Akki ❸❸❸
ᴾʀᴏᴜᴅ ᵀᴏ ᴮᴇ ᴴᴀʀʏᴀɴᴠɪ
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Waiting for next update gurujii
Vese mataji ki tabiyat kesi h ab
Vese mataji ki tabiyat kesi h ab
Update ko to goli maro, wo important nhi h filhalनमस्कार मित्रों,
ये दिन कैसे कष्ट पूर्वक कटे हैं ये आप सभी को बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं| इन दुःख भरे दिनों में मैंने पहलीबार अपनी माँ को इस तरह दर्द से कराहते हुए, रोते-बिलखते हुए देखा! इतना दर्द भोगते हुए माँ ने कई बार कहा की; 'इससे अच्छा तो मैं मर ही जाती!' ये शब्द सुनने में इतना पीड़ादायक थे की कई बार मैंने भगवान से प्रर्थना की कि अगली सुबह हम दोनों माँ-बेटे उठें ही न, एक साथ दोनों ही भगवान जी को प्यारे हो जाएँ!
रात में माँ का बाथरूम के लिए उठना और बड़े भारी मन से मुझे उठाना, फिर जब मैं उठता और सहारा दे कर माँ को बाथरूम के दरवाजे पर ले जाता और एक सीढ़ी चढ़ने के लिए माँ को अपना दायाँ पॉंव उठाना पड़ता तो माँ कि दर्द के मारे चीख ही निकल जाती| मैं अपनी तरफ से माँ को सहारा दे कर सँभालने कि बहुत कोशिश करता मगर मेरी भी पीठ, बाहों, कमर और घुटने में दर्द शरू हो गया| मैं अपना ये दर्द माँ से छुपता था मगर माँ को फिर भी मेरे दर्द का पता चल गया था| वो कहतीं कि मेरे कारण तुझे इतनी तकलीफ हो रही है, मगर मैं उनकी बात को बदल देता|
माँ के इस दर्द से राहत दिलाने के लिए कितनी ही पेनकिलर दी मगर कोई असर नहीं| कितनी ही क्रीम से मालिश की माँ ने खुद, गर्म पानी से सेंक लिया मगर कोई राहत नहीं! जैसे-जैसे नवरात्रे नज़दीक आये तो माँ को चिंता सताने लगी की मेरे पूरे व्रत रखने पर मैं उन्हें कैसे सम्भलूँगा इसलिए इस बार मैंने केवल पहला और आखरी नवरात्रे का व्रत रखा| खाना बनाना, माँ की देख-रेख करना और घर की सारी जिम्मेदारी मेरे सर पर है| ऐसे में मैं खुद को निःसहाये और अकेला महसूस करता हूँ| परन्तु मेरे पास कोई चारा नहीं यही सोच कर मैं खुद को झोंक देता हूँ!
दिषु से मैंने जब माँ की इस हालत का जिक्र किया तो उसने मुझे ultracet नाम की दवाई बताई| ये दवाई देने से लगभग 2 दिन तक माँ को दर्द से थोड़ा बहुत आराम मिलता था| लेकिन ये काफी स्ट्रांग दवाई हजै इसलिए मुझे हमेशा डर लगा रहता था|
दिन बीत रहे थे मगर हालात में कोई सुधार नहीं था| ऊपर से हम दूसरी मंजिल पर रहते हैं और ऐसे में माँ को उतार कर अकेले अस्पताल ले जाना नामुमकिन है| मैंने घर पर डॉक्टर को बुलाने की सोची तो कोई medicine MD doctor घर आने के 5000 माँग रहा है तो कोई orthopedic doctor घर आने के 8000 माँग रहा है! इन्होने भी घर आ कर सिवाए x-ray के refer करने के कुछ नहीं करना था इसलिए माँ इन्हें बुलाने से मना कर रहीं थीं| x-ray घर पर करवाने के बारे में पता किया तो पता चला की कम से म 2500 रुपये एक x-ray का लगेगा|
अब माँ को कोई चोट नहीं आई है, न ही वो गिरीं हैं जो की x-ray करना जायज लगे, यही कारण था की माँ इन सब के लिए मना कर रही थीं| हारकर मैंने practo पर एक othopedist को कंसल्ट किया जिसने दवाइयां और x-ray लिख दिया| पिछले हफ्ते शुक्रवार से दवाई शुरू हुई है तो थोड़ा बहुत आराम है|
इन दिनों में मैं बहुत रोया, देवी माँ के आगे अपनी माँ के स्वास्थ्य को ले कर बहुत गिड़गिड़ाया| एक-दो दिन तो चमत्कार होगया था, शाम के समय माँ कुर्सी को walker की तरह इस्तेमाल कर के चल रहीं थीं और उन्हें दर्द नहीं हो रहा था| ये देख कर मुझे उम्मीद बनने लगी थी की जल्दी ही माँ ठीक हो जाएँगी मगर मेरी ये उम्मीद ज्यादा देर तक नहीं टिकी, रात होने तक या अगले दिन सुबह ये उम्मीद टूट कर चकना-चूर हो गई|
इस समय मुझे कुछ नहीं पता की क्या हो रहा है और आगे क्या होगा! मैं तो बस खुद को और माँ को सँभालने में लगा हूँ!
Update आने में हो रही देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ!
आप सभी से विनती है की मेरी माँ के पूरी तरह स्वस्थ होने, उनके फिर से बिना सारा लिए चलने-फिरने की दुआ करें|
Bhai Dr. Ortho ka oil se masaj karke dekh lena ek baar. Aaram milega dhire dhire. Same problem meri maa ko tha, abhi kuchh tik hain.नमस्कार मित्रों,
ये दिन कैसे कष्ट पूर्वक कटे हैं ये आप सभी को बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं| इन दुःख भरे दिनों में मैंने पहलीबार अपनी माँ को इस तरह दर्द से कराहते हुए, रोते-बिलखते हुए देखा! इतना दर्द भोगते हुए माँ ने कई बार कहा की; 'इससे अच्छा तो मैं मर ही जाती!' ये शब्द सुनने में इतना पीड़ादायक थे की कई बार मैंने भगवान से प्रर्थना की कि अगली सुबह हम दोनों माँ-बेटे उठें ही न, एक साथ दोनों ही भगवान जी को प्यारे हो जाएँ!
रात में माँ का बाथरूम के लिए उठना और बड़े भारी मन से मुझे उठाना, फिर जब मैं उठता और सहारा दे कर माँ को बाथरूम के दरवाजे पर ले जाता और एक सीढ़ी चढ़ने के लिए माँ को अपना दायाँ पॉंव उठाना पड़ता तो माँ कि दर्द के मारे चीख ही निकल जाती| मैं अपनी तरफ से माँ को सहारा दे कर सँभालने कि बहुत कोशिश करता मगर मेरी भी पीठ, बाहों, कमर और घुटने में दर्द शरू हो गया| मैं अपना ये दर्द माँ से छुपता था मगर माँ को फिर भी मेरे दर्द का पता चल गया था| वो कहतीं कि मेरे कारण तुझे इतनी तकलीफ हो रही है, मगर मैं उनकी बात को बदल देता|
माँ के इस दर्द से राहत दिलाने के लिए कितनी ही पेनकिलर दी मगर कोई असर नहीं| कितनी ही क्रीम से मालिश की माँ ने खुद, गर्म पानी से सेंक लिया मगर कोई राहत नहीं! जैसे-जैसे नवरात्रे नज़दीक आये तो माँ को चिंता सताने लगी की मेरे पूरे व्रत रखने पर मैं उन्हें कैसे सम्भलूँगा इसलिए इस बार मैंने केवल पहला और आखरी नवरात्रे का व्रत रखा| खाना बनाना, माँ की देख-रेख करना और घर की सारी जिम्मेदारी मेरे सर पर है| ऐसे में मैं खुद को निःसहाये और अकेला महसूस करता हूँ| परन्तु मेरे पास कोई चारा नहीं यही सोच कर मैं खुद को झोंक देता हूँ!
दिषु से मैंने जब माँ की इस हालत का जिक्र किया तो उसने मुझे ultracet नाम की दवाई बताई| ये दवाई देने से लगभग 2 दिन तक माँ को दर्द से थोड़ा बहुत आराम मिलता था| लेकिन ये काफी स्ट्रांग दवाई हजै इसलिए मुझे हमेशा डर लगा रहता था|
दिन बीत रहे थे मगर हालात में कोई सुधार नहीं था| ऊपर से हम दूसरी मंजिल पर रहते हैं और ऐसे में माँ को उतार कर अकेले अस्पताल ले जाना नामुमकिन है| मैंने घर पर डॉक्टर को बुलाने की सोची तो कोई medicine MD doctor घर आने के 5000 माँग रहा है तो कोई orthopedic doctor घर आने के 8000 माँग रहा है! इन्होने भी घर आ कर सिवाए x-ray के refer करने के कुछ नहीं करना था इसलिए माँ इन्हें बुलाने से मना कर रहीं थीं| x-ray घर पर करवाने के बारे में पता किया तो पता चला की कम से म 2500 रुपये एक x-ray का लगेगा|
अब माँ को कोई चोट नहीं आई है, न ही वो गिरीं हैं जो की x-ray करना जायज लगे, यही कारण था की माँ इन सब के लिए मना कर रही थीं| हारकर मैंने practo पर एक othopedist को कंसल्ट किया जिसने दवाइयां और x-ray लिख दिया| पिछले हफ्ते शुक्रवार से दवाई शुरू हुई है तो थोड़ा बहुत आराम है|
इन दिनों में मैं बहुत रोया, देवी माँ के आगे अपनी माँ के स्वास्थ्य को ले कर बहुत गिड़गिड़ाया| एक-दो दिन तो चमत्कार होगया था, शाम के समय माँ कुर्सी को walker की तरह इस्तेमाल कर के चल रहीं थीं और उन्हें दर्द नहीं हो रहा था| ये देख कर मुझे उम्मीद बनने लगी थी की जल्दी ही माँ ठीक हो जाएँगी मगर मेरी ये उम्मीद ज्यादा देर तक नहीं टिकी, रात होने तक या अगले दिन सुबह ये उम्मीद टूट कर चकना-चूर हो गई|
इस समय मुझे कुछ नहीं पता की क्या हो रहा है और आगे क्या होगा! मैं तो बस खुद को और माँ को सँभालने में लगा हूँ!
Update आने में हो रही देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ!
आप सभी से विनती है की मेरी माँ के पूरी तरह स्वस्थ होने, उनके फिर से बिना सारा लिए चलने-फिरने की दुआ करें|
मां से बड़ कर कुछ नही है, आप मां की सेवा करो।नमस्कार मित्रों,
ये दिन कैसे कष्ट पूर्वक कटे हैं ये आप सभी को बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं| इन दुःख भरे दिनों में मैंने पहलीबार अपनी माँ को इस तरह दर्द से कराहते हुए, रोते-बिलखते हुए देखा! इतना दर्द भोगते हुए माँ ने कई बार कहा की; 'इससे अच्छा तो मैं मर ही जाती!' ये शब्द सुनने में इतना पीड़ादायक थे की कई बार मैंने भगवान से प्रर्थना की कि अगली सुबह हम दोनों माँ-बेटे उठें ही न, एक साथ दोनों ही भगवान जी को प्यारे हो जाएँ!
रात में माँ का बाथरूम के लिए उठना और बड़े भारी मन से मुझे उठाना, फिर जब मैं उठता और सहारा दे कर माँ को बाथरूम के दरवाजे पर ले जाता और एक सीढ़ी चढ़ने के लिए माँ को अपना दायाँ पॉंव उठाना पड़ता तो माँ कि दर्द के मारे चीख ही निकल जाती| मैं अपनी तरफ से माँ को सहारा दे कर सँभालने कि बहुत कोशिश करता मगर मेरी भी पीठ, बाहों, कमर और घुटने में दर्द शरू हो गया| मैं अपना ये दर्द माँ से छुपता था मगर माँ को फिर भी मेरे दर्द का पता चल गया था| वो कहतीं कि मेरे कारण तुझे इतनी तकलीफ हो रही है, मगर मैं उनकी बात को बदल देता|
माँ के इस दर्द से राहत दिलाने के लिए कितनी ही पेनकिलर दी मगर कोई असर नहीं| कितनी ही क्रीम से मालिश की माँ ने खुद, गर्म पानी से सेंक लिया मगर कोई राहत नहीं! जैसे-जैसे नवरात्रे नज़दीक आये तो माँ को चिंता सताने लगी की मेरे पूरे व्रत रखने पर मैं उन्हें कैसे सम्भलूँगा इसलिए इस बार मैंने केवल पहला और आखरी नवरात्रे का व्रत रखा| खाना बनाना, माँ की देख-रेख करना और घर की सारी जिम्मेदारी मेरे सर पर है| ऐसे में मैं खुद को निःसहाये और अकेला महसूस करता हूँ| परन्तु मेरे पास कोई चारा नहीं यही सोच कर मैं खुद को झोंक देता हूँ!
दिषु से मैंने जब माँ की इस हालत का जिक्र किया तो उसने मुझे ultracet नाम की दवाई बताई| ये दवाई देने से लगभग 2 दिन तक माँ को दर्द से थोड़ा बहुत आराम मिलता था| लेकिन ये काफी स्ट्रांग दवाई हजै इसलिए मुझे हमेशा डर लगा रहता था|
दिन बीत रहे थे मगर हालात में कोई सुधार नहीं था| ऊपर से हम दूसरी मंजिल पर रहते हैं और ऐसे में माँ को उतार कर अकेले अस्पताल ले जाना नामुमकिन है| मैंने घर पर डॉक्टर को बुलाने की सोची तो कोई medicine MD doctor घर आने के 5000 माँग रहा है तो कोई orthopedic doctor घर आने के 8000 माँग रहा है! इन्होने भी घर आ कर सिवाए x-ray के refer करने के कुछ नहीं करना था इसलिए माँ इन्हें बुलाने से मना कर रहीं थीं| x-ray घर पर करवाने के बारे में पता किया तो पता चला की कम से म 2500 रुपये एक x-ray का लगेगा|
अब माँ को कोई चोट नहीं आई है, न ही वो गिरीं हैं जो की x-ray करना जायज लगे, यही कारण था की माँ इन सब के लिए मना कर रही थीं| हारकर मैंने practo पर एक othopedist को कंसल्ट किया जिसने दवाइयां और x-ray लिख दिया| पिछले हफ्ते शुक्रवार से दवाई शुरू हुई है तो थोड़ा बहुत आराम है|
इन दिनों में मैं बहुत रोया, देवी माँ के आगे अपनी माँ के स्वास्थ्य को ले कर बहुत गिड़गिड़ाया| एक-दो दिन तो चमत्कार होगया था, शाम के समय माँ कुर्सी को walker की तरह इस्तेमाल कर के चल रहीं थीं और उन्हें दर्द नहीं हो रहा था| ये देख कर मुझे उम्मीद बनने लगी थी की जल्दी ही माँ ठीक हो जाएँगी मगर मेरी ये उम्मीद ज्यादा देर तक नहीं टिकी, रात होने तक या अगले दिन सुबह ये उम्मीद टूट कर चकना-चूर हो गई|
इस समय मुझे कुछ नहीं पता की क्या हो रहा है और आगे क्या होगा! मैं तो बस खुद को और माँ को सँभालने में लगा हूँ!
Update आने में हो रही देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ!
आप सभी से विनती है की मेरी माँ के पूरी तरह स्वस्थ होने, उनके फिर से बिना सारा लिए चलने-फिरने की दुआ करें|
Bhai mai prrthana karta hu ki apki maa theek ho jaye aur update ki chinta mat kijyega .Phle ap pni maa ki dhekhbal kariye ye jyada jaruri hai n ki update.नमस्कार मित्रों,
ये दिन कैसे कष्ट पूर्वक कटे हैं ये आप सभी को बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं| इन दुःख भरे दिनों में मैंने पहलीबार अपनी माँ को इस तरह दर्द से कराहते हुए, रोते-बिलखते हुए देखा! इतना दर्द भोगते हुए माँ ने कई बार कहा की; 'इससे अच्छा तो मैं मर ही जाती!' ये शब्द सुनने में इतना पीड़ादायक थे की कई बार मैंने भगवान से प्रर्थना की कि अगली सुबह हम दोनों माँ-बेटे उठें ही न, एक साथ दोनों ही भगवान जी को प्यारे हो जाएँ!
रात में माँ का बाथरूम के लिए उठना और बड़े भारी मन से मुझे उठाना, फिर जब मैं उठता और सहारा दे कर माँ को बाथरूम के दरवाजे पर ले जाता और एक सीढ़ी चढ़ने के लिए माँ को अपना दायाँ पॉंव उठाना पड़ता तो माँ कि दर्द के मारे चीख ही निकल जाती| मैं अपनी तरफ से माँ को सहारा दे कर सँभालने कि बहुत कोशिश करता मगर मेरी भी पीठ, बाहों, कमर और घुटने में दर्द शरू हो गया| मैं अपना ये दर्द माँ से छुपता था मगर माँ को फिर भी मेरे दर्द का पता चल गया था| वो कहतीं कि मेरे कारण तुझे इतनी तकलीफ हो रही है, मगर मैं उनकी बात को बदल देता|
माँ के इस दर्द से राहत दिलाने के लिए कितनी ही पेनकिलर दी मगर कोई असर नहीं| कितनी ही क्रीम से मालिश की माँ ने खुद, गर्म पानी से सेंक लिया मगर कोई राहत नहीं! जैसे-जैसे नवरात्रे नज़दीक आये तो माँ को चिंता सताने लगी की मेरे पूरे व्रत रखने पर मैं उन्हें कैसे सम्भलूँगा इसलिए इस बार मैंने केवल पहला और आखरी नवरात्रे का व्रत रखा| खाना बनाना, माँ की देख-रेख करना और घर की सारी जिम्मेदारी मेरे सर पर है| ऐसे में मैं खुद को निःसहाये और अकेला महसूस करता हूँ| परन्तु मेरे पास कोई चारा नहीं यही सोच कर मैं खुद को झोंक देता हूँ!
दिषु से मैंने जब माँ की इस हालत का जिक्र किया तो उसने मुझे ultracet नाम की दवाई बताई| ये दवाई देने से लगभग 2 दिन तक माँ को दर्द से थोड़ा बहुत आराम मिलता था| लेकिन ये काफी स्ट्रांग दवाई हजै इसलिए मुझे हमेशा डर लगा रहता था|
दिन बीत रहे थे मगर हालात में कोई सुधार नहीं था| ऊपर से हम दूसरी मंजिल पर रहते हैं और ऐसे में माँ को उतार कर अकेले अस्पताल ले जाना नामुमकिन है| मैंने घर पर डॉक्टर को बुलाने की सोची तो कोई medicine MD doctor घर आने के 5000 माँग रहा है तो कोई orthopedic doctor घर आने के 8000 माँग रहा है! इन्होने भी घर आ कर सिवाए x-ray के refer करने के कुछ नहीं करना था इसलिए माँ इन्हें बुलाने से मना कर रहीं थीं| x-ray घर पर करवाने के बारे में पता किया तो पता चला की कम से म 2500 रुपये एक x-ray का लगेगा|
अब माँ को कोई चोट नहीं आई है, न ही वो गिरीं हैं जो की x-ray करना जायज लगे, यही कारण था की माँ इन सब के लिए मना कर रही थीं| हारकर मैंने practo पर एक othopedist को कंसल्ट किया जिसने दवाइयां और x-ray लिख दिया| पिछले हफ्ते शुक्रवार से दवाई शुरू हुई है तो थोड़ा बहुत आराम है|
इन दिनों में मैं बहुत रोया, देवी माँ के आगे अपनी माँ के स्वास्थ्य को ले कर बहुत गिड़गिड़ाया| एक-दो दिन तो चमत्कार होगया था, शाम के समय माँ कुर्सी को walker की तरह इस्तेमाल कर के चल रहीं थीं और उन्हें दर्द नहीं हो रहा था| ये देख कर मुझे उम्मीद बनने लगी थी की जल्दी ही माँ ठीक हो जाएँगी मगर मेरी ये उम्मीद ज्यादा देर तक नहीं टिकी, रात होने तक या अगले दिन सुबह ये उम्मीद टूट कर चकना-चूर हो गई|
इस समय मुझे कुछ नहीं पता की क्या हो रहा है और आगे क्या होगा! मैं तो बस खुद को और माँ को सँभालने में लगा हूँ!
Update आने में हो रही देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ!
आप सभी से विनती है की मेरी माँ के पूरी तरह स्वस्थ होने, उनके फिर से बिना सारा लिए चलने-फिरने की दुआ करें|
इकत्तीसवाँ अध्याय: घर संसार
भाग - 20 (2)
अब तक अपने पढ़ा:
हम तीनों बाप-बेटा-बेटी गले लगे थे तो स्तुति को आया प्यारा सा गुस्सा, वो भी अपनी मम्मी की तरह मुझ पर हक़ जमाती थी| "स्तुति ने मेरी तरफ अपने हाथ फैलाये और खुद को गोदी लेने को कहने के लिए अपनी बोली-भाषा में कुनमुनाने लगी| मैंने दोनों बच्चों को एक मिनट रुकने को कहा तथा स्तुति को अपनी गोदी में उठा लिया, स्तुति को एक हाथ से सँभाल कर मैंने आयुष और नेहा को फिर से मेरे गले लगने को कहा| दोनों बच्चे आ कर मुझसे लिपट गए, लेकिन स्तुति को अपने पापा जी को अपने बड़े भैया और बड़ी दीदी के साथ बाँटना अच्छा नहीं लगता था इसलिए उसने अपनी दीदी और अपने भैया के बाल खींचने शुरू कर दिए! जब स्तुति ने नेहा के बाल खींचे तो नेहा ने पहले तो अपने बाल स्तुति की पकड़ से छुड़ाए और फिर स्तुति के कूल्हों पर प्यारी सी चपत लगाते हुए बोली; "चुहिया!" इतना कह नेहा स्तुति के लिए लाये हुए खिलोने पैकेट से निकलने लगी| स्तुति के लिए नए खिलोने देख कर आज मेरा मन बच्चों के साथ खेल-खेलने का कर रहा था| मैंने नेहा को सारे खिलोने अच्छे से धो कर लाने को कहा| फिर मैं, आयुष और नेहा डाइनिंग टेबल की कुर्सी खींच कर बैठ गए तथा स्तुति को हमने डाइनिंग टेबल के ऊपर बिठा दिया| नेहा ने झूठ-मूठ की गैस जलाई और उन छोटे-छोटे बर्तनों में खाना बनाने का अभिनय करने लगी| स्तुति को ये खेल समझ नहीं आ रहा था परन्तु वो अपनी दीदी को खाना बनाने का अभिनय करते हुए बड़ी गौर से देख रही थी| खेल को थोड़ा सा और असली बनाने के लिए उन खाली बर्तनों में स्तुति को खिलाये जाने वाले फल को मींज कर डाल दिया| जब खाना बना तो नेहा ने हम सभी के लिए छोटी-छोटी प्लेटों में मींजे हुए फल खाने के रूप में परोस दिए| जब मैंने स्तुति को उसकी छोटी सी प्लेट उठा कर दी तो स्तुति बहुत खुश हुई और उसने आज पहलीबार अपने हाथ से प्लेट में मींजे हुए फलों के मिश्रण को अपने हाथों से उठाया और खाया| स्तुति को ये खेल पसंद आ गया था इसलिए रोज़ शाम को हम चारों मिल कर ये खेल खेलने लगे|
अब आगे:
आज होली के उपलक्ष्य में स्तुति की पहली होली का किस्सा सुना देता हूँ;
स्तुति लगभग 7 महीने की थी और होली का पर्व आ गया था| ये स्तुति की हमारे साथ पहली होली थी इसलिए मैं आज के दिन को ले कर बहुत उत्सुक था| बच्चों की परीक्षा हो चुकी थी और रिजल्ट आने में तब बहुत दिन बचे थे| बच्चों के लिए मैं पिचकारी, गुब्बारे, गुलाल और रंग बड़े चाव से लाया था| स्तुति बहुत छोटी थी इसलिए हमें उसे रंगों से बचाना था क्योंकि स्तुति की आदत थी की कोई भी चीज हो, सस्बे पहले उसे चख कर देखना इसलिए माँ ने दोनों बच्चों को सख्त हिदायत दी की वो स्तुति पर रंग न डालें| बच्चों ने अपना सर हाँ में हिला कर अपनी दादी जी की बात का मान रखा| चूँकि स्तुति मेरे अलावा किसी से सँभलती नहीं इसलिए मैं बच्चों के साथ होली नहीं खेल सकता था, बच्चों को मेरी कमी महसूस न हो उसके लिए मैंने दिषु को घर बुला लिया था|
खैर, दिषु के आने से पहले हम सभी गुलाल लगा कर शगुन कर रहे थे| सबसे पहले माँ ने हम सभी को गुलाल से टीका लगाया और हमने माँ के पॉंव छू कर उनका आशीर्वाद लिया| जब स्तुति को गुलाल लगाने की बारी आई तो स्तुति हम सभी के चेहरों पर गुलाल का तिलक लगा देख कर गुलाल लगवाने के लिए ख़ुशी से छटपटाने लगी| "हाँ-हाँ बेटा, तुझे भी गुलाल लगा रही हूँ!" माँ हँसते हुए बोलीं तथा एक छोटा सा तिलक स्तुति के मस्तक पर लगा उसके दोनों गाल चूम लिए| स्तुति कहीं गुलाल को अपने हाथों से छू वो हाथ अपने मुँह को न लगा दे इसलिए मैंने स्तुति के माथे पर से गुलाल का तिलक पोंछ दिया|
अब बारी थी माँ को गुलाल लगाने की, हम सभी ने बारी-बारी माँ को तिलक लगाया तथा माँ ने हम सभी के गाल चूम कर हमें आशीर्वाद दिया| अब रह गई थी तो बस स्तुति और माँ को आज स्तुति के हाथों गुलाल लगवाने का बड़ा चाव था, परन्तु वो स्तुति का गुलाल वाले हाथ अपने मुँह में ले बीमार पड़ने का खतरा नहीं उठाना चाहती थीं| अपनी माँ की इस प्यारी सी इच्छा को समझ मैंने स्तुति का हाथ पकड़ गुलाल वाले पैकेट में डाल दिया तथा स्तुति का हाथ पकड़ कर माँ के दोनों गालों पर रगड़ दिया| जितनी ख़ुशी माँ को अपनी पोती से गुलाल लगवाने में हो रही थी, उतनी ही ख़ुशी स्तुति को अपनी दादी जी को गुलाल लगाने में हो रही थी| भई दादी-पोती का ये अनोखा प्यार हम सभी की समझ से परे था!
अपनी दादी जी को गुलाल लगा कर ख़ुशी चहक रही थी| अगला नंबर संगीता का था मगर आयुष और नेहा ख़ुशी से फुदकते हुए आगे आ गए और एक साथ चिल्लाने लगे; "पापा जी, हमें स्तुति से रंग लगवाओ!" मैंने एक बार फिर गुलाल के पैकेट में स्तुति का हाथ पकड़ कर डाला और स्तुति ने इस बार अपनी मुठ्ठी में गुलाल भर लिया| फिर यही हाथ मैंने दोनों बच्चों के चेहरों पर बारी-बारी से रगड़ दिया! इस बार भी स्तुति को अपने बड़े भैया और दीदी के गाल रंगने में बड़ा मज़ा आया! फिर बारी आई संगीता की; "सुन लड़की, थोड़ा सा रंग लगाइयो वरना मारूँगी तुझे!" संगीता ने स्तुति को प्यार भरी धमकी दी जिसे स्तुति ने हँस कर दरकिनार कर दिया! मैंने जानबूझ कर संगीता को स्तुति के हाथों थोड़ा रंग लगवाया क्योंकि आज संगीता को रंगने का हक़ बस मुझे था! अंत में बारी थी मेरी, स्तुति को अपना सारा प्यार रंग के रूप में मेरे ऊपर उड़ेलना था इसलिए स्तुति की मुठ्ठी में जितना गुलाल था उसे मैंने स्तुति के हाथों अपने चेहरे पर अच्छे से पुतवा लिया! अपने पापा जी के पूरे चेहरे पर रंग लगा कर स्तुति बहुत खुश हुई और किलकारियाँ मार कर हँसने लगी| "शैतान लड़की! अपने पापा जी का सारा चेहरा पोत दिया, अब मैं कहाँ रंग लगाऊँ?!" संगीता नाक पर प्यारा सा गुस्सा ले कर बोली पर स्तुति को कहाँ कुछ फर्क पड़ता था उसे तो सबके चेहरे रंग से पोतने में मज़ा आ रहा था|
मैं बच्चों को या संगीता को रंग लगाता उससे पहले ही दिषु आ गया और दिषु को देख स्तुति को पोतने के लिए एक और चेहरा मिल गया! "ले भाई, पहले अपनी भतीजी से रंग लगवा ले!" मैंने स्तुति का हाथ फिर गुलाल के पैकेट में डाला और स्तुति ने अच्छे से अपने दिषु चाचू के चेहरे पर रंग पोत दिया| "बिटिया रानी बड़ी शैतान है! मेरा पूरा चेहरा पोत दिया!" दिषु हँसते हुए बोला| अब वो तो स्तुति को रंग लगा नहीं सकता था इसलिए वो माँ का आशीर्वाद लेने चल दिया| इधर मैंने स्तुति का हाथ अच्छे से धुलवाया और स्तुति को माँ की गोदी में दिया| फिर मैंने पहले दोनों बच्चों को अच्छे से रंग लगाया तथा बच्चों ने भी मेरे गालों पर रंग लगा कर मेरा आशीर्वाद लिया|
गुलाल का पैकेट ले कर मैं संगीता के पहुँचा तो संगीता प्यार भरे गुस्से से बुदबुदाते हुए बोली; "मुझे नहीं लगवाना आपसे रंग! मेरे रंग लगाने की कोई जगह बची है आपके चेहरे पर जो मैं आपको रंग लगाने दूँ?!" संगीता की इस प्यारभरी शिकायत को सुन मैं मुस्कुराया और संगीता को छेड़ते हुए बोला; "हमरे संगे फगवा खेरे बिना तोहार फगवा पूर हुई जाई?" मेरी बात सुन संगीता के चेहरे पर शर्म भरी मुस्कान आ गई और वो मुझसे नजरें चुराते हुए रसोई में चली गई| मैंने भी सोच लिया की पिछलीबार की तरह इस बार भी मैं संगीता को रंग कर रहूँगा, फिर चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े!
संगीता रसोई में गई और इधर दिषु ने अपने दोनों हाथों में रंग लिया और मेरे पूरे चेहरे और बालों में चुपड़ दिया! जवाब में मैंने भी रंग लिया और दिषु के चेहरे और बालों में रंग चुपड़ने लगा| हम दोनों दोस्तों को यूँ एक दूसरे को रंग से लबेड़ते हुए देख बच्चों को बहुत मज़ा आ रहा था| वहीं बरसों बाद यूँ एक दूसरे को रंग लबेड़ते हुए देख हम दोनों दोस्तों को भी बहुत हँसी आ रही थी| जब हमने एक दूसरे की शक्ल रंग से बिगाड़ दी तब हम अलग हुए और हम दोनों न मिलकर दोनों बच्चों को निशाना बनाया| दिषु अपने छोटे से भतीजे आयुष के पीछे दौड़ा तो मैं नेहा को रंग लगाने के लिए दौड़ा| हम चारों दौड़ते हुए छत पर पहुँचे, आयुष ने अपनी पिचकारी में पानी भर अपने दिषु चाचू को नहलाना शुरू किया| इधर नेहा भागते हुए थक गई थी इसलिए मैंने अपनी बिटिया को गोदी में उठाया और पानी से भरी बाल्टी में बिठा दिया! नेहा आधी भीग गई थी इसलिए नेहा ने बाल्टी के पानी को चुल्लू में उठा कर मेरे ऊपर फेंकना शुरू कर दिया| उधर दिषु पूरा भीग चूका था मगर फिर भी उसने आयुष को पकड़ लिया और उसके चेहरे और बालों को अच्छे से रंग डाला!
बच्चों ने आपस में मिल कर अपनी एक टीम बनाई और इधर हम दोनों दोस्तों ने अपनी एक टीम बनाई| बच्चे हमें कभी पिचकारी तो कभी गुब्बारे मारते और हम दोनों दोस्त मिलकर बच्चों के ऊपर गिलास या मघ्घे से भर कर रंग डालते! हम चारों के हँसी ठहाके की आवाज़ भीतर तक जा रही थी, स्तुति ने जब ये हँसी-ठहाका सूना तो वो बाहर छत पर आने के लिए छटपटाने लगी| हारकर माँ स्तुति को गोदी में ले कर बाहर आई और दूर से हम चारों को होली खेलते हुए स्तुति को दिखाने लगी| हम चारों को रंगा हुआ देख स्तुति का मन भी होली खेलने को था इसलिए वो माँ की गोदी से निचे उतरने को छटपटाने लगी| अब हमें स्तुति को रंगों से दूर रखना था इसलिए मैंने तीनों चाचा-भतीजा-भतीजी को रंग खेलने को कहा तथा मैं स्तुति को गोदी ले कर उसके हाथों से खुद को रंग लगवाने लगा| स्तुति को मुझे रंग लगाने में बड़ा माज़ा आ रहा था इसलिए मैंने उसके दोनों हाथों से अपने गाल पुतवाने शुरू कर दिए|
इतने में संगीता पकोड़े बना कर ले आई और हम सभी को हुक्म देते हुए बोली; "चलो अब सब रंग खेलना बंद करो! पहले पकोड़े और गुजिया खाओ, बाद में खेलना|" संगीता के हुक्म की तामील करते हुए हम सभी हाथ धो कर ज़मीन पर ही आलथी-पालथी मार कर एक गोला बना कर बैठ गए| मैं स्तुति को केला खिलाने लगा तथा नेहा मुझे अपने हाथों से पकोड़े खिलाने लगी|
खा-पी कर हम सभी फिर से होली खेलने लगे| घर के नीचे काफी लोग हल्ला मचाते हुए होली खेल रहे थे तथा कुछ लोग घर के नीचे से गुज़र भी रहे थे| दिषु ने दोनों बच्चों को गुब्बारे भरने में लगा दिया तथा खुद निशाना लगाने लग गया| चूँकि मेरी गोदी में स्तुति थी इसलिए मैं रंग नहीं खेल रहा था, मैंने सोचा की चलो क्यों न स्तुति को भी दिखाया जाए की होली में गुब्बारे कैसे मारते हैं इसलिए मैं स्तुति को ले कर दिषु के बराबर खड़ा हो नीचे जाने वाले लोगों पर गुब्बारे मारते हुए स्तुति को दिखाने लगा| दिषु का निशाना लगे न लगे पर स्तुति को गुब्बारे फेंकते हुए देखने में बड़ा मज़ा आ रहा था| अपनी बेटी को खुश करने के लिए मैंने आयुष को एक गुब्बारे में थोड़ा सा पानी भर कर लाने को कहा| गुब्बारे में थोड़ा पानी भरा होने से गुब्बारा जल्दी फूटता नहीं बल्कि किसी गेंद की तरह थोड़ा उछलने लगता था| मैंने ये गुब्बारा स्तुति को दिया ताकि वो भी खेल सके, लेकिन मेरी अबोध बच्ची को वो लाल-लाल गुब्बारा फल लगा जिसे वो अपने मुँह में भरना चाह रही थी; "नहीं बेटा! इसे खाते नहीं, फेंकते हैं|" मैंने स्तुति को रोकते हुए समझाया|
स्तुति ने समझा की जो चीज़ खा नहीं सकते उसका क्या काम इसलिए उसने गुब्बारा नीचे फेंक दिया! गुब्बारा नीचे तो गिरा मगर फूटा नहीं, बल्कि फुदकता हुआ कुछ दूर चला गया| ये दृश्य देख स्तुति मेरी गोदी से नीचे उतरने को छटपटाई| जैसे ही मैंने स्तुति को नीचे उतारा वो अपने दोनों हाथों और पैरों के बल रेंगते हुए गुब्बारे के पास पहुँची तथा गुब्बारे को फिर उठा कर फेंका| तो कुछ इस तरह से स्तुति ने गुब्बारे से खेलना सीख लिया और वो अपने इस खेल में मगन हो गई| लेकिन थोड़ी ही देर में स्तुति इस खेल से ऊब गई और उसने गुब्बारे को हाथ में ले कर कुछ ज्यादा जोर से दबा दिया जिस कारण गुब्बारा उसके हाथ में ही फूट गया! गुब्बारा फूटा तो स्तुति ने गुब्बारे के वियोग में रोना शुरू कर दिया! "औ ले ले ले...मेरा बच्चा! कोई बात नहीं बेटा!" मैंने स्तुति को गोदी में ले कर लाड करना शुरू किया| स्तुति होली खेल के थक गई थी और ऊपर से उसके कपड़े भी मेरी गोदी में रहने से गीले तथा रंगीन हो गए थे इसलिए मैं उसे ले कर संगीता के पास आ गया|
"खेल लिए बिटिया के संग रंग!" संगीता गुस्से में मुँह टेढ़ा करते हुए बोली| स्तुति को बिस्तर पर लिटा कर संगीता उसके कपड़े बदलने लगी की तभी मैंने उसे पीछे से अपनी बाहों में भर लिया और अपने गालों पर लगा हुआ रंग उसके गाल से रगड़ कर लगाने लगा| "उम्म्म...छोडो न...घर में सब हैं!" संगीता झूठ-मूठ का दिखावा करते हुए बोली, जबकि असल में वो खुद नहीं चाहती थी की मैं उसे छोड़ूँ| "याद है जान, पिछले साल तुमने मुझे कैसे हुक्म देते हुए प्यार करने को कहा था?!" मैंने संगीता को पिछले साल की होली की याद दिलाई जब स्तुति कोख में थी और संगीता ने मुझे प्रेम-मिलाप के लिए आदेश दिया था|
मेरी बात सुनते ही संगीता को पिछले साल की होली याद आ गई और उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई! "लेकिन जानू, घर में सब हैं!" संगीता का मन भी प्रेम-मिलाप का था मगर उसे डर था तो बस घर में दिषु, दोनों बच्चों और माँ की मौजूदगी का| "तुम जल्दी से स्तुति को सुलाओ और तबतक मैं बाहर छत पर सब को काम में व्यस्त कर के आता हूँ|" इतना कह मैं छत पर पहुँचा और दिषु को इशारे से अलग बुला कर सारी बात समझाई; "भाई, तेरी मदद चाहिए! कैसे भी कर के तू माँ और बच्चों को अपने साथ व्यस्त कर ले!" इतना सुनते ही दिषु के चेहरे पर नटखट मुस्कान आ गई और वो मेरी पीठ थपथपाते हुए खुसफुसा कर बोला; "जा मानु, जी ले अपनी जिंदगी!" दिषु की बात सुन मैं हँस पड़ा और माँ तथा बच्चों से नजरें बचाते हुए कमरे में आ गया|
संगीता ने स्तुति को थपथपा कर सुला दिया था, मुझे देखते ही संगीता दबे पॉंव बाथरूम में घुस गई| इधर मैं भी दबे पॉंव संगीता के पीछे-पीछे बाथरूम में घुसा और दरवाजा चिपका कर उसके आगे पानी से भरी बाल्टी रख दी ताकि कोई एकदम से अंदर न आ जाए| बाथरूम में पहुँच मैंने सबसे पहले अपनी जेब से गुलाल का पैकेट निकाला| गुलाल का पैकेट देख संगीता समझ गई की अब क्या होने वाला है इसलिए वो मुझे रोकते हुए बोली; "एक मिनट रुको!" इतना कह उसने अपने सारे कपड़े निकाल फेंके तथा मेरे भी कपड़े निकाल फेंके| दोनों मियाँ बीवी नग्न थे और इस तरह छुप-छुप के प्यार करने तथा यूँ एक दूसरे को नग्न देख हमारे भीतर अजब सा रोमांच पैदा हो चूका था! अब मेरा चेहरा तो पहले से ही पुता हुआ था इसलिए मुझसे गुलाल ले कर संगीता ने मेरे सीने पर गुलाल मल दिया तथा बड़ी ही मादक अदा से अपने होंठ काटते हुए मुझसे दबी हुई आवाज़ में बोली; "फगवा मुबारक हो!"
अब मेरी बारी थी, मैंने गुलाल अपने दोनों हाथों में लिया और संगीता के गाल पर रगड़ उसके वक्ष तथा पेट तक मल दिया! संगीता के जिस्म को स्पर्श कर मेरे भीतर उत्तेजना धधक चुकी थी, वहीं मेरे हाथों के स्पर्श से संगीता का भी उत्तेजना के मारे बुरा हाल था! अपनी उत्तेजना शांत करने के लिए हम एक दूसरे से लिपट गए और अपने दोनों हाथों से एक दूसरे के जिस्मों को सहलाने लगे| हमारे बदन पर लगा हुआ रंग हमारे भीतर वासना की आग भड़काए जा रहा था! हमारे एक दूसरे के बदन से मिलते ही प्रेम की अगन दहक उठी और प्रेम का ऐसा बवंडर उठा की उत्तेजना की लहरों पर सवार हो आधे घंटे के भीतर ही हम अपने-अपने चरम पर पहुँच सुस्ताने लगे!
"अच्छा...अब आप बाहर जाओ, मैं नहा लेती हूँ!" संगीता लजाते हुए बोली| संगीता के यूँ लजाने पर मेरा ईमान फिर डोलने लगा, मैंने उसके होठों को अपने होठों में कैद कर लिया! वहीं संगीता भी किसी बेल की तरह मुझसे लिपट गई और मेरे चुंबन का जवाब बड़ी गर्मजोशी से देने लगी| अगर घर में किसी के होने का ख्याल नहीं होता तो हम दोनों शायद एक दूसरे को छोड़ते ही नहीं! करीब 5 मिनट बाद संगीता ने मेरी पकड़ से अपने लब छुड़ाए और अपनी सांसें दुरुस्त करते हुए चुपचाप मुझे देखने लगी| संगीता की आँखें गुलाबी हो चली थीं और मेरे नीचे वाले साहब दूसरे राउंड के लिए पूरी तरह तैयार थे| संगीता की नजरें जब मेरे साहब पर पड़ी तो उसके बदन में सिहरन उठी, बेमन से अपनी इच्छा दबाते हुए संगीता बोली; "जानू...बाहर सब हैं..." इतना कह संगीता चुप हो गई| मैं संगीता का मतलब समझ गया इसलिए संगीता के दाएँ गाला को सहलाते हुए बोला; "ठीक है जान, अभी नहीं तो बाद में सही!" इतना कह मैं अपने कपड़े उठाने वाला था की संगीता ने मुझे पीछे से अपनी बाहों में जकड़ लिया और बोली; "10 मिनट में निपटा सकते हो तो जल्दी से कर लेते हैं!" ये कहते हुए संगीता की दिल की धड़कन तेज़ हो गई थी क्योंकि उसके भीतर भी वही कामाग्नि धधक रही थी जो मेरे भीतर धधक रही थी| "दूसरे राउंड में ज्यादा टाइम लगता है, ऐसे में कहीं बच्चे हमें ढूँढ़ते हुए यहाँ आ गए तो बड़ी शर्मिंदगी होगी!" मैंने संगीता के हाथों से खुद को छुड़ाते हुए कहा| मेरी बात सुन संगीता ने बच्चों की तरह मुँह फुला लिया और बुदबुदाते हुए बोली; "फटाफट करते तो सब निपट जाता!" संगीता के इस तरह बुदबुदाने पर मुझे हँसी आ गई और मैं कपड़े पहन कर छत पर आ गया|
माँ ने जब मुझे देखा तो वो पूछने लगीं की मैं कहाँ गायब था तो मैंने झूठ कह दिया की स्तुति को सुला कर मैं नीचे सबको होली मुबारक कहने चला गया था|
इधर संगीता नहा-धो कर तैयार हो गई और रसोई में पुलाव बनाने लगी| करीब डेढ़ बजे तक खाना बन गया था इसलिए संगीता छत पर आ गई और हम सभी से बोली; "अच्छा बहुत खेल ली होली, चलो सब जने चल कर खाना खाओ|" आयुष को लगी थी बड़ी जोर की भूख इसलिए अपनी मम्मी का आदेश सुन सबसे पहले वो अपनी पिचकारी रख कर नहाने दौड़ा| इधर दिषु ने हमसे घर जाने की इजाजत माँगी तो संगीता नाराज़ होते हुए बोली; "रंग तो लगाया नहीं मुझे, कम से कम मेरे हाथ का बना खाना तो खा लो|"
"भाभी जी, हमारे में आदमी, स्त्रियों के साथ होली नहीं खेलते| तभी तो मैंने न आपको रंग लगाया न नेहा को रंग लगाया| आजतक जब भी मैं होली पर यहाँ आया हूँ तो आंटी जी (मेरी माँ) ने ही मुझे तिलक लगाया है और मैं केवल उनके पॉंव छू कर आशीर्वाद लेता हूँ|" अब देखा जाए तो वैसे हमारे गाँव में भी पुरुष महिलाओं के साथ होली नहीं खेलते थे, लेकिन देवर-भाभी और पति-पत्नी के आपस में होली खेलने पर कोई रोक नहीं थी! लेकिन दिषु के गॉंव में नियम कठोर थे इसलिए मैंने उसे कभी किसी लड़की के साथ होली खेलते हुए नहीं देखा| वो बात अलग है की साला होली खेलने के अलावा लड़कियों के साथ सब कुछ कर चूका था...ठरकी साला!
खैर, दिषु की बात का मान रखते हुए दोनों देवर-भाभी ने रंग नहीं खेला मगर संगीता ने दिषु को बिना खाये जाने नहीं दिया| जब तक बच्चे नाहा रहे थे तबतक संगीता ने दिषु को खाना परोस कर पेट भर खाना खिलाया| दिषु का खाना हुआ ही था की आयुष तौलिया लपेटे हुए मेरे पास आया और अपना निचला होंठ फुलाते हुए बोला; "पापा जी, मेरे चेहरे पर लगा हुआ रंग नहीं छूटता!" आयुष के आधे चेहरे पर गहरा गुलाबी रंग लगा हुआ था, जिसे देख हम सभी हँस पड़े! " बेटा, अभी मैं नहाऊँगा न तो मैं छुड़वा दूँगा|" मैंने आयुष को आश्वस्त करते हुए कहा| इधर दिषु खाना खा चका था इसलिए उसने माँ का आशीर्वाद लिया तथा आयुष को गोदी में ले कर जानबूझ कर अपने चेहरे पर लगा हुआ रंग उसके चेहरे से रगड़ कर फिर लगा दिया! "चाचू...आपने मुझे फिर से रंग लगा दिया!" आयुष प्यारभरी शिकायत करते हुए बोला|
"हाँ तो क्या हुआ, अभी फिर से पापा जी के साथ नाहा लियो!" संगीता बोली| दिषु सबसे विदा ले कर निकला और हम बाप-बेटे बाथरूम में नहाने घुसे| हम बाप-बेटे जब भी एक साथ नहाने घुसे हैं, हमने नहाने से ज्यादा नहाते हुए मस्ती की है| आज भी मैंने अपनी मस्ती को ध्यान में रखते हुए अपने फ़ोन में फुल आवाज़ में गाना लगा दिया: ठंडे-ठंडे पानी से नहाना चाहिए! "ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिये
गाना आये या ना आये गाना चाहिये
ओ पुत्तरा
ठंडे ठंडे पानी से..." मैंने गाना आरम्भ किया तो आयुष ने जोश में भरते हुए मेरा साथ देना शुरू कर दिया और बाल्टी किसी ढोलक की तरह बजाने लगा|
"बेटा बजाओ ताली, गाते हैं हम क़व्वाली
बजने दो एक तारा, छोड़ो ज़रा फव्वारा
ये बाल्टी उठाओ, ढोलक इससे बनाओ" जैसे ही मैंने गाने के ये बोल दोहराये आयुष ने शावर चालु कर जोर-जोर से बाल्टी को ढोलक समझ बजानी शुरू कर दी|
चूँकि बाथरूम का दरवाजा खुला था इसलिए संगीता को हम बाप-बेटे के गाने की आवाज़ साफ़ आ रही थी इसलिए वो भी इस दृश्य का रस लेने के लिए बाथरूम के दरवाजे पर खड़ी हो गई और गाने के सुर से सुर मिलाते हुए बोल दुहराने लगी;
“बैठे हो क्या ये लेकर, ये घर है या है थिएटर
पिक्चर नहीं है जाना, बाहर नहीं है आना" संगीता को हम बाप-बेटे के गाने में शामिल होते हुए देख हम दोनों बाप-बेटे का मज़ा दुगना हो गया| तभी गाने के बोल आये जिन्हें पीछे से आ कर नेहा ने गाया;
“मम्मी को भी अंदर बुलाना चाहिये" नेहा को गाने का शुरू से ही शौक रहा है इसलिए जैसे ही नेहा ने गाने के ये बोल दुहराए हम दोनों बाप-बेटों ने भी गाने की अगली पंक्ति दोहरा दी;
"तेरी, मम्मी को भी अंदर बुलाना चाहिये" कोरस में बाप-बेटों को गाते हुए देख संगीता प्यार से मुँह टेढ़ा करते हुए गाने के अगले बोल बोली;
“गाना आये या ना आये गाना चाहिये… धत्त" ये संगीता का हम दोनों बाप-बेटों को उल्हना देना था मगर हम बाप-बेटों ने एक सुर पकड़ लिया था इसलिए हम गाने की पंक्ति बड़े जोर से दोहरा रहे थे;
“अरे गाना आये या ना आये गाना चाहिये" अभी गाना खत्म नहीं हुआ था और संगीता जान गई थी की अब यहाँ हम बाप-बेटों ने रंगोली (रविवार को दूरदर्शन पर गानों का एक प्रोग्राम आता था|) का प्रोग्राम जमाना है इसलिए वो प्यारभरा नखरा दिखा कर मुड़ कर जाने लगी| तभी मैंने आयुष को उसकी मम्मी को पकड़ कर बाथरूम में लाने का इशारा किया| आयुष अपनी मम्मी को पकड़ने जाए, उससे पहले ही नेहा ने अपनी मम्मी का हाथ पकड़ा और बाथरूम में खींच लाई| संगीता खुद को छुड़ा कर बाहर भागे उससे पहले ही मैंने उसकी कलाई थाम ली और गाने के आगे के बोल दोहराये;
" तुम मेरी हथकड़ी हो, तुम दूर क्यों खड़ी हो
तुम भी ज़रा नहालो, दो चार गीत गा लो
दामन हो क्यों बचाती, अरे दुख सुख के हम हैं साथी" ये कहते हुए मैंने संगीता को अपने गीले बदन से चिपका लिया| परन्तु बच्चों की मौजूदगी का लिहाज़ कर संगीता ने खुद को मेरी पकड़ से छुड़ाया और गाने के आगे के बोल दोहराने लगी;
“छोड़ो हटो अनाड़ी, मेरी भिगो दी साड़ी
तुम कैसे बेशरम हो, बच्चों से कोई कम हो" संगीता मुझे अपनी साडी के भीग जाने का उल्हाना देते हुए बोली| लेकिन संगीता के इस प्यारभरे उलहाने को समझ आयुष बीच में गाने के बोल दोहराते हुए बोला;
"मम्मी को तो लड़ने का बहाना चाहिये" आयुष के ऐसा कहते ही मेरी तथा नेहा की हँसी छूट गई, उधर संगीता के चेहरे पर प्यारभरा गुस्सा आ गया| उसने आयुष के सर पर प्यार से थपकी मारी और बोली; "चुप बे शैतान!" जैसे ही संगीता ने आयुष को प्यार भरी थपकी मारी आयुष आ कर मुझसे लिपट गया| मैंने हाथ खोल कर नेहा को भी अपने पास बुलाया तथा दोनों बच्चों को अपने से लिपटाये हुए बच्चों के साथ कोरस में गाने लगा; "मम्मी को तो लड़ने का बहाना चाहिये!" हम तीनों को यूँ गाते देख संगीता के चेहरे पर मुस्कान आ गई और वो गाने की पंक्ति मेरे तथा बच्चों के साथ लिपट कर गाने लगी; "गाना आये या ना आये गाना चाहिये!"
फिर गाने में आया आलाप जिसे मैंने संजीव कुमार जी की तरह आँखें बंद कर के खींचा| अपने इस अलाप के दौरान मैं संगीता का हाथ पकड़े हुए था इसलिए संगीता खुद को छुड़ाने के लिए गाने के बोल दोहराने लगी;
“लम्बी ये तान छोड़ो,
तौबा है जान छोड़ो" मगर मैंने बजाए संगीता का हाथ छोड़ने के, बच्चों की परवाह किये बिना उसे कस कर खुद से लिपटा और दिवार तथा अपने बीच दबा कर गाने के बोल दोहराता हुआ बोला;
“ये गीत है अधूरा,
करते हैं काम पूरा" यहाँ काम पूरा करने से मेरा मतलब था वो प्रेम-मिलाप का काम पूरा करना जो पहले अधूरा रह गया था| वहीं मेरी गाने के बोलों द्वारा कही बात का असली अर्थ समझते हुए संगीता मुझे समझते हुए बोली;
"अब शोर मत करो जी,
सुनते हैं सब पड़ोसी" यहाँ पडोसी से संगीता का तातपर्य था माँ का| अपने इस गाने-बजाने के चक्कर में मैं भूल ही गया था की माँ घर पर ही हैं तथा वो हमारा ये गाना अवश्य सुन रही होंगी| "हे कह दो पड़ोसियों से" मैंने संगीता की आँखों में देखते हुए गाने के बोल कहे| जिसके जवाब में संगीता बोली; "क्या?"
"झाँकें ना खिड़कियों से" इतना कहते हुए मैंने बाथरूम का दरवाजा बंद कर दिया ताकि बाहर बैठीं माँ तक हमारी आवाज़ न जाए| लेकिन माँ का ध्यान आते ही संगीता को खाना परोसने की छटपटाहट होने लगी;
"दरवाज़ा खटखटाया, लगता है कोई आया" संगीता गाने के बोलों द्वारा बहाना बनाते हुए बोली|
"अरे कह दो के आ रहे हैं, साहब नहा रहे हैं" मैंने भी गाने के बोलों द्वारा संगीता के बहाने का जवाब दिया|
उधर बच्चे अपनी मम्मी-पापा जी का या रोमांस देख कर अकेला महसूस कर रहे थे इसलिए दोनों ने अपनी मम्मी को पकड़ मुझसे दूर खींचना शुरू कर दिया तथा गाने के आगे के बोल एक कोरस में गाने लगे;
“मम्मी को तो डैडी से छुड़ाना चाहिये
अब तो मम्मी को डैडी से छुड़ाना चाहिये" बच्चों ने जब अपनी मम्मी को मुझसे दूर खिंचा तो मैंने संगीता के साथ-साथ दोनों बच्चों को भी अपने से लिपटा लिया और शावर के नीचे पूरा परिवार भीगते हुए "गाना आये या ना आये गाना चाहिये" गा रहा था|
गाना खत्म होते-होते हम चरों भीग चुके थे मगर इस तरह एक साथ शावर के नीचे भीगने से संगीता और नेहा नाराज़ नहीं थे| हम बाप-बेटा ने बाथरूम का दरवाजा बंद कर नहाना शुरू किया और उधर माँ-बेटी कमरे में अपने कपड़े बदल कर माँ के पास पहुँच गए| मैंने फेसवाश और साबुन से रगड़-रगड़ कर आयुष के चेहरे पर से रंग काफी हद्द तक उतार दिया था| आयुष को नहला कर मैंने पहले भेजा तथा मैं नहा कर कपड़े पहन कर जब खाना खाने पहुँचा तो माँ मज़ाक करते हुए बोलीं; "तू नहा रहा था या सबको नहला रहा था?!" माँ की बात का जवाब मैं क्या देता इसलिए चुपचाप अपना मुँह छुपाते हुए खाना खाने लगा|
खाना खिला कर मैंने बच्चों को सुला दिया ताकि बाथरूम में बचा हुआ काम पूरा किया जाए| माँ भी आराम कर रहीं थीं इसलिए हमने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया| जो काम संगीता सुबह 10 मिनट में पूरा करवाना चाह रही थी वो काम पूरा घंटे भर चला| काम तमाम कर हम सांस ले रहे थे की तभी स्तुति जाग गई और अपने दोनों हाथों-पैरों पर रेंगते हुए मेरे सीने पर चढ़ कर मुझसे लिपट गई|
बच्चों के स्कूल खुल गए थे और स्कूल के पहले दिन ही बच्चों को स्कूल में वैक्सीन लगने का लेटर मिला| बच्चों को वैक्सीन लगवा ने से बहुत डर लग रहा था इसलिए दोनों बच्चे बहुत घबराये हुए थे| माँ ने जब अपने पोता-पोती को घबराते हुए देखा तो वो दोनों का डर भगाते हुए बोलीं; "बच्चों डरते नहीं हैं, अपने पापा जी को देखो...जब मानु स्कूल में था तो उसे भी सुई (वैक्सीन) लगती थी और वो बिना डरे सुई लगवाता था| सिर्फ स्कूल में ही नहीं बल्कि क्लिनिक में भी जब मानु को सुई लगी तो वो कभी नहीं घबराया और न ही रोया| यहाँ तक की डॉक्टर तो तुम्हारे पापा जी की तारीफ करते थे की वो बाकी बच्चों की तरह सुई लगवाते हुए कभी नहीं रोता या चीखता-चिल्लाता!" माँ की बात सुन दोनों बच्चे मेरी तरफ देखने लगे और मुझसे हिम्मत उधार लेने लगे|
अगले दिन बच्चों को स्कूल में वैक्सीन लगी और जब दोपहर को बच्चे घर लौटे तो आयुष दर्द के मारे अपनी जाँघ सहला रहा था| आयुष को कुछ ख़ास दर्द नहीं हो रहा था, ये तो बस उसका मन था जो उसे सुई का दर्द इतना बढ़ा-चढ़ा कर महसूस करवा रहा था| "Awww मेरा बहादुर बेटा!" मैंने आयुष को अपने पास बुलाया और उसका मनोबल बढ़ाने के लिए कहा तथा आयुष को अपने गले लगा कर उसको लाड करने लगा| मेरे जरा से लाड-प्यार से आयुष का दर्द छूमंतर हो गया और वो ख़ुशी से खिलखिलाने लगा|
आयुष और नेहा को तो वैक्सीन लग चकी थी, अब बारी थी स्तुति की| अभी तक मैं, माँ और संगीता, स्तुति को वैक्सीन लगवाने के लिए आंगनबाड़ी ले जाते थे| स्तुति को सुई लगते समय माँ और संगीता भीतर जाते थे तथा मुझे बाहर रुकना पड़ता था| स्तुति को सुई लगते ही वो रोने लगती और उसे रोता हुआ सुन मेरा दिल बेचैन हो जाता| जैसे ही संगीता रोती हुई स्तुति को ले कर बाहर आती मैं तुरंत स्तुति को अपनी गोदी में ले कर उसे चुप कराने लग जाता|
इस बार जब हम स्तुति को वैक्सीन लगवा कर लाये तो उसे रात को बुखार चढ़ गया| अपनी बिटिया को बुखार से पीड़ित देख मैं बेचैन हो गया| स्तुति रोते हुए मुझे अपने बुखार से हो रही पीड़ा से अवगत करा रही थी जबकि मैं बेबस हो कर अपनी बिटिया को चुप कराने में लगा था| मुझे यूँ घबराते हुए देख माँ मुझे समझाते हुए बोलीं; "बेटा, घबरा मत! छोटे बच्चों को सुई लगने के बाद कभी-कभी बुखार होता है, लेकिन ये बुखार सुबह होते-होते उतर जाता है|" माँ की बात सुन मेरे मन को इत्मीनान नहीं आया और वो पूरी रात मैं जागता रहा| सुबह जब मेरी बिटिया उठी तो उसका बुखार उतर चूका था इसलिए वो चहकती हुई उठी| अपनी बिटिया को खुश देख मेरे दिल को सुकून मिला और मैं स्तुति को गुदगुदी कर उसके साथ खेलने लगा|
मैं एक बेटे, एक पति और एक पिता की भूमिका के बेच ताल-मेल बनाना सीख गया था| दिन के समय मैं एक पिता और एक बेटे की भूमिका अदा करते हुए अपने बच्चों तथा माँ को खुश रखता और रात होने पर एक पति की भूमिका निभा कर अपनी परिणीता को खुश रखता|
रात को बिस्तर पर हम दोनों मियाँ-बीवी हमारे प्रेम-मिलाप में कुछ न कुछ नयापन ले ही आते थे| ऐसे ही एक दिन मैं अपने फेसबुक पर दोस्तों की फोटो देख रहा था जब मैंने क्लबफैक्ट्री की ऐड देखि जिसमें एक लड़की 2 पीस बिकिनी में खड़ी थी! ये ऐड देख कर मेरे मन ने संगीता को उन कपड़ों को पहने कल्पना करना शुरू कर दिया| मैंने उस ऐड पर क्लिक किया और ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मुझे एक चाइनीज़ लड़की को अंग्रेजी फिल्मों में दिखाई जाने वाली मैड (maid) फ्रॉक (frock) पहने हुए दिखी| "यही तो मैं ढूँढ रहा था!" मैं ख़ुशी से चिल्लाया और फौरन उस फ्रॉक तथा 2 पीस बिकिनी को आर्डर कर दिया| आर्डर करने के बाद मुझे पता चला की इसे तो चीन से यहाँ आने में 15-20 दिन लगेंगे! अब कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि ये ड्रेस ऑनलाइन कहीं नहीं मिल रही थी और किसी दूकान में खरीदने जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी!
शाम को घर लौट मैंने संगीता को अपने प्लान किये सरप्राइज के बारे में बताते हुए कहा; "जान, मैंने हमारे लिए एक बहुत ही जबरदस्त सरप्राइज प्लान किया है, ऐसा सरप्राइज जिसे देख कर तुम बहुत खुश होगी! लेकिन उस सरप्राइज को आने में लगभग महीने भर का समय लगेगा और जब तक वो सरप्राइज नहीं आ जाता हम दोनों को जिस्मानी तौर पर एक दूसरे से दूरी बनानी होगी| जिस दिन मैं वो सरप्राइज घर लाऊँगा उसी रात को हम एक होंगें|" मेरी बात सुन संगीता हैरान थी, उसे जिज्ञासा हो रही थी की आखिर मैं उसे ऐसा कौन सा सरप्राइज देने जा रहा हूँ जिसके लिए उसे पूरा एक महीना इंतज़ार करना होगा?!
अब एक छत के नीचे होते हुए हम दोनों में एक दूसरे से दूर रहने का सब्र थोड़ा कम था इसलिए संगीता थोड़ा चिढ़ते हुए बोली; "अगर आपका ये सरप्राइज 30 दिन में नहीं आया या फिर मुझे आपका ये सरप्राइज पसंद नहीं आया, तो आप सोच नहीं सकते की मैं आपको मुझे यूँ महीना भर तड़पाने की क्या सजा दूँगी!" संगीता की बातों में उसका गुस्सा नज़र आ रहा था, वहीं उसके इस गुस्से को देख मैं सोच में पड़ गया था की अगर मेरे आर्डर किये हुए कपड़े नहीं आये तो संगीता मेरी ऐसी-तैसी कर देगी!
खैर, अब चूँकि हमें एक महीने तक सब्र करना था इसलिए मैंने अपना ध्यान बच्चों में लगा लिया और संगीता माँ के साथ कपड़े खरीदने में व्यस्त हो गई| चूँकि मेरा पूरा ध्यान बच्चों पर था तो बच्चे बहुत खुश थे पर सबसे ज्यादा स्तुति खुश थी| मेरे घर पर रहते हुए स्तुति बस मेरे पीछे-पीछे घूमती रहती| अगर मैं कंप्यूटर पर बैठ कर काम कर रहा होता तो स्तुति रेंगते हुए मेरे पॉंव से लिपट जाती तथा 'आ' अक्षर को दुहराते हुए मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचती| अगर मैं कभी स्तुति को गोदी ले कर फ़ोन पर बात कर रहा होता तो स्तुति चिढ जाती तथा फ़ोन काटने को कहती क्योंकि मेरी बिटिया चाहती थी की मेरा ध्यान केवल उस पर रहे!
गर्मियों का समय था इसलिए स्तुति को मैंने टब में बिठा कर नहलाना शुरू कर दिया| नहाते समय स्तुति की मस्ती शुरू हो जाती और वो पानी में अपने दोनों हाथ मार कर छप-छप कर सारा पानी मुझ पर उड़ाने लगती| मुझे भिगो कर स्तुति को बहुत मज़ा आता और वो खिखिलाकर हँसने लगती| नहाते समय मुझे भिगाने की आदत स्तुति को लग चुकी थी इसलिए मेरी अनुपस्थिति में जब संगीता, स्तुति को नहलाती तो स्तुति पानी छप-छप कर पानी अपनी मम्मी पर उड़ाती और संगीता को भिगो देती| स्तुति द्वारा भिगोया जाना मुझे तो पसंद था मगर संगीता को नहीं इसलिए जब स्तुति उसे भिगो देती तो संगीता उसे डाँटने लगती! घर आ कर स्तुति मेरी गोदी में चढ़ कर अपनी मम्मी की तरफ इशारा कर के मूक शिकायत करती और अपनी बिटिया को खुश करने के लिए मैं झूठ-मूठ संगीता को डाँट लगाता तथा संगीता के कूल्हों पर एक थपकी लगाता| मेरी इस थपकी से संगीता को बड़ा मज़ा आता और वो कई बार अपने कूल्हे मुझे दिखा कर फिर थपकी मारने का इशारा करती| नटखट संगीता...हर हाल में वो मेरे साथ मस्ती कर ने का बहाना ढूँढ लेती थी!!!!
अब जब माँ इतनी मस्तीखोर है तो बिटिया चार कदम आगे थी| हिंदी वर्णमाला के पहले अक्षर 'अ' को खींच -खींच कर रटते हुए स्तुति सारे घर में अपने दोनों पॉंव और हाथों पर रेंगते हुए हल्ला मचाती रहती| जैसे ही मैं घर आता तो मेरी आवाज सुन स्तुति खदबद-खदबद करते हुए मेरे पास आ जाती| जब स्तुति को खाना खिलाने का समय होता तो स्तुति मुझसे दूर भागती और माँ के पलंग के नीचे छुप जाती! माँ के पलंग के नीचे छुप कर स्तुति मुझे अपनी जीभ दिखा कर चिढ़ाती की मैं उसे पलंग के नीचे नहीं पकड़ सकता! "मेरा बच्चा, मेरे साथ शैतानी कर रहा है?!" ये कहते हुए मैं अपने दोनों हाथों और घुटनों पर झुकता तथा स्तुति को पकड़ने के लिए पलंग के नीचे घुस जाता| मुझे अपने साथ पलंग के नीचे पा कर स्तुति मेरे गले से लिपट जाती और खी-खी कर हँसने लगती|
ऐसे ही एक दिन शाम के समय मैं घर पहुँचा था की संगीता मुझे काम देते हुए बोली; "आपकी लाड़ली की बॉल हमारे पलंग के नीचे चली गई है, जा कर पहले उसे निकालो, सुबह से रो-रो कर इसने मेरी जान खा रखी है!" अपनी बिटिया की ख़ुशी के लिए मैं उसकी मनपसंद बॉल निकालने के लिए ज़मीन पर पीठ के बल लेट गया और अपना दायाँ हाथ पलंग के नीचे घुसेड़ कर बॉल पकड़ने की कोशिश करने लगा| इतने में स्तुति ने मेरी आवाज़ सुन ली थी और वो रेंगते हुए मेरे पास आ गई, मुझे ज़मीन पर लेटा देख स्तुति को लगा की मैं सो रहा हूँ इसलिए स्तुति रेंगते हुए मेरे सीने पर चढ़ मुझसे लिपट गई| "बेटा, मैं आपकी बॉल पलंग के नीचे से निकाल रहा हूँ|" मैंने हँसते हुए कहा, परंतु मेरे हँसने से मेरा पेट और सीना ऊपर-नीचे होने लगा जिससे स्तुति को मज़ा आने लगा था इसलिए स्तुति ने कहकहे लगाना शुरू कर दिया| हम बाप-बेटी को ज़मीन पर लेटे हुए कहकहे लगाते देख संगीता अपनी कमर पर दोनों हाथ रखते हुए अपना झूठा गुस्सा दिखाते हुए बोली; "घर में एक शैतान कम है जो आप भी उसी के रंग में रंगे जा रहे हो?!" संगीता की बातों का जवाब दिए बिना मैं स्तुति को अपनी बाहों में भरकर ज़मीन पर लोटपोट होने लगा|
इधर आयुष बड़ा हो रहा था और उसके मन में जिज्ञासा भरी पड़ी थी| एक दिन की बात है माँ और नेहा मंदिर गए थे और घर में बस आयुष, मैं, स्तुति और संगीता थे| हम बाप-बेटा-बेटी सोफे पर बैठे कार्टून देख रहे थे जब आयुष शर्माते हुए मुझसे अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में बात करने लगा;
आयुष: पापा जी...वो...फ..फलक ने है न... उसने आज मुझे कहा की वो मुझे पसंद करती है!
ये कहते हुए आयुष के गाल लालम-लाल हो गए थे!
मैं: Awwww....मेरा हैंडसम बच्चा! मुबारक हो!
मैंने आयुष को मुबारकबाद देते हुए कहा और उसके सर को चूम लिया| मेरे लिए ये एक आम बात थी मगर आयुष के लिए ये मौका ऐसा था मानो उसकी गर्लफ्रेंड ने उसे आई लव यू कहा हो! मेरी मुबारकबाद पा कर आयुष शर्माने लगा परन्तु मुझे आयुष का यूँ शर्माना समझ नहीं आ रहा था इसलिए मेरे चेहरे पर सवालिया निशान थे| खैर, आयुष के शर्माने का कारण क्या था वो उसके पूछे अगले सवाल से पता चला;
आयुष: तो...पापा जी...हम दोनों (आयुष और फलक) अब शादी करेंगे न?
आयुष का ये भोला सा सवाल सुन मुझे बहुत हँसी आई लेकिन मैं आयुष पर हँस कर उसे शर्मिंदा नहीं करना चाहता था इसलिए अपनी हँसी दबाते हुए मैंने आयुष को अपनी गोदी में लिया और उसे प्यार से समझाते हुए बोला;
मैं: बेटा, आप अभी बहुत छोटे हो इसलिए आपकी अभी शादी नहीं हो सकती| लड़कों को कम से कम 21 साल का होना होता है उसके बाद वो अपनी जिम्मेदारी उठाने लायक होते हैं और तभी उनकी शादी की जाती है|
इस समय सबसे जर्रूरी बात ये है बेटा जी की फलक आपकी सबसे अच्छी दोस्त है| ये सब शादी, प्यार-मोहब्बत सब तब होते है जब आप बड़े हो जाओगे, अभी से ये सब सोचना अच्छी बात नहीं है| आपकी उम्र इस वक़्त आपकी दोस्त के साथ खेलने-कूदने, मस्ती करने की है| आपको पता है, एक लड़की दोस्त होने का क्या फायदा होता है?
मैं बुद्धू छोटे से आयुष को किसी बड़े बच्चे की तरह समझ तार्किक तरह से समझा रहा था, जबकि मुझे तो उसे छोटे बच्चों की तरह समझाना था! बहरहाल, मेरे अंत में पूछे सवाल से आयुष जिज्ञासु बनते हुए अपना सर न में हिलाने लगा;
मैं: एक लड़की दोस्त होने से आपके मन में लड़कियों से बात करने की शर्म नहीं रहती| जब आप बड़े हो जाओगे तो आप लड़कियों से अच्छे से बात कर पाओगे| आपको पता है, जब मैं छोटा था तब मेरी कोई लड़की दोस्त नहीं थी इसलिए जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा मुझे लड़कियों से बात करने में शर्म आने लगी, डर लगने लगा| वो तो आपकी मम्मी जी थीं जिनके साथ मैंने जो थोड़ा बहुत समय व्यतीत किया उससे मैं लड़कियों से बात करना सीख गया| फलक से बात कर आप अपने इस डर और झिझक पर विजयी पाओगे|
मैंने अपनी क्षमता अनुसार आयुष को समझा दिया था और आयुष मेरी बातें थोड़ी-थोड़ी समझने लगा था, परन्तु आयुष को मुझसे ये सब सुनने की अपेक्षा नहीं थी| वो तो चाहता था की मैं उसे छोटे बच्चों की तरह लाड-प्यार कर समझाऊँ!
खैर, मैंने आयुष को फलक से दोस्ती खत्म करने को नहीं कहा था, मैंने उसे इस उम्र में 'प्यार-मोहब्बत सब धोका है' इस बात की ओर केवल इशारा कर दिया था!
फिलहाल के लिए आयुष ने मुझसे कोई और सवाल नहीं पुछा, मैंने भी उसका ध्यान कार्टून में लगा दिया| कुछ देर बाद जब मैं स्तुति को गाना चला कर नहला रहा था तब आयुष अपनी मम्मी से यही सवाल पूछने लगा;
आयुष: मम्मी...वो न...मुझे आपसे...कुछ पूछना था!
आयुष को यूँ शर्माते हुए देख संगीता हँस पड़ी और उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोली;
संगीता: पूछ मेरे लाल|
आयुष: वो मम्मी...फलक है न...उसने न कहा की वो मुझे पसंद करती है!
इतना कहते हुए आयुष के गाल शर्म के मारे लाल हो गए|
संगीता: अच्छा?! अरे वाह!!
संगीता ने हँसते हुए आयुष को गोदी में उठाते हुए कहा|
आयुष: तो मम्मी...अब हमें शादी करनी होगी न?
आयुष का ये बचकाना सवाल सुन संगीता खूब जोर से हँसी, इतना जोर से की मुझे बाथरूम के अंदर स्तुति को नहलाते हुए संगीता की हँसी सुनाई दी|
वहीं, अपनी मम्मी को यूँ ठहाका मार कर हँसते देख आयुष को गुस्सा आ रहा था, अरे भई एक बच्चा अपने मन में उठा सवाल पूछ रहा है और मम्मी है की ठहाका मार कर हँसे जा रही है?!
जब संगीता को एहसास हुआ की आयुष गुस्सा हो गया है तो उसने आयुष को रसोई की स्लैब पर बिठाया और उसे प्यार से समझाते हुए बोली;
संगीता: बेटा, शादी के लिए अभी तू बहुत छोटा है| एक बार तू बड़ा हो जा फिर मैं, जिससे तू कहेगा उससे शादी कराऊँगी| अभी तेरी शादी करवा दी तो तेरे साथ-साथ मुझे तेरी दुल्हन का भी पालन-पोषण करना पड़ेगा और इस उम्र में मुझसे इतना काम नहीं होता! जब तू बड़ा हो जायगा तबतक तेरी दुल्हन भी बड़ी हो जाएगी और तेरी शादी के बाद वो चूल्हा-चौका सँभालेगी, तब मैं आराम करुँगी!
संगीता ने मज़ाक-मज़ाक में आयुष को जो बात कही, वो बात आयुष को मेरी समझाई बात के मुक़ाबले बहुत अच्छी लगी इसलिए उसने ख़ुशी-ख़ुशी ये बात स्वीकार ली और फिलहाल के लिए शादी करने का अपना विचार त्याग दिया! मेरी बात का अर्थ समझने के लिए आयुष को थोड़ा बड़ा होना था, उसकी उम्र के हिसाब से संगीता की बात ही उसे प्यारी लग रही थी|
शाम के समय जब बच्चे सो रहे थे तब संगीता ने आयुष की शादी करने की जिद्द को माँ से साझा किया तो माँ को खूब हँसी आई| जब आयुष सो कर उठा तो माँ उसे लाड करते हुए बोलीं; "बेटा, अभी तू छोटा है, अभी तेरा ध्यान पढ़ाई में और थोड़ा बहुत मौज-मस्ती करने में होना चाहिए| ये शादी-वादी की बात हम तब सोचेंगे जब तू बड़ा हो जायेगा!" आयुष को अपनी दादी जी की बात अच्छी लगी इसलिए वो खुश होते हुए अपनी दादी जी से लिपट गया|
जारी रहेगा भाग - 20 (3) में
बहुत ही सुंदर लाजवाब और अद्भुत रमणिय अपडेट हैइकत्तीसवाँ अध्याय: घर संसार
भाग - 20 (2)
अब तक अपने पढ़ा:
हम तीनों बाप-बेटा-बेटी गले लगे थे तो स्तुति को आया प्यारा सा गुस्सा, वो भी अपनी मम्मी की तरह मुझ पर हक़ जमाती थी| "स्तुति ने मेरी तरफ अपने हाथ फैलाये और खुद को गोदी लेने को कहने के लिए अपनी बोली-भाषा में कुनमुनाने लगी| मैंने दोनों बच्चों को एक मिनट रुकने को कहा तथा स्तुति को अपनी गोदी में उठा लिया, स्तुति को एक हाथ से सँभाल कर मैंने आयुष और नेहा को फिर से मेरे गले लगने को कहा| दोनों बच्चे आ कर मुझसे लिपट गए, लेकिन स्तुति को अपने पापा जी को अपने बड़े भैया और बड़ी दीदी के साथ बाँटना अच्छा नहीं लगता था इसलिए उसने अपनी दीदी और अपने भैया के बाल खींचने शुरू कर दिए! जब स्तुति ने नेहा के बाल खींचे तो नेहा ने पहले तो अपने बाल स्तुति की पकड़ से छुड़ाए और फिर स्तुति के कूल्हों पर प्यारी सी चपत लगाते हुए बोली; "चुहिया!" इतना कह नेहा स्तुति के लिए लाये हुए खिलोने पैकेट से निकलने लगी| स्तुति के लिए नए खिलोने देख कर आज मेरा मन बच्चों के साथ खेल-खेलने का कर रहा था| मैंने नेहा को सारे खिलोने अच्छे से धो कर लाने को कहा| फिर मैं, आयुष और नेहा डाइनिंग टेबल की कुर्सी खींच कर बैठ गए तथा स्तुति को हमने डाइनिंग टेबल के ऊपर बिठा दिया| नेहा ने झूठ-मूठ की गैस जलाई और उन छोटे-छोटे बर्तनों में खाना बनाने का अभिनय करने लगी| स्तुति को ये खेल समझ नहीं आ रहा था परन्तु वो अपनी दीदी को खाना बनाने का अभिनय करते हुए बड़ी गौर से देख रही थी| खेल को थोड़ा सा और असली बनाने के लिए उन खाली बर्तनों में स्तुति को खिलाये जाने वाले फल को मींज कर डाल दिया| जब खाना बना तो नेहा ने हम सभी के लिए छोटी-छोटी प्लेटों में मींजे हुए फल खाने के रूप में परोस दिए| जब मैंने स्तुति को उसकी छोटी सी प्लेट उठा कर दी तो स्तुति बहुत खुश हुई और उसने आज पहलीबार अपने हाथ से प्लेट में मींजे हुए फलों के मिश्रण को अपने हाथों से उठाया और खाया| स्तुति को ये खेल पसंद आ गया था इसलिए रोज़ शाम को हम चारों मिल कर ये खेल खेलने लगे|
अब आगे:
आज होली के उपलक्ष्य में स्तुति की पहली होली का किस्सा सुना देता हूँ;
स्तुति लगभग 7 महीने की थी और होली का पर्व आ गया था| ये स्तुति की हमारे साथ पहली होली थी इसलिए मैं आज के दिन को ले कर बहुत उत्सुक था| बच्चों की परीक्षा हो चुकी थी और रिजल्ट आने में तब बहुत दिन बचे थे| बच्चों के लिए मैं पिचकारी, गुब्बारे, गुलाल और रंग बड़े चाव से लाया था| स्तुति बहुत छोटी थी इसलिए हमें उसे रंगों से बचाना था क्योंकि स्तुति की आदत थी की कोई भी चीज हो, सस्बे पहले उसे चख कर देखना इसलिए माँ ने दोनों बच्चों को सख्त हिदायत दी की वो स्तुति पर रंग न डालें| बच्चों ने अपना सर हाँ में हिला कर अपनी दादी जी की बात का मान रखा| चूँकि स्तुति मेरे अलावा किसी से सँभलती नहीं इसलिए मैं बच्चों के साथ होली नहीं खेल सकता था, बच्चों को मेरी कमी महसूस न हो उसके लिए मैंने दिषु को घर बुला लिया था|
खैर, दिषु के आने से पहले हम सभी गुलाल लगा कर शगुन कर रहे थे| सबसे पहले माँ ने हम सभी को गुलाल से टीका लगाया और हमने माँ के पॉंव छू कर उनका आशीर्वाद लिया| जब स्तुति को गुलाल लगाने की बारी आई तो स्तुति हम सभी के चेहरों पर गुलाल का तिलक लगा देख कर गुलाल लगवाने के लिए ख़ुशी से छटपटाने लगी| "हाँ-हाँ बेटा, तुझे भी गुलाल लगा रही हूँ!" माँ हँसते हुए बोलीं तथा एक छोटा सा तिलक स्तुति के मस्तक पर लगा उसके दोनों गाल चूम लिए| स्तुति कहीं गुलाल को अपने हाथों से छू वो हाथ अपने मुँह को न लगा दे इसलिए मैंने स्तुति के माथे पर से गुलाल का तिलक पोंछ दिया|
अब बारी थी माँ को गुलाल लगाने की, हम सभी ने बारी-बारी माँ को तिलक लगाया तथा माँ ने हम सभी के गाल चूम कर हमें आशीर्वाद दिया| अब रह गई थी तो बस स्तुति और माँ को आज स्तुति के हाथों गुलाल लगवाने का बड़ा चाव था, परन्तु वो स्तुति का गुलाल वाले हाथ अपने मुँह में ले बीमार पड़ने का खतरा नहीं उठाना चाहती थीं| अपनी माँ की इस प्यारी सी इच्छा को समझ मैंने स्तुति का हाथ पकड़ गुलाल वाले पैकेट में डाल दिया तथा स्तुति का हाथ पकड़ कर माँ के दोनों गालों पर रगड़ दिया| जितनी ख़ुशी माँ को अपनी पोती से गुलाल लगवाने में हो रही थी, उतनी ही ख़ुशी स्तुति को अपनी दादी जी को गुलाल लगाने में हो रही थी| भई दादी-पोती का ये अनोखा प्यार हम सभी की समझ से परे था!
अपनी दादी जी को गुलाल लगा कर ख़ुशी चहक रही थी| अगला नंबर संगीता का था मगर आयुष और नेहा ख़ुशी से फुदकते हुए आगे आ गए और एक साथ चिल्लाने लगे; "पापा जी, हमें स्तुति से रंग लगवाओ!" मैंने एक बार फिर गुलाल के पैकेट में स्तुति का हाथ पकड़ कर डाला और स्तुति ने इस बार अपनी मुठ्ठी में गुलाल भर लिया| फिर यही हाथ मैंने दोनों बच्चों के चेहरों पर बारी-बारी से रगड़ दिया! इस बार भी स्तुति को अपने बड़े भैया और दीदी के गाल रंगने में बड़ा मज़ा आया! फिर बारी आई संगीता की; "सुन लड़की, थोड़ा सा रंग लगाइयो वरना मारूँगी तुझे!" संगीता ने स्तुति को प्यार भरी धमकी दी जिसे स्तुति ने हँस कर दरकिनार कर दिया! मैंने जानबूझ कर संगीता को स्तुति के हाथों थोड़ा रंग लगवाया क्योंकि आज संगीता को रंगने का हक़ बस मुझे था! अंत में बारी थी मेरी, स्तुति को अपना सारा प्यार रंग के रूप में मेरे ऊपर उड़ेलना था इसलिए स्तुति की मुठ्ठी में जितना गुलाल था उसे मैंने स्तुति के हाथों अपने चेहरे पर अच्छे से पुतवा लिया! अपने पापा जी के पूरे चेहरे पर रंग लगा कर स्तुति बहुत खुश हुई और किलकारियाँ मार कर हँसने लगी| "शैतान लड़की! अपने पापा जी का सारा चेहरा पोत दिया, अब मैं कहाँ रंग लगाऊँ?!" संगीता नाक पर प्यारा सा गुस्सा ले कर बोली पर स्तुति को कहाँ कुछ फर्क पड़ता था उसे तो सबके चेहरे रंग से पोतने में मज़ा आ रहा था|
मैं बच्चों को या संगीता को रंग लगाता उससे पहले ही दिषु आ गया और दिषु को देख स्तुति को पोतने के लिए एक और चेहरा मिल गया! "ले भाई, पहले अपनी भतीजी से रंग लगवा ले!" मैंने स्तुति का हाथ फिर गुलाल के पैकेट में डाला और स्तुति ने अच्छे से अपने दिषु चाचू के चेहरे पर रंग पोत दिया| "बिटिया रानी बड़ी शैतान है! मेरा पूरा चेहरा पोत दिया!" दिषु हँसते हुए बोला| अब वो तो स्तुति को रंग लगा नहीं सकता था इसलिए वो माँ का आशीर्वाद लेने चल दिया| इधर मैंने स्तुति का हाथ अच्छे से धुलवाया और स्तुति को माँ की गोदी में दिया| फिर मैंने पहले दोनों बच्चों को अच्छे से रंग लगाया तथा बच्चों ने भी मेरे गालों पर रंग लगा कर मेरा आशीर्वाद लिया|
गुलाल का पैकेट ले कर मैं संगीता के पहुँचा तो संगीता प्यार भरे गुस्से से बुदबुदाते हुए बोली; "मुझे नहीं लगवाना आपसे रंग! मेरे रंग लगाने की कोई जगह बची है आपके चेहरे पर जो मैं आपको रंग लगाने दूँ?!" संगीता की इस प्यारभरी शिकायत को सुन मैं मुस्कुराया और संगीता को छेड़ते हुए बोला; "हमरे संगे फगवा खेरे बिना तोहार फगवा पूर हुई जाई?" मेरी बात सुन संगीता के चेहरे पर शर्म भरी मुस्कान आ गई और वो मुझसे नजरें चुराते हुए रसोई में चली गई| मैंने भी सोच लिया की पिछलीबार की तरह इस बार भी मैं संगीता को रंग कर रहूँगा, फिर चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े!
संगीता रसोई में गई और इधर दिषु ने अपने दोनों हाथों में रंग लिया और मेरे पूरे चेहरे और बालों में चुपड़ दिया! जवाब में मैंने भी रंग लिया और दिषु के चेहरे और बालों में रंग चुपड़ने लगा| हम दोनों दोस्तों को यूँ एक दूसरे को रंग से लबेड़ते हुए देख बच्चों को बहुत मज़ा आ रहा था| वहीं बरसों बाद यूँ एक दूसरे को रंग लबेड़ते हुए देख हम दोनों दोस्तों को भी बहुत हँसी आ रही थी| जब हमने एक दूसरे की शक्ल रंग से बिगाड़ दी तब हम अलग हुए और हम दोनों न मिलकर दोनों बच्चों को निशाना बनाया| दिषु अपने छोटे से भतीजे आयुष के पीछे दौड़ा तो मैं नेहा को रंग लगाने के लिए दौड़ा| हम चारों दौड़ते हुए छत पर पहुँचे, आयुष ने अपनी पिचकारी में पानी भर अपने दिषु चाचू को नहलाना शुरू किया| इधर नेहा भागते हुए थक गई थी इसलिए मैंने अपनी बिटिया को गोदी में उठाया और पानी से भरी बाल्टी में बिठा दिया! नेहा आधी भीग गई थी इसलिए नेहा ने बाल्टी के पानी को चुल्लू में उठा कर मेरे ऊपर फेंकना शुरू कर दिया| उधर दिषु पूरा भीग चूका था मगर फिर भी उसने आयुष को पकड़ लिया और उसके चेहरे और बालों को अच्छे से रंग डाला!
बच्चों ने आपस में मिल कर अपनी एक टीम बनाई और इधर हम दोनों दोस्तों ने अपनी एक टीम बनाई| बच्चे हमें कभी पिचकारी तो कभी गुब्बारे मारते और हम दोनों दोस्त मिलकर बच्चों के ऊपर गिलास या मघ्घे से भर कर रंग डालते! हम चारों के हँसी ठहाके की आवाज़ भीतर तक जा रही थी, स्तुति ने जब ये हँसी-ठहाका सूना तो वो बाहर छत पर आने के लिए छटपटाने लगी| हारकर माँ स्तुति को गोदी में ले कर बाहर आई और दूर से हम चारों को होली खेलते हुए स्तुति को दिखाने लगी| हम चारों को रंगा हुआ देख स्तुति का मन भी होली खेलने को था इसलिए वो माँ की गोदी से निचे उतरने को छटपटाने लगी| अब हमें स्तुति को रंगों से दूर रखना था इसलिए मैंने तीनों चाचा-भतीजा-भतीजी को रंग खेलने को कहा तथा मैं स्तुति को गोदी ले कर उसके हाथों से खुद को रंग लगवाने लगा| स्तुति को मुझे रंग लगाने में बड़ा माज़ा आ रहा था इसलिए मैंने उसके दोनों हाथों से अपने गाल पुतवाने शुरू कर दिए|
इतने में संगीता पकोड़े बना कर ले आई और हम सभी को हुक्म देते हुए बोली; "चलो अब सब रंग खेलना बंद करो! पहले पकोड़े और गुजिया खाओ, बाद में खेलना|" संगीता के हुक्म की तामील करते हुए हम सभी हाथ धो कर ज़मीन पर ही आलथी-पालथी मार कर एक गोला बना कर बैठ गए| मैं स्तुति को केला खिलाने लगा तथा नेहा मुझे अपने हाथों से पकोड़े खिलाने लगी|
खा-पी कर हम सभी फिर से होली खेलने लगे| घर के नीचे काफी लोग हल्ला मचाते हुए होली खेल रहे थे तथा कुछ लोग घर के नीचे से गुज़र भी रहे थे| दिषु ने दोनों बच्चों को गुब्बारे भरने में लगा दिया तथा खुद निशाना लगाने लग गया| चूँकि मेरी गोदी में स्तुति थी इसलिए मैं रंग नहीं खेल रहा था, मैंने सोचा की चलो क्यों न स्तुति को भी दिखाया जाए की होली में गुब्बारे कैसे मारते हैं इसलिए मैं स्तुति को ले कर दिषु के बराबर खड़ा हो नीचे जाने वाले लोगों पर गुब्बारे मारते हुए स्तुति को दिखाने लगा| दिषु का निशाना लगे न लगे पर स्तुति को गुब्बारे फेंकते हुए देखने में बड़ा मज़ा आ रहा था| अपनी बेटी को खुश करने के लिए मैंने आयुष को एक गुब्बारे में थोड़ा सा पानी भर कर लाने को कहा| गुब्बारे में थोड़ा पानी भरा होने से गुब्बारा जल्दी फूटता नहीं बल्कि किसी गेंद की तरह थोड़ा उछलने लगता था| मैंने ये गुब्बारा स्तुति को दिया ताकि वो भी खेल सके, लेकिन मेरी अबोध बच्ची को वो लाल-लाल गुब्बारा फल लगा जिसे वो अपने मुँह में भरना चाह रही थी; "नहीं बेटा! इसे खाते नहीं, फेंकते हैं|" मैंने स्तुति को रोकते हुए समझाया|
स्तुति ने समझा की जो चीज़ खा नहीं सकते उसका क्या काम इसलिए उसने गुब्बारा नीचे फेंक दिया! गुब्बारा नीचे तो गिरा मगर फूटा नहीं, बल्कि फुदकता हुआ कुछ दूर चला गया| ये दृश्य देख स्तुति मेरी गोदी से नीचे उतरने को छटपटाई| जैसे ही मैंने स्तुति को नीचे उतारा वो अपने दोनों हाथों और पैरों के बल रेंगते हुए गुब्बारे के पास पहुँची तथा गुब्बारे को फिर उठा कर फेंका| तो कुछ इस तरह से स्तुति ने गुब्बारे से खेलना सीख लिया और वो अपने इस खेल में मगन हो गई| लेकिन थोड़ी ही देर में स्तुति इस खेल से ऊब गई और उसने गुब्बारे को हाथ में ले कर कुछ ज्यादा जोर से दबा दिया जिस कारण गुब्बारा उसके हाथ में ही फूट गया! गुब्बारा फूटा तो स्तुति ने गुब्बारे के वियोग में रोना शुरू कर दिया! "औ ले ले ले...मेरा बच्चा! कोई बात नहीं बेटा!" मैंने स्तुति को गोदी में ले कर लाड करना शुरू किया| स्तुति होली खेल के थक गई थी और ऊपर से उसके कपड़े भी मेरी गोदी में रहने से गीले तथा रंगीन हो गए थे इसलिए मैं उसे ले कर संगीता के पास आ गया|
"खेल लिए बिटिया के संग रंग!" संगीता गुस्से में मुँह टेढ़ा करते हुए बोली| स्तुति को बिस्तर पर लिटा कर संगीता उसके कपड़े बदलने लगी की तभी मैंने उसे पीछे से अपनी बाहों में भर लिया और अपने गालों पर लगा हुआ रंग उसके गाल से रगड़ कर लगाने लगा| "उम्म्म...छोडो न...घर में सब हैं!" संगीता झूठ-मूठ का दिखावा करते हुए बोली, जबकि असल में वो खुद नहीं चाहती थी की मैं उसे छोड़ूँ| "याद है जान, पिछले साल तुमने मुझे कैसे हुक्म देते हुए प्यार करने को कहा था?!" मैंने संगीता को पिछले साल की होली की याद दिलाई जब स्तुति कोख में थी और संगीता ने मुझे प्रेम-मिलाप के लिए आदेश दिया था|
मेरी बात सुनते ही संगीता को पिछले साल की होली याद आ गई और उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई! "लेकिन जानू, घर में सब हैं!" संगीता का मन भी प्रेम-मिलाप का था मगर उसे डर था तो बस घर में दिषु, दोनों बच्चों और माँ की मौजूदगी का| "तुम जल्दी से स्तुति को सुलाओ और तबतक मैं बाहर छत पर सब को काम में व्यस्त कर के आता हूँ|" इतना कह मैं छत पर पहुँचा और दिषु को इशारे से अलग बुला कर सारी बात समझाई; "भाई, तेरी मदद चाहिए! कैसे भी कर के तू माँ और बच्चों को अपने साथ व्यस्त कर ले!" इतना सुनते ही दिषु के चेहरे पर नटखट मुस्कान आ गई और वो मेरी पीठ थपथपाते हुए खुसफुसा कर बोला; "जा मानु, जी ले अपनी जिंदगी!" दिषु की बात सुन मैं हँस पड़ा और माँ तथा बच्चों से नजरें बचाते हुए कमरे में आ गया|
संगीता ने स्तुति को थपथपा कर सुला दिया था, मुझे देखते ही संगीता दबे पॉंव बाथरूम में घुस गई| इधर मैं भी दबे पॉंव संगीता के पीछे-पीछे बाथरूम में घुसा और दरवाजा चिपका कर उसके आगे पानी से भरी बाल्टी रख दी ताकि कोई एकदम से अंदर न आ जाए| बाथरूम में पहुँच मैंने सबसे पहले अपनी जेब से गुलाल का पैकेट निकाला| गुलाल का पैकेट देख संगीता समझ गई की अब क्या होने वाला है इसलिए वो मुझे रोकते हुए बोली; "एक मिनट रुको!" इतना कह उसने अपने सारे कपड़े निकाल फेंके तथा मेरे भी कपड़े निकाल फेंके| दोनों मियाँ बीवी नग्न थे और इस तरह छुप-छुप के प्यार करने तथा यूँ एक दूसरे को नग्न देख हमारे भीतर अजब सा रोमांच पैदा हो चूका था! अब मेरा चेहरा तो पहले से ही पुता हुआ था इसलिए मुझसे गुलाल ले कर संगीता ने मेरे सीने पर गुलाल मल दिया तथा बड़ी ही मादक अदा से अपने होंठ काटते हुए मुझसे दबी हुई आवाज़ में बोली; "फगवा मुबारक हो!"
अब मेरी बारी थी, मैंने गुलाल अपने दोनों हाथों में लिया और संगीता के गाल पर रगड़ उसके वक्ष तथा पेट तक मल दिया! संगीता के जिस्म को स्पर्श कर मेरे भीतर उत्तेजना धधक चुकी थी, वहीं मेरे हाथों के स्पर्श से संगीता का भी उत्तेजना के मारे बुरा हाल था! अपनी उत्तेजना शांत करने के लिए हम एक दूसरे से लिपट गए और अपने दोनों हाथों से एक दूसरे के जिस्मों को सहलाने लगे| हमारे बदन पर लगा हुआ रंग हमारे भीतर वासना की आग भड़काए जा रहा था! हमारे एक दूसरे के बदन से मिलते ही प्रेम की अगन दहक उठी और प्रेम का ऐसा बवंडर उठा की उत्तेजना की लहरों पर सवार हो आधे घंटे के भीतर ही हम अपने-अपने चरम पर पहुँच सुस्ताने लगे!
"अच्छा...अब आप बाहर जाओ, मैं नहा लेती हूँ!" संगीता लजाते हुए बोली| संगीता के यूँ लजाने पर मेरा ईमान फिर डोलने लगा, मैंने उसके होठों को अपने होठों में कैद कर लिया! वहीं संगीता भी किसी बेल की तरह मुझसे लिपट गई और मेरे चुंबन का जवाब बड़ी गर्मजोशी से देने लगी| अगर घर में किसी के होने का ख्याल नहीं होता तो हम दोनों शायद एक दूसरे को छोड़ते ही नहीं! करीब 5 मिनट बाद संगीता ने मेरी पकड़ से अपने लब छुड़ाए और अपनी सांसें दुरुस्त करते हुए चुपचाप मुझे देखने लगी| संगीता की आँखें गुलाबी हो चली थीं और मेरे नीचे वाले साहब दूसरे राउंड के लिए पूरी तरह तैयार थे| संगीता की नजरें जब मेरे साहब पर पड़ी तो उसके बदन में सिहरन उठी, बेमन से अपनी इच्छा दबाते हुए संगीता बोली; "जानू...बाहर सब हैं..." इतना कह संगीता चुप हो गई| मैं संगीता का मतलब समझ गया इसलिए संगीता के दाएँ गाला को सहलाते हुए बोला; "ठीक है जान, अभी नहीं तो बाद में सही!" इतना कह मैं अपने कपड़े उठाने वाला था की संगीता ने मुझे पीछे से अपनी बाहों में जकड़ लिया और बोली; "10 मिनट में निपटा सकते हो तो जल्दी से कर लेते हैं!" ये कहते हुए संगीता की दिल की धड़कन तेज़ हो गई थी क्योंकि उसके भीतर भी वही कामाग्नि धधक रही थी जो मेरे भीतर धधक रही थी| "दूसरे राउंड में ज्यादा टाइम लगता है, ऐसे में कहीं बच्चे हमें ढूँढ़ते हुए यहाँ आ गए तो बड़ी शर्मिंदगी होगी!" मैंने संगीता के हाथों से खुद को छुड़ाते हुए कहा| मेरी बात सुन संगीता ने बच्चों की तरह मुँह फुला लिया और बुदबुदाते हुए बोली; "फटाफट करते तो सब निपट जाता!" संगीता के इस तरह बुदबुदाने पर मुझे हँसी आ गई और मैं कपड़े पहन कर छत पर आ गया|
माँ ने जब मुझे देखा तो वो पूछने लगीं की मैं कहाँ गायब था तो मैंने झूठ कह दिया की स्तुति को सुला कर मैं नीचे सबको होली मुबारक कहने चला गया था|
इधर संगीता नहा-धो कर तैयार हो गई और रसोई में पुलाव बनाने लगी| करीब डेढ़ बजे तक खाना बन गया था इसलिए संगीता छत पर आ गई और हम सभी से बोली; "अच्छा बहुत खेल ली होली, चलो सब जने चल कर खाना खाओ|" आयुष को लगी थी बड़ी जोर की भूख इसलिए अपनी मम्मी का आदेश सुन सबसे पहले वो अपनी पिचकारी रख कर नहाने दौड़ा| इधर दिषु ने हमसे घर जाने की इजाजत माँगी तो संगीता नाराज़ होते हुए बोली; "रंग तो लगाया नहीं मुझे, कम से कम मेरे हाथ का बना खाना तो खा लो|"
"भाभी जी, हमारे में आदमी, स्त्रियों के साथ होली नहीं खेलते| तभी तो मैंने न आपको रंग लगाया न नेहा को रंग लगाया| आजतक जब भी मैं होली पर यहाँ आया हूँ तो आंटी जी (मेरी माँ) ने ही मुझे तिलक लगाया है और मैं केवल उनके पॉंव छू कर आशीर्वाद लेता हूँ|" अब देखा जाए तो वैसे हमारे गाँव में भी पुरुष महिलाओं के साथ होली नहीं खेलते थे, लेकिन देवर-भाभी और पति-पत्नी के आपस में होली खेलने पर कोई रोक नहीं थी! लेकिन दिषु के गॉंव में नियम कठोर थे इसलिए मैंने उसे कभी किसी लड़की के साथ होली खेलते हुए नहीं देखा| वो बात अलग है की साला होली खेलने के अलावा लड़कियों के साथ सब कुछ कर चूका था...ठरकी साला!
खैर, दिषु की बात का मान रखते हुए दोनों देवर-भाभी ने रंग नहीं खेला मगर संगीता ने दिषु को बिना खाये जाने नहीं दिया| जब तक बच्चे नाहा रहे थे तबतक संगीता ने दिषु को खाना परोस कर पेट भर खाना खिलाया| दिषु का खाना हुआ ही था की आयुष तौलिया लपेटे हुए मेरे पास आया और अपना निचला होंठ फुलाते हुए बोला; "पापा जी, मेरे चेहरे पर लगा हुआ रंग नहीं छूटता!" आयुष के आधे चेहरे पर गहरा गुलाबी रंग लगा हुआ था, जिसे देख हम सभी हँस पड़े! " बेटा, अभी मैं नहाऊँगा न तो मैं छुड़वा दूँगा|" मैंने आयुष को आश्वस्त करते हुए कहा| इधर दिषु खाना खा चका था इसलिए उसने माँ का आशीर्वाद लिया तथा आयुष को गोदी में ले कर जानबूझ कर अपने चेहरे पर लगा हुआ रंग उसके चेहरे से रगड़ कर फिर लगा दिया! "चाचू...आपने मुझे फिर से रंग लगा दिया!" आयुष प्यारभरी शिकायत करते हुए बोला|
"हाँ तो क्या हुआ, अभी फिर से पापा जी के साथ नाहा लियो!" संगीता बोली| दिषु सबसे विदा ले कर निकला और हम बाप-बेटे बाथरूम में नहाने घुसे| हम बाप-बेटे जब भी एक साथ नहाने घुसे हैं, हमने नहाने से ज्यादा नहाते हुए मस्ती की है| आज भी मैंने अपनी मस्ती को ध्यान में रखते हुए अपने फ़ोन में फुल आवाज़ में गाना लगा दिया: ठंडे-ठंडे पानी से नहाना चाहिए! "ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिये
गाना आये या ना आये गाना चाहिये
ओ पुत्तरा
ठंडे ठंडे पानी से..." मैंने गाना आरम्भ किया तो आयुष ने जोश में भरते हुए मेरा साथ देना शुरू कर दिया और बाल्टी किसी ढोलक की तरह बजाने लगा|
"बेटा बजाओ ताली, गाते हैं हम क़व्वाली
बजने दो एक तारा, छोड़ो ज़रा फव्वारा
ये बाल्टी उठाओ, ढोलक इससे बनाओ" जैसे ही मैंने गाने के ये बोल दोहराये आयुष ने शावर चालु कर जोर-जोर से बाल्टी को ढोलक समझ बजानी शुरू कर दी|
चूँकि बाथरूम का दरवाजा खुला था इसलिए संगीता को हम बाप-बेटे के गाने की आवाज़ साफ़ आ रही थी इसलिए वो भी इस दृश्य का रस लेने के लिए बाथरूम के दरवाजे पर खड़ी हो गई और गाने के सुर से सुर मिलाते हुए बोल दुहराने लगी;
“बैठे हो क्या ये लेकर, ये घर है या है थिएटर
पिक्चर नहीं है जाना, बाहर नहीं है आना" संगीता को हम बाप-बेटे के गाने में शामिल होते हुए देख हम दोनों बाप-बेटे का मज़ा दुगना हो गया| तभी गाने के बोल आये जिन्हें पीछे से आ कर नेहा ने गाया;
“मम्मी को भी अंदर बुलाना चाहिये" नेहा को गाने का शुरू से ही शौक रहा है इसलिए जैसे ही नेहा ने गाने के ये बोल दुहराए हम दोनों बाप-बेटों ने भी गाने की अगली पंक्ति दोहरा दी;
"तेरी, मम्मी को भी अंदर बुलाना चाहिये" कोरस में बाप-बेटों को गाते हुए देख संगीता प्यार से मुँह टेढ़ा करते हुए गाने के अगले बोल बोली;
“गाना आये या ना आये गाना चाहिये… धत्त" ये संगीता का हम दोनों बाप-बेटों को उल्हना देना था मगर हम बाप-बेटों ने एक सुर पकड़ लिया था इसलिए हम गाने की पंक्ति बड़े जोर से दोहरा रहे थे;
“अरे गाना आये या ना आये गाना चाहिये" अभी गाना खत्म नहीं हुआ था और संगीता जान गई थी की अब यहाँ हम बाप-बेटों ने रंगोली (रविवार को दूरदर्शन पर गानों का एक प्रोग्राम आता था|) का प्रोग्राम जमाना है इसलिए वो प्यारभरा नखरा दिखा कर मुड़ कर जाने लगी| तभी मैंने आयुष को उसकी मम्मी को पकड़ कर बाथरूम में लाने का इशारा किया| आयुष अपनी मम्मी को पकड़ने जाए, उससे पहले ही नेहा ने अपनी मम्मी का हाथ पकड़ा और बाथरूम में खींच लाई| संगीता खुद को छुड़ा कर बाहर भागे उससे पहले ही मैंने उसकी कलाई थाम ली और गाने के आगे के बोल दोहराये;
" तुम मेरी हथकड़ी हो, तुम दूर क्यों खड़ी हो
तुम भी ज़रा नहालो, दो चार गीत गा लो
दामन हो क्यों बचाती, अरे दुख सुख के हम हैं साथी" ये कहते हुए मैंने संगीता को अपने गीले बदन से चिपका लिया| परन्तु बच्चों की मौजूदगी का लिहाज़ कर संगीता ने खुद को मेरी पकड़ से छुड़ाया और गाने के आगे के बोल दोहराने लगी;
“छोड़ो हटो अनाड़ी, मेरी भिगो दी साड़ी
तुम कैसे बेशरम हो, बच्चों से कोई कम हो" संगीता मुझे अपनी साडी के भीग जाने का उल्हाना देते हुए बोली| लेकिन संगीता के इस प्यारभरे उलहाने को समझ आयुष बीच में गाने के बोल दोहराते हुए बोला;
"मम्मी को तो लड़ने का बहाना चाहिये" आयुष के ऐसा कहते ही मेरी तथा नेहा की हँसी छूट गई, उधर संगीता के चेहरे पर प्यारभरा गुस्सा आ गया| उसने आयुष के सर पर प्यार से थपकी मारी और बोली; "चुप बे शैतान!" जैसे ही संगीता ने आयुष को प्यार भरी थपकी मारी आयुष आ कर मुझसे लिपट गया| मैंने हाथ खोल कर नेहा को भी अपने पास बुलाया तथा दोनों बच्चों को अपने से लिपटाये हुए बच्चों के साथ कोरस में गाने लगा; "मम्मी को तो लड़ने का बहाना चाहिये!" हम तीनों को यूँ गाते देख संगीता के चेहरे पर मुस्कान आ गई और वो गाने की पंक्ति मेरे तथा बच्चों के साथ लिपट कर गाने लगी; "गाना आये या ना आये गाना चाहिये!"
फिर गाने में आया आलाप जिसे मैंने संजीव कुमार जी की तरह आँखें बंद कर के खींचा| अपने इस अलाप के दौरान मैं संगीता का हाथ पकड़े हुए था इसलिए संगीता खुद को छुड़ाने के लिए गाने के बोल दोहराने लगी;
“लम्बी ये तान छोड़ो,
तौबा है जान छोड़ो" मगर मैंने बजाए संगीता का हाथ छोड़ने के, बच्चों की परवाह किये बिना उसे कस कर खुद से लिपटा और दिवार तथा अपने बीच दबा कर गाने के बोल दोहराता हुआ बोला;
“ये गीत है अधूरा,
करते हैं काम पूरा" यहाँ काम पूरा करने से मेरा मतलब था वो प्रेम-मिलाप का काम पूरा करना जो पहले अधूरा रह गया था| वहीं मेरी गाने के बोलों द्वारा कही बात का असली अर्थ समझते हुए संगीता मुझे समझते हुए बोली;
"अब शोर मत करो जी,
सुनते हैं सब पड़ोसी" यहाँ पडोसी से संगीता का तातपर्य था माँ का| अपने इस गाने-बजाने के चक्कर में मैं भूल ही गया था की माँ घर पर ही हैं तथा वो हमारा ये गाना अवश्य सुन रही होंगी| "हे कह दो पड़ोसियों से" मैंने संगीता की आँखों में देखते हुए गाने के बोल कहे| जिसके जवाब में संगीता बोली; "क्या?"
"झाँकें ना खिड़कियों से" इतना कहते हुए मैंने बाथरूम का दरवाजा बंद कर दिया ताकि बाहर बैठीं माँ तक हमारी आवाज़ न जाए| लेकिन माँ का ध्यान आते ही संगीता को खाना परोसने की छटपटाहट होने लगी;
"दरवाज़ा खटखटाया, लगता है कोई आया" संगीता गाने के बोलों द्वारा बहाना बनाते हुए बोली|
"अरे कह दो के आ रहे हैं, साहब नहा रहे हैं" मैंने भी गाने के बोलों द्वारा संगीता के बहाने का जवाब दिया|
उधर बच्चे अपनी मम्मी-पापा जी का या रोमांस देख कर अकेला महसूस कर रहे थे इसलिए दोनों ने अपनी मम्मी को पकड़ मुझसे दूर खींचना शुरू कर दिया तथा गाने के आगे के बोल एक कोरस में गाने लगे;
“मम्मी को तो डैडी से छुड़ाना चाहिये
अब तो मम्मी को डैडी से छुड़ाना चाहिये" बच्चों ने जब अपनी मम्मी को मुझसे दूर खिंचा तो मैंने संगीता के साथ-साथ दोनों बच्चों को भी अपने से लिपटा लिया और शावर के नीचे पूरा परिवार भीगते हुए "गाना आये या ना आये गाना चाहिये" गा रहा था|
गाना खत्म होते-होते हम चरों भीग चुके थे मगर इस तरह एक साथ शावर के नीचे भीगने से संगीता और नेहा नाराज़ नहीं थे| हम बाप-बेटा ने बाथरूम का दरवाजा बंद कर नहाना शुरू किया और उधर माँ-बेटी कमरे में अपने कपड़े बदल कर माँ के पास पहुँच गए| मैंने फेसवाश और साबुन से रगड़-रगड़ कर आयुष के चेहरे पर से रंग काफी हद्द तक उतार दिया था| आयुष को नहला कर मैंने पहले भेजा तथा मैं नहा कर कपड़े पहन कर जब खाना खाने पहुँचा तो माँ मज़ाक करते हुए बोलीं; "तू नहा रहा था या सबको नहला रहा था?!" माँ की बात का जवाब मैं क्या देता इसलिए चुपचाप अपना मुँह छुपाते हुए खाना खाने लगा|
खाना खिला कर मैंने बच्चों को सुला दिया ताकि बाथरूम में बचा हुआ काम पूरा किया जाए| माँ भी आराम कर रहीं थीं इसलिए हमने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया| जो काम संगीता सुबह 10 मिनट में पूरा करवाना चाह रही थी वो काम पूरा घंटे भर चला| काम तमाम कर हम सांस ले रहे थे की तभी स्तुति जाग गई और अपने दोनों हाथों-पैरों पर रेंगते हुए मेरे सीने पर चढ़ कर मुझसे लिपट गई|
बच्चों के स्कूल खुल गए थे और स्कूल के पहले दिन ही बच्चों को स्कूल में वैक्सीन लगने का लेटर मिला| बच्चों को वैक्सीन लगवा ने से बहुत डर लग रहा था इसलिए दोनों बच्चे बहुत घबराये हुए थे| माँ ने जब अपने पोता-पोती को घबराते हुए देखा तो वो दोनों का डर भगाते हुए बोलीं; "बच्चों डरते नहीं हैं, अपने पापा जी को देखो...जब मानु स्कूल में था तो उसे भी सुई (वैक्सीन) लगती थी और वो बिना डरे सुई लगवाता था| सिर्फ स्कूल में ही नहीं बल्कि क्लिनिक में भी जब मानु को सुई लगी तो वो कभी नहीं घबराया और न ही रोया| यहाँ तक की डॉक्टर तो तुम्हारे पापा जी की तारीफ करते थे की वो बाकी बच्चों की तरह सुई लगवाते हुए कभी नहीं रोता या चीखता-चिल्लाता!" माँ की बात सुन दोनों बच्चे मेरी तरफ देखने लगे और मुझसे हिम्मत उधार लेने लगे|
अगले दिन बच्चों को स्कूल में वैक्सीन लगी और जब दोपहर को बच्चे घर लौटे तो आयुष दर्द के मारे अपनी जाँघ सहला रहा था| आयुष को कुछ ख़ास दर्द नहीं हो रहा था, ये तो बस उसका मन था जो उसे सुई का दर्द इतना बढ़ा-चढ़ा कर महसूस करवा रहा था| "Awww मेरा बहादुर बेटा!" मैंने आयुष को अपने पास बुलाया और उसका मनोबल बढ़ाने के लिए कहा तथा आयुष को अपने गले लगा कर उसको लाड करने लगा| मेरे जरा से लाड-प्यार से आयुष का दर्द छूमंतर हो गया और वो ख़ुशी से खिलखिलाने लगा|
आयुष और नेहा को तो वैक्सीन लग चकी थी, अब बारी थी स्तुति की| अभी तक मैं, माँ और संगीता, स्तुति को वैक्सीन लगवाने के लिए आंगनबाड़ी ले जाते थे| स्तुति को सुई लगते समय माँ और संगीता भीतर जाते थे तथा मुझे बाहर रुकना पड़ता था| स्तुति को सुई लगते ही वो रोने लगती और उसे रोता हुआ सुन मेरा दिल बेचैन हो जाता| जैसे ही संगीता रोती हुई स्तुति को ले कर बाहर आती मैं तुरंत स्तुति को अपनी गोदी में ले कर उसे चुप कराने लग जाता|
इस बार जब हम स्तुति को वैक्सीन लगवा कर लाये तो उसे रात को बुखार चढ़ गया| अपनी बिटिया को बुखार से पीड़ित देख मैं बेचैन हो गया| स्तुति रोते हुए मुझे अपने बुखार से हो रही पीड़ा से अवगत करा रही थी जबकि मैं बेबस हो कर अपनी बिटिया को चुप कराने में लगा था| मुझे यूँ घबराते हुए देख माँ मुझे समझाते हुए बोलीं; "बेटा, घबरा मत! छोटे बच्चों को सुई लगने के बाद कभी-कभी बुखार होता है, लेकिन ये बुखार सुबह होते-होते उतर जाता है|" माँ की बात सुन मेरे मन को इत्मीनान नहीं आया और वो पूरी रात मैं जागता रहा| सुबह जब मेरी बिटिया उठी तो उसका बुखार उतर चूका था इसलिए वो चहकती हुई उठी| अपनी बिटिया को खुश देख मेरे दिल को सुकून मिला और मैं स्तुति को गुदगुदी कर उसके साथ खेलने लगा|
मैं एक बेटे, एक पति और एक पिता की भूमिका के बेच ताल-मेल बनाना सीख गया था| दिन के समय मैं एक पिता और एक बेटे की भूमिका अदा करते हुए अपने बच्चों तथा माँ को खुश रखता और रात होने पर एक पति की भूमिका निभा कर अपनी परिणीता को खुश रखता|
रात को बिस्तर पर हम दोनों मियाँ-बीवी हमारे प्रेम-मिलाप में कुछ न कुछ नयापन ले ही आते थे| ऐसे ही एक दिन मैं अपने फेसबुक पर दोस्तों की फोटो देख रहा था जब मैंने क्लबफैक्ट्री की ऐड देखि जिसमें एक लड़की 2 पीस बिकिनी में खड़ी थी! ये ऐड देख कर मेरे मन ने संगीता को उन कपड़ों को पहने कल्पना करना शुरू कर दिया| मैंने उस ऐड पर क्लिक किया और ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मुझे एक चाइनीज़ लड़की को अंग्रेजी फिल्मों में दिखाई जाने वाली मैड (maid) फ्रॉक (frock) पहने हुए दिखी| "यही तो मैं ढूँढ रहा था!" मैं ख़ुशी से चिल्लाया और फौरन उस फ्रॉक तथा 2 पीस बिकिनी को आर्डर कर दिया| आर्डर करने के बाद मुझे पता चला की इसे तो चीन से यहाँ आने में 15-20 दिन लगेंगे! अब कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि ये ड्रेस ऑनलाइन कहीं नहीं मिल रही थी और किसी दूकान में खरीदने जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी!
शाम को घर लौट मैंने संगीता को अपने प्लान किये सरप्राइज के बारे में बताते हुए कहा; "जान, मैंने हमारे लिए एक बहुत ही जबरदस्त सरप्राइज प्लान किया है, ऐसा सरप्राइज जिसे देख कर तुम बहुत खुश होगी! लेकिन उस सरप्राइज को आने में लगभग महीने भर का समय लगेगा और जब तक वो सरप्राइज नहीं आ जाता हम दोनों को जिस्मानी तौर पर एक दूसरे से दूरी बनानी होगी| जिस दिन मैं वो सरप्राइज घर लाऊँगा उसी रात को हम एक होंगें|" मेरी बात सुन संगीता हैरान थी, उसे जिज्ञासा हो रही थी की आखिर मैं उसे ऐसा कौन सा सरप्राइज देने जा रहा हूँ जिसके लिए उसे पूरा एक महीना इंतज़ार करना होगा?!
अब एक छत के नीचे होते हुए हम दोनों में एक दूसरे से दूर रहने का सब्र थोड़ा कम था इसलिए संगीता थोड़ा चिढ़ते हुए बोली; "अगर आपका ये सरप्राइज 30 दिन में नहीं आया या फिर मुझे आपका ये सरप्राइज पसंद नहीं आया, तो आप सोच नहीं सकते की मैं आपको मुझे यूँ महीना भर तड़पाने की क्या सजा दूँगी!" संगीता की बातों में उसका गुस्सा नज़र आ रहा था, वहीं उसके इस गुस्से को देख मैं सोच में पड़ गया था की अगर मेरे आर्डर किये हुए कपड़े नहीं आये तो संगीता मेरी ऐसी-तैसी कर देगी!
खैर, अब चूँकि हमें एक महीने तक सब्र करना था इसलिए मैंने अपना ध्यान बच्चों में लगा लिया और संगीता माँ के साथ कपड़े खरीदने में व्यस्त हो गई| चूँकि मेरा पूरा ध्यान बच्चों पर था तो बच्चे बहुत खुश थे पर सबसे ज्यादा स्तुति खुश थी| मेरे घर पर रहते हुए स्तुति बस मेरे पीछे-पीछे घूमती रहती| अगर मैं कंप्यूटर पर बैठ कर काम कर रहा होता तो स्तुति रेंगते हुए मेरे पॉंव से लिपट जाती तथा 'आ' अक्षर को दुहराते हुए मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचती| अगर मैं कभी स्तुति को गोदी ले कर फ़ोन पर बात कर रहा होता तो स्तुति चिढ जाती तथा फ़ोन काटने को कहती क्योंकि मेरी बिटिया चाहती थी की मेरा ध्यान केवल उस पर रहे!
गर्मियों का समय था इसलिए स्तुति को मैंने टब में बिठा कर नहलाना शुरू कर दिया| नहाते समय स्तुति की मस्ती शुरू हो जाती और वो पानी में अपने दोनों हाथ मार कर छप-छप कर सारा पानी मुझ पर उड़ाने लगती| मुझे भिगो कर स्तुति को बहुत मज़ा आता और वो खिखिलाकर हँसने लगती| नहाते समय मुझे भिगाने की आदत स्तुति को लग चुकी थी इसलिए मेरी अनुपस्थिति में जब संगीता, स्तुति को नहलाती तो स्तुति पानी छप-छप कर पानी अपनी मम्मी पर उड़ाती और संगीता को भिगो देती| स्तुति द्वारा भिगोया जाना मुझे तो पसंद था मगर संगीता को नहीं इसलिए जब स्तुति उसे भिगो देती तो संगीता उसे डाँटने लगती! घर आ कर स्तुति मेरी गोदी में चढ़ कर अपनी मम्मी की तरफ इशारा कर के मूक शिकायत करती और अपनी बिटिया को खुश करने के लिए मैं झूठ-मूठ संगीता को डाँट लगाता तथा संगीता के कूल्हों पर एक थपकी लगाता| मेरी इस थपकी से संगीता को बड़ा मज़ा आता और वो कई बार अपने कूल्हे मुझे दिखा कर फिर थपकी मारने का इशारा करती| नटखट संगीता...हर हाल में वो मेरे साथ मस्ती कर ने का बहाना ढूँढ लेती थी!!!!
अब जब माँ इतनी मस्तीखोर है तो बिटिया चार कदम आगे थी| हिंदी वर्णमाला के पहले अक्षर 'अ' को खींच -खींच कर रटते हुए स्तुति सारे घर में अपने दोनों पॉंव और हाथों पर रेंगते हुए हल्ला मचाती रहती| जैसे ही मैं घर आता तो मेरी आवाज सुन स्तुति खदबद-खदबद करते हुए मेरे पास आ जाती| जब स्तुति को खाना खिलाने का समय होता तो स्तुति मुझसे दूर भागती और माँ के पलंग के नीचे छुप जाती! माँ के पलंग के नीचे छुप कर स्तुति मुझे अपनी जीभ दिखा कर चिढ़ाती की मैं उसे पलंग के नीचे नहीं पकड़ सकता! "मेरा बच्चा, मेरे साथ शैतानी कर रहा है?!" ये कहते हुए मैं अपने दोनों हाथों और घुटनों पर झुकता तथा स्तुति को पकड़ने के लिए पलंग के नीचे घुस जाता| मुझे अपने साथ पलंग के नीचे पा कर स्तुति मेरे गले से लिपट जाती और खी-खी कर हँसने लगती|
ऐसे ही एक दिन शाम के समय मैं घर पहुँचा था की संगीता मुझे काम देते हुए बोली; "आपकी लाड़ली की बॉल हमारे पलंग के नीचे चली गई है, जा कर पहले उसे निकालो, सुबह से रो-रो कर इसने मेरी जान खा रखी है!" अपनी बिटिया की ख़ुशी के लिए मैं उसकी मनपसंद बॉल निकालने के लिए ज़मीन पर पीठ के बल लेट गया और अपना दायाँ हाथ पलंग के नीचे घुसेड़ कर बॉल पकड़ने की कोशिश करने लगा| इतने में स्तुति ने मेरी आवाज़ सुन ली थी और वो रेंगते हुए मेरे पास आ गई, मुझे ज़मीन पर लेटा देख स्तुति को लगा की मैं सो रहा हूँ इसलिए स्तुति रेंगते हुए मेरे सीने पर चढ़ मुझसे लिपट गई| "बेटा, मैं आपकी बॉल पलंग के नीचे से निकाल रहा हूँ|" मैंने हँसते हुए कहा, परंतु मेरे हँसने से मेरा पेट और सीना ऊपर-नीचे होने लगा जिससे स्तुति को मज़ा आने लगा था इसलिए स्तुति ने कहकहे लगाना शुरू कर दिया| हम बाप-बेटी को ज़मीन पर लेटे हुए कहकहे लगाते देख संगीता अपनी कमर पर दोनों हाथ रखते हुए अपना झूठा गुस्सा दिखाते हुए बोली; "घर में एक शैतान कम है जो आप भी उसी के रंग में रंगे जा रहे हो?!" संगीता की बातों का जवाब दिए बिना मैं स्तुति को अपनी बाहों में भरकर ज़मीन पर लोटपोट होने लगा|
इधर आयुष बड़ा हो रहा था और उसके मन में जिज्ञासा भरी पड़ी थी| एक दिन की बात है माँ और नेहा मंदिर गए थे और घर में बस आयुष, मैं, स्तुति और संगीता थे| हम बाप-बेटा-बेटी सोफे पर बैठे कार्टून देख रहे थे जब आयुष शर्माते हुए मुझसे अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में बात करने लगा;
आयुष: पापा जी...वो...फ..फलक ने है न... उसने आज मुझे कहा की वो मुझे पसंद करती है!
ये कहते हुए आयुष के गाल लालम-लाल हो गए थे!
मैं: Awwww....मेरा हैंडसम बच्चा! मुबारक हो!
मैंने आयुष को मुबारकबाद देते हुए कहा और उसके सर को चूम लिया| मेरे लिए ये एक आम बात थी मगर आयुष के लिए ये मौका ऐसा था मानो उसकी गर्लफ्रेंड ने उसे आई लव यू कहा हो! मेरी मुबारकबाद पा कर आयुष शर्माने लगा परन्तु मुझे आयुष का यूँ शर्माना समझ नहीं आ रहा था इसलिए मेरे चेहरे पर सवालिया निशान थे| खैर, आयुष के शर्माने का कारण क्या था वो उसके पूछे अगले सवाल से पता चला;
आयुष: तो...पापा जी...हम दोनों (आयुष और फलक) अब शादी करेंगे न?
आयुष का ये भोला सा सवाल सुन मुझे बहुत हँसी आई लेकिन मैं आयुष पर हँस कर उसे शर्मिंदा नहीं करना चाहता था इसलिए अपनी हँसी दबाते हुए मैंने आयुष को अपनी गोदी में लिया और उसे प्यार से समझाते हुए बोला;
मैं: बेटा, आप अभी बहुत छोटे हो इसलिए आपकी अभी शादी नहीं हो सकती| लड़कों को कम से कम 21 साल का होना होता है उसके बाद वो अपनी जिम्मेदारी उठाने लायक होते हैं और तभी उनकी शादी की जाती है|
इस समय सबसे जर्रूरी बात ये है बेटा जी की फलक आपकी सबसे अच्छी दोस्त है| ये सब शादी, प्यार-मोहब्बत सब तब होते है जब आप बड़े हो जाओगे, अभी से ये सब सोचना अच्छी बात नहीं है| आपकी उम्र इस वक़्त आपकी दोस्त के साथ खेलने-कूदने, मस्ती करने की है| आपको पता है, एक लड़की दोस्त होने का क्या फायदा होता है?
मैं बुद्धू छोटे से आयुष को किसी बड़े बच्चे की तरह समझ तार्किक तरह से समझा रहा था, जबकि मुझे तो उसे छोटे बच्चों की तरह समझाना था! बहरहाल, मेरे अंत में पूछे सवाल से आयुष जिज्ञासु बनते हुए अपना सर न में हिलाने लगा;
मैं: एक लड़की दोस्त होने से आपके मन में लड़कियों से बात करने की शर्म नहीं रहती| जब आप बड़े हो जाओगे तो आप लड़कियों से अच्छे से बात कर पाओगे| आपको पता है, जब मैं छोटा था तब मेरी कोई लड़की दोस्त नहीं थी इसलिए जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा मुझे लड़कियों से बात करने में शर्म आने लगी, डर लगने लगा| वो तो आपकी मम्मी जी थीं जिनके साथ मैंने जो थोड़ा बहुत समय व्यतीत किया उससे मैं लड़कियों से बात करना सीख गया| फलक से बात कर आप अपने इस डर और झिझक पर विजयी पाओगे|
मैंने अपनी क्षमता अनुसार आयुष को समझा दिया था और आयुष मेरी बातें थोड़ी-थोड़ी समझने लगा था, परन्तु आयुष को मुझसे ये सब सुनने की अपेक्षा नहीं थी| वो तो चाहता था की मैं उसे छोटे बच्चों की तरह लाड-प्यार कर समझाऊँ!
खैर, मैंने आयुष को फलक से दोस्ती खत्म करने को नहीं कहा था, मैंने उसे इस उम्र में 'प्यार-मोहब्बत सब धोका है' इस बात की ओर केवल इशारा कर दिया था!
फिलहाल के लिए आयुष ने मुझसे कोई और सवाल नहीं पुछा, मैंने भी उसका ध्यान कार्टून में लगा दिया| कुछ देर बाद जब मैं स्तुति को गाना चला कर नहला रहा था तब आयुष अपनी मम्मी से यही सवाल पूछने लगा;
आयुष: मम्मी...वो न...मुझे आपसे...कुछ पूछना था!
आयुष को यूँ शर्माते हुए देख संगीता हँस पड़ी और उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोली;
संगीता: पूछ मेरे लाल|
आयुष: वो मम्मी...फलक है न...उसने न कहा की वो मुझे पसंद करती है!
इतना कहते हुए आयुष के गाल शर्म के मारे लाल हो गए|
संगीता: अच्छा?! अरे वाह!!
संगीता ने हँसते हुए आयुष को गोदी में उठाते हुए कहा|
आयुष: तो मम्मी...अब हमें शादी करनी होगी न?
आयुष का ये बचकाना सवाल सुन संगीता खूब जोर से हँसी, इतना जोर से की मुझे बाथरूम के अंदर स्तुति को नहलाते हुए संगीता की हँसी सुनाई दी|
वहीं, अपनी मम्मी को यूँ ठहाका मार कर हँसते देख आयुष को गुस्सा आ रहा था, अरे भई एक बच्चा अपने मन में उठा सवाल पूछ रहा है और मम्मी है की ठहाका मार कर हँसे जा रही है?!
जब संगीता को एहसास हुआ की आयुष गुस्सा हो गया है तो उसने आयुष को रसोई की स्लैब पर बिठाया और उसे प्यार से समझाते हुए बोली;
संगीता: बेटा, शादी के लिए अभी तू बहुत छोटा है| एक बार तू बड़ा हो जा फिर मैं, जिससे तू कहेगा उससे शादी कराऊँगी| अभी तेरी शादी करवा दी तो तेरे साथ-साथ मुझे तेरी दुल्हन का भी पालन-पोषण करना पड़ेगा और इस उम्र में मुझसे इतना काम नहीं होता! जब तू बड़ा हो जायगा तबतक तेरी दुल्हन भी बड़ी हो जाएगी और तेरी शादी के बाद वो चूल्हा-चौका सँभालेगी, तब मैं आराम करुँगी!
संगीता ने मज़ाक-मज़ाक में आयुष को जो बात कही, वो बात आयुष को मेरी समझाई बात के मुक़ाबले बहुत अच्छी लगी इसलिए उसने ख़ुशी-ख़ुशी ये बात स्वीकार ली और फिलहाल के लिए शादी करने का अपना विचार त्याग दिया! मेरी बात का अर्थ समझने के लिए आयुष को थोड़ा बड़ा होना था, उसकी उम्र के हिसाब से संगीता की बात ही उसे प्यारी लग रही थी|
शाम के समय जब बच्चे सो रहे थे तब संगीता ने आयुष की शादी करने की जिद्द को माँ से साझा किया तो माँ को खूब हँसी आई| जब आयुष सो कर उठा तो माँ उसे लाड करते हुए बोलीं; "बेटा, अभी तू छोटा है, अभी तेरा ध्यान पढ़ाई में और थोड़ा बहुत मौज-मस्ती करने में होना चाहिए| ये शादी-वादी की बात हम तब सोचेंगे जब तू बड़ा हो जायेगा!" आयुष को अपनी दादी जी की बात अच्छी लगी इसलिए वो खुश होते हुए अपनी दादी जी से लिपट गया|
जारी रहेगा भाग - 20 (3) में...
मानू भाई संगीता जी और बच्चो को बुला लो अगर मां के साथ थोड़ा बहुत खेलेंगे तो मां की एक्सरसाइज हो जायेगी और आप को भी हेल्प मिलेगीफिलहाल बस मैं हूँ और माँ हैं तथा देवी माँ का आशीर्वाद है| संगीता और स्तुति गॉंव में है, आयुष तथा नेहा अपने मामा जी के यहाँ अम्बाला में हैं|
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मानू भाई चोट जिसे लगती हैं दर्द उसी को होता है आपको हिम्मत से काम लेना पड़ेगा हां आप भौजी और बच्चो को बुलवा लीजिए ताकि आपकी भी हेल्प हो जाए और बच्चो के पास रहने से मां को भी अच्छा लगेगा शायद थोड़ा बहुत उनका मन बच्चो में लगा रहे जिससे उनको दर्द का एसाहस काम हो जब दर्द सहन नही होता है तो मरने की दुआ के अलावा हमारे पास कोई और option नही होता हैं आप अपने दर्द को दबाकर मां की सेवा कर रहे है आप को मैं धन्यवाद देता हु उनका दर्द हमसे भी नही देखा जाता है मै समझ सकता हूं क्यू की मैरे साथ ऐसा ही हुआ है मै भगवान से दुआ करता हूं की मां जल्दी से ठीक हो जाए हम किसी का दर्द बाट नही सकते सिर्फ दुआ और उनकी सेवा कर सकते है मां का ख्याल रखिएनमस्कार मित्रों,
ये दिन कैसे कष्ट पूर्वक कटे हैं ये आप सभी को बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं| इन दुःख भरे दिनों में मैंने पहलीबार अपनी माँ को इस तरह दर्द से कराहते हुए, रोते-बिलखते हुए देखा! इतना दर्द भोगते हुए माँ ने कई बार कहा की; 'इससे अच्छा तो मैं मर ही जाती!' ये शब्द सुनने में इतना पीड़ादायक थे की कई बार मैंने भगवान से प्रर्थना की कि अगली सुबह हम दोनों माँ-बेटे उठें ही न, एक साथ दोनों ही भगवान जी को प्यारे हो जाएँ!
रात में माँ का बाथरूम के लिए उठना और बड़े भारी मन से मुझे उठाना, फिर जब मैं उठता और सहारा दे कर माँ को बाथरूम के दरवाजे पर ले जाता और एक सीढ़ी चढ़ने के लिए माँ को अपना दायाँ पॉंव उठाना पड़ता तो माँ कि दर्द के मारे चीख ही निकल जाती| मैं अपनी तरफ से माँ को सहारा दे कर सँभालने कि बहुत कोशिश करता मगर मेरी भी पीठ, बाहों, कमर और घुटने में दर्द शरू हो गया| मैं अपना ये दर्द माँ से छुपता था मगर माँ को फिर भी मेरे दर्द का पता चल गया था| वो कहतीं कि मेरे कारण तुझे इतनी तकलीफ हो रही है, मगर मैं उनकी बात को बदल देता|
माँ के इस दर्द से राहत दिलाने के लिए कितनी ही पेनकिलर दी मगर कोई असर नहीं| कितनी ही क्रीम से मालिश की माँ ने खुद, गर्म पानी से सेंक लिया मगर कोई राहत नहीं! जैसे-जैसे नवरात्रे नज़दीक आये तो माँ को चिंता सताने लगी की मेरे पूरे व्रत रखने पर मैं उन्हें कैसे सम्भलूँगा इसलिए इस बार मैंने केवल पहला और आखरी नवरात्रे का व्रत रखा| खाना बनाना, माँ की देख-रेख करना और घर की सारी जिम्मेदारी मेरे सर पर है| ऐसे में मैं खुद को निःसहाये और अकेला महसूस करता हूँ| परन्तु मेरे पास कोई चारा नहीं यही सोच कर मैं खुद को झोंक देता हूँ!
दिषु से मैंने जब माँ की इस हालत का जिक्र किया तो उसने मुझे ultracet नाम की दवाई बताई| ये दवाई देने से लगभग 2 दिन तक माँ को दर्द से थोड़ा बहुत आराम मिलता था| लेकिन ये काफी स्ट्रांग दवाई हजै इसलिए मुझे हमेशा डर लगा रहता था|
दिन बीत रहे थे मगर हालात में कोई सुधार नहीं था| ऊपर से हम दूसरी मंजिल पर रहते हैं और ऐसे में माँ को उतार कर अकेले अस्पताल ले जाना नामुमकिन है| मैंने घर पर डॉक्टर को बुलाने की सोची तो कोई medicine MD doctor घर आने के 5000 माँग रहा है तो कोई orthopedic doctor घर आने के 8000 माँग रहा है! इन्होने भी घर आ कर सिवाए x-ray के refer करने के कुछ नहीं करना था इसलिए माँ इन्हें बुलाने से मना कर रहीं थीं| x-ray घर पर करवाने के बारे में पता किया तो पता चला की कम से म 2500 रुपये एक x-ray का लगेगा|
अब माँ को कोई चोट नहीं आई है, न ही वो गिरीं हैं जो की x-ray करना जायज लगे, यही कारण था की माँ इन सब के लिए मना कर रही थीं| हारकर मैंने practo पर एक othopedist को कंसल्ट किया जिसने दवाइयां और x-ray लिख दिया| पिछले हफ्ते शुक्रवार से दवाई शुरू हुई है तो थोड़ा बहुत आराम है|
इन दिनों में मैं बहुत रोया, देवी माँ के आगे अपनी माँ के स्वास्थ्य को ले कर बहुत गिड़गिड़ाया| एक-दो दिन तो चमत्कार होगया था, शाम के समय माँ कुर्सी को walker की तरह इस्तेमाल कर के चल रहीं थीं और उन्हें दर्द नहीं हो रहा था| ये देख कर मुझे उम्मीद बनने लगी थी की जल्दी ही माँ ठीक हो जाएँगी मगर मेरी ये उम्मीद ज्यादा देर तक नहीं टिकी, रात होने तक या अगले दिन सुबह ये उम्मीद टूट कर चकना-चूर हो गई|
इस समय मुझे कुछ नहीं पता की क्या हो रहा है और आगे क्या होगा! मैं तो बस खुद को और माँ को सँभालने में लगा हूँ!
Update आने में हो रही देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ!
आप सभी से विनती है की मेरी माँ के पूरी तरह स्वस्थ होने, उनके फिर से बिना सारा लिए चलने-फिरने की दुआ करें|