मेरा ये मत है कि बुजुर्गों को जैसा मन करे, वो करें।
अपनी कमाई किसी को देने की कोई जरूरत नहीं।
पूत कपूत तो का धन संचय, पूत सपूत तो का धन संचय।
ये काहवाते बस दूसरो को उपदेश देने के लिए बनी होती हैं, वास्तिवक्ता अलग होती हैं, हर व्यक्ति अधिक से अधिक संचय करने की चाह रखता है किसके लिए सिर्फ अपने बच्चो के लिए, ये ही यथार्थ है. अन्यथा बच्चे भी बाप बदलने में समय नही लगाते ये अर्थ युग है
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सही है। लेकिन वो लोग भी बूढ़े लोगों को एक्सप्लॉयट करते हैं।
ताली दोनो हाथो से बजती है
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शुद्ध आचरण रख कर सेवा का लाभ ले तो कोई सेवादार कुछ नहीं कर सकता हैं.
सेक्स प्राकृतिक भावना है, लेकिन धर्म अप्राकृतिक है।
लिहाज़ा, सेक्स को क्यों दबाना? अगर सामाजिक तौर पर मान्य तरीका उपलब्ध है, तो क्यों न करें?
बात तो सही है पहले लोग रखैल रखते थे, अब live in रिलेशन, चलने लगा है.
और बात के मूल में यही है - consenting adults अगर बिना समाज का कोई नियम तोड़े साथ में रहना चाहते हैं तो लोग उनके paersonal जीवन में अपनी चौधराहट क्यों झाड़ना चाहते हैं?!
एक पुरानी फिल्म है प्रेम रोग है, उसमे शाम्मि कपूर साहब ने एक डाइलोग दिया था, कि जितनी भी अमर्यादित परम्परा है वो बड़े घरों मे शुरु होती हैं और धीरे धीरे छोटे छोटे घरों में एक बीमारी की तरह फैल जाती हैं.
इस तरह के बुढापे मे इश्क बाजी के जौहर दिखाना रहीसो के काम होते है, सामान्य बुजुर्ग तो अपनी जिम्मेदारी के बोझ तले सीधा चल भी नही पाता आखिरी समय तक यही सोचता है कि अपने फर्ज को ठीक से पूरा कर दिया या नही.
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