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Romance कायाकल्प [Completed]

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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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बहुत सुंदर और कामुक कहानी लिखी है भाई जी। एक बार तो लगा की नीलम से शादी के बाद कहानी खत्म, लेकिन उसके बाद वाला ट्विस्ट बढ़िया था।

जबरदस्त।

बहुत बहुत धन्यवाद भाई!!
पुराने फ़ोरम की कहानी है भाई ये! मतलब बहुत पुरानी कहानी।
इस कहानी के बाद से लोग avsji नाम जानने और याद रखने लगे :)
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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नही निराशा जेसी कोई बात नही हे वेसे टीचर लव आप खुद अच्छे से हिंदी में लिख सकते हें में तो गूगल देवता का इस्तेमाल करता हूँ , कभी २ तो इतनी शुद्ध हिंदी में अनुवाद कर देता हे आम बोलचाल की भाषा से हटकर लगता हे हाँ कुछ वर्ड उसे अभी भी समझ नही आते उन्हें करेक्शन करना होता हे कहानियां तो बहुत हो गई हें मेरे पास पर पढ़ी आधी भी नही गई हें ,, क्या करूं अवसी जी समय की कमी अखर जाती हे , एक समय में नोवल तीन घंटे में खत्म कर देता था मेरे पास एक समय नोवल्स का ढेर लगा हुआ था , रानू ,गुलशन नंदा , मन्नू भंडारी मेरे पसंदीदा रहे हें इसीलिए हिदी में पढने की आदत हो गई हे ,

गूगल एक अच्छा टूल है, लेकिन हर परिस्थिति में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता उसको।
ख़ास कर जेंडर में उसका हाथ बहुत तंग है! :)
आप नाहक ही अपना काम बढ़ा रहे हैं। लेखक जिस भाषा में सबसे सही लिख पाता है, लिखता है।
और उसी भाषा में पढ़ने का रस भी मिलता है! खैर, आपकी इच्छा!
इन लेखकों में से मैंने किसी को नहीं पढ़ा भाई जी। सबसे पहला उपन्यास चंद्रकांता पढ़ा था, फिर मैला आँचल, उसके बाद प्रेमचंद जी की कई कहानियाँ पढ़ीं।
फिर, नरेंद्र कोहली जी की रचनाएँ पढ़ीं। आज कल के कुछ लेखकों ने भी बहुत प्रभावित किया है।
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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बहुत बहुत धन्यवाद भाई!!
पुराने फ़ोरम की कहानी है भाई ये! मतलब बहुत पुरानी कहानी।
इस कहानी के बाद से लोग avsji नाम जानने और याद रखने लगे :)
पहले किस नाम से याद करते थे 🤔
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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पहले किस नाम से याद करते थे 🤔

आपने गलत पढ़ लिया -- मेरे कहने का मतलब था, लोग avsji नामक लेखक को जानने लगे।
मतलब, फ़ोरम पर एक पहचान मिली। पहले किसी और नाम से नहीं जानते थे।
 
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संध्या ने मन ही मन खुद को सम्हाला – उसका पति तो अब बँट ही गया था, लेकिन अच्छी बात यह थी कि वो बँटा था तो भी उसकी खुद के बहन के साथ। वो बहन जिसको संध्या खूब प्यार करती है... वो पति जो उसको खूब प्यार करता है... वो बहन जो संध्या को खूब प्यार करती है... और वो रूद्र जो नीलम को खूब प्यार करते हैं! जब उन तीनों में ही इतना प्रगाढ़ प्रेम है, तो फिर मन मुटाव का सवाल ही कहाँ से आता है? वो अभी जा कर उन दोनों से बात करेगी और माफ़ी मांगेगी... और विनती करेगी कि वो उसको अपने साथ रहने दें! उसको यकीन है कि वो दोनों मना नहीं कर सकेंगे!

संध्या रूद्र और नीलम को ढूंढते हुए कमरे से बाहर निकली और सीधा बैठक की तरफ गई। वहां कोई भी नहीं था, तो वो वापस अपने कमरे की तरफ आने लगी। तब जा कर उसने देखा कि छोटे वाले कमरे में कोई है। उसने कमरे के अन्दर झाँका, तो अन्दर का दृश्य देख कर चमत्कृत रह गई।

नीलम और रूद्र पूर्णतः नग्न अवस्था में आलिंगनबद्ध होकर सो रहे थे। नग्न तो थे ही, लेकिन संध्या को समझ आ रहा था कि यह निद्रा कुछ समय पहले ही संपन्न हुई रति-क्रिया के बाद के सुख के कारण प्रेरित हुई है। रूद्र बिस्तर पर कुछ नीचे की तरफ, नीलम की ओर करवट करके लेटे हुए थे। उनका बायाँ पाँव नीलम के ऊपर था, और इस अवस्था में उनका लिंग स्पष्ट दिख रहा था। उस समय उनके लिंग का शिश्नाग्रछ्छद पीछे की तरफ खिसका हुआ था, और इससे उनके लिंग का गुलाबी हिस्सा साफ दिखाई दे रहा था।

नीलम पीठ के बल चित्त लेटी हुई थी। आज पहली बार संध्या ने नीलम के यौवन रस से भरे अनावृत्त सौंदर्य को पहली बार देखा था। जब छोटी थी, तब वो ऐसी सुन्दर तो बिलकुल ही नहीं दिखती थी! अभी जैसी लगती है, उससे तो कितनी भिन्न! लेकिन अब देखो... कितनी अधिक सुन्दर हो गई है! उसके स्तनों की मादक गोलाईयां – मन करता है कि उनका रस निचोड़ लिया जाए! और कैसा सुन्दर, भोला चेहरा, भरे भरे रसीले होंठ! और ऊपर से ऐसा फिट शरीर! कैसी सुन्दर है ये!

‘हाँ...’

नीलम के पाँव कुछ खुले हुए थे, जिस कारण उसकी योनि भी थोड़ी सी खुली हुई थी। नीलम की योनि के होंठ उसकी खुद की योनि के होंठों के समान ही फूले हुए थे – या संभवतः थोड़े से अधिक ही फूले हुए थे। कुछ कुछ तो अभी हुए घर्षण के कारण हुआ होगा... लेकिन इतना तो तय है कि नीलम की योनि भी पूरी तरह से परिपक्व हो गई थी। वहाँ से अभी कुछ देर पहले ही संपन्न हुए सम्भोग का रस निकल रहा था। संध्या का संदेह सही था। खैर, कैसा संदेह? पति-पत्नी क्या प्रेम नहीं करेंगे? प्रेम सम्बन्ध नहीं बनाएँगे? दांपत्य जीवन में प्रेम का एक बड़ा रूप रति है। वही तो हो रहा था।

संध्या ने उन दोनों को वात्सल्य भाव से देखा, ‘कैसा सुन्दर और आकर्षक जोड़ा है दोनों का।‘

संध्या से रहा नहीं गया। वो दबे पांव आगे बढ़ते हुए नीलम और रूद्र के पास पहुंची और चुपके से नीलम के एक चूचक को हलके से अपनी उंगली और अंगूठे के बीच दबाया। प्रतिक्रिया स्वरुप, लगभग तुरंत ही उसका चूचक खड़ा हो गया। नीलम के होंठों पर हलकी सी मुस्कान भी बन गई।

‘ऐसे मुस्कुराते हुए कितनी प्यारी लगती है..! सोच रही होगी की इन्होने छुआ है...’

संध्या ने दूसरे स्तन के चूचक के साथ भी वही किया। समान प्रभाव! उत्सुकतावश उसने रूद्र के लिंग को भी हलके से सहलाया – पुष्ट अंग तुरंत ही उत्तेजना प्राप्त कर के आकार में बढ़ने लगा।

‘इन्होने शायद वो जड़ी ले ली..’ संध्या ने मुस्कुराते हुए सोचा।

लिंग के बढ़ते ही रूद्र कुनमुनाते हुए जागने लगे। संध्या झट से कमरे से बाहर हो ली।


***


“नीलू?”

नीलम चौंकी। दीदी उसको बुला रही थी। उसकी आवाज़ क्षीण थी, लेकिन गुस्से में नहीं लग रही थी। दुःख में भी नहीं लग रही थी। एक तरह से शांत लग रही थी। नीलम बस अभी अभी जगी थी, और अपने कपड़े पहन रही थी। शायद कमरे से आने वाली आवाज़ दीदी को सुनाई दे गई, इसलिए उसने उसको पुकारा है। इसका मतलब दीदी ने सब कुछ देख भी लिया है..

“जी, दीदी!”

“ज़रा यहाँ आ मेरी बच्ची।“

दीदी की आवाज़ तो शांत ही लग रही थी। खैर, ऐसा तो नहीं है कि वो कभी भी दीदी के सामने जाने से बच सके। और बचे भी क्यों? दीदी है उसकी। सगी दीदी! और तो और, उसने भी तो रूद्र से पूरी रीति के साथ शादी करी है; जायज़ शादी करी है। वो क्यों डरे? अगर दीदी गुस्सा हुई तो वो उससे माफ़ी मांगेगी। उनके पैर पकड़ेगी। दीदी को उसे माफ़ करना ही पड़ेगा।

नीलम उठी।

मैंने उसका हाथ पकड़ लिया – मेरे दिल में एक अबूझ सा डर बैठा हुआ था। नीलम ने एक प्यार भरी मुस्कान मुझ पर डाली, और कहा,

“जानू, आप चिंता क्यों करते हैं? दीदी हैं मेरी। आज एक काम करिए, आप बाहर घूम आइए। प्लीज! आज अभी यहाँ मत रहिए। मैं दीदी से बात करती हूँ। ओके?”

कह कर नीलम ने मेरे होंठों पर एक चुम्बन दिया और मेरे जाने का इंतज़ार करने लगी। मैं अनिश्चय से कुछ देर तक बिस्तर पर बैठा रहा, लेकिन फिर नीलम का आत्मविश्वास देख कर उठ खड़ा हुआ। मैंने बाहर जाने से पहले एक बार नीलम को देखा – न जाने क्यों लग रहा था कि उसको मैं आखिरी बार देख रहा था – और घर से बाहर निकल गया। दिल बैठ गया।

नीलम अंततः बेडरूम में पहुंची।

नीलम की पदचाप संध्या ने सुन ली, और उठ कर बिस्तर पर बैठ गई।

“यहाँ आओ.. मेरे पास। मेरे पास बैठो।“

नीलम धीरे धीरे बिस्तर तक पहुंची, और झिझकते हुए एक तरफ बैठ गई। लेकिन उसकी नज़र नीची ही रही।

“नीलू, मेरी बहन, मेरी तरफ देख!”

नीलम ने अंततः संध्या ने आँख मिलाई। संध्या के होंठो पर एक मद्धिम मुस्कान थी।

“मेरी बच्ची, मुझे माफ़ कर दे। मेरा मन तुम्हारे और रूद्र के प्रति कुछ देर के लिए मैला हो गया था।“

“नहीं दीदी, आप ये कैसे बोल रही हैं?” नीलम क्या सोच कर आई थी, और क्या हो रहा था।

“बोल लेने दे। तू बाद में बोल लेना। मैंने ने आज तक रूद्र के चरित्र में किसी भी तरह का खोट नहीं देखा। उन्होंने मेरी किसी भी इच्छा को अपूर्ण नहीं रखा। तुम भी उनकी पत्नी हो... तुम भी उनके साथ रही हो, और तुम भी यह बात जानती हो। रूद्र... पति धर्म को निभाने में कहीं भी चूके हैं? जब भी किसी भी प्रकार की समस्या, या कठिनाई आई, तो ढाल बन कर वो मेरे सामने आ गए! मुझे हर कठिनाई से बचाते रहे, और रास्ता दिखाते रहे। उन्होंने मुझे हर तरह से खुश रखने का प्रयास किया। आज तक एक कटु शब्द तक नहीं बोला उन्होंने मुझसे। वह तो इतने अच्छे हैं, कि मेरी हमउम्र स्त्रियां... मेरी सहेलियां मुझसे ईर्ष्या करती हैं।“

कह कर संध्या ने नीलम पर मुस्कुराते हुए एक गहरी दृष्टि डाली।

“... और आज... जब उनके पास ऐसे कठिन चुनाव का समय आया तो, मैं उनको अकेला छोड़ दूं? नहीं मेरी बहन.. बिलकुल नहीं। तुम उनकी पत्नी हो, और हमेशा रहोगी। मैं वापस हमारे गाँव चली जाऊंगी.. और वहीँ रहूंगी! तुम दोनों कभी कभी मुझसे मिलने आ जाना.. आओगी न बच्चे?”

संध्या की ऐसी बात सुन कर नीलम का दिल टूट गया। आँखों से आंसुओं की अनवरत धरा बहने लगी। दुःख के मारे उसका रोना छूट गया और रोते हुए हिचकियाँ बंध गईं।

“दीदी, ये आप कैसी बाते कर रही हैं? आपको क्या पता नहीं है कि रूद्र का पहला प्यार आप हैं? ... और अगर आज उनके पास ऐसा कठिन समय आया है तो वो इसीलिए है, क्योंकि वो आपसे बहुत प्यार करते हैं। मैं सपने में भी आप दोनों को अलग करने का सोच भी नहीं सकती हूँ। मैं तो यूँ ही अनायास ही आप दोनों के बीच आ गई! दीदी आप ही उनका पहला प्यार हैं, और आप ही का उन पर ज्यादा अधिकार है। आप फिर से उनसे शादी कर लो। मैं उनसे तलाक ले लूंगी।“

कहते कहते नीलम की हिचकियाँ बंध गईं।

“ले पाओगी तलाक? सच में? अरी पगली.. कैसी बातें करती है? तू अनायास हमारे बीच में आ गई? अनायास? अरे मेरी सयानी बहन, अगर तू न होती, तो सच कह रही हूँ, रूद्र भी न होते। मेरा सुहाग न होता। उनको अँधेरे से निकाल कर लाने वाली तू है.. सच कहूँ? उन पर अगर किसी का हक़ है, तो वह सिर्फ तुम्हारा है! लेकिन मुझे यह भी मालूम है, की रूद्र हम दोनों से ही बहुत प्यार करते हैं! ज़रा कुछ देर रुक कर यह सोच, हम दोनों कितने भाग्यशाली हैं कि हम दोनों को ही उनका प्यार मिला, उनका साथ मिला। ख़बरदार तुमने कभी रूद्र से अलग होने की सोची।“

ऐसे भावनात्मक वार्तालाप करते हुए दोनों ही बहने फूट फूट कर रोने लगीं। ऐसे ही रोते रोते संध्या ने कहा,

“क्या तुम सच्चे दिल से इनसे प्यार करती हो?”

“दीदी यह कोई पूछने वाली बात है? मैं इनसे बहुत प्यार करती हूँ। अगर वो कहे तो मैं तो उनके लिए अपनी जान भी दे सकती हूँ...”

“तो मेरी सयानी बहन, अब मेरी बात सुन... अगर अब से हम तीनों ही एक साथ रहें, तो क्या तुम्हे कोई प्राब्लम है?”

“क्या? क्या? क्या सच में दीदी? मैं इनसे और आपसे अलग नहीं हो पाऊंगी? सच में दीदी, मैं आप दोनों से अलग नहीं हो सकती... अगर आप दोनों के साथ रहने को मिल गया, मैं आपकी बहुत आभारी रहूंगी और आप जो कहोगी, मैं वो सब कुछ करूँगी.. आपकी नौकरानी बनकर रहूंगी.. आप बस मुझे इनसे और अपने आप से अलग मत करना।“

“अरे पगली! वो मेरे पति हैं, और तुम्हारे भी पति! ये नौकर नौकरानी वाली बातें मत करना कभी! मेरी बात ध्यान से सुन.. मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, कि तू मेरी बहन है – मेरी छुटकी! मत भूलना की मैंने तुझे अपनी छाती पिलाई है.. मैं तुझसे दो साल ही बड़ी सही, लेकिन तुझे माँ जैसा प्रेम भी करती हूँ... मेरी प्यारी बहन, हम दोनों बहनें अब से एक ही पति की पत्नी बनकर रहेंगी! ठीक है?”

“बिलकुल दीदी.. बिलकुल! थैंक यू! थैंक यू! थैंक यू!!”

माहौल एकदम से हल्का हो गया। दोनों हो बहने मुस्कुराने लगीं।

संध्या और नीलम ने शायद ही कभी सेक्स के विषय में बात करी हो, लेकिन आज परिस्थितियाँ एकदम भिन्न थीं। बात के बारे में पहल संध्या ने ही करी –

“प्यारी बहना, एक बात बता...”

“क्या दीदी?”

“तुझको.. enough तो मिल जाता है न..?”

“क्या दीदी?”

“अरे.. इनका ‘प्यार’.. और क्या?”

“क्या दीदी! ही ही ही..”

“अरे बोल न?”

“Enough तो कभी नहीं मिलता...”

“क्या? क्या ये तुझे satisfy नहीं...”

“अरे नहीं दीदी! ऐसा कुछ भी नहीं है... इनके तो छूने भर से satisfaction मिल जाता है.. लेकिन ये कुछ इस तरह से करते हैं कि मन भरता ही नहीं...”

संध्या समझ गई कि नीलम क्या कह रही है.. साफ़ सी बात थी कि नीलम जम कर सेक्स का आनंद उठा रही थी, और संध्या खुद मानों रेगिस्तान में भटक रही थी। एक पल को उसका मन फिर से इर्ष्या से भर गया। एक भिन्न प्रकार की इर्ष्या – सौतिया डाह! नीलम ने संध्या के चेहरे को देखा – उसको समझ में आ गया कि संध्या के मन में क्या चल रहा है।

“दीदी, अब तो आप घर वापस आ गई हो... अब क्या चिंता!”

“अरे, तेरा ‘मन’ भरते भरते इनके पास मेरा भरने की ताक़त बचेगी भला?”

“आपका क्या दीदी, ही ही!” नीलम भी तरंग में आ गई थी।

“हा हा! मेरी मियान!”

“ही ही दीदी! कैसा कैसा बोल रही हो!”

“अरे इसमें कैसा कैसा वाला क्या है... मियान ही तो कहा है... चूत थोड़े ही कहा... अब तेरा ही देख न.. कुछ सालों पहले तक तेरी पोकी ठीक से दिखती तक नहीं थी.. और अब तो एकदम रसीली हो गई है! फूल कर बिलकुल कुप्पा!”

“दीदी!”

“अरे! मुझसे क्या शर्माना? मेरी भी ऐसी ही हालत हो गई थी मेरी बहना! इनके बेदर्द लिंग ने इतनी कुटाई करी मेरी सहेली की कि साल भर तक ठीक से ले भी नहीं पाती थी.. लेकिन बाद में आदत हो गई, और जगह भी बन गई!”

नीलम शर्माते हुए संध्या की बात सुन रही थी और साथ ही साथ कुछ सोचती भी जा रही थी।

“अरी! मन ही मन क्या सोच सोच कर मुस्कुराए जा रही है?”

“कुछ नहीं दीदी... मैं सोच रही थी कि हम दोनों बहनों का कितना कुछ साझा है – माँ बाप भी एक और पति भी..”

“हा हा! वो तो है!”

“दीदी, हम लोग कैसे करेंगे?”

“कैसे करेंगे का क्या मतलब?”

“मतलब, उन पर पहला हक़ तो आपका ही है..”

“किसी का पहला दूसरा हक़ नहीं है... हम तीनो का ही हम तीनो पर एक सा हक़ है। इन्होने मुझे यही समझाया है कि शादी में पति और पत्नी दोनों बराबरी के होते हैं.. और कोई छोटा बड़ा नहीं।“

“हम्म.. मतलब की हम तीनो एक साथ?”

“और क्या? सोच.. हम तीनो एक साथ एक बिस्तर पर!”

“नंगू पंगु?” नीलम ने बचे हुए आंसू पोंछते हुआ कहा।

“हाँ..” संध्या मुस्कुराई, “और उनका छुन्नू.. हम दोनों के अन्दर बारी बारी से! सोच!”

“ही ही.. दीदी, वो उसको लंड कहते हैं..”

“तुझे भी सिखा दिया?”

“हाँ..”

“हम दोनों मिल कर रूद्र की सेवा करेंगी, और हम दोनों मिल कर उनको इतनी ख़ुशी देंगी कि उनसे सम्हाली न जा पाए!”

“हाँ दीदी! उन्होंने बहुत सारे दुःख झेले हैं।“

“अब और नहीं! अब बिलकुल भी और नहीं!”

“दीदी... क्यों न आज हम सब मिलकर रात बिताएँ?”

“मन तो मेरा भी यही है.. लेकिन इनसे भी तो पूछना पड़ेगा... क्या पता, क्या क्या सोच लिया होगा इन्होने!”

“अरे क्या सोचेंगे? किस आदमी को अपने बिस्तर पर दो दो सेक्सी लड़कियाँ नहीं चाहिए?”

“हा हा हा हा... हाँ.. इन्होने हमारे हनीमून पर एक विदेशी लड़की के साथ कर लिया था...”

“क्या कह रही हो दीदी?”

“हाँ! और वो भी मेरे सामने!”

“अरे! और आपने कुछ कहा नहीं? रोका नहीं?”

“अरे कैसे रोकती? इतनी सेक्सी सीन थी कि क्या बताऊँ! वो सीन देख कर मेरे बदन में ऐसी आग लग गई थी कि कुछ कहते, करते न बना!”

“मतलब इन्होने चार चार लड़कियों को...”

“चार? चार मतलब?”

“जब जनाब की हड्डियाँ टूटी हुई थीं, तब इन्होने अपनी नर्स की योनि को भी तर किया...”

“क्या? हा हा!”

“हाँ दीदी... ये तो उससे शादी भी करना चाहते थे.. अगर मैंने ही इनको प्रोपोज़ न कर दिया होता तो ये तो गए थे हाथ से...!”

“बाप रे... कौन थी वो लड़की?”

दोनों बहनें फिर फ़रहत की बातें, और इधर उधर की गप-शप करने लगीं। पुरानी बातों को याद करने लगीं। जो भी गिले शिकवे, डर और संदेह बचे हुए थे, सब निकल गए!

मुझे फोन पर sms मिला – ‘Honey, fuck Di tonite. Fuck her brains out, and then we will talk. Luv’

समय देखा, रात के साढ़े दस बजे थे। मुझे मालूम नहीं था कि दोनों बहनें आपस में क्या कर रही थीं – झगड़ा या प्यार! कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। खाने पीने का भी कुछ ठिकाना नहीं मालूम हो रहा था, इसलिए मैंने बाहर ही खाना खा लिया – खाना क्या खाया, बस पेट में कुछ डाल लिया। भूख तो वैसे भी नहीं लग रही थी।

नीलम का sms पढ़ कर कुछ दिलासा तो हुई। मतलब बात खराब तो बिलकुल भी नहीं हुई है।

‘fuck Di...? बिल्कुल! संध्या जैसी लड़की तो मुर्दे में भी कामेच्छा जगा सकती है.. ये तो सिर्फ मैं ही हूँ... उसका पति!’

मैं जल्दी जल्दी डग भरते हुए घर पहुंचा – तब तक तो मेरा शिश्न तीन चौथाई खड़ा भी हो गया था। दरवाज़ा खोला तो देखा कि नीलम एक मद्धिम बल्ब से रोशन ड्राइंग रूम में मेरा ही इंतज़ार कर रही थी। उसने मुझे देखा और फिर मेरे लोअर के सामने बनते हुए तम्बू को। उसने एक हाथ की तर्जनी को अपने होंठो पर ऐसे रखा कि मैं कुछ न कहूँ, और दूसरे हाथ की तर्जनी से इशारा कर के अपनी तरफ बुलाया। उसके पास मैं जैसे ही पहुँचा, उसने एक ही बार में मेरा लोअर और चड्ढी खींच कर नीचे उतार दिया और ‘गप’ से मेरे उत्तेजित लिंग को अपने मुँह में भर लिया। कुछ ही देर के चूषण के बाद मेरा लिंग पूरी तरह से तैयार हो गया। यह देख कर उसने मुझे छोड़ दिया और फुसफुसाती हुई आवाज़ में कहा,

“कस के चोदना उसे... कम से कम तीन चार बार! समझ गए मेरे शेर? अब जाओ..”

यदि कोई कसर बची रह गई हो तो नीलम की यह बात सुन कर पूरी हो गई। मास्टर बेडरूम का दरवाज़ा बंद था, और उसके अन्दर में से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, और न ही अन्दर बत्ती जलती हुई लग रही थी। अन्दर जाते जाते मैंने अपने सब कपड़े उतार दिए। अन्दर गया तो देखा कि हाँलाकि बत्ती बंद थी, लेकिन बाहर से हलकी हलकी रोशनी छन कर आ रही थी, और उसी रौशनी से संध्या का नग्न शरीर प्रतिदीप्त हो रहा था।

लम्बे लम्बे डग भरता हुआ मैं बिस्तर तक पहुंचा और चुपचाप, बिना कोई ख़ास हलचल किए संध्या के बगल पहुंचा। वैसे देखा जाय तो जो मैंने आगे उसके साथ करने वाला था, उससे तो संध्या की नींद में कहीं अधिक ख़लल पड़ने वाला था। वैसे अगर मुझे पहले से मालूम होता तो यह सब इन दोनों बहनों का स्वांग था। खैर, बहुत ही मजेदार स्वांग था। मैंने उंगली को संध्या की चूत पर हलके से फिराया – वो तुरंत ही गीली हो गई।

‘ह्म्म्म कैसे सपने देख रही है यह..!’ मैंने सोचा।

अब देरी किस बात की थी... मैंने संध्या की जांघें फैलाई, और फिर अपने लंड को संध्या के प्रवेश-द्वार पर टिकाया। लिंग में बलपूर्वक रक्त का संचार हो रहा था। लिंग इतना ठोस था कि एक ही बार में वो सरसराते हुए पूरे का पूरा संध्या के भीतर तक समां गया। मुझे ऐसा लगा कि सोते हुए भी संध्या की योनि पूरी अधीरता से मेरे लिंग का स्वागत कर रही थी। मैंने लिंग को बाहर खींचा, और वापस उसके अन्दर ठेल दिया – यह इतने बलपूर्वक किया था कि संध्या की नींद खुल गई। और उसको तुरंत ही अपनी योनि में होने वाले अतिक्रमण का पता भी चल गया।

संध्या ने तुरंत ही अपना कूल्हा चला कर मेरी ताल में ताल मिलाई। बिना किसी रोक रूकावट के मेरा लिंग सरकते हुए उसकी योनि की पूरी गहराई तक घुस गया। मीठे मीठे दर्द से संध्या कसमसा गई और उसने मुझे जोर से पकड़ लिया। उत्तेजना के अतिरेक से वह कभी मेरी पीठ पर हाथ फिराती, तो कभी नाखून भी गड़ा देती थी। एक अलग तरह का जंगलीपन था आज उसमें। मुझ में भी था! इसके कारण मुझे चुभन का दर्द नहीं, बल्कि मजा आ रहा था। मैं उन्माद में आ कर धक्के लगाने लगा। मैंने संध्या के चूतड़ों को पकड़ लिया और तेजी से उसकी योनि की पूरी गहराई तक जा जा कर उसकी चुदाई करने लगा।

बीच-बीच में हम एक दूसरे के होंठों को भी चूमते और चूसते। मैंने अपनी रफ़्तार बढ़ा दी। संध्या भी मेरी ताल पर अपनी कमर आगे पीछे कर रही थी, जिससे हम लोग जोरदार चुदाई कर रहे थे। कोई पांच मिनट के बाद मैंने पोजीशन बदलने की सोची। मैं संध्या को पेट के बल लिटा कर उसको घोड़ी के पोजीशन में ले आया और पीछे से अपने लिंग को उसकी योनि में घुसा दिया। मैंने उसकी कमर को मजबूती से पकड़ा हुआ था, और धक्के लगाने के साथ-साथ उसकी कमर को भी अपने तरफ खींचने लगा। उसकी योनि की भरपूर चुदाई हो रही थी। नीलम अगर यह दृश्य देखती, तो उसको मुझ पर गर्व होता।

कुछ देर में मुझे लगा कि स्खलन हो जायेगा, इसलिए मैं थोड़ा रुक गया। लेकिन लिंग को उसकी योनि से निकाला नहीं। संध्या बिस्तर पर घोड़ी बनी अपनी साँसें संयत करने लगी। मैं पीछे से ही संध्या के ऊपर झुक गया और उसके स्तनों को सहलाने लगा, साथ ही उसकी पीठ पर छोटे छोटे चुम्बन जड़ने लगा। इसी बीच संध्या को चरम सुख मिल गया। मैंने अपने लिंग से उसके अन्दर से निकाला नहीं था। ज्यादा देर रुक भी नहीं सकता था, क्योंकि मुझे भी उसमें वीर्य छोड़ने का मन हो रहा था।

मैंने संध्या को बिस्तर के साइड में बैठा दिया, कुछ ऐसे जैसे संध्या का एक पैर नीचे था और दूसरा बिस्तर पर ही रह गया। मैंने उसकी कमर को अपने बांहों में जकड़ा और अपना लिंग उसकी योनि पर टिका कर एक ही बार में अन्दर घुसा दिया।

उसी समय नीलम ने कमरे में प्रवेश किया। पूरी तरह से नंगी!

“दीदी का हो गया जानू.. अब मेरी बारी है!”

मैं एक पल को नीलम की बात समझ नहीं पाया – उसके यूँ ही अचानक से प्रकट हो जाने से एक तो मैं चौंक गया था, और ऊपर से मुझे अचरज हुआ की वो यह ऐसे कैसे बोल रही है। मुझे ऐसे अचंभित देख कर दोनों बहने एक साथ ही हंसने लगीं। तब जा कर मुझे समझ आया की यह इन्ही दोनों की मिलीभगत है और दोनों मुझ से मजे ले रही हैं! मैंने इशारे से नीलम को बिस्तर पर बुलाया, और संध्या के जैसे ही बैठने को कहा। फिर संध्या को छोड़ कर नीलम की योनि में प्रविष्ट हो गया। बस एक ही बात मेरे दिमाग में आई,

‘दुनिया में कहीं स्वर्ग है, तो बस, यहीं है!’



उपसंहार –


पिछला साल मेरे जीवन का सबसे रंगीन, सबसे खुशनुमा, और प्रेम से सराबोर समय रहा। मेरी दोनों ही पत्नियों ने अपनी अपनी पढ़ाई ख़तम करी। स्नातक की डिग्री के साथ ही उन दोनों को एक और डिग्री मिली – माँ बनने की! एक समय था जब मैं पूरी तरह अकेला हो गया था और आज मेरे घर में कुल जमा पांच लोग हैं - दो बीवियाँ और दो बच्चे!! पास पड़ोस के लोग शुरू शुरू में हमको अजीब निगाहों से देखते थे, लेकिन फिर सभी को हमारी परिस्थितियों का पता चला तो उनका बर्ताव भी सामान्य हो गया। संध्या, नीलम और मैं - हम तीनो मिल कर सम्भोग का भरपूर आनंद लेते हैं। जीवन में अगर प्रेम है, तो सब कुछ है।


समाप्त!


एक शानदार कहानी का बेहतरीन अंत। इस कहानी का इस से अच्छा अंत हो नही सकता था । दोबारा इस कहानी को पढ़कर पुरानी यादें ताज़ा हो गई
 
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avsji

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एक शानदार कहानी का बेहतरीन अंत। इस कहानी का इस से अच्छा अंत हो नही सकता था । दोबारा इस कहानी को पढ़कर पुरानी यादें ताज़ा हो गई
बहुत बहुत धन्यवाद मित्र 😊🙏
 
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vicky4289

Full time web developer.
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आधुनिक संसार की यदि एक शब्द में व्याख्या करने को कहा जाए तो मन में बस एक ही शब्द आता है, और वह है - ‘गतिमान’। संसार गतिमान है। वैसे संसार ही क्या, पूरा ब्रह्माण्ड ही गतिमान है। खैर, यहाँ हम लोग भौतिक विज्ञान के नियमों की समीक्षा करने नहीं आए हैं। यहाँ हम कथा बाँचने आए हैं, इसलिए बात आधुनिक जीवन की हो रही है। आज का युग कुछ ऐसा हो गया है कि चहुँओर जैसे भागमभाग मची हुई है। मनुष्य के जीवन में मानों विश्राम या ठहराव शेष ही नहीं रह गया है। सब कुछ गतिमान है। और इस गति को ऊर्जा ‘कार्य’ से मिलती है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को भी यही शिक्षा दी थी, कि हे पार्थ, तुम कुछ तो करोगे ही। गतिमान जीवन के लिए ठहर कर सोचने का कार्य इसके ठीक विपरीत दिशा में है। आज मनुष्य को घटनाओं से घुड़दौड़ करनी पड़ती है। संभव है कि पिछली शताब्दियों में, जब इतनी जनसंख्या न रही हो, तब इस प्रकार की गलाकाट घुड़दौड़ न हो रही हो। लेकिन आज की सच्चाई तो यही है कि मनुष्य को बचपन से ही एक घुड़दौड़ की शिक्षा और प्रशिक्षण दी जाती है - जो भिन्न भिन्न लोगों के लिए भिन्न भिन्न होती है।


बच्चा पैदा होता है तो उसको ऐसे घोल और घुट्टियाँ पिलाई जाती हैं जिससे वो जल्दी से बड़ा हो जाए। बड़ा होने लगता है तो उसको शब्दों और अंकों का ज्ञान घोंट घोंट कर पिलाया जाने लगता है। वो समझता कितना है, वो तो भगवान ही जानें, लेकिन रट्टा मार कर अपने चाचा, मामा, ताऊ को ‘बा बा ब्लैक शीप’ और ‘टू टू जा फोर’ सुना देता है (वो अलग बात है कि अंग्रेजी में ‘टू टूज़ आर फोर’ होता है - इसीलिए मैंने रट्टामार शब्द का प्रयोग किया है)। प्रतियोगिता ऐसी गलाकाट है कि एक सौ एक प्रतिशत से नीचे तो शायद दिल्ली विश्वविद्यालय में संभवतः प्रवेश ही न मिले। मेरे एक अभिन्न मित्र के अनुसार हमारी शिक्षा प्रणाली हमको मात्र उपभोक्ता बनने के इर्द गिर्द ही सीमित है। और ऐसा हो भी क्यों न? दरअसल हमने आज के परिवेश में भोग करने को ही विकास मान रखा है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, नैतिक और सामाजिक मूल्य लगभग समाप्त हो चुके हैं। प्रत्येक व्यक्ति को केवल ‘उपभोक्ता’ बनने के लिये ही विवश और प्रोत्साहित किया जा रहा है। जो जितना बड़ा उपभोक्ता है, वो उतना ही अधिक विकसित है – फिर वो चाहे राष्ट्र हों, या फिर व्यक्ति! मैंने भी इसी युग में जन्म लिया है और पिछले तीस वर्षों से एक भयंकर घुड़दौड़ का हिस्सेदार भी रहा हूँ। अन्य लोगों से मेरी घुड़दौड़ शायद थोड़ी अलग है – क्योंकि समाज के अन्य लोग मेरी घुड़दौड़ को सम्मान से देखते हैं। और देखे भी क्यों न? समाज ने मेरी घुड़दौड़ को अन्य प्रकार की कई घुड़दौड़ों से ऊंचा दर्जा जो दिया हुआ है।


अब तक संभवतः आप लोगो ने मेरे बारे में कुछ बुनियादी बातों का अनुमान लगा ही लिया होगा! तो चलिए, मैं अब अपना परिचय भी दे देता हूँ। मैं हूँ रूद्र - तीस साल का ‘तथाकथित’ सफल और संपन्न आदमी। इतना सफल और संपन्न कि एक औसत व्यक्ति मुझसे ईर्ष्या करे। सफलता की इस सीढ़ी को लांघने के लिए मेरे माता-पिता ने मुझे बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत सारे कष्ट देखे और सहे थे - इसलिए उन्होंने बहुत प्रयास किया कि मैं वैसे कष्ट न देख सकूं। अतः उन्होंने अपना पेट काट-काट कर ही सही, लेकिन मेरी शिक्षा और लालन पालन में कोई कमी नहीं आने दी। उन्होंने मुझको सदा यही सिखाया की ‘पुत्र! लगे रहो। प्रयास छोड़ना मत! आज कर लो, आगे सिर्फ सुख भोगोगे!’ यहाँ मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ कि मेरे माता पिता की शिक्षा मिथ्या थी। प्रयास करना, परिश्रम करना अच्छी बातें हैं - दरअसल यह तो नैसर्गिक और नैतिक गुण हैं। किन्तु मेरा मानना है की उनका ‘जीवन के सुख’ (वैसे, सुख की हमारी आज-कल की समझ तो वैसे भी गंदे नाले में स्वच्छ जल को व्यर्थ करने के ही तुल्य है) से कोई खास लेना देना नहीं है। और वह एक अलग बात है, जिसका इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है। और मैं यहाँ पर कोई पाठ पढ़ने-पढ़ाने नहीं आया हूँ।


जीवन की मेरी घुड़दौड़ अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी, की मेरे माँ बाप मुझे जीवन की जिन मुसीबतों से बचाना चाहते थे, वो सारी मुसीबतें मेरे सर पर मानो हिमालय के समस्त बोझ के समान एक बार में ही टूट पड़ी। जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रहा था, तभी मेरे माँ बाप, दोनों का ही एक सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया, और मैं इस निर्मम संसार में नितांत अकेला रह गया। मेरे दूरदर्शी जनक ने अपना सारा कुछ (वैसे तो कुछ खास नहीं था उनके पास) मेरे ही नाम लिख दिया था, जिससे मुझे कुछ अवलंब (सहारा) तो अवश्य मिला। ऐसी मुसीबत के समय मेरे चाचा-चाची मुझे सहारा देने आये - ऐसा मुझे लगा - लेकिन वह केवल मेरा मिथ्याबोध था। वस्तुतः वो दोनों आए मात्र इसलिए थे कि उनको मेरे माता पिता की संपत्ति का कुछ हिस्सा मिल जाए, और उनकी चाकरी के लिए एक नौकर (मैं) भी। किन्तु यह हो न सका - माँ बाप ने मेहनत करने के साथ साथ ही अन्याय न सहने की भी शिक्षा दी थी। लेकिन मेरी अन्याय न सहने की वृत्ति थोड़ी हिंसक थी। चाचा-चाची से मुक्ति का वृतांत मार-पीट और गाली-गलौज की अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है, और इस कहानी का हिस्सा भी नहीं है।


बस यहाँ पर यह बताना पर्याप्त होगा की उन दोनों कूकुरों से मुझे अंततः मुक्ति मिल ही गई। लेकिन जब तक यह सब हो पाया, तब तक पिता जी की सारी कमाई और उनका बनाया घर - सब कुछ बिक गया। मेरे मात-पिता से मुझको जोड़ने वाली अंतिम भौतिक कड़ी भी टूट गई। घर छोड़ा, आवासीय विद्यालयों में पढ़ा, और अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए (जो मेरे माता पिता की न सिर्फ अंतिम इच्छा थी, बल्कि तपस्या भी) विभिन्न प्रकार की क्षात्र-वृत्ति पाने के लिए मुझे अपने घोड़े को सबसे आगे रखने के लिए मार-मार कर लहूलुहान कर देना पड़ा। खैर, विपत्ति भरे वो चार साल, जिसके पर्यंत मैंने अभियांत्रिकी सीखी, जैसे तैसे बीत गए - अब मेरे पास एक आदरणीय डिग्री थी, और नौकरी भी। किन्तु यह सब देखने के लिए मेरे माता पिता नहीं थे और न ही उनकी इतनी मेहनत से बनाई गई निशानी।


घोर अकेलेपन में किसी भी प्रकार की सफलता कितनी बेमानी हो जाती है! लेकिन मैंने इस सफलता को अपने माता-पिता के आशीर्वाद का प्रसाद माना और अगले दो साल तक एक और साधना की - मैंने भी पेट काटा, पैसे बचाए और घोर तपस्या (पढ़ाई) करी, जिससे मुझे देश के एक अति आदरणीय प्रबंधन संस्थान में दाखिला मिल जाए। ऐसा हुआ भी और आज मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ। कहने सुनने में यह कहानी बहुत सुहानी लगती है, लेकिन सच मानिए, तीस साल तक बिना रुके हुए इस घुड़दौड़ में दौड़ते-दौड़ते मेरी कमर टूट गई है। भावनात्मक पीड़ा मेरी अस्थि-मज्जा के क्रोड़ में समा सी गई है। ह्रदय में एक काँटा धंसा हुआ सा लगता है। और आज भी मैं एकदम अकेला हूँ। कुछ मित्र बने – लेकिन उनसे कोई अंतरंगता नहीं है – सदा यही भय समाया रहता है कि न जाने कब कौन मेरी जड़ें काटने लगे! जीवनसाथी का अन्वेषण जारी है... पर कोई जीवनसाथी बनने के इर्द-गिर्द भी नहीं है। ऐसा नहीं है की मेरे जीवन में लड़कियां नहीं आईं - बहुत सी आईं और बहुत सी गईं। किन्तु जैसी बेईमानी और मानव हीनता मैंने अपने जीवन में देखी है, मेरे जीवन में आने वाली ज्यादातर लड़कियां वैसी ही बेईमान और मानव मूल्यों से विहीन मिलीं। आरम्भ में सभी मीठी-मीठी बातें करती, लुभाती, दुलारती आती हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनके चरित्र की प्याज़ जैसी परतें हटती है, और उनकी सच्चाई की कर्कशता देख कर आँख से आंसू आने लगते हैं।
मैंने आज से ये कहानी शुरू की है, और पहले ही अपडेट से आपकी लेखनी का दीवाना हो गया है। आप क्या सुध हिंदी लिखते हैं। और क्या भाव या दिल की वेदना के साथ लिखते हैं। यहीं से आपके शब्दों का दीवाना हो गया हुं।
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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मैंने आज से ये कहानी शुरू की है, और पहले ही अपडेट से आपकी लेखनी का दीवाना हो गया है। ऐप क्या सुध हिंदी लिखते हैं। और क्या भाव या दिल की वेदना के साथ लिखते हैं। यहीं से आपके शब्दों का दीवाना हो गया हुं।

स्वागत है आपका! उम्मीद है कि ये, और अन्य कहानियाँ आपका भरपूर मनोरंजन करेंगी।
और कभी कभी ज्ञान / जानकारी वर्द्धन भी :)
 

vicky4289

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सच मानिए, मेरा मानव जाति से विश्वास उठता जा रहा है, और मैं खुद अकेलेपन के गर्त में समाता जा रहा हूँ। तो क्या अब आप मेरी मनःस्थिति समझ सकते हैं? कितना अकेलापन और कितनी ही बेमानी जिंदगी! प्रतिदिन (अवकाश वाले दिन भी) सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक कार्य में स्वयं को स्वाहा करता हूँ, जिससे की इस अकेलेपन का बोझ कम ढोना पड़े। पर फिर भी यह बोझ सदैव भारी ही रहता है। कार्यालय में दो-तीन सहकर्मी और बॉस अच्छे व्यवहार वाले मिले। वो मेरी कहानी जानते थे, इसलिए मुझे अक्सर ही छुट्टी पर जाने को कहते थे। हितैषी थे वो सभी। आज के संसार में आपका हित चाहने वाले लोग मिलें, तो उनको पकड़ कर रखें। मैं भी उनके निकट तो था, लेकिन उतना नहीं जितना होना चाहिए। उनकी सलाह नेक थी। लेकिन वो कहते हैं न, की मुफ्त की सलाह, चाहे वो कितनी भी नेक क्यों न हो, उसका क्या मोल! मैं अक्सर ही उनकी बातें अनसुनी कर देता।


लेकिन, पिछले कुछ दिनों से मेरा हवा-पानी बदलने का बहुत मन हो रहा था - वैसे भी अपने जीवन में मैं कभी भी बाहर (घूमने-फिरने) नहीं गया। मेरे मित्र मुझको ‘अचल संपत्ति’ और ‘घर घुस्सू’ कहकर बुलाने लगे थे। अपनी इस जड़ता पर मुझको विजय प्राप्त करनी ही थी। इंटरनेट पर करीब दो माह तक शोध करने के बाद, मैंने मन बनाया कि उत्तराँचल चला जाऊंगा घूमने! जब मैंने अपनी मंशा अपने बॉस को बताई तो वो बहुत खुश हुए। अपने बॉस से एक महीने की छुट्टी ली - आज तक मैंने कभी भी छुट्टी नहीं ली थी। लेता भी किसके लिए - न कोई सगा न कोई सम्बन्धी। मेरा भला-मानुस बॉस ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे उसको अभी अभी पदोन्नति मिली हो। उसने तुरंत ही मुझको छुट्टी दे दी और यह भी कहा कि एक महीने से पहले दिखाई मत देना। छुट्टी लेकर, ऑफिस से निकलते ही सबसे पहले मैंने आवश्यकता के सब सामान जुटाए। वह अगस्त माह था – मतलब वर्षा ऋतु। अतः समस्त उचित वस्तुएं जुटानी आवश्यक थीं। सामान पैक कर मैं पहला उपलब्ध वायुयान लेकर उत्तरांचल की राजधानी देहरादून पहुंच गया। उत्तराँचल को लोग देव-भूमि भी कहते हैं - और वायुयान में बैठे हुए नीचे के दृश्य देख कर समझ में आ गया की लोग ऐसा क्यों कहते है। मैंने अपनी यात्रा की कोई योजना नहीं बनाई थी - मेरा मन था की एक गाड़ी किराए पर लेकर खुद ही चलाते हुए बस इस सुन्दर जगह में खो जाऊं। समय की कोई कमी नहीं थी, अतः मुझे घूमने और देखने की कोई जल्दी भी नहीं थी। हाँ, बस मैं भीड़ भाड़ वाली जगहों (जैसे कि हरिद्वार, ऋषिकेश इत्यादि) से दूर ही रहना चाहता था। मैंने देहरादून में ही एक छोटी कार किराए पर ली और उत्तराँचल का नक्शा, 'जी पी एस' और अन्य आवश्यक सामान खरीद कर कार में डाल लिया और आगे यात्रा के लिए चल पड़ा।

अगले एक सप्ताह तक मैंने बद्रीनाथ देवस्थान, फूलों की घाटी, कई सारे प्रयाग, और कुछ अन्य छोटे स्थानिक मंदिर भी देखे। हिमालय की गोद में चलते, प्राकृतिक छटा का रसास्वादन करते हुए यह एक सप्ताह न जाने कैसे फुर्र से उड़ गया। उत्तराँचल वाकई देवलोक है। यदि ठहर कर यहाँ के नैसर्गिक सौंदर्य का अवलोकन करेंगे तो पाएंगे कि यहाँ का प्रत्येक स्थान आपको अपने ही तरीके से अचंभित करता है। अब जैसे बद्रीनाथ देवस्थान की ही बात कर लें – मंदिर से ठीक पहले भीषण वेग से बहती अलकनंदा नदी यह प्रमाणित करती है की प्रकृति की शक्ति के आगे हम सब कितने बौने हैं। इसी ठंडी नदी के बगल ही एक तप्त-कुंड है, जहाँ भूगर्भ से गरम पानी निकलता है। हम वैज्ञानिक तर्क-वितर्क करने वाले आसानी से कह सकते हैं की भूगर्भीय प्रक्रियाओं के चलते गरम पानी का सोता बन गया। किन्तु, एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं है। मंदिर के प्रसाद में मिलने वाली वन-तुलसी की सुगंध, थके हुए शरीर से सारी थकान खींच निकालती है। और सिर्फ यही नहीं। प्रत्येक सुबह, सूरज की पहली किरणें जब नीलकंठ पर्वत की चोटी पर जब पड़ती हैं, तब उस पर जमा हुआ हिम (बरफ) ऐसे जगमगाता है, जैसे कि सोना! उस दृश्य को देखने के सभी पर्यटक अपने अपने हाथ में चाय का प्याला पकड़े सूर्योदय से पंद्रह मिनट पहले से ही उसका इंतज़ार करने लगते हैं।

ऐसे ही न जाने कितने ही चमत्कार उत्तराँचल की भूमि पर पग-पग पर होते रहते हैं। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, जल से भरी नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल में, तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना - यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे आनंद आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले शरीर से प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।

सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगों से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है - तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुस्कुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियां देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है - लेकिन उनके होंठो पर मुस्कुराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे - मैंने एकाध बार लोगों को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया - ‘भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?’ छोटे-छोटे बच्चे, अपने सेब जैसे लाल-लाल गाल और बहती नाक के साथ इतने प्यारे लगते, कि जैसे गुड्डे-गुड़ियाँ हों! इन सब बातों ने मेरा मन ऐसे मोह लिया की मन में एक तीव्र इच्छा जाग गई कि कितना बढ़िया हो यदि मैं अब बस यहीं पर बस जाऊं।

खैर, मैं इस समय ‘फूलों की घाटी’ से वापस आ रहा था। यह ऊँचाई पर स्थित एक पहाड़ी घाटी है, जहाँ विभिन्न प्रजातियों के अनगिनत फूल उगते हैं। वहाँ बिताये हुए वो चार दिन मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। समुद्र तल से कोई साढ़े तीन किलोमीटर ऊपर स्थित इस घाटी में अत्यंत स्थानीय, केवल उच्च पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले फूल मिलते हैं। फूलों से भरी, सुगंध से लदी इस घाटी को देखकर ऐसा ही लगता है कि उस जगह पर वाकई देवों और अप्सराओं का स्थान होगा। बचपन में आप सब ने दादी की कहानियों में सुना होगा की परियां जमीन पर आकर नाचती हैं। मेरे ख़याल से धरती पर यदि ऐसा कोई ऐसा स्थान है, तो वह ‘फूलों की घाटी’ ही है। मेरे जैसा एकाकी व्यक्ति इस बात को सोच कर ही प्रसन्न हो गया कि इस जगह से ‘मानव सभ्यता’ से दूर-दूर तक कोई संपर्क नहीं हो सकता। न कोई मुझे परेशान करेगा, और न ही मैं किसी और को। लेकिन पहाड़ों के ऊपर चढ़ाई, और उसके बात उतराई में इतना प्रयास लगा की बहुत ज्यादा थकावट हो गई। इतनी कि मैं वहाँ से वापस आने के बाद करीब आधे दिन तक अपनी गाड़ी में ही सोता रहा।
आपने उत्तराँचल का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। ऐसा लगता है जैसे हम वहीं हैं।
 
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