♡ एक नया संसार ♡
अपडेट...........《 30 》
अब तक,,,,,,,,,
"क्या तुम्हें मेरा यहाॅ आना अच्छा नहीं लगा विजय?" प्रतिमा ने दुखी भाव का नाटक करके कहा___"क्या मैं यहाॅ नहीं आ सकती?"
"न नहीं भाभी ऐसी कोई बात नहीं है।" विजय ने हड़बड़ाकर कहा___"मैं बस इस लिए ऐसा कह रहा हूॅ क्योंकि तेज़ धूप और गर्मी बहुत है। ऐसे माहौल की आपको आदत नहीं है ना?"
"देखो विजय तुम भी नैना की तरह मुझे ताना मत मारने लग जाना।" प्रतिमा ने कहा__"तुम सब मुझे ऐसा कह कर दुखी क्यों करते हो? मेरा भी दिल करता है कि मैं भी तुम सबकी तरह ये सब करूॅ। लेकिन तुम सब अपनी इन बातों से मुझे ये सब करने ही नहीं देते। मैं ही पागल हूॅ जो बेकार में इस हवेली के लोगों को अपना मानती हूॅ और चाहती हूॅ कि सब मुझे भी अपना समझें।"
"ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" विजय हैरान परेशान सा बोला___"भला हम सब आपके लिए ऐसा क्यों सोचेंगे? माॅ बाबूजी के बाद आप दोनो ही तो हम सबसे बड़ी हैं इस लिए हम सब यही चाहते हैं आप कुछ ना करें बल्कि आराम से बैठ कर खाइये और हम छोटों को सेवा करने का भाग्य प्रदान करें।"
"बस बस सब समझती हूॅ मैं।" प्रतिमा ने तुनकते हुए कहा__"अब क्या यहीं पर खड़े रहेंगे या अंदर भी चलेंगे? चलिए अंदर और हाॅ हाॅथ मुह धोकर जल्दी से आइये। तब तक मैं थाली लगाती हूॅ।"
"जी ठीक है भाभी।" विजय ने कहा और बाहर की तरफ बढ़ गया। जबकि प्रतिमा अंदर की तरफ बढ़ गई।
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अब आगे,,,,,,,,,,,
फ्लैशबैक आगे_______
थोड़ी ही देर में विजय सिंह हाॅथ मुह धोकर आया और जैसे ही वह अंदर एक बड़े हाल से होते हुए एक कमरे में दाखिल हुआ तो बुरी तरह चौंका। कारण कमरे के अंदर प्रतिमा लकड़ी की एक बेन्च पर झुक कर टिफिन से खाना निकाल निकाल कर उसे अलग अलग करके रख रही थी। किन्तु झुकने की वजह से उसकी साड़ी का आॅचल कंधे से खिसक कर ज़मीन पर गिरा हुआ था। उसने आॅचल को आलपिन के सहारे ब्लाउज पर फसाया हुआ नहीं था। ऐसा उसने जानबूझ कर ही किया था। ताकि वह जब चाहे बड़ी आसानी से झुक कर अपना आॅचल गिरा कर विजय को अपनी खरबूजे जैसी बड़ी बड़ी किन्तु ठोस चूचियाॅ दिखा सके। उसने जो ब्लाउज पहना था वह बड़े गले का था, पीठ पर भी काफी ज्यादा खुला हुआ था। अंदर ब्रा ना होने के कारण उसकी आधे से ज्यादा चूचियाॅ दिख रही थी। वह जानती थी कि विजय हाथ मुह धोकर आ चुका है और अब वह कमरे के दरवाजे के पास उसके द्वारा दिखाए जाने वाले हाहाकारी नज़ारे को देख एकदम से बुत बन गया है।
प्रतिमा बिलकुल भी ज़हिर नहीं कर रही थी कि वो ये सब जानबूझ कर रही है। बल्कि वह यही दर्शा रही थी कि उसे अपनी हालत का पता ही नहीं है। उसने एक बार भी सिर उठा कर दरवाजे पर खड़े विजय की तरफ नहीं देखा था। बल्कि वह उसी तरह झुकी हुई टिफिन से खाना निकाल कर अलग अलग रख रही थी।
विजय सिंह मुकम्मल मर्द था किन्तु उसमें शिष्टाचार और संस्कार कूट कूट कर भरे हुए थे। उसे अपने से बड़ों का आदर सम्मान करना ही आता था। अपनी पत्नी के अलावा वह किसी भी औरत पर ऐसी नज़र नहीं डालता था। खेतों पर काम करने वाली हर ऊम्र की औरतें भी थी मगर मजाल है जो विजय सिंह ने कभी उन पर गंदी नज़र डाली हो। ये तो फिर भी उसकी सगी भाभी थी। कहते हैं बड़ी भाभी माॅ समान होती है, उस पर गंदी दृष्टि डालना पाप है।
विजय सिंह को तुरंत ही होश आया। वह एकदम से हड़बड़ा गया और साथ ही उसके अंदर अपराध बोझ सा बैठता चला गया। उसका मन भारी हो गया। अपने ज़हन से इस दृष्य को तुरंत ही झटक दिया उसने। मन ही मन भगवान से हज़ारों बार तौबा की उसने। उसके बाद वह बेवजह ही खाॅसते हुए कमरे के अंदर दाखिल हुआ। उसका खाॅसने का तात्पर्य यही था कि उसकी भाभी उसके खाॅसने की आवाज़ से अपनी स्थिति को सम्हाल ले। मगर विजय की हालत उस वक्त ख़राब हो गई जब उसके खाॅसने का प्रतिमा पर कोई असर ही न हुआ। बल्कि वह तो अभी भी यही ज़ाहिर कर रही थी कि उसे अपनी हालत का पता ही नहीं है। उसने तो जब विजय को देखा तो बस यही कहा___"लो विजय मैने तुम्हारा स्वादिष्ट भोजन अलग अलग करके लगा दिया है। चलो शुरू हो जाओ, देख लो अभी गरमा गरम है।"
विजय को सिर झुका चुपचाप बेन्च के इस तरफ ही रखी कुर्सी पर बैठ गया और चुपचाप खाना खाने लगा।
"उफ्फ विजय यहाॅ खेतों में इस गर्मी में भी कितनी मेहनत करते हो तुम।" प्रतिमा ने आह सी भरते हुए कहा___"पर शायद तुम्हारी इस सबकी आदत हो गई है। इस लिए तुम पर जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ता। मेरा तो गर्मी के मारे बुरा हाल हुआ जा रहा है। ऐसा लगता है जैसे सारे कपड़े उतार कर फेंक दूॅ अभी।"
प्रतिमा की इस बात से विजय सिंह को ठसका लग गया। वह ज़ोर ज़ोर से खाॅसने लगा।
"अरे क्या हुआ आराम से खाओ विजय।" प्रतिमा मन ही मन मुस्कुराई थी।
उसे खाॅसता देख प्रतिमा तुरंत ही एक तरफ मटके में रखे पानी को ग्लास में भर कर ग्लास विजय के मुह से लगा दिया। विजय की नज़र एक बार फिर से प्रतिमा के खरबूजों पर पड़ गई। इस बार तो वह उसके बहुत ही पास थी। उसके खरबूजे विजय की आॅखों से बस एक फुट ही दूर थे। इतने पास से वह उन्हें स्पष्ट देख रहा था। गोरे गोरे खरबूजों पर एक एक किन्तु छोटा सा तिल जो उन्हें और भी ज्यादा रसदार व हालत को खराब करने वाला बना रहा था। प्रतिमा इस सारी क्रिया में यही दर्शा रही थी कि उसे अभी भी अपनी हालत का कुछ पता नहीं है। और इस बार तो जैसे वह फिक्रवश ऐसा कर रही थी।
बड़ी मुश्किल से विजय के गले से पानी नीचे उतरा। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? आज पहली बार वह ऐसी सेचुएशन के बीच फॅसा था। विजय जब पानी पी चुका तो प्रतिमा ने भी उसके मुख से ग्लास हटा लिया, हलाॅकि ये उसकी मजबूरी ही थी। क्योकि अगर वो ऐसा न करती तो विजय को शक भी हो सकता था कि वह इस तरह उसके इतने पास झुकी क्यों है?
किन्तु विजय सिंह पर रहम तो उसने अभी भी नहीं किया। वह अभी भी अपना आॅचल गिराए हुए ही थी। अंदाज़ वहीं था जैसे उसे इसका पता ही न हो। वह जानती थी कि विजय उसे इस तरह देख कर बहुत ज्यादा असहज महसूस कर रहा है।
उसके मन में आया कि कहीं विजय ये न सोच बैठे कि मुझे अपनी हालत का इतने देर से पता क्यों नहीं हो रहा? या फिर ऐसा मैं जानबूझ कर उसे दिखा रही हूॅ। अगर विजय को ये शक हो गया या उसने ऐसा महसूस कर लिया तो काम पहले ही ख़राब हो जाएगा। जबकि मुझे ये सब बहुत आगे तक करना है। शुरुआत में इतना ज्यादा दिखावा ठीक नहीं होगा। ये सोच कर ही वह सम्हल गई।
"हाय दैया।" उसने चौंकने और सकपकाने की बड़ी शानदार ऐक्टिंग की___"मेरा आॅचल कैसे गिर गया।"
इतना कह कर उसने जल्दी से अपने आॅचल को पकड़ कर उसे अपने खरबूजों ढॅकते हुए कंधे पर डाल लिया। फिर जैसे उसने माहौल को बदलने की गरज से विजय से कहा___"कल से मैं तुम्हारे लिए दूध भी ले आया करूॅगी विजय।"
"ज जी,,,,।" विजय बुरी तरह चौंका था___"दू दूध...मगर किस लिए भाभी?"
"तुम भी हद करते हो विजय।" प्रतिमा ने कहा___"खेतों में रात दिन इतनी मेहनत करते हो और रूका सूखा खाओगे तो कमज़ोर नहीं पड़ जाओगे? इस लिए मेहनत के हिसाब से उस तरह का आहार भी लेना चाहिए।"
"भाभी, इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।" विजय ने झिझकते हुए कहा___"और वैसे भी मुझे दू दूध पसंद नहीं है।"
"क्याऽऽ????" प्रतिमा ने चौंकने का नाटक किया___"हे भगवान! कैसे आदमी हो तुम विजय? तुम्हें दूध नहीं पसंद?? अरे दूध के लिए सारी दुनियाॅ पागल है।"
"क्या मतलब???" विजय गड़बड़ा गया, बोला___"भला इसके लिए सारी दुनियाॅ कैसे पागल हो सकती है???"
"तुम भी ना बुद्धू के बुद्धू ही रहोगे।" प्रतिमा ने बुरा सा मुह बनाया___"ये बताओ कि आज कल दूध के बिना किसी का गुज़ारा है क्या? नहीं ना? सुबह उठते ही सबसे पहले दूध की ही बनी चाय चाहिए होती है। और इतना ही नहीं बल्कि एक दिन में कम से कम चार बार आदमी चाय पीता है। बाॅकी बहुत सी चीज़ें जो दूध से ही बनती हैं उनका तो हिसाब ही अलग है। अब जब यही दूध किसी को न मिलो तो सोचो दुनिया पागल हो जाएगी कि नहीं?"
"हाॅ ये तो है।" विजय ने कहा।
"इसी लिए कहती हूॅ।" प्रतिमा ने कहा__"कल से तुम्हारे लिए दूध लाया करूॅगी और फिर मैं खुद ही तुम्हें दूध पिलाऊॅगी। देखूॅगी कैसे नहीं पियोगे तुम?"
विजय सिंह की हवा शंट। वह हैरान परेशान सा प्रतिमा को देखने लगा। जबकि उसकी इस हालत को देख कर प्रतिमा मन ही मन हॅस रही थी। किन्तु प्रत्यक्ष में यही दिखा रही थी वो ये सब उसकी सेहत का ध्यान में रख कर कह रही थी। पर चूॅकि इन बातों में उसके दो अर्थ निकल रहे थे जो विजय सिंह को असमंजस में डाल कर असहज कर रहे थे।
"क्या हुआ चुप क्यों हो गए विजय?" प्रतिमा ने कहा___"दूध की बातों से तो नहीं घबरा गए तुम?"
"न न नहीं तो।" विजय सकपका गया।
"देखो विजय।" प्रतिमा ने कहा___"तुम जो मेहनत करते हो उसके लिए दूध घी का सेवन करना बहुत ज़रूरी है। वरना बुढ़ापे में किसी काम के नहीं रह जाओगे तुम। आज गौरी को भी बोलूॅगी कि तुम्हारे खाने पीने का अच्छी तरह से ख़याल रखा करे। अभी जब तक बच्चों की छुट्टियाॅ हैं तब तक मैं रोज़ाना तुम्हें खुद अपने हाथ से टिफिन तैयार करके लाऊॅगी।"
"आ आप तो बेवजह परेशान हो रही हैं भाभी।" विजय ने बेचैनी से कहा___"मैं रोज़ाना स्वादिष्ट और फायदेमंद भोजन ही करता हूॅ।"
"वो तो मुझे दिख ही रहा है।" प्रतिमा ने घूर कर देखा विजय सिंह को, बोली___"अगर वैसा ही भोजन करते तो अपने शरीर की ऐसी हालत नहीं बना लेते तुम।"
"ऐसी हालत????" विजय ने चौंकते हुए कहा___"क्या हुआ भला मेरी हालत को?? अच्छा भला तो हूॅ भाभी।"
"बस बस रहने दो तुम।" प्रतिमा ने कहा__"पोज तो ऐसे दे रहे हो जैसे दारा सिंह तुम्हीं हो।"
विजय सिंह को समझ न आया कि वो क्या कहे? दरअसल उसे अपनी भाभी से ऐसी बात करने का ये पहला अवसर था। शादी के बाद कभी ऐसे मधुर संबंध ही नहीं रहे थे कि वो अपनी प्रतिमा भाभी से कभी बात करता या घुलता मिलता। ख़ैर विजय सिंह ने किसी तरह खाना खाया और सीघ्र ही उठ कर कमरे से बाहर चला गया। कमरे से बाहर जब वह आया तब उसने जैसे राहत की साॅस ली। वह बाहर भी रुका नहीं बल्कि खेतों की तरफ तेज़ तेज़ करमों से बढ़ता चला गया। जबकि कमरे से भागते हुए बाहर आई प्रतिमा ने जब विजय को दूर खेतों पर जाते देखा तो उसके होठों पर कमीनी मुस्कान रेंग गई।
"आज तो इतना ही काफी था विजय।" प्रतिमा ने अजीब भाव से कहा___"मगर इतने से डोज में ही तुम्हारी ये हालत बता रही है कि तुम ज्यादा दिनों तक मेरे सामने टिक नहीं पाओगे। मेरे इस हुस्न के जाल में जल्द ही फॅस जाओगे। हाय विजय, थोड़ा जल्दी फॅस जाना मेरी जान क्योंकि ज्यादा देर तक बर्दास्त नहीं कर पाऊॅगी मैं।"
यही सब बड़बड़ाती हुई प्रतिमा वापस कमरे में गई। और बेन्च से टिफिन वाले सब बर्तन इकट्ठा करके वह कमरे से बाहर आ गई। कमरे के दरवाजों को ढुलका कर वह मकान से बाहर आ गई और फिर हवेली की तरफ बढ़ चली। मन में कई तरह के ख़याल बुने जा रही थी वह।
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इधर हवेली में दोपहर को हर कोई अपने अपने कमरे में होता था। बच्चों को भी दोपहर की धूप में कहीं बाहर नहीं जाने दिया छाता था। माॅ बाबूजी हमेशा की तरह नीचे वाले हिस्से पर बने अपने कमरे में ही रहते थे। बाबू जी को महाभारत पढ़ने का बड़ा शौक था। वो खाली समय में महाभारत की मोटी सी किताब लेकर आरामदायी कुर्सी पर बैठ जाते थे अपने कमरे में। जबकि माॅ जी बिस्तर पड़ी रहती। उनके घुटनों में बात की शिकायत थी इस लिए वो ज्यादा चलती फिरती नहीं थी।
राज और गुड़िया ज्यादातर अपने चाचा चाची के पास ही रहते थे। करुणा उन दोनो को पढ़ाती थी। राज से उसे बड़ा प्यार था। हवेली में सबका अपना अपना हिस्सा था। हलाॅकि उस वक्त बटवारा नहीं हुआ था लेकिन तीनो रहते उसी तरह थे अलग अलग। जबकि खाना पीना सबका साथ में ही होता था। उस समय हवेली में ऐसा था कि अंदर से ही सबके हिस्से में जाया जा सकता था। उसके लिए हर पार्टिशन में एक बड़ा सा दरवाजे थे जो ज्यादातर खुले ही रहते थे। विजय सिंह जिस हिस्से पर रहता था उसी हिस्से में माॅ बाबूजी भी नीचे रहते थे। विजय और गौरी का कमरा ऊपर वाले फ्लोर पर था। सबका खाना भी यहीं पर बनता था। नैना अजय सिंह वाले हिस्से पर रहती थी। क्योंकि वो स्कूल के समय पर खाली ही रहता था इस लिए वह उस हिस्से में ही अकेली रहती थी। हलाॅकि उसके साथ बच्चों में से कोई भी रोज़ सोने के लिए चला जाता था।
विजय सिंह दिन में खेतों पर ही रहता था और फिर रात में ही हवेली आता था। दोपहर का खाना उसे पहुॅचा दिया जाता था। हप्ते में एक दो दिन वह खेतों पर भी रात में रुक जाता था। पर ये तभी होता था जब रुकने की ज़रूरत हो अन्यथा नहीं।
प्रतिमा के जाने के कुछ देर बाद ही अजय सिंह बेड से उठा और कमरे से बाहर आ गया। इस वक्त वह अपने हिस्से की तरफ ही था। उसे पता था कि उसकी छोटी बहन नैना उसके हिस्से पर ही ऊपर अपने कमरे में है। वह कमरे से निकल कर ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। सीढ़ियाॅ चढ़ते हुए वह ऊपर नैना के कमरे के पास पहुॅचा। उसने बंद दरवाजे पर आहिस्ता से हाॅथ रखा और उसे कमरे की तरफ पुश किया। किन्तु कमरा अंदर से बंद था। अजय सिंह ने झुक कर दरवाजे के की-होल सें अपनी दाहिनी आॅख सटा दी। कमरे के अंदर नैना बेड पर लेटी हुई दिखी उसे। उसके हाॅथ में कोई मोटी सी किताब थी जिसे वह मन ही मन पढ़ रही थी। ये देख अजय सिंह ने राहत की साॅस ली और फिर दबे पाॅव वह नीचे उतर आया।
नीचे आकर उसने पार्टीशन वाले दरवाजे के पास पहुॅचा। किन्तु उससे पहले वह बाएॅ साइड के पार्टीशन वाले दरवाजे की तरफ भी देखा। उसने ये दरवाजा बंद कर दिया था ताकि उधर से कोई इधर का देख न सके। बाएॅ साइड वाला हिस्सा अभय सिंह व करुणा का था, तथा दाएॅ साइड विजय सिंह का जबकि बीच का हिस्सा अजय सिंह का था।
दाएॅ तरफ वाले हिस्से के पार्टीशन पर लगे दरवाजे को पार कर वह दबे पाॅव ऊपर की तरफ जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ा। उसे पता था कि सीढ़ियों के पास जाने के लिए उसे माॅ बाबूजी के कमरे के सामने से होकर ही गुज़रना पड़ेगा। उसका दिल अनायास ही धड़कने लगा था। माॅ बाबूजी के कमरे के पास से होकर वह दबे पाॅव ही सीढ़ियों के पास पहुॅचा। उसके बाद आहिस्ता से सीढ़ियाॅ चढ़ता चला गया वह।
ऊपर आकर वह दाहिने साइड चौड़ी बालकनी से होते हुए गौरी के कमरे के पास पहुॅचा। धाड़ धाड़ बजती धड़कनों को काबू में रखने की असफल कोशिश भी कर रहा था वह। किन्तु कहते हैं ना कि चोर का दिल बेहद कमज़ोर होता है, वही हाल अजय सिंह का था। कमरे के पास पहुॅच कर उसने दरवाजे पर हाॅथ रख कर उसे कमरे की तरफ धकेला। कमरा बेआवाज़ अंदर की तरफ पुश हो गया।
ये देख कर अजय सिंह की आॅखें चमक उठीं। उसने दरवाजे बहुत ही आहिस्ता से थोड़ा और अंदर की तरफ धकेला ताकि वह थोड़ी सी झिरी से ही पहले कमरे के अंदर की वस्तुस्थिति का पता लगा सके। ख़ैर, झिरी के बनते ही अजय सिंह ने कमरे के अंदर उस थोड़ी सी झिरी से देखा। अंदर एक कोने की तरफ रखे बेड पर गौरी दूसरी तरफ को करवट लिए पड़ी थी। ऊपर छत पर पंखा मध्यम स्पीड से घूम रहा था जिसकी हवा से उसकी साड़ी का एक सिरा हिल रहा था। गर्मी के दिन थे इस लिए गौरी ने साड़ी को अपने बदन के ऊपरी हिस्से से हटाया हुआ था। ऊपर सिर्फ ब्लाउज ही था। गर्दन के नीचे पीठ की तरफ वाला एक तिहाई भाग दिख रहा था तथा नीचे कमर दिख रही थी। कमर के नीचे उसका पिछवाड़ा था जो कि साड़ी से ढॅका हुआ ही था। उसके नीचे उसकी साड़ी पेटीकोट सहित उटनों तक ऊपर खिसकी हुई थी जिसके कारण उसकी दूध सी गोरी पिंडिलियाॅ स्पष्ट दिख रही थी। पैरों में मोटी सी किन्तु घुंघुरूदार पायल थी।
अजय सिंह दरवाजे पर खड़ा न रह सका। वह आहिस्ता से दरवाजे को खोला और अंदर दबे पाॅव कमरे के अंदर दाखिल हो गया। अंदर आकर वह दबे पाॅव ही बेड की तरफ बढ़ा। उसके दिल की धड़कनें पूरी गति से दौड़ रही थी जिसकी धमक किसी हॅथौड़े की तरह उसे अपनी कनपटियों पर स्पष्ट बजती सुनाई पड़ रही थी।
बेड के बेहद करीब पहुॅच कर अजय सिंह रुक गया। कमरे में खिड़की से आता हुआ प्रकाश फैला हुआ था जिसकी वजह से कमरे में मौजूद हर चीज़ स्पष्ट दिखाई दे रही थी। बेड के करीब पहुॅच कर अजय सिंह ने देखा कि गौरी दूसरी तरफ करवट लिए पड़ी थी। उसने अपना बायाॅ हाॅथ मोड़ कर अपनी बाॅई कनपटी के नीचे रखा हुआ था जबकि दाहिना हाॅथ उसके पेट के आगे बेड पर टिका हुआ था। अजय सिंह धड़कते दिल के साथ झुक कर गौरी के चेहरे की तरफ देखा तो उसे पता चला कि गौरी की आॅखें बंद हैं। अजय सिंह को यकीन करना मुश्किल था कि गौरी सो रही है या फिर उसने यूॅ ही अपनी आॅखें बंद की हुई हैं।
गौरी के चाॅद जैसे चेहरे पर इस वक्त ज़माने भर की मासूमियत थी। आज कल उसकी तबीयत ज़रा नाशाद थी इस लिए उसके चेहरे पर वो नूर नहीं दिख रहा था जो हमेशा रहता था। किन्तु अजय सिंह को तो जैसे ऐसा चेहरा भी किसी नूर से कम न था। वह ये मान चुका था कि गौरी दुनियाॅ की सबसे खूबसूरत औरत है। उसकी खुद की बीवी भी खूबसूरती में कम न थी लेकिन गौरी के सामने उसकी खूबसूरती जैसे फीकी पड़ जाती थी। परिवार की हर औरत खूबसूरती में एक दूसरे को मात दे रही थी। लेकिन अजय सिंह का दिल गौरी के लिए धड़कता था। वह समझ नहीं पा रहा था कि ये वह गौरी की खूबसूरती पर हवस की वजह से आकर्शित था या फिर उसे गौरी से प्रेम था।
अजय सिंह ने थोड़ा और आगे की तरफ झुक कर देखा तो एकाएक ही उसके मन में संगीत सा बज उठा। गौरी के सीने के दोनो बड़े बड़े उभार आपस में दबे होने की वजह से उसकी ब्लाउज से बाहर झाॅक रहे थे। अजय सिंह जैसे उनमें ही खो गया। तभी वह बुरी तरह डर भी गया। क्योंकि उसी वक्त गौरी ने एक गहरी साॅस लेते हुए पहले तो हल्की सी अॅगड़ाई ली और फिर सीधी लेट गई। अजय सिंह की धड़कन जो बुरी तरह बढ़ गई थी वो अब इस दृश्य को देख कर जैसे रुक ही गई। गौरी सीधी लेट गई थी। जैसा कि बताया जा चुका है कि गौरी ने गर्मी के चलते अपनी साड़ी को अपने ऊपरी भाग से हटाया हुआ था। इस लिए उसके सीधा लेटते ही ब्लाउज में कैद उसकी भारी छातियाॅ एकदम से तन गई थी। नीचे दूध सा गोरा नंगा पेट और उस पर उसकी गहरी नाभी। अजय सिंह की हालत एक पल में खराब हो गई। उसका जी चाहा कि वह तुरंत झुक कर गौरी के पेट और नाभी को अपनी जीभ से चूसना चाटना शुरू कर दे किन्तु वह ऐसा कुछ चाह कर भी नहीं कर सकता था।
गौरी की छातियाॅ बिना ब्रा के किसी कुतुब मीनार की तरह तनी हुई थी। अजय सिंह की नापाक नज़रें गौरी के पूरे जिस्म को जैसे स्कैन सा कर रही थीं। उसका खूबसूरत चेहरा और बिना लिपिस्टिक के ही लाल सुर्ख होंठ थे उसके। जिन्हें अपने होंठो में भर लेने के लिए जैसे उसे आमंत्रित कर रहे थे। और अजय सिंह ने उस निमंत्रण को स्वीकार भी कर लिया। वह मानो सम्मोहित सा हो गया था। वह सम्मोहित सा होकर ही आहिस्ता आहिस्ता गौरी के चेहरे की तरफ झुकने लगा। उसके हृदय की गति प्रतिपल रुकती हुई महसूस हो रही थी। वह गौरी के चेहरे के बेहद करीब झुक गया। उसके नथुनों में गौरी की गर्म साॅसें पड़ी। उसकी साॅसों की महक से जैसे वह मदहोश सा होने लगा। उसकी साॅस भारी हो गई। उसने गहरी साॅस खींचकर उसे तेज़ी से ही बाहर छोंड़ा और जैसे यहीं पर उससे बड़ी भारी ग़लती हो गई। एक तो गहरी साॅस लेने की आवाज़ और दूसरी तेज़ी से ही उस लम्बी साॅस को नाक के रास्ते बाहर निकालने से गौरी के चेहरे पर गर्म साॅस का तीब्र वेग से स्पर्श हुआ। जिससे गौरी की नींद टूट गई। उसने पलकें झपकाते हुए अपनी आॅखें खोल दी और....और अपने चेहरे के इतने करीब किसी को झुके देख वह बुरी तरह डर गई साथ ही हड़बड़ा भी गई। इधर अजय सिंह को भी जैसे साॅप सा सूॅघ गया। वह बड़ी तेज़ी से सीधा खड़ा हो गया। किन्तु तब तक देर हो चुकी थी।
गौरी ने जब देखा कि उसके चेहरे पर झुका हुआ शख्स कोई और नहीं बल्कि उसका जेठ है तो उसकी हालत खराब हो गई। मारे घबराहट के उसे समझ ही न आया कि क्या करे वह। फिर जैसे ही दिमाग़ ने काम किया तो उसने हड़बड़ा कर सीघ्रता से अपनी साड़ी को अपने बदन पर डाला।
"माफ़ करना गौरी।" अजय सिंह मानो तब तक खुद को सम्हाल चुका था, इस लिए बड़ी शालीनता बोला___"वो मैं दरअसल देखने आया था कि क्या हुआ है तुम्हें? मैने सुना कि कई दिन से तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है इस लिए देखने चला आया था।"
गौरी बोली तो कुछ न। बोलने वाली हालत में ही नहीं थी वह। अपने सिर पर साड़ी का घूॅघट डाल कर वह तेज़ी से ही बेड से नीचे उतर आई थी और अजय सिंह से दूर जाकर खड़ी हो गई थी। उसका दिल धाड़ धाड़ करके सरपट दौड़े जा रहा था। अपनी जगह पर खड़ी वह थरथर काॅप रही थी। उसे लग रहा था कि उसकी काॅपती हुई टाॅगें उसका भार ज्यादा देर तक सह नहीं पाएॅगी। वह बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हाले खड़ी थी।
"अरे घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है गौरी।" उधर अजय सिंह उसकी हालत का बखूबी अंदाज़ा लगाते हुए बोला___"तुम मेरी छोटी बहन के समान हो। मैंने कहा न कि तुम्हें बस देखने आया था यहाॅ। तुम आराम से सो रही थी तो मैने तुम्हें जगाना उचित नहीं समझा। मैं देख रहा था कि कैसे सारे संसार भर की मासूमियत अपने चेहरे पर लिए तुम सो रही हो। अगर तुम्हें मेरा इस तरह देखना अच्छा नहीं लगा तो माफ़ कर देना अपने इस बड़े भइया को।"
गौरी ने इस बार भी कुछ नहीं कहा। बल्कि वह पूर्व की भाॅति ही खड़ी रही। अजय सिंह उसका जेठ था और यहाॅ का ये रिवाज़ था कि जेठ और ससुर के सामने घूॅघट में ही रहना है और उनसे बोलना नहीं है। यही एक भारतीय बहू के लिए नियम था यहाॅ गाॅवों में।
"पता नहीं किस शदी में जी रहे हैं ये सब लोग?" अजय सिंह कह रहा था___"आज भी वही पुरानी परंपराएॅ और फिज़ूल के नियम कानून व रीति रिवाज़ों में बॅधे हुए हैं सब। शहरों में ये सब रूढ़िवादिता नहीं है और ना ही वहाॅ पर इस सबको उचित मानता है कोई। शहर में सब लोग एक दूसरे से बोलते हैं। किसी के ऊपर किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं रहती। भारतीय कानून ने भी हर मर्द व औरत को समानता का अधिकार दिया हुआ है। इस लिए ये सब बेकार की परंपराएॅ छोड़ो तुम सब। इज्जत सम्मान देने के लिए ये ज़रूरी नहीं होता कि कोई बहू अपने जेठ या ससुर के सामने चार हाथ का घूॅघट करे और उनसे बात न करे। बल्कि इज्जत सम्मान ये सब किये बग़ैर भी दिया जा सकता है।"
अजय सिंह की इन सब बातों का भला गौरी क्या जवाब देती? हलाॅकि उसे भी पता था कि शहर में वही सब नियम चलते हैं जिसके बारे में उसका जेठ उससे कह रहा है। किन्तु ये सब नियम कानून गाॅव देहातों में लागू नहीं हो सकते थे। ये सब यहाॅ इतना आसान नहीं था बल्कि ऐसा करने वाली बहू को समाज के ये लोग चरित्रहीन की संज्ञा दे देते हैं।
"ख़ैर छोंड़ो ये सब।" अजय सिंह ने कहा___"गाॅव देहात में तो ये सब चल ही नहीं सकता। पता नहीं कब समझेंगे ये लोग? देश समाज की उन्नति में बाधा ऐसी सोच ही डालती है। ख़ैर, मैं अभय को बोल दूॅगा कि तुम्हें शहर ले जाए और वहाॅ किसी अच्छे डाक्टर से तुम्हारा इलाज़ करवा दे। चलो जाओ अब तुम आराम करो।"
इतना सब कह कर अजय सिंह कमरे से बाहर की तरफ निकल गया। जबकि गौरी उसके जाने के बाद भी काफी देर तक बुत बनी खड़ी रही। मन में यही ख़याल बार बार डंक मार रहा था कि जेठ जी यहाॅ किस लिए आए थे? क्या फिर से पहले की तरह बुरी नीयत से या सच में वो उसकी तबीयत के बारे में ही जानने आए थे? वो इस तरह मेरे इतने करीब कैसे आ सकते थे? क्या मतलब हुआ इस सबका?
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गौरी के पास से आकर अजय सिंह पुनः अपने कमरे में बेड पर लेट गया था। उसका दिल अभी तक सामान्य नहीं हुआ था। अंदर अभी भी घबराहट के निसां शेष थे। बेड पर पड़े पड़े वह इन्हीं सब बातों के बारे में सोचे जा रहा था। बार बार वह इस ख़याल से डर जाता था कि अच्छा हुआ समय रहते उसने वस्तुस्थिति को सम्हाल लिया था वरना कुछ भी हो सकता था। अपनी बातों से उसने गौरी को जता दिया था कि वो सिर्फ उसकी तबीयत के बारे में ही जानने के लिए आया था उसके कमरे में। किन्तु उसके मन में बार बार ये सवाल भी उठ जाता था कि क्या वह अपनी बातों से गौरी को संतुष्ट कर पाया था? कहीं ऐसा तो नहीं कि गौरी को उस पर अभी भी कोई संदेह है? वह किसी निष्कर्श पर न पहुॅचा था।
अपने कमरे में वह जाने कितनी ही देर तक इस सबके बारे में सोचता रहा। उसे होश तब आया जब उसके कमरे का दरवाजा खोल कर उसकी पत्नी प्रतिमा अंदर दाखिल हुई। धूप और गर्मी से आने के कारण उसकी हालत खराब थी। पसीने से उसका जिस्म चमक रहा था। पतली सी साड़ी उसके शरापा बदन से चिपकी हुई थी। कमरे में आते ही प्रतिमा ने पहले कमरे का दरवाजा बंद किया उसके बाद सीधा बेड पर आकर चारो खाने चित्त होकर पसर गई। लेटते ही गहरी गहरी साॅसें लेने लगी वह। बड़े गले के ब्लाउज से उसकी भारी चूचियाॅ आधे से ज्यादा दिख रही थी।
अजय सिंह ने जब उसे इस हालत में देखा तो उससे रहा न गया। गौरी को देखकर ही उसके अंदर आग सी लग गई थी और अब अपनी पत्नी को इस तरह देखा तो होश खो बैठा वह। प्रतिमा आॅखें कर गहरी साॅसें ले रही थी जबकि अजय सिंह ने उसे पल भर में दबोच लिया। वह इतना उतावला हो चुका था कि वह प्रतिमा के ब्लाउज को उसके ऊपरी गले के भाग वाले सिरों को पकड़ कर एक झटके से फाड़ दिया। नाज़ुक सा ब्लाउज था बेचारा वह अजय सिंह झटका नहीं सह सका। ब्लाउज के सारे बटन एक साथ टूटते चले गए। अजय सिंह पागल सा हो गया था। ब्लाउज के अलग होते ही प्रतिमा की भारी भरकम चूचियाॅ उछल कर बाहर आ गईं। अजय ने उन दोनो फुटबालों को दोनो हाथों से शख्ती से दबोच कर उनके निप्पल को अपना मुह खोल कर भर लिया और बुरी तरह से उन्हें चुभलाने लगा।
प्रतिमा एकाएक ही हुए इस हमले से हतप्रभ सी रह गई। किन्तु अजय की रॅग रॅग से वाकिफ थी इस लिए बस मुस्कुरा कर रह गई। अजय सिंह उसकी चूचियों को बुरी तरह मसल रहा था और साथ ही साथ उनको अपने दाॅतों से काटता भी जा रहा था। वह पल भर में जानवर नज़र आने लगा था।
"आहहहहह धीरे से अजय।" प्रतिमा की दर्द में डूबी कराह निकल गई___"दर्द हो रहा है मुझे। ये कैसा पागलपन है? क्या हो गया है तुम्हें?"
"चुपचाप लेटी रह मेरी राॅड।" अजय सिंह मानो गुर्राया___"वरना ब्लाउज की तरह तेरा सब कुछ फाड़ कर रख दूॅगा।"
"अरे तो फाड़ ना भड़वे।" प्रतिमा भी उसी लहजे में बोली___"लगता है गौरी का भूत फिर से सवार हो गया तुझे। चल अच्छा हुआ, जब जब ये भूत सवार होता है तुझ पर तब तब तू मेरी मस्त पेलाई करता है। आहहहह हाय फाड़ दे रे....मुझ पर भी बड़ी आग लगी हुई है। शशशश आहहहह रंडे के जने नीचे का भी कुछ ख़याल कर। क्या चूचियों पर ही लगा रहेगा?"
"हरामज़ादी साली।" अजय सिंह उठ कर प्रतिमा की साड़ी को पेटीकोट सहित एक झटके में उलट दिया। साड़ी और पेटीकोट के हटते ही प्रतिमा नीचे से पूरी तरह नंगी हो गई।
"साली पेन्टी भी पहन कर नहीं गई थी उस मजदूर के पास।" अजय सिंह ने ज़ोर से प्रतिमा की चूत को अपने एक हाॅथ से दबोच लिया। प्रतिमा की सिसकारी गूॅज उठी कमरे में।
"आहहहह दबोचता क्या है रंडी के जने उसे मुह लगा कर चाट ना।" प्रतिमा अपने होशो हवाश में नहीं थी___"उस हरामी विजय ने तो कुछ न किया। हाय अगर एक बार कहता तो क्या मैं उसे खोल कर दे न देती? आहहह ऐसे ही चाट.....शशशशश अंदर तक जीभ डाल भड़वे की औलाद।"
अजय सिंह पागल सा हो गया। उसे इस तरह की गाली गलौज वाला सेक्स बहुत पसंद था। प्रतिमा को भी इससे बड़ा आता था। और आज तो दोनो पर आग जैसे भड़की हुई थी। अजय सिंह प्रतिमा की चूत में मानो घुसा जा रहा था। उसका एक हाॅथ ऊपर प्रतिमा की एक चूची पर जिसे वह बेदर्दी से मसले जा रहा था जबकि दूसरा हाथ प्रतिमा की चूत की फाॅकों पर था जिन्हें वह ज़रूरत के हिसाब से फैला रहा था।
कमरे में हवस व वासना का तूफान चालू था। प्रतिमा की सिसकारियाॅ कमरे में गूॅजती हुई अजीब सी मदहोशी का आलम पैदा कर रही थी। अजय सिंह उसकी चूत पर काफी देर तक अपनी जीभ से चुहलबाजी करता रहा।
"आहहहह ऐसे ही रे बड़ा मज़ा आ रहा है मुझे।" प्रतिमा बड़बड़ा रही थी। उसकी आॅखें मज़े में बेद थी। बेड पर पड़ी वह बिन पानी के मछली की तरह छटपटा रही थी।
"शशशश आहहह अब उसे छोंड़ और जल्दी से पेल मुझे भड़वे हरामी।" प्रतिमा ने हाॅथ बढ़ा कर अजय सिंह के सिर के बालों को पकड़ कर ऊपर उठाया। अजय सिंह उसके उठाने पर उठा। उसका पूरा चेहरा प्रतिमा के चूत रस से भींगा हुआ था। ऊपर उठते ही वह प्रतिमा के होठों पर टूट पड़ा। प्रतिमा अपने ही चूत रस का स्वाद लेने लगी इस क्रिया से।
प्रतिमा ने खुद को अलग कर बड़ी तेज़ी से अजय सिंह के कपड़ों उतारना शुरू कर दिया। कुछ ही पल में अजय सिंह मादरजाद नंगा हो गया। उसका हथियार फनफना कर बाहर आ गया। प्रतिमा उकड़ू लेट कर तुरंत ही उसे एक हाथ से पकड़ कर मुह में भर लिया।
अजय सिंह की मज़े से आॅखें बंद हो गई तथा मुह से आह निकल गई। वह प्रतिमा के बालों को मजबूती से पकड़ कर उसके मुह में अपनी कमर हिलाते हुए अपना हथियार पेलने लगा। वह पूरी तरह जानवर नज़र आने लगा था। ज़ोर ज़ोर से वह प्रतिमा के गले तक अपना हथियार पेल रहा था। प्रतिमा की हालत खराब हो गई। उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया। आॅखें बाहर को आने लग जाती थी साथ ही आॅखों से आॅसू भी आने लगे। तभी अजय ने उसके सिर को पीछे की तरफ से पकड़ कर अपने हथियार की तरफ मजबूती से खींचा। नतीजा ये हुआ कि उसका हथियार पूरा का पूरा प्रतिमा के मुह मे गले तक चला गया। प्रतिमा की आॅखें बाहर को उबल पड़ी। आॅखों से आॅसू बहने लगे। साॅस लेना मुश्किल पड़ गया उसे। उसका जिस्म झटके खाने लगा। उसके मुह से लार टपकने लगी।
प्रतिमा को लगा कि उसकी साॅसें टूट जाएॅगी। अजय सिंह उसे मजबूती से पकड़े हुए था। वह अपने मुह से उसके हथियार को निकालने के लिए छटपटाने लगी। अजय को उसकी इस हालत का ज़रा भी ख़याल नहीं था, वह तो मज़े में आॅकें बंद किये ऊपर की तरफ सिर को उठाया हुआ था।
प्रतिमा के मुह से गूॅ गूॅ की अजीब सी आवाज़े निकल रही थी। जब उसने देखा कि अजय सिंह उसे मार ही डालेगा तो उसने अपने दोनो हाॅथों से अजय सिंह के पेट पर पूरी ताकत से चिकोटी काटी।
"आहहहहहहह।" अजय सिंह के मुह से चीख निकल गई। वह एक झटके से उसके सिर को छोंड़ कर तथा उसके मुह से अपने हथियार को निकाल कर अलग हट गया। मज़े की जिस दुनियाॅ में वह अभी तक परवाज़ कर रहा था उस दुनिया से गिर कर वह हकीकत की दुनियाॅ में आ गया था। बेड के दूसरी तरफ घुटनो पर खड़ा वह अपने पेट के उस हिस्से को सहलाए जा रहा था जहाॅ पर प्रतिमा ने चिकोटी काटी थी। उसे प्रतिमा की इस हरकत पर बेहद गुस्सा आया था किन्तु जब उसने प्रतिमा की हालत को देखा तो हैरान रह गया। प्रतिमा का चेहरा लाल सुर्ख तमतमाया हुआ था। वह बेड पर पड़ी अपनी साॅसें बहाल कर रही थी।
"तुमको ज़रा भी अंदाज़ा है कि तुमने क्या किया है मेरे साथ?" प्रतिमा ने गुस्से से फुंकारते हुए कहा___"तुम अपने मज़े में ये भी भूल गए कि मेरी जान भी जा सकती थी। तुम इंसान नहीं जानवर हो अजय। आज के बाद मेरे करीब भी मत आना वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।"
अजय सिंह उसकी ये बातें सुनकर हैरान रह गया था। किन्तु जब उसे एहसास हुआ कि वास्तव में उसने क्या किया था तो वह शर्मिंदगी से भर गया। वह जानता था कि प्रतिमा वह औरत थी जो उसके कहने पर दुनिया का कोई भी काम कर सकती थी और करती भी थी। ये उसका अजय के प्रति प्यार था वरना कौन ऐसी औरत है जो पति के कहने पर इस हद तक भी गिरने लग जाए कि वह किसी भी ग़ैर मर्द के नीचे अपना सब कुछ खोल कर लेट जाए???? अजय सिंह को अपनी ग़लती का एहसास हुआ। वह तुरंत ही आगे बढ़ कर प्रतिमा से माफी माॅगने लगा तथा उसको पकड़ने के लिए जैसे ही उसने हाथ बढ़ाया तो प्रतिमा ने झटक दिया उसे।
"डोन्ट टच मी।" प्रतिमा गुर्राई और फिर उसी तरह गुस्से में तमतमाई हुई वह बेड से नीचे उतरी और बाथरूम के अंदर जाकर दरवाजा बंद कर लिया उसने। अजय सिंह शर्मिंदा सा उसे देखता रह गया। उसमें अपराध बोझ था इस लिए उसकी हिम्मत न हुई कि वह प्रतिमा को रोंक सके। उधर थोड़ी ही देर में प्रतिमा बाथरूम से मुह हाॅथ धोकर निकली। आलमारी से एक नया ब्लाउज निकाल कर पहना, तथा उसी साड़ी को दुरुस्त करने के बाद उसने आदमकद आईने में देख कर अपने हुलिये को सही किया। सब कुछ ठीक करने के बाद वह बिना अजय की तरफ देखे कमरे से बाहर निकल गई। अजय सिंह समझ गया था कि प्रतिमा उससे बेहद नाराज़ हो गई है। उसका नाराज़ होना जायज़ भी था। भला इस तरह कौन अपनी पत्नी की जान ले लेने वाला सेक्स करता है?? अजय सिंह असहाय सा नंगा ही बेड पर पसर गया था।
दोस्तो अपडेट हाज़िर है,,,,,,,,,,