Game888
Hum hai rahi pyar ke
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Mast update haiअध्याय - 42
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अब तक....
जिस गांव में पिता जी पंचायत के लिए जा रहे थे वो गांव आ गया था इस लिए हमारे बीच इस विषय पर अब कोई बातचीत नहीं हो सकती थी। मैंने पिता जी से इतना ज़रूर कहा कि मुझे अपने तरीके से कुछ चीज़ें करने की इजाज़त दें। पिता जी मेरी बात सुन कर कुछ पलों तक मेरी तरफ देखते रहे फिर सिर हिला कर मुझे इजाज़त दे दी लेकिन साथ ही ये भी कहा कि जो भी करना बहुत ही होशियारी से करना। मैं इजाज़त मिल जाने से अंदर ही अंदर खुश हो गया था। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे अचानक ही मैं किसी पिंजरे से आज़ाद हो गया हूं और अब कुछ भी कर सकता हूं।
अब आगे....
वापस हवेली आते आते दोपहर हो गई थी। माँ ने खाना खाने के लिए कहा लेकिन मैंने उन्हें ये कह कर इंकार कर दिया था कि मुझे किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है। अपनी बुलेट ले कर मैं सीधा मुरारी के गांव निकल गया था। जैसा कि मैंने पहले भी बताया था कि इधर से जाने पर सबसे पहले गांव से बाहर मुरारी का ही घर पड़ता था। उसके घर के क़रीब पहुंचा तो घर के बाहर ही मुझे सरोज काकी मिल गई थी। मैंने उससे कहा कि थोड़ी देर में लौट कर आऊंगा और अनुराधा के हाथ का बना खाना खाऊंगा। सरोज काकी मेरी बात सुन कर मुस्कुराई और फिर हाँ में सिर हिला दिया था। उसके बाद मैं सीधा जगन के घर पहुंच गया था। जगन घर पर नहीं था। उसकी बीवी ने बताया कि गांव तरफ गए हैं। मेरे कहने पर उसने अपने बेटे को भेजा था जगन को बुला कर लाने के लिए। थोड़ी देर में जब जगन आया तो मुझे अपने घर में देखते ही पहले तो चौंका था फिर ख़ुशी से मुस्कुराने लगा था। उसने मेरे स्वागत के लिए खुद ही जल्दी से जल पान की ब्यवस्था कर दी थी।
जल पान करने के बाद मैंने जगन को बताया कि मैं उसके पास एक ख़ास काम से आया हूं। जगन मेरी बात सुन कर ख़ुशी ख़ुशी बोला कि ये उसकी खुशनसीबी है कि मैं उसके पास किसी काम से आया हूं। ख़ैर मैंने जगन को एक काम सौंपा और कहा कि जल्द से जल्द वो काम कर के मुझे बताए। जगन काम के बारे में सुन कर थोड़ा चौंका भी था और हैरान भी हुआ था लेकिन फिर बोला कि ठीक है वैभव बेटा मैं जल्दी ही ये काम कर के बताता हूं।
जगन के यहाँ कुछ देर मैं रुका और उसके घर का भी हाल चाल लिया उसके बाद मैं अपनी बुलेट ले कर मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। कल जब मैं यहाँ आया था तो अनुराधा से कह कर गया था कि दूसरे दिन मैं उसके हाथ का बना खाना खाने आऊंगा। सुबह क्योंकि मुझे पिता जी के साथ पंचायत पर जाना पड़ गया था इस लिए मुझे कुछ ज़्यादा ही देर हो गई थी। ख़ैर मुरारी काका के घर के बाहर मैंने बुलेट खड़ी की। दरवाज़ा खुला ही था तो मैं अंदर दाखिल हो गया। अंदर सरोज काकी अपने बेटे अनूप के पास बैठी थी।
"बड़ी देर लगा दी आने में बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"अनु ने बताया था कि आज तुम यहाँ पर खाना खाने आओगे तो मैं बड़ा खुश हुई थी।"
"माफ़ करना काकी।" काकी ने उठ कर बरामदे में रखी चारपाई को बिछाया तो मैं उसमें बैठते हुए बोला____"असल में सुबह पिता जी के साथ पंचायत पर चला गया था इस वजह से आने में देर हो गई वरना तुम तो जानती ही हो कि अनुराधा के हाथ का बना खाना खाने के लिए मैं भागता हुआ यहाँ आता।"
"मैंने उसे समझाया था कि खाना अच्छे से बनाना और सब कुछ तुम्हारी पसंद का ही बनाए।" काकी ने कहा____"इस चक्कर में ये सुबह जल्दी ही उठ गई थी और जल्दी नहा भी लिया था। उसके बाद खाना बनाने की तैयारी में जुट गई थी। जब तुम सुबह नहीं आए तो मैं समझ गई कि कहीं किसी काम में फंस गए होगे। तुम्हारे चक्कर में हम लोगों ने भी नहीं खाया। बस अनूप खाने के लिए रोने लगा था तो इसे खिलाया।"
"तुम भी हद करती हो काकी।" मैंने हैरानी से कहा____"मेरे चक्कर में तुम लोगों को भूखा रहने की भला क्या ज़रूरत थी? वैसे तुम्हें पता है हवेली में माँ ने मुझसे खाना खाने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया उन्हें। अब तुम ही बताओ काकी कि यहाँ के खाने को भुला कर मैं कैसे हवेली का खाना खा लेता और वो भी तब जबकि मैंने अनुराधा से कहा हो कि मैं ज़रूर आऊंगा।"
"यानी हम लोगों की तरह तुम भी भूखे ही घूम रहे हो?" सरोज काकी हंसते हुए बोली____"ख़ैर, अब बातें छोड़ो और चलो जल्दी से हाथ मुँह धो लो। मैं तब तक बैठका लगाती हूं।"
सरोज काकी ने अनुराधा को आवाज़ दी तो वो रसोई से निकल कर बाहर आई। काकी ने उससे कहा कि वो मुझे पानी दे ताकि मैं हाथ पैर धो लूं। काकी की बात सुन कर अनुराधा कोने में रखी बाल्टी का पानी उठा कर नर्दे के पास रख दिया। मैं नर्दे के ही पास आ गया था। मैंने देखा अनुराधा के चेहरे पर अलग ही चमक थी। जैसे ही मुझसे नज़र मिलती तो वो झट से नज़रें हटा लेती और अपनी मुस्कान को छुपाने की नाकाम कोशिश करने लगती। मैंने उसे छेड़ने का सोचा।
"कहो ठकुराईन क्या हाल चाल हैं?" मैंने मुस्कुराते हुए धीमी आवाज़ में ये कहा तो अनुराधा बुरी तरह चौंकी और आँखें फाड़ कर मेरी तरफ देखने लगी। चेहरे पर घबराहट के भाव लिए वो धीमें से ही बोली____"मु..मुझे इस नाम से मत पुकारिए।
"ना, मैं तो अब इसी नाम से पुकारूँगा तुम्हें।" उसने लोटे में भर कर पानी दिया तो मैंने लेते हुए कहा।
"नहीं न।" अनुराधा ने बेबस भाव से कहा____"मां ने सुन लिया तो वो बहुत डाँटेगी मुझे।"
"अगर तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें ठकुराईन न कहूं।" मैंने हाथ धोते हुए कहा____"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और काकी के सामने मेरा नाम ले कर पुकारोगी।"
"पर बिना वजह कैसे पुकारूंगी मैं?" अनुराधा ने उलझनपूर्ण भाव से कहा____"वैसे मैंने कहा तो है आपसे कि अब से मैं आपका नाम ले कर ही आपको पुकारुंगी।"
"चलो अब यही तो देखना है।" मैंने खड़े होते हुए कहा____"कि तुम मुझे काकी के सामने मेरे नाम से पुकारती हो कि नहीं।"
"पर मैं बिना वजह कैसे आपको पुकारूंगी भला?" अनुराधा ने मासूमियत से कहा____"ऐसे में तो माँ गुस्सा हो जाएगी।"
"यार तुम काकी से इतना डरती क्यों हो?" मैंने उसे घूरते हुए कहा____"अच्छा मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूं। उपाय ये है कि जब मैं खाना खा रहा होऊंगा तो तुम रसोई से ही मेरा नाम लेकर मुझसे पूछना कि मुझे और कुछ चाहिए कि नहीं, ठीक है?"
"और अगर मेरे ऐसा कहने पर माँ ने डांटा तो?" अनुराधा ने मेरी तरफ नज़र उठा कर देखा।
"अरे! मैं हूं न।" मैंने उसे आस्वस्त किया____"काकी अगर तुम्हे डाँटेगी तो मैं काकी को अच्छे से समझा दूंगा।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा ने हाँ में सिर हिलाया और चली गई। हाथ पैर धो कर मैं आया तो देखा काकी ने बरामदे की ज़मीन पर एक चादर बिछा दी थी और उसके सामने एक लकड़ी का पीढ़ा रख दिया था जिसके बगल से लोटा ग्लास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। काकी मेरे पास ही कुछ दूरी पर बैठ गई। कुछ ही देर में अनुराधा थाली ले कर आई और उस लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में वो सब कुछ था जो मुझे इस घर में सबसे ज़्यादा खाना पसंद था।
खाना शुरू हुआ और खाने के दौरान काकी से इधर उधर की बातें भी शुरू हो गईं। ये अलग बात है कि मेरा ध्यान काकी से बातों में कम बल्कि इस बात पर ज़्यादा था कि अनुराधा कब रसोई से मेरा नाम ले कर मुझे पुकारती है। इस बीच कई बार अनुराधा रसोई से निकल कर आई और थाली में कुछ न कुछ रख कर चली गई लेकिन एक बार भी उसने वो न किया जो कहने का हमारे बीच समझौता हुआ था। यहाँ तक कि मैं खाना भी खा चुका और हाथ धो कर चारपाई पर भी जा बैठा। इस बात से मुझे अनुराधा पर बेहद गुस्सा आया हुआ था। अभी मैं अपने अंदर उभरे इस गुस्से को काबू में कर ही रहा था कि तभी सरोज काकी का बेटा अनूप काकी से कहने लगा कि उसे दिशा मैदान जाना है। वो पेट पकड़े काकी के सामने आ कर खड़ा हो गया था।
"बेटा तुम यहीं बैठना।" काकी मेरी तरफ देखते हुए बोली____"मैं इसे दिशा मैदान करा के लाती हूं।"
"ठीक है काकी।" मैं मन ही मन ये सोच कर खुश हो गया कि काकी के चले जाने से मुझे अनुराधा के साथ अकेले रहने का मौका मिल गया है लेकिन प्रत्यक्ष में बोला____"लेकिन जल्दी ही आना क्योंकि मुझे हवेली जल्दी जाना है।"
काकी अनूप को ले कर दूसरे वाले दरवाज़े से घर के पीछे की तरफ चली गई। काकी के जाते ही मानो फ़िज़ा में सन्नाटा छा गया। मेरा दिल किया कि अभी उठूं और पलक झपकते ही रसोई में अनुराधा के पास पहुंच जाऊं। अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी अनुराधा रसोई से निकल कर बाहर आई।
"मुझे माफ़ कर दीजिए।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए दीन हीन भाव से कहा____"मां के सामने आपका नाम ले कर आपको पुकारने की मुझमें हिम्मत ही न हुई थी। हर बार सोचती थी कि अब पुकारूंगी आपको लेकिन माँ के डर से पुकारा ही नहीं गया मुझसे। माफ़ कर दीजिए मुझे।"
"तुम्हें पता है इस वक़्त मुझे कैसा महसूस हो रहा है?" मैंने संजीदा भाव से कहा____"ऐसा लग रहा है जैसे सरे-बाज़ार लुट गया हूं मैं। भरी महफ़िल में जैसे किसी ने मेरी इज़्ज़त का जनाजा निकाल दिया हो।"
"भगवान के लिए ऐसा मत कहिए।" अनुराधा ने सहसा दुखी भाव से कहा____"मुझे खुद भी बहुत बुरा लग रहा है कि मैंने आपका कहा नहीं माना लेकिन यकीन मानिए माँ के सामने मुझसे कुछ बोला ही नहीं गया।"
"छोड़ो इस बात को।" मैंने जब देखा कि अनुराधा की आँखें नम हो गई हैं तो मुझे एहसास हुआ कि ग़लती उसकी नहीं थी। यकीनन अपनी माँ के सामने उससे बोला नहीं गया होगा। उसकी हालात को समझते हुए मैंने आगे कहा____"मैं समझ सकता हूं कि तुम्हारे लिए ये इतना आसान नहीं था। तुमने कोशिश की यही बड़ी बात है।"
"क्या आप नाराज़ हैं?" उसने मासूमियत से मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
"यही तो समस्या है कि मैं तुमसे नाराज़ नहीं हो सकता।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम वो लड़की हो जिसने मुझ जैसे इंसान को मुकम्मल तौर पर बदल दिया है। तुम सच में एक अच्छी लड़की हो अनुराधा। मैं अगर चाहूं भी तो तुमसे नाराज़ नहीं हो सकता। कभी कभी सोचता हूं कि क्या तुमने कोई जादू कर दिया है मुझ पर?"
"ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा बुरी तरह चौंकी।
"वही जो मैं महसूस करता हूं।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"कुछ तो किया ही है तुमने। कभी खुद भी सोचना इस बारे में।"
"पता नहीं आप ये क्या बोले जा रहे हैं।" अनुराधा ने सिर झुका कर कहा____"मैं तो बस इतना जानती हूं कि मैं किसी के साथ कुछ भी करने का सोच भी नहीं सकती।"
"छोड़ो इस बात को।" मैंने कहा____"मैं बस इतना ही कहना चाहता हूं कि आज कल वक़्त और हालात ठीक नहीं हैं इस लिए अपना और अपने परिवार का ख़याल रखना। एक बात और, अगर किसी भी तरह की ऐसी वैसी कोई बात समझ में आए तो सीधा उस जगह पर चली जाना जहां पर मेरा नया मकान बन रहा है। वहां पर तुम्हें भुवन नाम का एक आदमी मिलेगा, उसे तुम बता देना।"
"क्या कुछ होने वाला है वैभव जी?" अनुराधा ने मेरा नाम ले कर कहा____"क्या वो साहूकार का लड़का फिर से कुछ करने वाला है?"
"किसी का भरोसा नहीं है अनुराधा।" मैंने कहा____"कौन कब क्या करेगा इस बारे में ठीक से कुछ नहीं कह सकते। इसी लिए कह रहा हूं कि ख़याल रखना। रात में दरवाज़े अच्छे से बंद कर के रखना, और अगर कोई दरवाज़ा खुलवाए तो पहले ये जान लेना कि बाहर कौन है। कोई अजनबी कितना भी ज़ोर देकर कहे मगर दरवाज़ा मत खोलना।"
"आपकी ये बातें सुन कर तो मुझे अब घबराहट होने लगी है वैभव जी।" अनुराधा ने चिंतित भाव से कहा____"आज तक मेरे बाबू जी के हत्यारे का पता नहीं चला। हमारा ये घर वैसे भी गांव से बाहर अलग बना हुआ है जिससे अगर कोई ऐसी बात हुई भी तो जल्दी से कोई हमारी मदद के लिए नहीं आ सकता।"
"फ़िक्र मत करो।" मैंने कहा____"मेरे रहते ऐसी वैसी कोई बात नहीं होगी। मैं तुम लोगों की सुरक्षा का कोई अच्छा सा इंतजाम कर दूंगा।"
अभी मैं उससे बात ही कर रहा था कि तभी अनुराधा का भाई अनूप दूसरे वाले दरवाज़े से आँगन में दाखिल हुआ। उसे देख अनुराधा जल्दी से मुझसे दूर चली गई। अनूप के पीछे सरोज काकी भी आ गई। थोड़ी देर मैं वहां रुका उसके बाद बुलेट ले कर शहर की तरफ निकल गया। समय आ गया था कुछ अलग करने का और कुछ ज़रूरी काम करने का।
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उस वक़्त शाम ढल चुकी थी।
हमारे गांव से क़रीब तीस किलो मीटर की दूरी पर एक गांव था जिसका नाम था नाहरपुर। नाहरपुर के पास ही एक जंगल था। उस जंगल के बीच में ही वो तांत्रिक अपने परिवार के साथ रहता था जिसके बारे में जगन काका ने पता कर के मुझे बताया था। मैं और जगताप चाचा अपने कुछ आदमियों के साथ जीप में वहां पहुंचे थे। जंगल के अंदर जीप नहीं जा सकती थी इस लिए जीप को बाहर ही खड़ी कर के हम सब जंगल के अंदर की तरफ गए थे। हम सबके हाथों में बड़ी बड़ी बन्दूखें थी जबकि मेरे पास पिता जी द्वारा दिया हुआ रिवाल्वर था। जंगल के बीचो बीच तांत्रिक की एक बड़ी सी कुटिया बनी हुई थी। उस कुटिया के अगल बगल और भी दो कुटिया बनी हुईं थी। हम सब के अंदर बेहद गुस्सा भरा हुआ था, ख़ास कर मेरे अंदर मगर जैसे ही हम सब तांत्रिक की कुटिया के पास पहुंचे तो वहां के वातावरण में गूंजते चीखो पुकार को सुन कर हम सब एकदम से रुक गए थे।
हम लोगों को समझ न आया था कि आख़िर ये चीखो पुकार किस बात का था? एक दो औरतें थी और दो तीन लड़के लड़कियां। सबके सब दहाड़ें मार मार कर रो रहे थे। मुझे किसी बात की आशंका हुई तो मैंने जगताप चाचा को फ़ौरन ही कुटिया के पास पहुंचने को कहा था। जब हम सब वहां पहुंचे तो रोने धोने की आवाज़ और भी तेज़ सुनाई देने लगी। जगताप चाचा ने हमारे एक आदमी को कुटिया के अंदर जा कर पता करने को कहा। आदमी गया और थोड़ी ही देर में उसने बताया कि अंदर एक औरत है जो किसी की लाश के पास बैठी बुरी तरह रो रही है और उसके साथ उसके छोटे बड़े बच्चे भी रोए जा रहे हैं।
हम सब तेज़ी से अंदर दाख़िर हुए। हम लोगों को देख कर उन सबका रोना धोना एकदम से बंद हो गया। जगताप चाचा के पूछने पर उस औरत ने बताया कि किसी ने उसके तांत्रिक पति की हत्या कर दी है। उसकी बात सुन कर जहां जगताप चाचा स्तब्ध रह गए थे वहीं मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पैरों तले से ज़मीन ही गायब हो गई हो। दिलो दिमाग़ कुछ पलों के लिए मानो कुंद सा पड़ गया था। फिर जब ज़हन ने काम करना शुरू किया तो मेरे दिमाग़ में बस एक ही बात आई कि षड्यंत्रकारियों को शायद पता चल गया होगा कि उनका भेद खुल चुका है इस लिए उन्होंने उस तांत्रिक की भी जान ले ली जिसके द्वारा हम उनके पास पहुंच सकते थे। पलक झपकते ही सारे किए कराए पर पानी फिर गया था। सारी मेहनत और सारी होशियारी बेकार साबित हो गई थी।
जगताप चाचा के पूछने पर उस औरत ने बताया कि सुबह के क़रीब ग्यारह बजे उसका तांत्रिक पति किसी काम के सिलसिले से कुटिया से गया था। जब वो दिन ढलने के बाद भी वापस न आया तो उसने अपने सोलह वर्षीय बेटे को उसका पता लगाने के लिए भेजा था। उसके बाद जब उसका बेटा वापस आया तो उसके साथ में उसका मरा हुआ पति भी था जिसके पेट में किसी तेज़ धार वाले हथियार के कई सारे गहरे घाव थे। उसका बेटा अपने पिता की लाश को बड़ी मुश्किल से बांस की बनाई गई अर्थी में लिटा कर लाया था।
तान्त्रिक की बीवी कोई पचास के आस पास वाली उम्र की औरत थी। उसके चार बच्चे थे। जिनमें से पहले एक पच्चीस वर्षीय शादी शुदा बेटी थी और फिर एक सोलह वर्षीय वही बेटा जो अपने पिता की लाश को ले कर आया था। उसके बाद दो और बच्चे थे जिनमें से एक लड़का और एक लड़की थी। तांत्रिक की बीवी ने बताया कि अभी डेढ़ घंटे पहले ही उसका बेटा अपने पिता की लाश ले कर आया था। बेटे के अनुसार तांत्रिक की लाश जंगल में ही एक जगह पड़ी मिली थी।
मैंने और जगताप चाचा ने उस औरत से ज़्यादातर यही जानने की कोशिश की थी कि तांत्रिक की हत्या किसने की होगी और पिछले कुछ समय से ऐसे कौन से लोग उससे मिलने आए थे। हमारे पूछने पर उस औरत का जवाब यही था कि उसके तांत्रिक पति के पास बहुत से लोग आते थे इस लिए वो ये नहीं बता सकती कि किसने उसके पति की हत्या की होगी। मैं समझ गया था कि अब यहाँ पर हमें ऐसी कोई भी जानकारी नहीं मिल सकती थी जिससे ये पता चल सके कि तांत्रिक को किसने मेरे बड़े भाई और मुझ पर तंत्र क्रिया करने के लिए कहा होगा?
किसी हारे हुए जुआंरी की तरह हम सब वहां से वापस चल पड़े थे। मुझे उम्मीद थी कि हवेली में पिता जी से इस बारे में ज़रूर कुछ ऐसा पता चलेगा क्योंकि वो कुछ आदमियों के साथ कुल गुरु से मिलने गए हुए थे। हम रात के क़रीब आठ बजे हवेली पहुंचे थे। हमें नहीं पता था कि हवेली में एक नया ही काण्ड हुआ देखने को मिलेगा।
पिता जी वापस आ चुके थे। ये देख कर मेरे मन में सब कुछ जानने की ब्याकुलता और उत्सुकता भर गई थी लेकिन जल्दी ही पता चला कि हवेली की एक नौकरानी ने ज़हर खा कर खुद ख़ुशी कर ली है। हवेली में इस बात के चलते बड़ा अजीब सा माहौल छाया हुआ था।
"ये सब कैसे हुआ बड़े भैया?" जगताप चाचा ने उस नौकरानी की लाश को देखते हुए पूछा____"ऐसी क्या बात हुई कि इसने ज़हर खा कर खुद ख़ुशी कर ली?"
"यही तो हमारी समझ में भी नहीं आ रहा जगताप।" पिता जी ने गंभीर भाव से कहा_____"अभी कुछ देर पहले जब हम यहाँ आए तभी हमें पता चला कि ये नौकरानी हवेली के एक कमरे में मेनका को मरी हुई मिली थी।"
"बड़ी हैरत की बात है।" जगताप चाचा ने सोचपूर्ण भाव से कहा____"पर इसने ऐसा क्यों किया होगा? वैसे ये मेनका को कब मिली थी?"
"जब तुम लोग यहाँ से गए थे तब।" पिता जी ने कहा____"किसी काम के लिए जब इसको हवेली में खोजा गया तो ये किसी को नज़र ही नहीं आई थी। तुम्हें तो पता ही है कि कुछ नौकरानियाँ शाम का अपना काम करने के बाद अपने अपने घर चली जाती हैं। मेनका ने बाकी नौकरानियों को भी इसकी खोज में लगाया और खुद भी खोजती रही। काफी खोजबीन के बाद मेनका को ये ऊपर के उस कमरे में मिली जो हमेशा खाली ही रहता है।"
"इसके घर वालों को सूचित किया गया या नहीं?" सहसा मैंने पूछने की हिमाक़त की।
"हवेली में इस तरह इसकी लाश को देख कर सब घबरा गए थे।" पिता जी ने बताया____"इस लिए किसी ने इसके घर वालों तक ख़बर नहीं भेजवाई थी लेकिन अब भेजवाना ही पड़ेगा।"
"हवेली में इस तरह किसी नौकरानी का खुद ख़ुशी कर लेना बहुत सी संगीन बात है पिता जी।" मैंने कहा____"गांव वालों को पता चला तो लोग तरह तरह की बातें करने लगेंगे। गांव के साहूकार तो और भी इस मामले को उछालेंगे। हमें बहुत ही सोच समझ कर इस बारे में कोई काम करना होगा।"
"हमने दरोगा को इत्तिला भेजी है।" पिता जी ने कहा____"वो आएगा और इस मामले की जांच करेगा। जगताप तुम इसके घर वालों तक ख़बर भेजवा दो और उन्हें समझाओ कि ये जो कुछ भी हुआ है उसकी पूरी ईमानदारी से जांच करवाई जाएगी। हालांकि मामला खुद ख़ुशी का है लेकिन ये पता करने की ज़रूर कोशिश की जाएगी कि इसने खुद ख़ुशी क्यों की अथवा इसे खुद ख़ुशी करने पर किसने मजबूर किया था?"
"जो हुकुम बड़े भइया।" जगताप चाचा ने सिर नवा कर कहा और हवेली से बाहर चले गए।
मुझे इस सबकी ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। न तो उस तांत्रिक की इस तरह हत्या हो जाने की और ना ही इस नौकरानी के इस तरह खुद ख़ुशी कर लेने की। सहसा मुझे उस नौकरानी का ख़याल आया जो उस रात विभोर और अजीत के साथ मज़े कर रही थी। मैंने आस पास नज़र घुमाई लेकिन वो नज़र न आई। मैंने सोचा इस नौकरानी की इस तरह खुद ख़ुशी कर लेने से कहीं वो भी न कुछ कर बैठे या फिर उसके साथ कोई कुछ कर न दे। मैं फ़ौरन ही अंदर की तरफ भागा और उसकी खोज करने लगा लेकिन वो मुझे नज़र न आई। उसके न मिलने से मेरे मन में तरह तरह की आशंकाए उभरने लगीं और साथ ही ये सोच कर मुझे घबराहट सी भी होने लगी कि अगर वो न मिली या उसके साथ कुछ हो गया तो मेरे हाथ से एक और मौका निकल जाएगा। मैं पागलों की तरह हवेली के ज़र्रे ज़र्रे पर उसे खोज रहा था लेकिन उसे तो मानो मिलना ही नहीं था। अचानक मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि कहीं वो हवेली से खिसक न गई हो। उसने देखा होगा कि एक नौकरानी ने खुद ख़ुशी कर ली है तो उसके मन में भी यही ख़याल आया होगा कि कहीं वो भी पकड़ी न जाए इस लिए मौका देख कर भाग निकली होगी।
मैं फ़ौरन ही हवेली से बाहर निकला। अपने साथ एक आदमी को लिया और तेज़ क़दमों से चलते हुए उस औरत के घर की तरफ चल पड़ा। मैं उसे इस तरह हाथ से नहीं निकल जाने देना चाहता था। अगर उसके साथ कुछ हो गया तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो जानी थी। एक वही थी जो मुझे बता सकती थी कि वो कुसुम को किस बात पर मजबूर किए हुए थी या फिर ये कहूं कि विभोर और अजीत उसे कौन सी पट्टियां पढ़ा कर मेरे खिलाफ़ किए हुए हैं?
क़रीब दस मिनट लगे मुझे उस औरत के घर तक पहुंचने में। वो औरत हमारे गांव की ही थी। उसके घर वाले हमारे खेतों में काम करते थे। उसका पति बाहर ही चारपाई पर बैठा मिल गया। मुझ पर नज़र पड़ते ही वो जल्दी से चारपाई से उठा और हाथ जोड़ कर सलाम किया। मैंने बिना किसी भूमिका के उससे पूछा कि उसकी बीवी कहां है? वो मेरे पूछने पर थोड़ा घबरा सा गया और बोला कि अभी अभी वो दिशा मैदान के लिए गई है। मैंने उस आदमी से दूसरा सवाल यही पूछा कि दिशा मैदान के लिए वो किस तरफ गई है। उस आदमी के बताने पर मैं अपने आदमी के साथ फ़ौरन ही उस तरफ बढ़ चला। औरत का पति बुरी तरह डर गया था और उलझन में पड़ गया था। इधर मैं यही सोच रहा था कि रात के साढ़े आठ बजे उस औरत का दिशा मैदान के लिए जाना क्या स्वभाविक हो सकता है या इसके पीछे कोई और वजह हो सकती है? आम तौर पर गांव की औरतें दिन ढले ही दिशा मैदान के लिए निकल जाती थीं।
इसे किस्मत कहिए या इत्तेफ़ाक़ कि मैं अपने आदमी के साथ बिल्कुल सही दिशा में ही आया था क्योंकि वो औरत हल्की चांदनी रात में मुझे कुछ दूरी पर दिख गई थी। वो तेज़ी से बढ़ी चली जा रही थी। मैंने अपने आदमी को इशारा किया कि वो भाग कर जाए और उसे पकड़ ले। मेरा हुकुम मिलते ही शम्भू नाम का मेरा आदमी उस औरत की तरफ भाग चला। अपने क़रीब जैसे ही किसी के दौड़ते हुए आने का आभास हुआ तो उस औरत ने पलट कर देखा और बुरी तरह डर कर उसने भागना ही चाहा था कि लड़खड़ा कर वहीं ज़मीन पर गिर गई। जब तक वो सम्हल कर खड़ी होती तब तक शम्भू किसी जिन्न की तरह उसके सिर पर जा खड़ा हुआ था। उसके बाद शम्भू ने उस औरत की कलाई पकड़ी और ज़बरदस्ती खींचते हुए उसे मेरे पास ले आया। मुझ पर नज़र पड़ते ही मानो उस औरत की नानी मर गई।
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Pratibimb jaisi ghumaavdaar baate bana kar credit lena koi aapse seekhe Well kuch bhi kahiye, lekin ye to aap bhi maan chuke hain na ki Death Kiñg bhai jaisa analysis aap bhi nahi kar sakte...ya fir ye ho sakta hai ki aap thoda kanjoosi kar jate honge..par ye baat zyada sahi nahi lagti. kamdev99008 bhaiya ka analysis bhi dilchasp aur kamaal ka hota hai lekin current time me death king bhai is maamle me top par hainMujhe n jane aisa kyon lagta hai jaise Yug Purush bhai aur Death Kiñg bhai mere hi pratibimb hai......ya Yun kahun ki un dono ka pratibimb hu main...Ek ki writing skill to ek ka review dene ka andaz...... Dono wahi likhte hai jo mere dimag me us waqt chal raha hota hai.
Gyaani bhai ki to baat hi alag hai.... bahut jyada experience holder hai wo lekin death king bhai... jinhe jyada samay nahi hua yahe hue, ek parfect analysis ke taur par history create karne wale hai forum pe.
Sachmein bohot badi baat keh di bhai aapne... Ab ispar kya hi kahun? Sach bataun to last year shayad June mein forum par aaya tha aur September mein silent reader se review dene waala reader bana tha... Is dauran SANJU ( V. R. ) bhaiya aur aalu bhai ke vishleshan aur sameeksha se hi sabse adhik prabhavit hua tha aur beshak inhi dono ke reviews padhkar hi reviews dena seekha hun... Btw. aapne sahi kaha ke umra to abhi zyada nahi hai but I think ke anubhav is directly proportional to what you face in life... Umra ka ismein side character hi hota hai...Pratibimb jaisi ghumaavdaar baate bana kar credit lena koi aapse seekhe Well kuch bhi kahiye, lekin ye to aap bhi maan chuke hain na ki Death Kiñg bhai jaisa analysis aap bhi nahi kar sakte...ya fir ye ho sakta hai ki aap thoda kanjoosi kar jate honge..par ye baat zyada sahi nahi lagti. kamdev99008 bhaiya ka analysis bhi dilchasp aur kamaal ka hota hai lekin current time me death king bhai is maamle me top par hain
Jaha tak mujhe pata hai death king ki umar bhi zyada nahi hai. Mujhse umar me chhote hi honge...aap dono se to bahut hi chhote honge. So ye hairaani ki baat hai ki is umar me bhi itna zyada anubhav ya fir ye kahe ki kisi bhi cheez ko observe kar lene ki capacity unme baaki aam logo se zyaada hai, zaahir hai badhti umar ke sath ye observation aur bhi zyada hota jayega.
Shukriya bhai aapki shubhkamnao ke liye aur ishwar aapko bhi sukhi rakhe.Well ye bahut badi baat hai aur meri ishwar se yahi dua hai ki unka ye observation aur unka gyaan yu hi samay ke sath badhta rahe aur unko apne jeewan me har tarah ki khushiyo se bhari kamyaabi milti rahe
Bhai ab lag raha h ki kahani kuch rahasya sulajh rahe h nahi to ab tak maza hi nahi aa raha tha....अध्याय - 43
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अब तक....
इसे किस्मत कहिए या इत्तेफ़ाक़ कि मैं अपने आदमी के साथ बिल्कुल सही दिशा में ही आया था क्योंकि वो औरत हल्की चांदनी रात में मुझे कुछ दूरी पर दिख गई थी। वो तेज़ी से बढ़ी चली जा रही थी। मैंने अपने आदमी को इशारा किया कि वो भाग कर जाए और उसे पकड़ ले। मेरा हुकुम मिलते ही शम्भू नाम का मेरा आदमी उस औरत की तरफ भाग चला। अपने क़रीब जैसे ही किसी के दौड़ते हुए आने का आभास हुआ तो उस औरत ने पलट कर देखा और बुरी तरह डर कर उसने भागना ही चाहा था कि लड़खड़ा कर वहीं ज़मीन पर गिर गई। जब तक वो सम्हल कर खड़ी होती तब तक शम्भू किसी जिन्न की तरह उसके सिर पर जा खड़ा हुआ था। उसके बाद शम्भू ने उस औरत की कलाई पकड़ी और ज़बरदस्ती खींचते हुए उसे मेरे पास ले आया। मुझ पर नज़र पड़ते ही मानो उस औरत की नानी मर गई।
अब आगे....
शीला नाम की वो नौकरानी मुझे देख कर बुरी तरह डर गई थी। इससे पहले कि वो शंभू की पकड़ से छूट कर भागने की कोशिश करती मैंने शंभू को उसे बेहोश करने को कहा। हट्टे कट्टे शंभू ने मेरे हुकुम का फौरन ही पालन किया। उसने बिजली की सी तेज़ी दिखाते हुए शीला की कनपटी पर एक कराट मारी। परिणामस्वरूप शीला अगले ही पल उसकी बाहों में झूलती नज़र आई। मैंने शंभू से कहा कि इसे फ़ौरन ही अपने कंधे पर लाद कर हमारे बगीचे वाले मकान में ले चले।
कुछ ही समय में हम अपने बगीचे वाले मकान में थे। मकान के एक कमरे में शंभू ने शीला को एक चारपाई पर लेटा दिया। मैं क्योंकि समझ चुका था कि शीला भी उस नौकरानी की ही तरह हमारे दुश्मन का काम कर रही थी इस लिए मैंने शंभू से कहा कि वो शीला की तलाशी ले। मुझे अंदेशा था कि कहीं इसके पास भी कोई ज़हर वगैरा न हो जिसकी वजह से होश में आते ही वो अपनी जान लेने की कोशिश करे। मेरे कहने पर शंभू ने शीला की तलाशी ली लेकिन उसके पास से कुछ भी नहीं मिला। उसके बाद मैंने शंभू से उसको होश में लाने के लिए कहा तो शंभू तेज़ी से बाहर गया और फौरन ही कुएं से बाल्टी में पानी ले आया और उस पानी को शीला के चेहरे पर छिड़कने लगा। जल्दी ही शीला को होश आ गया। मैंने शंभू से कहा कि अब वो बाहर जाए और बाहर से निगरानी रखे।
"मु...मुझे यहां क्यों लाए हैं छोटे ठाकुर?" होश में आते ही शीला बुरी तरह घबराई हुई आवाज़ में बोल पड़ी थी____"क्..क्या आप मेरे साथ कुछ ऐसा वैसा करने वाले हैं?"
"क्या लगता है तुझे?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए सर्द लहजे में कहा____"क्या तू इतनी खूबसूरत है कि तुझे देख कर मेरा ईमान डोल जाएगा? क्या तेरा जिस्म ऐसा है कि विभोर और अजीत की तरह मैं भी तुझे चाटना शुरू कर दूंगा?"
"ये...ये आप क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर?" शीला एकदम से बौखला कर बोली____"देखिए, मैं ऐसी वैसी नहीं हूं। भगवान के लिए मुझे छोड़ दीजिए।"
"तू कैसी है ये मैं अपनी आंखों से देख चुका हूं साली रण्डी।" मैंने ज़ोर से उसके गाल पर थप्पड़ मार कर कहा। थप्पड़ लगते ही वो लड़खड़ा गई थी, और मारे डर के उसके माथे पर पसीना उभर आया था। जबकि मैंने शख़्त लहजे में कहा____"उस रात तू ही थी ना जो सीढ़ियों से नीचे भागते हुए गई थी और जब मैंने तेरा पीछा किया तो तू नीचे कहीं छिप गई थी? उसके बाद दूसरी बार मैंने कुसुम के कमरे से तुम लोगों की सारी बातें सुनी थी जब तू विभोर और अजीत के साथ मज़े कर रही थी।"
"मु...मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे ठाकुर।" मेरी बातें सुनते ही शीला जल्दी से मेरे पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाते हुए बोल पड़ी____"मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है, लेकिन इसमें भी मेरा कोई दोष नही है। वो तो आपके उन दोनों भाइयों ने मुझे अपने जाल में फांस लिया था और मैं भी थोड़े धन के लालच में आ गई थी। भगवान के लिए मुझे इस सबके लिए माफ़ कर दीजिए। मैं क़सम खाती हूं कि आज के बाद ऐसा कुछ भी नहीं करूंगी।"
"मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि तू विभोर और अजीत दोनों के ही साथ गुलछर्रे उड़ा रही है।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"मुझे सिर्फ ये बता कि तू उन दोनों के कहने पर कुसुम को किस बात पर मजबूर कर रही थी? आख़िर ऐसी कौन सी मजबूरी थी जिसके चलते कुसुम चाय में नामर्द बनाने वाली दवा मिला कर हर रोज़ मुझे देने आती है?"
"मु...मुझे कुछ नहीं पता छोटे ठाकुर।" शीला एकदम से हड़बड़ा गई, बोली____"भगवान के लिए मुझ पर यकीन कीजिए।"
"अगर तू सच नहीं बताएगी।" मैंने उसके सिर के बालों को पकड़ कर उठाते हुए कहा जिससे वो दर्द से बिलबिला उठी____"तो तू सोच भी नहीं सकती कि मैं तेरा क्या हाल कर सकता हूं। तुझे शायद पता नहीं है कि कुसुम मेरी बहन ही नहीं बल्कि मेरी जान भी है और कोई उसे किसी तरह से मजबूर कर के दुख दे तो ये मैं किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता। मेरी मासूम बहन को दुख देने वाले को मैं एक पल भी ज़िंदा नहीं रहने दूंगा।"
मेरी बात सुन कर शीला का चेहरा डर और दहशत से पीला ज़र्द पड़ गया था। वो थरथर कांप रही थी। नज़र उठा कर मुझे देखने की भी हिम्मत नहीं थी उसमें। जब काफी देर तक भी वो कुछ न बोली तो मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया।
"मैं तुझसे आख़िरी बार पूंछ रहा हूं।" मैंने कठोरता से कहा____"मुझे बता कि मेरी बहन को किस बात पर इतना मजबूर करती है कि वो मुझे चाय में नामर्द बना देने वाली दवा मिला कर पिलाने पर मजबूर हो जाती है? बता वरना तुझे नंगा कर के पूरे गांव में दौड़ाऊंगा और अपनी जिस चूंत पर तू विभोर और अजीत का लंड लेती है न उसमें लोहे का गरमा गरम सरिया डाल दूंगा।"
"अ...अगर मैंने आपको इस बारे में कुछ बताया तो वो लोग मुझे जान से मार देंगे।" शीला ने रोते हुए कहा____"भगवान के लिए मुझ पर दया कीजिए। मैं क़सम खाती हूं कि अब से ऐसा कुछ भी नहीं करूंगी। आप कहेंगे तो मैं ये गांव ही छोड़ कर चली जाऊंगी।"
"तेरे जैसी घटिया औरत को ज़िंदा रहने का कोई हक़ नहीं है।" मैंने गुस्से में दांत पीसते हुए कहा____"अब तक तूने जो पाप किए हैं उसका प्रायश्चित यही है कि तू मुझे सब कुछ सच सच बता दे। अगर नही बताएगी तो यहां से भी तू ज़िंदा नहीं जा पाएगी।"
मेरी बात सुन कर शीला ने बेबसी का घूंट पिया और अपने आंसू पोंछने लगी। उसके चेहरे के बदलते भावों से ऐसा ज़ाहिर हुआ मानों वो कोई फ़ैसला कर रही हो। जितना वो बताने में देरी कर रही थी उतना ही मुझे उस पर गुस्सा आ रहा था जिसे मैं बड़ी मुश्किल से रोके हुए था।
"ठ..ठीक है छोटे ठाकुर।" फिर उसने लरज़ते स्वर में कहा____"मैं आपको सब कुछ बताऊंगी लेकिन क्या फिर आप मुझे यहां से जाने देंगे?"
"पहले तू मुझे सब कुछ सच सच बता।" मैंने गुस्से से कहा____"तेरी बातें सुनने के बाद ही मैं सोचूंगा कि मुझे तेरे साथ क्या करना है।"
"ये बात तब की है जब आपको दादा ठाकुर ने गांव और समाज से बहिष्कृत कर के निकाल दिया था।" शीला ने गहरी सांस लेते हुए कहा_____"आपको इस तरह निकाले जाने से हवेली में लगभग सभी दुखी थे, खास कर आपकी लाडली बहन कुसुम। दिन ऐसे ही गुज़र रहे थे और गुज़रते समय के साथ सब कुछ सामान्य होता जा रहा था। आपकी बहन से मिलने उनकी कुछ सहेलियां हवेली आती थीं और वो घंटों कुसुम जी के कमरे में रहती थीं। आपके दोनों चचेरे भाई कुसुम जी की उन सहेलियों को भोगना चाहते थे लेकिन डर की वजह से उनका मंसूबा पूरा नहीं हो पा रहा था। मैं जो कि पहले से ही उनकी दासी बनी हुई थी इस लिए मैं उनके मंसूबों से अंजान नहीं थी। मैंने सोचा कि अगर मैं उन दोनों का काम कर दूं तो शायद वो खुश हो कर मुझे और भी रुपया पैसा देंगे। ये सोच कर मैं कुसुम जी पर नज़र रखने लगी। जब भी उनकी सहेलियां उनसे मिलने आतीं तो मैं चुपके से उनके कमरे के पास पहुंच जाती और ये जानने समझने की कोशिश करती कि अंदर कमरे में वो क्या बातें करती हैं। यूं तो मुझे इस तरह से कोई फ़ायदा नही हो रहा था लेकिन अचानक से एक दिन मुझे कुछ ऐसा पता चला जो मेरे लिए चकित कर देने वाला था।"
"ऐसा क्या पता चला था तुझे?" मैं उससे पूंछे बगैर न रह सका था।
"दिन के समय आपके दोनों चचेरे भाई और आपके बड़े भाई साहब हवेली में नहीं रहते थे।" शीला ने बताना शुरू किया____"शायद यही वजह थी कि उन लोगों को ऐसा कुछ करने की हिम्मत हुई थी। उस दिन जब कुसुम जी की सहेलियां उनसे मिलने आईं तो मैं भी कुछ देर बाद सबकी नज़र बचा कर ऊपर उनके कमरे के पास पहुंच गई और दरवाज़े से कान लगा कर उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगी। असल में उनकी बातें सुनने का मेरा सिर्फ़ यही मतलब था कि मैं जान सकूं कि कुसुम जी की सहेलियां हवेली के सभी लड़कों के बारे में किस तरह की बातें करती हैं? अगर बातें करती हैं तो ये मेरे लिए अच्छी बात होती क्योंकि उस सूरत में में सीधे उनसे बात कर सकती थी या फिर उन्हें आपके दोनों चचेरे भाईयों के लिए तैयार कर सकती थी। ख़ैर, मैं दरवाज़े पर कान लगाए अंदर की बातें सुनने लगी थी। तभी मुझे अंदर से ऐसी आवाज़ें सुनाई दीं जिन्हें सुन कर पहले तो मुझे यकीन न हुआ लेकिन फिर जब आवाज़ें अनवरत आती ही रहीं तो मैं बुरी तरह आश्चर्य चकित रह गई। मैं कुसुम जी को बहुत ही सीधी सादी और शरीफ़ लड़की समझती थी जबकि कमरे के अंदर से जिस तरह की आवाज़ें आ रही थीं उससे मैं हैरान हो गई थी। आवाज़ों से साफ था कि अंदर कमरे में कुसुम जी अपनी दोनों सहेलियों के साथ एक अनोखे सुख का आनंद ले रहीं थी। जिसके चलते उनके मुख से आनन्द भरी आहें और सिसकियां निकल रही थीं। मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि कुसुम जैसी शरीफ़ लड़की अपनी सहेलियों के साथ ऐसा करने का सोच भी कैसे सकती है? पर क्योंकि मैं ये समझती थी कि ऐसा इस उमर में होता ही है। मैं ये भी समझ गई थी कि ऐसे आनंद का ज्ञान ज़रूर उनकी सहेलियों ने ही उन्हें दिया होगा। ख़ैर, बाहर खड़े हो कर सुनने से मेरे मन में अब ये देखने की उत्सुकता जाग गई कि कमरे के अंदर वो किस तरह से इस तरह का आनंद ले रही होंगी? उनके कमरे में कोई खिड़की तो थी नहीं जिससे मैं उन्हें देख पाती, लेकिन सहसा मैं उस वक्त चौंकी जब अंजाने में ही मेरा हाथ लग जाने से कमरे का दरवाज़ा थोड़ा सा खुल गया। मैं ये देख कर हैरान हुई कि उन्होंने कमरे का दरवाज़ा तक अंदर से बंद नहीं किया था। शायद उस स्वर्गिक आनंद को पाने की उनमें इतनी जल्दी रही होगी कि वो दरवाज़े को अंदर से बंद करना ही भूल गईं थी। अंजाने में ही मेरा हाथ दरवाज़े पर लग गया था और वो थोड़ा सा खुल गया था। कमरे के अंदर वो सब आनंद में डूबी हुईं थी इस लिए उन्हें दरवाज़ा खुलने का कोई आभास ही नहीं हो पाया था। ख़ैर, मैंने सतर्कता से उस थोड़े से खुले दरवाज़े से अंदर की तरफ देखने की कोशिश की लेकिन ठीक से कुछ दिखा नहीं तो मैंने सावधानी पूर्वक दरवाज़े को थोड़ा और ढकेल कर खोल दिया। दरवाज़ा लगभग आधा खुल चुका था इस लिए मुझे अंदर देखने में कोई परेशानी नहीं हुई। मैंने पूरी सतर्कता से जैसे ही अंदर देखा तो मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं। कमरे के अंदर कुसुम जी पलंग पर पूरी तरह नंगी लेटी हुईं थी और उनकी दोनों सहेलियां उनके ऊपर झुकी हुईं थी। दोनों सहेलियों के संगमरमरी जिस्मों पर सिर्फ़ काली और लाल रंग की कच्छियाँ थी। एक सहेली कुसुम जी की छाती पर झुकी हुई थी और दूसरी सहेली उनकी टांगों के बीच में। पलंग पर लेटी कुसुम जी बुरी तरह मचल उठतीं थी और उनके मुख से आनन्द में डूबी सिसकियां निकल पड़ती थीं। कमरे के अंदर पलंग पर जो कुछ हो रहा था उसे देख कर मुझे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था, लेकिन उस सच पर भला मैं कब तक यकीन न करती?"
"तो सिर्फ़ इस वजह से तुम कुसुम को मजबूर किए हुए थी?" मैं अपनी बहन के बारे में ये सब सुन कर अंदर ही अंदर बेहद चकित था, मगर क्योंकि वो मेरी लाडली बहन थी इस लिए उसके बारे में ऐसी बातें मैं और ज्यादा सुनना नहीं चाहता था इस लिए बीच में ही बोल पड़ा था____"और क्या तुमने ये सब बातें विभोर और अजीत को भी बताई थी?"
"पहले तो ये सब उनसे बताने की मुझमें हिम्मत ही नहीं हो रही थी क्योंकि मुझे डर था कि अपनी बहन के बारे में ऐसी बातें सुन कर कहीं वो मुझ पर गुस्सा ही न हो जाएं।" शीला ने एक लंबी सांस ले कर कहा_____"लेकिन फिर ये सोच कर बताने का सोचा कि इस तरह में कुसुम जी की दोनों सहेलियों को उन्हें भोगने का बेहतरीन अवसर भी तो मिल जायेगा। ख़ैर उससे पहले ये सुनिए कि उस दिन आगे क्या हुआ। वो तीनों अपनी मस्ती और अपने आनंद में मगन थीं, लेकिन मुझे इस बात का एहसास था कि मैं ज़्यादा देर तक वहां नहीं ठहर सकती थी क्योंकि आपकी भाभी जी कभी भी आ सकतीं थी। मैंने फ़ौरन ही उन तीनों के सिर पर गाज गिराने का सोचते हुए दोनों हाथों से ज़ोर ज़ोर से ताली बजाना शुरू कर दिया। ताली बजने की आवाज़ से उन तीनों पर सच मुच में ही गाज गिर पड़ी थी। तीनों की तीनों ही बुरी तरह उछल पड़ीं थी। पलक झपकते ही उन तीनों की हालत ऐसी हो गई थी मानों उन तीनों के जिस्म में प्राण ही न रह गए हों। चेहरे एकदम सफ़ेद पड़ गए थे। काफी देर तक तो उन्हें अपनी नग्नता का आभास तक न हुआ लेकिन मैंने जैसे ही ये कहा कि ये सब यहां क्या हो रहा है तो उन तीनों में जैसे पलक झपकते ही जान आ गई। उसके बाद वो जल्दी जल्दी अपने अपने कपड़े पहनने लगीं। कुसुम जी तो इतनी घबरा गईं थी कि उन्होंने पलंग पर बिछी चादर को ही अपने ऊपर डाल लिया था। चेहरे पर डर, घबराहट और शर्मिंदगी के भाव गर्दिश करते हुए नज़र आ रहे थे। उनकी दोनों सहेलियां तो फ़ौरन ही अपने अपने कपड़े पहन कर कमरे से निकल कर भाग गईं थी लेकिन कुसुम जी में इतनी हिम्मत ही ना बची थी कि वो अपनी जगह से हिल डुल भी सकें। मुझे उनकी उस हालत पर मन ही मन मज़ा तो बहुत आया लेकिन फिर तरस भी आया। उधर कुसुम जी मुझसे नज़रें नहीं मिला पा रहीं थी। कुछ ही पलों में उनके चेहरे पर ऐसे भाव उभर आए मानों अभी रो देंगी। मेरी आत्मा तो चीख चीख कर कह रही थी कि उस मासूम को उस हालत में छेड़ना ठीक नहीं है लेकिन क्योंकि मुझे धन का लालच था इस लिए मैंने ऐसे मौके को हाथ से गंवाना भी उचित नहीं समझा। मैं जैसे ही उनकी तरफ बढ़ने लगी तो वो और भी ज़्यादा उस चादर में सिमटने लगीं लेकिन मुझे उनकी कोई परवाह नहीं थी। उनके पास पहुंच कर मैंने उनसे सिर्फ इतना ही कहा कि क्या हो अगर आपके इस खूबसूरत खेल के बारे में हवेली में किसी को पता चल जाए, खास कर उनके अपने दोनों भाईयों को? मैं जानती थी कि उनके दोनों भाई अक्सर उनको डांटते रहते थे। ख़ैर मेरी ये बात सुन कर कुसुम जी के चेहरे का रंग ही उड़ गया। बुरी तरह घबरा गईं वो। कुछ कहने के लिए उनके होंठ कांपे तो ज़रूर लेकिन होठों से कोई लफ्ज़ खारिज़ न हो सका। मुझे लगा कि ऐसी हालत में अगर मैंने उनको कुछ और भी कहा तो शायद कोई अनर्थ जैसी बात न हो जाए। इस लिए मैं मुस्कुराते हुए वापस पलटी और दरवाज़े की तरफ बढ़ चली। ये उनके अंदर समाया हुआ डर ही था कि वो हिम्मत जुटा कर जल्दी से ही बोल पड़ीं थी_____'र...रु...रुको।' उनके ऐसा कहने पर मैं अपनी जगह पर रुक गई थी लेकिन उनकी तरफ पलटी नहीं। मैं जानती थी कि अब वो इस सबके बारे में किसी से न कहने के लिए मुझसे मिन्नतें करेंगी और अगले ही पल ऐसा हुआ भी। जब उन्होंने डरे सहमे हुए भाव से इस बारे में किसी से कुछ न बताने के लिए मुझसे कहा तो इस बार मैंने पलट कर उनकी तरफ देखा और फिर मुस्कुराते हुए कहा____'ठीक है, मैं किसी को भी इस बारे में नहीं बताऊंगी लेकिन इसके लिए उनको भी एक कीमत चुकानी पड़ेगी। कीमत की बात सुन कर उनके चेहरे पर जल्दी ही राहत और खुशी के भाव उभर आए, कहा____'तुम्हें अपना मुंह बंद रखने के लिए जितना पैसा लेना हो ले लो लेकिन इस बारे में कभी किसी से कुछ मत कहना।' उनकी भोली और लुभावनी बात पर मैं ये सोच कर मुस्कुराई कि ये भी अपने दोनों भाईयों की तरह हर चीज़ की कीमत धन से ही चुकाने की बात करती हैं जबकि उनको तो ख़्वाब में भी ये उम्मीद नहीं हो सकती कि कीमत के रूप में मैं उनसे क्या मांगने वाली थी?"
शीला बोलते हुए एकदम से चुप हो गई और गहरी गहरी सांसें लेने लगी। मुझे उसकी बातें सुन कर उस पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा था कि वो मेरी बहन के साथ कैसा गंदा खेल खेल रही थी। ख़ैर, मैंने अपने गुस्से को किसी तरह सम्हाला और उसके आगे बोलने का इंतज़ार करने लगा।
"मैंने कुसुम जी से कहा कि मुझे उनसे ना तो धन चाहिए और ना ही कोई रुपया पैसा।" शीला ने एक बार फिर से बताना शुरू किया____"अगर वो चाहती हैं कि मैं उनके ऐसे कृत्य के बारे में किसी को कुछ भी न बताऊं तो उन्हें इसके लिए अपनी उन दोनों सहेलियों से ये कहना होगा कि वो दोनों उनके दोनों भाईयों को संभोग का सुख दें। मेरी ये बात सुन कर कुसुम जी के चेहरे का रंग एक बार फिर से उड़ गया। काफी देर तक उनके मुख से कोई अल्फाज़ न निकला। इधर मैंने एक बार फिर से अपनी बात दोहरा दी, वो भी कुछ इस अंदाज़ और लहजे में कि कुसुम जी के पास अब मेरी बात को मान लेने के सिवा कोई चारा ही ना रह जाए। कुसुम जी बुरी तरह फंस चुकीं थी। उनके जैसी लड़की अपनी इज्ज़त को बचाने की ख़ातिर अब शायद कुछ भी कर सकती थी। मैंने भी उन्हें समझाया कि इसके लिए उन्हें कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि वो अपनी सहेलियों से कह सकती हैं कि अगर वो ऐसा नहीं करेंगी तो ये उनके लिए भी अच्छा नहीं होगा। उस दिन मैं बेहद खुश थी कि चलो आपके दोनों चचेरे भाईयों के लिए दो कोरी लड़कियों का जुगाड़ कर दिया मैंने जिसके लिए यकीनन वो दोनों मुझे अच्छी खासी कीमत भी देंगे। मैंने कुसुम जी को समझा दिया था कि इसमें उनका कहीं नाम नहीं आएगा और ना ही उनके दोनों भाईयों को उनके ऐसे कृत्य का पता चलेगा। ख़ैर शाम को जब आपके दोनों चचेरे भाई आए तो मैं खुशी खुशी उनके कमरे में पहुंच गई और उनसे कहा कि मैंने आज उनके लिए दो कोरी लड़कियों का मस्त इंतजाम कर दिया है। औरत के जिस्म के भूखे आपके दोनों चचेरे भाई मेरी ये बात सुन कर बेहद खुश हुए और पूछने लगे कि ऐसी कोरी लड़कियां कब ला रही हूं मैं उनके हरम में? मैंने उनसे झूठ मूठ का कहा कि इसके लिए उन्हें थोड़ा धन ज़्यादा देना पड़ेगा क्योंकि वो दोनों लड़कियां धन के लालच में ही उनके नीचे लेटने के लिए और उनको खुश करने के लिए तैयार हुई हैं। उन्हें भला इससे क्या आपत्ति होनी थी इस लिए फ़ौरन ही रुपया पैसा देने को तैयार हो गए। मैं इस सबसे इतना खुश थी कि मैंने उन्हें बिना रुके सारी कहानी ही बता दी। होश तो मुझे तब आया जब एकदम से वो दोनों मुझ पर गुस्से से चिल्ला पड़े। मैं एकदम से सहम गई, और मुझे अपनी भारी ग़लती का एहसास हुआ। ऐसा लगा जैसे सपने में देखा गया ढेर सारा रुपया पैसा आंख खुलते ही पल भर में गायब हो गया हो। मैं सिर झुकाए खड़ी ही थी कि सहसा अगले ही पल चमत्कार हो गया। उन दोनों के द्वारा खी खी कर हंसने की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी थी। मैं मूर्खों की तरह उन्हें देखने लगी थी, जबकि उन्होंने कहा कि पहली बार तुमने कोई अच्छा काम किया है। उसके बाद इसी खुशी में दोनों ने मेरे साथ जी भर के संभोग किया और फिर मुझे जाने को कह दिया। दो चार दिन वो दोनों जाने कहां व्यस्त रहे। एक दिन उन्होंने मुझे इशारे से बुलाया और कहा कि मैंने उस दिन जिन दो कोरी लड़कियों के इंतजाम की बात कही थी उन्हें बगीचे वाले मकान में बुलाओ। उनकी ये बात सुन कर मैंने हां में सिर हिलाया और फिर कुसुम जी के पास पहुंच गई। कुसुम जी मुझे देखते ही घबरा गईं। मैंने उनसे कहा कि वो अपनी उन दोनों सहेलियों से कहें कि आज उन्हें बगीचे वाले मकान में जा कर उनके दोनों भाईयों को खुश करना है। कुसुम जी इस बात से भारी कसमकस में पड़ गईं लेकिन उनके पास ऐसा करने के सिवा कोई चारा नहीं था इस लिए उन्होंने बेबस भाव से हां में सिर हिलाया और अपनी सहेलियों के घर चली गईं। उसके बाद वही हुआ जैसा होना तय हो गया था। आपके दोनों चचेरे भाईयों ने कुसुम जी की दोनों सहेलियों के साथ बगीचे वाले मकान में संभोग का खूब आनंद लिया। उसके बाद तो ये क्रम ऐसा चला कि फिर रुका ही नहीं। जब भी उनका मन होता तब वो मुझसे कहते और मैं जा कर कुसुम जी से कहती। कुसुम जी अपनी इज्ज़त और मर्यादा को बचाए रखने के ख़ातिर वो सब करने को मजबूर थीं। मुझे क्योंकि इसके लिए खूब रुपए पैसे मिल रहे थे इस लिए मैंने भी कभी ये सोचने की कोशिश नहीं की थी कि इस सबसे कुसुम जी के दिलो दिमाग़ पर क्या असर पड़ रहा होगा। आपके दोनों चचेरे भाइयों ने भी इस बारे में कभी कुछ सोचना ज़रूरी नहीं समझा। वो ये जानते थे कि एक तरह से उनके लिए उन लड़कियों का इंतजाम उनकी अपनी ही बहन कर रही है लेकिन उन्हें जैसे इससे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता था। समय ऐसे ही गुज़रता रहा और फिर एक दिन आप भी वापस हवेली आ गए। आपके आ जाने से आपके वो दोनों भाई काफी ज़्यादा असहज हो गए और उनका ये पसंदीदा खेल मजबूरीवश रुक गया। सबकी तरह मैं भी जानती थी कि वो दोनों आपसे बहुत डरते हैं और आपको ज़रा भी पसंद नहीं करते हैं। आपको वापस हवेली आए एक हफ्ता भी न हुआ था कि एक दिन आपके उन दोनों भाईयों ने मुझे फिर बुलाया और कहा कि इस बार मैं कुसुम को एक खास काम के लिए मजबूर करूं। उनकी ये बात मुझे बिलकुल भी समझ नहीं आई थी। मेरे पूछने पर उन्होंने विस्तार से बताया कि मैं उनकी बहन कुसुम जी से ये कहूं कि जब वो आपके लिए चाय ले कर जाएं तो वो पहले उस चाय में एक दवा मिला लिया करें। जब मैंने कुसुम जी से इस बारे में बात की तो उन्होंने ऐसा करने से साफ़ इंकार कर दिया। मैंने उन्हें कठोरता से समझाया कि अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो मैं उनकी करतूत के बारे में उनके उसी भाई को जा कर बता दूंगी जो भाई उन्हें अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करता है। मैंने उन्हें समझाया कि सोचो उस सूरत में क्या होगा? अपनी जिस बहन को वो दुनिया की सबसे अच्छी लड़की समझते हैं उसके बारे में ये सब जान कर उन्हें कैसा लगेगा और क्या खुद वो इस सबके बाद अपने उन भाई से नज़र मिला पाएंगी? मेरी बातों ने कुसुम जी के मानों प्राणों का हरण कर लिया था। अचानक ही उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बह चली। रोते हुए बोली कि आख़िर मेरे उस कृत्य के लिए मुझे और कितना जलील होना पड़ेगा और किस हद तक ऐसे गिरे हुए काम करने पड़ेंगे जिसकी वजह से उसकी आत्मा तक ज़ख्मी हो जाए? देर से ही सही लेकिन कुसुम जी एक बार फिर से वो सब करने के लिए मजबूर हो गईं। जब उन्हें पता चला कि चाय में मिलाने वाली दवा असल में उनके सबसे अच्छे वाले भाई को नामर्द बना देने वाली है तो वो मेरे पैरों में गिर पड़ीं और रोते हुए बोलीं कि ऐसा भयंकर पाप वो हर्गिज़ नहीं करेंगी, भले ही इसके बदले उन्हें अपनी इज्ज़त के हज़ारों टुकड़े कर के पूरे गांव में फेंक देने पड़ें। उनकी ये बातें सुन कर मुझे लगा कि अगर ऐसा हुआ तो सबसे ज़्यादा नुकसान मेरा ही हो जाएगा क्योंकि भारी रकम के रूप में मिलने वाला रुपया पैसा मुझे एकदम से मिलना बंद हो जाएगा। ये सब सोच कर मैंने उन्हें समझाया कि भावनाओं में बह कर ऐसी बातें कहने का कोई फ़ायदा नहीं है बल्कि ठंडे दिमाग़ से सोचने वाली बात है। उन्हें सोचना चाहिए कि जिनकी नज़र में वो पाक साफ़ हैं और जो उन्हें अपनी पलकों पर बिठा के रखते हैं वो उनकी ऐसी करतूत के बारे में जान कर क्या क्या सोचने लगेंगे। उस दिन कुसुम जी को इस बात के लिए राज़ी करना मेरे लिए काफी मुश्किल काम रहा लेकिन आख़िर वो ऐसा काम करने को राज़ी हो ही गईं जिस काम के करने से यकीनन उनकी आत्मा तक ज़ख्मी हो जाने वाली थी। बस, उसके बाद ऐसा ही होने लगा। उन्हें स्पष्ट रूप से हिदायत दी गई थी कि वो आपको इस बारे में कुछ न बताएं कि जो चाय आप पीते हैं उसमें नामर्द बनाने वाली दवा मिली हुई होती है। उन्हें ये भी समझा दिया गया था कि उन पर हर पल नज़र रखी जाएगी।"
मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा शीला नाम की ये नौकरानी हरामन निकली थी। सारा किस्सा बताने के बाद वो सिर झुका कर चुप हो गई थी। मेरा मन कर रहा था कि उसे इस सबके लिए ऐसी भयानक सज़ा दूं कि वो ऐसा करने के बारे में अगले कई जन्मों तक न सोच सके। वो मेरी मासूम बहन को इतने समय से मजबूर किए हुए थी और मेरी बहन मुझे नामर्द बना देने वाली दवा चाय में मिला कर पिलाने पर मजबूर थी। मैं अच्छी तरह महसूस कर सकता था कि इसके लिए उस पगली ने अपने दिल को कितनी मुश्किल से पत्थर का बनाया रहा होगा। मैं ये भी महसूस कर सकता था कि इसके लिए वो अकेले में कितना रोती रही होगी। उसके अपने भाइयों ने उससे क्या क्या करवा लिया था। अपनी सहेलियों के साथ इस तरह का कृत्य करना कोई गुनाह नहीं था, कोई पाप नही था। दुनिया का हर व्यक्ति इस उमर में ऐसा काम करता है, उसने अगर किया तो कौन सा ग़लत किया था? अब मुझे समझ आया कि क्यों वो मुझे इस सबके बारे में बता नहीं रही थी। वो किसी भी कीमत पर ये नहीं चाहती थी कि उसकी ऐसी करतूत जान कर मैं उसके बारे में ग़लत सोचने लगूं। वो मेरी भोली भाली और मासूम बहन थी और मेरी नज़रों में वो वैसी ही बनी रहना चाहती थी।
अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि सहसा बाहर कुछ आवाज़ों को सुन कर मैं चौंका। ऐसा लगा जैसे कुछ बज रहा हो और साथ ही कुछ अजीब सी आवाज़ें भी थीं। मैं फ़ौरन ही दरवाज़ा खोल कर बाहर आया। हल्की चांदनी रात में बाहर मुझे जो कुछ दिखा उसे देख कर मैं बुरी तरह चौंका। बाहर दो काले नकाबपोश आपस में भिड़े हुए थे और उनके साथ भिड़ा हुआ था शंभू। यूं तो शंभू खुद भी हट्टा कट्टा आदमी था किंतु उन दो नकाबपोशों के मुकाबले वो कमज़ोर सा ही नज़र आया। मैंने महसूस किया कि जैसे ही शंभू उन दोनों के बीच हमले में कूदता था वैसे ही उन दो नकाबपोशों में से कोई न कोई उसको बड़ी दक्षता से किसी न किसी दांव के द्वारा दूर गिरा देता था। मैं समझ गया कि उन दो में से एक नकाबपोश मेरी सुरक्षा करने वाला पिता जी का कोई रहस्यमई आदमी था जबकि दूसरा नकाबपोश वही था जिसकी हमें तलाश थी। दोनों में से कोई भी कमज़ोर होता नहीं दिख रहा था। मेरे पास पिता जी का दिया हुआ रिवॉल्वर था लेकिन समस्या ये थी कि मैं उसका उपयोग नहीं कर सकता था। ऐसा इस लिए क्योंकि उनमें से मेरी सुरक्षा करने वाला नक़ाबपोश कौन था ये मुझे खुद नहीं पता था। दोनों के ही जिस्मों पर एक जैसा ही काला कपड़ा और नक़ाब था।
वो दोनों एक दूसरे पर लट्ठ का प्रहार कर रहे थे लेकिन लट्ठ किसी के जिस्म पर नहीं लग रहा था। दोनों किसी न किसी तरह एक दूसरे के प्रहार को अपने लट्ठ से रोक ही लेते थे। ये सब देख कर मैं असमंजस में पड़ गया था और सोचने लगा था कि मुझे इस हालत में क्या करना चाहिए? वैसे सवाल तो ये भी था कि दूसरा नकाबपोश यहाँ किस लिए आया था? क्या मुझे मारने के लिए या फिर शीला को.....। ओ तेरी, शीला का नाम ज़हन पर आते ही मेरे मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी। मुझे याद आया कि वो भी तो षड्यंत्रकारियों के हाथ की कठपुतली थी। मैं तेज़ी से पलटा और कमरे के खुले हुए दरवाज़े के अंदर की तरफ देखा मगर मैं ये देख कर बुरी तरह चौंका कि अंदर शीला नहीं थी। ज़हन में सवाल कौंधा कि ये अचानक से कहां गायब हो गई? मैंने शंभू को आवाज़ दी और शीला के भाग जाने की बात उसको बताई। शंभू जल्दी ही मेरे पास आया। मैंने देखा उसके माथे से खून बह रहा था। ज़ाहिर है उन दो नकाबपोशों में से किसी ने उसको चोट पहुंचाई थी। मैंने शंभू को हुकुम दिया कि वो शीला को खोजे। मेरा हुकुम मिलते ही शंभू तेज़ी से एक तरफ दौड़ गया। उसके जाते ही मैं भी दूसरी तरफ तेज़ी से भागा।
शीला से मुझे इस तरह भाग निकलने की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। मैं हैरान था कि वो कितनी होशियारी से भाग निकली थी। चारो तरफ बगीचे के पेड़ पौधे थे जिसके चलते चांद की रोशनी कम थी। अंधेरे का फ़ायदा उठा कर शीला जाने किस तरफ निकल गई थी? मैं पागलों की तरह उसको इधर उधर खोज रहा था लेकिन वो कहीं नज़र ही नहीं आ रही थी। नज़र आती भी कैसे, उसे तो मुझसे छिप कर ही भागना था। अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी वातावरण में एक हृदयविदारक चीख गूंजी। ऐसा लगा जैसे किसी का गला चीर दिया गया हो। मैं जिस तरफ था उसके बाएं तरफ से चीख की ये आवाज़ आई थी। मैं तेज़ी से उस तरफ भागा। ज़मीन पर पड़े सूखे पत्तों पर भागने से आवाज़ हो रही थी। जल्दी ही मैं उस तरफ पहुंचा जहां से चीखने की आवाज़ आई थी। हल्के अंधेरे में ऐसा लगा जैसे किसी ने किसी को धक्का दिया हो जिससे कोई इंसानी आकृति लहरा कर कच्ची ज़मीन पर भरभरा कर जा गिरी थी। धक्का देने वाला फ़ौरन ही भागा, क्योंकि उसके भागने की आवाज ज़मीन पर पड़े सूखे पत्तों से स्पष्ट आई थी। मैंने जोर से शंभू को पुकारा और तेज़ी से उस तरफ भागा।
क़रीब पहुंचा तो देखा शीला ज़मीन पर लुढ़की पड़ी थी। मैंने झुक कर देखा, उसके गले से भल्ल भल्ल कर के खून बहता हुआ वहीं ज़मीन पर फैलता जा रहा था। शीला के जिस्म में कोई हलचल नहीं हो रही थी। मैंने ये सोच कर ज़मीन पर गुस्से में आ कर ज़ोर से अपना हाथ पटका कि दुश्मन ने कितनी आसानी से मेरे हाथ से अपना शिकार छीन कर उसका शिकार कर लिया था और मैं कुछ न कर सका था। अभी तो मुझे शीला से और भी बहुत कुछ जानना था। कुछ ही पलों में शंभू और मेरी रक्षा करने वाला नकाबपोश आ गए। मैंने दोनों को गुस्से में ही हुकुम सुनाया कि इस औरत का हत्यारा उस तरफ को भागा है इस लिए उसे खोजो। हुकुम मिलते ही शंभू तो उस तरफ को तेज़ी से दौड़ गया मगर नकाबपोश अपनी जगह से हिला तक नहीं। मैंने गुस्से से उसकी तरफ देखा और कहा____"तुमने सुना नहीं मैंने क्या कहा है?"
"मैंने अच्छी तरह सुना है छोटे ठाकुर।" उसने अजीब सी आवाज़ में कहा____"लेकिन मेरा काम उसके पीछे जा कर उसको खोजना नहीं है बल्कि तुम्हारी सुरक्षा करना है। मैं तुम्हें यहां पर अकेला छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाला।"
मैं जानता था कि उसे मेरे पिता जी से ऐसा ही करने का हुकुम मिला था इस लिए गुस्से का घूंट पी कर रह गया। क़रीब दस मिनट बाद शंभू आया। वो बुरी तरह हांफ रहा था। आते ही उसने मुझसे कहा कि पता नहीं वो नकाबपोश कहां गायब हो गया। मुझसे कुछ दूरी पर खड़े जब एक दूसरे नकाबपोश पर उसकी नज़र पड़ी तो वो चौंका। मैंने शंभू को शांत रहने को कहा और ये भी कि वो शीला के घर में जा कर उसके पति को बता दे कि उसकी बीवी का किसी ने क़त्ल कर दिया है।
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बहुत ही बेहतरीन अपडेट है षड्यंत्रकारी बेहद ही कुटिल और बुद्धिमान व्यक्ति है। उसने ही तांत्रिक की हत्या कर दी है जगताप और अपने आदमियों के साथ उस तांत्रिक के ठिकाने पर गया पर बदकिस्मती से उसके हाथ कुछ न लग पायाअध्याय - 42
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अब तक....
जिस गांव में पिता जी पंचायत के लिए जा रहे थे वो गांव आ गया था इस लिए हमारे बीच इस विषय पर अब कोई बातचीत नहीं हो सकती थी। मैंने पिता जी से इतना ज़रूर कहा कि मुझे अपने तरीके से कुछ चीज़ें करने की इजाज़त दें। पिता जी मेरी बात सुन कर कुछ पलों तक मेरी तरफ देखते रहे फिर सिर हिला कर मुझे इजाज़त दे दी लेकिन साथ ही ये भी कहा कि जो भी करना बहुत ही होशियारी से करना। मैं इजाज़त मिल जाने से अंदर ही अंदर खुश हो गया था। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे अचानक ही मैं किसी पिंजरे से आज़ाद हो गया हूं और अब कुछ भी कर सकता हूं।
अब आगे....
वापस हवेली आते आते दोपहर हो गई थी। माँ ने खाना खाने के लिए कहा लेकिन मैंने उन्हें ये कह कर इंकार कर दिया था कि मुझे किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है। अपनी बुलेट ले कर मैं सीधा मुरारी के गांव निकल गया था। जैसा कि मैंने पहले भी बताया था कि इधर से जाने पर सबसे पहले गांव से बाहर मुरारी का ही घर पड़ता था। उसके घर के क़रीब पहुंचा तो घर के बाहर ही मुझे सरोज काकी मिल गई थी। मैंने उससे कहा कि थोड़ी देर में लौट कर आऊंगा और अनुराधा के हाथ का बना खाना खाऊंगा। सरोज काकी मेरी बात सुन कर मुस्कुराई और फिर हाँ में सिर हिला दिया था। उसके बाद मैं सीधा जगन के घर पहुंच गया था। जगन घर पर नहीं था। उसकी बीवी ने बताया कि गांव तरफ गए हैं। मेरे कहने पर उसने अपने बेटे को भेजा था जगन को बुला कर लाने के लिए। थोड़ी देर में जब जगन आया तो मुझे अपने घर में देखते ही पहले तो चौंका था फिर ख़ुशी से मुस्कुराने लगा था। उसने मेरे स्वागत के लिए खुद ही जल्दी से जल पान की ब्यवस्था कर दी थी।
जल पान करने के बाद मैंने जगन को बताया कि मैं उसके पास एक ख़ास काम से आया हूं। जगन मेरी बात सुन कर ख़ुशी ख़ुशी बोला कि ये उसकी खुशनसीबी है कि मैं उसके पास किसी काम से आया हूं। ख़ैर मैंने जगन को एक काम सौंपा और कहा कि जल्द से जल्द वो काम कर के मुझे बताए। जगन काम के बारे में सुन कर थोड़ा चौंका भी था और हैरान भी हुआ था लेकिन फिर बोला कि ठीक है वैभव बेटा मैं जल्दी ही ये काम कर के बताता हूं।
जगन के यहाँ कुछ देर मैं रुका और उसके घर का भी हाल चाल लिया उसके बाद मैं अपनी बुलेट ले कर मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। कल जब मैं यहाँ आया था तो अनुराधा से कह कर गया था कि दूसरे दिन मैं उसके हाथ का बना खाना खाने आऊंगा। सुबह क्योंकि मुझे पिता जी के साथ पंचायत पर जाना पड़ गया था इस लिए मुझे कुछ ज़्यादा ही देर हो गई थी। ख़ैर मुरारी काका के घर के बाहर मैंने बुलेट खड़ी की। दरवाज़ा खुला ही था तो मैं अंदर दाखिल हो गया। अंदर सरोज काकी अपने बेटे अनूप के पास बैठी थी।
"बड़ी देर लगा दी आने में बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"अनु ने बताया था कि आज तुम यहाँ पर खाना खाने आओगे तो मैं बड़ा खुश हुई थी।"
"माफ़ करना काकी।" काकी ने उठ कर बरामदे में रखी चारपाई को बिछाया तो मैं उसमें बैठते हुए बोला____"असल में सुबह पिता जी के साथ पंचायत पर चला गया था इस वजह से आने में देर हो गई वरना तुम तो जानती ही हो कि अनुराधा के हाथ का बना खाना खाने के लिए मैं भागता हुआ यहाँ आता।"
"मैंने उसे समझाया था कि खाना अच्छे से बनाना और सब कुछ तुम्हारी पसंद का ही बनाए।" काकी ने कहा____"इस चक्कर में ये सुबह जल्दी ही उठ गई थी और जल्दी नहा भी लिया था। उसके बाद खाना बनाने की तैयारी में जुट गई थी। जब तुम सुबह नहीं आए तो मैं समझ गई कि कहीं किसी काम में फंस गए होगे। तुम्हारे चक्कर में हम लोगों ने भी नहीं खाया। बस अनूप खाने के लिए रोने लगा था तो इसे खिलाया।"
"तुम भी हद करती हो काकी।" मैंने हैरानी से कहा____"मेरे चक्कर में तुम लोगों को भूखा रहने की भला क्या ज़रूरत थी? वैसे तुम्हें पता है हवेली में माँ ने मुझसे खाना खाने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया उन्हें। अब तुम ही बताओ काकी कि यहाँ के खाने को भुला कर मैं कैसे हवेली का खाना खा लेता और वो भी तब जबकि मैंने अनुराधा से कहा हो कि मैं ज़रूर आऊंगा।"
"यानी हम लोगों की तरह तुम भी भूखे ही घूम रहे हो?" सरोज काकी हंसते हुए बोली____"ख़ैर, अब बातें छोड़ो और चलो जल्दी से हाथ मुँह धो लो। मैं तब तक बैठका लगाती हूं।"
सरोज काकी ने अनुराधा को आवाज़ दी तो वो रसोई से निकल कर बाहर आई। काकी ने उससे कहा कि वो मुझे पानी दे ताकि मैं हाथ पैर धो लूं। काकी की बात सुन कर अनुराधा कोने में रखी बाल्टी का पानी उठा कर नर्दे के पास रख दिया। मैं नर्दे के ही पास आ गया था। मैंने देखा अनुराधा के चेहरे पर अलग ही चमक थी। जैसे ही मुझसे नज़र मिलती तो वो झट से नज़रें हटा लेती और अपनी मुस्कान को छुपाने की नाकाम कोशिश करने लगती। मैंने उसे छेड़ने का सोचा।
"कहो ठकुराईन क्या हाल चाल हैं?" मैंने मुस्कुराते हुए धीमी आवाज़ में ये कहा तो अनुराधा बुरी तरह चौंकी और आँखें फाड़ कर मेरी तरफ देखने लगी। चेहरे पर घबराहट के भाव लिए वो धीमें से ही बोली____"मु..मुझे इस नाम से मत पुकारिए।
"ना, मैं तो अब इसी नाम से पुकारूँगा तुम्हें।" उसने लोटे में भर कर पानी दिया तो मैंने लेते हुए कहा।
"नहीं न।" अनुराधा ने बेबस भाव से कहा____"मां ने सुन लिया तो वो बहुत डाँटेगी मुझे।"
"अगर तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें ठकुराईन न कहूं।" मैंने हाथ धोते हुए कहा____"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और काकी के सामने मेरा नाम ले कर पुकारोगी।"
"पर बिना वजह कैसे पुकारूंगी मैं?" अनुराधा ने उलझनपूर्ण भाव से कहा____"वैसे मैंने कहा तो है आपसे कि अब से मैं आपका नाम ले कर ही आपको पुकारुंगी।"
"चलो अब यही तो देखना है।" मैंने खड़े होते हुए कहा____"कि तुम मुझे काकी के सामने मेरे नाम से पुकारती हो कि नहीं।"
"पर मैं बिना वजह कैसे आपको पुकारूंगी भला?" अनुराधा ने मासूमियत से कहा____"ऐसे में तो माँ गुस्सा हो जाएगी।"
"यार तुम काकी से इतना डरती क्यों हो?" मैंने उसे घूरते हुए कहा____"अच्छा मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूं। उपाय ये है कि जब मैं खाना खा रहा होऊंगा तो तुम रसोई से ही मेरा नाम लेकर मुझसे पूछना कि मुझे और कुछ चाहिए कि नहीं, ठीक है?"
"और अगर मेरे ऐसा कहने पर माँ ने डांटा तो?" अनुराधा ने मेरी तरफ नज़र उठा कर देखा।
"अरे! मैं हूं न।" मैंने उसे आस्वस्त किया____"काकी अगर तुम्हे डाँटेगी तो मैं काकी को अच्छे से समझा दूंगा।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा ने हाँ में सिर हिलाया और चली गई। हाथ पैर धो कर मैं आया तो देखा काकी ने बरामदे की ज़मीन पर एक चादर बिछा दी थी और उसके सामने एक लकड़ी का पीढ़ा रख दिया था जिसके बगल से लोटा ग्लास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। काकी मेरे पास ही कुछ दूरी पर बैठ गई। कुछ ही देर में अनुराधा थाली ले कर आई और उस लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में वो सब कुछ था जो मुझे इस घर में सबसे ज़्यादा खाना पसंद था।
खाना शुरू हुआ और खाने के दौरान काकी से इधर उधर की बातें भी शुरू हो गईं। ये अलग बात है कि मेरा ध्यान काकी से बातों में कम बल्कि इस बात पर ज़्यादा था कि अनुराधा कब रसोई से मेरा नाम ले कर मुझे पुकारती है। इस बीच कई बार अनुराधा रसोई से निकल कर आई और थाली में कुछ न कुछ रख कर चली गई लेकिन एक बार भी उसने वो न किया जो कहने का हमारे बीच समझौता हुआ था। यहाँ तक कि मैं खाना भी खा चुका और हाथ धो कर चारपाई पर भी जा बैठा। इस बात से मुझे अनुराधा पर बेहद गुस्सा आया हुआ था। अभी मैं अपने अंदर उभरे इस गुस्से को काबू में कर ही रहा था कि तभी सरोज काकी का बेटा अनूप काकी से कहने लगा कि उसे दिशा मैदान जाना है। वो पेट पकड़े काकी के सामने आ कर खड़ा हो गया था।
"बेटा तुम यहीं बैठना।" काकी मेरी तरफ देखते हुए बोली____"मैं इसे दिशा मैदान करा के लाती हूं।"
"ठीक है काकी।" मैं मन ही मन ये सोच कर खुश हो गया कि काकी के चले जाने से मुझे अनुराधा के साथ अकेले रहने का मौका मिल गया है लेकिन प्रत्यक्ष में बोला____"लेकिन जल्दी ही आना क्योंकि मुझे हवेली जल्दी जाना है।"
काकी अनूप को ले कर दूसरे वाले दरवाज़े से घर के पीछे की तरफ चली गई। काकी के जाते ही मानो फ़िज़ा में सन्नाटा छा गया। मेरा दिल किया कि अभी उठूं और पलक झपकते ही रसोई में अनुराधा के पास पहुंच जाऊं। अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी अनुराधा रसोई से निकल कर बाहर आई।
"मुझे माफ़ कर दीजिए।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए दीन हीन भाव से कहा____"मां के सामने आपका नाम ले कर आपको पुकारने की मुझमें हिम्मत ही न हुई थी। हर बार सोचती थी कि अब पुकारूंगी आपको लेकिन माँ के डर से पुकारा ही नहीं गया मुझसे। माफ़ कर दीजिए मुझे।"
"तुम्हें पता है इस वक़्त मुझे कैसा महसूस हो रहा है?" मैंने संजीदा भाव से कहा____"ऐसा लग रहा है जैसे सरे-बाज़ार लुट गया हूं मैं। भरी महफ़िल में जैसे किसी ने मेरी इज़्ज़त का जनाजा निकाल दिया हो।"
"भगवान के लिए ऐसा मत कहिए।" अनुराधा ने सहसा दुखी भाव से कहा____"मुझे खुद भी बहुत बुरा लग रहा है कि मैंने आपका कहा नहीं माना लेकिन यकीन मानिए माँ के सामने मुझसे कुछ बोला ही नहीं गया।"
"छोड़ो इस बात को।" मैंने जब देखा कि अनुराधा की आँखें नम हो गई हैं तो मुझे एहसास हुआ कि ग़लती उसकी नहीं थी। यकीनन अपनी माँ के सामने उससे बोला नहीं गया होगा। उसकी हालात को समझते हुए मैंने आगे कहा____"मैं समझ सकता हूं कि तुम्हारे लिए ये इतना आसान नहीं था। तुमने कोशिश की यही बड़ी बात है।"
"क्या आप नाराज़ हैं?" उसने मासूमियत से मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
"यही तो समस्या है कि मैं तुमसे नाराज़ नहीं हो सकता।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम वो लड़की हो जिसने मुझ जैसे इंसान को मुकम्मल तौर पर बदल दिया है। तुम सच में एक अच्छी लड़की हो अनुराधा। मैं अगर चाहूं भी तो तुमसे नाराज़ नहीं हो सकता। कभी कभी सोचता हूं कि क्या तुमने कोई जादू कर दिया है मुझ पर?"
"ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा बुरी तरह चौंकी।
"वही जो मैं महसूस करता हूं।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"कुछ तो किया ही है तुमने। कभी खुद भी सोचना इस बारे में।"
"पता नहीं आप ये क्या बोले जा रहे हैं।" अनुराधा ने सिर झुका कर कहा____"मैं तो बस इतना जानती हूं कि मैं किसी के साथ कुछ भी करने का सोच भी नहीं सकती।"
"छोड़ो इस बात को।" मैंने कहा____"मैं बस इतना ही कहना चाहता हूं कि आज कल वक़्त और हालात ठीक नहीं हैं इस लिए अपना और अपने परिवार का ख़याल रखना। एक बात और, अगर किसी भी तरह की ऐसी वैसी कोई बात समझ में आए तो सीधा उस जगह पर चली जाना जहां पर मेरा नया मकान बन रहा है। वहां पर तुम्हें भुवन नाम का एक आदमी मिलेगा, उसे तुम बता देना।"
"क्या कुछ होने वाला है वैभव जी?" अनुराधा ने मेरा नाम ले कर कहा____"क्या वो साहूकार का लड़का फिर से कुछ करने वाला है?"
"किसी का भरोसा नहीं है अनुराधा।" मैंने कहा____"कौन कब क्या करेगा इस बारे में ठीक से कुछ नहीं कह सकते। इसी लिए कह रहा हूं कि ख़याल रखना। रात में दरवाज़े अच्छे से बंद कर के रखना, और अगर कोई दरवाज़ा खुलवाए तो पहले ये जान लेना कि बाहर कौन है। कोई अजनबी कितना भी ज़ोर देकर कहे मगर दरवाज़ा मत खोलना।"
"आपकी ये बातें सुन कर तो मुझे अब घबराहट होने लगी है वैभव जी।" अनुराधा ने चिंतित भाव से कहा____"आज तक मेरे बाबू जी के हत्यारे का पता नहीं चला। हमारा ये घर वैसे भी गांव से बाहर अलग बना हुआ है जिससे अगर कोई ऐसी बात हुई भी तो जल्दी से कोई हमारी मदद के लिए नहीं आ सकता।"
"फ़िक्र मत करो।" मैंने कहा____"मेरे रहते ऐसी वैसी कोई बात नहीं होगी। मैं तुम लोगों की सुरक्षा का कोई अच्छा सा इंतजाम कर दूंगा।"
अभी मैं उससे बात ही कर रहा था कि तभी अनुराधा का भाई अनूप दूसरे वाले दरवाज़े से आँगन में दाखिल हुआ। उसे देख अनुराधा जल्दी से मुझसे दूर चली गई। अनूप के पीछे सरोज काकी भी आ गई। थोड़ी देर मैं वहां रुका उसके बाद बुलेट ले कर शहर की तरफ निकल गया। समय आ गया था कुछ अलग करने का और कुछ ज़रूरी काम करने का।
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उस वक़्त शाम ढल चुकी थी।
हमारे गांव से क़रीब तीस किलो मीटर की दूरी पर एक गांव था जिसका नाम था नाहरपुर। नाहरपुर के पास ही एक जंगल था। उस जंगल के बीच में ही वो तांत्रिक अपने परिवार के साथ रहता था जिसके बारे में जगन काका ने पता कर के मुझे बताया था। मैं और जगताप चाचा अपने कुछ आदमियों के साथ जीप में वहां पहुंचे थे। जंगल के अंदर जीप नहीं जा सकती थी इस लिए जीप को बाहर ही खड़ी कर के हम सब जंगल के अंदर की तरफ गए थे। हम सबके हाथों में बड़ी बड़ी बन्दूखें थी जबकि मेरे पास पिता जी द्वारा दिया हुआ रिवाल्वर था। जंगल के बीचो बीच तांत्रिक की एक बड़ी सी कुटिया बनी हुई थी। उस कुटिया के अगल बगल और भी दो कुटिया बनी हुईं थी। हम सब के अंदर बेहद गुस्सा भरा हुआ था, ख़ास कर मेरे अंदर मगर जैसे ही हम सब तांत्रिक की कुटिया के पास पहुंचे तो वहां के वातावरण में गूंजते चीखो पुकार को सुन कर हम सब एकदम से रुक गए थे।
हम लोगों को समझ न आया था कि आख़िर ये चीखो पुकार किस बात का था? एक दो औरतें थी और दो तीन लड़के लड़कियां। सबके सब दहाड़ें मार मार कर रो रहे थे। मुझे किसी बात की आशंका हुई तो मैंने जगताप चाचा को फ़ौरन ही कुटिया के पास पहुंचने को कहा था। जब हम सब वहां पहुंचे तो रोने धोने की आवाज़ और भी तेज़ सुनाई देने लगी। जगताप चाचा ने हमारे एक आदमी को कुटिया के अंदर जा कर पता करने को कहा। आदमी गया और थोड़ी ही देर में उसने बताया कि अंदर एक औरत है जो किसी की लाश के पास बैठी बुरी तरह रो रही है और उसके साथ उसके छोटे बड़े बच्चे भी रोए जा रहे हैं।
हम सब तेज़ी से अंदर दाख़िर हुए। हम लोगों को देख कर उन सबका रोना धोना एकदम से बंद हो गया। जगताप चाचा के पूछने पर उस औरत ने बताया कि किसी ने उसके तांत्रिक पति की हत्या कर दी है। उसकी बात सुन कर जहां जगताप चाचा स्तब्ध रह गए थे वहीं मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पैरों तले से ज़मीन ही गायब हो गई हो। दिलो दिमाग़ कुछ पलों के लिए मानो कुंद सा पड़ गया था। फिर जब ज़हन ने काम करना शुरू किया तो मेरे दिमाग़ में बस एक ही बात आई कि षड्यंत्रकारियों को शायद पता चल गया होगा कि उनका भेद खुल चुका है इस लिए उन्होंने उस तांत्रिक की भी जान ले ली जिसके द्वारा हम उनके पास पहुंच सकते थे। पलक झपकते ही सारे किए कराए पर पानी फिर गया था। सारी मेहनत और सारी होशियारी बेकार साबित हो गई थी।
जगताप चाचा के पूछने पर उस औरत ने बताया कि सुबह के क़रीब ग्यारह बजे उसका तांत्रिक पति किसी काम के सिलसिले से कुटिया से गया था। जब वो दिन ढलने के बाद भी वापस न आया तो उसने अपने सोलह वर्षीय बेटे को उसका पता लगाने के लिए भेजा था। उसके बाद जब उसका बेटा वापस आया तो उसके साथ में उसका मरा हुआ पति भी था जिसके पेट में किसी तेज़ धार वाले हथियार के कई सारे गहरे घाव थे। उसका बेटा अपने पिता की लाश को बड़ी मुश्किल से बांस की बनाई गई अर्थी में लिटा कर लाया था।
तान्त्रिक की बीवी कोई पचास के आस पास वाली उम्र की औरत थी। उसके चार बच्चे थे। जिनमें से पहले एक पच्चीस वर्षीय शादी शुदा बेटी थी और फिर एक सोलह वर्षीय वही बेटा जो अपने पिता की लाश को ले कर आया था। उसके बाद दो और बच्चे थे जिनमें से एक लड़का और एक लड़की थी। तांत्रिक की बीवी ने बताया कि अभी डेढ़ घंटे पहले ही उसका बेटा अपने पिता की लाश ले कर आया था। बेटे के अनुसार तांत्रिक की लाश जंगल में ही एक जगह पड़ी मिली थी।
मैंने और जगताप चाचा ने उस औरत से ज़्यादातर यही जानने की कोशिश की थी कि तांत्रिक की हत्या किसने की होगी और पिछले कुछ समय से ऐसे कौन से लोग उससे मिलने आए थे। हमारे पूछने पर उस औरत का जवाब यही था कि उसके तांत्रिक पति के पास बहुत से लोग आते थे इस लिए वो ये नहीं बता सकती कि किसने उसके पति की हत्या की होगी। मैं समझ गया था कि अब यहाँ पर हमें ऐसी कोई भी जानकारी नहीं मिल सकती थी जिससे ये पता चल सके कि तांत्रिक को किसने मेरे बड़े भाई और मुझ पर तंत्र क्रिया करने के लिए कहा होगा?
किसी हारे हुए जुआंरी की तरह हम सब वहां से वापस चल पड़े थे। मुझे उम्मीद थी कि हवेली में पिता जी से इस बारे में ज़रूर कुछ ऐसा पता चलेगा क्योंकि वो कुछ आदमियों के साथ कुल गुरु से मिलने गए हुए थे। हम रात के क़रीब आठ बजे हवेली पहुंचे थे। हमें नहीं पता था कि हवेली में एक नया ही काण्ड हुआ देखने को मिलेगा।
पिता जी वापस आ चुके थे। ये देख कर मेरे मन में सब कुछ जानने की ब्याकुलता और उत्सुकता भर गई थी लेकिन जल्दी ही पता चला कि हवेली की एक नौकरानी ने ज़हर खा कर खुद ख़ुशी कर ली है। हवेली में इस बात के चलते बड़ा अजीब सा माहौल छाया हुआ था।
"ये सब कैसे हुआ बड़े भैया?" जगताप चाचा ने उस नौकरानी की लाश को देखते हुए पूछा____"ऐसी क्या बात हुई कि इसने ज़हर खा कर खुद ख़ुशी कर ली?"
"यही तो हमारी समझ में भी नहीं आ रहा जगताप।" पिता जी ने गंभीर भाव से कहा_____"अभी कुछ देर पहले जब हम यहाँ आए तभी हमें पता चला कि ये नौकरानी हवेली के एक कमरे में मेनका को मरी हुई मिली थी।"
"बड़ी हैरत की बात है।" जगताप चाचा ने सोचपूर्ण भाव से कहा____"पर इसने ऐसा क्यों किया होगा? वैसे ये मेनका को कब मिली थी?"
"जब तुम लोग यहाँ से गए थे तब।" पिता जी ने कहा____"किसी काम के लिए जब इसको हवेली में खोजा गया तो ये किसी को नज़र ही नहीं आई थी। तुम्हें तो पता ही है कि कुछ नौकरानियाँ शाम का अपना काम करने के बाद अपने अपने घर चली जाती हैं। मेनका ने बाकी नौकरानियों को भी इसकी खोज में लगाया और खुद भी खोजती रही। काफी खोजबीन के बाद मेनका को ये ऊपर के उस कमरे में मिली जो हमेशा खाली ही रहता है।"
"इसके घर वालों को सूचित किया गया या नहीं?" सहसा मैंने पूछने की हिमाक़त की।
"हवेली में इस तरह इसकी लाश को देख कर सब घबरा गए थे।" पिता जी ने बताया____"इस लिए किसी ने इसके घर वालों तक ख़बर नहीं भेजवाई थी लेकिन अब भेजवाना ही पड़ेगा।"
"हवेली में इस तरह किसी नौकरानी का खुद ख़ुशी कर लेना बहुत सी संगीन बात है पिता जी।" मैंने कहा____"गांव वालों को पता चला तो लोग तरह तरह की बातें करने लगेंगे। गांव के साहूकार तो और भी इस मामले को उछालेंगे। हमें बहुत ही सोच समझ कर इस बारे में कोई काम करना होगा।"
"हमने दरोगा को इत्तिला भेजी है।" पिता जी ने कहा____"वो आएगा और इस मामले की जांच करेगा। जगताप तुम इसके घर वालों तक ख़बर भेजवा दो और उन्हें समझाओ कि ये जो कुछ भी हुआ है उसकी पूरी ईमानदारी से जांच करवाई जाएगी। हालांकि मामला खुद ख़ुशी का है लेकिन ये पता करने की ज़रूर कोशिश की जाएगी कि इसने खुद ख़ुशी क्यों की अथवा इसे खुद ख़ुशी करने पर किसने मजबूर किया था?"
"जो हुकुम बड़े भइया।" जगताप चाचा ने सिर नवा कर कहा और हवेली से बाहर चले गए।
मुझे इस सबकी ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। न तो उस तांत्रिक की इस तरह हत्या हो जाने की और ना ही इस नौकरानी के इस तरह खुद ख़ुशी कर लेने की। सहसा मुझे उस नौकरानी का ख़याल आया जो उस रात विभोर और अजीत के साथ मज़े कर रही थी। मैंने आस पास नज़र घुमाई लेकिन वो नज़र न आई। मैंने सोचा इस नौकरानी की इस तरह खुद ख़ुशी कर लेने से कहीं वो भी न कुछ कर बैठे या फिर उसके साथ कोई कुछ कर न दे। मैं फ़ौरन ही अंदर की तरफ भागा और उसकी खोज करने लगा लेकिन वो मुझे नज़र न आई। उसके न मिलने से मेरे मन में तरह तरह की आशंकाए उभरने लगीं और साथ ही ये सोच कर मुझे घबराहट सी भी होने लगी कि अगर वो न मिली या उसके साथ कुछ हो गया तो मेरे हाथ से एक और मौका निकल जाएगा। मैं पागलों की तरह हवेली के ज़र्रे ज़र्रे पर उसे खोज रहा था लेकिन उसे तो मानो मिलना ही नहीं था। अचानक मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि कहीं वो हवेली से खिसक न गई हो। उसने देखा होगा कि एक नौकरानी ने खुद ख़ुशी कर ली है तो उसके मन में भी यही ख़याल आया होगा कि कहीं वो भी पकड़ी न जाए इस लिए मौका देख कर भाग निकली होगी।
मैं फ़ौरन ही हवेली से बाहर निकला। अपने साथ एक आदमी को लिया और तेज़ क़दमों से चलते हुए उस औरत के घर की तरफ चल पड़ा। मैं उसे इस तरह हाथ से नहीं निकल जाने देना चाहता था। अगर उसके साथ कुछ हो गया तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो जानी थी। एक वही थी जो मुझे बता सकती थी कि वो कुसुम को किस बात पर मजबूर किए हुए थी या फिर ये कहूं कि विभोर और अजीत उसे कौन सी पट्टियां पढ़ा कर मेरे खिलाफ़ किए हुए हैं?
क़रीब दस मिनट लगे मुझे उस औरत के घर तक पहुंचने में। वो औरत हमारे गांव की ही थी। उसके घर वाले हमारे खेतों में काम करते थे। उसका पति बाहर ही चारपाई पर बैठा मिल गया। मुझ पर नज़र पड़ते ही वो जल्दी से चारपाई से उठा और हाथ जोड़ कर सलाम किया। मैंने बिना किसी भूमिका के उससे पूछा कि उसकी बीवी कहां है? वो मेरे पूछने पर थोड़ा घबरा सा गया और बोला कि अभी अभी वो दिशा मैदान के लिए गई है। मैंने उस आदमी से दूसरा सवाल यही पूछा कि दिशा मैदान के लिए वो किस तरफ गई है। उस आदमी के बताने पर मैं अपने आदमी के साथ फ़ौरन ही उस तरफ बढ़ चला। औरत का पति बुरी तरह डर गया था और उलझन में पड़ गया था। इधर मैं यही सोच रहा था कि रात के साढ़े आठ बजे उस औरत का दिशा मैदान के लिए जाना क्या स्वभाविक हो सकता है या इसके पीछे कोई और वजह हो सकती है? आम तौर पर गांव की औरतें दिन ढले ही दिशा मैदान के लिए निकल जाती थीं।
इसे किस्मत कहिए या इत्तेफ़ाक़ कि मैं अपने आदमी के साथ बिल्कुल सही दिशा में ही आया था क्योंकि वो औरत हल्की चांदनी रात में मुझे कुछ दूरी पर दिख गई थी। वो तेज़ी से बढ़ी चली जा रही थी। मैंने अपने आदमी को इशारा किया कि वो भाग कर जाए और उसे पकड़ ले। मेरा हुकुम मिलते ही शम्भू नाम का मेरा आदमी उस औरत की तरफ भाग चला। अपने क़रीब जैसे ही किसी के दौड़ते हुए आने का आभास हुआ तो उस औरत ने पलट कर देखा और बुरी तरह डर कर उसने भागना ही चाहा था कि लड़खड़ा कर वहीं ज़मीन पर गिर गई। जब तक वो सम्हल कर खड़ी होती तब तक शम्भू किसी जिन्न की तरह उसके सिर पर जा खड़ा हुआ था। उसके बाद शम्भू ने उस औरत की कलाई पकड़ी और ज़बरदस्ती खींचते हुए उसे मेरे पास ले आया। मुझ पर नज़र पड़ते ही मानो उस औरत की नानी मर गई।
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२५० पृष्ठ पुर्ण करने पर कथाकार को बहुमान एवं हार्दिक शुभकामनाएं ...
jata
Casanova
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