अगली पोस्ट अलग तरह की है,
इसलिए पिछली पोस्ट, वहीँ पे ब्रेक कर दी थी,...
ज्यादातर पोस्ट्स में कभी घंटनाएँ होती हैं तो कभी छेड़ छाड़ तो कभी दैहिक सुख की पराकाष्ठ, श्रृंगार का अंतिम चरण, मिलन जहां सिर्फ साँसे और कांपते रोम बोलते हैं , अंग चाहनाओं को रूप देते हैं,
पर यह पोस्ट, बहुत कुछ स्वगत है, खुद से बात चीत की , अंत: में झांकने की, कहा जाता है, टू बी इज टू बी परसीव्ड,
तो हम दूसरे को कैसे देखते हैं और वो हमें कैसे देखते है , और हम खुद क्या सोचते हैं की वो हमें कैसे देखते होंगे और वो किस तरह से देखते होंगे और वह हमारे उन्हें देखने को प्रभावित करे,... तो बस बहुत कुछ ऐसा ही,
बस सोचिये, जाड़े की गुनगुनी धुप में मुंडेर के सहारे बैठी कोई लड़की, किसी पुराने स्वेटर को उधेड़ के फिर से ऊन के गोले बना रही हो और सोच रही इस का मफलर बन सकता है या,...
तो बस इसी तरह ढेर यादों को उधेड़ने की कोशिश और अपनी उँगलियों की सलाइयों से दो उलटा चार सीधा करके कुछ बुनने की कोशिश,...
इस का कलेवर फागुन के दिन की तरह उपन्यास सा है और साइज भी वही पर सीरयल में हर बार अपेक्षा कुछ अलग सी होती है,...
तो यह पोस्ट बहुत कुछ मेरे बारे में , इस कहानी की नैरेटर के बारे में है ,
जैसे नाटकों में कई बार सूत्रधार मंच के अगले हिस्से में आ जाता है , बाकी रोशनियां धंधली हो जाती हैं , बाकी पात्र परछाइयों में खो जाते हैं , फ्रीज हो जाते हैं और सूत्रधार दर्शकों से सीधे कुछ कहने लगता है , और थोड़ी देर बाकी मंच पर भी प्रकाश पुंज आ जाता है , बाकी चरित्र भी सक्रिय हो जाते हैं और सूत्रधार भी अपनी भूमिका में वापस आ जाता है ,
इस पोस्ट के आड़ अगली पोस्टों में कुछ वैसा ही ही होगा,
बस थोड़ी देर में