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धूप निखर आई थी...। छोटी का जब से ऑपरेशन हुआ है, पलंग पर ही पानी माँगती है। पर आज उसने छोटी की तीमारदारी नहीं की। भाई कमाता है, तो अपने लिए भी नहाने को बाल्टी नहीं भरता। वही रखती थी। पर आज उसकी भी बाल्टी नहीं खींची उसने हैंड पंप से। दौड़-दौड़ कर पापा को निकर, बनियान, तौलिया, साबुन, तेल नहीं दिया। कौर तोड़ने के बीच उठकर मम्मी का ब्लाउज या छोटी की सलवार मशीन पर नहीं धरी, उधड़ी सींवन के लिए! किसी काम को हाथ नहीं लगाया। आज जैसे कि रुखसत हो रही थी वह इस घर से सदा के लिए...।
लगभग आठ बजे वह पिता और बड़ी बहन के साथ बस में आ बैठी, हाईकोर्ट जाने के लिए। बस के आगे पीछे मोटरसाइकल पर अपने एक दोस्त के साथ भाई भी चल रहा था। वह सामने वाले शीशे से और कभी खिड़की से उसे गुजरता हुआ देख लेती। आज कतई गुमसुम थी वह। आंतरिक तनाव में पता ही नहीं चला कि कब हाईकोर्ट पहुँच गई...। गैलरी में आकाश मिले। कनखियों से देखा - चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
वकील ने बताया, 'पेशी लंच के बाद होगी।'
ऊपर से मरघट-सी शांति पर भीतर अखंड कोलाहल...। आकाश बद नहीं पर बदनाम हो चुके थे। उनकी इमेज, उनकी सोसायटी मिट गई। यह केस हारकर कैसे जिएँगे वे! और पिता, भाई, बहन भी कैसे जिएँगे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, जातिगत सम्मान खोकर?
- ऐसी परीक्षा ईश्वर किसी की न ले।' सीने में हौल मची थी। एक घंटा एक युग-सा बीता। इजलास भरने लगा। मामला डबल बैंच में था। वकील ने कहा, 'अंदर चलिए।' वे सब भारी कदमों से भीतर आ गए। फाइल पटल पर रख दी गई। मामला पेश हुआ। पिता भरे गले से बोले, 'हुजूर! संतान जब कुमार्ग पर चल उठे तो उसे सद्मार्ग पर लाना अभागे पिता का वश या कुवश फर्ज बन जाता है। मैंने यही किया है, इसकी जो भी सजा मिले!' पंडिज्जी रोने लगे।
जज ने गौर किया कि बाप गलत नहीं है।
फिर भाई की बारी आई, तो उसने भी तीखे लहजे में यही कहा। तब वकील ने नेहा को पेश किया, पूछा, 'क्या शिकायत है आपको कुमारी जी... अदालत को स्पष्ट बताएँ।'
'कुछ नहीं!' उसके मुँह से बरबस ही निकल गया जिसे सुनकर वकील तैश खा गया, 'फिर ये याचिका क्यों दायर कराई? बच्चों का खेल समझ रखा है अदालत को?'
'ये लोग निकलने नहीं देते,' उसने रुँधे गले से कहा, 'मुझे समाज में बहुत काम करना है।'
'वह तो आप मैरिज के बाद भी कर सकती हैं?' वकील ने जिरह की।
और वह फट पड़ी, 'आज इस खूँटे से बँधी हूँ, कल दूसरे से बाँध देंगे। इस समाज में पारंपरिक शादी का यही अर्थ है। न औरत अपना कैरियर चुन सकती है और न समाज-हित में अपनी मौलिक भूमिका... इस घुटन से बाहर निकल कर मैं खुले आसमान में जीना चाहती हूँ। अपना संघर्ष खुद करना चाहती हूँ। आश्रिता होकर, अपमानित होकर, दूसरों की इच्छा पर निर्भर रहकर नही...।'
'सवाल यह है कि आपकी यह एडॉल्टरी बर्दाश्त कौन करेगा,' वकील ने कुरेदा, 'क्या आप इस धर्मसम्मत व्यवस्था को तोड़ने पर आमादा हैं...?'
'जो समय के साथ नहीं चलता, समय उसे खुद मिटा देता है,' उसने तैश में कहा, 'किसी पुरुष के लिए यह बंधन कहाँ है? मेरी माँ मेरे भाई के लेट आने पर कोई सवाल खड़ा नहीं करती... पिता को भी इस बारे में कोई उज्र नहीं... और मुझ पर संदेह के पहाड़ खड़े किए जाते है,' वह रुआँसी हो उठी, 'मैं अलग रहूँगी! फिर जियूँ या मरूँ।'
इजलास में शांति छा गई।
दोनों न्यायाधीशों ने अंग्रेजी में कुछ गुफ्तगू की। फिर वरिष्ठ न्यायाधीश ने दोनों हाथ जोड़, नेत्र मूँद, गर्दन झुका, 'ऊँ कृष्णम् वंदे जगद्गुरु' बोलकर फैसला लिख दिया।
कहा - 'यू आर मेजर लेडी। आप जा सकती हैं। आप कहीं भी आने-जाने और रहने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप में अच्छा-बुरा समझने की समझ और अपने हित में निर्णय लेने की क्षमता है।'
और वह चल दी तो बुलाकर पूछा, 'पुलिस की मदद तो नहीं चाहिए...?'
'नहीं!' उसने ओठ भींच लिए। उसकी आँखें भर आईं। उसे तीन इंद्रधनुष एक साथ दिखाई देने लगे :
- पिता गर्दन झुकाकर और भाई, बहन उसे घूरते, सीढ़ियाँ उतरते हुए!
- आकाश रेलिंग पर झुके, हताश से खड़े, जैसे पिता के पाँव छूकर इस दुर्घटना के लिए माफी चाहते हुए!
- और अनगिनत काले गाउनों की भीड़ उसे घेरने, अपने चेहरे पर कहानी जानने की उत्सुकता लिए हुए!
फिर हुआ यह कि उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और आकाश के बगल से 'सॉरी' बोल कर गुजर गई... मानों सीढ़ियों पर गेंद-सी लुढ़क गई हो!
बाहर खुला आसमान था, धूप थी, पर वह चिड़िया की तरह चहक कर उड़ने के बजाय पिता के साथ हो ली!
भाई-बहन उसे हैरत से देख रहे थे...।
अगले दिन आकाश से उसने रिजर्वेशन की तारीख पूछ ली। जाने की तैयारी ऐसे करने लगी, जैसे खुदमुख्तार हो। पहली बार माँ से पूछे बगैर बाजार जाकर साड़ी, सेंडिल, चूड़ी आदि अटरम शटरम ले आई। छोटी ने पूछा, 'तुम्हें तो चिढ़ थी, साड़ी-गहनों से?' उसने कहा, 'समय के साथ रुचि-विचार सब बदल जाते हैं।' और अगले दिन अपने बाल भी कटा आई तो माँ-बहनें सब देखती रह गईं। माँ को वह सुंदर तो लगी, पर उसने रंजिशन ताना मारा, 'अब कौने मूंड़ें चाहतीं हौ!' गुस्सा पी गई वह, बोली, 'दिल्ली जाना है... जैसा देश वैसा भेष भी बनाना पड़ता है!'
माँ पिता को बताती, इससे पहले उसने बता दिया, 'मुझे जाना पड़ेगा!'
इस बार उन्होंने कुछ नहीं कहा। न माँ को कसा कि इससे कहो - रात में अपने घर में आकर सोए!'
नियत तारीख को वह ट्रेन से एक घंटा पहले अपना लगेज ले स्टेशन जा पहुँची। आकाश प्लेटफार्म पर ही मिल गए। उसे देखकर चकरा गए वे। वह सचमुच, हीरोइन लग रही थी आज! सो, वे उसी में खोए रहे और उसने रिजर्वेशन बोर्ड पर चस्पाँ सूची में अपने नाम देख लिए, पानी की बोतलें, चिप्स-बिस्किट के पैकेट खरीद लिए। फिर वे लोग यात्री बैंच पर बैठ खामोशीपूर्वक ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे। मानों यह तूफान के पहले की खामोशी हो! क्योंकि इस बीच बहुत कुछ घट गया था। चाहत चौगुनी बढ़ गई थी। अगस्त के बाद वे तसल्लीपूर्वक मई में मिल रहे थे। इस बीच सन बदल गया था। ऋतुएँ बदल गई थीं। दोनों के जन्मदिन बिना मनाए निकल गए थे। और वसंत पंचमी का वह यादगार दिन निकल गया था, जब पहली बार दोनों उस सेमिनार में मिले थे, जिसमें वह उनका फाइलों में छुपाकर कार्टून बनाया करती थी।
और... मिल रहे थे, यह गनीमत थी! मिलने की आशा तो क्षीण हो चुकी थी। भविष्य इतना अनिश्चित हो गया था कि किस रूप में मिलेंगे, सोच पाना भी कठिन था। जीवन में ऐसा घोर संकट इससे पहले आया नहीं था। लग रहा था, हर तरह से ऐन रसातल में चले गए! मगर देखिए, कैसे सूखे निकल आए...! ये किस अदृश्य-शक्ति का खेल था?' वे नेहा को कनखियों से देखते सोच रहे थे जो फैसला पक्ष में सुनने के बावजूद पिता के साथ चली गई थी। उसी घर में जो कैद में बदल गया था...। उसके पूर्वानुमान और हौसले से वे चमत्कृत थे, आज!
ट्रेन आ गई तो दोनों बोगी में आ गए। उसे लोअर बर्थ देकर आकाश सामने की ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गए थे। फीमेल के कारण ही एक लोअर मिली थी। नेहा को पहली बार उनके साथ इस तरह जाते हुए भारी संकोच हो रहा था। इसी मारे वह हाँ-हूँ के सिवा, खुलकर बात नहीं कर पा रही थी। दिमाग मम्मी-पापा, भाई-बहनों पर ही घूम रहा था। उनकी नजर में तो वह हनीमून पर जा रही थी...। और यह बात आकाश से कह देने को जीभ खुजला रही थी, पर कहने की सोच कर ही मुस्कराहट छूटी पड़ रही थी। वैसे भी यह महीना उसकी जिंदगी के लिए अहम है। साल भर पहले मई के इसी महीने में तो वह उनके साथ चौक पर कुल्फी खाने गई थी, लॉज में कपड़े धेने, अपने ही घर में जीत का सेहरा बँधने और मंदिर पर रसोई रचाने...। सोते-जागते बराबर एहसास बना रहा कि मुहब्बत निश्चित तौर पर दैहिक आकर्षण से शुरू होती है। देह प्रत्यक्ष नहीं होती वहाँ भी स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की इमेज से ही प्रेमांकुर फूटते हैं हृदय में।
कन्जेक्शन के कारण ट्रेन इतनी लेट पहुँची कि उन्हें सीधे मीटिंग में पहुँचना पड़ा। थकान और घबराहट दोनों एक साथ! मगर बड़े से प्रोजेक्टर पर जब उनके परियोजना क्षेत्र का नक्शा दिखलाया गया और रौशन बिंदुओं को स्ट्रिक से छू-छूकर नेहा-आकाश के नाम के साथ उल्लिखित किया गया तो दिल में खुशी से दर्द होने लगा...।
लंच के बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। संयोग से उसे ग्रुप लीडर के रूप में बोलने का मौका मिला। तब सेक्रेटरी ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया कि वह चकरा गई। आकाश ने अपनी सीट से हाथ उठाकर बोलने की अनुमति चाही, पर उसने उन्हें वरज दिया और नेहा को चैलेंज करने लगा, 'येस-मैडम! सपोज कि आपको प्रोजेक्ट मिल गया, आपका एचीवमेंट भी सेंट-परसेंट रहा... मगर क्या गारंटी है कि आफ्टर समटाइम, रेट जहाँ का तहाँ नहीं पहुँच जाएगा?'
'नो स-र! इसकी तो कोई गारंटी नहीं है...।' कहते श्वास फूल गया।
पार्टिसिपेटर्स हूट करने लगे।
आकाश का मुँह उतर गया था। मगर अगले ही पल उसने साहस जुटा कर आगे कहा, 'लेकिन-सर! इतिहास गवाह है कि बुद्ध ने अहिंसा का कितना बड़ा तंत्र खड़ा कर दिया था, गांधी ने स्वदेशी का जाल बुन फेंका और आंबेडकर ने मुख्य रूप से जातिगत असमानता से निबटने के लिए ही समाज को ललकारा पर हम देख रहे हैं, सब उल्टा हो रहा है...। सर! मैं कहना चाहती हूँ कि समाज अपनी गति से चलता है सर!'
तो तालियाँ बजने लगीं। और सेक्रेटरी ने कहा, 'साफगोई के लिए शुक्रिया। पर हमें किसी निगेटिव पाइंट ऑफ व्यू से नहीं सोचता है, दोस्तो! ओके। अटेंड टु योर वर्क!'
आते समय उन्हें बताया गया कि कुछेक प्रोजेक्टस पर आज नाइट में ही मंत्रालय की मुहर लग जाएगी। वे लोग आज डेली में ही रुकें। और यह बात सभी जिलों से नहीं कही गई थी। इसलिए उन्होंने कयास लगा लिया कि कम से कम हमें तो हरी झंडी मिल ही गई!'
उत्साह और हर्ष के कारण दम फूल-सा रहा था। उसके रोल से आकाश तक इतने इंप्रेस हुए कि आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। रोके गए प्रतिनिधियों को एक रिप्युटेड गेस्टहाउस में ठहराया गया! वहीं पदाधिकारियों के साथ रात्रिभोज की व्यवस्था थी। फ्रेश होकर वे वीआईपीज की तरह डाइनिंग हॉल में पहुँचे। बैरे तहजीब से पेश आ रहे थे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि उसे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था। कॉन्फिडेंस के साथ, मैच करते ब्लाउज में पहली बार उसने साड़ी पहनी। हाई हील के सेंडिल और कलाइयों में चूड़ियाँ। इंप्लीमेंटेशन को लेकर दिमाग में नए-नए आईडियाज कौंध रहे थे। अब वह समझ सकती थी कि - तनाव मुक्त मस्तिष्क ही बैटर प्लानिंग दे सकता है।'
आकाश ने जोड़ा - अफसरों को इसीलिए सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं, ताकि पीसफुली सोच सकें, बेहतर कर सकें। सर्वहारा के मसीहा लेनिन तक बड़ी ग्लैमरस लाइफ बिताते थे। क्योंकि जनता को आकर्षित करने का यही एक तरीका है। जब तक उसे नहीं लगे कि नेतृत्व अवसर और सुरक्षा दे सकता है, वह साथ नहीं देने वाली।'
इन्ज्वाइमेंट की गरमी में जोड़े चिड़ियों से चहक रहे थे। उनकी आँखों में उड़ान, बदन में बिजलियाँ कौंध रही थीं।
- मतलब, गरिष्ठ भोजन और खुले मनोरंजन से ही शरीर को बल, दिमाग को ऊर्जा मिल सकती है, ना! होटल तभी आबाद हैं।' उसने विनोद किया।
झेंपकर वे मुस्कराने लगे। मौसम खुशगवार हो गया।
लगभग आठ बजे वह पिता और बड़ी बहन के साथ बस में आ बैठी, हाईकोर्ट जाने के लिए। बस के आगे पीछे मोटरसाइकल पर अपने एक दोस्त के साथ भाई भी चल रहा था। वह सामने वाले शीशे से और कभी खिड़की से उसे गुजरता हुआ देख लेती। आज कतई गुमसुम थी वह। आंतरिक तनाव में पता ही नहीं चला कि कब हाईकोर्ट पहुँच गई...। गैलरी में आकाश मिले। कनखियों से देखा - चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
वकील ने बताया, 'पेशी लंच के बाद होगी।'
ऊपर से मरघट-सी शांति पर भीतर अखंड कोलाहल...। आकाश बद नहीं पर बदनाम हो चुके थे। उनकी इमेज, उनकी सोसायटी मिट गई। यह केस हारकर कैसे जिएँगे वे! और पिता, भाई, बहन भी कैसे जिएँगे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, जातिगत सम्मान खोकर?
- ऐसी परीक्षा ईश्वर किसी की न ले।' सीने में हौल मची थी। एक घंटा एक युग-सा बीता। इजलास भरने लगा। मामला डबल बैंच में था। वकील ने कहा, 'अंदर चलिए।' वे सब भारी कदमों से भीतर आ गए। फाइल पटल पर रख दी गई। मामला पेश हुआ। पिता भरे गले से बोले, 'हुजूर! संतान जब कुमार्ग पर चल उठे तो उसे सद्मार्ग पर लाना अभागे पिता का वश या कुवश फर्ज बन जाता है। मैंने यही किया है, इसकी जो भी सजा मिले!' पंडिज्जी रोने लगे।
जज ने गौर किया कि बाप गलत नहीं है।
फिर भाई की बारी आई, तो उसने भी तीखे लहजे में यही कहा। तब वकील ने नेहा को पेश किया, पूछा, 'क्या शिकायत है आपको कुमारी जी... अदालत को स्पष्ट बताएँ।'
'कुछ नहीं!' उसके मुँह से बरबस ही निकल गया जिसे सुनकर वकील तैश खा गया, 'फिर ये याचिका क्यों दायर कराई? बच्चों का खेल समझ रखा है अदालत को?'
'ये लोग निकलने नहीं देते,' उसने रुँधे गले से कहा, 'मुझे समाज में बहुत काम करना है।'
'वह तो आप मैरिज के बाद भी कर सकती हैं?' वकील ने जिरह की।
और वह फट पड़ी, 'आज इस खूँटे से बँधी हूँ, कल दूसरे से बाँध देंगे। इस समाज में पारंपरिक शादी का यही अर्थ है। न औरत अपना कैरियर चुन सकती है और न समाज-हित में अपनी मौलिक भूमिका... इस घुटन से बाहर निकल कर मैं खुले आसमान में जीना चाहती हूँ। अपना संघर्ष खुद करना चाहती हूँ। आश्रिता होकर, अपमानित होकर, दूसरों की इच्छा पर निर्भर रहकर नही...।'
'सवाल यह है कि आपकी यह एडॉल्टरी बर्दाश्त कौन करेगा,' वकील ने कुरेदा, 'क्या आप इस धर्मसम्मत व्यवस्था को तोड़ने पर आमादा हैं...?'
'जो समय के साथ नहीं चलता, समय उसे खुद मिटा देता है,' उसने तैश में कहा, 'किसी पुरुष के लिए यह बंधन कहाँ है? मेरी माँ मेरे भाई के लेट आने पर कोई सवाल खड़ा नहीं करती... पिता को भी इस बारे में कोई उज्र नहीं... और मुझ पर संदेह के पहाड़ खड़े किए जाते है,' वह रुआँसी हो उठी, 'मैं अलग रहूँगी! फिर जियूँ या मरूँ।'
इजलास में शांति छा गई।
दोनों न्यायाधीशों ने अंग्रेजी में कुछ गुफ्तगू की। फिर वरिष्ठ न्यायाधीश ने दोनों हाथ जोड़, नेत्र मूँद, गर्दन झुका, 'ऊँ कृष्णम् वंदे जगद्गुरु' बोलकर फैसला लिख दिया।
कहा - 'यू आर मेजर लेडी। आप जा सकती हैं। आप कहीं भी आने-जाने और रहने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप में अच्छा-बुरा समझने की समझ और अपने हित में निर्णय लेने की क्षमता है।'
और वह चल दी तो बुलाकर पूछा, 'पुलिस की मदद तो नहीं चाहिए...?'
'नहीं!' उसने ओठ भींच लिए। उसकी आँखें भर आईं। उसे तीन इंद्रधनुष एक साथ दिखाई देने लगे :
- पिता गर्दन झुकाकर और भाई, बहन उसे घूरते, सीढ़ियाँ उतरते हुए!
- आकाश रेलिंग पर झुके, हताश से खड़े, जैसे पिता के पाँव छूकर इस दुर्घटना के लिए माफी चाहते हुए!
- और अनगिनत काले गाउनों की भीड़ उसे घेरने, अपने चेहरे पर कहानी जानने की उत्सुकता लिए हुए!
फिर हुआ यह कि उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और आकाश के बगल से 'सॉरी' बोल कर गुजर गई... मानों सीढ़ियों पर गेंद-सी लुढ़क गई हो!
बाहर खुला आसमान था, धूप थी, पर वह चिड़िया की तरह चहक कर उड़ने के बजाय पिता के साथ हो ली!
भाई-बहन उसे हैरत से देख रहे थे...।
अगले दिन आकाश से उसने रिजर्वेशन की तारीख पूछ ली। जाने की तैयारी ऐसे करने लगी, जैसे खुदमुख्तार हो। पहली बार माँ से पूछे बगैर बाजार जाकर साड़ी, सेंडिल, चूड़ी आदि अटरम शटरम ले आई। छोटी ने पूछा, 'तुम्हें तो चिढ़ थी, साड़ी-गहनों से?' उसने कहा, 'समय के साथ रुचि-विचार सब बदल जाते हैं।' और अगले दिन अपने बाल भी कटा आई तो माँ-बहनें सब देखती रह गईं। माँ को वह सुंदर तो लगी, पर उसने रंजिशन ताना मारा, 'अब कौने मूंड़ें चाहतीं हौ!' गुस्सा पी गई वह, बोली, 'दिल्ली जाना है... जैसा देश वैसा भेष भी बनाना पड़ता है!'
माँ पिता को बताती, इससे पहले उसने बता दिया, 'मुझे जाना पड़ेगा!'
इस बार उन्होंने कुछ नहीं कहा। न माँ को कसा कि इससे कहो - रात में अपने घर में आकर सोए!'
नियत तारीख को वह ट्रेन से एक घंटा पहले अपना लगेज ले स्टेशन जा पहुँची। आकाश प्लेटफार्म पर ही मिल गए। उसे देखकर चकरा गए वे। वह सचमुच, हीरोइन लग रही थी आज! सो, वे उसी में खोए रहे और उसने रिजर्वेशन बोर्ड पर चस्पाँ सूची में अपने नाम देख लिए, पानी की बोतलें, चिप्स-बिस्किट के पैकेट खरीद लिए। फिर वे लोग यात्री बैंच पर बैठ खामोशीपूर्वक ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे। मानों यह तूफान के पहले की खामोशी हो! क्योंकि इस बीच बहुत कुछ घट गया था। चाहत चौगुनी बढ़ गई थी। अगस्त के बाद वे तसल्लीपूर्वक मई में मिल रहे थे। इस बीच सन बदल गया था। ऋतुएँ बदल गई थीं। दोनों के जन्मदिन बिना मनाए निकल गए थे। और वसंत पंचमी का वह यादगार दिन निकल गया था, जब पहली बार दोनों उस सेमिनार में मिले थे, जिसमें वह उनका फाइलों में छुपाकर कार्टून बनाया करती थी।
और... मिल रहे थे, यह गनीमत थी! मिलने की आशा तो क्षीण हो चुकी थी। भविष्य इतना अनिश्चित हो गया था कि किस रूप में मिलेंगे, सोच पाना भी कठिन था। जीवन में ऐसा घोर संकट इससे पहले आया नहीं था। लग रहा था, हर तरह से ऐन रसातल में चले गए! मगर देखिए, कैसे सूखे निकल आए...! ये किस अदृश्य-शक्ति का खेल था?' वे नेहा को कनखियों से देखते सोच रहे थे जो फैसला पक्ष में सुनने के बावजूद पिता के साथ चली गई थी। उसी घर में जो कैद में बदल गया था...। उसके पूर्वानुमान और हौसले से वे चमत्कृत थे, आज!
ट्रेन आ गई तो दोनों बोगी में आ गए। उसे लोअर बर्थ देकर आकाश सामने की ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गए थे। फीमेल के कारण ही एक लोअर मिली थी। नेहा को पहली बार उनके साथ इस तरह जाते हुए भारी संकोच हो रहा था। इसी मारे वह हाँ-हूँ के सिवा, खुलकर बात नहीं कर पा रही थी। दिमाग मम्मी-पापा, भाई-बहनों पर ही घूम रहा था। उनकी नजर में तो वह हनीमून पर जा रही थी...। और यह बात आकाश से कह देने को जीभ खुजला रही थी, पर कहने की सोच कर ही मुस्कराहट छूटी पड़ रही थी। वैसे भी यह महीना उसकी जिंदगी के लिए अहम है। साल भर पहले मई के इसी महीने में तो वह उनके साथ चौक पर कुल्फी खाने गई थी, लॉज में कपड़े धेने, अपने ही घर में जीत का सेहरा बँधने और मंदिर पर रसोई रचाने...। सोते-जागते बराबर एहसास बना रहा कि मुहब्बत निश्चित तौर पर दैहिक आकर्षण से शुरू होती है। देह प्रत्यक्ष नहीं होती वहाँ भी स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की इमेज से ही प्रेमांकुर फूटते हैं हृदय में।
कन्जेक्शन के कारण ट्रेन इतनी लेट पहुँची कि उन्हें सीधे मीटिंग में पहुँचना पड़ा। थकान और घबराहट दोनों एक साथ! मगर बड़े से प्रोजेक्टर पर जब उनके परियोजना क्षेत्र का नक्शा दिखलाया गया और रौशन बिंदुओं को स्ट्रिक से छू-छूकर नेहा-आकाश के नाम के साथ उल्लिखित किया गया तो दिल में खुशी से दर्द होने लगा...।
लंच के बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। संयोग से उसे ग्रुप लीडर के रूप में बोलने का मौका मिला। तब सेक्रेटरी ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया कि वह चकरा गई। आकाश ने अपनी सीट से हाथ उठाकर बोलने की अनुमति चाही, पर उसने उन्हें वरज दिया और नेहा को चैलेंज करने लगा, 'येस-मैडम! सपोज कि आपको प्रोजेक्ट मिल गया, आपका एचीवमेंट भी सेंट-परसेंट रहा... मगर क्या गारंटी है कि आफ्टर समटाइम, रेट जहाँ का तहाँ नहीं पहुँच जाएगा?'
'नो स-र! इसकी तो कोई गारंटी नहीं है...।' कहते श्वास फूल गया।
पार्टिसिपेटर्स हूट करने लगे।
आकाश का मुँह उतर गया था। मगर अगले ही पल उसने साहस जुटा कर आगे कहा, 'लेकिन-सर! इतिहास गवाह है कि बुद्ध ने अहिंसा का कितना बड़ा तंत्र खड़ा कर दिया था, गांधी ने स्वदेशी का जाल बुन फेंका और आंबेडकर ने मुख्य रूप से जातिगत असमानता से निबटने के लिए ही समाज को ललकारा पर हम देख रहे हैं, सब उल्टा हो रहा है...। सर! मैं कहना चाहती हूँ कि समाज अपनी गति से चलता है सर!'
तो तालियाँ बजने लगीं। और सेक्रेटरी ने कहा, 'साफगोई के लिए शुक्रिया। पर हमें किसी निगेटिव पाइंट ऑफ व्यू से नहीं सोचता है, दोस्तो! ओके। अटेंड टु योर वर्क!'
आते समय उन्हें बताया गया कि कुछेक प्रोजेक्टस पर आज नाइट में ही मंत्रालय की मुहर लग जाएगी। वे लोग आज डेली में ही रुकें। और यह बात सभी जिलों से नहीं कही गई थी। इसलिए उन्होंने कयास लगा लिया कि कम से कम हमें तो हरी झंडी मिल ही गई!'
उत्साह और हर्ष के कारण दम फूल-सा रहा था। उसके रोल से आकाश तक इतने इंप्रेस हुए कि आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। रोके गए प्रतिनिधियों को एक रिप्युटेड गेस्टहाउस में ठहराया गया! वहीं पदाधिकारियों के साथ रात्रिभोज की व्यवस्था थी। फ्रेश होकर वे वीआईपीज की तरह डाइनिंग हॉल में पहुँचे। बैरे तहजीब से पेश आ रहे थे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि उसे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था। कॉन्फिडेंस के साथ, मैच करते ब्लाउज में पहली बार उसने साड़ी पहनी। हाई हील के सेंडिल और कलाइयों में चूड़ियाँ। इंप्लीमेंटेशन को लेकर दिमाग में नए-नए आईडियाज कौंध रहे थे। अब वह समझ सकती थी कि - तनाव मुक्त मस्तिष्क ही बैटर प्लानिंग दे सकता है।'
आकाश ने जोड़ा - अफसरों को इसीलिए सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं, ताकि पीसफुली सोच सकें, बेहतर कर सकें। सर्वहारा के मसीहा लेनिन तक बड़ी ग्लैमरस लाइफ बिताते थे। क्योंकि जनता को आकर्षित करने का यही एक तरीका है। जब तक उसे नहीं लगे कि नेतृत्व अवसर और सुरक्षा दे सकता है, वह साथ नहीं देने वाली।'
इन्ज्वाइमेंट की गरमी में जोड़े चिड़ियों से चहक रहे थे। उनकी आँखों में उड़ान, बदन में बिजलियाँ कौंध रही थीं।
- मतलब, गरिष्ठ भोजन और खुले मनोरंजन से ही शरीर को बल, दिमाग को ऊर्जा मिल सकती है, ना! होटल तभी आबाद हैं।' उसने विनोद किया।
झेंपकर वे मुस्कराने लगे। मौसम खुशगवार हो गया।