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Incest एक परिवार की आत्मकथा (हिंदी संस्करण )

Wanderlust

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कबीर क्लास में गया तो उस वक़्त लंच टाइम चल रहा था और स्वीटू भी खाने जा रही थी की तभी उसे कबीर दिखा ।
कबीर आके स्वीटू के पास बैठा और स्वीटू बोल पड़ी -
स्वीटू - भाई... कहाँ चले गए थे सुबह से ।
कबीर - कुछ नही... थोड़ा सा ज़रूरी काम आ गया था । बस वो निपटाने गया था ।
स्वीटू - मैं समझ रही हूँ भाई कौन सा काम ।
कबीर - वैसे तू ठीक ही समझ रही है । हिसाब तो अभी बहुत लोगों से लेना है ।
स्वीटू - तो कैसा चल रहा है हिसाब किताब ।
कबीर - अभी तो शुरू किया है लेकिन जल्दी पूरा हो जायेगा ।
स्वीटू - भगवान करे वो दिन जल्दी आये । अच्छा अब तो कहीं नहीं जाना है ना ।
कबीर - अब नही जाना है बेटू । अब हो गए तेरे सवाल जवाब तो थोड़ा खाना खा लें ।
स्वीटू - हाँ भाई... बहुत भूख लगी है ।
उसके बाद दोनों ने साथ में खाना खाया और खाना ख़त्म होते तक कबीर के पास फ़ोन आया ।
आदमी - सर... काम कर दिया है ।
कबीर - उसके घर वालों की सारी जानकारी निकालो फटाफट और उसके बाद वो आदमी दुबारा कभी नज़र ना आये ।
आदमी - समझ गए सर ।
कबीर - सारी जानकारी मिलते ही मुझे मैसेज कर देना । और मैं तुमसे बाद में मिलता हूँ ।
आदमी - जी सर ।
कबीर ने फ़ोन रखा और अपना टिफ़िन समेटा तभी स्वीटू बोली -
स्वीटू - भाई... क्या चल रहा है ।
कबीर - बताऊंगा स्वीटू... मगर सही वक़्त आने दे पहले ।
स्वीटू - ओके भाई ।
उसके बाद का दिन दोनों ने पढ़ाई करते हुए निकाला और आख़री पीरियड में भी कोई घटना नही हुई ।
सारा ने भी बिना किसी शिकवे शिकायत के क्लास को पढ़ाया और फिर छुट्टी के बाद तीनों घर निकल गए ।
सारा को छोड़ने के बाद कबीर स्वीटू के साथ घर पहुंचा और मुँह हाथ धोके कामीनी के पास आया ।
कामीनी - जी... आप कहीं जा रहे हैं क्या ।
कबीर - हाँ... क्यों क्या हो गया ।
कामीनी - आप अभी तो आये हैं और खाना भी नही खाया । वैसे आज कल तो आप कुछ ज़्यादा ही घर से बाहर रहते हैं ।
कबीर - अरे... ये क्या बात हुई ।
कामीनी - आपके परिवार को भी आपकी ज़रूरत है । आप तो समझते ही नही ।
कबीर - कम्मो... मेरी जान... मुझे सब पता है और वैसे भी कल रक्षाबंधन है तो मुझे जाने दे । मुझे स्वीटू के लिए कुछ लेना भी है ।
कामीनी - तो आपको याद था ।
कबीर - नही तो क्या मुझे बेवक़ूफ़ समझ रखा है क्या ।
कामीनी - नही नही... मेरा वो मतलब नही था ।
कबीर - अच्छा... अब मुझे जाने दे और स्वीटू को खाना खिला के उसे अपने पास ही बुला लेना । देखना वो ठीक से पढ़ाई करे । मैं चलता हूँ ।
कामीनी - जी अच्छा...
कबीर कामीनी से बात करके निकला और उसने अपने उसी आदमी को फ़ोन किया और बोला -
कबीर - मुझे एक ~~~~ चाहिए और वो बिलकुल ~~~~ होना चाहिए । और हाँ ये मुझे मेरी बहन स्वीटी के नाम से चाहिए । कब तक होगा ।
आदमी - सर पता करते हैं ।
कबीर - सुनो कल रक्षाबंधन है और मुझे ये आज शाम तक या आज रात तक चाहिए ।
आदमी - हो जायेगा सर...
कबीर - और उस काम का क्या हुआ । तुमने तो बताया ही नही ।
आदमी - सर आपके कहने के हिसाब से आपके स्कूल के गार्ड को उठा लिया था और उससे उसके पूरे परिवार की जानकारी ले ली है ।
कबीर - कौन कौन है ।
आदमी - उसकी पत्नी है और बेटी है ।
कबीर - और उसका कोई बेटा ।
आदमी - है सर लेकिन वो सालों पहले ही घर छोड़कर भाग गया था और उसकी कोई खबर भी नही है ।
कबीर - ठीक है... उसे स्कूल के पास ही सडक हादसे में उड़ा दो और उसके फ़ोन से उसकी बीवी को खबर कर दो और स्कूल के प्रिंसिपल को भी ।
आदमी - ठीक है सर ।
कबीर ने बात ख़त्म की और सारा के पास पहुंचा ।
सारा ने जैसे देखा की कबीर की गाड़ी खड़ी है तो वो भाग के आयी और दरवाज़ा खोलके उसके पैरों में बैठ गयी और रोने लगी ।
कबीर को सारा के बर्ताव से हैरानी होने लगी । सारा नगनावस्था में दरवाज़े पर कबीर के पैरों में बैठी रोती रही । कबीर उसे जितना चुप कराने की कोशिश करता सारा उतना ज़्यादा रोने लगती ।
कबीर - कुछ बोलोगी...
सारा - मुझे माफ़ कर दो मालिक ।
कबीर - हुआ क्या है ।
सारा - मैं जानती हूँ की मुझसे कोई गलती हुई है तभी मेरे मालिक मुझसे नाराज़ हैं ।
सारा ये बोलके और ज़्यादा रोने लगी और कबीर का दिमाग चलना बंद हो गया ।
कबीर - गलती... कौन सी गलती सारू...
सारा - कुछ तो हुआ होगा ना मुझसे... तभी तो आप मुझसे मिलने भी नही आते और मुझसे बात भी नही करते । मुझे माफ़ कर दो मालिक । आप मुझे मार लो मगर ऐसी सजा तो मत दो । मैं मर जाऊँगी मालिक ।
कबीर को ना जाने क्यों सारा का ऐसा बर्ताव और उसकी बातें दिल में चुभ गयीं ।


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कबीर ने सारा का चेहरा उठाया और कहा -
कबीर - सारू... कुछ ज़रूरी कामों में उलझ गया हूँ इसलिए तुझे समय नही दे पा रहा हूँ ।
सारा - मैं जानती हूँ मालिक अब आपको मैं पसंद नही हूँ ना । मैं शायद आपको खुश नही कर पा रही हूँ तभी तो आपने मेरी जगह उस दूसरी लड़की को पकड़ लिया ।
कबीर - चुप कर सारू... क्या कुछ भी बकवास किये जा रही है । तुझे अभी कुछ नही पता है । तूने ये कैसे सोच लिया की तेरी जगह कोई और ले लेगा ।
सारा - मालिक तो फिर...
कबीर - चुप कर...
सारा चुप चाप खड़ी कबीर की आँखों में देखती रही और कबीर भी उसकी आँखों में देखता रहा ।
कबीर - सारू... मुझे अंदर नही बुलाएगी ।
सारा - सॉरी मालिक... आओ ना अंदर ।
कबीर अंदर आया और सारा ने जैसे ही दरवाज़ा बंद किया वैसे ही कबीर ने उसे अपनी गोद में उठा लिया और उसे कमरे में ले गया ।
कबीर ने अपने कपड़े निकाले और शॉर्ट्स में बिस्तर पर लेट गया और सारा को भी अपने साथ लिटा लिया ।
सारा कबीर के साथ लेटी तो उसे और ज़्यादा रोना आने लगा । वो रोते हुए बोली -
सारा - मालिक... अब तो मुझे छोड़ के नही जाओगे ना । मुझे अपने से अलग मत करना मालिक ।
कबीर - सारू... मैं कहीं नहीं जा रहा हूँ... तू रोना बंद कर । मैं यहीं हूँ तेरे पास ।
कबीर की बात सुनके सारा कबीर के और पास आयी और उसकी छाती पे सर रखके लेट गयी । ना जाने क्यों कबीर को सारा का इस तरह प्यार करना और प्यार देना अंदर ही अंदर भावुक कर रहा था । उसके हाथ अनायास ही सारा के सर पे चले गए और उसके बालों को सहलाने लगे ।
सारा को तो जैसे खुदा मिल गए थे । उसे कबीर का ये प्यार और अपनापन बड़ा सुकून दे रहा था । थोड़ी ही देर में उसका रोना बंद हो गया और देखते ही देखते वो नींद में चली गयी ।


21
सारा कबीर से किसी छोटी सी बच्ची की तरह चिपक के सोती रही । शायद बरसों बाद उसे ऐसी सुकून भरी नींद नसीब हुई थी ।
कबीर सारा के बालों को सहलाता रहा और सोचता रहा -
कबीर - ये मुझे क्या हो रहा है । मुझे क्या करना है और मैं कर क्या रहा हूँ । नही नही... मैं ऐसे कमज़ोर नही पड़ सकता । लेकिन क्यों हर बार सारा के करीब आते ही मैं पिघलने लगता हूँ । क्यों हर बार उसे देखते ही मैं सोचता कुछ हूँ और करता कुछ हूँ । मैं कैसे अपने मकसद से भटक सकता हूँ । नही नही... मैं इसके साथ वो सब नही कर पाउँगा । हाँ मुझसे वो सब नही होगा । मगर कैसे भूल जाऊं जो जो मेरे साथ हुआ था... नही नही... मेरे परिवार के साथ हुआ था । मैं भूल भी तो नही सकता । और इस सारा की क्या गलती है । ये तो कितनी प्यारी सी बच्ची है । पर स्वीटू की भी तो कोई गलती नही थी और कामीनी ने भी किसी का क्या बिगाड़ा था । है भगवान... आखिर मैं करूँ तो क्या करूँ...
कबीर अपनी दिमागी उलझन में खोया रहा और सारा के बालों को ऐसे ही सहलाता रहा ।
सारा को पुरसुकून सोते देखके कबीर के दिल को कहीं ना कहीं बड़ी ठंडक मिल रही थी और शायद अब उसके दिल में सारा के लिए मोहब्बत जाग रही थी ।

सारा जब नींद से जागी तब तक शाम हो चुकी थी । कबीर उसे अब भी अपनी बाहों में लेके लेता हुआ था और उसके बालों को अभी भी उतने ही प्यार से सहला रहा था ।
सारा बहुत खुश थी और इस सुन्दर से सुकून के एहसास से उसका चेहरा खिला हुआ था मगर कबीर के चेहरे पर तकलीफ़ साफ झलक रही थी । सारा कबीर को देखके उसकी परेशानी की वजह ढूंढ़ने की कोशिश कर रही थी लेकिन वो चाह के भी कुछ पूछ नही पा रही थी ।
कबीर ने जब देखा की सारा अब जाग चुकी है तो उसने सारा के चेहरे को पकड़ के ऊपर उठाया और उसके माथे को चूम लिया ।
कबीर - सारु... तू बैठ... मैं तेरे लिए चाय बनाता हूँ ।
सारा - नही मालिक... आप नही... मैं जाती हूँ ।
कबीर ने सारा के गाल को चूमा और कहा -
कबीर - नही... मैं बनाता हूँ और मालिक नही कबीर ।
सारा - मगर मालिक...
कबीर - बोला ना कबीर... आज से कोई मालिक नही सिर्फ कबीर ।
सारा ने ख़ुशी से कबीर को अपनी बाहों में भर लिया और उसके गाल चूम लिए ।
कबीर सारा से अलग हुआ और जाके चाय बनाके लाया । दोनों ने चाय पी और कबीर बोला -
कबीर - अब मुझे चलना चाहिए सारू...
कबीर उठके जाने लगा और सारा उसे दरवाज़ तक छोड़ने आयी ।
कबीर जाते जाते एक दम से पलटा और सारा को गले लगा लिया । सारा का नाजुक और कोमल शरीर तो जैसे कबीर की बाहों में पिस रहा था ।
कबीर ने उसके चेहरे को बेतहाशा चूमा और निकल गया ।

कबीर ने गाड़ी में बैठते बैठे एक नज़र सारा को देखा और पता नही क्यों उसकी आँखें नम हो गयीं मगर कबीर चुप चाप बिना कुछ कहे चला गया ।
सारा कबीर के इस बदले रूप से अचंभित थी । वो वहीं दरवाज़े पर काफी देर तक खड़ी रही ।

कबीर सीधे अपने घर आया और बिना किसी से कुछ कहे सीधे अपने कमरे में चला गया । वो अपने दिल और दिमाग की लड़ाई में उलझ गया था । आज उसे कुछ भी अच्छा नही लग रहा था । उसे अपने अंदर कुछ टूटता हुआ लग रहा था । उसने अपने पिता की डायरी निकाली और उसमें से उनकी एक तस्वीर नीचे जा गिरी ।

कबीर अपने पिता की फोटो को देखता रहा और देखते ही देखते उसकी आँखों से आंसुओं का सैलाब बह निकला । कबीर अपने पिता की तस्वीर हाथ में लिए घंटों रोया ।
उधर कई घंटों तक कबीर जब नीचे नही आया तो कामीनी को कुछ शक़ हुआ और वो कबीर को देखने ऊपर पहुंची तो देखा की कबीर सो रहा था । वो उसके पास आयी तो उसने ध्यान दिया की कबीर की आँखें लगातार रोने की वजह से सूजी हुईं थीं और उसका पूरा चेहरा यहाँ तक की उसका तकिया भी आंसुओं से भीगा हुआ था ।

कामीनी ने कबीर के हाथ में उसके पिता की तस्वीर देखी तो उसे समझते देर ना लगी की कबीर को हुआ क्या है । उसने कबीर के हाथ से वो तस्वीर ली और किनारे पर रखके जाने लगी तभी उसकी नज़र बिस्तर पर रखी उस डायरी पे गयी ।

कामीनी ने वो डायरी उठाई और उसे पढ़ना शुरू किया । जैसे जैसे वो पढ़ती गयी वैसे वैसे उसकी हैरानी बढ़ती गयी । वो तो आज तक ये समझती थी की उसके पति कुमार तो दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हुए थे मगर आज उसे पता चल रहा था की वो पूरा सच नही था । और अब जो सच निकल के आ रहा था उसे हजम करना या उसे स्वीकारना उसके बस की बात नही थी । आज उस डायरी को पढ़ते हुए उसे पता चल रहा था की कैसे उसके सगे भाई महेंद्र प्रताप सिंह ने अपने साथी शिक्षा मंत्री प्रताप नारायण चन्द्रवंशी और उनके एक कश्मीरी साथी मोहम्मद अशर हुसैन हयात के साथ मिलकर कैसे भारतीय थल सेना के कुछ अफसरों को पैसे के लालच से तोड़ा और सेना के हथियारों की चोरी करवा के किस तरह उन्हें आतंकवादियों को बेचा ।
ये काला, घिनोना और कड़वा सच पढ़के कामीनी की सोचने समझने की शक्ति ख़त्म हो गयी थी । उसे यकीन नही हो रहा था की कैसे उसका अपना सगा भाई ऐसा घटिया काम कर सकता है । उसने डायरी को आगे पढ़ा तो पता चला की कुमार को इनके इस चोरी और देश से गद्दारी वाले धंधे की खबर लग गयी और कैसे उन सबने मिलके साज़िश के तहत कुमार को अपने जाल में फंसाया । कुमार तक नौशेरा में कुछ आतंकवादियों के छुपे होने की झूठी खबर फैलाई और उसे अपने जाल में फंसाते हुए चारों तरफ से घर के मौत के घाट उतारा ।
डायरी पूरी पढ़ने तक कामीनी को अपने आप से और अपने भाई से घिन्न आ रही थी । वो लगातार रो रही थी और अपने आपको कोस रही थी की क्यों उसने कुमार को गलत समझा, क्यों वो महेंद्र की बहन है, क्यों इतनी बड़ी बात उसके बेटे कबीर ने आज तक छुपाई । वो सोचती जा रही थी और कुमार को याद करते हुए रोती जा रही थी ।
वहीं कबीर के कमरे के दरवाज़े पर खड़े होकर स्वीटू भी अपनी नम आँखों से अपनी माँ को रोते हुए देख रही थी ।

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