अध्याय - 21 --- " महक या दहक ""
“बहुत बोलते थे ना अब देखना,जलने का सारा शौक पूरा कर दूंगी मैं आपका “
वो शरारत से बोलकर मुझे अकेला छोड़ नीचे चली गई, मैं बुरी तरह से कांप गया आखिर ये करने क्या वाली थी ...????
खैर मुझे इसकी कोई फिक्र नही थी क्योकि वो जो भी करती मैं कैसे भी करके उसका पता तो लगा ही लेता ..? ??
ब्रहम महूर्त में सात फेरों के बाद पंडित जी सात वचन बोल रहे थे और दूल्हे राजा को बोलना था -"स्वीकार है।"
दो वचन हो चुके थे तभी तीसरा वचन बोलने वाले थे कि दूल्हे राजा ने बीच मे टोकते हुए बोला -"हो गया पंडित जी। मुझे सारे वचन स्वीकार है।"
"अरे! ऐसे कैसे बेटा? पहले वचन सुन तो लो।", पंडित जी ने विरोधस्वरूप कहा।
"पंडित जी। सत्ता वैसे भी इन्हीं की चलनी है। तो क्या करूँगा सुनकर। मुझे सब स्वीकार है। आप आगे की रस्म कीजिए।", दूल्हे राजा ने दुल्हन की तरफ़ इशारा करते हुए जवाब दिया।
अब बारी थी वचन स्वीकार करने की दुल्हन की।
पंडित ने वचन बोलने शुरु किये और दुल्हनिया ने भी सर नीचे किए स्वीकार करना शरू कर दिया।
"आपका अगला वचन है कि आप बिना अपने पति की आज्ञा के और बिना निमंत्रण के अपने माता-पिता के घर नहीं जायँगी। बोलो स्वीकार है?", पंडित ने जैसे ही ये वचन बोला तो दुल्हनिया को बात खटक गई।
(मैं अपने माता-पिता के घर नहीं जा पाऊँगी? ये कैसा वचन है। ये मैं स्वीकार नहीं कर सकती। शादी के बाद भी वो मेरे माता-पिता ही रहेंगे। मैं कैसे उन्हें पराया कर दूँ? और पतिदेव का कोई हक नहीं बनता मुझे मेरे घर जाने से रोकने का। ये ग़लत है। जब ये वचन बनाया गया होगा तब शिव और सती को ध्यान में रखा गया होगा। कि कैसे बिना महादेव की आज्ञा और राजा दक्ष के निमंत्रण के माता सती वहाँ गई थी और उसके विनाशकारी परिणाम हुए थे। लेकिन यहाँ परिस्थिति ऐसी नहीं है। इसलिए ये वचन मुझे स्वीकार नहीं।)
दुल्हनिया ये सब मन मे सोच ही रही थी कि पंडित जी ने सोचा कि हो सकता है कि दुल्हनिया ने स्वीकार कर लिया और मैंने सुना नहीं। अतः पण्डित जी अगला वचन बोलने लगे।
"अरे! अभी स्वीकार कहाँ किया जो आप आगे बढ़ गए?", दूल्हे राजा तपाक से बोल पड़े।
"पहले स्वीकार कराओ तब आगे बढ़ो", दूल्हे राजा बार-बार ये बोलते रहे और दुल्हनिया है कि स्वीकार करने का नाम ना ले।
"मैं अपने माँ-बाप के घर अपनी इच्छा से जाऊँगी। किसी की आज्ञा या निमंत्रण से नहीं। मैं ये वचन स्वीकार नहीं कर सकती हूँ। अगर कोई मुझे कारण बता दे कि क्यों मैं इस वचन को स्वीकार करूँ तो मैं सोच सकती हूँ।", आख़िर में दुल्हन ने अपने मन की बात सभी के सामने रख दी।
बात को आगे ना बढाते हुए पंडित जी ने अगला वचन बोलना शुरू किया और दूल्हे राजा बस मुस्कुरा कर बोले-
"मैंने तो पहले ही कहा था। सत्ता इन्हीं की चलनी है।"
लड़की के ससुराल वाले सभी समझ गए कि बहु वश में आने वाली नहीं है। फंस गया हमारा सीधा- सा लड़का और लड़का कितना सीधा है ये घरवाले असल मे कभी समझ ही नहीं पाते।
सच में सीधा होता उनका लड़का तो इतनी तेज दुल्हनिया लाता क्या? सोचने वाली बात है. ...????
इन्ही सब हँसी ठिठोली को मै मंडप के चारों ओर बैठे हुए घराती, बाराती और रिश्तेदार की भीड़ से पीछे अकेला कुर्सी पर बैठा हुआ देख रहा था।
"मे यहाँ बैठ जाऊ ?" मेरी सास ने पास रखी कुर्सी को मेरे करीब रख कर उस पर देखते हुवे पुछा, हमेशा की तरह उनके चेहरे पर शर्मीली सी मुस्कान व्याप्त थी परंतु अब उसके साथ "दिखावट" नामक शब्द का जुड़ाव हो चुका था.
"हां मम्मी ! बिल्कुल बैठ जाओ, आपको मेरी इजाज़त लेने कोई ज़रूरत नही" जवाब में मुझ को भी मुस्कुराना पड़ा मगर अपनी बेटी रिंकी के साथ कांड करते हुए पकड़े जाने की बाद की स्थिति का ख़याल कर मै कुर्सी से उठ कर अपनी सास से नजरे मिलाने का साहस नही जुटा पाया बस इशारे मात्र से सास को सामने रखी कुर्सी ऑफर करने भर से मुझे संतोष करना पड़ता है.
"क्या बात है अरुण ! तू कुच्छ परेशान सा दिख रहा है" सास बोली और तत-पश्चात कुर्सी पर बैठ जाती है, शायद अब वह कुछ देर पहले हुए "बाप बेटी वाले कांड" को भूल चुकी थी।
(लेकिन मै उनके सवाल का क्या जबाब देता कि उनका दामाद "बाप बेटी वाले कांड" वाला रहस्य जो उजागर हो चुका है और उसी भेद के प्रभाव से वह उन्हें इस तरह अचानक से बगल में बैठा देख इतना चिंतित है.)
"नही! नही तो मम्मी" मैने अपना थूक निगलते हुवे कहा, मेरा मश्तिश्क इस बात को कतयि स्वीकार नही का पा रहा था कि कुच्छ देर पहले मेरी सग़ी सास ने मुझे अपनी ही बेटी को पेलने की कोशिश करते हुए पकड़ा था.
सास के चेहरे के भाव सामान्य होने की वजह से मै निश्चित तौर पर तो नही जानता था कि मेरी सास ने उस अश्लील घटना-क्रम से संबंधित क्या-क्या देखा परंतु संदेह काफ़ी था कि उन्होंने कुच्छ ना कुच्छ तो अवश्य ही देखा होगा.
"क्या वाकाई ?" मेरी सास ने प्रश्नवाचक निगाओं से मुझे घूरा. "इस एयर कूल्ड हॉल के ठंडक भरे वातावरण में भी तुझे पसीना क्यों आ रहा है ?" वह पुनः सवाल करती है.
((कुच्छ वक़्त पूर्व होटल के कमरे में गूंजने वाली रिंकी की चीख उनके कानो से भी टकराई थी और ना चाहते हुवे भी उनके कदम होटल रूम की खिड़की तक घिसटते आए थे. माना दूसरो के काम में टाँग अड़ाना उन्हें शुरूवात से ही ना-पसंद रहा था परंतु अचानक से बढ़े कौतूहल के चलते विवश वह खिड़की से रूम के भीतर झाँकने से खुद को रोक नही पाई थी और जो भयावह द्रश्य उस वक़्त उनकी आँखों ने देखा, विश्वास से परे कि उनकी खुद की चूत के छेद में शिहरन की कपकपि लहर दौड़ने लगी थी.))
"वो! हां! अभी ए/सी ठीक से काम नही कर रहा शायद" मैने झूट बोलने का प्रयत्न किया जबकि हॉल के भीतर व्याप्त शीतलता भौतिकता-वादी संसार से कहीं दूर वर्फ़ समान नैसर्गिक आनंद का एहसास करवा रही थी.
"कहीं सास को मेरी मनो स्थिति का भान तो नही ?" खुद के ही प्रश्न पर मानो मै हड़बड़ा सा जाता हू और भूल-वश अपनी शर्ट की बाजू को रूमाल समझ चेहरे पर निरंतर बहते पसीने को पोंच्छना आरंभ कर देता हू.
"पागल लड़के" सास ने प्रेम्स्वरूप मुझे ताना जड़ा और फॉरन अपना पर्स खंगालने लगती है.
"यह ले रूमाल! शर्ट खराब मत कर" वह मुस्कुराइ और अपना अत्यंत गोरी रंगत का दाहिना हाथ अपने दामाद के मुख मंडल के समक्ष आगे बढ़ा देती है, पतली रोम-रहित कलाई पर सू-सज्जित काँच की आधा दर्ज़न चूड़ियों की खनक के मधुर संगीत से मेरा ध्यान आकस्मात ही सास की उंगलियो पर केंद्रित हो गया और तुरंत ही मै उनकी पकड़ में क़ैद गुलाबी रूमाल को अपने हाथ में खींच लेता हू.
"थॅंक्स मम्मी ! शायद मैं अपना रूमाल दूसरे पेंट मे ही भूल आया हूँ" मैने सास के रूमाल को अपने चेहरे से सटाया और अती-शीघ्र एक चिर-परिचित ऐसी मनभावन सुगंध से मेरा सामना होता है जिसको शब्दो में बयान कर पाना मेरे बस में नही था.
""औरतें अक्सर अपने रूमाल को या तो अपने हाथ के पंजों में जकड़े रहती हैं ताकि निश्चित अंतराल के उपरांत अपने चेहरे की सुंदरता को बरकरार रख सकें या फिर आज की पाश्चात सन्स्क्रति के मुताबिक उसे कमर पर लिपटी अपनी साड़ी व पेटिकोट के मध्य लटका लेती है या जिन औरतों को पर्स रखना नही सुहाता वे अमूमन उसे अपने ब्लाउस के भीतर कसे अपने गोल मटोल मम्मो के दरमियाँ ठूँसे रहती हैं और इन तीनो ही स्थितियों में उनके पसीने की गंध उसके रूमाल में घुल जाती है.""
मगर जाने क्यों अल्प समय में ही मुझे अपनी सास के रूमाल से कुच्छ ज़्यादा ही लगाव हो गया था और प्रत्यक्ष-रूप से जानते हुवे कि मेरी सास ठीक मेरे बगल की कुर्सी पर विराजमान है, मै अनेकों बार उस रूमाल में सिमटी मंत्रमुग्ध कर देने वाली गंध को महसूस करता रहा जो सास दामाद के दरमियाँ मर्यादा, सम्मान इत्यादि बन्धनो की वजह से आज तक महसूस नही कर पाया था.
एक प्रमुख कारण यह भी था कि वर्तमान से पहले मेरी सास ने कभी भी मेरे साथ इतने करीब आने का रुख़ नही किया और अभी उन के आकस्मात ही मेरे इतने नजदीक बैठ जाने से मेरे मश्तिश्क में अब अजीबो-ग़रीब प्रश्न उठने लगे थे, एक द्वन्द्व सा चल रहा था. किसी भी तथ्य का बारीकी से आंकलन करना बुरी आदत नही मानी जा सकती परंतु मेरे विचार अब धीरे-धीरे नकारात्मकता की ओर अग्रसर होते जा रहे थे.
"अरुण बेटा जूली की विदा होने में अब कुच्छ ही घंटो का समय शेष है, जूली के ससुराल जाने के बाद अब तो घर पूरा खाली खाली लगेगा" मेरी सास ने उस मंडप में चल रही ब्याह की रस्मों के ऊपर से अपनी नज़र हटा कर कहा और वापस जब मेरे चेहरे पर गौर फरमाती है. तो आश्चर्य से मेरी हरकत को देखने लगती है।
उनका रूमाल उनके दामाद की नाक के आस-पास मंडरा रहा था, बार-बार मुझे गहरी साँसें लेता देख उन्हें अपने पति मेरे ससुर के कहे शब्द याद आ गये जो आज से पैंतीश साल पहले कहे थे "तुम्हारे बदन की खुश्बू बेहद मादक है" थी तो मात्र यह एक प्रसंशा ही मगर परिणाम-स्वरूप सीधे उनकी चूत की गहराई पर चोट कर जाया करती थी और शायद उस वक़्त अपने सगे दामाद की हरक़त भी उन्हें उसी बात का स्पष्टीकरण करती नज़र आ रही थी.
"ऐसा क्या है इस रूमाल में जो तू इतनी तेज़-तेज़ साँसे ले रहा है ?" सास से सबर नही हो पाता और वह फॉरन पुछ बैठी, तारीफ़ के दो लफ्ज़ तो जहाँ से भी मिलें अर्जित कर लेना चाहिए, फिर थी तो वह एक स्त्री ही और जल्द ही उन्हें उनके दामाद का थरथराते स्वर में जवाब भी मिल जाता है.
"तू .. तुम्हारी खुश्बू मम्मी! बहुत बहुत अच्छी है"
"हां मम्मी! तुम्हारा यह नया सेंट तो कमाल का है" मैने चन्द गहरी साँसे और ली, तत-पश्चाताप सास के रूमाल को वापस उनके हाथो में थमा दिया.
अपनी सास की आनंदमाई जिस्मानी सुगंध के तीक्षण प्रवाह के अनियंत्रित बहाव में बह कर भूल-वश मेरे मूँह से सत्यता बाहर निकल आई थी परंतु जितनी तीव्रता से मै बहका था उससे कहीं ज़्यादा गति से मैने वापस भी खुद पर काबू पा लिया था.
"अगर एक प्रोफेसर या शिक्षक ही संयम, धैर्य आदि शब्दो का अर्थ भूल जाए तो क्या खाक वह अपने विद्याथियों को शिक्षा दे पाएगा ?"
मेरी सास अपने दामाद के पहले प्रत्याशित और फिर अप्रत्याशित कथन पर आश्चर्य-चकित रह गयी. वह जो कुच्छ सुनने की इच्छुक थी अंजाने में ही सही मगर मैने उनकी मननवांच्छित अभिलाषा को पूर्न अवश्य किया था, बस टीस इस बात की रही कि दामाद ने महज एक साधारण सेंट की संगया दे कर विषय की रोचकता को पल भर में समाप्त कर दिया था.
"बिल्कुल अरुण ! प्रीति और कुसुम ने ही आज मुझे मना करने पर भी जबरदस्ती लगा दिया था और अभी तूने तारीफ़ भी कर दी" सास ने मुस्कुराने का ढोंग करते हुवे कहा.
"अब मैने झूट क्यों बोला ? भला इंसानी गंध कैसे किसी सेंट समान हो सकती है ? आख़िर क्यों मैं अपने ही दामाद द्वारा प्रशन्षा प्राप्त करने को इतनी व्याकुल हूँ ? वह खुद से सवाल करती है और जिसका जवाब ढूँढ पाना कतयि संभव नही था.
"ह्म्म्म मम्मी ! जो वास्तु वाकाई तारीफ-ए-काबिल हो अपने आप उसके प्रशनशक उस तक पहुँच जाते हैं" प्रत्युत्तर में मै भी मुस्कुरा दिया. परिस्थिति, संबंध, मर्यादा, लाज का बाधित बंधन था वरना मै कभी अपनी सास से असत्य वचन नही बोलता. यह प्रथम अवसर था जो मुझे अपनी सास को इतने करीब से समझने का मौका मिला था, अमूमन तो मै सिर्फ़ अपनी सालियों प्रीति और जूली का ही रस पीने की फिराक में रहता था.
मनुष्यों की उत्तेजना को चरमोत्कर्ष के शिखर पर पहुँचाने में लार, थूक, स्पर्श, गंध, पीड़ा इत्यादि के अलावा और भी कई ऐसे एहसास होते हैं जो दिखाई तो नही देते परंतु महसूस ज़रूर किए जाते हैं और उन्ही कुच्छ विशेष एहसासो का परिणाम था जो धीरे-धीरे हम सास-दामाद अब एक-दूसरे के विषय में विचार-मग्न होते जा रहे थे.
सास भी असमंजस की स्थिति में फस गयी थी, कभी ऐसा भी दिन उनके जीवन में आएगा उन्होंने सोचा ना था. हमारे बीच पनपा यह अमर्यादित वार्तालाप इतना आगे बढ़ चुका था कि अब उसका पिछे लौट पाना असंभव था और जानते हुवे कि उनका अगला कदम बहुत भीषण परिणामो को उत्पन्न कर सकता है, वह कप्कपाते स्वर में हौले से फुसफुसाई.
"अरुण बेटा! मेरी बेटी कुसुम तुझे ठीक से संभोग सुख तो देती है" मेरी सास ने अंततः मर्यादा की जंजीर तोड़ते पूछा????
किसी औरत के नज़रिए से यह कितनी निर्लज्ज अवस्था थी जो उसे अपने ही सगे दामाद के समक्ष बेशर्मी से "मेरी बेटी तुझे ठीक से संभोग सुख तो देती है" पूछना पड़ रहा था. " संभोग सुख " शब्द का इतना स्पष्ट उच्चारण करने के उपरांत पहले से अत्यधिक रिस्ति उनकी चूत में मानो बुलबुले उठने लगे और जिसकी अन्द्रूनि गहराई में आकस्मात ही वह गाढ़ा रस उमड़ता सा महसूस करने लगी थी.
" हाहा हाहा.... मम्मी ! तुम बे-वजह कितना शर्मा रही थी" मैने हस्ते हुवे बोला परंतु हक़ीक़त में मेरी वो हसी सिवाए खोखलेपन के कुच्छ और ना थी. मै कितना ही बड़ा ठरकी क्यों ना था, मगर वर्तमान की परिस्थिति मेरे लिए ज़रा सी भी अनुकूल नही रह गयी थी.
अपनी सग़ी सास के बेहद सुंदर मुख से यह अश्लील बात सुनना कि "मेरी बेटी कुसुम तुझे ठीक से संभोग सुख तो देती है" मेरे लिए ये बात कितनी अधिक उत्तेजनवर्धक साबित हो सकती है, या तो मेरा शुरूवाती ठरकी मन जानता था या चुस्त फ्रेंची की क़ैद में अचानक से फूलता जा रहा मेरा विशाल लंड........???
हाहा हाहा हाहा.....मै हस्ते हुए "मम्मी मुझे कुसुम से मुझे संभोग सुख मिल रहा है या नही!" तुम्हें बस छोटी सी ये बात जाननी है" मैने अपनी सास के शब्दो को दोहराया जैसे वापस उस वर्जित बात का पुष्टिकरण चाहता हू. यक़ीनन इसी आशा के तेहेत कि शायद मेरा ऐसा कहने से पुनः मेरी सास "संभोग सुख" नामक कामुक शब्द का उच्चारण कर दे.
"मनुष्य के कलयुगी मस्तिष्क की यह ख़ासियत होती है कि वह सकारात्मक विचार से कहीं ज़्यादा नकारात्मक विचारो पर आकर्षित होता है"
"ह .. हां" मेरी सास अपने झुक चुके अत्यंत शर्मिंदगी से लबरेज़ चेहरे को दो बार ऊपर-नीचे हिलाते हुवे हौले से बुदबुदाई.
"मगर तू हसा क्यों ?" उन्होंने पुछा. हलाकी इस सवाल का उस ठहरे हुवे वक़्त और बेहद बिगड़ी परिस्थिति से कोई विशेष संबंध नही था परंतु हँसने वाले युवक से उनका बहुत गहरा संबंध था और वह जानने को उत्सुक थी कि मैने उनकी जिज्ञासा पर व्यंग कसा है या उनके डूबते मनोबल को उबारने हेतु उसे सहारा देने का प्रयत्न किया था.
"तुम्हारी नादानी पर मम्मी ! इंसान के हालात हमेशा एक से हों, कभी संभव नही. सुख-दुख तो लगा ही रहता है, बस हमे बुरे समय के बीतने का इंतज़ार करना चाहिए. खेर छोड़ो! आप तो चिंता मुक्त रहो ?" मैने अपनी सास का मन टटोला ताकि आगे के वार्तालाप के लिए सुगम व सरल पाठ का निर्माण हो सके.
"ह्म्म्म" सास ने भी सहमति जाताई, उनके प्रोफेसर दामाद के साहित्यिक कथन का जो परिणाम रहा जिससे उन्हें दोबारा से अपना सर ऊपर उठाने का बल प्राप्त हुआ था.
" जब मैने देखा कि सास का चेहरा स्वयं मेरे चेहरे के सम्तुल्य आ गया है, इस स्वर्णिम मौके का फ़ायडा उठाते हुवे मैने अपनी सास की कजरारी आँखों में झाँकते हुए पुछा. " अगर मै कहु मुझे जिस संभोग सुख की चाह है, वो चाहत कुसुम से पूरी नही हो पा रही है तो........?????? "
ऐसा नही था कि मुझे अपनी सास किसी आम औरत की भाँति नज़र आ रही थी, मैने कभी अपनी सास को उत्तेजना पूर्ण शब्द के साथ जोड़ कर नही देखा था. वह मेरे लिए उतनी ही पवित्र, उतनी ही निष्कलंक थी जितनी कि कोई दैवीय मूरत. बस एक कसक थी या अजीब सा कौतूहल जो मुझ को मजबूर कर रहा था कि मै उनके विषय में और अधिक जानकारी प्राप्त करू भले वो जानकारी मर्यादित श्रेणी में हो या पूर्न अमर्यादित.. . . . ....!
जारी है........