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Fantasy Living Relationship (Completed)

Mayaviguru

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धूप निखर आई थी...। छोटी का जब से ऑपरेशन हुआ है, पलंग पर ही पानी माँगती है। पर आज उसने छोटी की तीमारदारी नहीं की। भाई कमाता है, तो अपने लिए भी नहाने को बाल्टी नहीं भरता। वही रखती थी। पर आज उसकी भी बाल्टी नहीं खींची उसने हैंड पंप से। दौड़-दौड़ कर पापा को निकर, बनियान, तौलिया, साबुन, तेल नहीं दिया। कौर तोड़ने के बीच उठकर मम्मी का ब्लाउज या छोटी की सलवार मशीन पर नहीं धरी, उधड़ी सींवन के लिए! किसी काम को हाथ नहीं लगाया। आज जैसे कि रुखसत हो रही थी वह इस घर से सदा के लिए...।
लगभग आठ बजे वह पिता और बड़ी बहन के साथ बस में आ बैठी, हाईकोर्ट जाने के लिए। बस के आगे पीछे मोटरसाइकल पर अपने एक दोस्त के साथ भाई भी चल रहा था। वह सामने वाले शीशे से और कभी खिड़की से उसे गुजरता हुआ देख लेती। आज कतई गुमसुम थी वह। आंतरिक तनाव में पता ही नहीं चला कि कब हाईकोर्ट पहुँच गई...। गैलरी में आकाश मिले। कनखियों से देखा - चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
वकील ने बताया, 'पेशी लंच के बाद होगी।'
ऊपर से मरघट-सी शांति पर भीतर अखंड कोलाहल...। आकाश बद नहीं पर बदनाम हो चुके थे। उनकी इमेज, उनकी सोसायटी मिट गई। यह केस हारकर कैसे जिएँगे वे! और पिता, भाई, बहन भी कैसे जिएँगे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, जातिगत सम्मान खोकर?
- ऐसी परीक्षा ईश्वर किसी की न ले।' सीने में हौल मची थी। एक घंटा एक युग-सा बीता। इजलास भरने लगा। मामला डबल बैंच में था। वकील ने कहा, 'अंदर चलिए।' वे सब भारी कदमों से भीतर आ गए। फाइल पटल पर रख दी गई। मामला पेश हुआ। पिता भरे गले से बोले, 'हुजूर! संतान जब कुमार्ग पर चल उठे तो उसे सद्मार्ग पर लाना अभागे पिता का वश या कुवश फर्ज बन जाता है। मैंने यही किया है, इसकी जो भी सजा मिले!' पंडिज्जी रोने लगे।
जज ने गौर किया कि बाप गलत नहीं है।
फिर भाई की बारी आई, तो उसने भी तीखे लहजे में यही कहा। तब वकील ने नेहा को पेश किया, पूछा, 'क्या शिकायत है आपको कुमारी जी... अदालत को स्पष्ट बताएँ।'
'कुछ नहीं!' उसके मुँह से बरबस ही निकल गया जिसे सुनकर वकील तैश खा गया, 'फिर ये याचिका क्यों दायर कराई? बच्चों का खेल समझ रखा है अदालत को?'
'ये लोग निकलने नहीं देते,' उसने रुँधे गले से कहा, 'मुझे समाज में बहुत काम करना है।'
'वह तो आप मैरिज के बाद भी कर सकती हैं?' वकील ने जिरह की।
और वह फट पड़ी, 'आज इस खूँटे से बँधी हूँ, कल दूसरे से बाँध देंगे। इस समाज में पारंपरिक शादी का यही अर्थ है। न औरत अपना कैरियर चुन सकती है और न समाज-हित में अपनी मौलिक भूमिका... इस घुटन से बाहर निकल कर मैं खुले आसमान में जीना चाहती हूँ। अपना संघर्ष खुद करना चाहती हूँ। आश्रिता होकर, अपमानित होकर, दूसरों की इच्छा पर निर्भर रहकर नही...।'
'सवाल यह है कि आपकी यह एडॉल्टरी बर्दाश्त कौन करेगा,' वकील ने कुरेदा, 'क्या आप इस धर्मसम्मत व्यवस्था को तोड़ने पर आमादा हैं...?'
'जो समय के साथ नहीं चलता, समय उसे खुद मिटा देता है,' उसने तैश में कहा, 'किसी पुरुष के लिए यह बंधन कहाँ है? मेरी माँ मेरे भाई के लेट आने पर कोई सवाल खड़ा नहीं करती... पिता को भी इस बारे में कोई उज्र नहीं... और मुझ पर संदेह के पहाड़ खड़े किए जाते है,' वह रुआँसी हो उठी, 'मैं अलग रहूँगी! फिर जियूँ या मरूँ।'
इजलास में शांति छा गई।
दोनों न्यायाधीशों ने अंग्रेजी में कुछ गुफ्तगू की। फिर वरिष्ठ न्यायाधीश ने दोनों हाथ जोड़, नेत्र मूँद, गर्दन झुका, 'ऊँ कृष्णम् वंदे जगद्गुरु' बोलकर फैसला लिख दिया।
कहा - 'यू आर मेजर लेडी। आप जा सकती हैं। आप कहीं भी आने-जाने और रहने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप में अच्छा-बुरा समझने की समझ और अपने हित में निर्णय लेने की क्षमता है।'
और वह चल दी तो बुलाकर पूछा, 'पुलिस की मदद तो नहीं चाहिए...?'
'नहीं!' उसने ओठ भींच लिए। उसकी आँखें भर आईं। उसे तीन इंद्रधनुष एक साथ दिखाई देने लगे :
- पिता गर्दन झुकाकर और भाई, बहन उसे घूरते, सीढ़ियाँ उतरते हुए!
- आकाश रेलिंग पर झुके, हताश से खड़े, जैसे पिता के पाँव छूकर इस दुर्घटना के लिए माफी चाहते हुए!
- और अनगिनत काले गाउनों की भीड़ उसे घेरने, अपने चेहरे पर कहानी जानने की उत्सुकता लिए हुए!
फिर हुआ यह कि उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और आकाश के बगल से 'सॉरी' बोल कर गुजर गई... मानों सीढ़ियों पर गेंद-सी लुढ़क गई हो!
बाहर खुला आसमान था, धूप थी, पर वह चिड़िया की तरह चहक कर उड़ने के बजाय पिता के साथ हो ली!
भाई-बहन उसे हैरत से देख रहे थे...।
अगले दिन आकाश से उसने रिजर्वेशन की तारीख पूछ ली। जाने की तैयारी ऐसे करने लगी, जैसे खुदमुख्तार हो। पहली बार माँ से पूछे बगैर बाजार जाकर साड़ी, सेंडिल, चूड़ी आदि अटरम शटरम ले आई। छोटी ने पूछा, 'तुम्हें तो चिढ़ थी, साड़ी-गहनों से?' उसने कहा, 'समय के साथ रुचि-विचार सब बदल जाते हैं।' और अगले दिन अपने बाल भी कटा आई तो माँ-बहनें सब देखती रह गईं। माँ को वह सुंदर तो लगी, पर उसने रंजिशन ताना मारा, 'अब कौने मूंड़ें चाहतीं हौ!' गुस्सा पी गई वह, बोली, 'दिल्ली जाना है... जैसा देश वैसा भेष भी बनाना पड़ता है!'
माँ पिता को बताती, इससे पहले उसने बता दिया, 'मुझे जाना पड़ेगा!'
इस बार उन्होंने कुछ नहीं कहा। न माँ को कसा कि इससे कहो - रात में अपने घर में आकर सोए!'
नियत तारीख को वह ट्रेन से एक घंटा पहले अपना लगेज ले स्टेशन जा पहुँची। आकाश प्लेटफार्म पर ही मिल गए। उसे देखकर चकरा गए वे। वह सचमुच, हीरोइन लग रही थी आज! सो, वे उसी में खोए रहे और उसने रिजर्वेशन बोर्ड पर चस्पाँ सूची में अपने नाम देख लिए, पानी की बोतलें, चिप्स-बिस्किट के पैकेट खरीद लिए। फिर वे लोग यात्री बैंच पर बैठ खामोशीपूर्वक ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे। मानों यह तूफान के पहले की खामोशी हो! क्योंकि इस बीच बहुत कुछ घट गया था। चाहत चौगुनी बढ़ गई थी। अगस्त के बाद वे तसल्लीपूर्वक मई में मिल रहे थे। इस बीच सन बदल गया था। ऋतुएँ बदल गई थीं। दोनों के जन्मदिन बिना मनाए निकल गए थे। और वसंत पंचमी का वह यादगार दिन निकल गया था, जब पहली बार दोनों उस सेमिनार में मिले थे, जिसमें वह उनका फाइलों में छुपाकर कार्टून बनाया करती थी।
और... मिल रहे थे, यह गनीमत थी! मिलने की आशा तो क्षीण हो चुकी थी। भविष्य इतना अनिश्चित हो गया था कि किस रूप में मिलेंगे, सोच पाना भी कठिन था। जीवन में ऐसा घोर संकट इससे पहले आया नहीं था। लग रहा था, हर तरह से ऐन रसातल में चले गए! मगर देखिए, कैसे सूखे निकल आए...! ये किस अदृश्य-शक्ति का खेल था?' वे नेहा को कनखियों से देखते सोच रहे थे जो फैसला पक्ष में सुनने के बावजूद पिता के साथ चली गई थी। उसी घर में जो कैद में बदल गया था...। उसके पूर्वानुमान और हौसले से वे चमत्कृत थे, आज!
ट्रेन आ गई तो दोनों बोगी में आ गए। उसे लोअर बर्थ देकर आकाश सामने की ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गए थे। फीमेल के कारण ही एक लोअर मिली थी। नेहा को पहली बार उनके साथ इस तरह जाते हुए भारी संकोच हो रहा था। इसी मारे वह हाँ-हूँ के सिवा, खुलकर बात नहीं कर पा रही थी। दिमाग मम्मी-पापा, भाई-बहनों पर ही घूम रहा था। उनकी नजर में तो वह हनीमून पर जा रही थी...। और यह बात आकाश से कह देने को जीभ खुजला रही थी, पर कहने की सोच कर ही मुस्कराहट छूटी पड़ रही थी। वैसे भी यह महीना उसकी जिंदगी के लिए अहम है। साल भर पहले मई के इसी महीने में तो वह उनके साथ चौक पर कुल्फी खाने गई थी, लॉज में कपड़े धेने, अपने ही घर में जीत का सेहरा बँधने और मंदिर पर रसोई रचाने...। सोते-जागते बराबर एहसास बना रहा कि मुहब्बत निश्चित तौर पर दैहिक आकर्षण से शुरू होती है। देह प्रत्यक्ष नहीं होती वहाँ भी स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की इमेज से ही प्रेमांकुर फूटते हैं हृदय में।
कन्जेक्शन के कारण ट्रेन इतनी लेट पहुँची कि उन्हें सीधे मीटिंग में पहुँचना पड़ा। थकान और घबराहट दोनों एक साथ! मगर बड़े से प्रोजेक्टर पर जब उनके परियोजना क्षेत्र का नक्शा दिखलाया गया और रौशन बिंदुओं को स्ट्रिक से छू-छूकर नेहा-आकाश के नाम के साथ उल्लिखित किया गया तो दिल में खुशी से दर्द होने लगा...।
लंच के बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। संयोग से उसे ग्रुप लीडर के रूप में बोलने का मौका मिला। तब सेक्रेटरी ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया कि वह चकरा गई। आकाश ने अपनी सीट से हाथ उठाकर बोलने की अनुमति चाही, पर उसने उन्हें वरज दिया और नेहा को चैलेंज करने लगा, 'येस-मैडम! सपोज कि आपको प्रोजेक्ट मिल गया, आपका एचीवमेंट भी सेंट-परसेंट रहा... मगर क्या गारंटी है कि आफ्टर समटाइम, रेट जहाँ का तहाँ नहीं पहुँच जाएगा?'
'नो स-र! इसकी तो कोई गारंटी नहीं है...।' कहते श्वास फूल गया।
पार्टिसिपेटर्स हूट करने लगे।
आकाश का मुँह उतर गया था। मगर अगले ही पल उसने साहस जुटा कर आगे कहा, 'लेकिन-सर! इतिहास गवाह है कि बुद्ध ने अहिंसा का कितना बड़ा तंत्र खड़ा कर दिया था, गांधी ने स्वदेशी का जाल बुन फेंका और आंबेडकर ने मुख्य रूप से जातिगत असमानता से निबटने के लिए ही समाज को ललकारा पर हम देख रहे हैं, सब उल्टा हो रहा है...। सर! मैं कहना चाहती हूँ कि समाज अपनी गति से चलता है सर!'
तो तालियाँ बजने लगीं। और सेक्रेटरी ने कहा, 'साफगोई के लिए शुक्रिया। पर हमें किसी निगेटिव पाइंट ऑफ व्यू से नहीं सोचता है, दोस्तो! ओके। अटेंड टु योर वर्क!'
आते समय उन्हें बताया गया कि कुछेक प्रोजेक्टस पर आज नाइट में ही मंत्रालय की मुहर लग जाएगी। वे लोग आज डेली में ही रुकें। और यह बात सभी जिलों से नहीं कही गई थी। इसलिए उन्होंने कयास लगा लिया कि कम से कम हमें तो हरी झंडी मिल ही गई!'
उत्साह और हर्ष के कारण दम फूल-सा रहा था। उसके रोल से आकाश तक इतने इंप्रेस हुए कि आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। रोके गए प्रतिनिधियों को एक रिप्युटेड गेस्टहाउस में ठहराया गया! वहीं पदाधिकारियों के साथ रात्रिभोज की व्यवस्था थी। फ्रेश होकर वे वीआईपीज की तरह डाइनिंग हॉल में पहुँचे। बैरे तहजीब से पेश आ रहे थे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि उसे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था। कॉन्फिडेंस के साथ, मैच करते ब्लाउज में पहली बार उसने साड़ी पहनी। हाई हील के सेंडिल और कलाइयों में चूड़ियाँ। इंप्लीमेंटेशन को लेकर दिमाग में नए-नए आईडियाज कौंध रहे थे। अब वह समझ सकती थी कि - तनाव मुक्त मस्तिष्क ही बैटर प्लानिंग दे सकता है।'
आकाश ने जोड़ा - अफसरों को इसीलिए सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं, ताकि पीसफुली सोच सकें, बेहतर कर सकें। सर्वहारा के मसीहा लेनिन तक बड़ी ग्लैमरस लाइफ बिताते थे। क्योंकि जनता को आकर्षित करने का यही एक तरीका है। जब तक उसे नहीं लगे कि नेतृत्व अवसर और सुरक्षा दे सकता है, वह साथ नहीं देने वाली।'
इन्ज्वाइमेंट की गरमी में जोड़े चिड़ियों से चहक रहे थे। उनकी आँखों में उड़ान, बदन में बिजलियाँ कौंध रही थीं।
- मतलब, गरिष्ठ भोजन और खुले मनोरंजन से ही शरीर को बल, दिमाग को ऊर्जा मिल सकती है, ना! होटल तभी आबाद हैं।' उसने विनोद किया।
झेंपकर वे मुस्कराने लगे। मौसम खुशगवार हो गया।
 

Mayaviguru

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डाइनिंग हाल से निकल कर वे होटल के पार्क में आकर बैठ गए थे। मैथ्यू सर वहाँ पहले से बैठे हुए थे। नेहा को देख खासा चपल हो उठे। थोड़े से नशे के बाद वे काफी खुल भी गए थे। आकाश से कहने लगे, 'इस लड़की में बहुत ग्रेविटी है... तुम इसकी आर्गनाइजिंग केपेसिटी नहीं जानते... जानते हो, टु अवेल ए चांस!'
और आकाश हर बात पर 'जी' 'जी' कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने असेस किया था, सैंक्शन उन्हीं की रिकमंडेशन पर मिलने जा रही थी। बीच में वे किसी शारीरिक जरूरत के लिए उठ गए तो मैथ्यू सर ने उसका दिमाग चाट लिया!
'पता है, विवाह के समानांतर एक नई व्यवस्था चल पड़ी है, लिव-इन रिलेशनशिप!?'
'जी!'
'अगला प्रोजेक्ट इसी पर लाना है तुम्हें!'
'पर उधर तो अभी शुरुवात नहीं हुई, सर!'
'उसमें क्या, तुम्हीं कर-दो!'
'...'
'बोलो-तो...?' नशे में वे अड़ गए।
पैसठ-छियासठ की उम्र। कलाइयाँ भूरे रोमों से आच्छादित। भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर्ड, योजना आयोग के सदस्य। उनके खिलंदड़ेपन पर वह शर्म से मुस्कराने लगी। पर रूम में आकर यकायक सीरियस हो गई। फैसला याद आने लगा :
'पिटीशनर इज ए मेजर लेडी... इज एट लिबर्टी टु मूव एंड टु लिव अकार्डिंग टु हर विल, सिंस शी हेज द केपेसिटी टु डिसाइड व्हाट इज रोंग एंड व्हाट इज राइट फोर हर वेलफेयर।'
आकाश से कुछ देर पाक-अमेरिका की बातें करने के बाद साड़ी पहने ही बिस्तर पर अधलेटी हो आई, जैसे सजधज कर फिर किसी समारोह में जाना हो!
वे भी सजे-धजे सोफे पर बैठे न्यूज देख रहे थे।
टीवी की आवाज, रातदिन की थकान और भोजन के नशे के कारण उसकी पलकें झुकने लगीं...। कुछ देर तो आँखें ताने स्क्रीन देखती रही, फिर झपक गई और सपना देखने लगी कि - घर में भीड़ भरी है और मेरी उनसे शादी हो रही है!
मम्मी मान नहीं रहीं। मैं रो रही हूँ...।
फिर देखा, कि वे अचानक बहुत छोटे हो गए है...। उससे आधी उम्र के! महज दस-बारह बरस के! तो, मम्मी हँसकर मान गई हैं! पर वह घबराई हुई पड़ोस के घर में जा छुपी है...आकाश ढूँढ़ते फिर रहे हैं!'
झंझावात में नींद टूट गई। टीवी पर न्यूज नहीं, 'लव-यू लव-यू, किस-मी किस-मी' का दौर चल रहा था। और वे सोफे से टिके उसी को ताक रहे थे! स्वप्न और यथार्थ के मेल से घबराई, कपाट से काँख में वस्त्र दबा बाथरूम में चेंज करने चली गई। तब उन्होंने भी परदे के पीछे जाकर कपड़े बदल लिए। मगर संकोचवश फिर से सोफे पर आ बैठे। बिस्तर पर जाने की हिम्मत न हुई। नेहा चेंज करके लौटी तो, वे उसे फूलों-से हल्के श्वेत गाउन में देख ठगे-से रह गए।
कपाट बंद कर वह सोफे के नजदीक से गुजरती मंद मुस्कान के साथ बोली, 'आज सोना नहीं है!'
'नहीं, आज तुम सुंदर लग रही हो!'
'अच्छा...' कहते हँस पड़ी। और वे उसके कंधें पर झूलते गोलाकार शेप के स्याह बालों पर मुग्ध, अभियान का एक गीत गुनगुना उठे, 'सारी दुनिया अपनी है, बस बाँहें फैलाना तुम...'
'कोर्टफीस चुकानी पड़ेगी क्या?' चहक कर पूछा उसने और बत्ती बुझा पहुँच गई बिस्तर में।
इशारा समझ दिल में हूक उठने लगी।
सुबह जब चिड़ियाँ बोल रही थीं, वे पीसफुली सो रहे थे। और वह थकान और जगार से उनींदी बिस्तर में एक अप्रतिम सुख से सराबोर सोच रही थी कि अब शायद वह एक ऐसी स्त्री बन जाय जो उनसे संबंध बनाए रखकर भी अपने परिवार में बनी रहे। अपनी संतान को अपने नाम से चीन्हे जाने के लिए संघर्ष करे। शायद उसे सफलता मिले! परिस्थिति-वश एक सामाजिक क्रांति के बीज उसके मन में उपज रहे थे। और फूल से झड़ते चेहरे में तमाम पौराणिक स्त्रियों के चेहरे आ मिले थे...।
पर दिल्ली से लौटकर उसका अपने घर में रहना मुश्किल हो गया। पिता, भाई, माँ और बहनों को वह बेहया, कुल्टा और बंचक नजर आती थी। एक ऐसी स्वेछाचारिणी स्त्री जो बारिश से बौराई छुद्र नदी की भाँति किनारे तोड़ बह उठी हो। महसूस होता कि उसके तो रंग-ढंग ही बदल गए! अब वह निर्भीक हो जाने-आने लगी थी...। कोई कुछ इसलिए न कहता कि हाईकोर्ट का डंडा था। पुलिस का आदमी यों भी घर और समाज के लिए शेर मगर कोर्ट के लिए गीदड़ होता है। भाई, बहनें और माँ भी शिकंजा कसतीं तो क्या पता कोई बवाल उठ खड़ा होता! वे उस दुराचारिणी को पहले की तरह डिटेंशन में नहीं रख सकते थे। मारपीट से तो बड़ा लफड़ा हो जाता। कहो, केस लग जाता... पंडिज्जी की नौकरी चली जाती।
बेरुखी बरत सकते थे, सो बरतने लगे। कोई उससे बात न करता। न कोई खाने-पीने की पूछता। दीदी की अबोध बालिका कंचन जरूर उसके मुँह आ लगती। पर नजर पड़ते ही वे उसे पीटते हुए घसीट ले जातीं। माहौल इतना कसैला हो गया था कि घर में कदम रखते ही उसका दम घुटने लगता। रात जैसे-तैसे गुजारती, सुबह होते ही भाग खड़ी होती। यों भी स्वीकृति और फंड मिल जाने से काम जोरों पर था। उसके लिए अलग से एक जीप मिल गई थी। वह स्वयं ही अपना टूर प्रोग्राम बनाती और लगातार दौरे कर अभियान को रफ्तार देती जाती...। मगर घर की बेरुखी बर्दाश्त नहीं होती। आकाश से कहती और वे चिंतित हो जाते।
एक दिन उन्होंने पत्नी से कहा, 'सुजाता, तुम कहो तो नेहा को हम यहीं रख लें!'
उसने सोचा, मजाक कर रहे हैं, बोली, 'रख लो, तुम में ताकत हो तो!'
'सो तो है...' वे मुस्कराने लगे। मगर हिम्मत नहीं पड़ी। पत्नी के अलावा बेटा-बेटी भी तो थे। बेटी दसवीं में, बेटा आठवीं में...। आजकल के बच्चे माँ-बाप से ज्यादा होशियार हो गए हैं। पति-पत्नी के झगड़े वाले टीवी सीरियल्स और पत्र-पत्रिकाओं में आएदिन छपने वाले तलाक के वाकयों ने उन्हें सजग कर दिया है। वे सब जान जाएँगे। कैसे स्वीकारेंगे यह सब!' उन्हें तनाव रहने लगा।
हारकर फिर यही रास्ता निकाला कि एक रेजीडेंसियल कार्यालय बनाया जाय...।
महिला समन्वयक के लिए यों भी एक स्वतंत्र कार्यालय की जरूरत थी। वही नेहा का घर भी हो जाएगा! सो, उन्होंने एक पॉश कॉलोनी में ऐसा एक घर किराए पर ले लिया। उद्घाटन पर स्थानीय विधयक और जिला कलेक्टर के साथ क्षेत्रीय महिला कार्यकर्ताओं को भी बुलाया गया। कॉलोनी को जोड़ने वाली मुख्य सडक पर तोरणद्वार और वहाँ से कार्यालय तक सड़क पर रंगत डाली गई। द्वार पर छोटी-बड़ी कई रंगोलियाँ बनाई गईं। महिलाओं का उत्साह उस रोज देखते ही बनता था। नेहा हीरो थी उस आयोजन की। वही संचालिका भी। उसी ने विधायक और कलेक्टर को गुलदस्ते भेंट किए। झनझना देने वाली स्पीच भी। जिसके बाद सभी एक ऐसे जुनून से भर उठे कि परिवर्तन की आँधी को अब कोई रोक नहीं सकेगा।'
गा-बजाकर वह उसी घर में रहने लगी। घर वालों को अब कोई उज्र न था। जैसे, उससे कोई नाता ही न था। नाक कट गई समझो। केस हाईकोर्ट न गया होता तो काटकर नदी में बहा देते। पर अब तो हाथ बँधे थे। उन्होंने आँखें मूँद लीं। और आकाश के लिए यह सरलता हो गई कि वे टूर से लौटकर यहाँ निर्विघ्न ठहर जाते। दो कमरे कार्यालय के लिए और दो रहने के लिए। क्षेत्र की महिला कार्यकर्ता आ जातीं तो वे भी ठहर जातीं। दो किचेन, दो बाथरूम थे। छत पर बरसाती। मेहमान बढ़ जाने पर वहाँ भी फर्श डालकर सोने में भी कोई संकट न था। यों सब कुछ गिरफ्त में था लगभग...। पर उनकी पत्नी मानसिक रूप से बीमार हुई जा रही थी। आकाश को फिर से पाने के लिए वह बाबाओं, तंत्र-मंत्र, मठ-मंदिरों के मकड़जालों में फँसी जा रही थी। खाँद के नीचे सड़क से लगा बूढ़े हनुमान का मंदिर उन दिनों काफी मशहूर हो गया था। सुजाता अपने बेटे हनी के साथ वहाँ दो-तीन बार हो आई थी। वहाँ उस जैसे वक्त के मारों की भीड़ लगी रहती थी।
सुजाता एक अधपकी औरत। जिसकी जवानी चली गई थी मगर बुढ़ापा अभी आया नहीं था। वह तो नितांत एक घरेलू स्त्री रही आई थी। थकान और ऊब के कारण बरसों से जिसने अपने शौहर के कमरे में जाना छोड़ दिया था...। पर इसका मतलब यह होगा, यह तो उसने सोचा भी नहीं था। वह तो समझती रही कि जैसे मैं घर-गृहस्थी में खप कर देह का जादू भूल बैठी, वे भी वकालत के बोझ और आंदोलन की चखचख से थक-हारकर विरक्त हो गए होंगे!
पर यह क्या हुआ?
अचानक पता चला कि उन्होंने दूसरा ब्याह कर लिया...।
उसने धरती-आसमान एक कर दिया। भाई को तार देकर बुला लिया और अदालत जाने की तैयारी कर ली! तब पता चला कि ब्याह नहीं किया। वे तो 'लिव-इन रिलेशनशिप' में रह रहे हैं।
- यह क्या होता है!' वह हतप्रभ थी...।
जानकारों ने बताया कि स्त्री-पुरुष अपनी मरजी से बिना किसी अनुबंध के साथ रहना शुरू कर देते हैं। यद्यपि उनका आपसी संबंध पति-पत्नी सरीखा ही होता है, पर इसमें कानूनी या सामाजिक विवाह जैसा कुछ नहीं होता। स्त्री को अदालत से माँगने पर अधिकार मिले तो मिले... दोनों में से कोई किसी और के साथ जाना चाहे तो कोई दावा नहीं चलता!' पर उसके तईं तो यह भी कम खतरनाक न था। उसके होते वे किसी और के हो जायँ, यह उसके स्त्रीत्व के लिए चुनौती थी!
हायतौबा से आकाश मानने को बाध्य हुए कि उनसे गलती तो हुई है। पर ये बड़ी जरूरी गलती थी। वे फिसले नहीं, बल्कि अपनी भीतरी जरूरत-वश नेहा से जुड़े। उनके लिए इस रिश्ते को नकार पाना अकल्पनीय है...। वे नेहा को साथ लेकर भी पहले की तरह अपने घर में रह सकते हैं। अपने दायित्वों को निभा सकते हैं।'
पर उनकी बेटी श्रेया ने इस प्रस्ताव पर थूक दिया। वह माँ की जगह खुद को देख रही थी। तय यही हुआ कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए।
आकाश-नेहा के लिए यह परीक्षा का वक्त था। बेटी बहक सकती थी। बेटा भटक सकता था। कहाँ वे जमाने भर को भटकने बहकने से बचा रहे थे! एकजुट कर उन्हें उनके अधिकार दिला रहे थे। समाज से अन्याय, शोषण, जहालत, अंधविश्वास मिटा रहे थे। कहाँ उनके बेटा-बेटी ही हक से महरूम हो रहे... पत्नी अंधविश्वास की गुंजुलक में जकड़ने को विवश!
वे अलग रहकर भी सुजाता के घर आते-जाते रहे। यह अलग बात थी कि इस आवाजाही के कारण उनका कोई त्यौहार सुख से नहीं मना। सुजाता की आँखों में अपमान का प्रतिशोध और जुबान पर हक मार लेने की कुंठा का तलछट जमा रहता।
यहाँ आकर हर बार आकाश-नेहा बुरी तरह आहत हो जाते। बेटी, नेहा को हिकारत से देखती। आकाश, बेटे तक से नजर नहीं मिला पाते। जिंदगी अवसाद का घर हो गई थी। इसके बावजूद आकाश-नेहा एक-दूसरे को ऐसे पकड़े थे, जैसे डूबने वाले तिनके को पकड़ लेते हैं!
सुजाता को अब वे ही रातें याद आतीं, जिनमें वह अनिच्छा प्रकट किया करती थी। और वे अवसर जिन पर वह पति के साथ जाना टाल जाती। उनकी पसंद को दरकिनार कर बच्चों की पसंद बन गई सुजाता को अब वे कोमल क्षण भी याद आते जिनमें आकाश की भावुकता और चाहत को बड़े हल्के से ले लेती वह और सहेलियों, डिजाइनों, पकवानों, मर्तबानों में बिजी बनी रहती...।
वह खुद पर खूब खीजती, पर ये बातें किसी को नहीं बताती अब...। उसे अच्छी तरह एहसास हो गया था कि वह पति को भरपेट भोजन नहीं दे पाई। भोजन केवल सेक्स नहीं होता। उसकी अभिरुचि बनना और दोस्त बनना भी होता है, शायद!
यह मौका अब फिर से पाना चाहती थी, वह!
श्रेया भी खूब टैंज रहती।
हनी इन दोनों की बिगड़ती शक्लों, चिड़चिड़ेपन और घर के बिगड़े रूटीन को झेलते-झेलते बड़ा संवेदनशील हो चला था। अपने मन की किसी से कह नहीं पाता। उसे कोई दोस्त चाहिए था, संबल की तरह, वह ज्यादातर घर से गायब रहता।
सुजाता ने हरचंद कोशिश की, बिगड़े घर को बनाने की, पर उसका प्रयास उल्टी दिशा से चालू हो रहा था। उसने बच्चों को सहेजने और दांपत्य की यथास्थिति को स्वीकारने के बजाय अपने बनाव-शृंगार पर ध्यान केंद्रित कर दिया। वह नेहा से ज्यादा जवान और खूबसूरत दिखने के प्रयास में ब्यूटीपार्लरों में जाने लगी। उसने टीवी के सीरियलों पर भी ध्यान केंद्रित किया और भावुक प्रसंगों के सेंटिमेंटल कर देने वाले डायलोग रट लिए।
सजधज कर एक बार वह नेहा के कार्यालय जा पहुँची जहाँ आकाश रहने लगे थे। नेहा थी नहीं, वह फील्ड में गई थी और वे कंप्यूटर पर बैठे डाटा भर रहे थे। सुजाता के आते ही कमरे में खुशबू भर गई। वे उसकी दुल्हन-सी सजधज बड़े कौतुक से देखते रहे। पर कोई आकर्षण न बना। वे उन लोगों में थे ही नहीं जो स्त्री को देखते ही लट्टू हो जाते। उनके तईं मन का मेल अहम था...। मुस्कराए जरूर पर जैसे भिड़े थे, भिड़े रहे। इस बीच सुजाता ने उनके करीब अपनी कुर्सी खींच सटने की नाकाम कोशिश भी की। भावुक प्रसंगों के भावुक कर देने वाले सारे डायलोग भी बोले, मगर वे हँस मुस्करा कर रह गए।
सुजाता इन प्रयासों से भी आकाश को न रिझा सकी तो मोहल्ले-पड़ोस की सलाह पर उसने खाँद वाले बूढ़े हनुमान की तरफ रुख कर लिया...।
और चमत्कार यह कि पहली बार में ही बाबा ने भाँप लिया कि वह एक परित्यक्ता स्त्री है। बाबा का क्लीनशेव्ड गुलाबी मुख, ऊपर को काढ़े गए बेहद काली चमक वाले घुँघराले बाल, काली चमकदार आँखें और बेहद आकर्षक चितवन, केशरिया बाना... कुल मिलाकर इतना सम्मोहक व्यक्तित्व कि वह ठगी-सी रह गई। कुछ कहते न बना।
मुस्करा कर बाबा ने उसे एक काला चमकदार मनिया दे दिया, इस हिदायत के साथ कि - काली नख में डालकर अपनी कमर में बाँध ले!'
हनी साथ में था। बाबा ने उसे देखा तो कुछ देर देखते रहे। फिर संकेत से निकट बुलाकर बैठा लिया। पहले सिर पर, फिर उसके चिकने गालों पर देर तक हाथ फेरते रहे और आँखें मूँद लीं। अस्थान पर जाने से सुजाता को बाबा के अभ्युदय के बारे में विस्तृत जानकारी मिल गई थी...।
 

Mayaviguru

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अस्थान तो नया था, पर मंदिर पुराना था। शहर से कोई आठ-दस किलोमीटर चलने के बाद खाँद उतरते ही दाएँ बाजू बूढ़े हनुमान का एक प्राचीन मंदिर था। जहाँ आकाश के साथ वह बाल-बच्चे होने से पहले दो-चार बार घूम गई थी। हनुमान की इस विराट और चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी मूर्ति को देखकर उसका मन बड़ा आप्त हो आता था। वासना दूर भाग जाती थी। और वह श्रद्धावनत होकर वैराग्य भाव से सराबोर हो उठती थी। यह मूर्ति की ही खासियत थी कि उसका दर्शन दर्शक के चित्त को संसार की असलियत यानी नश्वरता से अवगत करा देता।
वे जब भी मंदिर आते, रोड पर ही एकाध किलोमीटर और आगे तक बढ़ आते। सड़क किनारे ही एक गाँव पड़ता। उसके बाद नदी। और नदी पर रपट। रपट पर पहुँच कर वे नदी की किलकती धर में अपने पाँव डाले रहते। वहीं किनारे पर बैठकर लंच लेते, कपल्स की भाँति पिकनिक का पूरा आनंद उठाते। उन्हें दोस्तों की जरूरत न होती थी उस कालखंड में।
पर वह सब बहते पानी के साथ बह गया है... दूर-दूर तक अब तो उसके अवशेष भी नहीं दिखते। सुजाता के पास अतीत के चित्रों से उपजी निश्वासों के सिवा कुछ नहीं बचा अब तो...। रेत जैसे, मुट्ठी से फिसल गया है! क्या बटोरे, क्या घर ले जाए, वह? वक्त के साथ रपट भी टूट गई है। और सड़क भी। खाँद के ऊपर से ही दूसरी सड़क समानांतर पड़ गई है, जो एक पुल से होकर गुजरती है। नदी नीचे पड़ी रह जाती है।
माँ के इन उठते-गिरते उच्छवासों से बेटा अनभिज्ञ नहीं था। पर उसे अतीत का कुछ भी ज्ञान नहीं था कि कैसे, सड़क ऊपर डल जाने से मंदिर बेचिराग हो गया था...? जब दर्शनार्थी नहीं, भेंट-चढ़ावा नहीं तो ठाकुर टहल और मंदिर की झाड़ा पोंछी कौन करता? सो, मंदिर के आसपास जंगली झाड़ियाँ खड़ी हो गईं। जानवर भी तरस गए बूढ़े हनुमान के दर्शन को। क्योंकि नजदीकी गाँव भी अपनी पूँछ साइड से नई सड़क से जुड़ गया था और गाँव के इस पार आमदरफ्त न रहने से मंदिर जंगल का हिस्सा हो गया।
सुनाई पड़ता कि बूढ़े हनुमान की मूर्ति बड़ी सिद्ध मूर्ति है! यहाँ पहले जमाने में एक बड़े पुराने बाबा रहा करते थे। उनकी दाढ़ी घुटनों तक, भौंहें दाढ़ी में मिल गई थीं। समाधि उपरांत उन्होंने झाँसी मंडल के जतारा नामक कस्बे में पुनर्जन्म लिया और वहीं के एक मंदिर पर ठाकुर टहल करने लगे।
पुण्योदय न होने के कारण जब उन्हें बहुत दिनों तक पूर्वजन्म की स्मृति प्राप्त नहीं हुई तो एक रात बूढ़े हनुमान ने उन्हें सपना दिया। बस, उसी से बाबाजी को सुरति प्राप्त हो गई और वे बस में बैठकर चंबल वेली चले आए। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ उन्हें खाँद वाले हनुमान जी आखिर मिल ही गए...।
बाबा के प्रताप से मंदिर फिर से आबाद हो गया।
आसपास के भक्तों के सहयोग से अखंड रामायण और अखंड कीर्तन आयोजनों से यहाँ आदमी की चहलपहल इतनी बढ़ गई कि तमाम बिसाती आ जुटे जो भक्तों को प्रसाद और गाँव को रोजमर्रा का सामान बेचने लगे।
फिर एक दिन पीएचई का एक ठेकेदार आया। उसके साथ असिस्टेंट इंजीनियर भी। उन्होंने दरस-परस कर बाबा से 'हम लायक कोई सेवा' की बात पूछी तो उन्होंने इशारे में भक्तों को पानी की व्यवस्था करने को कह दिया। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और वचन देकर चले गए। तब पंद्रह दिन के भीतर बोरिंग होकर पंप चालू हो गया। एक बड़ी प्याऊ टंकी भी बन गई।
फिर एक दिन एमएलए आया और पुरानी सड़क की मरम्मत का वचन दे गया।
उन्हीं दिनों बीहड़ समतलीकरण का काम चल रहा था, चंबल वेली में। बाबा के प्रभाव से दो बुल्डोजर मंदिर के आसपास लग गए और दसियों हेक्टेयर जमीन निकाल दी टीले खोद-खादकर। देखते-देखते बड़ा भव्य मैदान निकल आया भरखों में। फिर और भी बड़े-बड़े लोग आने लगे, जिनमें संभाग के मंत्रियों और प्रदेश के मुख्यमंत्री का भी नाम जुडने लगा।
इन सब की मेहर से वहाँ बूढ़े हनुमान के जीर्णोद्धार के साथ-साथ एक भव्य राम-जानकी मंदिर भी अस्तित्व में आ गया। संतनिवास और बड़ी भव्य यज्ञशाला बन गई। हर साल यज्ञ होने लगा। जिसमें इतना बड़ा मेला लगता कि कई प्रायवेट बसें चल पड़तीं खाँद के लिए। दूर दूर के दूकानदार आ जाते। आयोजन समिति नामी भजनगायकों, प्रवचनकारों के साथ एक प्रसिद्ध रामलीला मंडल और रासलीला मंडल को भी आमंत्रित कर लेती। बीघों जमीन में टेंट लग जाते। अस्थायी पाइप लाइन और विद्युत लाइन पड़ जातीं। बड़ा रमणीक स्थल बन जाता गर्मियों के दिनों में वहाँ...।
जहाँ पहले, कभी-कभार खड़िया साधु रहा करते थे, वहीं अब टकसाली साधुओं की जमात अपना स्थायी डेरा जमाए हुए थी जिसे सिद्धांत पटल और ठाकुर टहल रटी पड़ी थी। एक गौशाला भी थी। यानी खूब गौ सेवा होती और खूब साधु सेवा। बाबाजी अस्थान के महंत थे। सदैव गादी पर विराजते, साधुओं से जटाजूट न बनाते न आड़े-तिरछे तिलक खींचते, वे क्लीनशेव्ड रहते, काले चमकदार घुँघराले बाल ऊपर को काढ़ते, करीने की भौंहें और पलकों की बरौनियाँ... लगता, ओठों पर भी कोई प्राकृतिक रंग वाली लाली लगी हो, जबकि अखाड़े के शेष साधु सूर्योदय से पूर्व उठकर नैमेत्तिक कर्म से निवृत्त हो नदी पर स्नान-ध्यान बनाकर सूर्य को जल देते, गुफाओं में घुसकर समाधि लगाते, बाहर निकल कर पंचाग्नि तापते और देह में भस्म मलकर साँझ तक पंगत में बैठकर प्रसाद पाते!
अस्थान पर दंडवत और साधुशाही जयकारों के स्वर भक्तों को बहुत रोमांचित करते। अगर-धूम्र और चंदन की महक से वातावरण बड़ा पावन बना रहता। बाबा का चमत्कारी व्यक्तित्व, मंदिर-मूर्तियों का भव्य रूप और घंटा-ध्वनि मनुष्य के मन-मस्तिष्क को किसी और ही लोक में ले जा पहुँचती। जहाँ राग, द्वेष, संत्रास, घुटन, पीड़ा, अवसाद और कोई अभाव न रह जाता। रोम-रोम पुलकित और भावना इतनी पावन हो जाती कि शरीर का भान न रहता। ओर छोर आनंद बरस उठता। बाबा के दर्शन में साक्षात ईश्वर के दर्शन होते और बाबा की वाणी में साक्षात ईश्वर की वाणी। वे जब बोलते तो सभी अपने कानों के परदे ढीले छोड़ देते :
'ईश्वर एक है। वह मूर्तियों और पूजाघरों में नहीं है। वह मेरे और तुम्हारे भीतर है। तुम उसे किसी साधना, किसी प्रार्थना, किसी तंत्र-मंत्र, पूजा-विधि से नहीं पा सकोगे। वह तो प्रेम से प्रकट होगा...'
शब्द ऐसे गिरते, जैसे अमृत की बूँदें गिरती हों! कान चौकस खड़े होते उन्हें बटोरने के लिए। हवा तक अपनी साँय-साँय खो बैठती। और वे जिसको छू लेते वह तो मिट ही जाता। एक अजीब पुलक से भरकर भावविभोर हो जाता।
हनी को बाबा के पास बैठना बड़ा सुखद लगता। वह बाबाजी से जब भी अपने पापा को मिलाने बैठता, बाबा के प्रति श्रद्धा से और पिता के प्रति घृणा से भर उठता।
संयोग से जिन दिनों बाबाजी की ख्याति फैल रही थी, उन्हें देवत्व प्राप्त हो रहा था, उन्हीं दिनों में पापा शहर भर में, रिश्तेदारियों में और आसपास के समाज में कामी पशु घोषित हो रहे थे।
उसे अपने पिता और साधुबाबा की उम्र में ज्यादा फर्क भी नहीं दिखता। वह जहाँ भी जाता और परिचय होता - यह आकाश का बेटा है, वहीं, निगाहें उसे भेद उठतीं। उन नजरों में दया, जिज्ञासा, कुतूहल, आश्चर्य और एक मजाक-सा होता। वे जगह जगह उसका उपहास उड़ातीं। उसका पीछा कर उसे निरंतर हेय बनाए उससे चिपकी रहतीं।
श्रेया से उसकी सहेलियाँ पूछतीं, 'आखिर तुम्हारी माँ में ऐसी क्या कमी थी...?' घर आकर वह फूट-फूट कर रोने लगती। माँ की दुर्दशा के लिए नहीं, अपनी इमेज के लिए। उसे नेहा से भारी जलन होती। इस पचड़े में सबकुछ इतना अस्त-व्यस्त हो गया कि उसकी तो खैर, डिवीजन ही बिगड़ी, हनी तो आठवीं में फेल हो गया! वैसे भी उसका मन पढ़ाई में जरा कम ही लगता था। आकाश घेर घार कर बिठाते तब वह होमवर्क कर पाता। अब उनके घर में न रहने से उसने बस्ता जैसे बाँधकर रख दिया था...। स्कूल और दोस्त, दोस्त और स्कूल। घर में सिर्फ खाने-पीने, सोने के लिए आता।
सुजाता अपनी पारिवारिक विभीषिका का हल बाबा की कृपा में खोजने को मजबूर थी। बाबा का दिया हुआ जंत्र अपनी कमर में बाँधकर उसने सोचा कि आकाश पर अपना वशीकरण मंत्र चला लेगी! हनी से उसने फोन कराया कि - मम्मी की तबीयत बहुत खराब है, आज आप घर चले आओ!'
नेहा ने सुना तो उन्हें तत्काल भेज दिया।
आकाश आए तब वह बिस्तर में लेटी थी। लेटी रही...। चेहरा आँसुओं से तर था। वे बैठ गए। देह गर्म थी उसकी। पूछा :
'किसी को दिखाया?'
- नहीं...' उसने सुबक कर न में गर्दन हिला दी।
'चलो, दिखा लाएँ!' उन्होंने हाथ पकड़ उठाया। पर वह उठी नहीं। हाथ खींच अपने सीने पर रखवा लिया और सिसकने लगी। आकाश बैठे रहे ओर वह रोती रही। उसकी इच्छा थी कि वे लेट जायँ। जैसे, भरोसा था कि साथ सो लिए एक भी रात0 तो बँध जाएँगे। उन दिनों में वह बाबा द्वारा दी गई एक चौपाई का भी जाप कर रही थी : 'गई बहोरि गरीब निबाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।'
बाबा ने कहा था : 'वे सरलता की खान दीनबंधु खोई हुई वस्तु को भी वापस दिलाने में समर्थ हैं!'
सुजाता नियम से पूजा-पाठ करने लगी थी।
श्रेया को चिढ़ छूटती। पर हनी कभी-कभी नहा-धेकर उसके साथ बैठ जाता। घी का दीपक जलाकर दोनों जाप करते और ध्यान भी। रोज कल्पना में गई वस्तु वापस आ जाती। पर हकीकत कुछ और थी। आकाश गोया, पत्नीव्रता हो गए थे। पत्नी अब सुजाता नहीं, नेहा थी। सच पूछा जाए तो यह सब मन का ही खेल था...। देह तो कितनी भी धोओ, चमकाओ मैल की खान थी। मैल उससे लगातार सृजित होता। चाहे बढ़िया से बढ़िया मिठाई खाओ, चाहे सुगंधित पेय पियो। अंततः बदलना सब को मैल में ही होता! पर मन-शुद्धि के फेर में ही तो मनुष्य बँधा है!
थोड़ी देर बाद उठकर वे श्रेया के पास चले गए, जिसकी आँखों में हिकारत थी। वह कल की लड़की उन्हें भाभी, चाची की तरह सुजाता के कमरे में धकेल रही थी! तब वे हनी के पास चले गए, जो पढ़ाई की जगह पाँव पसारे, टेढ़ी गर्दन किए खर्राटे भर रहा था...। आकाश उसी के साथ लेट गए और लेटे-लेटे सो गए। सुबह आँख खुली तो उठकर काम पर निकल गए।
बाबा का दिया हुआ जंत्र-मंत्र नाकामयाब हो रहा। आकाश की आँखों में अब उसके लिए दया और सहानुभूति थी। अपनापन था। पर समर्पण का वह भाव न था जो पति-पत्नी के बीच होता है... जो अब नेहा और उनके बीच था। इसके बावजूद वे पहले की तरह अब भी हनी, श्रेया और सुजाता को भरपूर चाहते थे। अलग रहने से उनकी चाहत और भी बढ़ गई थी...।
लेकिन सुजाता को खालिस आकाश चाहिए थे, मिक्स नहीं! यह उसके अहंकार का सवाल था। अहंकार ही तो मैं मेरा, तू तेरा का बोध कराता है! इसे खोकर तो मनुष्य का अस्तित्व ही विलीन हो जाएगा! वह देवों के भी देव और साक्षात ईश्वर के अवतार खाँद वाले बाबाजी की शरण में एक बार फिर जा पहुँची। साथ में उसका बेटा हनी भी। जिसे देखकर बाबाजी की आँखों की चमक बढ़ गई। वे उसे नख से शिख तक अपलक निहारते रहे और फिर आँखें मूँद कर ध्यान-मग्न हो गए। कुछ देर बाद ध्यानावस्था से निकल कर सुजाता से बोले, 'देवि! यह बालक स्वयं तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट लौटा सकेगा। किंतु इसके लिए इसे हमारे सानिंध्य में आश्रम पर रहकर अपनी अंतर्निहित परमशक्ति को जगाना होगा...'
सुजाता के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती थी! उपस्थित जन समुदाय ने हनी को ईर्ष्यालु नजरों से देखा और हीन भावना से भरकर सुजाता के भाग्य को सराह उठा। महाराज जी की चट्टियों पर माथा नवाकर वह घर लौट आई। माँ से बिछुड़ते वक्त हनी की आँखों में न विरह-भाव आया न भय का कोई अंश। वह तो पवित्र धम में, देवाधिदेव के सानिंध्य में अपने किसी पूर्वजन्म के पुण्य-प्रताप से ही आया होगा!' उसने सोचा...।
माँ के साथ आश्रम आते-आते वह भी भाग्य, पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, कर्मफल, पुण्य-पाप आदि की थ्योरी सीख गया था। आज उसे इस बात पर भी यकीन हो गया था कि ईश्वर जो भी करता है - सदैव अच्छा ही करता है, तत्समय वह भले बुरा लगे! पापा का वह कदम कितना बुरा लगा था उसे। पर आज उसकी अच्छाई समझ में आ रही है...। यदि वे ऐसा न करते तो आज उसे यह अवसर कैसे मिलता!
साँझ हो गई थी। उसे बाबा के ध्यान-स्थल पर पहुँचा दिया गया था।
यहाँ सेवक भी कदम नहीं धर सकते। कोई विरला ही भाग्यशाली जिस पर देव खुद रीझ जाएँ, इस साधना कक्ष में आ पाता...। थोड़ी देर पहले किए गए सुस्वादु भोजन की डकार आने से हनी को फनः उसकी स्मृति हो आई। सेवक ने बताया था कि पंगत में यह प्रसाद नहीं बँटता। इसे तो महाराज जी के लिए उनका निजी रसोइया पकाता है। सचमुच उस भोजन की महक हनी की उँगलियों में अब तक जस की तस मौजूद थी।
कक्ष में आकर वह देर तक खड़ा रहा। कक्ष की भव्यता देखते ही बनती थी। क्या आज सदेह क्षीरसागर में उतर आया है, वह!' विस्मृत-सा हनी कुछ देर बाद एक नर्म बिस्तर पर बैठ गया। कक्ष मानों वातानुकूलित था। उसे स्वर्ग का सा आभास हो उठा। इन्हीं ख्यालों में लिपटा आनंदातिरेक में वह कब सो गया, उसे खुद भी पता नहीं चला।
नित्य संझा आरती के बाद अंतिम दर्शन उपरांत बाबाजी अपना सुदर्शन स्वरूप बिखेरते उस साधना बनाम शयन कक्ष में आ विराजे, जहाँ हनी बेखबर सोया पड़ा था। सेवक चरण-वंदन कर सीढियों के ऊपर से ही लौट गए थे।
नर्म बिस्तर पर मासूम हनी निर्विघ्न सो रहा था। और स्वप्न में स्वर्गलोक में भक्त प्रहलाद और ध्रुव की भाँति ईश्वर की गोद में बैठकर परमशांति को उपलब्ध हो रहा था। इधर ईश्वर वेषधरी बाबा को दिखने में वह अपनी माँ जैसा भरे-भरे शरीर वाला दिखा। उसके फूले-फूले गाल, सुर्ख ओठ, भारी-भारी कूल्हे और हाफ पेंट से निकली मोटी-मोटी टाँगें वे देर तक निरखते ही रह गए।
फिर अपना दुशाला उतारकर वे बिस्तर पर ऐसे नमूदार हुए, जैसे घटाटोप बादल को फाड़कर यकायक सूरज दमक उठा हो...। आँखें सिकोड़ कर वे देर तक हनी के फूले-फूले गालों को देखते रहे, फिर उन्हें झुक कर चूस उठे! दाँतों से ऐसे खुरच कर चूस उठे जैसे वे हनी के गाल चित्ती पड़े हुए पके अमरूद हों!
उस वक्त उनकी कामुक आँखों में क्षितिज के इस छोर से उस छोर तक एक सुदीर्घ इंद्रधनुष लहरा रहा था।
इस आघात से हनी का सपना छिन्न-भिन्न हो गया। ध्रुव-प्रहलाद और ईश्वर अलग थलग जा पड़े। विस्फारित नेत्रों से उसने अर्धनग्न दशा को प्राप्त देवाधिदेव को देखा और भय से सफैद पड़ गया।
जैसे, खून सूख गया।
फिर कुछ दिनों बाद वह नदी में डूब कर मर गया।
बाबा ने सुजाता को बताया :
'वह आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गया था। जलसमाधि ले ली उसने। जीवात्मा का प्रारब्ध उसके साथ जुड़ा होता है, देवि! तुम व्यर्थ में शोक न करना!'
मगर वह बुक्का फाड़कर रोने लगी...।
रोते-रोते ही कमर में बँधा बाबा का दिया काला मनिया उसने वहीं तोड़ कर फेंक दिया।
शाम तक बेहाल सुजाता को उसके घर पहुँचवा दिया गया।
श्रेया ने रोते हुए पापा को फोन पर बताया सारा किस्सा...। वे दौडकर तुरंत आ गए। नेहा उस वक्त क्षेत्र में थी। खबर मिली तो रात तक वह भी आ गई। रात में किसी ने खाना नहीं खाया। रात भर कोई सोया भी नहीं। रह रहकर सीने में हूक उठती रही। सुजाता सन्निपातिक-सी नेहा की गोद में पड़ी रही और श्रेया पापा की गोद में। आकाश और नेहा ने उसी रात संकल्प ले लिया था कि उस यमदूत को छोड़ेंगे नहीं।'
सुबह वे उठकर जाने लगे तो सुजाता ने नेहा का हाथ पकड़ भर्राए स्वर में कहा, 'यहीं रह जाओ... तुम्हारा बाबाथी
।पाल लेंगे हम!'
आकाश लज्जित हो गए। नेहा गर्भवती थी।

The end
 

Jitu kumar

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Nevil singh

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....
मि. के एम शुक्ला यानी पंडित किसन मुरारी सुकुल बचपन से ही अपने पूजापाठ के कारण गाँव में पंडिज्जी कहे जाने लगे थे। जनेऊ धारण करना, लंबी चोटी रखना और उसमें गाँठ देना उनकी प्रकृति में शामिल हो गया था। पढ़ने में कुछ ज्यादा तेज न थे फिर भी हाईस्कूल क्रॉस कर गए और अच्छी कदकाठी के चलते पुलिस में आरक्षक के पद पर भरती हो गए। वहाँ ट्रेनिंग में उनके बाल जरूर छोटे हो गए, उसी अनुपात में चोटी भी, किंतु उसकी गाँठ बरकरार रही। जनेऊ न छूटा। वाइन बाइन तो नहीं, अलबत्ता, कभी कभार सफेद आलू जरूर खाने लगे। इस तरह धीरे धीरे पूरे पुलिसिया ज्वान हो गए पंडिज्जी!
कान्यकुब्जों में तब जरा लड़कों का सूचकांक लो था। चार-छह भाइयों में किसी एकाध की ही भाँवर पड़ती, सो बेचारे किशन मुरारी की भी कड़ी उम्र में ही बड़े जोड़तोड़ से शादी हो पाई। पुलिस के मुलाजिम होने के नाते उन्हें इसकी दरकार भी कम थी, गोया! ड्यूटी के पाबंद रहते। आठ आठ महीने हैडक्वार्टर से गाँव न लौटते! पर इस सबके चलते भी कोई पच्चीस-तीस बरस में उनकी तीन बेटियाँ और दो बेटे पलपुस कर जवान जहान हो गए। इस बीच मि. के एम शुक्ला आरक्षक से न सिर्फ एएसआई हो गए, बल्कि उन्होंने एक मझोले शहर की सस्ती सी कॉलोनी में एक अदद मकान भी कर लिया था, जहाँ उनकी संतानें पढ़-लिखकर अपने पैर जमाने लगी थीं।
अब यह कहानी पंडिज्जी की मँझली बेटी नेहा शुक्ला पर केंद्रित होना चाहती है, जो एक पढ़ी लिखी और बा-रोजगार लड़की है। अपने माँ-बाप की तीसरी संतान है। जिसकी बड़ी बहन विवाहित और एक बच्ची की माँ है। जिसका बड़ा भाई दुर्घटना का शिकार हो गया। छोटा अविवाहित और दस्तकार है। सबसे छोटी बहन महज छात्र।
mohak update.
 

Nevil singh

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भारतीय जाति व्यवस्था में जिन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण होने का दर्जा जन्म से प्राप्त है, वह उसी कुल की एक अभिशप्त लड़की है जो जातियों से सदा चिढ़ती रहती है। उसे अपने लड़की होने का भी खासा क्षोभ है। वह पाजेब को बेड़ी और चूड़ी को हथकड़ी समझती है। जिसने कभी अपनी नाक में लोंग नहीं पहनी और साड़ी से कोफ्त होती है जिसे। विवाह वह करेगी नहीं, ऐसा होश सँभालने से ही तय कर रखा है उसने। गोया, उसकी धारणा है कि कोई भी पुरुष उसे वेश्या और गुलाम बनाकर ही रखेगा। अपनी माँ-बहन और अन्य स्त्रियों के अनुभव से तो यही जाना है अब तक। इसीलिए, उसकी यह धारणा दिन-बदिन मजबूत होती चली गई है। लेकिन इसके बावजूद उसे एक अच्छे पुरुष का निरंतर साथ चाहिए जो कि परिपक्व, समानताप्रिय और सुलझा हुआ हो। और भाग्य से ऐसा साथ उसे मिल भी गया है। वह पुरुष विवाहित है, इस बात की कभी परवाह नहीं की उसने। किसी पर अपना एकाधिकार नहीं चाहती, इसी से यह साथ मुतबातिर पिछले तीन साल से निभा पा रही है वह।
अब पंडिज्जी और पुलिस मैन! यानी करेला और नीम चढ़ा! उन्हें लड़की का ये सब चाल-चलन, बर्दाश्त इस जनम में तो हो नहीं सकता। अगर वे पहले जान जाते तो वह पेड़ ही नहीं जमने देते, जिस पर कि उल्लू आ बैठा है! और उन्हें तो उन्हें, स्त्रियों के मामले में आनुवांशिक रूप से उनके मध्ययुगीन छोटे पुत्र को भी बहन की ये हरकत नाकाबिले बर्दाश्त थी।
इसी मारे पंडिज्जी ने अपनी बड़ी बेटी के हाथ तो एमए करते ही पीले कर दिए थे। भले वह रोई-गिड़गिड़ाई, 'अभी हम शादी नहीं करेंगे। अभी तो पीएचडी करनी है। हम यूनिवर्सिटी गोल्डमेडलिस्ट हैं। प्रोफेसर बन जाएँगे...' लेकिन मम्मी को बहुत फिक्र थी उसकी चढ़ती उम्र की। थानेदार साहब उर्फ पंडिज्जी यानी उनके पति मि. के एम शुक्ला जब कभी उन्हें नौकरी पर साथ ले जाते तो ड्यूटी जाते वक्त क्वार्टर पर बाहर से ताला डाल जाते थे। तभी से उन्होंने यह सीख लिया था कि चढ़ती उम्र की औरतों का पुरुष के ताले में रहना कितना जरूरी है! यही उम्र तो मतवाली होती है। काम-वासना की पूर्ति के लिए इसने कोई गलत कदम उठा लिया! चिह्नित और जन्म से बीस विश्वा कान्यकुब्ज कुल के खून से उत्पन्न पुरुष के बजाय किसी और के संग सो गई तो नाक कट जाएगी। इसलिए, माँ-बाप और घर-परिवार ने मिल-जुलकर, गा-बजाकर उसे गाय की तरह एक खूँटे से खोलकर अपनी देखरेख में दूसरे खूँटे पर बँधवा दिया। पर तीन-चार साल बाद वही लड़की जब वेदविहित कर्म द्वारा एक संतान की माँ बनकर लौट आई; तंग रहती थी वहाँ, नौकरी चाहती थी यहाँ। तंग खाने-पीने को नहीं, पुरुष के साथ सोने और सम्मान को नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता के जज्बे को? तो उसी पिता ने और माँ ने उसे अपने यहाँ खुशी से रख लिया कि अब करो पीएचडी, डीलिट्, नौकरी... कुछ भी। क्योंकि अब तुम्हारा कौमार्य मिट गया। अब कोई खतरा नहीं है। किंतु मँझली, यानी नेहा को लेकर वे ऐसा गच्चा खाए हैं कि उसके हुए; जन्म लेने की कष्टदायी घटना तक की यादें आ रही हैं। अब स्नान के बाद स्त्रोत जाप करते करते अनायास चोटी में गाँठ लगाते उनके बरसों के अभ्यासी हाथ काँप जाते हैं...।
रात वह लेट लौटी थी। माँ ने दरवाजा जरूर खोला, पर कोई बात नहीं की। सुबह आँख खुली तो छोटी की हालत बद्तर! कुछ दिनों से उसके पेट में अपेंडिसाइटिस का जानलेवा दर्द होने लगा था। आखिर उसने माँ के फूले हुए चेहरे को नजरअंदाज कर धीरे से कहा, 'रिक्शा ले आती हूँ।'
सुनकर माँ ने कौड़ी-सी आँखें निकालीं, बोली कुछ नहीं। वह सिर खुजला कर रह गई।
वातावरण निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर कलाजत्थे बना दिए गए थे। जिन्हें नाटक और गीत सिखाने के लिए मुख्यालय पर एक प्रशिक्षण शिविर लगाया गया। प्रशिक्षु उसे दीदी कहते और आकाश को सर। वे लोग रिहर्सल में पहुँच जाते तो वे फैज और सफदर के गीत गाने लगते। ऐसे मौकों पर दोनों भावुक हो उठते, क्योंकि दिल से जुड़े थे अभियान से।
जब प्रत्येक टीम के पास प्रशिक्षित कलाकार हो गए तो उन्हें उनका स्थानीय कार्यक्षेत्र दे दिया गया। यानी हरेक टीम को अपने सर्किल के आठ-दस गाँवों में नुक्कड़ नाटक व गीतों का प्रदर्शन करना था। कलाजत्थों, कार्यकर्ताओं व ग्रामसमाज के उत्साहबर्धन के लिए उन्हें प्रतिदिन कम से कम पाँच-छह गाँवों का दौरा करना पड़ता।
sunder update
 

Nevil singh

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और एक ऐसे ही प्रदर्शन के दौरान जिसे देखते-सुनते वे दोनों ही भाव विभोर हो गए थे। नेहा आकाश के कंधे से टिक गई थी और वे रोमांचित से उसी को देख रहे थे, किसी फोटोग्राफर ने वह पाज ले लिया! और वह चित्र उसे एक खबर प्रतीत हुआ, जो उसने एक स्थानीय अखबार में छपा भी दिया... जबकि उस क्षण वे लोग अपने आप से बेखबर, लक्ष्य को लेकर अति संवेदित थे!
बाद में उस अखबार की कतरन एक दिन आकाश ने नेहा को दिखलाई तो वह तपाक से कह बैठी, 'यह तो मृत है, जिसे देखना हो, हमें जीवंत देखे!'
वे हतप्रभ रह गए।
पापा ने भी वह चित्र कहीं देख लिया होगा! वे कॉलोनी को जोड़ने वाली फलिया पर बैठे मिले। माँ दरवाजे पर खड़ी। भीतर घुसते ही दोनों की ओर से भयानक शब्द-प्रताड़ना शुरू हो गई। वही एक धैंस, 'कल से निकली तो पैर काट लेंगे! बाँध कर डाल देंगे! नहीं तो काला मुँह कर देंगे कहीं! यानी हाँक देंगे जल्दी सल्दी किसी स्वजातीय के संग जो भले तुझसे अयोग्य, निठल्ला, काना-कुबड़ा हो!'
और उसी क्षण जरा-सी जुबानदराजी हो गई तो पापा यानी पुलिस यानी शुक्ला ने क्रोध में रंडी तक कह दिया!
छोटी की तड़प और तेज हो गई तो, उसने तैयार होकर उसे अकेले दम ले जाने का फैसला कर लिया।
पीछे से माँ ने अचानक गरज कर कहा, 'केस बड़े अस्पताल के लिए रैफर हो गया है!'
वह निशस्त्र हो गई। अचानक आँखों में बेबसी के आँसू उमड़ आए।
'पापा?' उसने मुश्किल से पूछा।
'गए, उनके तो प्राण हमेशा खिंचते ही रहते हैं,' वह बड़बड़ाने लगी, 'हमारी तो सात पुश्तों में कोई इस नौकरी में गया नहीं। जब देखो ड्यूटी! होली-दीवाली, ईद-ताजिया पर भी चैन नहीं... कहीं मंत्री संत्री आ रहे हैं, कहीं डकैत खून पी रहे हैं!'
वह पहले ऐसी नहीं थी। न पापा इतने गुस्सैल! भाई मोटर-एक्सीडेंट में नहीं रहे, तब से घर का संतुलन बिगड़ गया। फिर दूसरी गाज गिरी पापा के सस्पेंड होकर लाइन अटैच हो जाने से...।
पुलिस की छवि जरूर खराब है। पर पुलिस की मुसीबतें भी कम नहीं हैं। एक अपराधी हिरासत में मर गया था। ऐसा कई बार हो जाता है। यह बहुत अनहोनी बात नहीं है। कई बार स्वयं और कई बार सच उगलवाने के चक्कर में ये मौतें हो जाती हैं। राजनीति, समाज और अपराधियों के न जाने कितने दबाव झेलने पड़ते हैं पुलिसियों को। पापा पागल होने से बचे हैं, उसके लिए यही बहुत है। बेटे की मौत का गम और दो कुआँरी बेटियों के कारण असुरक्षा तथा आर्थिक दबाव झेलते वे लगातार नौकरी कर रहे हैं, यह कम चमत्कार नहीं है। कई पुलिसकर्मी अपनी सर्विस रिवॉल्वर से सहकर्मियों या घर के ही लोगों का खात्मा करते देखे गए हैं। माँ तो इसी चिंता में आधी पागल है! नेहा की समाजसेवा सुहाती नहीं किसी को।
और वह सुन्न पड़ गई। आकाश रोजाना की तरह लेने आ गए थे!
क्षेत्र में ट्रेनिंग का काम शुरू हो गया था। वे दोनों ही की-पर्सन थे। मास्टर ट्रेनर्स प्रशिक्षण हेतु जो सेंटर बनाए गए थे उन पर मिलजुल कर प्रशिक्षण देना था। वे रोज सुबह आठ बजे ही घर से लेने आ जाते।
'क्या हुआ?' उन्होंने गर्दन झुकाए-झुकाए पूछा।
'सर्जन ने केस रीजनल हॉस्पिटल के लिए रैफर कर दिया है...' आवाज बैठ रही थी।
'पापा?' उन्होंने माँ से पूछा।
माँ ने मुँह फेर लिया।
वे एक ऐसी सामाजिक परियोजना पर काम कर रहे थे, जिसे अभी कोई फंड और स्वीकृति भी नहीं मिली थी। मगर प्रतिबद्ध थे, क्योंकि परिवर्तन चाहते थे। क्षेत्र में उन्होंने सैकड़ों कार्यकर्ता जुटाए और साधन निहायत निजी। सभी कुछ खुद के हाथपाँव से। जिसके पास साइकिल-बाइक थी वह उससे, आकाश ने एक पुरानी जीप किराए पर ले रखी थी। शहर से देहात तलक सब लोग मिलजुल कर परिवार की तरह काम कर रहे थे। उन्होंने सभी को गहरी आत्मीयता से जोड़ रखा था। नेहा की माँ अक्सर उनका विरोध किया करती थी। परीक्षा से पहले नेहा एक युवा समूह का नेतृत्व अपने हाथ में लेकर बिलासपुर चली गई थी, उसे वह मंजूर था। उसके जम्मू-कश्मीर विजिट पर भी माँ ने कोई आपत्ति नहीं जताई! पर आकाश के संग गाँवों में फिरने, रात-बिरात लौटने से उसे चिढ़ थी...।
वह प्रार्थना कर उठी कि वे यहाँ से चुपचाप चले जायँ। मगर उन्होंने परिस्थिति भाँपकर साथ चलने का निर्णय ले लिया!
माँ यकायक ऋणी हो गई।
नेहा खुश थी। बहुत खुश।
जरूरत का छोटा मोटा सामान जीप में डालकर, बैग में जाँच के परचे रख वह तैयार हो गई। उन्होंने माँ को आगे बैठाया, बहन उसकी गोद में लिटा दी। ड्रायवर से बोले, 'गाड़ी सँभाल कर चलाना।' दरवाजे पर ताला लगाकर वह उड़ती-सी पीछे बैठ गई। जीप स्टार्ट हुई तो वे भी बगल में आ बैठे। शहर निकलते ही कंधे पर हाथ रख लिया, जैसे सांत्वना दे रहे हों!
उनके सहयोग पर दिल भर आया था। जबकि, शुरू में उनके साथ जाना नहीं चाहती थी। जीप लेने आती और वह घर पर होते हुए मना करवा देती। क्योंकि शुरू से ही उसका उनसे कुछ ऐसा बायाँ चंद्रमा था कि एक दिशा के बावजूद वे समानांतर पटरियों पर दौड़ रहे थे...।
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Nevil singh

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तकरीबन तीन साल पहले आकाश जब एक प्रशिक्षण कैंप कर रहे थे, वह अपने कोरग्रुप के साथ फाइल में छुपा कर उनका कार्टून बनाया करती थी। उनकी बकरा दाढ़ी और रूखा-सा चेहरा माइक पर देखते ही बोर होने लगती। और उसके बाद उसने एक कैंप किया और उसमें आकाश और उनके साथियों ने व्यवधन डाला... न सिर्फ प्रयोग बल्कि विचार को ही नकार दिया! तब तो उनसे पक्की दुश्मनी ही ठन गई। जल्द ही बदला लेने का सुयोग भी मिल गया उसे! एक संभागीय उत्सव में प्रदर्शन के लिए आकाश को उसकी टीम का सहारा लेना पड़ा था। और वह कान दबाए चुपचाप चली तो गई उनके साथ पर एक छोटे से बहाने को लेकर ऐंठ गई और बगैर प्रदर्शन टीम वापस लिए अपने शहर चली आई! वे वहीं अकेले और असहाय अपना सिर धुनते रह गए थे।
फिर अली सर ने कहा, 'नेहा, सुना है तुम आकाश को सहयोग नहीं दे रही? यह कोई अच्छी बात नहीं है!'
वे उसके जम्मू-कश्मीर विजिट के गाइड, नजर झुक गई। उनके निर्देशन में रजौरी तक कैंप किया था। वह उनका सम्मान करती थी। मगर उन्होंने दो-चार दिन बाद फिर जोर डाला तो उसने उन्हें भी टका-सा जवाब दे डाला, 'माफ कीजिए, सर! मैं खुद से अयोग्य व्यक्ति के नीचे काम नहीं कर सकती!'
यहीं मात खा गई, वे बोले, 'तुम जाओ तो सही, धारणा बदल जाएगी,' उन्होंने विश्वास दिलाया, 'नीचे-ऊपर की तो कोई बात ही नहीं... यह तो एनजीओ है - स्वयंसेवी संगठन! सभी समान हैं। कोई लालफीताशाही नहीं।'
नेहा अखबारों में उनकी प्रगति-रिपोर्ट पढ़ती... और सहमत होती जाती। और आखिर, उस संस्था में तो थी ही, समिति ने उसे उनके यहाँ डैप्यूट भी कर रखा था! परीक्षा के बाद खाली भी हो गई थी। सिलाई-कढ़ाई सीखना नहीं थी, ना-ब्यूटीशियन कोर्स और भवन सज्जा! फिर करती क्या? उन्हीं के साथ हो ली।
उन दिनों वे उसे आगे बिठा देते और खुद पीछे बैठ जाते। सिगरेट पीते। उसे स्मैल आती। पर सह लेती। पिता घर में होते तब हरदम धुआँ भरा रहता। नाक पर चुन्नी और कभी-कभी सिर्फ दो उँगलियाँ टिकाए अपने काम में जुटी रहती। हालाँकि बचपन में उसने भाई के साथ बीड़ी चखी, तंबाकू चखी, चौक-बत्ती खाई... पर उन चीजों से अब घिन छूटने लगी थी। तीन-चार दिन में आकाश ने उसे नाक मूँदे देख लिया। उसी दिन से जीप में सिगरेट बंद। वे दूसरे कार्यकर्ताओं को भी धूम्रपान नहीं करने देते। वे वाकई अच्छे साबित हो रहे थे।
उन दिनों वह एक वित्त विकास निगम के लिए भी काम करती थी। आकाश दाएँ बाएँ होते तब कार्यकर्ताओं को अपनी प्लांटेशन वाली योजनाएँ समझाती। धीरे धीरे तमाम स्वयंसेवकों को निगम का सदस्य बना लिया। पर एक बार जब एक मीटिंग के दौरान प्रोजेक्ट पर बात करते करते निगम का आर्थिक जाल फैलाने लगी तो वे एकदम भड़क उठे। कुरसी से उठकर जैसे दहाड़ उठे, 'नेहा-जीऽ! सुनिए, सुनिएऽ! ये एजेंटी जुआ, लॉटरी यहाँ मत चलाइए। ये लोग एक स्वयंसेवी संगठन के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं! इन्हें मिसगाइड मत करिए! यहाँ सिर्फ प्रोजेक्ट चलेगा, समझीं आपऽ?'
- समझ गई!' उसने मुँह फेर लिया।
- कल से बुलाना!' अपमान के कारण चेहरा गुस्से से जल उठा।
उठकर एकदम भाग जाना चाहती थी, पर वह भी नहीं कर पाई। रात में ठीक से नींद नहीं आई। बारबार वही हमला याद हो आता! पर दो दिन बाद एक किताब पढ़ी, 'यह हमारी असमान दुनिया' तो सारा अपमान, सारा गुस्सा तिरोहित हो गया। वह फिर से पहुँच गई उसी खेमे में। और गाँव गाँव जाकर पुरुष कार्यकर्ताओं की मदद से महिला संगठन बनाने लगी। उसे अच्छा लगने लगा। वित्त विकास निगम की एजेंटी एक सहेली को दान कर दी। जैसे लक्ष्य निर्धरित हो गया था और उपस्थिति दर्ज हो रही थी, 'समाज में स्त्री की मौलिक भूमिका।'
जीप इंडस्ट्रियल ऐरिया के मध्य से गुजर रही थी। हॉस्पिटल अब ज्यादा दूर न था। लेकिन छोटी दर्द के कारण ऐंठ रही थी। माँ घबराने लगी। आकाश ने ड्रायवर से कहा, 'गाड़ी और खींचो जरा!' नेहा खामोश नजरों से उन्हें ताकने लगी, क्योंकि चेसिस बज रही थी। गाड़ी गर्म होकर कभी भी नठ सकती थी।
- कुछ नहीं होगा!' उन्होंने चेहरे की भंगिमा से आश्वस्त किया तो, पलकें झुका लीं उसने।
वापसी में अक्सर लेट हो जाते। तब भी गाड़ी इसी कदर भगाई जाती। गर्म होकर कभी कभी ठप पड़ जाती। सारी जल्दी धरी रह जाती! उसे लगातार वही डर सता रहा था। मगर इस बार जीप ने धोखा नहीं दिया। बहन को कैज्युअलिटी में एडमिट करा कर सारे टेस्ट जल्दी जल्दी करा लिए। दिन भर इतनी भागदौड़ रही कि ठीक से पानी पीने की भी फुरसत नहीं मिल पाई। रात आठ-नौ बजे जूनियर डॉक्टर्स की टीम पुनर्परीक्षण कर ले गई और अगले दिन ऑपरेशन सुनिश्चित हो गया तो थोड़ी राहत मिली।
वे बोले, 'चलो, जरा घूमकर आते हैं।'
उसने माँ से पूछा, 'कोई जरूरत की चीज तो नहीं लानी?'
उसने 'ना' में गर्दन हिला दी। माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं। किंतु उसकी परेशानी को नजरअंदाज कर वह आकाश के साथ चली गई।
चौक पर पहुँचकर उन्होंने पावभाजी और डिब्बाबंद कुल्फी खाई। असर पेट से दिमाग तक पहुँचा तो रौशनी में नहाई इमारतें दुल्हन-सी जगमगा उठीं। चहलकदमी करते हुए वे फव्वारे के नजदीक तक आ गए। बैंचों पर बैठे जोड़े आपस में लिपटे हुए मिले। माहौल का असर कि आकाश से अनायास सटने लगी और वे आँखों में आँखें डाल विनोदपूर्वक कहने लगे, 'योगी किस कदर ध्यान-मग्न बैठे हैं!'
लाज से गड़ गई कि - आप बहुत खराब हैं!'
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Nevil singh

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उसे वार्ड में छोडकर वे अपने मित्र के यहाँ रात गुजारने चले गए। वह तब भी उन्हें आसपास महसूस कर रही थी। मानों करीब रहते रहते कोई भावनात्मक संक्रमण हो गया था। उनकी आवाज, ऊष्मा और उपस्थिति हरदम मँडराती थी सिर पर।
सुबह वे जल्दी आ गए, सो तत्परता के कारण दुपहर तक ऑपरेशन निबट गया। छोटी का स्ट्रेचर खुद ही धकेल कर ओटी तक ले गए और वापस लाए। हड़ताल के कारण उस दिन कोई वार्डबाय न मिला था। दुपहर बाद अचानक बोले, 'नेहा! अब मैं रिलैक्स होना चाहता हूँ! तुम्हें कोई जरूरत न हो तो चला जाऊँ?'
वे अपने स्थानीय मित्र के यहाँ जाने के लिए कह रहे थे, शायद! बहन को फिलहाल दवाइयों की जरूरत थी, ना जूस की। नाक में नली पड़ी थी और प्याली में उसका पित्त गिर रहा था। नेहा को कपड़े धोने थे, कुछ इस्त्री करने थे। जल्दी सल्दी में गंदे संदे और मिचुड़े हुए रख लाई थी।
उसने माँ से पूछा, 'मम्मी, दो घंटे के लिए मैं भी चली जाऊँ सर के साथ?'
वे एकटक देखती रहीं। पति होते तो शायद, ज्यादा मजबूत होतीं। उसने कपड़े एक बैग में ठूँसे और बछड़े की तरह रस्सा तुड़ाकर भाग खड़ी हुई।
बाहर आते ही आकाश ने इशारे से स्कूटर बुलाया और वे लोग मुस्तैदी से उसमें बैठ गए। काम की फिक्र में ड्रायवर को सुबह ही गाड़ी समेत वापस भेज दिया था। समिति के दूसरे लोगों को लेकर वह फील्ड में निकल गया होगा!
कैंपस निकलते-निकलते वे एक प्रस्ताव की भाँति बोले, 'अपन चल तो रहे हैं,' थोड़े हँसे, 'क्या-पता, बिजली पानी की किल्लत हो वहाँ!' फिर ऊँचे स्वर में ऑटोचालक से कहा, 'यहाँ आसपास कोई लॉज है क्या?'
उसने गर्दन मोड़ी, आँखों से बोला - है!'
'चलो, किसी लॉज में ही चलो...।' आकाश ने नेहा को देखते हुए कहा। पर उसके तईं जैसे, कुछ घटा ही नहीं! घर हो या लॉज, उसे तो एक बाथरूम से मतलब था। जब तक वे रेस्ट करेंगे, कपड़े धो लूँगी! घर भी आ जाते और दीदी की कंचन उत्साह में नाचती तोतली आवाज में आकर बताती, 'मोंतीजी-मोंतीजी, आपते तल आ दए!' और बाहर भाग जाती जीप में खेलने। वह तब भी, जिस काम में जुती होती, उसे निबटा कर ही तैयार होती, अपना बैग उठाती। वे तब तक ऊपर के कमरे में जाकर रेस्ट करते रहते...।
लेकिन काउंटर पर आकर लेडीज रिसेप्शनिस्ट ने पूछा, 'सर! साथ में वाइफ हैं?' तो वह सकुच गई। आकाश मुस्कराकर रह गए। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें चाबी पकड़ा दी। नेहा फिर सामान्य हो गई - दुनिया है!' पर परिस्थिति इतनी सहज नहीं थी। यह उसे रूम में आकर पता चला! बाथरूम की ओर जाने लगी तो वे हाथ पकड़ हाँफते से बोले, 'नेहा, थोड़ा तो रेस्ट कर लो! बाद में धे लेना...।'
उसने फिर भी यही सोचा कि मेरी खटपट से नींद में खलल पड़ेगा, इसलिए ऐसा बोल रहे हैं!' सफेद चादर पर बेड का किनारा पकड़ कर लेट गई। झपक जाएँगे तो खिसक लूँगी!'
लेकिन झपकने के बजाय वे उसकी ओर सरक कर कुछ बुदबुदाए जो वह सुन नहीं पाई। फिर अकस्मात बाँहों में भरकर चूमने लगे...।
उसके तईं यह कतई अप्रत्याशित घटना थी। उसका हलक सूखने लगा। न कोई गुदगुदी हुई न उत्तेजना, बल्कि डर लगने लगा। और वह रोने लगी। उसे अपनी बोल्डनेस आज सचमुच महँगी पड़ गई थी। मगर उसके ताप और स्पर्श से निरंकुश हो चुके आकाश के लिए अब खुद को रोक पाना नामुमकिन था। वे उसके आँसू पीते हुए बोले, 'पहली बार थोड़ी घबराहट होती है... डरो नहीं, प्लीज!'
तभी मानों विस्फोट हुआ। उन्हें पीछे धकेल, बैग कंधे पर टाँग वह नीचे उतर आई। फिर कुछ देर टूसीटर की प्रतीक्षा कर पैदल ही अस्पताल की राह चल पड़ी। भीतर जैसे, हडकंप मचा हुआ था।
कुछ देर में वे पीछे-पीछे आ गए। साथ चलते हुए कातर स्वर में बोले, 'नेहा-आ! प्लीज, ऐसी नादानी मत दिखाओ... तुम मेच्योर हो, पढ़ी लिखी... रिलेक्स-प्लीज!'
उनका गला भर आया था। पर उसने रुख नहीं मिलाया। न एक शब्द बोली। सामने देखती हुई गर्दन उठाए सरपट दौड़ती-सी चलती रही...।
वार्ड में आकर आकाश गैलरी में ही एक चादर बिछा कर लेट गए थे। वे उसे अब दुश्मन सूझ रहे थे। वह चाह रही थी कि किसी तरह आँखों से ओझल हो जायँ। क्यों उन्होंने एक लड़की को अपनी मर्जी की चीज समझ लिया! उसका जमीर उन्हें धिक्कार रहा था।
रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे के लगभग आकाश की तबीयत काफी बिगड़ गई। वे भयानक डिप्रेशन के शिकार हो रहे थे। नेहा का अस्वीकार उन्हें खाए जा रहा था। अब तक उसके पापा भी आ गए थे। आकाश ने खुद को सँभालते हुए उनके सामने ही उससे पूछा, 'अब मैं लौट जाऊँ, सुबह ड्रायवर को भेज दूँगा?'
'जैसी मर्जी।' उसने उपेक्षा से कहा।
वे अपना बैग उठा कर हार्टपेशेंट की तरह घबराहट में डूबे हुए निकल गए वार्ड से। उनके जाते ही नेहा खुद को स्वस्थ महसूस करने लगी।
पापा उनके इस तरह चले जाने को लेकर काफी चिंतित हो गए थे। उनके इस भोलेपन पर नेहा ग्लानि से गड़ी जा रही थी। क्योंकि वे पापा ही थे जो उसके लेट हो जाने पर घर के बाहर या और भी आगे कॉलोनी को जोड़ने वाले रोड की फलिया पर रात दस दस ग्यारह ग्यारह बजे तक बैठे मिलते। चेहरा गुस्से से तमतमाया होता, पर मुँह से एक शब्द नहीं निकालते। उस पर यकीन भी था और उसे पुरुषों के समान अवसर देने का जज्बा भी। माँ अक्सर विरोध दर्ज कराती कि वह वापसी में लेट न हुआ करे, अन्यथा यह काम छोड़ दे! उसकी हालत तब काम छोड़ देने की रही नहीं थी। जिस दिन साथ नहीं जा पाती, किसी काम में मन नहीं लगता। खाना-पीना, रहना सब कुछ उन्हीं के साथ भला लगने लगा था...।
अगले दिन जब अस्पताल में झाड़ू-पोंछा चल रहा था, ड्रायवर बाहर गैलरी में आकर खड़ा हो गया। वह एक शिष्ट लड़का, उसे दीदी कहता और मानता भी। उसने उसे मुस्करा कर आश्वस्त कर दिया। शाम तक वे लोग वार्ड में घर की तरह रहने लगे। पापा स्टोव और बर्तन ले आए थे। उसे एक अच्छे सुलभ कॉम्लेक्स का पता चल गया था।
रात में सभी सो गए तो ड्रायवर ने उसे एक बंद लिफाफा दिया।
आकाश ने यही कहा था...।
नेहा ने सुबह तक नहीं खोला। मगर सुबह वह उसी को पढ़ने के लिए अस्पताल के पार्क में चली गई। उसका हृदय संताप से भरा हुआ था। इच्छा न रहते हुए भी उसने लिफाफा खोल लिया और उसमें रखी स्लिप निकाल कर पढ़ने लगी...।
आकाश ने लिखा था, 'मैं अपराधी हूँ। यह एक तरह का अपमान है, बल्कि स्त्री-हत्या! मगर इस पाप के लिए तुमने मुझे मानसिक रूप से तैयार कर लिया था!'
तारीखें जुदा थीं तो क्या! संयोग से दोनों का जन्मदिन एक ही महीने में पड़ता। वे अपने ग्रुप को किसी न किसी बहाने सेलिब्रेट किया करते थे। बड़े उत्साह से कार्यकर्ताओं के जन्मदिन मनाए जाते। सभी एक-दूसरे को छोटे-बड़े उपहार देते। सहभोज होता और गाना-बजाना भी। डायरी में सभी के जन्म दिनांक उन्होंने पहले से टाँक रखे थे। दिसंबर आया तो एक माकूल शुक्रवार देख आकाश ने घोषित कर दिया कि - आज दीदी का जन्मदिन मनेगा।'
- सर का भी तो!' उसने जोड़ा।
लोग मगन हो गए। जीपों में भरकर सब नदी तट पर पहुँच गए! वहीं रसोई रचाई, वहीं नाचे-गाए! सभी ने दोनों को छोटे-बड़े उपहार दिए। और आकाश ने उसे एक सुंदर सलवार सूट तो उसने उन्हें एक खूबसूरत हैट और सेविंग ब्रश विथ इलेकिट्रक रेजर! आकाश मुस्कराने लगे, क्योंकि वे दाढ़ी नहीं बनाते थे! और वह खिसिया गई, जैसे सरेआम निमंत्रित कर रही थी!
स्लिप लिफाफे में डाल, उसे वस्त्रों में छुपा लिया। फिर एक निश्वास छोड़ उठ खड़ी हुई और वार्ड में वापस चली आई।
वह स्थानीय संपादक फालतू में ही पीछे पड़ गया था, जिसने पहले एक बार चित्र छाप दिया था! सुनी सुनाई बातों के आधार पर उसने कुछ दिनों बाद बॉक्स में एक खबर लगाई, 'नाटक खेलने गई टीम पिटते-पिटते बची!'
निज प्रतिनिधि गाँव गाँव को जागरूक करने का बीड़ा उठाने वाली टीम ग्राम लहरौली में पिटते-पिटते बची। घटना उस समय घटी जब टीम समन्वयक आकाश खडगे जीप में एक युवा लड़की को लेकर इस गाँव में पहुँचे। जीप गाँव में पहुँची तो लोग परंपरानुसार जीप के पास आ गए थे। इकट्ठे हुए लोगों को कोई आशय बताए बिना लट्ठ-सा मारते हुए आकाश जी बोले, 'आप लोग अपने घर की जवान बेटियों और जवान बहुओं को बाहर निकालो।' बता दें कि इस जिले में बिना समझाए कोई बात कहने का अंत बुरा होता है। उनकी बात सुनकर गाँव के लोग भौंचक्के रह गए और उन्हें तमाम खरी खोटी सुना दी। लड़ने पर आमादा एक दो लोगों ने यहाँ तक कह दिया कि, 'हम लोग चल रहे हैं तेरे घर, तू निकाल अपनी जवान बहन-बेटी को!' कहना न होगा कि गाँव वालों की बातों को सुनकर आकाश रफूचक्कर होने की जुगत भिड़ाने लगे। जैसे तैसे यह टीम बिना मल्हार गाए और नाटक खेले गाँव से भागकर शहर आ पाई।'
खबर पढकर वे आहत हो गए...।
समिति द्वारा जागरूकता विषयक नुक्कड़ नाटक गाँवगाँव दलित बस्तियों में कराए जा रहे थे। इस बात पर सवर्ण वर्ग अपना अपमान महसूस कर रहा था कि बाहर से आया दल उनके मोहल्लों में नाटक न कर निचली बस्तियों में जा रहा है...। पिछली गर्मियों में जब ग्राम मुकटसिंह का पुरा में कला जत्था, प्रदर्शन ठाकुर मुकुटसिंह के दरवाजे न कर हरिजन बस्ती में करने लगा तो टीम पर सवर्ण जातियों के लड़के पत्थर फेंकने लगे।
रात का समय। आसपास कोई पुलिस मदद न थी। टीम प्रदर्शन-स्थल से एक छप्पर में आ गई। भीड़ ने उसे घेर रखा था। बच्चे, बूढ़े, जवान और औरतें... हर कोई नाटक देखना चाहता था। मगर आकाश ने प्रदर्शन स्थगित कर वापसी का ऐलान कर दिया था। नेहा भीड़ की तरफदारी करने लगी, 'पड़ने दो, कितने पत्थर पड़ेंगे। लहूलुहान होकर भी नाटक करके ही जाएँगे। देश भर में संदेश तो जाएगा कि सामंतवाद कितना हावी है! गुंडाराज कोने कोने में पनप गया है...।'
achchhi uopdate.
 
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