भाग 82
उधर सुगना लाली की शरारत और खुले आमंत्रण को बखूबी समझ रही थी पर वो अपनी लज्जा और आज रक्षाबंधन की पवित्रता को नजरअंदाज न कर पाई और वह अपने कमरे में खड़ी रही…
"सुगना दीदी….. ऊ काहे आइहें…?" सोनू ने अपने मुंह से सुगना का नाम लिया और उधर सोनू के लंड ने लाली के गर्भाशय को चूमने की कोशिश की शायद यह सुगना के नाम का असर था…
सोनू यही न रूका उसने अपनी चूदाई की रफ्तार बढ़ा दी…और कमरे में थप थप …थपा… थप की आवाज गूंजने लगी लाली की जांघें सोनू की जांघों से टकरा रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सोनू सुगना को बुलाने का पूरा प्रयास कर रहा था… पर सुगना अपनी धड़कनों को काबू में करने का प्रयास कर रही थी.. पर मन में कशमकश कायम थी…दिमाग के निर्देशों को धता बताकर चूचियां तनी हुई थीं और बुर संवेदना से भरी लार टपका रही थी…
शेष अगले भाग में…
सुगना अपनी आंखें बंद किए अंदर के दृश्य देख रही थी और उसके कानों पर पड़ रही वह सुनहरी थाप उसे और भी मदहोश किए जा रही थी। सोनू अधीर होकर लाली को चोद रहा था और अपनी बड़ी बहन को उस कामुक दृश्य देखने के लिए अनोखे अंदाज में आमंत्रित कर रहा था।
परंतु सुगना खड़ी रही…लग रहा था जैसे उसने अपनी वासना पर विजय प्राप्त कर ली हो…. उसी समय छोटा सूरज सुगना के पास आ गया…
मां… मां… कर वह सुगना के पैरों से लिपटने लगा.. सुगना ने उसे अपनी गोद में उठा लिया ।
यद्यपि अपने पुत्र का यह व्यवधान उसे रास ना आया परंतु सूरज जो उसके कलेजे का टुकड़ा था उसे वह किसी भी परिस्थिति में दुखी नहीं कर सकती थी।
न जाने आज सूरज को क्या हुआ था सुगना की गोद में आने पर वह सुगना की चुचियों को छूने का प्रयास करने लगा… वह बार-बार सुगना से दूधू पीने का अनुरोध करने लगा…. सुगना लाली और सोनू के प्रेम प्रसंग में इतनी खोई थी कि उसने सूरज की बात न टाली और पास पड़े बिस्तर पर लेटकर अपनी चूचियां उसे पकड़ा दी पर मन के तार सोनू और लाली के कमरे में जुड़े रहे। सुगना की चूचियां उत्तेजना से पूरी तरह सख्त हो चुकी थी… सूरज के होठों में सुगना के निप्पलों से दूध निकालने की कोशिश की परंतु असर कुछ और हो रहा था।
ऐसा लग रहा था जैसे काम रस वात्सल्य रस पर हावी था। दिमाग में नंगी लाली की चूदाई घूम रही थी। उत्तेजना ने सुगना को अपने आगोश में ले लिया था..आज सुगना अपने ही पुत्र द्वारा अपनी चुचियों के चूसे जाने से उत्तेजित हो रही थी……
सरयू सिंह का पुत्र सूरज …अनजाने में ही सरयू सिंह की अनूठी पुत्री अपनी बहन की चूचियों को रखाबंधन के पवित्र दिन चूस रहा था..
विद्यानंद की बातें मूर्त रूप ले रही थी…
दरअसल सूरज बड़ी मासूमियत से दूध निकालने का प्रयास कर रहा था….. उस अबोध को चुचियों का जादू अभी पता न था।
नियति मुस्कुरा रही थी….. रक्षाबंधन के दिन सोनू सुगना को याद कर लाली को चोद रहा था और सुगना का पुत्र जो दरअसल उसका भाई था उसकी चूचियों से से खेल रहा था….. सूरज के छोटे-छोटे पैर सुगना की जांघों के बीच टकरा रहे थे । संवेदनशील हो चुकी बुर को वह स्पर्श बेहद आनंददायक लग रहा अनजाने में ही सही आज सूरज की हरकतें उसकी उत्तेजना को और बढ़ा रही थी।
उधर लाली और सोनू का मिलन अब अंजाम तक पहुंचने वाला था। कमरे में आ रही कामुक मिलन को थाप अब मध्यम हो चली थी। सुगना अपने कान लगातार उस कमरे में लगाए हुए थी।
एकाग्रता आवाज की तीव्रता को बढ़ा देती है। मिलन की थाप तीव्र होती गई और उसका समापन सोनू की मदहोश कर देने वाली कराह से हुआ
दीईईईई ….. दीईइ………
सुगना तड़प उठी…
सोनू और लाली दोनों स्खलित हो रहे थे। उत्तेजना के बादल शांत होकर वर्षा का रूप ले चुका था…और उस बारिश में सोनू की लाली भीग रही थी।
जिन बादलों को सुगना ने आमन्त्रित किया था उनकी वर्षा का आनंद लाली ले रही थी।
सोनू के लंड से निकलने वाली धार लाली को भिगोने के बाद अब बूंद का रूप ले रही थी। सोनू के मन में निराशा थी सुगना खिड़की पर ना आई परंतु उसका लंड पूरी तरह तृप्त था आज कई महीनों बाद उसे मखमली गोद में स्खलित होने का अवसर प्राप्त हुआ था।
उसे सुगना के बुर के मखमली बुर के एहसाह का अता पता न था परंतु जहा वह था वह सोनू के कठोर हाथों से लाख दर्जे अच्छा था…
उधर कमरे में सोनू की धौंकनी जैसी चल रही सांसों से सुगना ने उसके स्खलन का अंदाजा लगा लिया… और उसके उछलते और वीर्य वर्षा करते लंड की कल्पना कर मदहोश होने लगी.. उसे पुराने दिन याद आने लगी जब वह सरयू सिंह के उछलते हुए लंड को अपने छोटे हाथों से पकड़ने का प्रयास करती परंतु असफल रहती और लंड एक जिंदा मछली की भांति सुगना के हाथों से कभी छूटता वह उसे फिर पकड़ती परंतु खुद को श्वेत धवल वीर्य से भीगने से न रोक पाती।
इन उत्तेजक यादों ने और सोनू के इस स्खलन की कामुक कल्पना ने सुगना को स्खलन की कगार पर ला दिया…
इधर सूरज सुगना की स्थिति से अनजान अभी दूध की तलाश में था उसने सुगना की चुचियों पर अचानक अपने दांतो का दबाव बढ़ा दिया और सुगना कराह उठी "बाबू……. तनी धीरे से दुखाता"
सुगना स्वयं अपनी मादक कराह से अतिउत्तेजित हो गई…
सुगना ने अपनी जांघें अपने पेट से सटाने की कोशिश की और सूरज का पैर उसकी भग्नासा पर छूने लगा। सुगना से और बर्दाश्त न हुआ उसकी जांघें ऐंठने लगी पेट में हल्की मरोड़ हुई और सुगना की बुर ने संकुचन प्रारंभ कर दिए..प्रेमरस छलकने लगा…अतृप्त सुगना तृप्त हो रही थी सूरज, सुगना की चुचियों से दूध लाने में नाकामयाब रहा पर उसने अनजाने में ही सुगना को प्रेमरस से भर दिया था जो इस समय उसकी जांघों के बीच मुस्कुराती करिश्माई बूर से रिस रहा था..
सुगना ने सूरज को खुद से अलग किया और बोला
बाबू ….अब बस हो गईल.
स्खलन का सुख अनूठा होता है …घर के तीनों युवा सोनू, सुगना और लाली यह महसूस कर रहे थे परंतु सोनू के मन में सुगना के खिड़की पर ना आने की कसक रह गई थी।
उसी दौरान सोनी और बच्चों के आने की आहट हुई
लाली घबरा गई और आनन-फानन में अपना सूट उल्टा पहन कर कमरे से बाहर निकल गई। वह सीधा बाथरूम में घुस गई। ऊपर वाले का लाख-लाख शुक्र था सोनी ने लाली को सोनू के कमरे से निकलते देखा तो जरूर परंतु वह लाली के उल्टा सूट पहनने को देख ना पाई।
सोनू ने बेमन से अपनी बनियान और लुंगी पहनी और बिस्तर पर लेट कर पंखे को देखने लगा जो बेहद तेजी से घूम रहा था सोनू को अपनी जिंदगी भी इसी तेजी से घूमती प्रतीत हो रही जितने उम्मीदें और सपने वह संजो कर आया था वह टूट रहे थे…
सोनू ने अपने मन में जितनी कल्पनाएं की थी आज कुदरत ने उसका साथ न दिया था। सुगना को दिखाकर लाली को बेहद उत्तेजक तरीके से चोदने की उसकी योजना नाकामयाब रही थी। सुगना का खिड़की पर ना आना सोनू की कल्पना पर एक कुठाराघात जैसा था।
सोनी बाजार से समोसे लेकर आई थी जैसे ही वह सोनू को समोसा देने के लिए उस कमरे में गई …कमरे में फैली काम रस की सुगंध उसके नथुनो से टकराई। अब तक सोनी इस सुगंध से भलीभांति वाकिफ हो चुकी थी परंतु सोनू भैया के कमरे से इस सुगंध का आना सोनी को आश्चर्यचकित कर रहा था क्या सोनू भैया ने हस्तमैथुन किया था?? सोनी इससे ज्यादा न सोच पाई।
सोनू ने जो किया था जो कर रहा था और जो सोच रहा था वह सोनी ख्वाबों में भी नहीं सोच सकती थी वह उस सुगंध को नजरअंदाज कर समोसे निकालने लगी। उसने वहीं से सुगना और लाली को भी आवाज दी और कुछ ही देर में सोनू अपनी तीनों बहनों के साथ समोसे खाने लगा। सब आपस में बातें कर रहे थे पर जो सबसे ज्यादा बातें करते थे वह दोनों चुप थे। सोनू सुगना एक-दूसरे से नजरें नहीं मिला रहे थे।
अपने अवचेतन मन में किए गए इस कामुक अपराध से दोनों भाई बहन ग्रस्त थे खासकर सुगना।
सोनू उदास होकर बाहर घूमने चला गया और सोनू की बहने एक बार फिर सोनू के लिए शाम का खाना बनाने में लग गई।
सोनी को बच्चों के साथ खेलने में ज्यादा मजा आता था वह एक बार फिर बच्चों के बीच आ गई और लाली एवं सुगना रसोई में खाना बनाने लगी। सोनी के विकास को याद किया और एक बार फिर उसने प्यारे सूरज के अंगूठे को सहला दिया….और फिर क्या ...सूरज अपनी मौसी के बाल खींच कर …….उसके होंठो को सही जगह ले आया। सोनी खुश थी …जिस दंड को उसने स्वयं चुना था वो उसका आनंद लेने लगी..
रसोई में सुगना ने लाली को छेड़ा और बोला
" तोरा एकदम लाज ना लागेला आज राखी के दिन रहे ते आजो सोनूवा के परेशान कईले हा.."
"अरे वाह ढेर अपना भाई के पक्ष मत ले। हम परेशान कईनी हां? आज त उहे ढेरे बेचैन रहे एकदम थका देले बा"
"ई काहे…?" सुगना में मासूमियत से पूछा
सोनू के साथ संभोग के दौरान लाली ने जान लिया था सोनू के मन में सुगना के प्रति कुछ ना कुछ कामुक भावनाएं अवश्य थीं । उसे इस बात का अंदाजा न था कि पिछली बार सोनू और सुगना की नजरें उस कामुक संभोग के दौरान मिल चुकी थी।
जब जब सुगना का नाम आता सोनू का मन प्रफुल्लित हो उठता और सोनू की पकड़ में एक अद्भुत कसाव आ जाता। यह अंतर लाली स्पष्ट रूप से महसूस कर पा रही थी। उसने एक दो नहीं अपितु कई बार सुगना का नाम लेकर सोनू को उत्तेजित करने में मदद की थी और उसका असर बखूबी धक्कों की रफ्तार उसके लंड की उछाल के रूप में महसूस किया था..
"अब तू टाइट सूट में मटक मटक के ओकरा सामने घुमाबु दे त का करी?"
"हट पागल कुछो बोलेले?
"आज ते आईल रहते द बड़का सिनेमा देखे के मिलीत। आज सोनू पूरा जोश में रहे"
"इ काहे…?"
" अनजान बनत बाड़े..आज राखी बांधत खानी आपन चूची काहे देखावत रहले..हमरा लगता तबे से गरमाइल रहे"
सुगना इस बात का बखूबी एहसास था और अब लाली ने वह बात कहकर सुगना को निशब्द कर दिया था..
सुगना ने लाली की पीठ पर मुक्का मारा और शरमाते हुए बोली ..
"हम काहे करब लाली सोनुआ हमर आपन भाई ह"
"ई हे त दुख बा…. काश सोनुआ तोर भाई ना होखित"
लाली का यह वाक्य सुगना के दिमाग में अब अक्सर गूंजने लगा था हकीकत को झुठला पाना इतना आसान न था परंतु कल्पनाओं का क्या उन पर तो सिर्फ मन का नियंत्रण होता है मन अपनी इच्छा और भावनाओं के अनुसार कल्पनाए संजोता है. सुगना की कल्पनाएं भी एक नई दिशा ले रही थीं।
अजीब कशमकश थी सूचना के मन में भी और सोनू के मन में भी परंतु दोनों के बीच जमी बर्फ रक्षाबंधन के इस त्यौहार ने और जमा दिया था… जिसका टूटना इतना आसान न था.
सोनू और लाली ने रात में एक बार फिर संभोग किया और लाली ने सोनू को उत्तेजित करने के लिए सुगना के नाम का बार बार प्रयोग किया सोनू भी सुगना के बारे में बातें कर अपनी कल्पना को आकार देता उसकी नग्न छवि को मन में संजोता और लाली को चोद कर अपने मन में उपज रही इस अनोखी वासना को शांत करने का प्रयास करता.. परंतु सुगना की उपस्थिति में लाली को चोदने का जो सुख उसे उस दिन प्राप्त हुआ था वह यादगार था और सोनू उस उत्तेजना के लिए तरस रहा था..
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उधर लखनऊ में एक शासकीय बंगले में काफी गहमागहमी थी घर के बाहर पुलिस वाले इकट्ठा हो चुके थे …अंदर से चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही थी.
एक पुलिस वाले ने कहा…
साहब मेम साहब पर फालतू बिगड़ते रहते हैं आज तो हद ही हो गई है क्या हम लोगों को अंदर जाना चाहिए
नौकरी से हाथ धोना है क्या? उनकी लड़ाई में दखल देना ठीक नहीं । दोनों पति पत्नी हैं जल्द ही शांत हो जाएंगे।
पुलिस वालों ने अंदर जाने की हिम्मत तो ना जुटाई परंतु दरवाजे से अपने कान सटा दिए…
"साली तू जितनी शरीफ दिखती है उतनी है नहीं न जाने कहां-कहां मुंह मारी होगी?"
वरिष्ठ अधिकारी से इस तरह की भाषा की उम्मीद कतई नहीं की जा सकती परंतु मनुष्य स्वभाव से जंगली होता है और आज यह जानने के पश्चात की मनोरमा ने किसी और के साथ भी संभोग किया था सेक्रेटरी साहब पूरी तरह आग बबूला थे।
मनोरमा का भी गुस्सा आसमान पर था.
हां मैंने किया है पर मैं रंडी नहीं हूं खबरदार जो मेरे बारे में अपशब्द कहा…
"तो मुझे बता ….पिंकी का पिता कौन है"
"क्यों आपको यकीन नहीं कि आप इसके पिता हैं?"
"पहेलियां मत बुझा साली मुझे पता है यह बीज तुम्हारे पाप का है" सेक्रेटरी साहब ने दांत पीसते हुए कहा..
"तुम्हें कैसे पता" मनोरमा के संबोधन भी अब सम्मान की भाषा छोड़ चुके थे।
सेक्रेटरी साहब ने कागज मनोरमा की तरफ उछालते हुए कहा..
"ये देख लो अपनी करतूत…"
मनोरमा ने वह रिपोर्ट उठाई और उसे सारा माजरा समझ में आ गया।
उसने पिंकी को देखा और उसके पास गई तथा उसे गोद में लेकर चूम लिया। जैसे वो अपने व्यभिचार से जन्मी पुत्री को मान्यता दे रही हो।
"हा यह आपकी पुत्री नही है…और एसी सुंदर बच्ची तुम्हारे जैसे नामर्द की हो भी नहीं सकती"
पिंकी वास्तव में एक खूबसूरत बच्ची थी फूल सी कोमल और चेहरे पर ढेर सारा प्यार लिए। मनोरमा की खूबसूरती और सरयू सिंह के तेज को संजोए हुए यह बच्ची अनोखी थी सबका दिल जीतने वाली और मन मोहने वाली।
मनोरमा की बात सुनकर सेक्रेटरी साहब भड़क गए और दनदनाते हुए कमरे से बाहर निकलने लगे।
बाहर दरवाजे पर कान लगाए पुलिस वाले तुरंत ही सावधान की मुद्रा में आ गए और सेक्रेटरी साहब को बड़ी तेजी से बाहर की तरफ जाते हुए देख रहे थे। बॉडीगार्ड ने दरवाजा खोला और सेक्रेटरी साहब अपना गुस्से से लाल चेहरा लिए एंबेसडर में बैठकर आगे बढ़ चले। शायद उन्होंने मन ही मन मनोरमा के साथ न रहने का फैसला कर लिया था।
मनोरमा पिंकी को गोद में लेकर चूम रही थी आज पिंकी के प्रति उसके प्यार में दोगुनी वृद्धि हो गई। यह जानने के पश्चात कि वह सरयू सिंह का अंश थी मनोरमा बेहद भावुक हो गई । सरयू सिंह के साथ किया गया उसका अकस्मात हुआ संभोग उसके जीवन की न भूलने वाली घटना थी। उत्तेजना को चरम पर ले जाकर स्खलित करने का जो सुख सरयू सिंह ने उसे दिया था वह आज तक उसे नहीं भूल थी। वो उस दिन को याद करने लगी…
बनारस महोत्सव के उस मंगल दिन वह बनारस महोत्सव के अपने कमरे में शरीर पोछने के बाद आ चुकी थी। उसकी नग्न सुंदर और सुडौल काया चमक रही थी। उसकी कद काठी सुगना से मिलती जुलती थी, पर शरीर का कसाव अलग था। उसका शरीर बेहद कसा हुआ था। शायद उसे मर्द का सानिध्य ज्यादा दिनों तक प्राप्त ना हुआ था और जो हुआ भी था उसकी काम पिपासा बुझा पाने में सर्वथा अनुपयुक्त था।
पूर्व भाग से पुनः मनोरंजन हेतु उद्धृत
"उसने जैसे ही आगे झुक कर अपना पेटीकोट उठाने की कोशिश की सरयू सिह ने दरवाजे पर एक हल्का सा धक्का लगा और दरवाजा खुल गया जो सुगना को खोजते हुए अंदर आ गए…
जब तक मनोरमा पीछे मुड़ कर देख पाती बनारस महोत्सव के उस सेक्टर की बिजली अचानक ही गुल हो गई।
परंतु इस एक पल में सरयू सिंह ने उस दिव्य काया के दर्शन कर लिए। चमकते बदन पर पानी की बच गई बूंदे अभी भी विद्यमान थीं ।
उधर सरयू सिंह के दिमाग में सुगना घूम रही थी। सुगना ने संभोग से पहले स्नान किया यह बात सरयू सिंह को भा गई। उन्होंने मन ही मन निर्णय कर लिया कि वह वह आज उसकी बूर को चूस चूस कर इस स्खलित कर लेंगे और फिर उसके दूसरे छेद का जी भर कर आनंद लेंगे।
कमरे में घूप्प अंधेरा हो चुका था सरयू सिंह धीरे-धीरे आगे बढ़े और अपनी सुगना की जगह मनोरमा को पीछे से जाकर पकड़ लिया। क्योंकि कमरे में अंधेरा था उन्होंने अपना एक हाथ उसकी कमर में लगाया और दूसरी हथेली से सुगना के मुंह को बंद कर दिया ताकि वह चीख कर असहज स्थिति न बना दे।
मनोरमा ने सरयू सिंह की धोती देख ली थी। जब तक कि वह कुछ सोच पाती सरयू सिंह उसे अपनी आगोश में ले चुके थे। वह हतप्रभ थी और मूर्ति वत खड़ी थी। सरयू सिंह उसका मुंह दबाए हुए थे तथा उसके नंगे पेट पर हाथ लगाकर उसे अपनी ओर खींचे हुए थे।
अपने नितंबों पर सरयू सिंह के लंड को महसूस कर मनोरमा सिहर उठी। उधर सरयू सिंह को सुगना की काया आज अलग ही महसूस हो रही थी अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उन्होंने अपनी हथेली को सुगना की चुचियों पर लाया और उनका शक यकीन में बदल गया यह युवती निश्चित ही सुगना नहीं थी। चुचियों का कसाव चीख चीख कर कह रहा था कि वह सुगना ना होकर कोई और स्त्री थी।
सरयू सिंह की पकड़ ढीली होने लगी उन्हें एक पल के लिए भी यह एहसास न था कि जिस नग्न स्त्री को वह अपनी आगोश में लिए हुए हैं वह उनकी एसडीएम मनोरमा थी। अपने नग्न शरीर पर चंद पलों के मर्दाना स्पर्श ने मनोरमा को वेसुध कर दिया था। इससे पहले कि सरयू सिंह उसकी चुचियों पर से हाथ हटा पाते मनोरमा की हथेलियों ने सरयू सिंह की हथेलियों को अपनी चुचियों पर वापस धकेल दिया। मनोरमा कि इस अदा से सरयू सिंह बेहद उत्तेजित हो गए। स्त्री शरीर की उत्तेजना और हाव-भाव से सरयू सिंह स्त्री की मनो स्थिति भांप लेते थे उन्होंने मनोरमा के कानों को चूम लिया और अपनी दोनों हथेलियों से उसकी चुचियों को सहलाने लगे।
प्रणय निवेदन मूक होता है परंतु शरीर के कामुक अंग इस निवेदन को सहज रूप से व्यक्त करते हैं। विपरीत लिंग उसे तुरंत महसूस कर लेता है।
मनोरमा की गर्म सांसे, तनी हुई चूचियां , और फूल चुके निप्पल मनोरमा की मनोस्थिति कह रहे थे। और मनोरमा की स्थिति जानकर सरयू सिंह का लण्ड उसके नितंबों में छेद करने को आतुर था।
सरयू सिंह एक हाथ से मनोरमा की चूँचियों को सहला रहे थे तथा दूसरे हाथ से बिना किसी विशेष प्रयास के अपने अधोभाग को नग्न कर रहे थे।
उनका लण्ड सारी बंदिशें तोड़ उछल कर बाहर आ चुका था। उन्होंने शर्म हया त्याग कर अपना लण्ड मनोरमा के नितंबों के नीचे से उसकी दोनों जांघों के बीच सटा दिया। मनोरमा उस अद्भुत लण्ड के आकार को महसूस कर आश्चर्यचकित थी। एक तो सरयू सिंह का लण्ड पहले से ही बलिष्ठ था और अब शिलाजीत के असर से वह और भी तन चुका था। लण्ड पर उभर आए नसे उसे एक अलग ही एहसास दिला रहे थे। मनोरमा ने अपनी जाँघे थोड़ी फैलायीं और वह लण्ड मनोरमा की जांघो के जोड़ से छूता हुआ बाहर की तरफ आ गया।
मनोरमा ने एक बार फिर अपनी जांघें सिकोड़ लीं। सरयू सिह के लण्ड का सुपाड़ा बिल्कुल सामने आ चुका था। मनोरमा अपनी उत्सुकता ना रोक पायी और अपने हाथ नीचे की तरफ ले गई । सरयू सिंह के लण्ड के सुपारे को अपनी उंगलियों से छूते ही मनोरमा की चिपचिपी बुर ने अपनी लार टपका दी जो ठीक लण्ड के फूले हुए सुपाड़े पर गिरी
मनोरमा की उंगलियों ने सरयू सिंह के सुपाडे से रिस रहे वीर्य और अपनी बुर से टपके प्रेम रस को एक दूसरे में मिला दिया और सरजू सिंह के लण्ड पर मल दिया मनोरमा की कोमल उंगलियों और चिपचिपे रस से लण्ड थिरक थिरक उठा। मनोरमा को महसूस हुआ जैसे उसने कोई जीवित नाग पकड़ लिया जो उसके हाथों में फड़फड़ा रहा था।
यह पहला अवसर था जब सरयू सिंह के मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रही थी। जिस सुंदर और नग्न महिला को अपनी बाहों में लिए उसे काम उत्तेजित कर रहे थे वह उनकी भाग्य विधाता एसडीएम मनोरमा थी सरयू सिंह यह बात भली-भांति जान चुके थे परंतु अब वह उनके लिए एसडीएम ना होकर एक काम आतुर युवती थी जो अपने हिस्से का सुख भोगना चाहती थी। अन्यथा वह पलट कर न सिर्फ प्रतिकार करती अपितु छिड़ककर उन्हें उनकी औकात पर ला देती।
जिस मर्यादा को भूलकर सरयू सिंह और मनोरमा करीब आ चुके अब उसका कोई अस्तित्व नहीं था। प्रकृति की बनाई दो अनुपम कलाकृतियां एक दूसरे से सटी हुई प्रेमालाप में लगी हुई थीं। धीरे धीरे मनोरमा सरयू सिंह की तरफ मुड़ती गई और सरयू सिंह का लण्ड उसकी जांघों के बीच से निकलकर मनोरमा के पेट से छूने लगा। सरयू सिंह ने इसी दौरान अपना कुर्ता भी बाहर निकाल दिया। मनोरमा अब पूरी तरह सरयु सिंह से सट चुकी थी। सरयू सिंह की बड़ी-बड़ी हथेलियों ने मनोरमा के नितंबों को अपने आगोश में ले लिया था। और वह उसे बेतहाशा सहलाए जा रहे थे।
उनकी उंगलियों ने उनके अचेतन मस्तिष्क के निर्देशों का पालन किया और सरयू सिंह ने न चाहते हुए भी मनोरमा की गांड को छू लिया। आज मनोरमा कामाग्नि से जल रही थी। उसे सरयू सिंह की उंगलियों की हर हरकत पसंद आ रही थी। बुर से रिस रहा कामरस सरयू सिंह की अंगुलियों तक पहुंच रहा था। मनोरमा अपनी चुचियों को उनके मजबूत और बालों से भरे हुए सीने पर रगड़ रही थी। सरयू सिंह उसके गालों को चुमे में जा रहे थे।
गजब विडंबना थी जब जब सरयू सिंगर का ध्यान मनोरमा के ओहदे की तरफ जाता वह घबरा जाते और अपने दिमाग में सुगना को ले आते। कभी वह मनोरमा द्वारा सुबह दिए गए पुरस्कार की प्रतिउत्तर में उसे जीवन का अद्भुत सुख देना चाहते और मनोरमा को चूमने लगते परंतु मनोरमा के होठों को छु पाने की हिम्मत वह अभी नहीं जुटा पा रहे थे। मनोरमा भी आज पुरुष संसर्ग पाकर अभिभूत थी। वह जीवन में यह अनुभव पहली बाहर कर रही थी। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह वशीभूत हो चुकी थी। वह अपने होठों से सरयू सिंह के होठों को खोज रही थी। मनोरमा धीरे धीरे अपने पंजों पर उठती चली गई और सरयू सिंह अपने दोनों पैरों के बीच दूरियां बढ़ाते गए और अपने कद को घटाते गए।
जैसे ही मनोरमा के ऊपरी होठों ने सरयू सिह के होठों का स्पर्श प्राप्त हुआ नीचे सरयू सिंह के लंड में उसकी पनियायी बूर् को चूम लिया। मनोरमा का पूरा शरीर सिहर उठा।
सरयू सिंह ने मनोरमा को अपनी तरफ खींचा और मनोरमा ने अपना वजन एक बार फिर अपने पैरों पर छोड़ती गई और सरयू सिह के मजबूत लण्ड को अपने बुर में समाहित करती गयी।
मनोरमा की बुर का अगला हिस्सा पिछले कई वर्षों से प्रयोग में आ रहा था उसने सरयू सिंह के सुपारे को थोड़ी मुश्किल से ही सही परंतु लील लिया। सरयू सिंह ने जैसे ही अपना दबाव बढ़ाया मनोरमा चिहुँक उठी।
सरयू सिंह मनोरमा को बिस्तर पर ले आए और उसकी जाँघे स्वतः ही फैलती गई सरयू सिंह अपने लण्ड का दबाव बढ़ाते गए और उनका मजबूत और तना हुआ लण्ड मनोरमा की बुर की अंदरूनी गहराइयों को फैलाता चला गया।
मनोरमा के लिए यह एहसास बिल्कुल नया था। बुर के अंदर गहराइयों को आज तक न तो मनोरमा की उंगलियां छु पायीं थी और न हीं उसके पति सेक्रेटरी साहब का छोटा सा लण्ड। जैसे जैसे जादुई मुसल अंदर धँसता गया मनोरमा की आंखें बाहर आती गयीं। मनोरमा ने महसूस किया अब वह दर्द बर्दाश्त नहीं कर पाएगी उसने अपनी कोमल हथेलियों से सरयू सिंह को दूर करने की कोशिश की।
सरयू सिंह भी अपने लण्ड पर मनोरमा की कसी हुई बुर का दबाव महसूस कर रहे थे उन्होंने कुछ देर यथा स्थिति बनाए रखी और मनोरमा के होठों को छोड़कर अपने होंठ उसके तने हुए निप्पल से सटा दिए।
सरयू सिंह के होठों के कमाल से मनोरमा बेहद उत्तेजित हो गई उनकी हथेलियां मनोरमा की कोमल जाँघों और कमर और पेड़ू को सहला रही थी जो उनके लण्ड को समाहित कर फूल चुका था।
जैसे-जैसे मनोरमा सहज होती गयी सरयू सिह का लण्ड और अंदर प्रवेश करता गया। मनोरमा के मुख से चीख निकल गई उसने पास पड़ा तकिया अपने दांतो के बीच रखकर उसे काट लिया परंतु उस चीख को अपने गले में ही दबा दिया। उधर लण्ड के सुपारे ने गर्भाशय के मुख को फैलाने की कोशिश की इधर सरयू सिंह के पेड़ूप्रदेश ने मनोरमा की भग्नासा को छू लिया। मिलन अपनी पूर्णता पर आ चुका था भग्नासा पर हो रही रगड़ मनोरमा को तृप्ति का एहसास दिलाने लगी ।
मनोरमा की कसी हुई बुर का यह दबाव बेहद आनंददायक था। सरयू सिंह कुछ देर इसी अवस्था में रहे और फिर मनोरमा की चुदाई चालू हो गई।
जैसे-जैसे शरीर सिंह का का लण्ड मनोरमा के बुर में हवा भरता गया मनोरंम की काम भावनाओं का गुब्बारा आसमान छूता गया। बुर् के अंदरूनी भाग से प्रेम रस झरने की तरह पर रहा था और यह उस मजबूत मुसल के आवागमन को आसान बना रहा था।
सरयू सिंह पर तो शिलाजीत का असर था एक तो उनके मूसल को पहले से ही कुदरत की शक्ति प्राप्त थी और अब उन्होंने शिलाजीत गोली का सहारा लेकर अपनी ताकत दुगनी करली थी । मनोरमा जैसी काम सुख से अतृप्त नवयौवना उस जादुई मुसल का संसर्ग ज्यादा देर तक न झेल पाई और उसकी बुर् के कंपन प्रारंभ हो गए।
सरयू सिंह स्त्री उत्तेजना का चरम बखूबी पहचानते थे और उसके चरम सुख आकाश की ऊंचाइयों तक ले जाना चाहते थे उन्होंने अपने धक्कों की रफ़्तार में आशातीत वृद्धि कर दी और मनोरमा की चुचियों को चूसने लगे। वह मनोरमा की चुचियों से दूध तो नहीं निकाल पर उनकी सारी मेहनत का फल मनोरमा के बूर् ने दे दिया। मनोरमा झड़ रही थी और उसका शरीर में निढाल पढ़ रहा था।
इसी दौरान बनारस महोत्सव के आयोजन कर्ताओं ने बिजली को वापस लाने का प्रयास किया और कमरे में एक पल के लिए उजाला हुआ और फिर अंधेरा कायम हो गया। बिजली का यह आवागमन आकाशीय बिजली की तरह ही था परंतु सरयू सिंह ने स्खलित होती मनोरमा का चेहरा देख लिया। और वह तृप्त हो गए। मनोरमा ने तो अपनी आंखें बंद की हुई थी परंतु उसे भी यह एहसास हो गया की सरयू सिंह ने उसे पूर्ण नग्न अवस्था में देख लिया है। परंतु मनोरमा अब अपना सर्वस्व न्योछावर कर चुकी थी। उसके पास अब कुछ न कुछ छुपाने को था न दिखाने को।
सरयू सिंह ने अपना लण्ड बाहर निकाल दिया और मनोरमा के वापस जागृत होने का इंतजार करने लगे। मनोरमा को अपना स्त्री धर्म पता था। जिस अद्भुत लण्ड में उसे यह सुख दिया था उसका वीर्यपात कराना न सिर्फ उसका धर्म था बल्कि यह नियति की इच्छा भी थी। मनोरमा अपने कोमल हाथों से उस लण्ड से खेलने लगी। कभी वह उसे नापती कभी अपनी मुठियों में भरती। अपने ही प्रेम रस से ओतप्रोत चिपचिपे लण्ड को अपने हाथों में लिए मनोरमा सरयू सिंह के प्रति आसक्त होती जा रही थी। सरयू सिंह के लण्ड में एक बार फिर उफान आ रहा था। उन्होंने मनोरमा को एक बार फिर जकड़ लिया और उसे डॉगी स्टाइल में ले आए।
सरयू सिंह यह भूल गए थे कि वह अपने ही भाग्य विधाता को उस मादक अवस्था में आने के लिए निर्देशित कर रहे थे जिस अवस्था में पुरुष उत्तेजना स्त्री से ज्यादा प्रधान होती है। अपनी काम पिपासा को प्राप्त कर चुकी मनोरमा अपने पद और ओहदे को भूल कर उनके गुलाम की तरह बर्ताव कर रही थी। वह तुरंत ही डॉगी स्टाइल में आ गयी और अपने नितंबों को ऊंचा कर लिया । सरयू सिंह अपने लण्ड से मनोरमा की बुर का मुंह खोजने लगे। उत्तेजित लण्ड और चिपचिपी बूर में चुंबकीय आकर्षण होता है।
उनका लंड एक बार फिर मनोरमा की बूर् में प्रवेश कर गया। अब यह रास्ता उनके लण्ड के लिए जाना पहचाना था। एक मजबूत धक्के में ही उनके लण्ड ने गर्भाशय के मुख हो एक बार फिर चूम लिया और मनोरमा ने फिर तकिए को अपने मुह में भर लिया। वाह चीख कर सरयू सिंह की उत्तेजना को कम नहीं करना चाहती थी।
लाइट के जाने से बाहर शोर हो रहा था। वह शोर उन्हें मनोरमा को चोदने के लिए उत्साहित कर रहा था।
सरयू सिंह की चुदाई की रफ्तार बढ़ रही थी। बिस्तर पर जो फूल व सुगना के लिए लाए थे वह मनोरमा के घुटनों और हाथ द्वारा मसले जा रहे थे। फूलों की खुशबू प्रेम रस की खुशबू के साथ मिलकर एक सुखद एहसास दे रही थी।
सरयू सिंह कभी मनोरमा की नंगी पीठ को चूमते कभी अपनी दोनों हथेलियों से उसके दोनों चुचियों को मीसते हैं कभी उसके बालों को पकड़कर मन ही मन एक घुड़सवार की भांति व्यवहार करते। अपने जीवन की इस विशेष उत्तेजना का मन ही मन आनंद लेते लेते सरयू सिंह भाव विभोर हो गए।
इधर मनोरमा दोबारा स्खलन की कगार पर पहुंच चुकी थी। मनोरमा के बूर की यह कपकपाआहट बेहद तीव्र थी। सरयू सिंह मनोरमा को स्खलित कर उसकी कोमल और तनी हुई चुचियों पर वीर्यपात कर उसे मसलना चाह रहे थे। बुर् की तेज कपकपाहट से सरयू सिंह का लण्ड अत्यंत उत्तेजित हो गया और अंडकोष में भरा हुआ वीर्य अपनी सीमा तोड़कर उबलता हुआ बाहर आ गया। मनोरमा के गर्भ पर वीर्य की पिचकारिया छूटने लगीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था बरसों से प्यासी धरती को सावन की रिमझिम में बूंदे भीगों रही थी। मनोरमा की प्यासी बुर अपने गर्भाशय का मुंह खोलें उस वीर्य को आत्मसात कर तृप्त तो हो रही थी।
मनोरमा अपने मन में सरयू सिंह के छैल छबीले चेहरे और बलिष्ठ शरीर की छवि को बसाये हए अपने गर्भाशय में हो रहे वीर्य पात के अद्वितीय अनुभव को महसूस कर रही थी।"
नियति मुस्कुरा रही थी कहानी का एक प्रमुख पात्र पिंकी के
में सृजित हो चुका था…..
शेष अगले भाग में...