भाग -71
" मैं उन्हें नहीं भूली उन्होंने ही मुझे खुद से दूर किया और अंतरंग होने के लिए मना किया"
" एक बात भली-भांति जान ले तुझे काम सुख तेरे किसी अपने से ही मिलेगा"
"क्या...क्या…"
सुगना प्रश्न पूछती रही परंतु कोई उत्तर ना मिला सुगना चौक कर बिस्तर से उठ गई..
किसी अपने से? यह वाक्यांश उसके दिलो-दिमाग पर छप से गए..
छी… ये कैसे हो सकता है। अचानक सोनी भागती हुई कमरे में आए और बोली दीदी
" तू सपना में बड़बड़ात रहलू हासब ठीक बानू?
"हा चल चाह पियबे"
अपना बिस्तर से उठी और सोनी के साथ रसोई घर में चली गई
नियति ने सुगना के भाग्य में क्या लिखा था। क्या जो सुगना अपने पुत्र सूरज के अभिशप्त होने और उसे उस अभिशाप से मुक्त करने के लिए अथक प्रयासों और मन्नतों के वावजूद पुत्री को जन्म न दे पाई थी वह क्या स्वयं अभिशप्त थी?
अब आगे
सलेमपुर मैं हुई पूजा के पश्चात सुगना और रतन करीब आ गए थे। उनका शारीरिक मिलन अक्सर होने लगा यद्यपि सुगना स्खलित ना होती परंतु वह स्खलित होने का भरपूर प्रयास करती उसे अब भी उम्मीद थी कि वह अपने पति रतन के साथ सुखद वैवाहिक जीवन व्यतीत कर पाएगी।
बनारस में सुगना के घर में अक्सर रंगरलिया मनतीं। उसकी बहन सोनी उन कामुक चुदाई की गवाह बनती। रतन धीरे धीरे सुगना से और खुलता गया और बिना सोनी की उपस्थिति की परवाह किए सुगना को दिन में भी चोद देता सोनी का ध्यान बरबस ही रतन और सुगना की कामक्रीड़ा पर चला जाता और वह तरुणी मचल जाती।
नियति ने उस में कामुकता पहले से भरी थी जो अब धीरे-धीरे परवान चढ़ रही थी। सुगना और रतन के मिलन और उनके बीच चल रही खुल्लम-खुल्ला चुदाई ने उसकी वासना को भडाका दिया और एक दिन ….
सोनी अपने नर्सिंग कॉलेज से बाहर निकल रही थी साथ में चल रही उसकी सहेली ने कहा
" सोनी देख गेट पर कौन खड़ा है हम लोग की तरफ ही देख रहा है "
सोनी ने अपनी निगाहें उठाकर देखा और अपनी सहेली से बोली..
"अरे वह मेरा दूर का रिश्तेदार है मुझे लेने आया है मैं चलती हूं"
सोनी की सहेली को यकीन ना हुआ आज से पहले उसने विकास को नहीं देखा था जब तक सहेली सोनी और विकास के संबंधों का आकलन कर पाती सोनी विकास की राजदूत पर बैठ चुकी थी.
सोनी समझदार थी वह राजदूत पर अपने दोनों पैर एक तरफ करके बैठी थी। सोनी की सहेली के मन में आ रहे प्रश्न शांत हो गए और मोटरसाइकिल गुररर गुर्रर्रर करती धुआं छोड़ते हुए आगे बढ़े गई.
मोटरसाइकिल पर बैठने की वजह से उसे हल्की ठंड लग रही थी और इस ठंड ने सोनी के मूत्राशय में मूत्र विसर्जन के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। वैसे भी सोनी आज शरारत के मूड में थी। उसने विकास के कान में कहा
"मुझे सुसु करनी है "
"अरे यहां कहां करोगी? सड़क पर वाहन आ जा रहे हैं"
"अरे किसी पगडंडी पर ले लो थोड़ी दूर जाकर खेत में कर लेंगे" सोनी वैसे भी खेतों में मूत्र विसर्जन करने की आदी थी उसे खुली हवा में मूत्र विसर्जन करना बेहद पसंद था।
"ओह तो तुम्हारी मुनिया को हवा खाने का मन है"
सोनी ने उसकी पीठ पर एक मुक्का मारा और मुस्कुराते हुए बोली
" जब तुम्हें सुसु आती है तब तो कहीं खड़े होकर कर लेते हो और मुझे ताने मार रहे हो"
विकास ने उत्तर न दिया अपितु अपनी मोटरसाइकिल एक पगडंडी पर मोड़ ली। कुछ ही दूर पर सरसों के पीले खेत लहलहा रहे थे। हरी चादर पर टंके पीले फूल बेहद आकर्षक प्रतीत हो रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे धरती ने कोई बेहद सुंदर दुपट्टा ओढ़ रखा हो।
सोनी सरसो के खेत की तरफ बढ़ गई।। विकास सोनी के मादक शरीर को लहराते और सरसों के खेत की तरफ जाते देख रहा था। सोनी ने खेत के करीब जाकर पीछे पलट कर देखा विकास एक टक उसे देखे जा रहा था। सोनी ने अपने हाथों से इशारा कर उसे पीछे पलटने को कहा और विकास में अपनी दोनों आंखों पर अपनी हथेलियां रखकर खुद को पीछे घुमा लिया।
सोनी मुस्कुराते हुए अपने सलवार का नाडा खोल रही थी। मन ही मन वह चाह रही थी कि विकास पलट कर उसे देखें और वह एक बार फिर पलटी उसकी निगाहें विकास से टकरा गई जो एक बार फिर सोने की तरफ देख रहा था सोनी मुस्कुराते हुए मुड़ गयी और मन ही मन साहस जुटाकर अपने दोनों मदमस्त नितंबों को खुली हवा में लहराते हुए नीचे बैठ गई .
जाने सोनी की मनोदशा में क्या था? वह अपनी पीठ विकास की तरफ की हुई थी। जबकि उसे विकास की तरफ अपना चेहरा रखना चाहिए था ताकि वह विकास पर नजर रख सकें। परंतु शायद लड़कियों को योनि को छुपाना ज्यादा तर्कसंगत सकता है बनिस्बत अपने नितंबों के….
विकास भी शरारती था वह पलट चुका था और सोनी के नंगे नितंबों को नीचे आते देख रहा था। एक पल के लिए उसकी आंखों ने सोनी के गोरे नितंबों के बीच काला झुरमुट देख लिया सोनी की कुंवारी बुर की पतली लकीर उस कालिमां में खो गई थी।
जब तक की सोनी अपने नितंब नीचे कर पाती मूत्र की धार निकल पड़ी। मंद मंद बहती बयार ने उस मधुर संगीतमय ध्वनि ..शी….सू….सुर्र्रर्रर को विकास के कानों तक पहुंचाया जो पूरे ध्यान से सोनी को देख रहा था।
सोनी ने अपनी कमीज के पिछले भाग को जमीन से छूने से बचाने के लिए उसे अपने पेट की तरफ मोड़ लिया था और अनजाने में ही अपने नितंबों को विकास की नजरों के सामने परोस दिया था।
विकास ललच रहा था वह उन नितंबों को अपने हथेलियों से छूने के लिए लालायित था।
सोनी मूत्र विसर्जन कर चुकी थी। नीचे बड़ी हुई घास उसकी बुर के होठों से छू रही थी और उसके शरीर में एक अजब सी सनसनी पैदा कर रही थी। सोनी कभी अपने नितंबों को उठाती और अपनी बुर को उन घासों से ऊंचा कर लेती परंतु कुछ सी देर में वह वापस अपनी बुर को घांसों से छुआते हुए उस अद्भुत उत्तेजना का आनंद लेती। बड़ी हुई घांस कभी उसकी बुर को कभी उसकी कसी हुई गांड को छूती।
यह संवेदना एक अलग किस्म की थी सोनी उसके आनंद में खो गई।विकास भी अपनी पलकों को बिना झुकाए यह मधुर दृश्य देख रहा था हल्की हल्की बह रही हवा सोनी के बुर में ठंडक का एहसास करा रही थी जो मूत्र विसर्जन में भीग चुके थे।
कभी-कभी कुछ घटनाएं अप्रत्याशित होती हैं। आकाश में छाए तितर बितर हल्के बादल अचानक कब सघन हो गए विकास और सोनी को यह एहसास तब हुआ जब आसमान पर चमकदार धारियां खींच गई जिन की रोशनी धरती पर भी दिखाई पड़ी। दिन के उजाले में भी यह चमक स्पष्ट थी। कुछ ही देर बाद बादलों के कड़कने की आवाज ने सोनी को डरा दिया वह झटपट उठ खड़ी हुई और विकास की तरफ पलटी। सोनी यह भूल गई कि उसकी सलवार अभी भी नीचे थी। जब तक वह संभल पाती जांघों के बीच का वह मनमोहक त्रिकोण विकास की निगाहों में आ गया।
सोनी ने विकास की नजरों को ध्यान से देखा जो उसकी जांघों के बीच थी।
सोनी ने झटपट अपनी सलवार ऊपर की और भागते हुए विकास के पास आ गयी।
"जल्दी भागो यहां से लगता है बारिश होगी"
"हां हां बैठो"
जब तक सोनी मोटरसाइकिल के पीछे बैठती बारिश प्रारंभ हो गयी। छोटी-छोटी बूंदे कब बड़ी हो गई पता भी न चला इतनी जबरदस्त बारिश की कुछ ही मिनटों में दोनों युवा प्रेमी पूरी तरह भीग कर लथपथ हो गए।
विकास और सोनी बारिश से बचने के लिए कोई आसरा ढूंढने लगे। कुछ ही दूर पर उन्हें एक ट्यूबवेल का कमरा दिखाई पड़ा जिसके आगे छप्पर लगा हुआ था विकास ने अपनी मोटरसाइकिल रोड के किनारे खड़ी की और दोनों भागते हुए उस छप्पर के नीचे आ गए।
"बाप रे कितनी जबरदस्त बारिश है तुम तो पूरी भीग गई" विकास ने सोनी के युवा बदन पर नजरें फिराते हुए कहा ।
बारिश की वजह से कपड़ा भी सोनी के बदन से चिपक गया था और सोनी के शरीर के उभार और कटाव स्पष्ट दिखाई पढ़ने लगे थे। सोनी ने जब यह महसूस किया उसने अपने कपड़ों को अपने शरीर से अलग करने की कोशिश की। परंतु गीले होने की वजह से कपड़े पुनः सोनी के शरीर से चिपक गए। सोनी ने अपने हाथों से अपनी समीज का निचला भाग निचोडने की कोशिश की और बरबस ही अपनी सलवार के पीछे का भाग विकास को दिखा दिया विकास सोनी के पास गया और बोला..
"यहां दूर-दूर तक कोई नहीं है और इस मूसलाधार बारिश में किसी के आने की संभावना भी नहीं है तुम अपने कपड़े खोल कर सुखा लो" यह देखो रस्सी ही बंधी है
नियति ने सोनी का ध्यान छप्पर के नीचे बंधी हुई रस्सी पर केंद्रित किया। ऐसे तो सोनी अपने कपड़े उतारने के लिए कभी तैयार ना होती परंतु छप्पर के नीचे दबी रस्सी को देखकर उसे यह भाग्य का खेल नजर आया और वह अपने कपड़े सुखाने की सोचने लगी। परंतु क्या वह विकास के सामने नग्न होगी"
यह संभव न था उसमें विकास से कहा कि
"मैं अपने कपड़े कैसे उतारूं? यहां पर तो तुम भी हो"
" मैं अपनी आंखें बंद कर लेता हूं"
" तो क्या 1 घंटे तक अपनी आंखें बंद किए रहोगे? " सोनी ने हंसते हुए पूछा.
अचानक विकास में अपने गले में बाधा गमछा निकाला और उसे रस्सी पर टांगता हुआ बोलो
"लो तुम उस तरफ खड़ी हो जाना और मैं इस तरह अब तो ठीक है"
सफेद गमछा जो पानी में भीग चुका था परंतु फिर भी आग और फूंस के बीच एक आवरण देने के प्रयोग में लाया जा रहा था। नियति मुस्कुरा रही थी और सोनी अपने कपड़े उतार रही थी।
कुछ ही देर में काली पेंटी में सोनी की कुंदन काया चमकने लगी। परंतु उसके दर्शन झोपड़ी की छत से चिपकी हुई छिपकली ने किए कि जो स्वयं इस अप्रत्याशित मौसम के बदलाव से दुखी थी। यह कहना मुश्किल है की कौन ज्यादा डरा हुआ कौन था सोनी या वह छिपकली परंतु किसी अप्रत्याशित घटना का डर दोनों के चेहरे ही देखा जा सकता था।
स्वयं को विकास के गमछे के पीछे छुपाए हुए सोनी ने अपने कपड़े रस्सी पर टांग दिए । उसने कपड़ों को भली भांति में डाल दिया ताकि हवा के झोंके से वह जल्दी ही सूख जाएं।
परंतु हवा का झोंका जहां कपड़ों को सुखा रहा था वही सोनी के शरीर में सिहरन पैदा कर रहा था। उसने अपने दोनों हाथ से अपनी चुचियों से सटा लिए थे और स्वयं को कुछ गर्मी देने का प्रयास कर रही थी।
पानी में भीगी कटीली सोनी की सुंदर और कमनीय काया को विकास की नजरों से एक झीने पर्दे की दूरी पर थी । सोनी के शरीर का कटाव और उभार के एहसास ही उसके लंड को खड़ा करने के लिए काफी था।
पर्दे के पीछे उसकी प्रेमिका लगभग नग्न अवस्था में अपनी चूचियां समेटे खड़ी हुई थी। एक पल के लिए विकास के मन में आया कि वह यह गमछा हटा दे परंतु वह सोनी को दिया वादा न तोड़ना चाहता था। परंतु आज नियति उन दोनों को मिला देना चाहती थी। हवा का एक और झोंका आया और गमछा लहरा गया। दो प्रेमी एक अर्धनग्न और एक लगभग पूर्ण लगन एक दूसरे के सामने खड़े थे। रही सही कसर बिजली के कड़कने ने पूरी कर दी और सोनी विकास के आलिंगन में आ गयी।
जब तक बिजली कड़कती रही विकास की हथेलियां सोनी की पीठ पर अपना कसाव बढ़ाती रहीं। और जब तक बादलों की गड़गड़ाहट कम होती सोनी के अंतर्मन में उत्तेजना और डर दोनों में द्वंद हुआ और विजय उत्तेजना की हुयी।
विकास ने होठों ने सोनी के कंपकपाते होठों को छू लिया। होठों पर चुंबन की प्रगाढ़ता बढ़ती गई सोनी की मुह में गुलाबी गहराइयों के बीच विकास की जीभ जगह बनाने लगी।
चुंबन भी एक अजीब कला है जब प्रेमी और प्रेमिका पूरे मन से चुंबन करते हैं तो चुंबन की गहराई बढ़ती जाती यही हाल सोनी और विकास का था उन दोनों में प्यार की कमी न थी। इस प्यार में भी वासना ने अपनी जगह तलाश ली थी । यह स्वाभाविक भी था। विकास के हाथ लगातार सोनी की निचली गोलाइयों को सहला रहे थे और उंगलियां सोनी की बुर की तलाश में लगातार अंदर की तरफ बढ़ रही थीं।
विकास को अपने गीले पैंट के अंदर तने हुए लंड का एहसास हुआ और उसमें अपने हाथ से उसे आजाद कर दियाम सोनी के हाथों को अपने लंड पर ला कर उसने अपनी उंगलियां सोनी की पैंटी में फंसा धीरे धीरे सोनी की पैन्टी को नीचे करता गया।
चुम्बन में खोई हुई सोनी अपने नग्न होने का एहसास तो कर रही थी पर न तो वह प्रतिकार कर पा रही थी और न हीं विकास के हाथों को रोकने की कोशिश।
विकास धीरे-धीरे सोनी को ऊपर की तरफ खींच रहा था और अपनी कमर को नीचे की तरफ। उसका तना हुआ लंड सोनी के हाथों में था परंतु उसका सुपाड़ा सोनी की नाभि के नीचे उसके पेडु पर दस्तक दे रहा था। अचानक उसने सोनी को ऊपर खींचा और लण्ड ने सोनी के भग्नासे को छू लिया।
पनियायी बुर ने लण्ड के सुपारे को खींचने की कोशिश की पर सोनी के कौमार्य और बिना चुदी बुर के कसाव ने अपना प्रतिरोध कायम रखा। बुर को अपने लंड से छूते ही एक पल के लिए विकास को लगा जैसे उसने जन्नत छू ली। यदि थोड़ा समय वह उसी अवस्था में रहता तो झटका देकर उसका लंड पहली बार बुर में प्रवेश कर गया होता परंतु ऐसा ना हुआ।।
कुवारी सोनी ने अपनी उत्तेजना पर काबू पाया और विकास को दूर ढकेलते हुए बोली।
"यह सब शादी के बाद" एक पल के लिए सोनी अपने सामान्य रूप में आ गई उसकी उत्तेजना पानी के बुलबुले की तरह फूट कर विलुप्त हो गयी।
उसने अपने हाथों से अपनी चड्डी ऊपर की और स्वयं को विकास से दूर कर वापस गमछे को दोनों के बीच कर लिया। विकास के उतरे हुए चेहरे को देख उसने विकास को आश्वस्त करते हुए कहा
"बस कुछ दिन की बात है हम लोग शादी कर लेंगे और फिर यह खजाना तुम्हारा….. जी भर कर कर लेना"
विकास का मूड खराब हो चुका परंतु वह सामान्य होने की कोशिश कर रहा था उसने सोनी को छेड़ते हुए कहा
"क्या कर लेना?"
"वही जो हमेशा चाहते हो"
" क्या साफ-साफ बताओ ना?"
सोनी अपने होंठ उसके कान के पास ले गई। उस ने मुस्कुराते हुए कहा
"चो……...द लेना" वह कह कर शर्मा के पीछे मुड़ गयी। विकास ने एक पल की भी देर ना की। उसने अपने हाथ आगे किये और अपने हांथ आगे कर सोनी की चुचियों को पकड़ लिया और अपने तने हुए लंड को उसके नितंबों से सटा दिया और मुस्कुराते हुए बोला
"मेरी जान अभी कर लूं शादी ?"
"हट पागल "
कुछ देर दोनों प्रेमी प्रकृति की बारिश और कामुक्त बदनों से स्पर्श सुख की उत्तेजना का आनंद लेते रहे परंतु न उनकी हसरत पूरी हुई और न पाठकों की।
नियति के लिए अभी भी सुगना ही महत्वपूर्ण थी जो रतन की कामुकता का शिकार होकर डॉगी स्टाइल में गचागच चुद रही थी। तीनों बच्चे सूरज मधु और मालती बाहर हाल में खेल रहे थे वह बार-बार आकर दरवाजे पर दस्तक देते और सुगना धीमे से पुकारती
"रुक जा बाबू आवतानी" उसकी आवाज में एक अलग किस्म की लहर थी जो निश्चित ही रतन की बेतरतीब चुदाई कारण उत्पन्न हो रही थी। रतन पूरी ताकत से चोदते हुए स्खलित हो रहा था और सुगना हमेशा की भांति एक बार फिर तड़प रही थी और लाख कोशिशों के बावजूद एक बार फिर फेल हो गयी थी। उसकी फूल जैसी बुर बार बार मर्दन की शिकार होती पर उससे अमृत रूपी स्खलन का रस न मिल पाता।
दिन बीतते गए और सुगना काम सुख से दूर होती गयी। जिस कोमलांगी ने सरयू सिंह के साथ कामकला के सारे सुख भोगे थे वह धीरे-धीरे अपनी कामुकता में ठहराव आते हुए महसूस करने लगी।
अब उसका न तो चुदवाने का मन होता और नहीं कामुक अठखेलियाँ करने का। विरक्ति बढ़ रही थी और वह रतन के करीब रहते हुए भी दूर दूर रहने लगी। रतन ने यह बात महसूस की परंतु वह क्या करता है वह नियति के खिलाफ न जा सकता था उसके लाख प्रयास भी सुनना को चरम सुख से दूर रखते।
सुगना ने अंततः एक दिन और चुदने से मना कर दिया। रतनपुरी तरह हताश और निराश हो गया वह इस बात से बेहद क्षुब्ध था कि वह सुगना को चरम सुख ना दे पाया था यद्यपि उसमें रतन की कोई गलती न थी वह तो निष्ठुर नियति के हाथों का एक छोटा सा खिलौना था।
उसका दिलो-दिमाग उसे लगातार कोसता ना उसका काम धाम में मन लगता और नहीं बच्चों में। परिस्थितियों से क्षुब्ध हुआ मनुष्य किसी भी दिशा में जा सकता दिमाग के सोचने समझने की शक्ति निराशा में और कम हो जाती है। एक दिन आखिरकार वही हुआ जिसका डर था….
शेष अगले भाग में...