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Incest ♡ एक नया संसार ♡ (Completed)

आप सबको ये कहानी कैसी लग रही है.????

  • लाजवाब है,,,

    Votes: 185 90.7%
  • ठीक ठाक है,,,

    Votes: 11 5.4%
  • बेकार,,,

    Votes: 8 3.9%

  • Total voters
    204
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Siraj Patel

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Raj

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TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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♡ एक नया संसार ♡
अपडेट.........《 32 》

अब तक,,,,,,,,,

पेड़ के नीचे बैठी प्रतिमा हवश व वासना के हाथों अंधी होकर जाने क्या क्या बड़बड़ाए जा रही थी। कुछ ही देर में विजय सिंह आ गया और उसने धुले हुए आमों को एक बाॅस की टोकरी में रख कर लाया था। उसने प्रतिमा की तरफ देखा तो चौंक पड़ा।

"आपको क्या हुआ भाभी?" विजय ने हैरानी से कहा___"आपका चेहरा इतना लाल सुर्ख क्यों हो रखा है? कहीं आपको लू तो नहीं लग गई। हे भगवान आपकी तबीयत तो ठीक है न भाभी।"
"मैं एकदम ठीक हूॅ विजय।" विजय को अपने लिए फिक्र करते देख प्रतिमा को पल भर के लिए अपनी सोच पर ग्लानी हुई उसके बाद उसने कहा___"और मेरे लिए तुम्हारी ये फिक्र देख कर मुझे बेहद खुशी भी हुई। मैं जानती हूॅ तुम सब हमें अपना समझते हो तथा हमारे लिए तुम्हारे अंदर कोई मैल नहीं है। एक हम थे कि अपनो से ही बेगाने बन गए थे। मुझे माफ़ कर दो विजय.... ।" कहने के साथ ही प्रतिमा की आॅखों में आॅसू आ गए और वह एक झटके से उठ कर विजय से लिपट गई।

विजय उसकी इस हरकत से हैरान रह गया था। किन्तु प्रतिमा की सिसकियों का सुन कर वह यही समझा कि ये सब उसने भावना में बह कर किया है। लेकिन भला वह क्या जानता था कि औरत उस बला का नाम है जिसका रहस्य देवता तो क्या भगवान भी नहीं समझ सकते।
__________________________

अब आगे,,,,,,,,,,,

फ्लैशबैक अब आगे_______

उस दिन के बाद से तो जैसे प्रतिमा का यह रोज़ का काम हो गया था। वह हर रोज़ विजय सिंह के लिए खाने का टिफिन और दूध लेकर खेतों पर जाती और वहाॅ पर विजय को अपना अधनंगा जिस्म दिखा कर उसे अपने रूपजाल में फाॅसने की कोशिश करती। किन्तु विजय सिंह उसके जाल में फॅस नहीं रहा था। ये बात प्रतिमा को भी समझ में आ गई थी कि विजय सिंह उसके जाल में फॅसने वाला नहीं है। उधर गौरी की तबीयत अब ठीक हो चुकी थी इस लिए खाने का टिफिन वह खुद ही लेकर जाने लगी थी। प्रतिमा अपना मन मसोस कर रह गई थी। अजय सिंह खुद भी परेशान था इस बात से कि विजय सिंह कैसे उसके जाल में फॅसे?

अजय सिंह ये भी जानता था कि उसके भाई के जैसी ही उसकी मॅझली बहू यानी गौरी थी। वह भी उसके जाल में फॅसने वाली नहीं थी। ऐसे ही दिन गुज़र रहे थे। गौरी की तबीयत सही होने के बाद प्रतिमा को फिर खेतों में जाने का कोई अच्छा सा अवसर ही नहीं मिल पाता था। इधर गौरी भी अपने पति विजय सिंह को खाना लेकर हवेली से खेतों पर चली जाती और फिर वह वहीं रहती। शाम को ही वह वापस हवेली में आती थी। इस लिए अजय सिंह भी कोई मौका नहीं मिल पाता था उसे फॅसाने के लिए।

पिछले एक महीने से प्रतिमा विजय सिंह को अपने रूप जाल में फसाने की कोशिश कर रही थी। शुरू शुरू में तो उसने अपने मन की बातों को उससे उजागर नहीं किया था। बल्कि हर दिन वह विजय सिंह से ऐसी बाते करती जैसे वह उसकी कितनी फिक्र करती है। भोला भाला विजय सिंह यही समझता कि उसकी भाभी कितनी अच्छी है जो उसकी फिक्र करती है और हर रोज़ समय पर उसके लिए इतनी भीषण धूप व गर्मी में खाना लेकर आती है। इन बीस दिनों में विजय सिंह भी कुछ हद तक सहज फील करने लगा था अपनी भाभी से। प्रतिमा उससे खूब हॅसती बोलती और बात बात पर उसके गले लग जाती। विजय सिंह को उसका इस तरह अपने गले लग जाना अच्छा तो नहीं लगता था किन्तु ये सोच कर वह चुप रह जाता कि प्रतिमा शहर वाली औरत है और इस तरह अपनो के गले लग जाना शायद उसके लिए आम बात है। ऐसे ही एक दिन बातों बातों में प्रतिमा ने विजय सिंह से कहा__"हम दोनो देवर भाभी इतने दिनों से खुशी खुशी हॅसते बोलते रहे और फिर एक दिन मैं चली जाऊॅगी शहर। वहाॅ मुझे ये सब बहुत याद आएगा। मुझे तुम्हारे साथ यहाॅ इस तरह हॅसना बोलना और मज़ाक करना बहुत अच्छा लग रहा है। रात में भी मैं तुम्हारे बारे में ही सोचती रहती हूॅ। ऐसा लगा करता है विजय कि कितनी जल्दी सुबह हो और फिर कितनी जल्दी मैं दोपहर में तुम्हारे लिए खाना लेकर जाऊॅ? हाय ये क्या हो गया है मुझे? क्यों मैं तुम्हारी तरफ इस तरह खिंची चली आती हूॅ विजय? क्या तुमने मुझ पर कोई जादू कर दिया है?"

प्रतिमा की ये बातें सुन कर विजय सिंह को ज़बरदस्त झटका लगा। उसकी तरफ देखते हुए इस तरह खड़ा रह गया था जैसे किसी ने उसे पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया हो। मनो मस्तिष्क में धमाके से हो रहे थे उसके। जबकि उसकी हालत से बेख़बर प्रतिमा कहे जा रही थी___"इन चंद दिनों में ये कैसा रिश्ता बन गया है हमारे बीच? तुम्हारा तो पता नहीं विजय लेकिन मुझे अपने अंदर का समझ आ रहा है। मुझे लगता है कि मुझे तुमसे प्रेम हो गया है। हे भगवान! कोई और सुने तो क्या कहे? प्लीज़ विजय मुझे ग़लत मत समझना। ऐसा हो जाता है कि कोई हमें अच्छा लगने लगता है और उससे प्यार हो जाता है। कसम से विजय मुझे इसका पता ही नहीं चला।"

विजय सिंह के दिलो दिमाग़ होने वाले धमाके अब और भी तेज़ हो गए थे। प्रतिमा का एक एक शब्द पिघले हुए शीशे की तरह उसके हृदय पर पड़ रहा था। उसकी हालत देखने लायक हो गई थी। चेहरे पर बारह क्या पूरे के पूरे चौबीस बजे हुए थे। पसीने से तर चेहरा जिसमें हल्दी सी पुती हुई थी।

सहसा प्रतिमा ने उसे ध्यान से देखा तो बुरी तरह चौंकी। उसे पहले तो समझ न आया कि विजय सिंह की ये अचानक ही क्या हो गया है फिर तुरंत ही जैसे उसके दिमाग़ की बत्ती जल उठी। उसे समझते देर न लगी कि उसकी इस हालत का कारण क्या है? एक ऐसा इंसान जिसे रिश्तों की क़दर व उसकी मान मर्यादाओं का बखूबी ख़याल हो तथा जो कभी भी किसी कीमत पर किसी पराई औरत के बारे में ग़लत ख़याल तक न लाता हो उसकी हालत ये जान कर तो ख़राब हो ही जाएगी कि उसकी अपनी भाभी उससे प्रेम करती है। ये बात उससे कैसे पच सकती थी भला? अभी तक जितना कुछ हो रहा था वही उससे नहीं पच रहा था तो फिर इतनी संगीन बात भला कैसे पच जाती?

"वि विजय।" प्रतिमा ने उसे उसके कंधों से पकड़ कर ज़ोर से झकझोरा___"ये ये क्या हो क्या हो गया है तुम्हें?"

प्रतिमा के झकझोरने पर विजय सिंह बुरी तरह चौंका। उसके मनो मस्तिष्क ने तेज़ी से काम करना शुरू कर दिया। अपने नज़दीक प्रतिमा को अपने दोनो कंधे पकड़े देख वह तेज़ी से पीछे हट गया। इस वक्त उसके चेहरे पर बहुत ही अजीब से भाव गर्दिश करते नज़र आने लगे थे।

"विजय क्या हुआ तुम्हें?" प्रतिमा ने चकित भाव से कहा___"देखो विजय मुझे ख़लत मत समझना। इसमे मेरी कोई ग़लती नहीं है।"
"ये ये अच्छा नहीं हुआ भाभी।" विजय सिंह ने आहत भाव से कहा___"आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं? जबकि आपको पता है कि ऐसा सोचना भी पाप है?"

"मैं जानती हूॅ विजय।" प्रतिमा ने दुखी होने की ऐक्टिंग की, बोली___"मुझे पता है कि ऐसा सोचना भी ग़लत है। लेकिन ये कैसे हुआ मुझे नहीं पता विजय। शायद इतने दिनों से एक साथ हॅसने बोलने से ऐसा हुआ है। तुम्हारी मासूमियत, तुम्हारा भोलापन तथा तुम्हारी अच्छाईयाॅ मेरे दिलो दिमाग़ में उतरती चली गईं हैं। किसी के लिए दिल में भावनाएॅ जाग जाना भला किसके अख्तियार में होता है? ये तो दिल का दखल होता है। उसे जो अच्छा लगता उसके लिए धड़कने लगता है। इसका पता इंसान को तब चलता है जब उसका दिल अंदर से अपने महबूब के लिए बेचैन होने लगता है। वही मेरे साथ हुआ है विजय। कदाचित तुम मेरे इस नादान व नासमझ दिल को भा गए इस लिए ये सब हो गया।"

"आप जाइये भाभी यहाॅ से।" विजय सिंह ने कहा___"इस बात को यहीं पर खत्म कर दीजिए। अगर आपको अपने अंदर का पता चल गया है तो अब आप वहीं पर रुक जाइए। अपने क़दमों को रोंक लीजिए। मैं आपके विनती करता हूॅ भाभी। कृपया आप जाइये यहाॅ से।"

"इतनी कठोरता से मुझे जाने के लिए मत कहो विजय।" प्रतिमा ने मगरमच्छ के आॅसू छलका दिये, बोली___"तुम भी समझ सकते हो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। और अपने क़दमों को रोंकना इतना आसान नहीं होता। ये प्रेम बड़ा अजीब होता है विजय। ये किसी की नहीं सुनता, खुद अपनी भी।"

"मैं कुछ सुनना नहीं चाहता भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"मैं सिर्फ इतना जानता हूॅ कि ये ग़लत है और मैं ग़लत चीज़ों के पक्ष में कभी नहीं हो सकता। आप भी इस सबको अपने ज़हन से निकाल दीजिए और हो सके तो कभी भी मेरे सामने मत आइयेगा।"

"ऐसा तुम कैसे कह सकते हो विजय?" प्रतिमा ने रोने का नाटक किया__"मैने इतना बड़ा गुनाह तो नहीं किया है जिसकी सज़ा तुम इस तरह दे रहे हो? प्रेम तो हर इंसान से होता है। क्या देवर भाभी के बीच प्रेम नहीं हो सकता? बिलकुल हो सकता है विजय...प्रेम तो वैसे भी सबसे पाक होता है।"

"ये सब किताबी बातें हैं भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"आज के युग में प्रेम की परिभाषा कुछ और ही हो गई है। अगर नहीं होती तो आपको अपने पति के अलावा किसी और से प्रेम नहीं होता। प्रेम तो वही है जो किसी एक से ही एक बार होता है और फिर ताऊम्र तक वह सिर्फ उसी का होकर रहता है। किसी दूसरे के बारे में उसके दिल में विचार ही नहीं उठता कभी।"

"ये सबके सोचने का नज़रिया है विजय कि वो प्रेम के बारे में कैसी परिभाषा को मानता है और समझता है?" प्रतिमा ने कहा___"मेरा तो मानना ये है कि प्रेम बार बार होता है। दिल भले ही हज़ारों बार टूट कर बिखर जाए मगर वह प्रेम करना नहीं छोंड़ता। वह प्रेम करता ही रहता है।"

"सबकी अपनी सोच होती है भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"लोग अपने मतलब के लिए ग़लत को भी सही ठहरा देते हैं और उसे साबित भी कर देते हैं। मगर मेरी सोच ऐसी नहीं है। मेरे दिल में मेरी पत्नी के अलावा कोई दूसरा आ ही नहीं सकता। मैं उससे बेइंतहां प्रेम करता हूॅ, उसे से मरते दम वफ़ा करूॅगा। किसी और से मुझे वैसा प्रेम हो ही नहीं सकता। प्रेम में सिर्फ दिल का ही नहीं दिमाग़ का भी दखल होना ज़रूरी है। मन में दृढ़ संकल्पों का होना भी ज़रूरी है। अगर ये सब है तो आपको किसी दूसरे प्रेम हो ही नहीं सकता।"

"हो सकता किसी और के पास तुम्हारे जैसी इच्छा शक्ति या दृढ़ संकल्प न हो।" प्रतिमा ने कहा___"और वह मेरे जैसे ही किसी दूसरे से भी प्रेम कर बैठे।"
"तो मैं यही कहूॅगा कि उसका वो प्रेम निम्न दृष्टि का है।" विजय सिंह ने कहा___"जो अपने पहले प्रेमी के लिए वफ़ा नहीं कर सका वह अपने दूसरे प्रेमी के साथ भी वफ़ा नहीं कर सकेगा। क्योंकि संभव है कि कभी ऐसा भी समय आ जाए कि उसे किसी तीसरे इंसान से भी प्रेम हो जाए। तब उसके बारे में क्या कहा जाएगा? सच्चा प्रेम और सच्ची वफ़ा तो वही है भाभी जो सिर्फ अपने पहले प्रेमी से ही की जाए। उसी हो कर रह जाए।"

प्रतिमा को समझ ना आया कि अब वह विजय से क्या कहे? ये बात तो वह खुद भी समझती थी कि विजय ठीक ही कह रहा है। किन्तु उसे तो विजय को फाॅसना था इस लिए भला कैसे वह हार मान लेती? ये दाॅव बेकार चला गया तो कोई दूसरा दाॅव सही।

"तो तुम ये कहना चाहते हो कि मैं तुम्हारे बड़े भइया और अपने पति के लिए वफ़ादार नहीं हूॅ? प्रतिमा ने कहा___"क्योंकि मुझे उनके अलावा तुमसे प्रेम हुआ?"
"मैं किसी एक के लिए नहीं कह रहा भाभी बल्कि हर किसी के लिए कह रहा हूॅ।" विजय सिंह ने कहा___"क्योंकि मेरी सोच यही है। मैं इस जीवन में सिर्फ एक का ही होकर रहना चाहता हूॅ और भगवान से ये प्रार्थना भी करता हूॅ वो अगले जन्मों में भी मुझे मेरी गौरी का ही रहने दे।"

"ठीक है विजय।" प्रतिमा ने सहसा पहलू बदला___"मैं तुमसे ये नहीं कह रही कि तुम गौरी को छोंड़ कर मुझसे प्रेम करो। किन्तु इतना ज़रूर चाहती हूॅ कि मुझे खुद से इस तरह दूर रहने की सज़ा न दो। मैं तुमसे कभी कुछ नहीं मागूॅगी बस दिल के किसी कोने में मेरे लिए भी थोड़ी जगह बनाए रखना।"

"ऐसा कभी नहीं हो सकता भाभी।" विजय सिंह दृढ़ता से कहा___"क्योंकि ये रिश्ता ही मेरी नज़र में ग़लत है और ग़लत मैं कर नहीं सकता। हाॅ आप मेरी भाभी हैं और मेरे लिए पूज्यनीय हैं इस लिए इस रिश्ते के लिए हमेशा मेरे अंदर सम्मान की भावना रहेगी। देवर भाभी के बीच जिस तरह का स्नेह होता है वो भी रहेगा। मगर वो नहीं जिसकी आप बात कर रही हैं।"

"ऐसा क्यों कह रहे हो विजय?" प्रतिमा ने रुआॅसे भाव की ऐक्टिंग की___"क्या मैं इतनी बुरी लगती हूॅ तुम्हें? क्या मैं इस काबिल भी नहीं कि तुम्हारा प्रेम पा सकूॅ?"

"ऐसी बातें आपको करनी ही नहीं चाहिए भाभी।" विजय सिंह ने बेचैनी से पहलू बदला___"आप मुझसे बड़ी हैं हर तरह से। आपको खुद समझना चाहिए कि ये ग़लत है। जानते बूझते हुए भी आप ग़लत राह पर चलने की बात कर रही हैं। जबकि आपको करना ये चाहिए कि आप खुद को समझाएॅ और इससे पहले कि हालात बिगड़ जाएॅ आप उस माहौल से जल्द से जल्द निकल जाइये।"

प्रतिमा की सारी कोशिशें बेकार रहीं। विजय सिंह को तो जैसे उसकी कोई बात ना माननी थी और ना ही माना उसने। थक हार कर प्रतिमा वहाॅ से हवेली लौट आई थी। हवेली में उसने अपने पति से आज की सारी महाभारत बताई। उसकी सारी बातें सुन कर अजय सिंह हैरान रह गया। उसे समझ न आया कि उसका भाई आख़िर किस मिट्टी का बना हुआ है? किन्तु आज की बातों से कहीं न कहीं उसे ये उम्मीद ज़रूर जगी कि आज नहीं तो कल विजय सिंह प्रतिमा के सामने अपने हथियार डाल ही देगा। अगले दिन जब प्रतिमा फिर से विजय के लिए टिफिन तैयार करने किचेन में गई तो गौरी को उसने किचेन में टिफिन तैयार करते देखा।

"अब कैसी तबीयत है गौरी?" प्रतिमा ने किचेन में दाखिल होते हुए पूछा था।
"अब ठीक हूॅ दीदी।" गौरी ने पलट कर देखते हुए कहा___"इस लिए मैने सोचा कि उनके लिए टिफिन तैयार करके खेतों पर चली जाऊॅ।"

"अरे तुम अभी थोड़े दिन और आराम करो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"अभी अभी तो ठीक हुई हो। बाहर बहुत तेज़ धूप और गर्मी है। ऐसे में फिर से बीमार हो जाओगी तुम। मैं तो रोज़ ही विजय को खाना दे आती हूॅ। लाओ मुझे मैं देकर आती खाना विजय को।"

"अरे अब मैं बिलकुल ठीक हूॅ दीदी।" गौरी ने कहा___"आप चिन्ता मत कीजिए। दो चार दिन से आराम ही तो कर रही थी मैं।"
"अरे तो अभी और कुछ दिन आराम कर लो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"और वैसे भी मैं कुछ दिनों बाद चली जाऊॅगी क्योंकि बच्चों के स्कूल खुलने वाले हैं। मुझे अच्छा लगता है खेतों में। वहाॅ पर आम के बाग़ों में कितनी मस्त हवा लगती है। कितना सुकून मिलता है वहाॅ। मैं तो विजय को खाना देने के बाद वहीं चली जाती हूॅ और वहीं पर पेड़ों की घनी छाॅव में बैठी रहती हूॅ। यहाॅ से तो लाख गुना अच्छा है वहाॅ।"

"हाॅ ये तो आपने सही कहा दीदी।" गौरी ने मुस्कुरा कर कहा___"वहाॅ की बात ही अलग है। इसी लिए तो मैं दिन भर वहीं उनके पास ही रहती हूॅ।"
"तुम तो हमेशा ही रहती हो गौरी।" प्रतिमा ने मुस्कुरा कर कहा__"और वहीं पर तुम दोनो मज़ा भी करते हो। है ना??"
"क्या दीदी आप भी कैसी बातें करती हैं?" गौरी ने शरमा कर कहा___"ये सब खेतों में थोड़ी न अच्छा लगता है।"

"ख़ैर छोड़ो।" प्रतिमा ने कहा___"दो चार दिन बचे हैं तो मुझे वहाॅ की ठंडी छाॅव का आनन्द ले लेने दो। उसके बाद तुम जाती रहना।"
"हाॅ तो ठीक है न दीदी।" गौरी ने कहा__"हम दोनो चलते हैं और वहाॅ की ठंडी छाॅव का आनंद लेंगे।"

"तुम अभी अभी बीमारी से बाहर आई हो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"इस लिए तुम्हें अभी इतनी धूप में बाहर नहीं निकलना चाहिए। मैं तुम्हारे स्वास्थ के भले के लिए ही कह रही हूॅ और तुम हो ज़िद किये जा रही हो? अपनी दीदी का बिलकुल भी कहा नहीं मान रही हो तुम। या फिर तुम्हारी नज़र में मेरी कोई अहमियत ही नहीं है। ठीक है गौरी करो जो तुम्हें अच्छा लगे।"

"अरे नहीं दीदी।" गौरी ने जल्दी से कहा___"आपकी अहमियत तो बहुत ज्यादा है हम सबकी नज़र में। मैं तो बस इस लिए कह रही थी कि आप इतने दिनों से धूप और गर्मी में परेशान हो रही हैं। और भला मैं कैसे आपकी बात टाल सकती हूॅ दीदी? मुझे तो बेहद खुश हूॅ कि आप मेरे हित की बारे में सोच रहीं हैं।"

"तो फिर लाओ वो टिफिन मुझे दो।" प्रतिमा ने जो इमोशनली उसे ब्लैकमेल किया था उसमें वह सफल हो गई थी, बोली___"मैं विजय को खाना देने जा रही हूॅ और तुम अभी आराम करो अपने कमरे में।"
"जी ठीक है दीदी।" गौरी ने मुस्कुरा कहा और टिफिन प्रतिमा को पकड़ा दिया। प्रतिमा टिफिन लेकर किचेन से बाहर निकल गई। जबकि गौरी खुशी खुशी ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।

प्रतिमा जब खेतों पर पहुॅची तो वहाॅ का माहौल देख कर उसके सारे अरमानों पर पानी फिर गया। दरअसल आज पिछले दिनों के विपरीत विजय सिंह खेतों पर अकेला नहीं था। बल्कि उसके साथ कई मजदूर भी खेतों पर आज नज़र आ रहे थे। कदाचित विजय सिंह को अंदेशा था कि प्रतिमा आज भी उसके लिए टिफिन लेकर आएगी और फिर यहाॅ पर वह फिर से अपने प्रेम का बेकार ही राग अलापने लगेगी। इस लिए विजय सिंह ने कुछ मजदूरों को कल ही बोल दिया था कि वो अपने लिए दोपहर का खाना घर से ही ले आएॅगे और यहीं पर खाएॅगे। विजय सिंह के कहे अनुसार कई मजदूर आज यहीं पर थे।

प्रतिमा ये सब देख कर अंदर ही अंदर जल भुन गई थी। उसे विजय सिंह से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। वह तो उसे निहायत ही शान्त और भोला समझती थी। किन्तु आज उसे भोले भाले विजय ने अपना दिमाग़ चला दिया था जिसका असर ये हुआ था कि प्रतिमा अब कुछ नहीं कर सकती थी।

प्रतिमा जैसे ही मकान के पास पहुॅची तो एक मजदूर उसके पास आया और बड़े अदब से बोला___"मालकिन, मॅझले मालिक हमका बोले कि आपसे उनके खाने का टिफिनवा ले आऊॅ। काह है ना मालकिन आज मॅझले मालिक हम मजदूरों के साथ ही खाना खाय चाहत हैं। ई हमरे लिए बहुतै सौभाग्य की बात है। दीजिए मालकिन या टिफिनवा हम ले जात हैं।"

प्रतिमा भला क्या कह सकती थी। वह तो अंदर ही अंदर जल कर खाक़ हुई जा रही थी। उसने आए हुए मजदूर को टिफिन पकड़ाया और पैर पटकते हुए मकान के अंदर चली गई और कमरे में जाकर चारपाई पर पसर गई। गुस्से से उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया था।

"ये तुमने अच्छा नहीं किया विजय।" प्रतिमा खुद से ही बड़बड़ा रही थी___"तुम जिस चीज़ को अपनी समझदारी या होशियारी समझ रहे हो वो दरअसल मेरा अपमान है। तुम दिखाना चाहते हो कि तुम्हारी नज़र में मेरी कोई अहमियत ही नहीं है। कितना अपने प्रेम का मैने तुमसे कल रोना रोया था किन्तु तुमने उसे ठुकरा दिया ये कह कर कि ये ग़लत है। अरे सही ग़लत आज के युग में कौन देखता है विजय? चार दिन का जीवन है उसे हॅस खुशी और आनंद के साथ जियो। मगर तुम तो सच्चे प्रेम का राग अलापे जा रहे हो। क्या है इस सच्चे प्रेम में? बताओ विजय क्या हासिल कर लोगे इस सच्चे प्रेम में? अरे एक ही औरत के पल्लू में बॅधे हो तुम। ये कैसा प्रेम है जिसने तुम्हें बाॅध कर रखा हुआ है?"

जाने कितनी ही देर तक प्रतिमा यूॅ ही बड़बड़ाती रही और ऐसे ही सो गई वह। फिर जब उसकी नीद खुली तो हड़बड़ा कर चारपाई से उठी वह। अभी वह उठ कर कमरे से बाहर ही जाने वाली थी कि तभी विजय किसी काम से कमरे में आ गया।

कमरे में अपनी भाभी को देख कर विजय सिंह हैरान रह गया। उसने तो सोचा था कि प्रतिमा उसी समय वापस चली गई होगी किन्तु यहाॅ तो वह अभी भी है। प्रतिमा को देखकर विजय हैरान हुआ फिर जल्द बाहर जाने के लिए पलटा।

"रुक जाओ विजय।" प्रतिमा ने सहसा ठंडे स्वर में कहा___"क्या समझते हो तुम अपने आपको? क्या सोच कर तुमने यहाॅ मजदूरों को बुलाया हुआ था बताओ?"

"क कुछ भी तो नहीं भाभी।" विजय सिंह हड़बड़ा गया था___"मैंने उन्हें नये फलों की फसल के बुलाया था। ताकि खेतों को उनके लिए तैयार किया जा सके।"

"झूठ मत बोलो विजय।" प्रतिमा ने आवेश मेः कहा___"मुझे अच्छी तरह पता है कि तुमने मजदूरों को यहाॅ दोपहर में क्यों बुलाया था? तुम समझते थे कि तुम्हें हर दिन की तरह यहाॅ अकेले देख कर मैं फिर से अपने प्रेम की बातें तुमसे करूॅगी। इसी सबसे बचने के लिए तुमने ये सब किया है ना?"

"आप बेवजह बातें बना रही हैं भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"जबकि सच्चाई यही है कि मैने फलों की फसल के लिए ही मजदूरों को यहाॅ बुलाया है।"
"झूठ, सरासर झूठ है ये।" प्रतिमा एक झटके से चारपाई से उठ कर विजय के पास आ गई, फिर बोली___"जो इंसान हमेशा सच बोलता है वो अगर कभी किसी वजह से झूठ बोले तो उसका वह झूठ तुरंत ही पकड़ में आ जाता है विजय। मैं कोई अनपढ़ गवार नहीं हूॅ बल्कि कानून की पढ़ाई की है मैने। मनोविज्ञान का बारीकी से अध्ययन किया है मैने। मैं पल में बता सकती हूॅ कि कौन ब्यक्ति कब झूठ बोल रहा है?"

"चलिये मान लिया कि यही सच है।" विजय सिंह ने कहा___"यानी मैने आपसे बचने के लिए ही मजदूरों को यहाॅ बुलाया था। तब भी क्या ग़लत किया मैने? मैने तो वही किया जो ऐसी परिस्थिति में किसी समझदार आदमी को करना चाहिए। मैं वो नहीं सुनना चाहता और ना ही होने देना चाहता जो आप कहना या करना चाहती हैं। मैने कल भी आपसे कहा था कि ये ग़लत है और हमेशा यही कहता भी रहूॅगा। मैं ख़ैर अनपढ़ ही हूॅ लेकिन आप तो पढ़ी लिखी हैं न? आपको तो रिश्तों के बीच के संबंधों का अच्छी तरह पता होगा कि किन रिश्तों के बीच किन रिश्तों को देश समाज सही ग़लत अथवा जायज़ नाजायज़ ठहराता है? अगर पता है तो फिर ये सब सोचने व करने का क्या मतलब हो सकता है? आपको तो पता है कि आपके दिल में मेरे प्रति क्या है तो क्यों नहीं उसे निकाल देती आप? क्यों रिश्तों के बीच इस पाप को थोपना चाहती हैं आप?"

"किस युग में तुम जी रहे हो विजय किस युग में?" प्रतिमा ने कहा___"आज के युग के अनुसार जीना सीखो। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। तुम भी प्रकृति के नियमों के अनुसार खुद को बदलो। जो समय के साथ नहीं बदलता उसे वक्त बहुत पीचे छोंड़ देता है।"

"अगर परिवर्तन इसी चीज़ के लिए होता है तो माफ़ करना भाभी।" विजय ने कहा__"मुझे आज के इस युग के अनुसार खुद को बदलना गवारा नहीं है। वक्त मुझे पीछे छोंड़ कर कहाॅ चला जाएगा मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं है। मेरी आत्मा तथा मेरा ज़मीर जिस चीज़ को स्वीकार नहीं कर रहा उस चीज़ को मैं किसी भी कीमत पर अपना नहीं सकता। अब आप जा सकती हैं, क्योंकि इससे ज्यादा मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता।"

इतना कह कर विजय बाहर की तरफ जाने ही लगा था कि प्रतिमा झट से उसके पीछे से चिपक गई और फिर दुखी होने का नाटक करते हुए बोली___"ऐसे मुझे छोंड़ कर मत जाओ विजय। मैं खुद को समझाऊॅगी इसके लिए। शायद मेरे दिल से तुम्हारा प्रेम मिट जाए। लेकिन तब तक तो हम कम से कम पहले जैसे हॅस बोल सकते है ना?"

"अब ये संभव नहीं है भाभी।" विजय ने तुरंत ही खुद को उससे अलग करके कहा__"अब हालात बदल चुके हैं। आप मुझे किसी बात के लिए मुजबूर मत कीजिए। मैं नहीं चाहता कि ये बात हमारे बीच से निकल कर घर वालों तक पहुॅच जाए।"

विजय सिंह के अंतिम वाक्यों में धमकी साफ तौर पर महसूस की जा सकती थी। प्रतिमा जैसी शातिर औरत को समझते देर न लगी कि अब इससे आगे कुछ भी करना उसके हित में नहीं होगा। इस लिए वह बिना कुछ बोले कमरे से टिफिन उठा कर हवेली के लिए निकल गई।


गर्मी में बच्चों के स्कूल की छुट्टियाॅ खत्म होने में कुछ ही दिन शेष रह गए थे। विजय सिंह शाम को हवेली आ जाता था। एक दिन ऐसे ही प्रतिमा विजय के कमरे में पहुॅच गई। उस वक्त गौरी किचेन में करुणा के साथ खाना बना रही थी। जबकि नैना सभी बच्चों को अजय सिंह वाले हिस्से में ऊपर अपने कमरें में पढ़ा रही थी। माॅ जी हमेशा की तरह अपने कमरे में थी और बाबू जी गाॅव तरफ कहीं गए हुए थे। अभय सिंह भी हवेली में नहीं था।

अपने कमरे में विजय सिंह लुंगी बनियान पहने हुए ऑख बंद किये लेटा था। तभी उसने किसी की आहट से अपने ऑखें खोली। नज़र प्रतिमा पर पड़ी तो वह बुरी तरह चौंका। एक झटके से वह बेड पर उठ कर बैठ गया। ये पहली बार था कि उसके कमरे में प्रतिमा आई थी वो भी इस तरह जबकि कमरे में वह अकेला ही था। उसे समझ न आया कि प्रतिमा यहाॅ किस लिए आई है? उसके दिल की धड़कन रेल के इंजन की तरह दौड़ रही थी। उसे डर था कि कहीं उसकी पत्नी गौरी न आ जाए। हलाॅकि इसमें इतना डरने या घबराने की बात नहीं किन्तु उनके बीच हालात ऐसे थे कि हर बात से डर लग रहा था उसे।

"क्या कर रहे हो विजय?" प्रतिमा ने मुस्कुरा कर कहा___"मैने सोचा एक बार तुम्हारा दीदार कर लूॅ तो दिल को सुकून मिल जाए थोड़ा। कई दिन से देखा नहीं था तुम्हें तो दिल बड़ा बेचैन था। अब तो तुम्हारे लिए गौरी ही टिफिन लेकर जाती है। पता नहीं क्यों तुम मुझसे कटे कटे से रहते हो। अपनी एक झलक भी देखने नहीं देते मुझे। सच कहती हूॅ विजय, तुमको तो ज़रा भी मेरी चिन्ता नहीं है।"

"ऐसी बातें करते हुए आपको शर्म नहीं आती भाभी?" विजय सिंह को जाने क्यों आज पहली बार उस पर गुस्सा आया था, उसी गुस्से वाले लहजे में बोला___"अपनी ऊम्र का कुछ तो लिहाज कीजिए। तीन तीन बच्चों की माॅ हैं आप और इसके बाद भी मन में ऐसी फालतू बातें लिए फिरती हैं आप।"

"इश्क़ की न कोई जात होती है विजय और ना ही कोई ऊम्र होती है।" प्रतिमा ने दार्शनिकों वाले अंदाज़ में कहा___"इश्क़ तो कभी भी किसी से भी किसी भी ऊम्र में हो सकता है। मुझे एक बार फिर से इस ऊम्र में तुमसे हो गया तो क्या करूॅ मैं? ये तो मेरे दिल की ख़ता है विजय, इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है।"

"देखिये भाभी।" विजय ने कहा___"मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूॅ। और मैं चाहता हूॅ कि मेरे दिल में आपके लिए ये इज़्ज़त ऐसी ही बनी रहे। इस लिए बेहतर होगा कि आप खुद भी अपने मान सम्मान की बात सोचें। अब आप जाइये यहाॅ से।"

"इतने कठोर तो नहीं थे विजय तुम?" प्रतिमा ने उदास भाव से कहा__"हमारे बीच कितना हॅसी मज़ाक होता था पहले। कितना खुश रहते थे न हम दोनो वहाॅ खेतों पर? वो भी तो एक प्रेम ही था विजय। अगर नहीं होता तो क्या हमारे बीच वैसा हॅसना बोलना होता?"

"वो सब देवर भाभी के पाक रिश्तों का प्रेम था भाभी।" विजय ने कहा___"जबकि आज का आपका ये प्रेम उस पाक प्रेम से बहुत जुदा है।"
"कैसे जुदा है विजय?" प्रतिमा ने कहा__"वैसा ही तो है आज भी। तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि वो प्रेम इस प्रेम से बहुत जुदा है?"

"मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता भाभी।" विजय ने बेचैनी से कहा__"और अब आप जाइये यहाॅ से। मैं आपके पैर पड़ता हूॅ, कृपया जाइये यहाॅ से।"

प्रतिमा देखती रह गई विजय सिंह को। उस विजय सिंह को जिसके इरादे तथा जिसके संकल्प किसी फौलाद से भी ज्यादा ठोस व मजबूत थे। कुछ देर एकटक विजय को देखने के बाद प्रतिमा वहाॅ से अंदर ही अंदर जलती भुनती चली आई।
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वर्तमान______

हल्दीपुर पुलिस स्टेशन!!
रितू अपनी पुलिस जिप्सी से नीचे उतरी और थाने के अंदर लम्बे लम्बे कदमों के साथ बढ़ गई। आस पास मौजूद पुलिस के सिपाहियों ने उसे सैल्यूट किया जिसका जबाव वह अपनी गर्दन को हल्का सा खम करते हुए दे रही थी। कुछ ही पल में वह अपने केबिन में पहुॅची और टेबल के उस पार रखी कुर्सी पर बैठ गई। तभी उसके केबिन में हवलदार रामदीन दाखिल हुआ।

"कहो रामदीन क्या रिपोर्ट है लोकेशन की?" रितू ने पूछा उससे।
"मैडम पक्की ख़बर है।" रामदीन ने कहा__"उस नेता का वो हरामी कपूत अपने फार्महाउस पर अपने कुछ लफंगे दोस्तों के साथ ऐश फरमा रहा है।"

"ख़बर पक्की है ना?" रितू ने गहरी नज़र से रामदीन की तरफ देखा।
"सौ टका पक्की है मैडम।" रामदीन ने खींसें निपोरते हुए कहा__"अपनी बेवफा बीवी की कसम।"

"बेवफ़ा बीवी???" रितू ने हैरानी से रामदीन की तरफ देखा___"ये क्या बोल रहे हो तुम रामदीन?"
"अब बेवफा को बेवफा न बोलूॅ तो और क्या बोलूॅ मैडम?" रामदीन ने सहसा दुखी भाव से कहा___"मेरा एक पड़ोसी है...नाम है चालूराम। जैसा नाम वैसा ही है वो मैडम। चालूराम बड़ी चालाकी से मेरी बीवी को फॅसा लेता है और फिर उसके साथ चालू हो जाता है। इतना ही नहीं मेरी बीवी भी उसके साथ चालू हो जाती है। इन दोनो के चालूपन ने मेरा जीना हराम कर रखा है मैडम।"

"ओफ्फो रामदीन।" रितू का दिमाग़ मानो चकरा सा गया___"ये क्या बकवास कर रहे हो तुम? कौन चालूराम और कैसा चालूपन?"
"जाने दीजिए मैडम।" रामदीन ने गहरी साॅस ली___"मेरी तो बड़ी दुखभरी दास्तां है।"

"अच्छा छोड़ो ये सब।" रितू ने कहा___"दो चार हवलदार को लो हाथ में और मेरे साथ चलो जल्दी।"
"जी मैडम।" रामदीन ने नाटकीय अंदाज़ में सैल्यूट बजाया और केबिन से बाहर निकल गया। उसके पीछे रितू भी बाहर आ गई।

बाहर चलते हुए रितू ने पाॅकेट से मोबाइल फोन निकाला और उसमें कोई नंबर डायल कर उसे कान से लगा लिया।

"जय हिन्द सर।" रितू ने कहा___"मुझे इमेडिएटली एक सर्च वारंट चाहिए।"
"............"
"आप फिक्र मत कीजिए सर।" रितू कह रही थी____"मैं सब सम्हाल लूॅगी। आप बस दो मिनट के अंदर मुझे वारंट का काग़ज फैक्स कर दीजिए।"

"..............."
"डोन्ट वरी सर।" रितू ने कहा___"आई विल हैण्डल इट।"
"............"
"जय हिन्द सर।" रितू ने कहा और काल डिस्कनेक्ट करके मोबाइल पुनः पाॅकेट में डाल लिया।

ठीक दो मिनट बाद ही फैक्स मशीन से एक कागज़ निकला। रितू के इशारे पर वहीं खड़े रामदीन ने उस कागज़ को फैक्स मशीन से लेकर रितू को पकड़ा दिया। रितू ने ध्यान से कागज़ में लिखे मजमून को देखा और फिर उसे फोल्ड करके पाॅकेट में डाल लिया।

"रामदीन सबको लेकर मेरे साथ चलो।" रितू ने कहा थाने के बाहर खड़ी जिप्सी के पास आ गई। ड्राईविंग सीट पर खुद बैठी वह। चार हवलदारों के बैठते ही उसने जिप्सी को स्टार्ट कर मेन रोड की तरफ दौड़ा दिया।

लगभग आधे घंटे बाद वह हल्दीपुर की आबादी से बाहर दूर बने एक फार्महाउस के पास पहुॅची। यहाॅ पर रोड के दोनो साइड कई सारे फार्महाउस बने हुए थे। किन्तु रितू की जिप्सी जिस फार्महाउस के गेट के पास रुकी उस पर चौधरी फार्महाउस लिखा हुआ था तथा नाम के नीचे फार्महाउस का नंबर पड़ा था।

फार्महाउस के गेट पर दो बंदूखधारी गार्ड तैनात थे। पुलिस जिप्सी को देखते ही वो दोनो चौंके साथ ही दोनो के चेहरे सफेद फक्क भी पड़ गए। रितू जिप्सी से उतर कर तुरंत उन दोनो के करीब पहुॅची। तब तक चारो हवलदार भी आ चौके थे।

एकाएक ही जैसे बिजली सी चमकी। पलक झपकते ही दोनो बंदूखधारियों के कंठ से घुटी घुटी सी चीख निकली और वो लहरा कर वहीं ज़मीन पर गिर पड़े। वो दोनो बेहोश हो चुके थे। ये सब इतनी तेज़ी से हुआ था कि कोई कुछ समझ भी न पाया था कि ये सब कब और कैसे हो गया। हुआ यूॅ था कि रितू उनके पास पहुॅची और बिना कोई बात किये बिजली की सी तेज़ी से उसने अपने दोनो हाॅथों को कराटे की शक्ल देकर दोनो बंदूखधारियों की कनपटी पर बिजली की स्पीड से प्रहार किया था। वो दोनो कुछ समझ ही नहीं पाए थे और ना ही उन्हें इस सबकी कोई उम्मीद थी।

"इन दोनो की बंदूखों को अपने कब्जे में ले लो।" रितू ने आदेश दिया___"और उसके बाद इन दोनो को उठा कर जिप्सी में डाल दो।"

रितू के आदेश का फौरन ही पालन हुआ। चारो हवलदार अभी तक हैरान थे कि उनकी मैडम ने पलक झपकते ही दो दो बंदूखधारियों को अचेत कर दिया। बेचारे क्या जानते थे कि बला की खूबसूरत ये लड़की कितनी खतरनाक भी है।

सब कुछ होने के बाद चारो हवलदार तेज़ी से गेट के अंदर की तरफ दौड़े क्योंकि रितू तब तक गेट के अंदर जा चुकी थी। फार्महाउस काफी बड़ा था और काफी खूबसूरत भी। हर तरफ रंग बिरंगे फूलों की क्यारियाॅ लगी हुई थी तथा एक से बढ़ एक देशी विदेशी पेड़ पौधे लगे हुए थे। लम्बे चौड़े लान में विदेशी घास लगी हुई थी। कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि चौधरी ने अपनी काली कमाई का अच्छा खासा उपयोग किया हुआ था।

गेट से लेकर फार्महाउस की इमारत के मुख्य द्वार तक लगभग आठ फुट चौड़ी सफेद मारबल की सड़क बनी हुई थी तथा इमारत के पास से ही लगभग बीस फुट की ही चौड़ाई पर भी इमारत के चारो तरफ मारबल लगा हुआ था। बाॅकी हर जगह लान में हरी घास, पेड़ पौधे व फूलों की क्यारियाॅ थी।

मुख्य द्वार के बगल से जो कि पोर्च का ही एक हिस्सा था वहाॅ पर दो कारें खड़ी थी इस वक्त। एक ब्लैक कलर की इनोवा थी तथा दूसरी स्विफ्ट डिजायर थी। मुख्य द्वार बंद था। रितू को कहीं पर बेल लगी हुई न दिखी। इस लिए उसने दरवाजे पर हाथ से ही दस्तक दी। किन्तु अंदर से कोई दरवाजा खोलने नहीं आया। रितू ने कई बार दस्तक दी। परंतु परिणाम वही। ऐसा तो हो ही नहीं सकता था कि अंदर कोई है ही नहीं क्योंकि बाहर खड़ी दो कारें इस बात का सबूत थी कि इनसे कोई आया है जो इस वक्त इमारत के अंदर है।

जब रितू की दस्तक का कोई पराणाम सामने नहीं आया तो उसने इमारत से थोड़ा दूर आकर इमारत की तरफ ध्यान से देखा। इमारत दो मंजिला थी। मुख्य द्वार के कुछ ही फासले पर दोनो साइड काच की बड़ी सी किन्तु ब्लैक कलर की खिड़कियाॅ थी। जिनके ऊपर साइड बरसात के मौसम में पानी की बौछार से बचने के लिए रैक बनाया गया था। मुख्य द्वार पर एक लम्बा चौड़ा पोर्च था जो दोनो तरफ की उन कान की खिड़कियों तक था। पोर्च के ऊपर का भाग खाली था उसके बाद स्टील की रेलिंग लगी हुई थी।

अभी रितू ये सब देख ही रही थी कि मुख्य द्वार खुलने की आहट हुई। रितू ने बड़ी तेज़ी से चारो हवलदारों को इमारत के बगल साईड की दीवार के पीछे छुप जाने का इशारा किया जबकि खुद मुख्य द्वार के पास पहुॅच गई।

तभी दरवाजा खुला और सबसे पहले रोहित मेहरा बाहर निकला। उसके चेहरे पर अजीब से भाव थे, वह पीछे की तरफ ही देख कर हॅसते हुए बाहर आ रहा था। उसके पीछे अलोक वर्मा व किशन श्रीवास्तव था और अंत में सूरज चौधरी था। इसका बाप दिवाकर चौधरी शहर का एम एल ए था।

"भाई तुम सब यहीं रुको मैं अपनी वाली उस राॅड को भी लेकर आता हूॅ।" रोहित मेहरा ने कहा___"साली का फोन स्विच ऑफ बता रहा है। अब तो उसे लेने ही जाना पड़ेगा। आज तो इसकी अच्छे से बजाएॅगे हम सब।"

"ठीक है जल्दी आना।" अलोक ने कहा___"तब तक हम इनके होश में लाने का प्रयास करते हैं। और हाॅ सुन........।" आगे बोलते बोलते वह रुक गया क्योंकि दरवाजे के पार खड़ी पुलिस की वर्दी पहने रितू पर उसकी नज़र पड़ गई।

"क्या हुआ बे बोलते बोलते रुक क्यों गया तू?" रोहित मेहरा हॅसा___"कोई भूत देख लिया क्या?"
"ऐसा ही समझ ले।" अलोक ने ऑखों से बाहर की तरफ इशारा किया।

उसके इशारे से सबने देखा बाहर की तरफ और पुलिस इंस्पेक्टर रितू पर नज़र पड़ते ही उन सबकी नानी मर गई। शराब और शबाब का सारा नशा हिरन हो गया उनका। किन्तु ये कुछ देर के लिए ही था अगले पल वो सब मुस्कुराने लगे।

"ले भाई तू अपनी वाली को लेने जा रहा था यहाॅ तो एक ज़बरदस्त माल खुद ही पुलिस की वर्दी में चल कर आ गया।" किशन ने हॅसते हुए कहा___"अब तुझे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। हम सब इसके साथ ही अब मज़ा करेंगे।"

"सही कह रहा है यार।" रोहित मेहरा ने रितू को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा__"क्या फाड़ू फिगर है इसका। कसम से मज़ा आ जाएगा आज तो।"
"तो फिर देर किस बात की भाई?" अलोक ने कहा___"उठा ले चल इसे अंदर।"

"ओये एक मिनट।" किशन ने कहा___"मत भूलो कि ये पुलिस वाली है। इस वक्त अकेली दिख रही है मगर संभव है इसके साथ कोई और भी पुलिस वाले हों। ऐसे में बड़ी प्रोब्लेम
हो जाएगी।"

"अबे साले तू कब अपने वकील बाप की तरह सोचना बंद करेगा?" अलोक घुड़का___"ये हमारा बाल भी बाॅका नहीं कर सकती। अब चल उठा इसे और ले चल अंदर।"

रितू चुपचाप खड़ी इन सबकी बातें सुन रही थी। ये अलग बात थी कि अंदर ही अंदर वह गुस्से भभक रही थी। इधर सबसे आगे रोहित मेहरा ही था सो वही बढ़ा पहले। उसके बाद सभी दरवाजे के बाहर आ गए।

वो चारो रितू के चारो तरफ फैल गए और उसके चारो तरफ गोल गोल चक्कर लगाने लगे।

"भाई हर तरफ से पटाखा है ये तो।" अलोक ने कहा___"सूरज भाई पहले कौन इसकी ले....आहहहहहह।"

अलोक के हलक से दर्द भरी चीख गूॅज गई थी। रितु ने बिजली की सी फुर्ती से पलट कर बैक किक अलोक के सीने पर जड़ा था। किक पड़ते ही वह चीखते हुए तथा हवा में लहराते हुए पोर्च से बाहर जाकर गिरा था। रितूके सब्र का बाॅध जैसे टूट गया था। वह इतने पर ही नहीं रुकी बल्कि पलक झपकते ही बाॅकी तीनों भी पोर्च के अलग अलग हिस्सों पर पड़े कराह रहे थे।

"तुम जैसे हिजड़ों की औलादों को सुधारने के लिए मैं आ गई हूॅ।" रितू ने भभकते हुए कहा___"तुम चारों की ऐसी हालत करूॅगी कि दोबारा जन्म लेने से इंकार कर दोगे।"

"भाई ये क्या था?" किशन ने उठते हुए कहा__"ये तो लगता है करेंट मारती है। हमें इसे अलग तरीके से काबू में करना होगा।"
"सही कह रहा है तू।" अलोक ने कहा__"अब तो शिकार करने में मज़ा आएगा भाई लोग।"

"आ जाओ तुम चारो एक साथ।" रितू ने कहा___"मैंने तुम चारों का हुलिया न बिगाड़ दिया तो मेरा भी नाम रितू सिह बघेल नहीं।"
"चलो देख लेते हैं डियर।" सूरज ने पोजीशन में आते हुए कहा___"कि तुममें कोई बात है या हममें।"

चारों ने रितू को फिर से घेर लिया। किन्तु इस बार वो पूरी तरह सतर्क थे। उनकी पोजीशन से ही लग रहा था कि वो चारो जूड़ो कराटे जानते थे। रितू खुद भी पूरी तरह सतर्क थी।

चारो उसे घेरे हुए थे तथा उनके चेहरों पर कमीनेपन की मुस्कान थी। चारो ने ऑखों ही ऑखों में कोई इशारा किया और अगले ही पल चारो एक साथ रितू की तरफ झपटे किन्तु ये क्या??? वो जैसे ही एक साथ चारो तरफ से रितू पर झपटे वैसे ही रितू ने ऊपर की तरफ जम्प मारी और हवा में ही कलाबाज़ी खाते हुए उन चारों के घरे से बाहर आ गई। उसके बाहर आते ही चारो आपस में ही बुरी तरह टकरा गए। उधर रितू ने मानों उन्हें सम्हलने का मौका ही नहीं दिया बल्कि बिजली की सी स्पीड से उसने लात घूसों और कराटों की बरसात कर दी उन पर। वातावरण में चारों की चीखें गूॅजने लगी। कुछ दूरी पर खड़े वो चारो पुलिस हवलदार भी ये हैरतअंगेज कारनामा देख रहे थे।

ऐसा नहीं था कि चारो लड़के कुछ कर नहीं रहे थे किन्तु उनका हर वार खाली जा रहा था जबकि रितू तो मानो रणचंडी बनी हुई थी। जूड़ो कराटे व मार्शल आर्ट के हैरतअंगेज दाॅव आजमाए थे उसने। परिणाम ये हुआ कि थोड़ी ही देर में उन चारो की हालत ख़राब हो गई। ज़मीन में पड़े वो बुरी तरह कराह रहे थे।

"क्यों सारी हेकड़ी निकल गई क्या?" रितू ने अलोक के पेट में पुलिसिये बूट की तेज़ ठोकर मारते हुए कहा___"उठ सुअर की औलाद। दिखा न अपनी मर्दानगी। साला एक पल में ही पेशाब निकल गया तेरा।"

रितू सच कह रही थी, अलोक की पैन्ट गीली हो गई थी। बूट की ठोकर लगते ही वह हलाल होते बकरे की तरह चिल्लाया था। साथ ही अपने दोनो हाॅथ जोड़कर बोला___"मुझे माफ़ कर दो प्लीज़। आज के बाद मैं ऐसा वैसा कुछ नहीं कहूॅगा।"

"कहेगा तो तब जब कहने लायक तू बचेगा भड़वे की औलाद।" रितू ने एक और ठोकर उसके पेट में जमा दी। वह फिर से चिल्ला उठा था। तभी रितू के हलक से चीख निकल गई। दरअसल उसका सारा ध्यान अलोक की तरफ था इस लिए वह देख ही नहीं पाई कि पीछे से किशन ने उसकी पीठ पर चाकू का वार कर दिया था। पुलिस की वर्दी को चीरता हुआ चाकू उसकी पीठ को भी चीर दिया था। पलक झपकते ही उसकी वर्दी उसके खून से नहाने लगाने थी।

"साली हमसे पंगा ले रही है तू।" किशन ने गुर्राते हुए कहा___"अब देख तेरी क्या हालत बनाते हैं हम?"

बड़ी हैरानी की बात थी कि कुछ ही दूरी पर खड़े चारो हवलदार तमाशा देख रहे थे। उनकी हालत ऐसी थी जैसे जूड़ी के मरीज़ हों। हाॅथों में पुलिस की लाठी लिए वो चारो डरे सहमें से खड़े थे। और उस वक्त तो उनकी हालत और भी खराब हो गई जब किशन ने पीछे से रितू की पीठ पर चाकू से वार किया था। चाकू का वार चीरा सा लगाते हुए निकल गया था, अगर किशन उसे पीठ पर ही पेवस्त कर देता तो मामला बेहद ही गंभीर हो जाता।

"रुक क्यों गया किशन?" सूरज ने उठते हुए कहा___"चीर कर रख दे इस साली की वर्दी को। यहीं पर इसे नंगा करेंगे हम और यहीं पर इसकी इज्जत लूटेंगे।"
"सूरज सही कह रहा है किशन।" रोहित भी उठ चुका था___"इसे सम्हलने का मौका मत दे और चाकू से चीर दे इसकी वर्दी को।"

किशन ने फिर से अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया रितू पर वार करने के लिए। उधर रितू की पीठ में तेज़ी से पीड़ा उठ रही थी। खून बुरी तरह रिस रहा था। जैसे ही किशन ने उस पर वार किया उसने एक हाथ से उसके वार को रोंका और दूसरे हाॅथ से एक ज़बरदस्त मुक्का उसकी नाॅक में जड़ दिया। किशन के नाॅक की हड्डी टूटने की आवाज़ आई साथ ही उसकी भयंकर चीख वातावरण में फैल गई। उसकी नाक से भल्ल भल्ल करके खून बहने लगा था। चाकू उसके हाॅथ से छूट गया और वह ज़मीन पर धड़ाम से गिरा। उधर किशन की ये हालत देख कर बाॅकी तीनो हरकत में आ गए। रितू ने तेज़ी से झुक कर ज़मीन से चाकू उठाया और जैसे ही वो तीनो उसके पास आए उसने चाकू वाला हाॅथ तेज़ी से चला दिया उन पर। सबकी चीखें निकल गई।

हालात बदल चुके थे। रितू जानती थी कि उसकी हालत खुद भी अच्छी नहीं है और अगर वह कमज़ोर पड़ गई तो ये चारो किसी कुत्ते की तरह नोच कर खा जाएॅगे। इस लिए उसने अपने दर्द की परवाह न करते हुए एक बार से उन पर टूट पड़ी और तब तक उन्हें लात घूॅसों पर रखा जब तक कि वो चारो अधमरे न हो गए।

रितू बुरी तरह हाॅफ रही थी। उसकी वर्दी पीक की तरफ से खून में नहा चुकी थी। उसे कमज़ोरी का एहसास होने लगा था।उसने दूर खड़े अपने हवलदारों की तरफ देखा जो किसी पुतलों की तरह खड़े थे। रितू को उन्हें देख कर बेहद क्रोध आया। वह तेज़ी से उनके पास पहुॅची और फिर दे दना दन थप्पड़ों की बरसात कर दी न पर। उन चारों के हलक से चीखें निकल गई।

"मैं तुमको यहाॅ पर क्या तमाशा देखने के लिए लेकर आई थी नामर्दो?" रितू किसी शेरनी की भाॅती गरजी थी, बोली___"तुम चारो यहाॅ पर खड़े बस तमाशा देख रहे थे। तुम दोनो को पुलिस में रहने का कोई हक़ नहीं है। आज और अभी से तुम चारो को ढिसमिस किया जाता है। अब दफा हो जाओ यहाॅ से और कभी अपनी शकल मत दिखाना।"

रितू की गुस्से भरी ये फातें सुनकर चारो की हालत खराब हो गई। वो चारो रितू के पैरों पर गिर कर माफ़ी मागने लगे। किन्तु रितू को उन पर इतना ज्यादा गुस्सा आया हुआ था कि उसने अपने पैरों पर गिरे उन चारों को लात की ठोकरों पर रख दिया।

"हट जाओ मेरे सामने से।" रितू ने गुर्राते हुए कहा___"तुम जैसे निकम्मों और नामर्दों की मेरे पुलिस थाने में कोई जगह नहीं है। अब दफा हो जाओ वरना तुम चारो को गोली मार दूॅगी।"

रितू का रौद्र रूप देख कर वो चारो बुरी तरह ठर गए और फिर वहाॅ से नौ दो ग्यारह हो गए। उनके जाते ही रितू ने उन चारो लड़कों को एक एक करके किसी तरह अपनी पुलिस जिप्सी पर पटका और फिर वह वापस उस जगह आई जहाॅ पर अभी कुछ देर पहले ये संग्राम हुआ था। उसने देखा कि पोर्च के फर्स पर कई जगह खून फैला हुआ था। उसने इधर उधर दृष्टि घुमा कर देखा किन्तु उसे ऐसा कुछ भी न दिखा जो उसके काम का हो। वह मुख्य द्वार से अंदर की तरफ चली गई। अंदर सामने ही एक कमरा दिखा उसे। वह उस कमरे की तरफ बढ़ गई। कमरे का दरवाजा हल्का खुला हुआ था। रितू ने अपने पैरों से दरवाजे को अंदर की तरफ धकेला। दरवाजा बेआवाज़ खुलता चला गया।

अंदर दाखिल होकर उसने देखा कि कमरा काफी बड़ा था तथा काफी शानदार तरीके से सजा हुआ था। एक कोने में बड़ा सा बेड था जिसमें तीन लड़कियाॅ मादरजाद नंगी पड़ी हुई थी। ऐसा लगता था जैसे गहरी नीद में हों। रितू ने नफ़रत से उन्हें देखा और फिर कमरे में उसने अपनी नज़रें दौड़ाईं। बगल की दीवार पर एक तस्वीर टॅगी हुई थी। तस्वीर कोई खास नहीं थी बस साधारण ही थी। रितू के मन में सवाल उभरा कि इतने अलीशान फार्महाउस पर इतनी मामूली तस्वीर कैसे रखी जा सकती है?

रितू ने आगे बढ़ कर तस्वीर को ध्यान से देखा। तस्वीर सच में कोई खास नहीं थी। रितू को जाने क्या सूझा कि उसने हाॅथ बढ़ा कर दीवार से तस्वीर को निकाल लिया। तस्वीर के निकलते ही दीवार पर एक स्विच नज़र आया। रितू ये देख कर चकरा गई। भला दीवार पर लगे स्विच के ऊपर तस्वीर को इस तरह क्यों लगाया गया होगा? क्या स्विच को तस्वीर द्वारा छुपाने के लिए??? रितू को अपना ये विचार कहीं से भी ग़लत नहीं लगा। उसने तस्वीर को एक हाॅथ से पकड़ कर दूसरे हाॅथ को दीवार पर लगे स्विच बटन को ऊपर की तरफ पुश किया। बटन को ऊपर की तरफ पुश करते ही कमरे में अजीब सी घरघराहट की आवाज़ हुई। रितू ये देख कर बुरी तरह चौंकी कि उसके सामने ही दीवार पर एक दरवाजा नज़र आने लगा था।

उसे समझते देर न लगी कि ये दिवाकर चौधरी का गुप्त कमरा है। वह धड़कते दिल के साथ कमरे में दाखिल हो गई। अंदर पहुॅच कर उसने देखा बहुत सारा कबाड़ भरा हुआ था यहाॅ। ये सब देख कर रितू हैरान रह गई। उसे समझ में न आया कि कोई कबाड़ को ऐसे गुप्त रूप से क्यों रखेगा?? रितू ने हर चीज़ को बारीकी से देखा। उसके पास समय नहीं था। क्योंकि उसकी खुद की हालत ख़राब थी। काफी देर तक खोजबीन करने के बाद भी उसे कोई खास चीज़ नज़र न आई। इस लिए वह बाहर आ गई मखर तभी जैसे उसे कुछ याद आया। वह फिर से अंदर गई। इस बार उसने तेज़ी से इधर उधर देखा। जल्द ही उसे एक तरफ की दीवार से सटा हुआ एक टेबल दिखा। टेबल के आस पास तथा ऊपर भी काफी सारा कबाड़ सा पड़ा हुआ था। किन्तु रितू की नज़र कबाड़ के बीच रखे एक छोटे से रिमोट पर पड़ी। उसने तुरंत ही उसे उठा लिया। वो रिमोट टीवी के रिमोट जैसा ही था।

रितू ने हरा बटन दबाया तो उसके दाएॅ तरफ हल्की सी आवाज़ हुई। रितू ने उस तरफ देखा तो उछल पड़ी। ये एक दीवार पर बनी गुप्त आलमारी थी जो आम सूरत में नज़र नहीं आ रही थी। रितू ने आगे बढ़ कर आलमारी की तलाशी लेनी शुरू कर दी। उसमें उसे काफी मसाला मिला। जिन्हें उसने कमरे में ही पड़े एक गंदे से बैग में भर लिया। उसके बाद उसने रिमोट से ही उस आलमारी को बंद कर दिया।

रितू उस बैग को लेकर वापस बाहर आ गई और ड्राइविंग सीट पर बैठ कर जिप्सी को फार्महाउस से मेन सड़क की तरफ दौड़ा दिया। इस वक्त उसके चेहरे पर पत्थर जैसी कठोरता तथा नफ़रत विद्यमान थी। दिलो दिमाग़ में भयंकर चक्रवात सा चल रहा था। उसकी जिप्सी ऑधी तूफान बनी दौड़ी चली जा रही थी।

अपडेट हाज़िर है दोस्तो,,,,,,,,,,,,
 
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Continue with what you have planned... Digression from your own thought process may affect the essence of the story.... The update was awesome.... Keep it up....
शुक्रिया भाई आपकी इस खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिए,,,,,,
 

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अपडेट दे दिया है भाई,,,,,,
 
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