भाग- 63
सुगना और लाली की बातें खत्म ना हुई थी कि मिंकी भागती हुई सुगना के पास आई
"माँ सूरज के देख का भइल बा…"
मिंकी ने भी न सिर्फ अपनी माता बदल ली थी अपितु मातृभाषा भी सुगना अपना पेट पकड़कर भागती हुई सूरज के पास गई
"अरे तूने क्या किया…"
मिंकी हतप्रभ खड़ी थी उसने अपने दोनों हाथ जोड़ लीये और कातर निगाहों से सुगना की तरफ देखने लगी...सुगना परेशान हो गई...
अब आगे..
सूरज के अंगूठे पर सुगना द्वारा लगाया आवरण नीचे गिरा हुआ था । सुगना ने मिंकी की तरफ देखा डरी हुई मिन्की ने कहा "मां मैंने कुछ नहीं किया सिर्फ सूरज बाबू के अंगूठे को सह लाया था"
सुगना ने अपना सर पकड़ लिया उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था जो गलती मिन्की में की थी उसका उसे एहसास भी न था। उस मासूम को क्या पता था कि सूरज और उसके अंगूठे में क्या छुपा है।
सुगना ने स्थिति को संभाला और मिंकी से अपनी आंखें बंद करने को कहा..
"जबले हम ना कहीं आंख मत खोलीह"
मिंकी ने पूरी तन्मयता से अपनी आंखें बंद कर लिया और सुगना के अगले कदम का इंतजार करने लगी। मिंकी सुगना के वात्सल्य रस से ओतप्रोत हो चुकी थी उसे पूरा विश्वास था कि उसकी सुगना मां उसके साथ कुछ भी गलत नहीं करेगी।
फिर भी आंखें बंद कर सुगना के अगले कदम का इंतजार करती हुई मिंकी के चेहरे पर डर देखा जा सकता था। तभी सुगना ने अपनी उंगली को उसके होठों से सटाया और बोला
"अच्छा बता यह मेरी कौन सी उंगली है?"
सुगना की मीठी आवाज सुनकर मिंकी का डर काफूर हो गया और वह खुशी खुशी चाहते हुए बोली
"मां बीच वाली"
अच्छा यह बता
"मां सबसे छोटी वाली" मिन्की अपनी समझ बूझ से सुगना के प्रश्नों का उत्तर दे रही थी।
सुगना ने सूरज को वापस बिस्तर पर रख दिया और मिंकी के माथे को चूमते हुए बोली
"बेटा कभी भी बाबू के अंगूठा मत सहलाई ह"
मिंकी अभी भी अपनी उधेड़बुन में खोई हुई थी उसने अपना सर हिलाया और अपनी मां के आलिंगन में आ गई सुगना ने उसे अपने पेट से सटा लिया परंतु पेट में पल रहे बच्चे की हलचल महसूस कर मिंकी ने पूछा
" मां एमें बाबू बा नु?"
सुगना सहम गयी उसने मुझे के गाल पर मीठी सी चपत लगाई और बोली "तोहार साथ देवे तोहार बहन आव तिया"
नियति ने सुगना के कहे शब्दों को अपने मन में संजो लिया और अपनी कहानी का ताना-बाना बुनने लगी …
उधर सरयू सिंह पूरी तरह निरापद और निर्विकार हो चुके थे। जीवन में उन्होंने जितने सुख सुगना से पाए थे वह सुखद यादें अब उनके मन में एक टीस पैदा करती थी। उनका मन बनारस में न लगता जब जब वह सुगना को देखते उनके मन में एक हुक सी उठती। सरयू सिंह की कामवासना अचानक ही गायब हो चुकी थी। पिता पुत्री के पावन रिश्ते के सैलाब में उनकी कामवासना एक झोपड़ी की तरह बह गई थी।
सुगना जैसी मदमस्त और मादक युवती को देखने का अचानक ही उनका नजरिया बदल गया था परंतु उनके अंग प्रत्यंग किसी न किसी प्रकार से सुगना के मादक स्पर्श को न भूल पाते हाथों की उंगलियां दिमाग के नियंत्रण से बाहर जाने का प्रयास करतीं सुगना भी परेशान रहती आखिर बाबूजी को यह क्या हो गया है? उनके आलिंगन में आया बदलाव सुगना भली-भांति महसूस करती थी वह स्वयं सटने का प्रयास करती परंतु उसके बाबूजी स्वयं मर्यादा की लकीर खींच देते और अपने शरीर को पीछे कर लेते।
सुगना को मन ही मन यह ग्लानि होती ही क्यों उसने राजेश के वीर्य को अपनी जांघों के बीच स्थान दिया… शायद इसी वजह से उसके बापूजी उससे घृणा करने लगे हैं। सुगना सरयू सिंह के करीब जाकर उन्हें खुश करने का प्रयास करती परंतु होता ठीक उल्टा शरीर सिंह असहज स्थिति में आने लगे थे।
सुगना ने अपने गर्भवती होने के लिए पर पुरुष के वीर्य को जिस तरह धारण किया था वह उचित है या अनुचित यह नजरिए की बात है।परंतु सुगना की मनो स्थिति वही जान सकती थी। बनारस महोत्सव में गर्भवती होना उसके लिए जीवन मरण का प्रश्न था और उसने वही किया जो उसके लिए सर्वथा उचित था।
सरयू सिंह दुविधा में थे। वह सुगना के करीब ही रहना चाहते थे और सुगना के कामुक व्यवहार से दूर भी रहना चाहते थे वह चाहकर भी सुगना को यह बात नहीं बता सकते थे कि वह उनकी अपनी पुत्री है। कोई उपाय न देख कर वह बनारस छोड़कर सलेमपुर चले आये। परंतु उनके लिए अकेले सलेमपुर में रहना कठिन हो रहा था उनका हमेशा से साथ देने वाली कजरी भौजी अब सुगना का ख्याल रखने बनारस में रहती थी। सरयू सिंह का खाना पीना उनके दोस्त हरिया के यहां चलता परंतु मनुष्य के जीवन में खाना के अलावा भी कई कार्य होते जो कजरी एक पत्नी के रूप में कर दिया करती थी। सेक्स तो जैसे सरयू सिंह के जीवन के गधे के सिर के सींघ की तरह गायब हो गया था।
उधर रतन सुगना के करीब आने को लालायित था। पिछले कुछ महीनों में सुगना ने रतन को अपने बिस्तर पर सोने की इजाजत देती थी परंतु विचारों में दूरियां अभी भी कायम थी। खासकर सुगना की तरफ से। रतन तो आगे बढ़कर सुगना को गले लगा लेना चाहता था परंतु सुगना खुद को हाथ न लगाने देती । वह मरखैल गाय की तरह व्यवहार तो ना करती परंतु बड़ी ही संजीदगी से स्वयं को दूर कर लेती।
वैसे भी वह दिमागी तौर पर हमेशा यही सोचने में व्यस्त रहती है कि आखिर उसके बाबूजी की उत्तेजना को क्या हो गया है। ऐसा तो नहीं कि वह गर्भवती पहली बार हुई थी इसके पूर्व भी जब उसके पेट में सूरज आया था तब भी सरयू सिंह ने अपनी और उसकी उत्तेजना को कम होने नहीं दिया था। सुगना की यादों में वह खूबसूरत पल आज भी कैद थे।
जैसे-जैसे सुगना का गर्भ अपना आकार बढ़ा रहा था सुगना का ध्यान कामुकता से हटकर अपने गर्भ पर केंद्रित हो रहा था शायद यही वजह थी कि वह सरयू सिंह की बेरुखी को नजरअंदाज कर पा रही थी।
आज सुगना के हाथ पैर में अचानक तेज दर्द हो रहा था। कजरी किसी आवश्यक कार्य से सलेमपुर गई हुई थी घर पर सिर्फ रतन और दोनों छोटे बच्चे थे एक सूरज और दूसरी मिन्की।
शाम घिर आई थी परंतु सुगना बिस्तर पर लेटी अपने हाथ पैर ऐंठ रही थी। उसे बच्चों और रतन के लिए खाना बनाना था परंतु उसकी स्थिति ऐसी न थी कि वह उठकर चूल्हा चौका कर पाती। एक पल के लिए उसके मन में आया की वह लाली से मदद ले परंतु उसे लाली की स्थिति का अंदाजा था। दोनों के पेट बराबर से फूले थे। उसके लिए खुद का खाना बनाना दूभर था। सुगना ने लाली को परेशान करने का विचार त्याग दिया और राम भरोसे रतन का इंतजार करने लगी।
थोड़ी ही देर में रतन आ गया सुगना की स्थिति देख वह सारा माजरा समझ गया। दोनों बच्चे उससे आकर लिपट गए सूरज हालांकि रतन का पुत्र न था परंतु जितनी आत्मीयता रतन ने सूरज के साथ दिखाई थी उस छोटे बालक सूरज ने उसे अपने पिता रूप में स्वीकार कर लिया था।
हालांकि सूरज की निगाहें अब भी सरयू सिंह को खोजती परंतु छोटे बच्चों की याददाश्त कमजोर होती है प्रेम का सहारा पाकर वह और धूमिल होने लगती है यही हाल सूरज का भी था वह रतन के करीब आ चुका था।
रतन ने कुछ ही देर में हाथ पैर धोए अपने और सुगना के लिए चाय बनाई। थोड़ी ही देर में पास पास के ही एक ढाबे से जाकर खाना ले आया बच्चों को खिला पिला कर उसने अपने ही कमरे में अलग बिस्तर पर सुला दिया तथा थाली में निकाल कर स्वयं और सुगना के लिए खाना ले आया।
सुगना रतन के इस रूप को देखकर मन ही मन खुश हो रही थी आखिर रतन में आया यह बदलाव सर्वथा सुखद था । यदि सुगना के जीवन में सरयू सिंह ना आए होते तो शायद पिछले कुछ महीने सुगना के जीवन के सबसे अच्छे दिन होते जब वह धीरे-धीरे रतन के करीब आ रही होती।
खानपान के पश्चात रतन ने हिम्मत जुटाई और कटोरी में सरसों का तेल गर्म कर ले आया। बच्चे अब तक भोजन के मीठे नशे में आ चुके थे और सो चुके थे। रतन ने उन्हें चादर ओढाई और सुगना के बिस्तर पर आ गया।
कटोरी में तेल देखकर सुगना को आने वाले घटनाक्रम का अंदाजा हो रहा था वह मन ही मन सोच रही थी कि रतन उसके पैरों में तेल कैसे लगाएगा जिस पुरुष ने आज तक उसकी एडी से ऊपर का भाग नहीं देखा था वह आज उसके पैरों में तेल लगाने जा रहा था सुगना आज पहली बार रतन की उंगलियों को अपने पैरों पर महसूस करने जा रही थी।
सुगना की मनोदशा ऐसी न थी कि वह अपने पति से पैर दबवाती पाती परंतु लाली और राजेश के संबंधों के बारे में उसे बहुत कुछ पता था राजेश एक पत्नी भक्त की भांति लाली की सेवा किया करता था उसकी इस सेवा ने ही सुगना के मन में हिम्मत दी और उसने स्वयं को रतन के सामने तेल लगाने के लिए परोस दिया।
"साड़ी ऊपर करा तभी तो तेलवा लागी"
सुगना ने मुस्कुराते और रतन से अपनी नजरें बचाते हुए अपनी हरे रंग की साड़ी घुटनों तक खींच लिया। ऐसा लग रहा था जैसे केले के तने से ऊपरी हरा आवरण हटा दिया गया हो। सुगना के कोमल और सुडोल पैर झांकने लगे। रतन उन चमकदार पैरों की खूबसूरती में खो गया। सुगना के पैरों में लगा आलता और चमकदार चांदी की पाजेब उसके पैरों की खूबसूरती को और बढ़ा रही थी। सुगना आंखें बंद किए रतन की उंगलियों के स्पर्श का इंतजार कर रही थी। रतन ने अंततः हिम्मत जुटाकर तेल से सनी अपनी उंगलियां सुगना के पैरों से लगा दीं उंगलियों ने उन खूबसूरत पैरों को थाम लिया और राजेश सुगना के पैरों को हल्की हल्की मसाज देने लगा सुगना का दिल धक-धक कर रहा था रतन के स्पर्श से वह अभिभूत हो रही थी।
जैसे-जैसे रतन सुगना के पैर दबाता गया सुगना के पैरों को आराम मिलने इतनी मीठी यादों में खोई सुगना की आंख लग गई..
"बाबूजी बस अब हो गई अब मत लगाईं"
"रुक जा मालिश पूरा कर लेवे दा थोड़ा साड़ी और ऊपर क..र"
सरयू सिंह के हाथ सुगना की जांघों की तरफ बढ़ चले थे सुगना भी अपनी साड़ी को बचाने के प्रयास में खींचकर अपनी कमर तक ले आई थी परंतु उसका फुला हुआ पेट पेटीकोट के नाड़े को घसीट कर उसकी फूली हुई बुर के ठीक ऊपर ला दिया था।
सरयू सिंह के हाथ सुगना की नंगी जांघों पर घूमने लगे गोरे गोरे पैरों पर उनकी मजबूत उंगलियां धीरे-धीरे ऊपर की तरफ बढ़ने लगी और अंततः वही हुआ जिसका सुगना इंतजार कर रही थी सरयू सिंह की उंगलियों ने सुगना के निचले होठों पर छलक आया काम रस छू लिया। अपनी तर्जनी को उस मलमली चीरे में डुबो दिया वह अपनी उंगलियां बाहर निकाल कर उस काम रस की सांद्रता को चासनी की भांति अपनी तर्जनी और अंगूठे के बीच लार बनाकर महसूस करने लगे।
सुगना कनखियों से सरयू सिंह को देख रही थी और शर्म से पानी पानी हो रही थी अपनी गर्भावस्था के दौरान उसकी यह उत्तेजना बिल्कुल ही निराली थी सरयू सिंह ने सुगना के कोमल मुखड़े की तरफ देखा और बेहद प्यार से बोला
"सुगना बाबू के मन कराता का?"
सुगना ने अपना चेहरा अपनी दोनों हथेलियों से छुपा लिया परंतु अपने मीठे गुस्से को प्रदर्शित करते हुए अपने मासूम अपने पैर सरयू सिंह की गोद में पटकने लगी। जो सीधा शरीर सिंह के तने हुए लण्ड से टकराने लगे सरयू सिंह ने अपने चेहरे पर पीड़ा के भाव लाते हुए कहा
"अरे एकरा के तूर देबू का खेलबु काहे से?"
सुगना तुरंत उठ कर सरयू सिंह की गोद में छुपे उनके जादुई लण्ड को सहलाने लगी
"चोट नानू लागल हा?"
"हम का जानी एकरे से पूछ ल"
सुगना ने देर न की उसने सरयू सिंह का लंगोट खिसकाया और तने हुए लण्ड को बाहर निकाल लिया। उसने अपने बाबूजी की तरफ एक नजर देखा और अगले ही पल लण्ड का सुपाड़ा सुगना उंगलियों के बीच था सुगना ने उसे चूमना चाहा उसने अपने पेट को व्यवस्थित किया और अपने बाबू जी की गोद में झुक गई। लण्ड उसके होठों के बीच आ चुका था। सुगना की कोमल और गुलाबी जीभ कोमल सुपारे से अठखेलियां करने लगी।
सुगना की हथेलियां सरयू सिंह के अंडकोषों को सहला सहला कर सरयू सिंह को और उत्तेजित करती रहीं। लण्ड पूरी तरह उत्तेजना से भर चुका था सरयू सिंह सुगना के रेशमी बाल सहलाए जा रहे थे और कभी कभी अपनी तेल से सनी उंगलियां सुगना की पीठ पर फिरा रहे थे। ब्लाउज कसे होने की वजह से उंगलियां अंदर तक न जा पा रही थीं। जैसे ही उंगलियों ने ब्लाउज के अंदर प्रवेश करने की कोशिश की सुगना ने बुदबुदाते हुए कहा
"बाबूजी साड़ी नया बा तेल लग जायी"
" त हटा द ना"
सुगना सरयू सिंह का लण्ड छोड़कर बैठ गई। दो कोमल तथा दो मजबूत हाथों ने मिलकर सुगना जैसी सुंदरी को निर्वस्त्र कर दिया। सुगना का चिकना और सपाट पेट जिसकी नाभि से निकली पतली लकीर उसकी बुर तक पहुंच कर खत्म होती थी गायब हो चुकी थी। पेट पूरी तरह फूल चुका था।
सरयू सिंह अपनी प्यारी सुगना को चोदना चाहते थे परंतु उसके फूले हुए पेट और अंदर पल रहे बच्चे को ध्यान कर मन मसोसकर रह जाते थे परंतु आज उनका लण्ड विद्रोह पर उतारू था। सुगना के पेट को सहलाते हुए सरयू सिंह ने कहा..
"तहार मन ना करेला का?
"काहे के बाबूजी.."
उनकी उंगलियों ने पेट को छोड़कर बुर का रास्ता पकड़ा और मध्यमा ने गहरी घाटी में घुसकर सुगना के प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश की।
सुगना ने सरयू सिंह की मूछों को अपनी उंगलियों से हटाया और उनके होठों को चूम लिया और बोली
"केकर मन ना करी ई मूसल से चटनी कुटवावे के" सुगना का दूसरा हाथ सरयू सिंह के लण्ड पर आ चुका था।
सुगना के होठों की लार अब भी सुपाडे पर कायम थी। सुगना ने अपनी हथेली से लड्डू जैसे सुपारे को कसकर सहला दिया और लण्ड की धड़कन को महसूस करने लगी।
सरयू सिंह ने सुगना को चूम लिया और उसे अपनी गोद में बैठा लिया। सुगना ने बड़ी चतुराई से लण्ड को नीचे झुका कर अपनी दोनों जांघों के बीच से निकाल लिया और चौकी पर सरयू सिंह की गोद में पालथी मारकर बैठ गयी। उसके हाथ अब भी लण्ड के सुपारे से खेल रहे थे।
वह लण्ड को कभी अपनी बुर से सटाती और कभी लण्ड के सुपारे को अपनी भग्नासा से रगड़ती। सुगना अपना सारा ध्यान नीचे केंद्रित की हुई थी और उधर उसके बाबूजी की हथेलियां सुगना की चुचियों का जायजा ले रहीं थी। उन्होंने सुगना के शरीर को तेल से सराबोर कर दिया था और अपनी मजबूत हथेलियों से सुगना के कोमल शरीर और अत्यंत कोमल परंतु कठोर चुचियों को सहलाये जा रहे थे।
निप्पलों को दबाते ही सुगना सहम उठती और बोलती
"बाबूजी तनी धीरे से ….दुखाता"
सुगना को भी यह अंदाज लग चुका था कि यह शब्द बाबुजी को अतिउत्तेजित कर देता है जब वह अपने मुंह से इस मीठी कराह को निकालती उनके लण्ड के सुपारे को दबा देती। लण्ड और भग्नासे की रगड़ बढ़ती जा रही थी।
"ए सुगना ये में से दूध निकली त हमरो मिली" सरयू सिंह ने सुगना की चूचियां और निप्पलों को मीसते हुए पूछा।
सुगना खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली
" दुगो बानू एगो राहुर ए गो लइका के"
सुंदर और कामुक स्त्री यदि हंसमुख और हाजिर जवाब है उसकी खूबसूरती दुगनी हो जाती है सरयू सिंह भी सुगना कि इसी अदा पर मर मिटते थे। उन्होंने भी अपने हाथ सुगना की जांघों के बीच की घाटी में उतार दिए और उसकी बुर के झरने से बहने वाले रस में अपनी उंगलियां भिगोने लगे
सुगना की बुर से रिसने वाला काम रस लण्ड को सराबोर कर चुका था। सुगना अपनी हथेलियों को सुरंग का आकार देकर लण्ड को कृत्रिम योनि का एहसास करा रही थी..
सुगना का हर अंग जादुई था सुगना के स्पर्श से अभिभूत सरयू सिह धीरे-धीरे स्खलन को तैयार हो चुके थे उन्होंने सुगना के कान में कहां
"तनी सा भीतर घुसा ली का?"
"बाबूजी थोड़ा भी आगे जाए तब लाइका के माथा चापुट हो जायी हा मां कह तली हा"
अचानक ही सरयू सिंह ने अपनी उंगलियों से सुगना की गुदांज गांड को सहला दिया और सुगना के गालो को चूमते हुए पूछे
" अउर ए में?"
सुगना मुस्कुराने लगी उसने सरयू सिंह के गानों को चुमते हुए बोला
"राहुल लइका ई सब सूनत होइ त का कहत होइ"
"इतना सुंदर सामान देखी त उहो इहे काम करी"
सुगना जान चुकी थी कि यदि बाबूजी स्खलित ना हुए तो यह कामुक कार्यक्रम किसी भी हद तक जा सकता था। उसने अपनी उंगलियों की कला दिखायी वह सरयू सिंह के सुपारे को कभी अपने बुर में घुसेड़ती और फिर अपनी उंगलियों से खींच कर बाहर कर देती।
बुर् के मखमली एहसास से सरयू सिंह का लण्ड उछलने लगा। सुगना उसकी हर धड़कन पहचानती थी उसे मालूम चल चुका था ज्वालामुखी फूटने वाला था। वह उनकी गोद से उठ गई और लण्ड से निकलने वाली वीर्य धार को ऊपर आसमान की तरफ नियंत्रित करने लगी। वीर्य की बूंदों ने छत को चूमने की कोशिश की परंतु कामयाब ना हुईं। वह वापस आकर सुगना के मादक शरीर पर गिरने लगी सुगना ने उस वीर्य वर्षा में खुद को डुब जाने दिया। चुचियों और चेहरे पर गिर रहा वीर्य सुगना आंखें बंद कर महसूस करती रही। सरयू सिंह उसकी ठुड्डी और होठों को चूमते रहे वह भाव विभोर हो चुके थे। उधर उनकी उंगलियां सुगना की बूर को मसले जा रही थी…
सुगना के पैर एक बार फिर एठने लगे और पंजे सीधे होने लगे ….
रतन अर्ध निद्रा में सो रही सुगना की इस परिवर्तित अवस्था से आश्चर्यचकित था उसने सुगना को झकझोरा और बोला
" का भईल सुगना"
सुगना अपने मीठे ख्वाब से बाहर आ गई और अपने पति को अपना पैर दबाते देख एक तरफ वो शर्मा गयी दूसरी तरफ अपने उस सुखद सपने को याद कर रही थी जिसने उसकी बुर को पनिया दिया था।
सुगना की साड़ी अभी घुटनों के ठीक ऊपर थी रतन नींद में सो रही सुगना उस साड़ी को ऊपर करना तो चाहता था परंतु हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था परंतु अब सुगना जाग चुकी थी रतन के हाथ सुगना के घुटनों की तरफ बढ़ रहे थे...
नियति रतन की आंखों में प्रेम और वासना दोनों का मिलाजुला अंश देख रही थी…
शेष अगले भाग में…..