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Thriller FIR WAHI KHAUF

gauravrani

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रात पूर्णिमा की थी। आसमान पर पूरे आकार का चाँद था, जिसकी दूधिया चाँदनी समूचे नीरव वातावरण में व्याप्त थी। पूस के महीने की सर्द हवा का वेग उग्र तो नहीं था, किन्तु उग्रता की सीमा से अधिक दूर भी नहीं था। पश्चिम दिशा में दृष्टि के आखिरी छोर पर गगन रक्तिम नजर आ रहा था। आसमान छूती आग की भयानक लपटें लोमहर्षक अग्निकाण्ड की ओर संकेत कर रही थीं। आभास होता था मानो किसी बड़ी बस्ती को निर्ममता से आग के हवाले कर दिया गया हो। उन बालकों की संख्या दो थी, जिनमें से एक आगे-आगे मशाल लेकर चल रहा था और दूसरा उसका अनुसरण कर रहा था। आगे वाले की उम्र लगभग बारह साल थी, जबकि पीछे वाला उसकी उम्र के आधे वयस का अर्थात छः साल का था। आगे वाले की चाल में तेजी थी, जबकि पीछे वाले के पांव थकान के कारण भारी थे। आगे वाले के सफाचट सिर पर एक मोटी शिखा थी, जबकि पीछे वाले के लम्बे और घुंघराले बाल कंधे तक लटक रहे थे। आगे वाले के चेहरे पर दृढ़ता थी, जबकि पीछे वाले के चेहरे पर खौफ था।
 
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उपरोक्त विषमताओं के साथ उन दोनों में केवल यही समानता थी कि वे नंगे पाँव थे, उनके दाँत ठण्ड के कारण बज रहे थे और वे खुद को मोटे किन्तु जगह-जगह से फटे हुए कम्बलों में लपेट रखे थे। छोटे वाले के पीछे होने की वजह ये थी कि वह कुछ समय के अंतराल पर ठहरकर पाँव के तलवे एक-एक करके ऊपर उठाकर धरातल की शीत से क्षणिक राहत पाने की कोशिश करने लगता था। अचानक बड़ा बालक ठहरा, पीछे मुड़ा। छोटे बालक ने चाल में तेजी लाई और उसके पास जा पहुंचा। “ठण्ड लग रही है?” पूछे जाने पर उसने ‘हां’ में गर्दन हिलाई। उसका मासूम चेहरा सुन्दर था, किन्तु संताप के कारण उसकी रौनक कब की उड़ चुकी थी। आंखों में कातर भाव थे, जिनके इर्द-गिर्द आंसू की सूखी हुई लकीरें नजर आ रही थीं। उसकी ओर से ‘हां’ का इशारा पाकर बड़े बालक ने हाथ में मौजूद मशाल को जमीन में हुए एक गड्ढे में टिकाया और अपने बदन का कम्बल उतारकर उसके बदन से अच्छी तरह लपेट दिया। कम्बल के बच रहे हिस्से को मोड़कर उसके हाथों में पकड़ा दिया, ताकि वह जमीन पर न घिसटने पाए। “अब भी लग रही है?”
 
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इस बार इशारा ‘नहीं’ का था। दो कम्बलों की संयुक्त उष्णता पाकर छोटे बालक को राहत महसूस हुई थी। कम्बल उतारते ही सर्द हवा बड़े बालक के बदन में सुई की मानिंद चुभने लगी थी, किन्तु उसने अपने मुंह से ‘शी’ की आवाज तक नहीं निकलने दी, क्योंकि वह छोटे भाई के सामने खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहता था। “भूख भी लगी है?” छोटे बालक ने इस बार ‘नहीं’ में गर्दन हिलाया। वह जानता था कि उसके भाई के पास उसे खिलाने के लिए कुछ नहीं था, क्योंकि वे घर से केवल उन दो कम्बलों के साथ चले थे, जो आग में झुलसने से बच गये थे। बड़े बालक ने मशाल उठाई, छोटे भाई की उंगली पकड़ी और उसे अपने बराबर लेकर चलने लगा। “हम कहां जा रहे हैं भइया?” उसने चलते हुए पूछा। बड़ा बालक ठहर गया। उसने पलटकर पश्चिम में उठती आग की लपटों पर एक दृष्टि डाली और चेहरे पर हिकारत के भाव लिये हुए क्रूर लहजे में बोला- “वहां, जहां इतने ताकतवर बन सकें कि बस्तियां जलाने वाले शैतानों को जड़ से मिटा डालें।” उपरोक्त वाक्य कहते हुए उसका चेहरा भयावह हो उठा, जो मशाल की रोशनी में इस कदर विकृत नजर आया कि उसका छोटा भाई सहम गया।
 
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“लेकिन कहां?” “शंकरगढ़।” “किन्तु हम वहां रहेंगे कहां? क्या वहां हमारा कोई दूसरा घर है?” “नहीं।” “तो फिर?” “वह सब मुझ पर छोड़ दो। तुम केवल चुपचाप मेरे साथ चलो।” छोटा बालक खामोश हो गया। आगे कुछ बोलने का हौसला न जुटा सका। काफी देर तक उनके बीच किसी भी किस्म की बात न हुई। केवल उनके पदचापों की ध्वनि ही थी, जो अभी तक उनके साथ चल रही थी। अन्यथा आज तो झींगुर या जंगली पशु भी उस मातमी रात से खौफ खाकर खामोश थे। लगभग आधे घंटे तक चलने के बाद पहले से ही थका हुआ छोटा बालक और अधिक थक गया। उसने अब एक भी कदम चलने से इनकार कर दिया। “अब और नहीं चला जाता। पाँव दर्द कर रहे हैं।” “तो फिर ठीक है। कहीं साफ़-सुथरी जगह देखकर सो जाते हैं। शंकरगढ़ का बचा हुआ रास्ता सुबह तय करेंगे।”
 
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छोटे बालक के चेहरे पर हर्ष के भाव आ गये। आराम करने के नाम पर मानो उसकी मृतप्राय: आशाएं पुनर्जीवित हो उठीं। साफ़-सुथरी जगह तलाशने के लिए बड़े बालक ने इधर-उधर गर्दन घुमाई। उसकी तलाश जल्द ही ख़त्म हो गयी। मिट्टी की उस पगडंडी, जिस पर वे आगे बढ़ रहे थे, से नीचे उतरकर थोड़ी दूर जाने पर एक पेड़ के नीचे साफ़-सुथरी जगह दिखाई दे रही थी। “आओ, वहां चलते हैं।” उसने उक्त स्थान की ओर संकेत किया और छोटे भाई की उंगली पकड़कर पगडंडी से उतर गया। उसे वहां पर बैठाने के बाद उसने आस-पास की सूखी लकड़ियों को एकत्र किया और उन्हें जला दिया। “इस आग से दोहरा लाभ होगा।” उसने इस प्रकार कहा, मानो अपने भाई को विपरीत परिस्थितियों में जीने का ढंग सीखा रहा हो- “पहला यह कि हम दोनों को शीत से राहत मिलेगी। दूसरा यह कि आग से डरकर खतरनाक जानवर हमारे पास नहीं आयेंगे।” दोनों अभी बातें ही कर रहे थे कि अचानक नीरव वातावरण में किसी औरत की हृदयविदारक चीख गूंजी। चीख ऐसी थी मानो औरत के उर-प्रदेश में खंजर उतार दिया गया हो। चीख सुन कर छोटा बालक तो सहम गया, किन्तु बड़े बालक के चेहरे पर शिकन या भय के बजाय
 
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कौतुहलता के भाव आ गये। उसने चीख की दिशा में गर्दन घुमायी। चीख उस दिशा से आयी थी, जिस दिशा में शंकरगढ़ का घना जंगल था। चीख दोबारा सुनने के प्रयास में उसने कान खड़े कर लिए, किन्तु चीख दोबारा नहीं सुनायी पड़ी। प्रतीत हुआ कि अचानक सुनाई पड़ी वह दर्दनाक चीख औरत के हलक से निकलने वाली आखिरी चीख थी। काफी देर तक तन्मयतापूर्वक ध्वनि की दिशा में कान का रुख रखने के बाद बड़े बालक को कुछ आवाजें सुनाई पड़ीं। हालांकि उद्गम स्थल अधिक दूर होने के कारण आवाजें मक्खी की भिनभिनाहट के समान लग रही थीं, किन्तु थोड़ी देर तक एकाग्रतापूर्वक सुनने के बाद वह तुरंत ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गया कि वे आवाजें ढोल-नगाड़ों और विचित्र मंत्रों का सम्मिलित रूप थीं। वह छोटे भाई की ओर मुड़ा, जिसका चेहरा भय के कारण क्षण-प्रतिक्षण पीला पड़ता जा रहा था। खौफ उस पर इस कदर हावी हो रहा था कि दो-दो कम्बल और आग की गर्मी के पश्चात भी उसका बदन थरथरा उठा था। वह जितने स्थान में बैठा था, उतने ही स्थान में मानो सिमट जाना चाहता था। बड़ा बालक जानता था कि उसके भाई का भय नाजायज नहीं था। आवाजें जिस जंगल से आ रही थीं, उस जंगल के बारे में उसने लोगों से सुन रखा था कि
 
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उसमें दुष्ट कापालिक रहते हैं, जो पैशाचिक सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए शैतान को नरबली चढ़ाते हैं। “डरो मत! मैं जाकर देखता हूँ।” “नहीं!” छोटे ने डरे हुए लहजे में तीव्र विरोध किया- “माँ कहती थी कि रात को शंकरगढ़ के जंगल में एक पिशाच घूमता है।” छोटे भाई के भयभीत अंदाज को देखकर और माँ के सुनाए हुए डरावने किस्सों को याद करके बड़े बालक का भी कलेजा दहल उठा, तथापि उसने छोटे भाई का हौसला बढ़ाने के ध्येय से अपने अंदरूनी हालातों को चेहरे से जाहिर नहीं होने दिया और दृढ़ स्वर में बोला- “पिशाच केवल उनके पीछे आता है, जो उससे दूर भागते हैं या उससे डरते हैं। तुम डरोगे नहीं तो वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। मैं जाकर देखता हूँ कि वह चीख किस औरत की थी। मुझे आभास हो रहा है कि वह औरत हमारे गाँव की ही है, जो हमारी तरह अधर्मियों के चंगुल से बच कर जंगल की ओर चली गयी है और अब किसी गहरी मुसीबत में फंस गयी है।” छोटा बालक कुछ नहीं बोला।
 
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“मैं अधिक दूर नहीं जाऊंगा।” बड़ा बालक उसकी मनोदशा भांप कर बोला- “जल्द ही लौट आऊँगा। डरो मत, तुम्हें यहाँ अधिक देर तक अकेला नहीं छोडूंगा।” कहने के बाद उसने मशाल संभाला और जंगल की दिशा में बढ़ चला। छोटा बालक उसे तब तक देखता रहा, जब तक मशाल की रोशनी नजर आती रही। अंतत: अकेलेपन के भय से बचने के लिए उसने आँखें बंद करके कम्बल में मुंह छुपा लिया। कम्बल और अलाव की गर्मी के कारण उसे जल्द ही नींद आ गयी।
 
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उस कमरे में एक लड़की समेत तीन लोग थे, जिसकी दीवारों से लेकर खिड़कियों के पर्दों तक का रंग नीला था। यहाँ तक कि सीलिंग को भी फ्लोरोसेण्ट ब्लू रंग के स्टीकर्स से ढका गया था। वहां व्याप्त खामोशी इस दर्जे की थी कि लोग एक-दूसरे की साँसों की ध्वनि को भी सुन सकते थे। लड़की की अवस्था इक्कीस साल थी। वह एक आरामदायक कुर्सी की पुश्त से सर टिका कर आँखें बन्द किये हुए थी। उसके जिस्म में कोई हलचल नहीं थी, सिवाय बन्द पलकों में हल्के-हल्के कम्पन के, किन्तु जल्द ही वह कम्पन भी खत्म हो गया। लड़की के अलावा कमरे में मौजूद दो अन्य लोगों में एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था, जो शारिरिक भाषा और हाव-भाव से कोई मनोचिकित्सक लग रहा था। उसकी चश्माधारी आंखें लगातार लड़की के खूबसूरत चेहरे पर ही ठहरी हुई थीं। जबकि दूसरा सांवले वर्ण का एक आकर्षक युवक था, जिसकी उम्र अट्ठाइस वर्ष के आस-पास रही होगी। उसके बाल बेतरतीबी से बिखरे हुए थे। चेहरे पर व्यग्रता थी। वह एक पल लड़की को देखता था, तो अगले पल मनोचिकित्सक को।
 
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आखिरकार जब दो मिनट तक लड़की के होठों का कम्पन वाक्य में तब्दील नहीं हुआ, तो युवक कह उठा- “ये.....क....कुछ बोल क्यों नहीं रही है डॉक्टर?” “कोशिश कर रही है। इसे परामनोविज्ञान में ‘जात-स्मरण’ अथवा ‘रिवर्स मेमोरी’ कहते हैं।” लड़की के होठों का कम्पन तीव्र हुआ। “क्या नजर आ रहा है?” डॉक्टर ने उसके चेहरे को अपलक घूरते हुए पूछा। लड़की के माथे पर बल पड़े। डॉक्टर समझ गया कि वह नजर आ रहे दृश्य को शब्दों में ढालने का प्रयास कर रही थी। “एक भीड़....।” अंतत: लड़की सम्मोहित अवस्था में बोल पड़ी- “पचास लोगों की तादात वाली एक बड़ी भीड़ है। भीड़ का हर आदमी मशाल लिए हुए है। उनके मशालों की रोशनी रात के अँधेरे पर हावी है। भीड़ तेज कदमों से एक पगडंडी पर आगे बढ़ रही है।.....आगे बढ़ रही है....अभी भी आगे बढ़ रही है.....अब भीड़ ठहर गयी है....उस दैत्याकार पीपल के पेड़ के सामने, जिसकी छाया दूर तक फ़ैली हुई है।” सम्मोहित लड़की के बोलने के दौरान युवक ने कई बार डॉक्टर की ओर देखा, किन्तु डॉक्टर का सारा ध्यान लड़की के बनते-बिगड़ते चेहरे पर था।
 
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