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रात पूर्णिमा की थी। आसमान पर पूरे आकार का चाँद था, जिसकी दूधिया चाँदनी समूचे नीरव वातावरण में व्याप्त थी। पूस के महीने की सर्द हवा का वेग उग्र तो नहीं था, किन्तु उग्रता की सीमा से अधिक दूर भी नहीं था। पश्चिम दिशा में दृष्टि के आखिरी छोर पर गगन रक्तिम नजर आ रहा था। आसमान छूती आग की भयानक लपटें लोमहर्षक अग्निकाण्ड की ओर संकेत कर रही थीं। आभास होता था मानो किसी बड़ी बस्ती को निर्ममता से आग के हवाले कर दिया गया हो। उन बालकों की संख्या दो थी, जिनमें से एक आगे-आगे मशाल लेकर चल रहा था और दूसरा उसका अनुसरण कर रहा था। आगे वाले की उम्र लगभग बारह साल थी, जबकि पीछे वाला उसकी उम्र के आधे वयस का अर्थात छः साल का था। आगे वाले की चाल में तेजी थी, जबकि पीछे वाले के पांव थकान के कारण भारी थे। आगे वाले के सफाचट सिर पर एक मोटी शिखा थी, जबकि पीछे वाले के लम्बे और घुंघराले बाल कंधे तक लटक रहे थे। आगे वाले के चेहरे पर दृढ़ता थी, जबकि पीछे वाले के चेहरे पर खौफ था।