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Shukriya bhai,,,,,Awesome update bro
Shukriya bhai,,,,,Awesome update bro
galat matlab nahi tha ...dada thakur ki jagah koi best hona chahiye aur shayad vaibhav ka bhai mard ki kabiliyat ha rakhta ho ...( ye bhi 1 reason hai ) .
To bhabhi ka connection aise jod rahe ho???
Bhai aaj aapne daswa update de diya hai. Apne commitment ke anusar mujhe kuchh vistrit pratikriya deni chahiye lekin mere hisab se kahani ab banani suru hui hai aur main apne gaon ki aur prasthan kar gaya hun.☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 10
----------☆☆☆---------
अब तक,,,,,
"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।
अब आगे,,,,,
अपने कमरे में आ कर मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया था। मेरे ज़हन में भाभी की बातें गूँज रहीं थी। भाभी ने आज पहली बार मुझसे ऐसी बातें की थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था कि मुझमे ठाकुरों वाली बात है और मैं पिता जी के बाद उनकी जगह सम्हाल सकता था? पिता जी के बाद उनकी जगह सिर्फ मेरा बड़ा भाई ही ले सकता था जबकि भाभी ने इस बारे में कोई बात ही नहीं की थी बल्कि उन्होंने तो साफ लफ्ज़ों में यही कहा था कि पिता जी के बाद मैं ही उनकी जगह ले सकता हूं। आख़िर ऐसा क्यों कहा होगा भाभी ने? उनके मन में भाई के लिए ऐसी बात क्यों नहीं थी?
काफी देर तक मैं इन सब बातों के बारे में सोचता रहा। इस बीच मेरे ज़हन से सरोज काकी और अनुराधा का ख़याल जाने कब का गायब हो चुका था। ख़ैर रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैंने उससे पूछा कि खाना खाने के लिए कौन कौन हैं नीचे तो उसने बताया कि बड़े भैया विभोर और अजीत अपने दोस्त के यहाँ से खा के ही आये हैं इस लिए वो अपने अपने कमरे में ही हैं। पिता जी और चाचा जी अभी हवेली नहीं लौटे हैं। कुसुम की बात सुन कर मैं उसके साथ ही नीचे आ गया। कुसुम से ही मुझे पता चला था कि बड़े भैया लोग आधा घंटा पहले आए थे। मैं ये सोच रहा था कि मेरा बड़ा भाई तो चलो ठीक है नहीं आया मुझसे मिलने लेकिन विभोर और अजीत तो मुझसे मिलने आ ही सकते थे। आख़िर मैं उन दोनों से बड़ा था।
मैंने एकदम से महसूस किया कि मैं अपने ही घर में अपनों के ही बीच अजनबी सा महसूस कर रहा हूं। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि इस घर का बेटा चार महीने बाद भारी कष्ट सह के हवेली लौटा था और जिसके स्वागत के लिए हवेली के हर सदस्य को पूरे मन से तत्पर हो जाना चाहिए था। इसका मतलब तो यही हुआ कि मेरे यहाँ लौटने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। मुझे ज़रा सा भी महसूस नहीं हो रहा था कि मेरे यहाँ आने से किसी को कोई ख़ुशी हुई है। माँ तो चलो माँ ही थी और मैं ये नहीं कहता कि उन्हें मेरे लौटने से ख़ुशी नहीं हुई थी किन्तु बाकी लोगों का क्या? ये सब सोचते ही मेरे तन बदन में जैसे आग लग गई। बड़ी बड़ी बातें करने वाले वो कौन लोग थे जो मुझे लेने के लिए मेरे पास आए थे?
खाने के लिए मैं आसन पर बैठ चुका था किन्तु ये सब सोचने के बाद मेरे अंदर फिर से आग भड़क चुकी थी और मेरा मन कर रहा था कि अभी के अभी किसी का खून कर दूं। मैं एक झटके में आसन से उठ गया। माँ थोड़ी ही दूरी पर कुर्सी में बैठी हुईं थी जबकि कुसुम और भाभी रसोई में थीं। मैं जैसे ही झटके से उठ गया तो माँ ने चौंक कर देखा मेरी तरफ।
"क्या हुआ बेटा?" फिर उन्होंने पूछा____"तू ऐसे उठ क्यों गया?"
"मेरा पेट भर गया है मां।" मैंने शख़्त भाव से किन्तु अपने गुस्से को काबू करते हुए कहा____"और आपको मेरी कसम है कि मुझसे खाने के लिए मत कहियेगा और ना ही मुझसे किसी तरह का सवाल करियेगा।"
"पर बेटा हुआ क्या है?" माँ के चेहरे पर घनघोर आश्चर्य जैसे ताण्डव करने लगा था।
"जल्दी ही आपको पता चल जाएगा।" मैंने कहा और सीढिया चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
मेरे जाने के बाद कुर्सी पर बैठी माँ जैसे भौचक्की सी रह गईं थी। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया था कि अचानक से मुझे क्या हो गया था जिसके चलते मैं बिना खाए ही अपने कमरे में चला गया था। मेरी और माँ की बातें रसोई के अंदर मौजूद चाची के साथ साथ भाभी और कुसुम ने भी सुनी थी और वो सब फ़ौरन ही रसोई से भाग कर इस तरफ आ गईं थी।
"अरे! वैभव कहां गया दीदी?" मेनका चाची ने हैरानी से पूछा।
"वो अपने कमरे में चला गया है।" माँ ने कहीं खोए हुए भाव से कहा____"मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अचानक से उसे हुआ क्या था जिसकी वजह से वो उठ कर इस तरह चला गया और मुझे अपनी कसम दे कर ये भी कह गया कि मैं उसे खाने के लिए न कहूं और ना ही उससे कोई सवाल करूं।"
"बड़ी अजीब बात है।" चाची ने हैरानी से कहा____"पर मुझे लगता है कुछ तो बात ज़रूर हुई है दीदी। वैभव बिना किसी वजह के इस तरह नहीं जा सकता।"
"कुसुम तू जा कर देख ज़रा।" माँ ने कुसुम से कहा____"तू उससे पूछ कि वो इस तरह क्यों बिना खाए चला गया है? वो तेरी बात नहीं टालेगा इस लिए जा कर पूछ उससे।"
"ठीक है बड़ी मां।" कुसुम ने कहा____"मैं भैया से बात करती हूं इस बारे में।"
कुसुम कुछ ही देर में मेरे कमरे में आ गई। मैं बिस्तर पर आँखे बंद किये लेटा हुआ था और अपने अंदर भड़कते हुए भयंकर गुस्से को सम्हालने की कोशिश कर रहा था।
कुसुम मेरे पास आ कर बिस्तर में ही किनारे पर बैठ गई। इस वक़्त मेरे अंदर भयानक गुस्सा जैसे उबाल मार रहा था और मैं नहीं चाहता था कि मेरे इस गुस्से का शिकार कुसुम हो जाए।
"तू यहाँ से जा कुसुम।" मैंने शख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।"
"मैं इतना तो समझ गई हूं भैया कि आप किसी वजह से बेहद गुस्सा हो गए हैं।" कुसुम ने शांत लहजे में कहा___"किन्तु मैं ये नहीं जानती कि आप किस वजह से इतना गुस्सा हो गए कि बिना कुछ खाए ही यहाँ चले आए? भला खाने से क्या नाराज़गी भैया?"
"मैंने तुझसे कहा न कि इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।" मैंने इस बार उसे गुस्से से देखते हुए कहा____"एक बार में तुझे कोई बात समझ में नहीं आती क्या?"
"हां नहीं आती समझ में।" कुसुम ने रुआंसे भाव से कहा____"आप भी बाकी भाइयों की तरह मुझे डांटिए और मुझ पर गुस्सा कीजिए। आप सबको तो मुझे ही डांटने में मज़ा आता है ना। जाइए नहीं बात करना अब आपसे।"
कुसुम ये सब कहने के साथ ही सिसकने लगी और चेहरा दूसरी तरफ कर के मेरी तरफ अपनी पीठ कर ली। उसके इस तरह पीछा कर लेने से और सिसकने से मेरा गुस्सा ठंडा पड़ने लगा। मैं जानता था कि मेरे द्वारा उस पर इस तरह गुस्सा करने से उसे दुःख और अपमान लगा था जिसकी वजह से वो सिसकने लगी थी। दुःख और अपमान इस लिए भी लगा था क्योंकि मैं कभी भी उस पर गुस्सा नहीं करता था बल्कि हमेशा उससे प्यार से ही बात करता था।
"इधर आ।" फिर मैंने नरम लहजे में उसे पुकारते हुए कहा तो उसने मेरी तरफ पलट कर देखा। मैंने अपनी बाहें फैला दी थी जिससे उसने पहले अपने दुपट्टे से अपने आँसू पोंछे और फिर खिसक कर मेरे पास आ कर मेरी बाहों में समा गई।
"आप बहुत गंदे हैं।" उसने मेरे सीने से लगे हुए ही कहा____"मैं तो यही समझती थी कि आप बाकियों से अच्छे हैं जो मुझ पर कभी भी गुस्सा नहीं कर सकते।"
"चल अब माफ़ कर दे ना मुझे।" मैंने उसके सिर पर हांथ फेरते हुए कहा____"और तुझे भी तो समझना चाहिए था न कि मैं उस वक़्त गुस्से में था।"
"आप चाहे जितने गुस्से में रहिए।" कुसुम ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मगर आप मुझ पर गुस्सा नहीं कर सकते। ख़ैर छोड़िये और ये बताइए कि किस बात पर इतना गुस्सा हो गए थे आप?"
"ये हवेली और इस हवेली में रहने वाले लोग मुझे अपना नहीं समझते कुसुम।" मैंने भारी मन से कहा____"मैं ये मानता हूं कि मैंने आज तक हमेशा वही किया है जो मेरे मन ने कहा और जो मैंने चाहा मगर मेरी ग़लतियों के लिए मुझे घर गांव से ही निष्कासित कर दिया गया। मैंने चार महीने न जाने कैसे कैसे दुःख सहे। इन चार महीनों में मुझे ज़िन्दगी के असल मायने पता चले और मैं बहुत हद तक सुधर भी गया। सोचा था कि अब वैसा नहीं रहूंगा जैसा पहले हुआ करता था मगर शायद मेरे नसीब में अच्छा बनना लिखा ही नहीं है कुसुम।"
"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" कुसुम ने लरज़ते हुए स्वर में कहा___"मेरी नज़र में तो आप हमेशा से ही अच्छे थे। कम से कम आप ऐसे तो थे कि जो भी करते थे उसका पता सबको चलता था मगर कुछ लोग तो ऐसे भी हैं भैया जो ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरों को भनक तक नहीं लगती और मज़ेदार बात ये कि उस काम को भी वो लोग गुनाह नहीं समझते।"
"ये क्या कह रही है तू?" मैंने चौंक कर कुसुम की तरफ देखा। कुसुम मेरे सीने पर ही छुपकी हुई थी और उसके सीने का एक ठोस उभार मेरे बाएं सीने पर धंसा हुआ था। हालांकि मेरे ज़हन में उसके प्रति कोई ग़लत भावना नहीं थी। मैं तो इस वक़्त उसकी इन बातों पर चौंक गया था। उधर मेरे पूछने पर कुसुम ऐसे हड़बड़ाई थी जैसे अचानक ही उसे याद आया हो कि ये उसने क्या कह दिया है मुझसे।
"कुछ भी तो नहीं।" फिर उसने मेरे सीने से उठ कर बात को बदलते हुए कहा____"वो मैं तो दुनियां वालों की बात कर रही थी भइया। इस दुनियां में ऐसे भी तो लोग हैं ना जो गुनाह तो करते हैं मगर सबसे छुपा कर और सबकी नज़र में अच्छे बने रहते हैं।"
"तू मुझसे कुछ छुपा रही है?" मैंने कुसुम के चेहरे पर ग़ौर से देखते हुए कहा____"मुझे सच सच बता कुसुम कि तू किसकी बात कर रही थी?"
"आप भी कमाल करते हैं भइया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने गंभीर हो कर इतनी गहरी बात क्या कह दी आप तो एकदम से विचलित ही हो गए।"
कुसुम की इस बात पर मैं कुछ न बोला बल्कि ध्यान से उसकी तरफ देखता रह गया था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि आज से पहले तो कभी कुसुम ने ऐसी गंभीर बातें मुझसे नहीं कही थी फिर आज ही उसने ऐसा क्यों कहा था? आख़िर उसकी बातों में क्या रहस्य था?
"इतना ज़्यादा मत सोचिये भइया।" मुझे सोचो में गुम देख उसने कहा____"सच एक ऐसी शय का नाम है जो हर नक़ाब को चीर कर अपना असली रूप दिखा ही देता है। ख़ैर छोड़िये इस बात को और ये बताइए कि क्या मैं आपके लिए यहीं पर खाना ले आऊं?"
"मुझे भूख नहीं है।" मैंने बिस्तर के सिरहाने पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा____"तू जा और खा पी कर सो जा।"
"अगर आप नहीं खाएँगे तो फिर मैं भी नहीं खाऊंगी।" कुसुम ने जैसे ज़िद की___"अब ये आप पर है कि आप अपनी बहन को भूखा रखते हैं या उसके पेट में उछल कूद मचा रहे चूहों को मार भगाना चाहते हैं।"
"अच्छा ठीक है जा ले आ।" मैंने हलके से मुस्कुराते हुए कहा____"हम दोनों यहीं पर एक साथ ही खाएँगे।"
"ये हुई न बात।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं अभी खाने की थाली सजा के लाती हूं।"
कहने के साथ ही कुसुम बिस्तर से नीचे उतर कर कमरे से बाहर चली गई। उसके जाने के बाद मैं फिर से उसकी बातों के बारे में सोचने लगा। आख़िर क्या था उसके मन में और किस बारे में ऐसी बातें कह रही थी वो? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ चकराने लगा किन्तु कुछ समझ में नहीं आया। मेरे पूछने पर उसने बात को बड़ी सफाई से घुमा दिया था।
मेरा स्वभाव तो बचपन से ही ऐसा था किन्तु जब से होश सम्हाला था और जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा था तब से मैं कुछ ज़्यादा ही लापरवाह और मनमौजी किस्म का हो गया था। मैंने कभी इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा था कि मेरे आगे पीछे जो बाकी लोग थे उनका जीवन कैसे गुज़र रहा था? बचपन से औरतों के बीच रहा था और धीरे धीरे औरतों में दिलचस्पी लेने लगा था। दोस्तों की संगत में मैं कम उम्र में ही वो सब जानने समझने लगा था जिसे जानने और समझने की मेरी उम्र नहीं थी। जब ऐसे शारीरिक सुखों का ज्ञान हुआ तो मैं घर की नौकरानियों पर ही उन सुखों को पाने के लिए डोरे डालने लगा था। बड़े खानदान का बेटा था जिसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी और जिसका हर कहा मानना जैसे हर नौकर और नौकरानी का फर्ज़ था। बचपन से ही निडर था मैं और दिमाग़ भी काफी तेज़ था इस लिए हवेली में रहने वाली नौकरानियों से जिस्मानी सुख प्राप्त करने में मुझे ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई।
जब एक बार जिस्मों के मिलन से अलौकिक सुख मिला तो फिर जैसे उस अलौकिक सुख को बार बार पाने की इच्छा और भी तीव्र हो गई। जिन नौकरानियों से मेरे जिस्मानी सम्बन्ध बन जाते थे वो मेरे और दादा ठाकुर के भय की वजह से हमारे बीच के इस राज़ को अपने सीने में ही दफ़न कर लेतीं थी। कुछ साल तो ऐसे ही मज़े में निकल गए मगर फिर ऐसे सम्बन्धों का भांडा फूट ही गया। बात दादा ठाकुर यानी मेरे पिता जी तक पहुंची तो वो बेहद ख़फा हुए और मुझ पर कोड़े बरसाए गए। मेरे इन कारनामों के बारे में जान हर कोई स्तब्ध था। ख़ैर दादा ठाकुर के द्वारा कोड़े की मार खा कर कुछ समय तक तो मैंने सब कुछ बंद ही कर दिया था मगर उस अलौकिक सुख ही लालसा फिर से ज़ोर मारने लगी थी और मैं औरत के जिस्म को सहलाने के लिए तथा उसे भोगने के लिए जैसे तड़पने लगा था। अपनी इस तड़प को मिटाने के लिए मैंने फिर से हवेली की एक नौकरानी को फंसा लिया और उसके साथ उस अलौकिक सुख को प्राप्त करने लगा। इस बार मैं पूरी तरह सावधान था कि मेरे ऐसे सम्बन्ध का पता किसी को भी न चल सके मगर दुर्भाग्य से एक दिन फिर से मेरा भांडा फूट गया और दादा ठाकुर के कोड़ों की मार झेलनी पड़ गई।
दादा ठाकुर के कोड़ों की मार सहने के बाद मैं यही प्रण लेता कि अब दुबारा ऐसा कुछ नहीं करुंगा मगर हप्ते दस दिन बाद ही मेरा प्रण डगमगाने लगता और मैं फिर से हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे सुलाने पर विवश कर देता। हालांकि अब मुझ पर निगरानी रखी जाने लगी थी मगर अपने लंड को तो चूत का स्वाद लग चुका था और वो हर जुल्म ओ सितम सह कर भी चूत के अंदर समाना चाहता था। एक दिन ऐसा आया कि दादा ठाकुर ने हुकुम सुना दिया कि हवेली की कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरा कोई काम करेगी। दादा ठाकुर के इस हुकुम के बाद मेरे लंड को चूत मिलनी बंद हो गई और ये मेरे लिए बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ था।
वैसे कायदा तो ये था कि मुझे उसी समय ये सब बंद कर देना चाहिए था जब दादा ठाकुर तक मेरे ऐसे सम्बन्धों की बात पहली बार पहुंची थी। कायदा तो ये भी था कि ऐसे काम के लिए मुझे बेहद शर्मिंदा भी होना चाहिए था मगर या तो मैं बेहद ढीठ किस्म का था या फिर मेरे नसीब में ही ये लिखा था कि इसी सब के चलते आगे मुझे बहुत कुछ देखना पड़ेगा और साथ ही बड़े बड़े अज़ाब सहने होंगे। हवेली में नौकरानियों की चूत मिलनी बंद हुई तो मैंने हवेली के बाहर चूत की तलाश शुरू कर दी। मुझे क्या पता था कि हवेली के बाहर चूतों की खदान लगी हुई मिल जाएगी। अगर पता होता तो हवेली के बाहर से ही इस सबकी शुरुआत करता। ख़ैर देर आए दुरुस्त आए वाली बात पर अमल करते हुए मैं हवेली के बाहर गांव में ही किसी न किसी लड़की या औरत की चूत का मज़ा लूटने लगा। कुछ तो मुझे बड़ी आसानी से मिल जातीं थी और कुछ के लिए जुगाड़ करना पड़ता था। कहने का मतलब ये कि हवेली से बाहर आनंद ही आनंद मिल रहा था। छोटे ठाकुर का पद मेरे लिए वरदान साबित हो रहा था। कितनों की तो पैसे दे कर मैंने बजाई थी मगर बाहर का ये आनंद भी ज़्यादा दिनों तक मेरे लिए नहीं रहा। मेरे कारनामों की ख़बर दादा ठाकुर के कानों तक पहुंच गई और एक बार फिर से उनके कोड़ों की मार मेरी पीठ सह रही थी। दादा ठाकुर भला ये कैसे सहन कर सकते थे कि मेरे इन खूबसूरत कारनामों की वजह से उनके नाम और उनके मान सम्मान की धज्जियां उड़ जाएं?
कहते हैं न कि जिसे सुधरना होता है वो एक बार में ही सुधर जाता है और जिसे नहीं सुधारना होता उस पर चाहे लाख पाबंदिया लगा दो या फिर उसको सज़ा देने की इन्तेहाँ ही कर दो मगर वो सुधरता नहीं है। मैं उन्हीं हस्तियों में शुमार था जिन्हें कोई सुधार ही नहीं सकता था। ख़ैर अपने ऊपर हो रहे ऐसे जुल्मों का असर ये हुआ कि मैं अपनों के ही ख़िलाफ़ बागी जैसा हो गया। अब मैं छोटा बच्चा भी नहीं रह गया था जिससे मेरे अंदर किसी का डर हो, बल्कि अब तो मैं एक मर्द बन चुका था जो सिर्फ अपनी मर्ज़ी का मालिक था।
"अब आप किन ख़यालों में खोये हुए हैं?" कुसुम की इस आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा और मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने आगे कहा____"ख़यालों से बाहर आइए और खाना खाइए। देखिए आपके मन पसंद का ही खाना बनाया है हमने।"
कुसुम हाथ में थाली लिए मेरे बिस्तर के पास आई तो मैं उठ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही कुसुम ने थाली को बिस्तर के बीच में रखा और फिर खुद भी बिस्तर पर आ कर मेरे सामने बैठ गई।
"चलिए शुरू कीजिए।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"या फिर कहिए तो मैं ही खिलाऊं आपको?"
"अपने इस भाई से इतना प्यार और स्नेह मत कर बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"अगर मैं इतना ही अच्छा होता तो मेरे यहाँ आने पर मेरे बाकी भाई लोग खुश भी होते और मुझसे मिलने भी आते। मैं उनका दुश्मन तो नहीं हूं ना?"
"किसी और के खुश न होने से या उनके मिलने न आने से।" कुसुम ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"आप क्यों इतना दुखी होते हैं भैया? आप ये क्यों नहीं सोचते हैं कि आपके आने से मैं खुश हूं, बड़ी माँ खुश हैं, मेरी माँ खुश हैं और भाभी भी खुश हैं। क्या हमारी ख़ुशी आपके लिए कोई मायने नहीं रखती?"
"अगर मायने नहीं रखती तो इस वक़्त मैं इस हवेली में नहीं होता।" मैंने कहा____"बल्कि इसी वक़्त यहाँ से चला जाता और इस बार ऐसा जाता कि फिर लौट कर कभी वापस नहीं आता।"
"आप मुझसे बड़े हैं और दुनियादारी को आप मुझसे ज़्यादा समझते हैं।" कुसुम ने कहा____"इस लिए आप ये जानते ही होंगे कि इस दुनिया में किसी को भी सब कुछ नहीं मिल जाया करता और ना ही हर किसी का साथ मिला करता है। अगर कोई हमारा दोस्त बनता है तो कोई हमारा दुश्मन भी बनता है। किसी बात से अगर हम खुश होते हैं तो दूसरी किसी बात से हम दुखी भी होते हैं। ये संसार सागर है भइया, यहाँ हर चीज़ के जोड़े बने हैं जो हमारे जीवन से जुड़े हैं। एक अच्छा इंसान वो है जो इन जोड़ों पर एक सामान प्रतिक्रिया करता है। फिर चाहे सुख हो या दुःख।"
"इतनी गहरी बातें कहा से सीखी हैं तूने?" कुसुम की बातें सुन कर मैंने हैरानी से उससे पूछा।
"वक्त और हालात सब सिखा देते हैं भइया।" कुसुम ने हलकी मुस्कान के साथ कहा____"मुझे आश्चर्य है कि आप ऐसे हालातों में भी ये बातें सीख नहीं पाए या फिर ये हो सकता है कि आप ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते।"
"ये तो तूने सच कहा कि ऐसी बातें वक़्त और हालात सिखा देते हैं।" मैंने कुसुम की गहरी आँखों में झांकते हुए कहा____"किन्तु मैं ये नहीं समझ पा रहा हूं कि तुझे ऐसी बातें कैसे पता हैं, जबकि तू ऐसे हालातों में कभी पड़ी ही नहीं?"
"ऐसा आप सोचते हैं।" कुसुम ने थाली से रोटी का एक निवाला तोड़ते हुए कहा____"जबकि आपको सोचना ये चाहिए था कि अगर मुझे ऐसी बातें पता हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि मैंने भी ऐसे हालात देखे ही होंगे। ख़ैर छोड़िए इस बात को और अपना मुँह खोलिए। खाना नहीं खाना है क्या आपको?"
कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?
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ये तो बहुत ही गलत फैसला हो जाएगा हम पाठको के लिए। वैसे मर्जी तो आपकी ही रहेगी हम तो बस अनुरोध करवसक्ते हैं।दोस्तों, Chutiyadr साहब की कहानी पढ़ने के लिए मुझे समय नहीं मिल पा रहा। इस लिए मैंने उनकी कहानी पढ़ने के लिए अपनी कहानी के अपडेट को एक दिन के अंतराल में देने का फैसला किया है। उम्मीद करता हूं कि इससे आपको कोई एतराज़ नहीं होगा। वैसे भी हर रोज़ कहानी का अपडेट दे पाना ज़रा मुश्किल होता है। अगर आप लोग मेरी इस बात से सहमत होंगे तो ही मैं ऐसा करूंगा अन्यथा जैसे अब तक चलता आ रहा था वैसा ही करने की कोशिश करूंगा।
इस बारे में आप सब अपनी अपनी राय ज़रूर दें।
Accha update tha bhai.☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 10
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"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।
अब आगे,,,,,
अपने कमरे में आ कर मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया था। मेरे ज़हन में भाभी की बातें गूँज रहीं थी। भाभी ने आज पहली बार मुझसे ऐसी बातें की थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था कि मुझमे ठाकुरों वाली बात है और मैं पिता जी के बाद उनकी जगह सम्हाल सकता था? पिता जी के बाद उनकी जगह सिर्फ मेरा बड़ा भाई ही ले सकता था जबकि भाभी ने इस बारे में कोई बात ही नहीं की थी बल्कि उन्होंने तो साफ लफ्ज़ों में यही कहा था कि पिता जी के बाद मैं ही उनकी जगह ले सकता हूं। आख़िर ऐसा क्यों कहा होगा भाभी ने? उनके मन में भाई के लिए ऐसी बात क्यों नहीं थी?
काफी देर तक मैं इन सब बातों के बारे में सोचता रहा। इस बीच मेरे ज़हन से सरोज काकी और अनुराधा का ख़याल जाने कब का गायब हो चुका था। ख़ैर रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैंने उससे पूछा कि खाना खाने के लिए कौन कौन हैं नीचे तो उसने बताया कि बड़े भैया विभोर और अजीत अपने दोस्त के यहाँ से खा के ही आये हैं इस लिए वो अपने अपने कमरे में ही हैं। पिता जी और चाचा जी अभी हवेली नहीं लौटे हैं। कुसुम की बात सुन कर मैं उसके साथ ही नीचे आ गया। कुसुम से ही मुझे पता चला था कि बड़े भैया लोग आधा घंटा पहले आए थे। मैं ये सोच रहा था कि मेरा बड़ा भाई तो चलो ठीक है नहीं आया मुझसे मिलने लेकिन विभोर और अजीत तो मुझसे मिलने आ ही सकते थे। आख़िर मैं उन दोनों से बड़ा था।
मैंने एकदम से महसूस किया कि मैं अपने ही घर में अपनों के ही बीच अजनबी सा महसूस कर रहा हूं। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि इस घर का बेटा चार महीने बाद भारी कष्ट सह के हवेली लौटा था और जिसके स्वागत के लिए हवेली के हर सदस्य को पूरे मन से तत्पर हो जाना चाहिए था। इसका मतलब तो यही हुआ कि मेरे यहाँ लौटने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। मुझे ज़रा सा भी महसूस नहीं हो रहा था कि मेरे यहाँ आने से किसी को कोई ख़ुशी हुई है। माँ तो चलो माँ ही थी और मैं ये नहीं कहता कि उन्हें मेरे लौटने से ख़ुशी नहीं हुई थी किन्तु बाकी लोगों का क्या? ये सब सोचते ही मेरे तन बदन में जैसे आग लग गई। बड़ी बड़ी बातें करने वाले वो कौन लोग थे जो मुझे लेने के लिए मेरे पास आए थे?
खाने के लिए मैं आसन पर बैठ चुका था किन्तु ये सब सोचने के बाद मेरे अंदर फिर से आग भड़क चुकी थी और मेरा मन कर रहा था कि अभी के अभी किसी का खून कर दूं। मैं एक झटके में आसन से उठ गया। माँ थोड़ी ही दूरी पर कुर्सी में बैठी हुईं थी जबकि कुसुम और भाभी रसोई में थीं। मैं जैसे ही झटके से उठ गया तो माँ ने चौंक कर देखा मेरी तरफ।
"क्या हुआ बेटा?" फिर उन्होंने पूछा____"तू ऐसे उठ क्यों गया?"
"मेरा पेट भर गया है मां।" मैंने शख़्त भाव से किन्तु अपने गुस्से को काबू करते हुए कहा____"और आपको मेरी कसम है कि मुझसे खाने के लिए मत कहियेगा और ना ही मुझसे किसी तरह का सवाल करियेगा।"
"पर बेटा हुआ क्या है?" माँ के चेहरे पर घनघोर आश्चर्य जैसे ताण्डव करने लगा था।
"जल्दी ही आपको पता चल जाएगा।" मैंने कहा और सीढिया चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
मेरे जाने के बाद कुर्सी पर बैठी माँ जैसे भौचक्की सी रह गईं थी। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया था कि अचानक से मुझे क्या हो गया था जिसके चलते मैं बिना खाए ही अपने कमरे में चला गया था। मेरी और माँ की बातें रसोई के अंदर मौजूद चाची के साथ साथ भाभी और कुसुम ने भी सुनी थी और वो सब फ़ौरन ही रसोई से भाग कर इस तरफ आ गईं थी।
"अरे! वैभव कहां गया दीदी?" मेनका चाची ने हैरानी से पूछा।
"वो अपने कमरे में चला गया है।" माँ ने कहीं खोए हुए भाव से कहा____"मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अचानक से उसे हुआ क्या था जिसकी वजह से वो उठ कर इस तरह चला गया और मुझे अपनी कसम दे कर ये भी कह गया कि मैं उसे खाने के लिए न कहूं और ना ही उससे कोई सवाल करूं।"
"बड़ी अजीब बात है।" चाची ने हैरानी से कहा____"पर मुझे लगता है कुछ तो बात ज़रूर हुई है दीदी। वैभव बिना किसी वजह के इस तरह नहीं जा सकता।"
"कुसुम तू जा कर देख ज़रा।" माँ ने कुसुम से कहा____"तू उससे पूछ कि वो इस तरह क्यों बिना खाए चला गया है? वो तेरी बात नहीं टालेगा इस लिए जा कर पूछ उससे।"
"ठीक है बड़ी मां।" कुसुम ने कहा____"मैं भैया से बात करती हूं इस बारे में।"
कुसुम कुछ ही देर में मेरे कमरे में आ गई। मैं बिस्तर पर आँखे बंद किये लेटा हुआ था और अपने अंदर भड़कते हुए भयंकर गुस्से को सम्हालने की कोशिश कर रहा था।
कुसुम मेरे पास आ कर बिस्तर में ही किनारे पर बैठ गई। इस वक़्त मेरे अंदर भयानक गुस्सा जैसे उबाल मार रहा था और मैं नहीं चाहता था कि मेरे इस गुस्से का शिकार कुसुम हो जाए।
"तू यहाँ से जा कुसुम।" मैंने शख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।"
"मैं इतना तो समझ गई हूं भैया कि आप किसी वजह से बेहद गुस्सा हो गए हैं।" कुसुम ने शांत लहजे में कहा___"किन्तु मैं ये नहीं जानती कि आप किस वजह से इतना गुस्सा हो गए कि बिना कुछ खाए ही यहाँ चले आए? भला खाने से क्या नाराज़गी भैया?"
"मैंने तुझसे कहा न कि इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।" मैंने इस बार उसे गुस्से से देखते हुए कहा____"एक बार में तुझे कोई बात समझ में नहीं आती क्या?"
"हां नहीं आती समझ में।" कुसुम ने रुआंसे भाव से कहा____"आप भी बाकी भाइयों की तरह मुझे डांटिए और मुझ पर गुस्सा कीजिए। आप सबको तो मुझे ही डांटने में मज़ा आता है ना। जाइए नहीं बात करना अब आपसे।"
कुसुम ये सब कहने के साथ ही सिसकने लगी और चेहरा दूसरी तरफ कर के मेरी तरफ अपनी पीठ कर ली। उसके इस तरह पीछा कर लेने से और सिसकने से मेरा गुस्सा ठंडा पड़ने लगा। मैं जानता था कि मेरे द्वारा उस पर इस तरह गुस्सा करने से उसे दुःख और अपमान लगा था जिसकी वजह से वो सिसकने लगी थी। दुःख और अपमान इस लिए भी लगा था क्योंकि मैं कभी भी उस पर गुस्सा नहीं करता था बल्कि हमेशा उससे प्यार से ही बात करता था।
"इधर आ।" फिर मैंने नरम लहजे में उसे पुकारते हुए कहा तो उसने मेरी तरफ पलट कर देखा। मैंने अपनी बाहें फैला दी थी जिससे उसने पहले अपने दुपट्टे से अपने आँसू पोंछे और फिर खिसक कर मेरे पास आ कर मेरी बाहों में समा गई।
"आप बहुत गंदे हैं।" उसने मेरे सीने से लगे हुए ही कहा____"मैं तो यही समझती थी कि आप बाकियों से अच्छे हैं जो मुझ पर कभी भी गुस्सा नहीं कर सकते।"
"चल अब माफ़ कर दे ना मुझे।" मैंने उसके सिर पर हांथ फेरते हुए कहा____"और तुझे भी तो समझना चाहिए था न कि मैं उस वक़्त गुस्से में था।"
"आप चाहे जितने गुस्से में रहिए।" कुसुम ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मगर आप मुझ पर गुस्सा नहीं कर सकते। ख़ैर छोड़िये और ये बताइए कि किस बात पर इतना गुस्सा हो गए थे आप?"
"ये हवेली और इस हवेली में रहने वाले लोग मुझे अपना नहीं समझते कुसुम।" मैंने भारी मन से कहा____"मैं ये मानता हूं कि मैंने आज तक हमेशा वही किया है जो मेरे मन ने कहा और जो मैंने चाहा मगर मेरी ग़लतियों के लिए मुझे घर गांव से ही निष्कासित कर दिया गया। मैंने चार महीने न जाने कैसे कैसे दुःख सहे। इन चार महीनों में मुझे ज़िन्दगी के असल मायने पता चले और मैं बहुत हद तक सुधर भी गया। सोचा था कि अब वैसा नहीं रहूंगा जैसा पहले हुआ करता था मगर शायद मेरे नसीब में अच्छा बनना लिखा ही नहीं है कुसुम।"
"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" कुसुम ने लरज़ते हुए स्वर में कहा___"मेरी नज़र में तो आप हमेशा से ही अच्छे थे। कम से कम आप ऐसे तो थे कि जो भी करते थे उसका पता सबको चलता था मगर कुछ लोग तो ऐसे भी हैं भैया जो ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरों को भनक तक नहीं लगती और मज़ेदार बात ये कि उस काम को भी वो लोग गुनाह नहीं समझते।"
"ये क्या कह रही है तू?" मैंने चौंक कर कुसुम की तरफ देखा। कुसुम मेरे सीने पर ही छुपकी हुई थी और उसके सीने का एक ठोस उभार मेरे बाएं सीने पर धंसा हुआ था। हालांकि मेरे ज़हन में उसके प्रति कोई ग़लत भावना नहीं थी। मैं तो इस वक़्त उसकी इन बातों पर चौंक गया था। उधर मेरे पूछने पर कुसुम ऐसे हड़बड़ाई थी जैसे अचानक ही उसे याद आया हो कि ये उसने क्या कह दिया है मुझसे।
"कुछ भी तो नहीं।" फिर उसने मेरे सीने से उठ कर बात को बदलते हुए कहा____"वो मैं तो दुनियां वालों की बात कर रही थी भइया। इस दुनियां में ऐसे भी तो लोग हैं ना जो गुनाह तो करते हैं मगर सबसे छुपा कर और सबकी नज़र में अच्छे बने रहते हैं।"
"तू मुझसे कुछ छुपा रही है?" मैंने कुसुम के चेहरे पर ग़ौर से देखते हुए कहा____"मुझे सच सच बता कुसुम कि तू किसकी बात कर रही थी?"
"आप भी कमाल करते हैं भइया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने गंभीर हो कर इतनी गहरी बात क्या कह दी आप तो एकदम से विचलित ही हो गए।"
कुसुम की इस बात पर मैं कुछ न बोला बल्कि ध्यान से उसकी तरफ देखता रह गया था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि आज से पहले तो कभी कुसुम ने ऐसी गंभीर बातें मुझसे नहीं कही थी फिर आज ही उसने ऐसा क्यों कहा था? आख़िर उसकी बातों में क्या रहस्य था?
"इतना ज़्यादा मत सोचिये भइया।" मुझे सोचो में गुम देख उसने कहा____"सच एक ऐसी शय का नाम है जो हर नक़ाब को चीर कर अपना असली रूप दिखा ही देता है। ख़ैर छोड़िये इस बात को और ये बताइए कि क्या मैं आपके लिए यहीं पर खाना ले आऊं?"
"मुझे भूख नहीं है।" मैंने बिस्तर के सिरहाने पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा____"तू जा और खा पी कर सो जा।"
"अगर आप नहीं खाएँगे तो फिर मैं भी नहीं खाऊंगी।" कुसुम ने जैसे ज़िद की___"अब ये आप पर है कि आप अपनी बहन को भूखा रखते हैं या उसके पेट में उछल कूद मचा रहे चूहों को मार भगाना चाहते हैं।"
"अच्छा ठीक है जा ले आ।" मैंने हलके से मुस्कुराते हुए कहा____"हम दोनों यहीं पर एक साथ ही खाएँगे।"
"ये हुई न बात।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं अभी खाने की थाली सजा के लाती हूं।"
कहने के साथ ही कुसुम बिस्तर से नीचे उतर कर कमरे से बाहर चली गई। उसके जाने के बाद मैं फिर से उसकी बातों के बारे में सोचने लगा। आख़िर क्या था उसके मन में और किस बारे में ऐसी बातें कह रही थी वो? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ चकराने लगा किन्तु कुछ समझ में नहीं आया। मेरे पूछने पर उसने बात को बड़ी सफाई से घुमा दिया था।
मेरा स्वभाव तो बचपन से ही ऐसा था किन्तु जब से होश सम्हाला था और जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा था तब से मैं कुछ ज़्यादा ही लापरवाह और मनमौजी किस्म का हो गया था। मैंने कभी इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा था कि मेरे आगे पीछे जो बाकी लोग थे उनका जीवन कैसे गुज़र रहा था? बचपन से औरतों के बीच रहा था और धीरे धीरे औरतों में दिलचस्पी लेने लगा था। दोस्तों की संगत में मैं कम उम्र में ही वो सब जानने समझने लगा था जिसे जानने और समझने की मेरी उम्र नहीं थी। जब ऐसे शारीरिक सुखों का ज्ञान हुआ तो मैं घर की नौकरानियों पर ही उन सुखों को पाने के लिए डोरे डालने लगा था। बड़े खानदान का बेटा था जिसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी और जिसका हर कहा मानना जैसे हर नौकर और नौकरानी का फर्ज़ था। बचपन से ही निडर था मैं और दिमाग़ भी काफी तेज़ था इस लिए हवेली में रहने वाली नौकरानियों से जिस्मानी सुख प्राप्त करने में मुझे ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई।
जब एक बार जिस्मों के मिलन से अलौकिक सुख मिला तो फिर जैसे उस अलौकिक सुख को बार बार पाने की इच्छा और भी तीव्र हो गई। जिन नौकरानियों से मेरे जिस्मानी सम्बन्ध बन जाते थे वो मेरे और दादा ठाकुर के भय की वजह से हमारे बीच के इस राज़ को अपने सीने में ही दफ़न कर लेतीं थी। कुछ साल तो ऐसे ही मज़े में निकल गए मगर फिर ऐसे सम्बन्धों का भांडा फूट ही गया। बात दादा ठाकुर यानी मेरे पिता जी तक पहुंची तो वो बेहद ख़फा हुए और मुझ पर कोड़े बरसाए गए। मेरे इन कारनामों के बारे में जान हर कोई स्तब्ध था। ख़ैर दादा ठाकुर के द्वारा कोड़े की मार खा कर कुछ समय तक तो मैंने सब कुछ बंद ही कर दिया था मगर उस अलौकिक सुख ही लालसा फिर से ज़ोर मारने लगी थी और मैं औरत के जिस्म को सहलाने के लिए तथा उसे भोगने के लिए जैसे तड़पने लगा था। अपनी इस तड़प को मिटाने के लिए मैंने फिर से हवेली की एक नौकरानी को फंसा लिया और उसके साथ उस अलौकिक सुख को प्राप्त करने लगा। इस बार मैं पूरी तरह सावधान था कि मेरे ऐसे सम्बन्ध का पता किसी को भी न चल सके मगर दुर्भाग्य से एक दिन फिर से मेरा भांडा फूट गया और दादा ठाकुर के कोड़ों की मार झेलनी पड़ गई।
दादा ठाकुर के कोड़ों की मार सहने के बाद मैं यही प्रण लेता कि अब दुबारा ऐसा कुछ नहीं करुंगा मगर हप्ते दस दिन बाद ही मेरा प्रण डगमगाने लगता और मैं फिर से हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे सुलाने पर विवश कर देता। हालांकि अब मुझ पर निगरानी रखी जाने लगी थी मगर अपने लंड को तो चूत का स्वाद लग चुका था और वो हर जुल्म ओ सितम सह कर भी चूत के अंदर समाना चाहता था। एक दिन ऐसा आया कि दादा ठाकुर ने हुकुम सुना दिया कि हवेली की कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरा कोई काम करेगी। दादा ठाकुर के इस हुकुम के बाद मेरे लंड को चूत मिलनी बंद हो गई और ये मेरे लिए बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ था।
वैसे कायदा तो ये था कि मुझे उसी समय ये सब बंद कर देना चाहिए था जब दादा ठाकुर तक मेरे ऐसे सम्बन्धों की बात पहली बार पहुंची थी। कायदा तो ये भी था कि ऐसे काम के लिए मुझे बेहद शर्मिंदा भी होना चाहिए था मगर या तो मैं बेहद ढीठ किस्म का था या फिर मेरे नसीब में ही ये लिखा था कि इसी सब के चलते आगे मुझे बहुत कुछ देखना पड़ेगा और साथ ही बड़े बड़े अज़ाब सहने होंगे। हवेली में नौकरानियों की चूत मिलनी बंद हुई तो मैंने हवेली के बाहर चूत की तलाश शुरू कर दी। मुझे क्या पता था कि हवेली के बाहर चूतों की खदान लगी हुई मिल जाएगी। अगर पता होता तो हवेली के बाहर से ही इस सबकी शुरुआत करता। ख़ैर देर आए दुरुस्त आए वाली बात पर अमल करते हुए मैं हवेली के बाहर गांव में ही किसी न किसी लड़की या औरत की चूत का मज़ा लूटने लगा। कुछ तो मुझे बड़ी आसानी से मिल जातीं थी और कुछ के लिए जुगाड़ करना पड़ता था। कहने का मतलब ये कि हवेली से बाहर आनंद ही आनंद मिल रहा था। छोटे ठाकुर का पद मेरे लिए वरदान साबित हो रहा था। कितनों की तो पैसे दे कर मैंने बजाई थी मगर बाहर का ये आनंद भी ज़्यादा दिनों तक मेरे लिए नहीं रहा। मेरे कारनामों की ख़बर दादा ठाकुर के कानों तक पहुंच गई और एक बार फिर से उनके कोड़ों की मार मेरी पीठ सह रही थी। दादा ठाकुर भला ये कैसे सहन कर सकते थे कि मेरे इन खूबसूरत कारनामों की वजह से उनके नाम और उनके मान सम्मान की धज्जियां उड़ जाएं?
कहते हैं न कि जिसे सुधरना होता है वो एक बार में ही सुधर जाता है और जिसे नहीं सुधारना होता उस पर चाहे लाख पाबंदिया लगा दो या फिर उसको सज़ा देने की इन्तेहाँ ही कर दो मगर वो सुधरता नहीं है। मैं उन्हीं हस्तियों में शुमार था जिन्हें कोई सुधार ही नहीं सकता था। ख़ैर अपने ऊपर हो रहे ऐसे जुल्मों का असर ये हुआ कि मैं अपनों के ही ख़िलाफ़ बागी जैसा हो गया। अब मैं छोटा बच्चा भी नहीं रह गया था जिससे मेरे अंदर किसी का डर हो, बल्कि अब तो मैं एक मर्द बन चुका था जो सिर्फ अपनी मर्ज़ी का मालिक था।
"अब आप किन ख़यालों में खोये हुए हैं?" कुसुम की इस आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा और मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने आगे कहा____"ख़यालों से बाहर आइए और खाना खाइए। देखिए आपके मन पसंद का ही खाना बनाया है हमने।"
कुसुम हाथ में थाली लिए मेरे बिस्तर के पास आई तो मैं उठ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही कुसुम ने थाली को बिस्तर के बीच में रखा और फिर खुद भी बिस्तर पर आ कर मेरे सामने बैठ गई।
"चलिए शुरू कीजिए।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"या फिर कहिए तो मैं ही खिलाऊं आपको?"
"अपने इस भाई से इतना प्यार और स्नेह मत कर बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"अगर मैं इतना ही अच्छा होता तो मेरे यहाँ आने पर मेरे बाकी भाई लोग खुश भी होते और मुझसे मिलने भी आते। मैं उनका दुश्मन तो नहीं हूं ना?"
"किसी और के खुश न होने से या उनके मिलने न आने से।" कुसुम ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"आप क्यों इतना दुखी होते हैं भैया? आप ये क्यों नहीं सोचते हैं कि आपके आने से मैं खुश हूं, बड़ी माँ खुश हैं, मेरी माँ खुश हैं और भाभी भी खुश हैं। क्या हमारी ख़ुशी आपके लिए कोई मायने नहीं रखती?"
"अगर मायने नहीं रखती तो इस वक़्त मैं इस हवेली में नहीं होता।" मैंने कहा____"बल्कि इसी वक़्त यहाँ से चला जाता और इस बार ऐसा जाता कि फिर लौट कर कभी वापस नहीं आता।"
"आप मुझसे बड़े हैं और दुनियादारी को आप मुझसे ज़्यादा समझते हैं।" कुसुम ने कहा____"इस लिए आप ये जानते ही होंगे कि इस दुनिया में किसी को भी सब कुछ नहीं मिल जाया करता और ना ही हर किसी का साथ मिला करता है। अगर कोई हमारा दोस्त बनता है तो कोई हमारा दुश्मन भी बनता है। किसी बात से अगर हम खुश होते हैं तो दूसरी किसी बात से हम दुखी भी होते हैं। ये संसार सागर है भइया, यहाँ हर चीज़ के जोड़े बने हैं जो हमारे जीवन से जुड़े हैं। एक अच्छा इंसान वो है जो इन जोड़ों पर एक सामान प्रतिक्रिया करता है। फिर चाहे सुख हो या दुःख।"
"इतनी गहरी बातें कहा से सीखी हैं तूने?" कुसुम की बातें सुन कर मैंने हैरानी से उससे पूछा।
"वक्त और हालात सब सिखा देते हैं भइया।" कुसुम ने हलकी मुस्कान के साथ कहा____"मुझे आश्चर्य है कि आप ऐसे हालातों में भी ये बातें सीख नहीं पाए या फिर ये हो सकता है कि आप ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते।"
"ये तो तूने सच कहा कि ऐसी बातें वक़्त और हालात सिखा देते हैं।" मैंने कुसुम की गहरी आँखों में झांकते हुए कहा____"किन्तु मैं ये नहीं समझ पा रहा हूं कि तुझे ऐसी बातें कैसे पता हैं, जबकि तू ऐसे हालातों में कभी पड़ी ही नहीं?"
"ऐसा आप सोचते हैं।" कुसुम ने थाली से रोटी का एक निवाला तोड़ते हुए कहा____"जबकि आपको सोचना ये चाहिए था कि अगर मुझे ऐसी बातें पता हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि मैंने भी ऐसे हालात देखे ही होंगे। ख़ैर छोड़िए इस बात को और अपना मुँह खोलिए। खाना नहीं खाना है क्या आपको?"
कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?
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ye vaibhav bat bat par gussa ho jata hai..☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 10
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अब तक,,,,,
"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।
अब आगे,,,,,
अपने कमरे में आ कर मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया था। मेरे ज़हन में भाभी की बातें गूँज रहीं थी। भाभी ने आज पहली बार मुझसे ऐसी बातें की थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था कि मुझमे ठाकुरों वाली बात है और मैं पिता जी के बाद उनकी जगह सम्हाल सकता था? पिता जी के बाद उनकी जगह सिर्फ मेरा बड़ा भाई ही ले सकता था जबकि भाभी ने इस बारे में कोई बात ही नहीं की थी बल्कि उन्होंने तो साफ लफ्ज़ों में यही कहा था कि पिता जी के बाद मैं ही उनकी जगह ले सकता हूं। आख़िर ऐसा क्यों कहा होगा भाभी ने? उनके मन में भाई के लिए ऐसी बात क्यों नहीं थी?
काफी देर तक मैं इन सब बातों के बारे में सोचता रहा। इस बीच मेरे ज़हन से सरोज काकी और अनुराधा का ख़याल जाने कब का गायब हो चुका था। ख़ैर रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैंने उससे पूछा कि खाना खाने के लिए कौन कौन हैं नीचे तो उसने बताया कि बड़े भैया विभोर और अजीत अपने दोस्त के यहाँ से खा के ही आये हैं इस लिए वो अपने अपने कमरे में ही हैं। पिता जी और चाचा जी अभी हवेली नहीं लौटे हैं। कुसुम की बात सुन कर मैं उसके साथ ही नीचे आ गया। कुसुम से ही मुझे पता चला था कि बड़े भैया लोग आधा घंटा पहले आए थे। मैं ये सोच रहा था कि मेरा बड़ा भाई तो चलो ठीक है नहीं आया मुझसे मिलने लेकिन विभोर और अजीत तो मुझसे मिलने आ ही सकते थे। आख़िर मैं उन दोनों से बड़ा था।
मैंने एकदम से महसूस किया कि मैं अपने ही घर में अपनों के ही बीच अजनबी सा महसूस कर रहा हूं। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि इस घर का बेटा चार महीने बाद भारी कष्ट सह के हवेली लौटा था और जिसके स्वागत के लिए हवेली के हर सदस्य को पूरे मन से तत्पर हो जाना चाहिए था। इसका मतलब तो यही हुआ कि मेरे यहाँ लौटने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। मुझे ज़रा सा भी महसूस नहीं हो रहा था कि मेरे यहाँ आने से किसी को कोई ख़ुशी हुई है। माँ तो चलो माँ ही थी और मैं ये नहीं कहता कि उन्हें मेरे लौटने से ख़ुशी नहीं हुई थी किन्तु बाकी लोगों का क्या? ये सब सोचते ही मेरे तन बदन में जैसे आग लग गई। बड़ी बड़ी बातें करने वाले वो कौन लोग थे जो मुझे लेने के लिए मेरे पास आए थे?
खाने के लिए मैं आसन पर बैठ चुका था किन्तु ये सब सोचने के बाद मेरे अंदर फिर से आग भड़क चुकी थी और मेरा मन कर रहा था कि अभी के अभी किसी का खून कर दूं। मैं एक झटके में आसन से उठ गया। माँ थोड़ी ही दूरी पर कुर्सी में बैठी हुईं थी जबकि कुसुम और भाभी रसोई में थीं। मैं जैसे ही झटके से उठ गया तो माँ ने चौंक कर देखा मेरी तरफ।
"क्या हुआ बेटा?" फिर उन्होंने पूछा____"तू ऐसे उठ क्यों गया?"
"मेरा पेट भर गया है मां।" मैंने शख़्त भाव से किन्तु अपने गुस्से को काबू करते हुए कहा____"और आपको मेरी कसम है कि मुझसे खाने के लिए मत कहियेगा और ना ही मुझसे किसी तरह का सवाल करियेगा।"
"पर बेटा हुआ क्या है?" माँ के चेहरे पर घनघोर आश्चर्य जैसे ताण्डव करने लगा था।
"जल्दी ही आपको पता चल जाएगा।" मैंने कहा और सीढिया चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
मेरे जाने के बाद कुर्सी पर बैठी माँ जैसे भौचक्की सी रह गईं थी। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया था कि अचानक से मुझे क्या हो गया था जिसके चलते मैं बिना खाए ही अपने कमरे में चला गया था। मेरी और माँ की बातें रसोई के अंदर मौजूद चाची के साथ साथ भाभी और कुसुम ने भी सुनी थी और वो सब फ़ौरन ही रसोई से भाग कर इस तरफ आ गईं थी।
"अरे! वैभव कहां गया दीदी?" मेनका चाची ने हैरानी से पूछा।
"वो अपने कमरे में चला गया है।" माँ ने कहीं खोए हुए भाव से कहा____"मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अचानक से उसे हुआ क्या था जिसकी वजह से वो उठ कर इस तरह चला गया और मुझे अपनी कसम दे कर ये भी कह गया कि मैं उसे खाने के लिए न कहूं और ना ही उससे कोई सवाल करूं।"
"बड़ी अजीब बात है।" चाची ने हैरानी से कहा____"पर मुझे लगता है कुछ तो बात ज़रूर हुई है दीदी। वैभव बिना किसी वजह के इस तरह नहीं जा सकता।"
"कुसुम तू जा कर देख ज़रा।" माँ ने कुसुम से कहा____"तू उससे पूछ कि वो इस तरह क्यों बिना खाए चला गया है? वो तेरी बात नहीं टालेगा इस लिए जा कर पूछ उससे।"
"ठीक है बड़ी मां।" कुसुम ने कहा____"मैं भैया से बात करती हूं इस बारे में।"
कुसुम कुछ ही देर में मेरे कमरे में आ गई। मैं बिस्तर पर आँखे बंद किये लेटा हुआ था और अपने अंदर भड़कते हुए भयंकर गुस्से को सम्हालने की कोशिश कर रहा था।
कुसुम मेरे पास आ कर बिस्तर में ही किनारे पर बैठ गई। इस वक़्त मेरे अंदर भयानक गुस्सा जैसे उबाल मार रहा था और मैं नहीं चाहता था कि मेरे इस गुस्से का शिकार कुसुम हो जाए।
"तू यहाँ से जा कुसुम।" मैंने शख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।"
"मैं इतना तो समझ गई हूं भैया कि आप किसी वजह से बेहद गुस्सा हो गए हैं।" कुसुम ने शांत लहजे में कहा___"किन्तु मैं ये नहीं जानती कि आप किस वजह से इतना गुस्सा हो गए कि बिना कुछ खाए ही यहाँ चले आए? भला खाने से क्या नाराज़गी भैया?"
"मैंने तुझसे कहा न कि इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।" मैंने इस बार उसे गुस्से से देखते हुए कहा____"एक बार में तुझे कोई बात समझ में नहीं आती क्या?"
"हां नहीं आती समझ में।" कुसुम ने रुआंसे भाव से कहा____"आप भी बाकी भाइयों की तरह मुझे डांटिए और मुझ पर गुस्सा कीजिए। आप सबको तो मुझे ही डांटने में मज़ा आता है ना। जाइए नहीं बात करना अब आपसे।"
कुसुम ये सब कहने के साथ ही सिसकने लगी और चेहरा दूसरी तरफ कर के मेरी तरफ अपनी पीठ कर ली। उसके इस तरह पीछा कर लेने से और सिसकने से मेरा गुस्सा ठंडा पड़ने लगा। मैं जानता था कि मेरे द्वारा उस पर इस तरह गुस्सा करने से उसे दुःख और अपमान लगा था जिसकी वजह से वो सिसकने लगी थी। दुःख और अपमान इस लिए भी लगा था क्योंकि मैं कभी भी उस पर गुस्सा नहीं करता था बल्कि हमेशा उससे प्यार से ही बात करता था।
"इधर आ।" फिर मैंने नरम लहजे में उसे पुकारते हुए कहा तो उसने मेरी तरफ पलट कर देखा। मैंने अपनी बाहें फैला दी थी जिससे उसने पहले अपने दुपट्टे से अपने आँसू पोंछे और फिर खिसक कर मेरे पास आ कर मेरी बाहों में समा गई।
"आप बहुत गंदे हैं।" उसने मेरे सीने से लगे हुए ही कहा____"मैं तो यही समझती थी कि आप बाकियों से अच्छे हैं जो मुझ पर कभी भी गुस्सा नहीं कर सकते।"
"चल अब माफ़ कर दे ना मुझे।" मैंने उसके सिर पर हांथ फेरते हुए कहा____"और तुझे भी तो समझना चाहिए था न कि मैं उस वक़्त गुस्से में था।"
"आप चाहे जितने गुस्से में रहिए।" कुसुम ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मगर आप मुझ पर गुस्सा नहीं कर सकते। ख़ैर छोड़िये और ये बताइए कि किस बात पर इतना गुस्सा हो गए थे आप?"
"ये हवेली और इस हवेली में रहने वाले लोग मुझे अपना नहीं समझते कुसुम।" मैंने भारी मन से कहा____"मैं ये मानता हूं कि मैंने आज तक हमेशा वही किया है जो मेरे मन ने कहा और जो मैंने चाहा मगर मेरी ग़लतियों के लिए मुझे घर गांव से ही निष्कासित कर दिया गया। मैंने चार महीने न जाने कैसे कैसे दुःख सहे। इन चार महीनों में मुझे ज़िन्दगी के असल मायने पता चले और मैं बहुत हद तक सुधर भी गया। सोचा था कि अब वैसा नहीं रहूंगा जैसा पहले हुआ करता था मगर शायद मेरे नसीब में अच्छा बनना लिखा ही नहीं है कुसुम।"
"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" कुसुम ने लरज़ते हुए स्वर में कहा___"मेरी नज़र में तो आप हमेशा से ही अच्छे थे। कम से कम आप ऐसे तो थे कि जो भी करते थे उसका पता सबको चलता था मगर कुछ लोग तो ऐसे भी हैं भैया जो ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरों को भनक तक नहीं लगती और मज़ेदार बात ये कि उस काम को भी वो लोग गुनाह नहीं समझते।"
"ये क्या कह रही है तू?" मैंने चौंक कर कुसुम की तरफ देखा। कुसुम मेरे सीने पर ही छुपकी हुई थी और उसके सीने का एक ठोस उभार मेरे बाएं सीने पर धंसा हुआ था। हालांकि मेरे ज़हन में उसके प्रति कोई ग़लत भावना नहीं थी। मैं तो इस वक़्त उसकी इन बातों पर चौंक गया था। उधर मेरे पूछने पर कुसुम ऐसे हड़बड़ाई थी जैसे अचानक ही उसे याद आया हो कि ये उसने क्या कह दिया है मुझसे।
"कुछ भी तो नहीं।" फिर उसने मेरे सीने से उठ कर बात को बदलते हुए कहा____"वो मैं तो दुनियां वालों की बात कर रही थी भइया। इस दुनियां में ऐसे भी तो लोग हैं ना जो गुनाह तो करते हैं मगर सबसे छुपा कर और सबकी नज़र में अच्छे बने रहते हैं।"
"तू मुझसे कुछ छुपा रही है?" मैंने कुसुम के चेहरे पर ग़ौर से देखते हुए कहा____"मुझे सच सच बता कुसुम कि तू किसकी बात कर रही थी?"
"आप भी कमाल करते हैं भइया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने गंभीर हो कर इतनी गहरी बात क्या कह दी आप तो एकदम से विचलित ही हो गए।"
कुसुम की इस बात पर मैं कुछ न बोला बल्कि ध्यान से उसकी तरफ देखता रह गया था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि आज से पहले तो कभी कुसुम ने ऐसी गंभीर बातें मुझसे नहीं कही थी फिर आज ही उसने ऐसा क्यों कहा था? आख़िर उसकी बातों में क्या रहस्य था?
"इतना ज़्यादा मत सोचिये भइया।" मुझे सोचो में गुम देख उसने कहा____"सच एक ऐसी शय का नाम है जो हर नक़ाब को चीर कर अपना असली रूप दिखा ही देता है। ख़ैर छोड़िये इस बात को और ये बताइए कि क्या मैं आपके लिए यहीं पर खाना ले आऊं?"
"मुझे भूख नहीं है।" मैंने बिस्तर के सिरहाने पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा____"तू जा और खा पी कर सो जा।"
"अगर आप नहीं खाएँगे तो फिर मैं भी नहीं खाऊंगी।" कुसुम ने जैसे ज़िद की___"अब ये आप पर है कि आप अपनी बहन को भूखा रखते हैं या उसके पेट में उछल कूद मचा रहे चूहों को मार भगाना चाहते हैं।"
"अच्छा ठीक है जा ले आ।" मैंने हलके से मुस्कुराते हुए कहा____"हम दोनों यहीं पर एक साथ ही खाएँगे।"
"ये हुई न बात।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं अभी खाने की थाली सजा के लाती हूं।"
कहने के साथ ही कुसुम बिस्तर से नीचे उतर कर कमरे से बाहर चली गई। उसके जाने के बाद मैं फिर से उसकी बातों के बारे में सोचने लगा। आख़िर क्या था उसके मन में और किस बारे में ऐसी बातें कह रही थी वो? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ चकराने लगा किन्तु कुछ समझ में नहीं आया। मेरे पूछने पर उसने बात को बड़ी सफाई से घुमा दिया था।
मेरा स्वभाव तो बचपन से ही ऐसा था किन्तु जब से होश सम्हाला था और जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा था तब से मैं कुछ ज़्यादा ही लापरवाह और मनमौजी किस्म का हो गया था। मैंने कभी इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा था कि मेरे आगे पीछे जो बाकी लोग थे उनका जीवन कैसे गुज़र रहा था? बचपन से औरतों के बीच रहा था और धीरे धीरे औरतों में दिलचस्पी लेने लगा था। दोस्तों की संगत में मैं कम उम्र में ही वो सब जानने समझने लगा था जिसे जानने और समझने की मेरी उम्र नहीं थी। जब ऐसे शारीरिक सुखों का ज्ञान हुआ तो मैं घर की नौकरानियों पर ही उन सुखों को पाने के लिए डोरे डालने लगा था। बड़े खानदान का बेटा था जिसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी और जिसका हर कहा मानना जैसे हर नौकर और नौकरानी का फर्ज़ था। बचपन से ही निडर था मैं और दिमाग़ भी काफी तेज़ था इस लिए हवेली में रहने वाली नौकरानियों से जिस्मानी सुख प्राप्त करने में मुझे ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई।
जब एक बार जिस्मों के मिलन से अलौकिक सुख मिला तो फिर जैसे उस अलौकिक सुख को बार बार पाने की इच्छा और भी तीव्र हो गई। जिन नौकरानियों से मेरे जिस्मानी सम्बन्ध बन जाते थे वो मेरे और दादा ठाकुर के भय की वजह से हमारे बीच के इस राज़ को अपने सीने में ही दफ़न कर लेतीं थी। कुछ साल तो ऐसे ही मज़े में निकल गए मगर फिर ऐसे सम्बन्धों का भांडा फूट ही गया। बात दादा ठाकुर यानी मेरे पिता जी तक पहुंची तो वो बेहद ख़फा हुए और मुझ पर कोड़े बरसाए गए। मेरे इन कारनामों के बारे में जान हर कोई स्तब्ध था। ख़ैर दादा ठाकुर के द्वारा कोड़े की मार खा कर कुछ समय तक तो मैंने सब कुछ बंद ही कर दिया था मगर उस अलौकिक सुख ही लालसा फिर से ज़ोर मारने लगी थी और मैं औरत के जिस्म को सहलाने के लिए तथा उसे भोगने के लिए जैसे तड़पने लगा था। अपनी इस तड़प को मिटाने के लिए मैंने फिर से हवेली की एक नौकरानी को फंसा लिया और उसके साथ उस अलौकिक सुख को प्राप्त करने लगा। इस बार मैं पूरी तरह सावधान था कि मेरे ऐसे सम्बन्ध का पता किसी को भी न चल सके मगर दुर्भाग्य से एक दिन फिर से मेरा भांडा फूट गया और दादा ठाकुर के कोड़ों की मार झेलनी पड़ गई।
दादा ठाकुर के कोड़ों की मार सहने के बाद मैं यही प्रण लेता कि अब दुबारा ऐसा कुछ नहीं करुंगा मगर हप्ते दस दिन बाद ही मेरा प्रण डगमगाने लगता और मैं फिर से हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे सुलाने पर विवश कर देता। हालांकि अब मुझ पर निगरानी रखी जाने लगी थी मगर अपने लंड को तो चूत का स्वाद लग चुका था और वो हर जुल्म ओ सितम सह कर भी चूत के अंदर समाना चाहता था। एक दिन ऐसा आया कि दादा ठाकुर ने हुकुम सुना दिया कि हवेली की कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरा कोई काम करेगी। दादा ठाकुर के इस हुकुम के बाद मेरे लंड को चूत मिलनी बंद हो गई और ये मेरे लिए बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ था।
वैसे कायदा तो ये था कि मुझे उसी समय ये सब बंद कर देना चाहिए था जब दादा ठाकुर तक मेरे ऐसे सम्बन्धों की बात पहली बार पहुंची थी। कायदा तो ये भी था कि ऐसे काम के लिए मुझे बेहद शर्मिंदा भी होना चाहिए था मगर या तो मैं बेहद ढीठ किस्म का था या फिर मेरे नसीब में ही ये लिखा था कि इसी सब के चलते आगे मुझे बहुत कुछ देखना पड़ेगा और साथ ही बड़े बड़े अज़ाब सहने होंगे। हवेली में नौकरानियों की चूत मिलनी बंद हुई तो मैंने हवेली के बाहर चूत की तलाश शुरू कर दी। मुझे क्या पता था कि हवेली के बाहर चूतों की खदान लगी हुई मिल जाएगी। अगर पता होता तो हवेली के बाहर से ही इस सबकी शुरुआत करता। ख़ैर देर आए दुरुस्त आए वाली बात पर अमल करते हुए मैं हवेली के बाहर गांव में ही किसी न किसी लड़की या औरत की चूत का मज़ा लूटने लगा। कुछ तो मुझे बड़ी आसानी से मिल जातीं थी और कुछ के लिए जुगाड़ करना पड़ता था। कहने का मतलब ये कि हवेली से बाहर आनंद ही आनंद मिल रहा था। छोटे ठाकुर का पद मेरे लिए वरदान साबित हो रहा था। कितनों की तो पैसे दे कर मैंने बजाई थी मगर बाहर का ये आनंद भी ज़्यादा दिनों तक मेरे लिए नहीं रहा। मेरे कारनामों की ख़बर दादा ठाकुर के कानों तक पहुंच गई और एक बार फिर से उनके कोड़ों की मार मेरी पीठ सह रही थी। दादा ठाकुर भला ये कैसे सहन कर सकते थे कि मेरे इन खूबसूरत कारनामों की वजह से उनके नाम और उनके मान सम्मान की धज्जियां उड़ जाएं?
कहते हैं न कि जिसे सुधरना होता है वो एक बार में ही सुधर जाता है और जिसे नहीं सुधारना होता उस पर चाहे लाख पाबंदिया लगा दो या फिर उसको सज़ा देने की इन्तेहाँ ही कर दो मगर वो सुधरता नहीं है। मैं उन्हीं हस्तियों में शुमार था जिन्हें कोई सुधार ही नहीं सकता था। ख़ैर अपने ऊपर हो रहे ऐसे जुल्मों का असर ये हुआ कि मैं अपनों के ही ख़िलाफ़ बागी जैसा हो गया। अब मैं छोटा बच्चा भी नहीं रह गया था जिससे मेरे अंदर किसी का डर हो, बल्कि अब तो मैं एक मर्द बन चुका था जो सिर्फ अपनी मर्ज़ी का मालिक था।
"अब आप किन ख़यालों में खोये हुए हैं?" कुसुम की इस आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा और मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने आगे कहा____"ख़यालों से बाहर आइए और खाना खाइए। देखिए आपके मन पसंद का ही खाना बनाया है हमने।"
कुसुम हाथ में थाली लिए मेरे बिस्तर के पास आई तो मैं उठ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही कुसुम ने थाली को बिस्तर के बीच में रखा और फिर खुद भी बिस्तर पर आ कर मेरे सामने बैठ गई।
"चलिए शुरू कीजिए।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"या फिर कहिए तो मैं ही खिलाऊं आपको?"
"अपने इस भाई से इतना प्यार और स्नेह मत कर बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"अगर मैं इतना ही अच्छा होता तो मेरे यहाँ आने पर मेरे बाकी भाई लोग खुश भी होते और मुझसे मिलने भी आते। मैं उनका दुश्मन तो नहीं हूं ना?"
"किसी और के खुश न होने से या उनके मिलने न आने से।" कुसुम ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"आप क्यों इतना दुखी होते हैं भैया? आप ये क्यों नहीं सोचते हैं कि आपके आने से मैं खुश हूं, बड़ी माँ खुश हैं, मेरी माँ खुश हैं और भाभी भी खुश हैं। क्या हमारी ख़ुशी आपके लिए कोई मायने नहीं रखती?"
"अगर मायने नहीं रखती तो इस वक़्त मैं इस हवेली में नहीं होता।" मैंने कहा____"बल्कि इसी वक़्त यहाँ से चला जाता और इस बार ऐसा जाता कि फिर लौट कर कभी वापस नहीं आता।"
"आप मुझसे बड़े हैं और दुनियादारी को आप मुझसे ज़्यादा समझते हैं।" कुसुम ने कहा____"इस लिए आप ये जानते ही होंगे कि इस दुनिया में किसी को भी सब कुछ नहीं मिल जाया करता और ना ही हर किसी का साथ मिला करता है। अगर कोई हमारा दोस्त बनता है तो कोई हमारा दुश्मन भी बनता है। किसी बात से अगर हम खुश होते हैं तो दूसरी किसी बात से हम दुखी भी होते हैं। ये संसार सागर है भइया, यहाँ हर चीज़ के जोड़े बने हैं जो हमारे जीवन से जुड़े हैं। एक अच्छा इंसान वो है जो इन जोड़ों पर एक सामान प्रतिक्रिया करता है। फिर चाहे सुख हो या दुःख।"
"इतनी गहरी बातें कहा से सीखी हैं तूने?" कुसुम की बातें सुन कर मैंने हैरानी से उससे पूछा।
"वक्त और हालात सब सिखा देते हैं भइया।" कुसुम ने हलकी मुस्कान के साथ कहा____"मुझे आश्चर्य है कि आप ऐसे हालातों में भी ये बातें सीख नहीं पाए या फिर ये हो सकता है कि आप ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते।"
"ये तो तूने सच कहा कि ऐसी बातें वक़्त और हालात सिखा देते हैं।" मैंने कुसुम की गहरी आँखों में झांकते हुए कहा____"किन्तु मैं ये नहीं समझ पा रहा हूं कि तुझे ऐसी बातें कैसे पता हैं, जबकि तू ऐसे हालातों में कभी पड़ी ही नहीं?"
"ऐसा आप सोचते हैं।" कुसुम ने थाली से रोटी का एक निवाला तोड़ते हुए कहा____"जबकि आपको सोचना ये चाहिए था कि अगर मुझे ऐसी बातें पता हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि मैंने भी ऐसे हालात देखे ही होंगे। ख़ैर छोड़िए इस बात को और अपना मुँह खोलिए। खाना नहीं खाना है क्या आपको?"
कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?
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