भाग 155
हवेली में, उसी रात, सुगना को अचानक एक अजीब-सा भारीपन महसूस हुआ। बिना किसी स्पष्ट कारण के। उसने दीपक के सामने बैठकर आँखें मूँद लीं। विद्यानंद की आवाज़ जैसे उसके भीतर गूँज उठी—
“जब संकेत मिलने लगें, तब समझो समय निकट है।”
सूरज के भीतर भावनाएँ जाग रही थीं,
रोज़ी धैर्य सीख रही थी,
और सुगना को पहली बार लग रहा था कि जो वह टालती आ रही थी—अब उससे मुँह मोड़ना संभव नहीं।
यह चुप्पी स्थायी नहीं थी।
यह किसी परिवर्तन से पहले का मौन थी।
अब आगे…
विद्यानंद के शिष्य ने सुगना को अपने अतीत में झांकने के लिए मजबूर कर दिया था……
उस दिन सलेमपुर में माहौल गमगीन था सलेमपुर के हीरो सरयू सिंह आज श्मशान घाट में कफन ओढ़े मुखाग्नि का इंतजार कर रहे थे सलेमपुर की सारी जनता अपने सम्मानित सरयू सिंह को विदा करने श्मशान घाट पर उमड़ी हुई थी। शायद यह पहला अवसर था जब श्मशान घाट पर इतनी भीड़ देखी जा रही थी पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी पहली बार श्मशान घाट पर उपस्थित हुई थी सुगना कजरी और पदमा का रो रो कर बुरा हाल था।
चिता सजाई जा रही थी सभी अपनी अपनी बुद्धि और प्रेम के हिसाब से सरयू सिंह को अंतिम सम्मान देने का प्रयास कर रहे थे कोई चिता के चरण छूता कोई फूल डालता… धीरे-धीरे मुखाग्नि का समय करीब आ रहा था।
संग्राम सिर्फ उर्फ सोनू अब भी दुविधा में था। वह एक तरफ पत्थर की शिला पर बैठा आंखे बंद किए धरती में अपने अंगूठे से न जाने क्या कुरेद रहा था और उसे छोटे से बने गड्ढे में न न जाने क्या देख रहा था…
गांव के सरपंच ने आखिरकार जन समाज के समक्ष यह बात रखी की सरयू सिंह को मुखाग्नि कौन देगा?
"सरयू सिंह कि कोई संतान तो है नहीं पर सोनू भैया इनके पुत्र जैसे ही हैं मुखाग्नि इन्हीं को देना चाहिए" गांव के एक युवा पंच ने अपनी बात रखी।
सोनू दूर बैठा यह बात सुन रहा था उसका कलेजा दहल उठा सोनू भली-भांति जानता था की सुगना सरयू सिंह की पुत्री है यह अलग बात थी की उसका जन्म सरयू सिंह के नाजायज संबंधों की वजह से हुआ था परंतु सुगना के शरीर में सरयू सिंह का ही खून था सोनू से रहा न गया सोनू ने पूरी दृढ़ता से कहा..
"सुगना दीदी ने जीवन भर एक पुत्री की भांति सरयू चाचा की सेवा की है मुखाग्नि सुगना दीदी देंगी.."
सोनू का कद और उसकी प्रतिष्ठा अब इतनी बढ़ चुकी थी कि उसकी बात काट पाने का सामर्थ गांव के किसी व्यक्ति में न था। सभी एक बारगी महिलाओं के झुंड की तरफ देखने लगे… बात कानो कान सुगना तक पहुंच गई..
सुगना पहले ही दुखी थी…यह बात सुनकर उसकी भावनाओं का सैलाब फुट पड़ा और एक बार वह फिर फफक फफक कर रोने लगी… अब तक सोनू उसके करीब आ चुका था उसने सुगना को अपने गले से लगाया और उसे समझाने के लिए उसे भीड़ से हटाकर कुछ दूर ले आया..
"सोनू ई का कहत बाड़े…? हम मुंह मे आग कैसे देब?
"काहे जब केहू के बेटा ना रहे ता बेटी ना दीही?"
सोनू ने स्वयं प्रश्न पूछ कर सुगना को निरुत्तर कर दिया।
"दीदी याद बा हम तहरा के बतावले रहनी की तू हमर बहिन ना हाउ "
सुगना को जौनपुर की वह रात याद आ गई जब सोनू ने संभोग से पहले सुखना के कानों में यह बात बोली थी और मिलन को आतुर सुगना को धर्म संकट से बाहर निकाल लिया था।
सुगना का कलेजा धक धक करने लगा…
रक्त का प्रवाह तेजी से शरीर में बढ़ने लगा परंतु दिमाग में झनझनाहट कायम थी सुगना सोनू की तरफ आश्चर्य से देख रही थी..
"दीदी सरयू चाचा ही ताहार बाबूजी हवे। तू उनकरे बेटी हउ “ एकरा से ज्यादा हमरा से कुछ मत पूछीह…"
सुगना के कान में जैसे पारा पड़ गया हो वह हक्की बक्की रह गई आंखें सोनू के चेहरे और भाव भंगिमा को पढ़ने की कोशिश कर रही थी परंतु कान जैसे और कुछ सुनने को तैयार ना थे।
"ते झूठ बोलत बाड़े ऐसा कभी ना हो सके ला?"
सोनू भी यह बात जानता था कि सुगना दीदी के लिए इस बात पर विश्वास करना कठिन होगा इसलिए उसने बिना देर किए सुगना के हाथों को अपने हाथों में ले लिया और बोला
" दीदी हम तोहार कसम खाकर कहत बानी .. तू सरयू चाचा की बेटी हाउ .. घर पहुंच गए हम तोहरा के डॉक्टर के रिपोर्ट भी दिखा देहब अभी हमारी बात मान ल।"
सुगना को यह अटूट विश्वास था कि सोनू उसकी झूठी कसम कतई नहीं कह सकता था जो बात सोनू ने कही थी उस पर विश्वास करने के अलावा सुगना के पास कोई और चारा ना था। जैसे ही सुगना के दिमाग में सरयू सिंह के साथ बिताए कामुक पलों के स्मृतिचिन्ह घूमें सुगना बदहवास हो गई…अपने ही पिता के साथ….वासना का वो खेल….. हे भगवान सुगना चेतना शून्य होने लगी… और खुद को संभालने की नाकामयाब कोशिश करते नीचे की तरफ गिरने लगी सोनू ने उसे सहारा दिया परंतु सुगना धीरे-धीरे जमीन पर बैठ गई…
कुछ दूर सोनू और सोनू को बातें करते वे देख रही महिलाएं भागकर सुगना की तरफ आई और उसे संभालने की कोशिश करने लगी सुगना के मुंह पर पानी के छींटे मारे गए और सुगना ने एक बार फिर अपनी चेतना प्राप्त की कलेजा मुंह को आ रहा था और आंखों से अश्रु धार फूट रही थी..
उसे सरयू सिंह का प्यार भरपूर मिला था एक ससुर के रूप में भी, एक प्रेमी के रूप में भी और बाद में एक पिता के रूप में भी…
सुगना को अंदर ही अंदर ही अंदर यह बात खाए जा रही थी कि आज सरयू सिंह की अकाल मृत्यु के पीछे कहीं ना कहीं कारण वह स्वयं थी…
सुगना पथराई आंखों से सरयू सिंह की चिता को धधकते हुए देख रही थी। जिसे अब तक उसके जीवन को एक खूबसूरत आयाम दिया था और सूरज के रूप में जीने का आधार दिया था वह यह लोग को त्याग कर परलोक की तरफ जाने के लिए हवा में विलीन हो रहा था।
सरयू सिंह के साथ बिताए गए पाल एक-एक करके उसकी आंखों के सामने घूम रहे थे …सरयू सिंह के साथ बिताए गए वह अंतरंग दृश्य पर अब उसे पाप स्वरूप प्रतीत हो रहे थे सोनू की बातें उसके दिमाग में हथौड़े की तरह प्रहार कर रही थी सरयू सिंह उसके पिता थे यह बात वह पचा ना पा रही थी आखिरकार जिस के साथ उसने प्यार और वासना का खेल जी भर कर खेल हो वह उसका पिता कैसे हो सकता था पर सुगना को क्या पता था वह स्वयं नियत के हाथों की एक कठपुतली थी….
सोनू कभी चिता को देखता कभी सुगना को…सुगना को इतना व्यग्र उसने कभी ना देखा था.
श्मशान घाट पर भीड़ धीरे-धीरे घट रही थी ज्यों ज्यों चिता कि अग्नि धीमी पड़ती गई शमशान घाट की भीड़ भी छटती गई।
चिता की आग शांत होते होते सरयू सिंह जैसा अद्भुत व्यक्तित्व और अद्भुत काया का धनी व्यक्ति हड्डियों के चंद टुकड़ों में तब्दील हो चुका था सुबकते हुए सोनू ने सरयू सिंह की अस्थियों को अस्थि कलश में एकत्रित किया और अपनी सुगना तथा परिवार के साथ थके हुए कदमों से वापस घर की तरफ चल पड़ा।
जहां सोनू और सुगना जा रहे थे वहां जाने का मन न तो सुगना का था और सोनू का। सलेमपुर का वह घर सरयू सिंह के बिना अधूरा था। सुगना के पैर तो जैसे पत्थर हो गए एक एक कदम पहाड़ जैसा लग रहा था सोनू बार-बार सुगना को आश्वस्त करता परंतु उसे सुगना और सरयू सिंह के बीच उन अंतरंग संबंधों की जानकारी न थी। सुगना अपराध बोध में और भी दब चुकी थी सोनी और सरयू सिंह के बीच जो हुआ था शायद वह एक और पाप था जिसकी भागीदार सुगना स्वयं बनी थी और शायद इसीलिए वह स्वयं को गुनाहगार मान रही थी। क्यों उसने सरयू सिंह को सोनी से मिलन के लिए तैयार किया? क्यों वह उम्र के इस अंतर को न समझ पाए तथा एक वृद्ध को इस अनावश्यक मिलन के लिए जिद कर तैयार किया और उनकी मृत्यु का कारण बनी।
नियति सुगना की मनोदशा समझ रही थी परंतु शायद सुगना उतनी गुनाहगार न थी जितना वह खुद को मान रही थी…
दरवाजे पर आहट हुई और सुगना अपनी यादों से बाहर आ गई सूरज घर में आ चुका था।
सुगना कई दिनों से सूरज को देख रही थी। उसका चुप रहना, आँखों में बसी उदासी और लोगों से दूरी बनाना उसे भीतर ही भीतर बेचैन कर रहा था। एक शाम जब सूरज आँगन में अकेला बैठा था, सुगना उसके पास आकर बैठ गई।
सुगना:
“बेटा, आजकल बहुत खामोश रहने लगा है। माँ से भी बात नहीं करेगा?”
सूरज (नज़रें झुकाते हुए):
“ऐसी कोई बात नहीं माँ… बस मन थोड़ा भारी रहता है।”
सुगना:
“मन ऐसे ही भारी नहीं हो जाता, सूरज। ज़रूर कोई बात है। पढ़ाई की चिंता है या भविष्य की?”
सूरज:
“सब ठीक है माँ… आप बेकार में परेशान हो रही हो।”
सूरज उठकर जाने लगा, पर सुगना ने उसका हाथ थाम लिया।
सुगना (नरमी से):
“माँ को टालना आसान होता है, पर उससे छुपाना मुश्किल। बता दे, क्या डर है तुझे?”
सूरज कुछ पल चुप रहा। उसके होंठ काँपने लगे।
सूरज:
“माँ, मुझे खुद पर भरोसा नहीं रहा। मुझे लगता है मैं दूसरों जैसा नहीं हूँ… मुझमें कोई कमी है।”
सुगना (चौंकते हुए):
“कमी? कैसी कमी, बेटा?”
सूरज (धीमी आवाज़ में):
“शारीरिक…वो अंदरूनी मैं खुद को कमजोर महसूस करता हूँ। सूरज चाहकर भी अपनी मर्दाना कमजोरी के बारे में खुलकर नहीं बोल पा रहा था।मुझे डर लगता है कि लोग क्या कहेंगे, भविष्य में मैं कैसे निभा पाऊँगा?”
कुछ क्षणों तक सन्नाटा छा गया। सुगना ने सूरज को अपने पास खींच लिया।
सुगना:
“बेटा, क्या इसी बात ने तुझे इतना तोड़ दिया?”
सूरज (रोते हुए):
“माँ, सब कहते हैं कि मर्द को मजबूत होना चाहिए। मैं हर रोज़ खुद को कमतर महसूस करता हूँ।”
सुगना (दृढ़ स्वर में):
“ इंसान की कीमत उसके चरित्र और साहस से होती है।
तू मेरा बेटा है—जैसा है, वैसा ही पूरा है। अपनी मां पर विश्वास रख समय आने दे तेरी यह समस्या भी दूर हो जाएगी ”
सूरज ने पहली बार हल्की राहत की साँस ली।
सूरज अभी खुलकर अपनी समस्या सुगना को बताने में असहजमहसूस कर रहा था पर उसे शायद यह नहीं पता था कि उसकी मां सुगना विशेष थी उसे इसका अंदाजा पहले से ही था।
उस दिन सूरज के मन का भारी बोझ कुछ हल्का हो गया। माँ के विश्वास और संवाद ने उसमें फिर से उम्मीद की किरण जगा दी। कम से कम उसकी मां उसे इस रूप अपनाने को तैयार थी और उसकी कमी को नजर अंदाज कर रही थी। पर सूरज बार-बार यह बात सोच रहा था की क्या सुगना उसकी मनोस्थिति और उसकी कमजोरी को पूरी तरह समझ रही है?
सुगना इतनी भी ना समझ नहीं थी उसे यह एहसास हो गया कि विद्यानंद की बातें असर दिखाने लगी है।
सूरज का भविष्य संवारने और सुरक्षित करने का वक्त आ रहा था। सुगना को विद्यानंद की कही बातें ध्यान आने लगी। सूरज शापित् था और जब तक वह अपने पवित्र रिश्ते को कलंकित नहीं करता तब तक वह सामान्य पुरुष की भांति अपना गृहस्थ जीवन शुरू नहीं कर सकता था।
उसे अपनी बहन या मां….के साथ…सम्भोग…...ओह …सु सुगना तड़प उठी। वह मुसीबत में फंस चुकी थी। शायद उसने जो पाप किए थे या उसका ही परिणाम था परंतु अब कोई उपाय शेष न था। सुगना अपनी पुत्री मधु के युवा होने का इंतजार कर रही थी उसे अपने कलेजे पर पत्थर रखकर इस पवित्र रिश्ते को स्वयं कलंकित करने के लिए प्रेरित करना था तभी वह उस घोर पाप से बच सकती थी।
उधर सूरज से रोजी की नजदीकिया बढ़ रही थीं।
रोज़ी को सूरज की आँखों में छुपा अपनापन हमेशा से महसूस होता था। वह जब भी उससे बात करता, शब्द कम और भाव ज़्यादा बोलते थे। सूरज भी रोज़ी को मन ही मन चाहता था, पर उसके दिल में एक डर दीवार बनकर खड़ा था। वह जानता था कि उसके भीतर जो कमी वह महसूस करता है, वही उसे पीछे खींच लेती है।
एक शाम दोनों ने साथ फिल्म देखने का निश्चय किया। सिनेमा हॉल की हल्की रोशनी, पर्दे पर चलती कहानी और आसपास बैठे लोगों की हलचल के बीच दोनों एक-दूसरे के काफ़ी पास थे। रोज़ी की उँगलियाँ अनजाने में सूरज की उँगलियों को छू गईं। वह स्पर्श बहुत हल्का था, पर सूरज के दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
रोज़ी (धीमे स्वर में):
“तुम हमेशा ऐसे दूर क्यों रहते हो, सूरज? पास होकर भी जैसे कहीं और होते हो।”
सूरज ने कुछ नहीं कहा। उसने बस हल्की-सी मुस्कान दी और नज़रें पर्दे पर टिकाए रखीं।
फिल्म के बीच, भावुक दृश्य आया। रोज़ी अनजाने में सूरज के कंधे पर झुक गई। उस पल सूरज के भीतर चाहत और डर की जंग शुरू हो गई। उसका मन चाहता था कि वह उस पल को थाम ले, पर उसका डर उससे ज़्यादा ताक़तवर था।
सूरज थोड़ा खिसक गया।
रोज़ी (हैरानी से):
“क्या मैंने कुछ गलत किया?”
सूरज (संभलते हुए):
“नहीं… बस थोड़ा असहज लग रहा है।”
रोज़ी ने उसे ध्यान से देखा। उसकी आँखों में ठंडापन नहीं था, बल्कि कोई छुपा हुआ दर्द था।
रोज़ी:
“तुम मुझे चाहते हो न?”
सूरज ने पल भर की चुप्पी के बाद सिर हिला दिया,
“हाँ… बहुत।”
रोज़ी:
“तो फिर ये दूरी क्यों?”
सूरज की साँसें भारी हो गईं। वह सच कहना चाहता था, पर शब्द गले में अटक गए। उसने धीरे से कहा,
“कभी-कभी इंसान खुद से ही लड़ रहा होता है।”
फिल्म खत्म हो गई, पर दोनों के मन में चल रही कहानी अधूरी रह गई। बाहर निकलते समय रोज़ी ने उसका हाथ थाम लिया। सूरज ने हाथ तो नहीं झटकाया, पर उसकी पकड़ ढीली थी—जैसे वह पास रहना चाहता हो, पर डर रहा हो।
रोज़ी (नरमी से):
“जब भी तुम तैयार हो, मैं सुनने के लिए यहीं हूँ।”
उस पल सूरज की आँखों में नमी आ गई। पहली बार उसे लगा कि प्यार सिर्फ़ पास आने का नाम नहीं, बल्कि किसी के डर को समझने का भी नाम है।
वह जानता था—दूरी उसकी चाहत की नहीं, उसकी मजबूरी की वजह से है। और शायद, एक दिन वह साहस भी आ जाएगा जब वह रोज़ी से सब कह पाएगा।
सबकी अपनी-अपनी समस्याएं थी सोनी भी विद्यानंद के शिष्य के प्रश्न से परेशान हो गई थी सरयू सिंह की मृत्यु में कहीं ना कहीं वह भी भागीदार थी। सोनी की आंखों से आज नींद गायब थी मखमली और कोमल बिस्तर भी उसे निद्रा सुख देने में नाकाम हो रहा था उसके दिमाग में बार-बार सरयू सिंह के साथ हुए घटनाक्रम याद आने लगे थे।
उसे आज भी वह दिन याद था जब वह अमेरिका से पहली बार भारत आई थी और उसने सरयू सिंह के मजबूत हाथों को अपनी गोरी और नंगी पीठ पर महसूस किया था। इससे पहले सरयू सिंह हमेशा माथे को छूकर आशीर्वाद दिया करते थे परंतु उसे दिन न जाने क्यों जो कुछ हुआ वह अलग था सरयू सिंह की मजबूत हथेलियां ने सोनी की नंगी पीठ को ना सिर्फ छुआ अपित सहला दिया सोनी ने जो महसूस किया वह निश्चित ही वासना जन्य था।
बात आई गई हो गई परंतु सोनी ने इतना तो नोटिस कर लिया की सरयू सिंह उस लेकर कुछ अलग ही सोचते हैं वह पहले भी कई बार उनकी निगाहों को अपनी बदन पर घूमते महसूस कर चुकी थी पर उनकी उम्र की वजह से वह इसे नजरअंदाज कर दिया करती थी परंतु जब से उसने साउथ अफ्रीकी में लंबे और मजबूत लंड का आनंद लिया था वो सरयू सिंह को भूल नहीं पा रही थी।
उसे वह दिन याद आ रहा था जब वह अमेरिका से आने के बाद सोनू और सुगना के साथ सलेमपुर जा रही थी तभी जाते-जाते कजरी ने सुगना से कहा
बाबूजी के बक्सा से उनकर दवाई ले ले आईहे पीयर कपड़ा में बांधल होई
सुगना ने चाबी ले ली सुगना और उसे इस बात का आश्चर्य अवश्य हो रहा था की सरयू सिंह ने अपने बक्से की चाबी इतनी आसानी से कजरी को कैसे दे दी। वह तो हमेशा उसे अपने साथ रखा करते थे।
सलेमपुर पहुंचकर सोनी ने इस घर से जुड़ी अपनी यादें ताजा की अमेरिका से वापस लौटी सोनी गांव के सभी बड़े बूढ़े और बच्चों के लिए एक अजूबा बन चुकी थी सोनी ने भी सुगना की ही भांति ढेर सारी मिठाइयां खरीदी और बच्चों में बांटने लगी। सोनी और सुगना दोनों में यह गुण सराहनीय था गांव के बच्चे हंसी-खुशी और पूरी आत्मीयता से सोनी और सुगना का स्वागत कर रहे थे।
सरयू सिंह के घर में महिलाओं का आवागमन बढ़ गया था कुल मिलाकर माहौल खुशनुमा था। इधर सोनी महिला महिलाओं के झुंड में अपने विदेश प्रवास की बातें बता रही थी उधर सुगना ने मौका देखकर सोनू के गर्दन का दाग जीवंत कर दिया। सुगना की यही अदा सोनू को बेहद पसंद थी वह उसे खुश करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती थी और सोनू भी उसकी बात डालने का साहस कभी नहीं करता था उनकी जोड़ी अनोखी थी।
धीरे-धीरे वापस चलने का वक्त आ गया सुगना सरयू सिंह के बक्से से दवाई लेना भूल गई उसने सोनी को चाबी देते हुए यह काम सौंप दिया और स्वयं लाली की मां से मिलने चली गई। सोनी ने सरयू सिंह की कोठी में प्रवेश किया यह वही कोठरी थी जिसमें उसने विकास के साथ रंगरलियां मनाई थी और उसकी लाल रंग की रेशमी पैंटी जल्दी बाजी में यही छूट गई थी और बाद में लाख खोजने पर भी नहीं मिली थी।
सरयू सिंह का बक्सा सामने ही रखा था सोनी ने बक्सा खोल और वह पीली पोटली खोजने लगी परंतु यह क्या एक खूबसूरत लाल कपड़े में उसका ध्यान आकर्षित किया सोनी ने अपनी उंगलियों से वह कपड़ा उठाया उसके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा यह वही लाल पैंटी थी।
हे भगवान यह सरयू चाचा के बक्से में क्यों…सोनी न्यूज़ पेटी को उठाया और ध्यान से देखा उसमें जगह-जगह पर दाग लगे हुए थे सोनी अब विवाहित थी वो अब कपड़ों पर लगे दाग पहचानने लगी थी उसका कलेजा धक-धक करने लगा तो क्या सरयू चाचा …
इस कल्पना मात्र से की सरयू चाचा उसे को याद करते हुए उसकी पैंटी में स्खलित होते है.. सोनी गर्म होने लगी उसे यकीन नहीं हो रहा था परंतु प्रत्यक्ष को प्रमाण किया सोनी ने हिम्मत करके उसे पेटी को अपने नथुनों के करीब लाया अब भी उसके द्वारा प्रयोग किए गए इत्र की खुशबू कुछ कुछ उसके नथुनों तक पहुंच रही थी और साथ में वीर्य की एक अजब सी गंध।
वासना का आवेग घृणा को कम कर देता है। सोनी ने उस पेंटी की स्थिति से सरयू सिंह की मनोदशा काअंदाजा लगा लिया।
उसे सरयू सिंह पर तरस भी आ रहा था कैसे कोई अपनी पूरी युवावस्था तक बिना विवाहित रह सकता है। और किसी अविवाहित व्यक्ति द्वारा ऐसी कामुक कृत्य का किया जाना और स्वाभाविक नहीं था।
न जाने सोनी को क्या सूझा उसने अपना घाघरा उठाया और अंदर अपनी उंगलियों से अपनी पीली पेटी को नीचे खींचने लगी सोने के गदरए हुए कूल्हे अनावृत होने लगे धीरे-धीरे सोनी ने अपनी पीली पेटी को बाहर निकाल लिया।
सोनी ने ध्यान से देखा पिछले कुछ मिनट की उत्तेजना में ही पेटी का वह भाग गीला हो चुका था जो सोने की सुनहरी बुर को ढकने की कोशिश में लगा था।
सोनी मुस्कुराने लगी उसने सरयू सिंह की वासना में वह स्वयं घिर रही थी। उसने उसे पीली पेटी को सरयू सिंह के बक्से में डाल दिया उसकी होठों पर मुस्कुराहट आ गई उसने जानबूझकर सरयू चाचा के लिए एक कीमती उपहार रख छोड़ा । उसे पता था इसका हश्र भी उसकी लाल पेटी जैसा ही होना था परंतु वह सरयू सिंह को छेड़ना चाहती थी उसने उनकी चोरी पकड़ ली थी ।
सोनी ने वह गंदी लाल पैंटी को अपने हाथों से खींचा उसे झटकरा और फिर उसने अपने मन में कुछ सोचते सोचते मुस्कुराने लगी अचानक वह नीचे झुकी और उसने उस पेंटी को धारण कर लिया।
जैसे ही उस लाल पैंटी में सोनी की बुर को छुआ उसे ऐसा प्रतीत हुए जैसे सरयू सिंह के लंड ने उसकी बुर को छू लिया। सोनी सिहर उठी…सरयू सिंह के सूखे हुए वीर्य से उसे कोई घृणा नहीं थी। अपितु सोनी उस संवेदना को महसूस कर रही थी अचानक उसके मन में ख्याल आया काश इस सूखे हुए वीर्य में अब भी इतनी ताकत होती .. सोनी अब तक गर्भवती नहीं हो पाई थी और पिछले कई वर्षों से वह हर प्रयास कर रही थी।
सोनी की उंगलियां सरयू सिंह के वीर्य से सनी उस लाल पेटी को अपनी सुनहरी गुफा की ओर धकेलने लगी…
काश की वह सूखा हुआ वीर्य उसके गर्भ में एक जीवन का सृजन कर जाता….
शेष अगले भाग में..