायास ही मेरी नज़र उसके नंगे पेट से नीचे फिसल कर उसके घाघरे में छुपे चौड़े कूल्हों से होते हुए नंगी टांगों पर और फिर पैरों पर आ कर ठहर गई। अपने पैरों में चांदी की मामूली सी पायल पहने थी वो किन्तु वो पायल वैसी ही थी जो चलने पर छन छन की आवाज़ करती थी। मेरे ज़हन में एकदम से विचार कौंधा कि क्या पिछली रात यही थी जो सीढ़ियों से उतर कर भागते हुए ऊपर से नीचे आई थी और जिसके पीछे मैं भी भागता हुआ आया था?
चाची के पास पंहुचा तो चाची ने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा। उस नौकरानी ने जब मुझे देखा तो उसने घबरा कर जल्दी से अपनी नज़रें नीचे कर ली। उसका घबरा कर इस तरह से अपनी नज़रें नीचे कर लेना मेरे मन में और भी ज़्यादा शक पैदा कर गया। मैं ये तो जानता था कि हवेली के नौकर और नौकरानियाँ मुझसे बेहद डरते थे किन्तु बिना वजह के इस तरह से तो बिलकुल भी नहीं।
उस नौकरानी की शक्ल अच्छे से देख कर मैं सीढ़ियों से ऊपर आ गया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। हवेली में कई ऐसे नौकर और नौकरानियाँ थी जिनके मैं नाम तक नहीं जानता था। जब से पिता जी ने नौकरानियों को मेरे कमरे में आने से शख़्त मना किया था तब से मेरा भी उनसे कोई वास्ता नहीं रहा था वरना तो आए दिन मैं हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे लेटा ही लेता था। अपनी हवस की आग को शांत करने के बाद मुझे उनसे कोई मतलब नहीं होता था। ख़ैर अभी जो नौकरानी चाची के पास खड़ी दिखी थी उस पर मेरा शक गहरा गया था और अब मैं अपने इस शक का समाधान करना चाहता था। अगर ये वही नौकरानी थी जो पिछली रात अँधेरे में अपनी छन छन करती पायल की आवाज़ के साथ नीचे भागती हुई गई थी तो मेरे लिए ये जानना बेहद ज़रूरी था कि वो उतनी रात को किसके कमरे में थी और क्या कर रही थी?
अपने कमरे में आ कर मैंने अपनी शर्ट उतारी और पंखा चालू कर के पलंग पर लेट गया। मैं सोच रहा था कि कल मुरारी काका की तेरहवीं हो जाने के बाद मैं हर उस चीज़ के बारे में गहराई से सोचूंगा और फिर उन सभी चीज़ों के बारे में जानने और सुलझाने की कोशिश शुरू करुंगा जिन चीज़ों की वजह से आज कल मेरी ज़िन्दगी झंड बनी हुई थी।
कुसुम चाय ले कर आई और पलंग पर ही मेरे पास बैठ गई। मैंने उसके हाथ से चाय का प्याला लिया और उसे मुँह से लगा कर उसकी एक चुस्की ली। कुसुम मेरी तरफ ही देख रही थी। मेरी नज़र जब उस पर पड़ी तो मैं हल्के से मुस्कुराया।
"अब तुझे क्या हुआ?" मैंने थोड़ा सा उठ कर पलंग की पिछली पुस्त से पीठ टिका कर कहा____"इस तरह मुँह क्यों लटका रखा है तूने? किसी ने कुछ कहा क्या?" "नहीं, किसी ने कुछ नहीं कहा भैया।" कुसुम ने कुछ सोचते हुए कहा____"लेकिन एक बात है जिसके बारे में सोच रही हूं कि आपको बताऊं कि नहीं?"
"अगर तुझे लगता है कि वो बात मुझे बताना तेरे लिए ज़रूरी है।" मैंने जैसे उसे समझाते हुए कहा____"तो बेझिझक हो कर बता दे। इसमें इतना सोचने की क्या बात है?" "सोचने की ही तो बात है भैया।" कुसुम ने बड़ी मासूमियत से कहा____"तभी तो सोच रही हूं।"
"तो फिर एक काम कर तू।" मैंने कहा____"और वो ये कि पहले तू दो चार दिन सोच ही ले, उसके बाद मुझे बता देना।" "अब और कितना सोचूं भैया?" कुसुम ने मानो झुंझला कर कहा____"जाने कब से तो सोच रही हूं मैं उस बात के बारे में। अब और नहीं सोचा जाता मुझसे।"
"चल अब मेरा भेजा मत खा।" मैंने चाय की एक और चुस्की लेने के बाद कहा____"जल्दी से बता कि ऐसी कौन सी बात है जिसके बारे में जाने कबसे तू इतना सोच रही है?" "पहले ये तो सुन लीजिए।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं सोच क्यों रही थी?"
"अच्छा ठीक है।" मैंने झुंझला कर कहा____"यही बता कि सोच क्यों रही थी तू?" "वो क्या है न कि।" कुसुम ने झिझकते हुए कहा____"जो बात मैं आपसे बताना चाहती थी वो ऐसी बात है कि मुझे आपसे बताने में शर्म आ रही है। इसी लिए तब से अब तक यही सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे...क्योंकि मुझे शर्म आएगी न।"
"तो क्या अब बताने में शर्म नहीं आएगी तुझे?" मैंने उसे घूरा। "अरे! ऐसे कैसे नहीं आएगी?" कुसुम ने अपना एक हाथ झटकते हुए कहा____"वो तो बहुत ज़्यादा आएगी भैया। इसी लिए तो इतने दिन से सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे?"
"मुझे तो लगता है कि।" मैंने कहा____"तू आज मेरे दिमाग़ का दही करने आई है। अरे! यार अगर तुझे कोई बात बतानी ही है तो बेझिझक बता दे न। फ़ालतू का मेरा समय क्यों बर्बाद कर रही है और मुझे परेशान क्यों कर रही है?"
"क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैला कर कहा____"मैं फ़ालतू की बात कर रही हूं और आपके दिमाग़ का दही कर रही हूं??? आप मेरे बारे में ऐसा कैसे बोल सकते हैं? जाइए मुझे कुछ नहीं बताना आपको।"
"हे भगवान!" मेरा मन किया कि मैं अपने बाल नोच लूं, किन्तु फिर ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े प्यार से कहा____"ग़लती हो गई मेरी प्यारी बहना। तू तो जानती है कि तेरा ये भाई बुद्धि से ज़रा पैदल है।"
"ख़बरदार।" मेरी बात पूरी होते ही कुसुम एक झटके में बोल पड़ी____"ख़बरदार जो आपने मेरे भैया को बुद्धि से पैदल कहा। अरे! मेरे भैया तो सबसे अच्छे हैं, मुझे अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं।"
"अगर ऐसा है।" मैंने गहरी सांस ली____"तो बता न मेरी प्यारी बहना कि वो कौन सी बात है जिसके बारे में तू इतने दिनों से सोचती आ रही है?" "पर भैया।" कुसुम ने बेबस भाव से कहा____"मैं वो बात आपको कैसे बताऊं? मुझे वो बात बताने में बहुत ज़्यादा शर्म आएगी। नहीं भैया नहीं, मैं वो बात आपको नहीं बता सकती।"
"तू रुक अभी बताता हूं तुझे।" मैंने चाय के प्याले को एक तरफ रखा और जैसे ही एक झटके से उसकी तरफ झपटा तो वो खिलखिला कर हंसती हुई कमरे से बाहर भाग गई, जबकि मैंने आगे का वाक्य मानो ख़ुद से ही कहा_____"इतनी देर से भेजा चाट रही है मेरा।"
कुसुम के जाने के बाद मैं वापस पलंग पर पहले की तरह पीठ टिका कर बैठ गया और ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि मेरी ये नटखट बहन कितनी सफाई से मेरा भेजा चाट कर चली गई है। ख़ैर चाय पीने के बाद मैं पलंग से नीचे उतरा और शर्ट पहन कर भाभी से मिलने के लिए कमरे से बाहर आ कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला।
लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए जैसे ही मैं भाभी के कमरे के सामने आया तो मेरी नज़र कमरे से बाहर निकल रही भाभी पर पड़ी। उन्हें कमरे से बाहर निकलते देख मैं रुक गया। उनकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी और अपने कमरे के बाहर मुझे देख कर वो रुक गईं थी। उनके खूबसूरत चेहरे पर पहले तो चौंकने के भाव उभरे फिर उनकी झील सी गहरी आँखों में सवालिया भाव नज़र आए मुझे।
"वैभव तुम??" फिर उन्होंने सामान्य भाव से कहा____"कहीं इस तरफ का रास्ता तो नहीं भटक गए?" "वो मैं आपसे मिलने आया था भाभी।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"असल में मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है। अगर आपके पास वक़्त हो तो...!"
"अपने देवर के लिए मेरे पास वक़्त ही वक़्त है वैभव।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"अन्दर आ जाओ।"
कहने के साथ ही भाभी वापस कमरे में चली गईं तो मैं भी चुप चाप कमरे में दाखिल हो गया। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही बढ़ गईं थी। मैं बहुत कोशिश करता था कि भाभी के सामने मैं सामान्य ही रहूं लेकिन पता नहीं क्यों उनके सामने आते ही मेरी धड़कनें थोड़ी तेज़ हो जाती थी और न चाहते हुए भी मैं उनके रूप सौंदर्य पर आकर्षित होने लगता था। ये अलग बात है कि इसके लिए बाद में मुझे बेहद पछतावा भी होता था।
"बैठो।" मैं अंदर आया तो भाभी ने कमरे में एक तरफ रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।
"अब बताओ।" मैं जैसे ही कुर्सी में बैठा तो भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए शांत भाव से कहा____"अपनी इस भाभी से ऐसी कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?" "असल में मुझे।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में आपसे कुछ पूछना था।"
"हां तो पूछो।" भाभी ने बड़ी बेबाकी से कहा तो मैं कुछ पलों तक उनके सुन्दर चेहरे की तरफ देखता रहा और फिर अपनी बढ़ चली धड़कनों को काबू करने का प्रयास करते हुए बोला____"होली वाले दिन बड़े भैया मुझसे बड़े ही अच्छे तरीके से मिले थे। यहाँ तक कि जब मैंने उनके पैर छुए थे तो उन्होंने खुश हो कर मुझे अपने गले से भी लगाया था। उसके बाद उन्होंने खुद उसी ख़ुशी में मुझे भांग वाला शरबत पिलाया था। उनके ऐसा करने से मैं भी बहुत खुश था लेकिन कल शाम को उनका वर्ताव ऐसा था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।"
"क्या हुआ था कल?" भाभी ने पूछा तो मैंने उन्हें कल शाम का सारा वाक्या विस्तार से बता दिया जिसे सुन कर उनके चेहरे पर वैसे भाव बिल्कुल भी नहीं उभरे जिसे आश्चर्य कहा जाता है। बल्कि मेरी बातें सुनने के बाद उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर गंभीर भाव से कहा____"पिछले कुछ समय से उनका वर्ताव ऐसा ही है वैभव। मुझे तो उनके ऐसे वर्ताव की आदत पड़ चुकी है किन्तु तुम्हारे लिए शायद ये नई बात होगी क्योंकि तुम तो हमेशा ही अपने में ही मस्त रहते थे। तुम्हें भला इस बात से कैसे कोई मतलब हो सकता था कि हवेली में रहने वाले तुम्हारे अपनों के बीच क्या चल रहा है या उनके हालात कैसे हैं? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं किसी को अपना दुःख नहीं दिखाती वैभव। जब से मुझे कुल गुरु के द्वारा ये पता चला है कि उनका जीवन काल बस कुछ ही समय का है तब से मैं इस कमरे में अकेले ही छुप कर अपने आँसू बहा लेती हूं। ईश्वर से हर वक़्त पूछती हूं कि उन्होंने ये कैसा इन्साफ किया है कि इतनी कम उम्र में मुझे विधवा बना देने का फैसला कर लिया है? आख़िर वो मुझे किस गुनाह की सज़ा देना चाहता है? अपनी समझ में तो मैंने ऐसा कोई गुनाह नहीं किया है जिसके लिए वो मेरे साथ ऐसा करे। दादा ठाकुर ने मुझे शख़्ती से मना किया था कि मैं उनके बारे में ये बातें हवेली में किसी को न बताऊं। मैं जानती हूं कि अपने बेटे के बारे में ये सब जान कर वो खुद भी अंदर से बेहद दुखी होंगे और शायद यही वजह है कि वो मौका देख कर मुझे इसके लिए समझाते रहते हैं। ईश्वर का खेल तो ईश्वर ही जानता है। वो जो भी करता है उसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होती है। दादा ठाकुर की इन्हीं बातों से खुद को तसल्ली देती रहती हूं। अब तो खुद को भी समझा लिया है कि इस बात के लिए रोने से भला क्या मिलेगा? इससे अच्छा तो ये है कि जिस ईश्वर ने ऐसा इंसाफ लिखा है उसी से उनकी ज़िन्दगी की भीख मांगू। क्या पता किसी दिन उस भगवान को मुझ पर तरस आ जाए।"
भाभी ये सब कहने के बाद सुबकने लगीं थी। उनका सुन्दर सा चेहरा एकदम से मलिन पड़ गया था। मैंने आज तक उन्हें बस मुस्कुराते हुए ही देखा था। मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि उन्होंने अपने अंदर इतना बड़ा दुःख दर्द दबा के रखा है। बिस्तर के किनारे पर बैठी सुबक रहीं भाभी को देख कर मेरे दिल में दर्द सा होने लगा। मेरा जी चाहा कि मैं पलक झपकते ही उनके पास जाऊं और उन्हें अपने सीने से छुपका लूं लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सका।
"भगवान के लिए ऐसे मत रोइए भाभी।" मुझसे रहा न गया तो मैंने आहत भाव से कहा____"मैं सच में बहुत शर्मिंदा हूं। आज तक मैं अपनी दुनिया में मस्त था। ये सच है कि आज तक मुझे अपने सिवा किसी से कोई मतलब नहीं था लेकिन अब मैं मतलब रखूंगा भाभी। आज मुझे अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा है कि मैंने आज तक जो कुछ किया वो मैंने क्यों किया? क्यों आज तक मैं अपनों से और अपनी ज़िम्मेदारियों से भागता रहा था? अगर मैंने ऐसा न किया होता तो आज हालात ऐसे न होते।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"तुम इस सबके लिए अपने आपको दोष मत दो। हां ये सच है कि तुम्हें अपनों का और अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़याल रखना चाहिए था लेकिन ये भी सच है कि जो कुछ भी होता है वो उस ऊपर वाले की मर्ज़ी से ही होता है। इस दुनिया में वही होता है वैभव जो सिर्फ ऊपर वाला चाहता है। उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। हम मामूली इंसान तो उसके हाथ की कठपुतली हैं।"
"मैं ये सब नहीं जानता भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मैं तो बस इतना समझ रहा हूं कि आज जैसे भी हालात बने हैं उन हालातों के लिए कहीं न कहीं मैं ख़ुद भी ज़िम्मेदार हूं। अपनी ख़ुशी के लिए मैंने हमेशा वही किया जिसने इस ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर ग्रहण लगाया। मैं बहुत बुरा हूं भाभी।"
"सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते वैभव।" भाभी बिस्तर से उतर कर मेरे पास आते हुए बोलीं____"मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें अपनी ग़लतियों का एहसास है और तुम अपनी ग़लतियों के लिए पछतावा कर रहे हो। मैं हमेशा यही कामना करती थी कि तुम सही रास्ते पर आ जाओ और अपने बिखर रहे परिवार को सम्हाल लो। आज ईश्वर ने शायद मेरी कामनाओं को पूरा कर दिया है। कोई इंसान ईश्वर के लेख को तो नहीं मिटा सकता लेकिन सब कुछ अच्छा करने का प्रयास तो कर ही सकता है। इस लिए मैं चाहती हूं कि अब से तुम वही करो जिससे ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर कोई आंच न आए। मैंने तो अपने उस दुःख को किसी तरह जज़्ब कर लिया है वैभव लेकिन माँ जी अपने बेटे के बारे में वो सब जान कर ख़ुद को सम्हाल नहीं पाएँगी। मैं नहीं चाहती कि किसी दिन ऐसा भी लम्हा आ जाए जो इस हवेली की दरो दीवार को हिला कर रख दे।"
"आप बहुत महान हैं भाभी।" मैंने श्रद्धा भाव से कहा____"इतने बड़े दुःख के बाद भी आप इस हवेली में रहने वालों और इस खानदान के बारे में इतना कुछ सोचती हैं। आप इतनी अच्छी कैसे हो सकती हैं भाभी? एक मैं हूं जो अपनी देवी सामान भाभी को देख कर अपनी नीयत ख़राब कर बैठता है। काश! वो ऊपर वाला बड़े भैया की जगह मेरे जीवन काल को समाप्त कर देता।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने जल्दी से आगे बढ़ कर मेरे सिर को अपने पेट के पास छुपकाते हुए कहा____"भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बस यही प्रार्थना करो कि किसी को भी कुछ न हो।"
भाभी की बात सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि भाभी के पेट से छुपका हुआ मैं बस यही सोच कर दुखी होता रहा कि काश मेरे भैया को मेरी उम्र लग जाए। कुछ देर बाद मैं भाभी से अलग हुआ। मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू तैर रहे थे। संसार भर की मासूमियत विद्यमान थी उस पाक़ चेहरे में।
"एक बात बताइए भाभी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भैया को अपने बारे में वो सब बातें कैसे पता हैं? क्या आपने उन्हें बताया है?" "वो असल में बात ये हुई थी।" भाभी ने कहा____"कि एक दिन दादा ठाकुर मुझे उन्हीं सब बातों के लिए समझा रहे थे तो तुम्हारे भैया ने सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने मुझसे उस बारे में पूछा था लेकिन मैंने जब उन्हें कुछ नहीं बताया तो उन्होंने अपनी कसम दे दी। उनकी कसम से मजबूर हो कर मुझे उन्हें सब कुछ बताना ही पड़ा।
nice update ..vaibhav ko aisa kya plan sujha ki wo shahar chala gaya ..
baawdi me paani aa gaya aur ab uski deeware banane ko bol diya majduro ko ..
jagan ko kuch paise diye vaibhav ne pandito ko dakshina dene ke liye ..
rupa se thodi aankh michauli ho gayi aur usme hi mandir me milne ka keh diya vaibhav ne .
to ek naukrani ke upar shak ho gaya hai .
par ye kusum kuch batana chahti thi yaa sach me bheja kha rahi thi vaibhav ka .
bhabhi se puchhne par pata chalta hai ki bhaiya kuch dino se aise hi kar rahe hai par uske aise bartaw ki wajah abhi pata nahi chali ..
bhabhi ke dukh me khud bhi emotional ho gaya vaibhav aur ab haweli ki jimmedari sambhalne ki soch raha hai ..
☆ प्यार का सबूत ☆ अध्याय - 28 ----------☆☆☆----------
अब तक,,,,,,
कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
अब आगे,,,,,
शहर से जब मैं वापस लौटा तो दोपहर के तीन बज गए थे। मैं सीधा मुरारी काका के घर ही आ गया था। मैंने मोटर साइकिल घर के बाहर खड़ी की और जैसे ही दरवाज़े के पास पंहुचा तो दरवाज़ा खुला। सरोज काकी ने दरवाज़ा खोला था। मैं अंदर आया तो देखा आँगन में जगन अपने बीवी बच्चों के साथ ही बैठा था। मुझे देखते ही जगन खटिया से उठ गया और मुझे बैठने को कहा तो मैं बैठ गया।
जगन की बीवी और उसके बच्चे अंदर बरामदे में बैठे थे और सरोज काकी आँगन में। घर के दूसरी तरफ एक बड़ा सा पेड़ था जिसकी छांव आँगन में रहती थी। बड़ा सा आँगन था इस लिए हवा आती रहती थी वरना तो इस वक़्त धूप में आंगन में बैठना मुश्किल ही हो जाता। ख़ैर सरोज काकी ने मुझसे खाने पीने का पूछा तो मैंने उसे बताया कि मैंने शहर में ही खा लिया है किन्तु ठंडा पानी ज़रूर पियूंगा।
"और काका कैसी चल रही है तैयारी?" मैंने अपने पास ही दूसरी खटिया में बैठे जगन काका से पूछा_____"सारा सामान इकठ्ठा हो गया न या अभी और भी किसी चीज़ की कमी है?"
"ज़रुरत का मुख्य सामान तो हम कल ही शहर से ले आए थे।" जगन ने कहा____"अब सिर्फ राशन ही रह गया था तो हमने उसकी भी ब्यवस्था कर ली है। कुल मिला कर सारी ब्यवस्था हो गई है बेटा।"
"फिर भी अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बेझिझक मुझसे बोल देना।" मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाल कर जगन की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे हैं इन्हें रख लो। कल ब्राम्हणों को दान दक्षिणा देने के काम आएंगे।"
पैसा देख कर जगन मेरी तरफ देखने लगा था और यही हाल लगभग सबका ही था। मैंने ज़ोर दिया तो जगन ने वो पैसा ले लिया। कुछ देर और बैठ कर मैंने कल तेरहवीं से सम्बन्धित कुछ बातें की उसके बाद मैं सरोज काकी के घर से निकल कर उस तरफ चल पड़ा जहां पर मेरा नया मकान बन रहा था।
पेड़ की छांव में मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं मजदूरों के पास आ गया। मुझे देखते ही सबने बड़े अदब से मुझे सलाम किया। काफी सारे मजदूर और मिस्त्री थे इस लिए मकान का निर्माण कार्य बड़ी तेज़ी चल रहा था। कुछ मजदूर आस पास की सफाई करने में लगे हुए थे ताकि मकान के आस पास की ज़मीन साफ़ रहे। मकान से कुछ ही दूर कुएं की खुदाई चल रही थी। मैंने पास जा कर देखा तो पता चला कुआं काफी गहरा हो गया है और उसमे भरपूर पानी भी है, जिसकी वजह से अंदर कुएं को और ज़्यादा खोदने में परेशानी हो रही थी। कुएं में इतना पानी था कि उसे खाली करना अब किसी के भी बस में नहीं था। मजदूरों ने जब ये बात मुझे बताई तो मैंने उन्हें खोदने से मना कर दिया और ये कहा कि कुएं की दीवारों को पक्का कर दो।
मैं शहर एक ज़रूरी काम से गया था। असल में मैं एक काम गुप्त रूप से करवाना चाहता था। ख़ैर कुछ देर रुकने के बाद मैं गांव की तरफ चलने ही लगा था कि सामने से एक मोटर साइकिल में भुवन आता दिखा मुझे। मुझे देखते ही उसने सलाम किया। मैंने उससे उसका हाल चाल पूछा और बुलेट को चालू कर के हवेली की तरफ चल दिया।
शाम अभी हुई नहीं थी। रास्ते में जब मैं आया तो मुझे याद आया कि पिछले दिन इसी रास्ते पर किसी ने मुझे रस्से द्वारा सड़क पर गिराने की कोशिश की थी। इस बात के याद आते ही मैं एकदम से सतर्क हो गया। हालांकि दुबारा ऐसा कुछ मेरे साथ हुआ नहीं बल्कि मैं बड़े आराम से गांव में दाखिल हो गया।
मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। रजनी का ख़याल आते ही मेरे मन में उसके लिए गुस्सा और नफ़रत भरने लगी। मैं उसे उसके किए की सज़ा देना चाहता था किन्तु उसके लिए अभी मेरे पास वक़्त नहीं था। वैसे भी आज कल मैं ऐसी ऐसी मुसीबतों में फंसा हुआ था कि एक नई मुसीबत को अपने गले नहीं लगाना चाहता था। मुंशी के घर के सामने से गुज़र कर जब मैं साहूकारों के सामने आया तो ये देख कर चौंका कि घर के बड़े से दरवाज़े के पास रूपा खड़ी थी और एक छोटे से बच्चे से बात कर रही थी। बुलेट की तेज़ आवाज़ उसके कानों में पड़ी तो उसने गर्दन घुमा कर सड़क की तरफ देखा। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर अपलक मेरी तरफ देखने लगी।
मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार को एकदम से धीमा कर दिया और होठों पर मुस्कान सजा कर उसकी तरफ देखा तो उसके होठों पर भी मुस्कान उभर आई किन्तु अगले ही पल वो तब हड़बड़ा गई जब मैंने अचानक से उसे देखते हुए आँख मार दी थी। रूपा ने घबरा कर इधर उधर देखा। इस वक़्त घर के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन किया कि मैं रूपा को अपने पास बुलाऊं किन्तु अगले ही पल मैंने अपना ये इरादा बदल दिया। मुझे अंदेशा था कि बुलेट की तेज़ आवाज़ घर के अंदर मौजूद बाकी लोगों के कानों में भी पहुंच गई होगी। रूपचंद्र अगर अंदर होगा तो वो फ़ौरन समझ जाएगा कि बुलेट में मैं ही होऊंगा।
मैंने रूपा को इशारा किया तो उसने चौंक कर पहले उस छोटे से बच्चे की तरफ देखा और फिर इधर उधर देखने के बाद मेरी तरफ देखते हुए इशारे से ही पूछा कि क्या है? वो छोटा सा बच्चा भी मेरी तरफ ही देख रहा था। मैंने रूपा को इशारे से ही कल मंदिर में मिलने के लिए कहा तो उसने झट से अपना सिर इंकार में ज़ोर ज़ोर से हिलाया। ये देख कर मैंने उसे आँखें दिखाई तो वो बेबस भाव से मुझे देखने लगी। मुझे उसकी बेबसी और मासूमियत पर बेहद तरस आया किन्तु मेरा उससे मिलना बेहद ज़रूरी था इस लिए मैंने इस बार उससे अनुरोध किया। मेरे अनुरोध पर उसने कुछ पल सोचा और फिर हां में सिर हिला दिया। रूपा जब मंदिर में मिलने के लिए राज़ी हो गई तो मैंने मुस्कुराते हुए मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया।
एक मुद्दत हो गई थी रूपा से मिले हुए और उसे प्यार किए हुए। पहले के और अब के हालात में बहुत ज़्यादा अंतर हो गया था। अब साहूकारों से हमारे रिश्ते सुधर चुके थे इस लिए मैं अपनी तरफ से ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता था और ना ही करना चाहता था जिसकी वजह से मेरी छवि फिर से बिगड़ जाए। ख़ैर रूपा के बारे में सोचते हुए मैं हवेली में दाखिल हुआ। मोटर साइकिल एक तरफ खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा। जैसा कि मैंने बताया था कि हवेली के बाहर बहुत बड़ा हरा भरा मैदान था जिसके एक छोर पर कई सारी जीपें और दूसरे छोर पर बग्घी और मोटर साइकिल वग़ैरा खड़ी रहतीं थी। मुख्य दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो देखा जगताप चाचा जी जीप में बैठ कर कहीं जाने को तैयार थे। वो मेरी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराए और फिर जीप को हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा दिया।
हवेली के अंदर आया तो मेरे ज़हन में बड़े भैया का ख़याल आ गया। मैं एक बार फिर से सोचने लगा कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि उन्होंने मुझसे इतने गुस्से में बात की थी जबकि होली के दिन वो मुझसे बड़े प्यार से और बड़ी ख़ुशी से बात कर रहे थे। होली के दिन उनका वर्ताव वैसा ही था जैसे के हमारा भरत मिलाप हुआ था किन्तु पिछले दिन का उनका वर्ताव मेरे लिए एकदम उम्मीद से परे था। बड़े भैया के उस वर्ताव की असल वजह को जानने के लिए मेरा भाभी से मिलना ज़रूरी था।
अंदर आया तो सबसे पहले मेरी मुलाक़ात कुसुम से हुई। मैंने उससे भाभी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो अपने कमरे में हैं। मैंने कुसुम से बड़े भैया के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो विभोर और अजीत के साथ जीप से कहीं गए हुए हैं। कुसुम की बात सुन कर मैंने सोचा भाभी से मिल कर बात करने का ये बढ़िया मौका है। ये सोच कर मैंने कुसुम से कहा कि बढ़िया गरम गरम चाय मेरे कमरे में ले कर आ।
आंगन से होते हुए जब मैं दूसरे छोर पर आया तो मेरी नज़र मेनका चाची पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ बात कर रहीं थी। नौकरानी की उम्र यही कोई तीस के आस पास थी। थोड़ी सांवली थी किन्तु जिस्म काफी कसा हुआ दिख रहा था। घागरा चोली पहने हुए थी वो। चोली में कैद उसकी भारी भरकम चूचियां ऐसी प्रतीत हो रहीं थी जैसे चोली को फाड़ कर बाहर ही आ जाएंगी। मैं जब थोड़ा क़रीब पंहुचा तो अनायास ही मेरी नज़र उसके नंगे पेट से नीचे फिसल कर उसके घाघरे में छुपे चौड़े कूल्हों से होते हुए नंगी टांगों पर और फिर पैरों पर आ कर ठहर गई। अपने पैरों में चांदी की मामूली सी पायल पहने थी वो किन्तु वो पायल वैसी ही थी जो चलने पर छन छन की आवाज़ करती थी। मेरे ज़हन में एकदम से विचार कौंधा कि क्या पिछली रात यही थी जो सीढ़ियों से उतर कर भागते हुए ऊपर से नीचे आई थी और जिसके पीछे मैं भी भागता हुआ आया था?
चाची के पास पंहुचा तो चाची ने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा। उस नौकरानी ने जब मुझे देखा तो उसने घबरा कर जल्दी से अपनी नज़रें नीचे कर ली। उसका घबरा कर इस तरह से अपनी नज़रें नीचे कर लेना मेरे मन में और भी ज़्यादा शक पैदा कर गया। मैं ये तो जानता था कि हवेली के नौकर और नौकरानियाँ मुझसे बेहद डरते थे किन्तु बिना वजह के इस तरह से तो बिलकुल भी नहीं।
उस नौकरानी की शक्ल अच्छे से देख कर मैं सीढ़ियों से ऊपर आ गया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। हवेली में कई ऐसे नौकर और नौकरानियाँ थी जिनके मैं नाम तक नहीं जानता था। जब से पिता जी ने नौकरानियों को मेरे कमरे में आने से शख़्त मना किया था तब से मेरा भी उनसे कोई वास्ता नहीं रहा था वरना तो आए दिन मैं हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे लेटा ही लेता था। अपनी हवस की आग को शांत करने के बाद मुझे उनसे कोई मतलब नहीं होता था। ख़ैर अभी जो नौकरानी चाची के पास खड़ी दिखी थी उस पर मेरा शक गहरा गया था और अब मैं अपने इस शक का समाधान करना चाहता था। अगर ये वही नौकरानी थी जो पिछली रात अँधेरे में अपनी छन छन करती पायल की आवाज़ के साथ नीचे भागती हुई गई थी तो मेरे लिए ये जानना बेहद ज़रूरी था कि वो उतनी रात को किसके कमरे में थी और क्या कर रही थी?
अपने कमरे में आ कर मैंने अपनी शर्ट उतारी और पंखा चालू कर के पलंग पर लेट गया। मैं सोच रहा था कि कल मुरारी काका की तेरहवीं हो जाने के बाद मैं हर उस चीज़ के बारे में गहराई से सोचूंगा और फिर उन सभी चीज़ों के बारे में जानने और सुलझाने की कोशिश शुरू करुंगा जिन चीज़ों की वजह से आज कल मेरी ज़िन्दगी झंड बनी हुई थी।
कुसुम चाय ले कर आई और पलंग पर ही मेरे पास बैठ गई। मैंने उसके हाथ से चाय का प्याला लिया और उसे मुँह से लगा कर उसकी एक चुस्की ली। कुसुम मेरी तरफ ही देख रही थी। मेरी नज़र जब उस पर पड़ी तो मैं हल्के से मुस्कुराया।
"अब तुझे क्या हुआ?" मैंने थोड़ा सा उठ कर पलंग की पिछली पुस्त से पीठ टिका कर कहा____"इस तरह मुँह क्यों लटका रखा है तूने? किसी ने कुछ कहा क्या?" "नहीं, किसी ने कुछ नहीं कहा भैया।" कुसुम ने कुछ सोचते हुए कहा____"लेकिन एक बात है जिसके बारे में सोच रही हूं कि आपको बताऊं कि नहीं?"
"अगर तुझे लगता है कि वो बात मुझे बताना तेरे लिए ज़रूरी है।" मैंने जैसे उसे समझाते हुए कहा____"तो बेझिझक हो कर बता दे। इसमें इतना सोचने की क्या बात है?" "सोचने की ही तो बात है भैया।" कुसुम ने बड़ी मासूमियत से कहा____"तभी तो सोच रही हूं।"
"तो फिर एक काम कर तू।" मैंने कहा____"और वो ये कि पहले तू दो चार दिन सोच ही ले, उसके बाद मुझे बता देना।" "अब और कितना सोचूं भैया?" कुसुम ने मानो झुंझला कर कहा____"जाने कब से तो सोच रही हूं मैं उस बात के बारे में। अब और नहीं सोचा जाता मुझसे।"
"चल अब मेरा भेजा मत खा।" मैंने चाय की एक और चुस्की लेने के बाद कहा____"जल्दी से बता कि ऐसी कौन सी बात है जिसके बारे में जाने कबसे तू इतना सोच रही है?" "पहले ये तो सुन लीजिए।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं सोच क्यों रही थी?"
"अच्छा ठीक है।" मैंने झुंझला कर कहा____"यही बता कि सोच क्यों रही थी तू?" "वो क्या है न कि।" कुसुम ने झिझकते हुए कहा____"जो बात मैं आपसे बताना चाहती थी वो ऐसी बात है कि मुझे आपसे बताने में शर्म आ रही है। इसी लिए तब से अब तक यही सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे...क्योंकि मुझे शर्म आएगी न।"
"तो क्या अब बताने में शर्म नहीं आएगी तुझे?" मैंने उसे घूरा। "अरे! ऐसे कैसे नहीं आएगी?" कुसुम ने अपना एक हाथ झटकते हुए कहा____"वो तो बहुत ज़्यादा आएगी भैया। इसी लिए तो इतने दिन से सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे?"
"मुझे तो लगता है कि।" मैंने कहा____"तू आज मेरे दिमाग़ का दही करने आई है। अरे! यार अगर तुझे कोई बात बतानी ही है तो बेझिझक बता दे न। फ़ालतू का मेरा समय क्यों बर्बाद कर रही है और मुझे परेशान क्यों कर रही है?"
"क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैला कर कहा____"मैं फ़ालतू की बात कर रही हूं और आपके दिमाग़ का दही कर रही हूं??? आप मेरे बारे में ऐसा कैसे बोल सकते हैं? जाइए मुझे कुछ नहीं बताना आपको।"
"हे भगवान!" मेरा मन किया कि मैं अपने बाल नोच लूं, किन्तु फिर ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े प्यार से कहा____"ग़लती हो गई मेरी प्यारी बहना। तू तो जानती है कि तेरा ये भाई बुद्धि से ज़रा पैदल है।"
"ख़बरदार।" मेरी बात पूरी होते ही कुसुम एक झटके में बोल पड़ी____"ख़बरदार जो आपने मेरे भैया को बुद्धि से पैदल कहा। अरे! मेरे भैया तो सबसे अच्छे हैं, मुझे अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं।"
"अगर ऐसा है।" मैंने गहरी सांस ली____"तो बता न मेरी प्यारी बहना कि वो कौन सी बात है जिसके बारे में तू इतने दिनों से सोचती आ रही है?" "पर भैया।" कुसुम ने बेबस भाव से कहा____"मैं वो बात आपको कैसे बताऊं? मुझे वो बात बताने में बहुत ज़्यादा शर्म आएगी। नहीं भैया नहीं, मैं वो बात आपको नहीं बता सकती।"
"तू रुक अभी बताता हूं तुझे।" मैंने चाय के प्याले को एक तरफ रखा और जैसे ही एक झटके से उसकी तरफ झपटा तो वो खिलखिला कर हंसती हुई कमरे से बाहर भाग गई, जबकि मैंने आगे का वाक्य मानो ख़ुद से ही कहा_____"इतनी देर से भेजा चाट रही है मेरा।"
कुसुम के जाने के बाद मैं वापस पलंग पर पहले की तरह पीठ टिका कर बैठ गया और ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि मेरी ये नटखट बहन कितनी सफाई से मेरा भेजा चाट कर चली गई है। ख़ैर चाय पीने के बाद मैं पलंग से नीचे उतरा और शर्ट पहन कर भाभी से मिलने के लिए कमरे से बाहर आ कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला।
लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए जैसे ही मैं भाभी के कमरे के सामने आया तो मेरी नज़र कमरे से बाहर निकल रही भाभी पर पड़ी। उन्हें कमरे से बाहर निकलते देख मैं रुक गया। उनकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी और अपने कमरे के बाहर मुझे देख कर वो रुक गईं थी। उनके खूबसूरत चेहरे पर पहले तो चौंकने के भाव उभरे फिर उनकी झील सी गहरी आँखों में सवालिया भाव नज़र आए मुझे।
"वैभव तुम??" फिर उन्होंने सामान्य भाव से कहा____"कहीं इस तरफ का रास्ता तो नहीं भटक गए?" "वो मैं आपसे मिलने आया था भाभी।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"असल में मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है। अगर आपके पास वक़्त हो तो...!"
"अपने देवर के लिए मेरे पास वक़्त ही वक़्त है वैभव।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"अन्दर आ जाओ।"
कहने के साथ ही भाभी वापस कमरे में चली गईं तो मैं भी चुप चाप कमरे में दाखिल हो गया। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही बढ़ गईं थी। मैं बहुत कोशिश करता था कि भाभी के सामने मैं सामान्य ही रहूं लेकिन पता नहीं क्यों उनके सामने आते ही मेरी धड़कनें थोड़ी तेज़ हो जाती थी और न चाहते हुए भी मैं उनके रूप सौंदर्य पर आकर्षित होने लगता था। ये अलग बात है कि इसके लिए बाद में मुझे बेहद पछतावा भी होता था।
"बैठो।" मैं अंदर आया तो भाभी ने कमरे में एक तरफ रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।
"अब बताओ।" मैं जैसे ही कुर्सी में बैठा तो भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए शांत भाव से कहा____"अपनी इस भाभी से ऐसी कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?" "असल में मुझे।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में आपसे कुछ पूछना था।"
"हां तो पूछो।" भाभी ने बड़ी बेबाकी से कहा तो मैं कुछ पलों तक उनके सुन्दर चेहरे की तरफ देखता रहा और फिर अपनी बढ़ चली धड़कनों को काबू करने का प्रयास करते हुए बोला____"होली वाले दिन बड़े भैया मुझसे बड़े ही अच्छे तरीके से मिले थे। यहाँ तक कि जब मैंने उनके पैर छुए थे तो उन्होंने खुश हो कर मुझे अपने गले से भी लगाया था। उसके बाद उन्होंने खुद उसी ख़ुशी में मुझे भांग वाला शरबत पिलाया था। उनके ऐसा करने से मैं भी बहुत खुश था लेकिन कल शाम को उनका वर्ताव ऐसा था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।"
"क्या हुआ था कल?" भाभी ने पूछा तो मैंने उन्हें कल शाम का सारा वाक्या विस्तार से बता दिया जिसे सुन कर उनके चेहरे पर वैसे भाव बिल्कुल भी नहीं उभरे जिसे आश्चर्य कहा जाता है। बल्कि मेरी बातें सुनने के बाद उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर गंभीर भाव से कहा____"पिछले कुछ समय से उनका वर्ताव ऐसा ही है वैभव। मुझे तो उनके ऐसे वर्ताव की आदत पड़ चुकी है किन्तु तुम्हारे लिए शायद ये नई बात होगी क्योंकि तुम तो हमेशा ही अपने में ही मस्त रहते थे। तुम्हें भला इस बात से कैसे कोई मतलब हो सकता था कि हवेली में रहने वाले तुम्हारे अपनों के बीच क्या चल रहा है या उनके हालात कैसे हैं? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं किसी को अपना दुःख नहीं दिखाती वैभव। जब से मुझे कुल गुरु के द्वारा ये पता चला है कि उनका जीवन काल बस कुछ ही समय का है तब से मैं इस कमरे में अकेले ही छुप कर अपने आँसू बहा लेती हूं। ईश्वर से हर वक़्त पूछती हूं कि उन्होंने ये कैसा इन्साफ किया है कि इतनी कम उम्र में मुझे विधवा बना देने का फैसला कर लिया है? आख़िर वो मुझे किस गुनाह की सज़ा देना चाहता है? अपनी समझ में तो मैंने ऐसा कोई गुनाह नहीं किया है जिसके लिए वो मेरे साथ ऐसा करे। दादा ठाकुर ने मुझे शख़्ती से मना किया था कि मैं उनके बारे में ये बातें हवेली में किसी को न बताऊं। मैं जानती हूं कि अपने बेटे के बारे में ये सब जान कर वो खुद भी अंदर से बेहद दुखी होंगे और शायद यही वजह है कि वो मौका देख कर मुझे इसके लिए समझाते रहते हैं। ईश्वर का खेल तो ईश्वर ही जानता है। वो जो भी करता है उसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होती है। दादा ठाकुर की इन्हीं बातों से खुद को तसल्ली देती रहती हूं। अब तो खुद को भी समझा लिया है कि इस बात के लिए रोने से भला क्या मिलेगा? इससे अच्छा तो ये है कि जिस ईश्वर ने ऐसा इंसाफ लिखा है उसी से उनकी ज़िन्दगी की भीख मांगू। क्या पता किसी दिन उस भगवान को मुझ पर तरस आ जाए।"
भाभी ये सब कहने के बाद सुबकने लगीं थी। उनका सुन्दर सा चेहरा एकदम से मलिन पड़ गया था। मैंने आज तक उन्हें बस मुस्कुराते हुए ही देखा था। मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि उन्होंने अपने अंदर इतना बड़ा दुःख दर्द दबा के रखा है। बिस्तर के किनारे पर बैठी सुबक रहीं भाभी को देख कर मेरे दिल में दर्द सा होने लगा। मेरा जी चाहा कि मैं पलक झपकते ही उनके पास जाऊं और उन्हें अपने सीने से छुपका लूं लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सका।
"भगवान के लिए ऐसे मत रोइए भाभी।" मुझसे रहा न गया तो मैंने आहत भाव से कहा____"मैं सच में बहुत शर्मिंदा हूं। आज तक मैं अपनी दुनिया में मस्त था। ये सच है कि आज तक मुझे अपने सिवा किसी से कोई मतलब नहीं था लेकिन अब मैं मतलब रखूंगा भाभी। आज मुझे अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा है कि मैंने आज तक जो कुछ किया वो मैंने क्यों किया? क्यों आज तक मैं अपनों से और अपनी ज़िम्मेदारियों से भागता रहा था? अगर मैंने ऐसा न किया होता तो आज हालात ऐसे न होते।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"तुम इस सबके लिए अपने आपको दोष मत दो। हां ये सच है कि तुम्हें अपनों का और अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़याल रखना चाहिए था लेकिन ये भी सच है कि जो कुछ भी होता है वो उस ऊपर वाले की मर्ज़ी से ही होता है। इस दुनिया में वही होता है वैभव जो सिर्फ ऊपर वाला चाहता है। उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। हम मामूली इंसान तो उसके हाथ की कठपुतली हैं।"
"मैं ये सब नहीं जानता भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मैं तो बस इतना समझ रहा हूं कि आज जैसे भी हालात बने हैं उन हालातों के लिए कहीं न कहीं मैं ख़ुद भी ज़िम्मेदार हूं। अपनी ख़ुशी के लिए मैंने हमेशा वही किया जिसने इस ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर ग्रहण लगाया। मैं बहुत बुरा हूं भाभी।"
"सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते वैभव।" भाभी बिस्तर से उतर कर मेरे पास आते हुए बोलीं____"मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें अपनी ग़लतियों का एहसास है और तुम अपनी ग़लतियों के लिए पछतावा कर रहे हो। मैं हमेशा यही कामना करती थी कि तुम सही रास्ते पर आ जाओ और अपने बिखर रहे परिवार को सम्हाल लो। आज ईश्वर ने शायद मेरी कामनाओं को पूरा कर दिया है। कोई इंसान ईश्वर के लेख को तो नहीं मिटा सकता लेकिन सब कुछ अच्छा करने का प्रयास तो कर ही सकता है। इस लिए मैं चाहती हूं कि अब से तुम वही करो जिससे ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर कोई आंच न आए। मैंने तो अपने उस दुःख को किसी तरह जज़्ब कर लिया है वैभव लेकिन माँ जी अपने बेटे के बारे में वो सब जान कर ख़ुद को सम्हाल नहीं पाएँगी। मैं नहीं चाहती कि किसी दिन ऐसा भी लम्हा आ जाए जो इस हवेली की दरो दीवार को हिला कर रख दे।"
"आप बहुत महान हैं भाभी।" मैंने श्रद्धा भाव से कहा____"इतने बड़े दुःख के बाद भी आप इस हवेली में रहने वालों और इस खानदान के बारे में इतना कुछ सोचती हैं। आप इतनी अच्छी कैसे हो सकती हैं भाभी? एक मैं हूं जो अपनी देवी सामान भाभी को देख कर अपनी नीयत ख़राब कर बैठता है। काश! वो ऊपर वाला बड़े भैया की जगह मेरे जीवन काल को समाप्त कर देता।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने जल्दी से आगे बढ़ कर मेरे सिर को अपने पेट के पास छुपकाते हुए कहा____"भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बस यही प्रार्थना करो कि किसी को भी कुछ न हो।"
भाभी की बात सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि भाभी के पेट से छुपका हुआ मैं बस यही सोच कर दुखी होता रहा कि काश मेरे भैया को मेरी उम्र लग जाए। कुछ देर बाद मैं भाभी से अलग हुआ। मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू तैर रहे थे। संसार भर की मासूमियत विद्यमान थी उस पाक़ चेहरे में।
"एक बात बताइए भाभी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भैया को अपने बारे में वो सब बातें कैसे पता हैं? क्या आपने उन्हें बताया है?" "वो असल में बात ये हुई थी।" भाभी ने कहा____"कि एक दिन दादा ठाकुर मुझे उन्हीं सब बातों के लिए समझा रहे थे तो तुम्हारे भैया ने सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने मुझसे उस बारे में पूछा था लेकिन मैंने जब उन्हें कुछ नहीं बताया तो उन्होंने अपनी कसम दे दी। उनकी कसम से मजबूर हो कर मुझे उन्हें सब कुछ बताना ही पड़ा।
Bhai ekdam must update lagta hai hero ab Sudhar gaya hai. bhai kusum Ke man me kya chal raha hai. Kuch to locha hai. Or mujhe lagta hai kusum bhi vibhav ko chahti hai.
Or wo kuch aise raaj janti hai jiska pata vaibhav ko hona chahiye. Kripya un par prakash daaliye.
☆ प्यार का सबूत ☆ अध्याय - 28 ----------☆☆☆----------
अब तक,,,,,,
कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
अब आगे,,,,,
शहर से जब मैं वापस लौटा तो दोपहर के तीन बज गए थे। मैं सीधा मुरारी काका के घर ही आ गया था। मैंने मोटर साइकिल घर के बाहर खड़ी की और जैसे ही दरवाज़े के पास पंहुचा तो दरवाज़ा खुला। सरोज काकी ने दरवाज़ा खोला था। मैं अंदर आया तो देखा आँगन में जगन अपने बीवी बच्चों के साथ ही बैठा था। मुझे देखते ही जगन खटिया से उठ गया और मुझे बैठने को कहा तो मैं बैठ गया।
जगन की बीवी और उसके बच्चे अंदर बरामदे में बैठे थे और सरोज काकी आँगन में। घर के दूसरी तरफ एक बड़ा सा पेड़ था जिसकी छांव आँगन में रहती थी। बड़ा सा आँगन था इस लिए हवा आती रहती थी वरना तो इस वक़्त धूप में आंगन में बैठना मुश्किल ही हो जाता। ख़ैर सरोज काकी ने मुझसे खाने पीने का पूछा तो मैंने उसे बताया कि मैंने शहर में ही खा लिया है किन्तु ठंडा पानी ज़रूर पियूंगा।
"और काका कैसी चल रही है तैयारी?" मैंने अपने पास ही दूसरी खटिया में बैठे जगन काका से पूछा_____"सारा सामान इकठ्ठा हो गया न या अभी और भी किसी चीज़ की कमी है?"
"ज़रुरत का मुख्य सामान तो हम कल ही शहर से ले आए थे।" जगन ने कहा____"अब सिर्फ राशन ही रह गया था तो हमने उसकी भी ब्यवस्था कर ली है। कुल मिला कर सारी ब्यवस्था हो गई है बेटा।"
"फिर भी अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बेझिझक मुझसे बोल देना।" मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाल कर जगन की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे हैं इन्हें रख लो। कल ब्राम्हणों को दान दक्षिणा देने के काम आएंगे।"
पैसा देख कर जगन मेरी तरफ देखने लगा था और यही हाल लगभग सबका ही था। मैंने ज़ोर दिया तो जगन ने वो पैसा ले लिया। कुछ देर और बैठ कर मैंने कल तेरहवीं से सम्बन्धित कुछ बातें की उसके बाद मैं सरोज काकी के घर से निकल कर उस तरफ चल पड़ा जहां पर मेरा नया मकान बन रहा था।
पेड़ की छांव में मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं मजदूरों के पास आ गया। मुझे देखते ही सबने बड़े अदब से मुझे सलाम किया। काफी सारे मजदूर और मिस्त्री थे इस लिए मकान का निर्माण कार्य बड़ी तेज़ी चल रहा था। कुछ मजदूर आस पास की सफाई करने में लगे हुए थे ताकि मकान के आस पास की ज़मीन साफ़ रहे। मकान से कुछ ही दूर कुएं की खुदाई चल रही थी। मैंने पास जा कर देखा तो पता चला कुआं काफी गहरा हो गया है और उसमे भरपूर पानी भी है, जिसकी वजह से अंदर कुएं को और ज़्यादा खोदने में परेशानी हो रही थी। कुएं में इतना पानी था कि उसे खाली करना अब किसी के भी बस में नहीं था। मजदूरों ने जब ये बात मुझे बताई तो मैंने उन्हें खोदने से मना कर दिया और ये कहा कि कुएं की दीवारों को पक्का कर दो।
मैं शहर एक ज़रूरी काम से गया था। असल में मैं एक काम गुप्त रूप से करवाना चाहता था। ख़ैर कुछ देर रुकने के बाद मैं गांव की तरफ चलने ही लगा था कि सामने से एक मोटर साइकिल में भुवन आता दिखा मुझे। मुझे देखते ही उसने सलाम किया। मैंने उससे उसका हाल चाल पूछा और बुलेट को चालू कर के हवेली की तरफ चल दिया।
शाम अभी हुई नहीं थी। रास्ते में जब मैं आया तो मुझे याद आया कि पिछले दिन इसी रास्ते पर किसी ने मुझे रस्से द्वारा सड़क पर गिराने की कोशिश की थी। इस बात के याद आते ही मैं एकदम से सतर्क हो गया। हालांकि दुबारा ऐसा कुछ मेरे साथ हुआ नहीं बल्कि मैं बड़े आराम से गांव में दाखिल हो गया।
मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। रजनी का ख़याल आते ही मेरे मन में उसके लिए गुस्सा और नफ़रत भरने लगी। मैं उसे उसके किए की सज़ा देना चाहता था किन्तु उसके लिए अभी मेरे पास वक़्त नहीं था। वैसे भी आज कल मैं ऐसी ऐसी मुसीबतों में फंसा हुआ था कि एक नई मुसीबत को अपने गले नहीं लगाना चाहता था। मुंशी के घर के सामने से गुज़र कर जब मैं साहूकारों के सामने आया तो ये देख कर चौंका कि घर के बड़े से दरवाज़े के पास रूपा खड़ी थी और एक छोटे से बच्चे से बात कर रही थी। बुलेट की तेज़ आवाज़ उसके कानों में पड़ी तो उसने गर्दन घुमा कर सड़क की तरफ देखा। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर अपलक मेरी तरफ देखने लगी।
मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार को एकदम से धीमा कर दिया और होठों पर मुस्कान सजा कर उसकी तरफ देखा तो उसके होठों पर भी मुस्कान उभर आई किन्तु अगले ही पल वो तब हड़बड़ा गई जब मैंने अचानक से उसे देखते हुए आँख मार दी थी। रूपा ने घबरा कर इधर उधर देखा। इस वक़्त घर के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन किया कि मैं रूपा को अपने पास बुलाऊं किन्तु अगले ही पल मैंने अपना ये इरादा बदल दिया। मुझे अंदेशा था कि बुलेट की तेज़ आवाज़ घर के अंदर मौजूद बाकी लोगों के कानों में भी पहुंच गई होगी। रूपचंद्र अगर अंदर होगा तो वो फ़ौरन समझ जाएगा कि बुलेट में मैं ही होऊंगा।
मैंने रूपा को इशारा किया तो उसने चौंक कर पहले उस छोटे से बच्चे की तरफ देखा और फिर इधर उधर देखने के बाद मेरी तरफ देखते हुए इशारे से ही पूछा कि क्या है? वो छोटा सा बच्चा भी मेरी तरफ ही देख रहा था। मैंने रूपा को इशारे से ही कल मंदिर में मिलने के लिए कहा तो उसने झट से अपना सिर इंकार में ज़ोर ज़ोर से हिलाया। ये देख कर मैंने उसे आँखें दिखाई तो वो बेबस भाव से मुझे देखने लगी। मुझे उसकी बेबसी और मासूमियत पर बेहद तरस आया किन्तु मेरा उससे मिलना बेहद ज़रूरी था इस लिए मैंने इस बार उससे अनुरोध किया। मेरे अनुरोध पर उसने कुछ पल सोचा और फिर हां में सिर हिला दिया। रूपा जब मंदिर में मिलने के लिए राज़ी हो गई तो मैंने मुस्कुराते हुए मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया।
एक मुद्दत हो गई थी रूपा से मिले हुए और उसे प्यार किए हुए। पहले के और अब के हालात में बहुत ज़्यादा अंतर हो गया था। अब साहूकारों से हमारे रिश्ते सुधर चुके थे इस लिए मैं अपनी तरफ से ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता था और ना ही करना चाहता था जिसकी वजह से मेरी छवि फिर से बिगड़ जाए। ख़ैर रूपा के बारे में सोचते हुए मैं हवेली में दाखिल हुआ। मोटर साइकिल एक तरफ खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा। जैसा कि मैंने बताया था कि हवेली के बाहर बहुत बड़ा हरा भरा मैदान था जिसके एक छोर पर कई सारी जीपें और दूसरे छोर पर बग्घी और मोटर साइकिल वग़ैरा खड़ी रहतीं थी। मुख्य दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो देखा जगताप चाचा जी जीप में बैठ कर कहीं जाने को तैयार थे। वो मेरी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराए और फिर जीप को हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा दिया।
हवेली के अंदर आया तो मेरे ज़हन में बड़े भैया का ख़याल आ गया। मैं एक बार फिर से सोचने लगा कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि उन्होंने मुझसे इतने गुस्से में बात की थी जबकि होली के दिन वो मुझसे बड़े प्यार से और बड़ी ख़ुशी से बात कर रहे थे। होली के दिन उनका वर्ताव वैसा ही था जैसे के हमारा भरत मिलाप हुआ था किन्तु पिछले दिन का उनका वर्ताव मेरे लिए एकदम उम्मीद से परे था। बड़े भैया के उस वर्ताव की असल वजह को जानने के लिए मेरा भाभी से मिलना ज़रूरी था।
अंदर आया तो सबसे पहले मेरी मुलाक़ात कुसुम से हुई। मैंने उससे भाभी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो अपने कमरे में हैं। मैंने कुसुम से बड़े भैया के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो विभोर और अजीत के साथ जीप से कहीं गए हुए हैं। कुसुम की बात सुन कर मैंने सोचा भाभी से मिल कर बात करने का ये बढ़िया मौका है। ये सोच कर मैंने कुसुम से कहा कि बढ़िया गरम गरम चाय मेरे कमरे में ले कर आ।
आंगन से होते हुए जब मैं दूसरे छोर पर आया तो मेरी नज़र मेनका चाची पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ बात कर रहीं थी। नौकरानी की उम्र यही कोई तीस के आस पास थी। थोड़ी सांवली थी किन्तु जिस्म काफी कसा हुआ दिख रहा था। घागरा चोली पहने हुए थी वो। चोली में कैद उसकी भारी भरकम चूचियां ऐसी प्रतीत हो रहीं थी जैसे चोली को फाड़ कर बाहर ही आ जाएंगी। मैं जब थोड़ा क़रीब पंहुचा तो अनायास ही मेरी नज़र उसके नंगे पेट से नीचे फिसल कर उसके घाघरे में छुपे चौड़े कूल्हों से होते हुए नंगी टांगों पर और फिर पैरों पर आ कर ठहर गई। अपने पैरों में चांदी की मामूली सी पायल पहने थी वो किन्तु वो पायल वैसी ही थी जो चलने पर छन छन की आवाज़ करती थी। मेरे ज़हन में एकदम से विचार कौंधा कि क्या पिछली रात यही थी जो सीढ़ियों से उतर कर भागते हुए ऊपर से नीचे आई थी और जिसके पीछे मैं भी भागता हुआ आया था?
चाची के पास पंहुचा तो चाची ने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा। उस नौकरानी ने जब मुझे देखा तो उसने घबरा कर जल्दी से अपनी नज़रें नीचे कर ली। उसका घबरा कर इस तरह से अपनी नज़रें नीचे कर लेना मेरे मन में और भी ज़्यादा शक पैदा कर गया। मैं ये तो जानता था कि हवेली के नौकर और नौकरानियाँ मुझसे बेहद डरते थे किन्तु बिना वजह के इस तरह से तो बिलकुल भी नहीं।
उस नौकरानी की शक्ल अच्छे से देख कर मैं सीढ़ियों से ऊपर आ गया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। हवेली में कई ऐसे नौकर और नौकरानियाँ थी जिनके मैं नाम तक नहीं जानता था। जब से पिता जी ने नौकरानियों को मेरे कमरे में आने से शख़्त मना किया था तब से मेरा भी उनसे कोई वास्ता नहीं रहा था वरना तो आए दिन मैं हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे लेटा ही लेता था। अपनी हवस की आग को शांत करने के बाद मुझे उनसे कोई मतलब नहीं होता था। ख़ैर अभी जो नौकरानी चाची के पास खड़ी दिखी थी उस पर मेरा शक गहरा गया था और अब मैं अपने इस शक का समाधान करना चाहता था। अगर ये वही नौकरानी थी जो पिछली रात अँधेरे में अपनी छन छन करती पायल की आवाज़ के साथ नीचे भागती हुई गई थी तो मेरे लिए ये जानना बेहद ज़रूरी था कि वो उतनी रात को किसके कमरे में थी और क्या कर रही थी?
अपने कमरे में आ कर मैंने अपनी शर्ट उतारी और पंखा चालू कर के पलंग पर लेट गया। मैं सोच रहा था कि कल मुरारी काका की तेरहवीं हो जाने के बाद मैं हर उस चीज़ के बारे में गहराई से सोचूंगा और फिर उन सभी चीज़ों के बारे में जानने और सुलझाने की कोशिश शुरू करुंगा जिन चीज़ों की वजह से आज कल मेरी ज़िन्दगी झंड बनी हुई थी।
कुसुम चाय ले कर आई और पलंग पर ही मेरे पास बैठ गई। मैंने उसके हाथ से चाय का प्याला लिया और उसे मुँह से लगा कर उसकी एक चुस्की ली। कुसुम मेरी तरफ ही देख रही थी। मेरी नज़र जब उस पर पड़ी तो मैं हल्के से मुस्कुराया।
"अब तुझे क्या हुआ?" मैंने थोड़ा सा उठ कर पलंग की पिछली पुस्त से पीठ टिका कर कहा____"इस तरह मुँह क्यों लटका रखा है तूने? किसी ने कुछ कहा क्या?" "नहीं, किसी ने कुछ नहीं कहा भैया।" कुसुम ने कुछ सोचते हुए कहा____"लेकिन एक बात है जिसके बारे में सोच रही हूं कि आपको बताऊं कि नहीं?"
"अगर तुझे लगता है कि वो बात मुझे बताना तेरे लिए ज़रूरी है।" मैंने जैसे उसे समझाते हुए कहा____"तो बेझिझक हो कर बता दे। इसमें इतना सोचने की क्या बात है?" "सोचने की ही तो बात है भैया।" कुसुम ने बड़ी मासूमियत से कहा____"तभी तो सोच रही हूं।"
"तो फिर एक काम कर तू।" मैंने कहा____"और वो ये कि पहले तू दो चार दिन सोच ही ले, उसके बाद मुझे बता देना।" "अब और कितना सोचूं भैया?" कुसुम ने मानो झुंझला कर कहा____"जाने कब से तो सोच रही हूं मैं उस बात के बारे में। अब और नहीं सोचा जाता मुझसे।"
"चल अब मेरा भेजा मत खा।" मैंने चाय की एक और चुस्की लेने के बाद कहा____"जल्दी से बता कि ऐसी कौन सी बात है जिसके बारे में जाने कबसे तू इतना सोच रही है?" "पहले ये तो सुन लीजिए।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं सोच क्यों रही थी?"
"अच्छा ठीक है।" मैंने झुंझला कर कहा____"यही बता कि सोच क्यों रही थी तू?" "वो क्या है न कि।" कुसुम ने झिझकते हुए कहा____"जो बात मैं आपसे बताना चाहती थी वो ऐसी बात है कि मुझे आपसे बताने में शर्म आ रही है। इसी लिए तब से अब तक यही सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे...क्योंकि मुझे शर्म आएगी न।"
"तो क्या अब बताने में शर्म नहीं आएगी तुझे?" मैंने उसे घूरा। "अरे! ऐसे कैसे नहीं आएगी?" कुसुम ने अपना एक हाथ झटकते हुए कहा____"वो तो बहुत ज़्यादा आएगी भैया। इसी लिए तो इतने दिन से सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे?"
"मुझे तो लगता है कि।" मैंने कहा____"तू आज मेरे दिमाग़ का दही करने आई है। अरे! यार अगर तुझे कोई बात बतानी ही है तो बेझिझक बता दे न। फ़ालतू का मेरा समय क्यों बर्बाद कर रही है और मुझे परेशान क्यों कर रही है?"
"क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैला कर कहा____"मैं फ़ालतू की बात कर रही हूं और आपके दिमाग़ का दही कर रही हूं??? आप मेरे बारे में ऐसा कैसे बोल सकते हैं? जाइए मुझे कुछ नहीं बताना आपको।"
"हे भगवान!" मेरा मन किया कि मैं अपने बाल नोच लूं, किन्तु फिर ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े प्यार से कहा____"ग़लती हो गई मेरी प्यारी बहना। तू तो जानती है कि तेरा ये भाई बुद्धि से ज़रा पैदल है।"
"ख़बरदार।" मेरी बात पूरी होते ही कुसुम एक झटके में बोल पड़ी____"ख़बरदार जो आपने मेरे भैया को बुद्धि से पैदल कहा। अरे! मेरे भैया तो सबसे अच्छे हैं, मुझे अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं।"
"अगर ऐसा है।" मैंने गहरी सांस ली____"तो बता न मेरी प्यारी बहना कि वो कौन सी बात है जिसके बारे में तू इतने दिनों से सोचती आ रही है?" "पर भैया।" कुसुम ने बेबस भाव से कहा____"मैं वो बात आपको कैसे बताऊं? मुझे वो बात बताने में बहुत ज़्यादा शर्म आएगी। नहीं भैया नहीं, मैं वो बात आपको नहीं बता सकती।"
"तू रुक अभी बताता हूं तुझे।" मैंने चाय के प्याले को एक तरफ रखा और जैसे ही एक झटके से उसकी तरफ झपटा तो वो खिलखिला कर हंसती हुई कमरे से बाहर भाग गई, जबकि मैंने आगे का वाक्य मानो ख़ुद से ही कहा_____"इतनी देर से भेजा चाट रही है मेरा।"
कुसुम के जाने के बाद मैं वापस पलंग पर पहले की तरह पीठ टिका कर बैठ गया और ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि मेरी ये नटखट बहन कितनी सफाई से मेरा भेजा चाट कर चली गई है। ख़ैर चाय पीने के बाद मैं पलंग से नीचे उतरा और शर्ट पहन कर भाभी से मिलने के लिए कमरे से बाहर आ कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला।
लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए जैसे ही मैं भाभी के कमरे के सामने आया तो मेरी नज़र कमरे से बाहर निकल रही भाभी पर पड़ी। उन्हें कमरे से बाहर निकलते देख मैं रुक गया। उनकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी और अपने कमरे के बाहर मुझे देख कर वो रुक गईं थी। उनके खूबसूरत चेहरे पर पहले तो चौंकने के भाव उभरे फिर उनकी झील सी गहरी आँखों में सवालिया भाव नज़र आए मुझे।
"वैभव तुम??" फिर उन्होंने सामान्य भाव से कहा____"कहीं इस तरफ का रास्ता तो नहीं भटक गए?" "वो मैं आपसे मिलने आया था भाभी।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"असल में मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है। अगर आपके पास वक़्त हो तो...!"
"अपने देवर के लिए मेरे पास वक़्त ही वक़्त है वैभव।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"अन्दर आ जाओ।"
कहने के साथ ही भाभी वापस कमरे में चली गईं तो मैं भी चुप चाप कमरे में दाखिल हो गया। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही बढ़ गईं थी। मैं बहुत कोशिश करता था कि भाभी के सामने मैं सामान्य ही रहूं लेकिन पता नहीं क्यों उनके सामने आते ही मेरी धड़कनें थोड़ी तेज़ हो जाती थी और न चाहते हुए भी मैं उनके रूप सौंदर्य पर आकर्षित होने लगता था। ये अलग बात है कि इसके लिए बाद में मुझे बेहद पछतावा भी होता था।
"बैठो।" मैं अंदर आया तो भाभी ने कमरे में एक तरफ रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।
"अब बताओ।" मैं जैसे ही कुर्सी में बैठा तो भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए शांत भाव से कहा____"अपनी इस भाभी से ऐसी कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?" "असल में मुझे।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में आपसे कुछ पूछना था।"
"हां तो पूछो।" भाभी ने बड़ी बेबाकी से कहा तो मैं कुछ पलों तक उनके सुन्दर चेहरे की तरफ देखता रहा और फिर अपनी बढ़ चली धड़कनों को काबू करने का प्रयास करते हुए बोला____"होली वाले दिन बड़े भैया मुझसे बड़े ही अच्छे तरीके से मिले थे। यहाँ तक कि जब मैंने उनके पैर छुए थे तो उन्होंने खुश हो कर मुझे अपने गले से भी लगाया था। उसके बाद उन्होंने खुद उसी ख़ुशी में मुझे भांग वाला शरबत पिलाया था। उनके ऐसा करने से मैं भी बहुत खुश था लेकिन कल शाम को उनका वर्ताव ऐसा था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।"
"क्या हुआ था कल?" भाभी ने पूछा तो मैंने उन्हें कल शाम का सारा वाक्या विस्तार से बता दिया जिसे सुन कर उनके चेहरे पर वैसे भाव बिल्कुल भी नहीं उभरे जिसे आश्चर्य कहा जाता है। बल्कि मेरी बातें सुनने के बाद उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर गंभीर भाव से कहा____"पिछले कुछ समय से उनका वर्ताव ऐसा ही है वैभव। मुझे तो उनके ऐसे वर्ताव की आदत पड़ चुकी है किन्तु तुम्हारे लिए शायद ये नई बात होगी क्योंकि तुम तो हमेशा ही अपने में ही मस्त रहते थे। तुम्हें भला इस बात से कैसे कोई मतलब हो सकता था कि हवेली में रहने वाले तुम्हारे अपनों के बीच क्या चल रहा है या उनके हालात कैसे हैं? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं किसी को अपना दुःख नहीं दिखाती वैभव। जब से मुझे कुल गुरु के द्वारा ये पता चला है कि उनका जीवन काल बस कुछ ही समय का है तब से मैं इस कमरे में अकेले ही छुप कर अपने आँसू बहा लेती हूं। ईश्वर से हर वक़्त पूछती हूं कि उन्होंने ये कैसा इन्साफ किया है कि इतनी कम उम्र में मुझे विधवा बना देने का फैसला कर लिया है? आख़िर वो मुझे किस गुनाह की सज़ा देना चाहता है? अपनी समझ में तो मैंने ऐसा कोई गुनाह नहीं किया है जिसके लिए वो मेरे साथ ऐसा करे। दादा ठाकुर ने मुझे शख़्ती से मना किया था कि मैं उनके बारे में ये बातें हवेली में किसी को न बताऊं। मैं जानती हूं कि अपने बेटे के बारे में ये सब जान कर वो खुद भी अंदर से बेहद दुखी होंगे और शायद यही वजह है कि वो मौका देख कर मुझे इसके लिए समझाते रहते हैं। ईश्वर का खेल तो ईश्वर ही जानता है। वो जो भी करता है उसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होती है। दादा ठाकुर की इन्हीं बातों से खुद को तसल्ली देती रहती हूं। अब तो खुद को भी समझा लिया है कि इस बात के लिए रोने से भला क्या मिलेगा? इससे अच्छा तो ये है कि जिस ईश्वर ने ऐसा इंसाफ लिखा है उसी से उनकी ज़िन्दगी की भीख मांगू। क्या पता किसी दिन उस भगवान को मुझ पर तरस आ जाए।"
भाभी ये सब कहने के बाद सुबकने लगीं थी। उनका सुन्दर सा चेहरा एकदम से मलिन पड़ गया था। मैंने आज तक उन्हें बस मुस्कुराते हुए ही देखा था। मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि उन्होंने अपने अंदर इतना बड़ा दुःख दर्द दबा के रखा है। बिस्तर के किनारे पर बैठी सुबक रहीं भाभी को देख कर मेरे दिल में दर्द सा होने लगा। मेरा जी चाहा कि मैं पलक झपकते ही उनके पास जाऊं और उन्हें अपने सीने से छुपका लूं लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सका।
"भगवान के लिए ऐसे मत रोइए भाभी।" मुझसे रहा न गया तो मैंने आहत भाव से कहा____"मैं सच में बहुत शर्मिंदा हूं। आज तक मैं अपनी दुनिया में मस्त था। ये सच है कि आज तक मुझे अपने सिवा किसी से कोई मतलब नहीं था लेकिन अब मैं मतलब रखूंगा भाभी। आज मुझे अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा है कि मैंने आज तक जो कुछ किया वो मैंने क्यों किया? क्यों आज तक मैं अपनों से और अपनी ज़िम्मेदारियों से भागता रहा था? अगर मैंने ऐसा न किया होता तो आज हालात ऐसे न होते।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"तुम इस सबके लिए अपने आपको दोष मत दो। हां ये सच है कि तुम्हें अपनों का और अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़याल रखना चाहिए था लेकिन ये भी सच है कि जो कुछ भी होता है वो उस ऊपर वाले की मर्ज़ी से ही होता है। इस दुनिया में वही होता है वैभव जो सिर्फ ऊपर वाला चाहता है। उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। हम मामूली इंसान तो उसके हाथ की कठपुतली हैं।"
"मैं ये सब नहीं जानता भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मैं तो बस इतना समझ रहा हूं कि आज जैसे भी हालात बने हैं उन हालातों के लिए कहीं न कहीं मैं ख़ुद भी ज़िम्मेदार हूं। अपनी ख़ुशी के लिए मैंने हमेशा वही किया जिसने इस ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर ग्रहण लगाया। मैं बहुत बुरा हूं भाभी।"
"सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते वैभव।" भाभी बिस्तर से उतर कर मेरे पास आते हुए बोलीं____"मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें अपनी ग़लतियों का एहसास है और तुम अपनी ग़लतियों के लिए पछतावा कर रहे हो। मैं हमेशा यही कामना करती थी कि तुम सही रास्ते पर आ जाओ और अपने बिखर रहे परिवार को सम्हाल लो। आज ईश्वर ने शायद मेरी कामनाओं को पूरा कर दिया है। कोई इंसान ईश्वर के लेख को तो नहीं मिटा सकता लेकिन सब कुछ अच्छा करने का प्रयास तो कर ही सकता है। इस लिए मैं चाहती हूं कि अब से तुम वही करो जिससे ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर कोई आंच न आए। मैंने तो अपने उस दुःख को किसी तरह जज़्ब कर लिया है वैभव लेकिन माँ जी अपने बेटे के बारे में वो सब जान कर ख़ुद को सम्हाल नहीं पाएँगी। मैं नहीं चाहती कि किसी दिन ऐसा भी लम्हा आ जाए जो इस हवेली की दरो दीवार को हिला कर रख दे।"
"आप बहुत महान हैं भाभी।" मैंने श्रद्धा भाव से कहा____"इतने बड़े दुःख के बाद भी आप इस हवेली में रहने वालों और इस खानदान के बारे में इतना कुछ सोचती हैं। आप इतनी अच्छी कैसे हो सकती हैं भाभी? एक मैं हूं जो अपनी देवी सामान भाभी को देख कर अपनी नीयत ख़राब कर बैठता है। काश! वो ऊपर वाला बड़े भैया की जगह मेरे जीवन काल को समाप्त कर देता।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने जल्दी से आगे बढ़ कर मेरे सिर को अपने पेट के पास छुपकाते हुए कहा____"भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बस यही प्रार्थना करो कि किसी को भी कुछ न हो।"
भाभी की बात सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि भाभी के पेट से छुपका हुआ मैं बस यही सोच कर दुखी होता रहा कि काश मेरे भैया को मेरी उम्र लग जाए। कुछ देर बाद मैं भाभी से अलग हुआ। मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू तैर रहे थे। संसार भर की मासूमियत विद्यमान थी उस पाक़ चेहरे में।
"एक बात बताइए भाभी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भैया को अपने बारे में वो सब बातें कैसे पता हैं? क्या आपने उन्हें बताया है?" "वो असल में बात ये हुई थी।" भाभी ने कहा____"कि एक दिन दादा ठाकुर मुझे उन्हीं सब बातों के लिए समझा रहे थे तो तुम्हारे भैया ने सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने मुझसे उस बारे में पूछा था लेकिन मैंने जब उन्हें कुछ नहीं बताया तो उन्होंने अपनी कसम दे दी। उनकी कसम से मजबूर हो कर मुझे उन्हें सब कुछ बताना ही पड़ा।