परिधान में ही पहुंच जाता था। पैरों में जूते तक डालना उसके लिए भारी मशक्कत वाला काम था इसलिए स्लीपर्स में कंफर्ट महसूस करता था। बावजूद इसके अपनी काहीलियत को दरकिनार करके सूट-बूट में सजा वो जैंटलमैन बना हुआ था, तो इसकी अहम वजह थी संजना कुलकर्णी, जो उसकी मां की फरीदाबाद में रहने वाली एक सहेली की बेटी थी। संजना उसकी मां को इतना ज्यादा पसंद थी कि वो उसे अपने निकम्मे-निठल्ले बेटे की शरीक-ए-हयात बनाने का सपना देख रही थी। इसलिए ऑफिस जाते वक्त उसने अपने ‘जिगर के टुकड़े’ को खास हिदायत दी थी, कि वो संजना से मिलने ‘इंसान’ बनकर जाए। उसका पूरा नाम विशाल सक्सेना था, छह फीट से उभरते कद वाला वो खूब हट्टा-कट्टा कड़ियल नौजवान था। जो इत्तेफाक से कभी सेव कर लेता था तो सहज ही किसी बड़ी कम्पनी का इग्जेक्यटिव दिखाई देने लगता था। मगर ऐसा सिर्फ होली-दिवाली ही होता था, वरना तो साल के तीन सौ पैंसठ दिन वो अपने सदाबहार परिधान और अलमस्त रूप में ही नजर आता था। बनाने वाले ने उसके सभी कल-पुर्जे यथा स्थान फिट किये थे। लंबा चेहरा, सुतवां नाक, बड़ी-बड़ी आंखें और कान के नीचे तक पहुंचती कलमें! कुल मिलाकर वो बड़ा ही हैंडसम युवक