बैंगलोर हवाई-अड्डे पर पुनः कोई समस्या नहीं हुई। बस यही की चेक-इन काउंटर पर बैठी ऑफिसर, संध्या जैसी अल्पवय तरुणी को विवाहित सोच कर उत्सुकता पूर्वक देख रही थी। मेरे लाख मना करने के बावजूद आज भी संध्या ने साड़ी-ब्लाउज़ पहना हुआ था – हाथों में मेहंदी, सुहाग की चूड़ियाँ, सिन्दूर, मंगलसूत्र, इत्यादि सब पहना हुआ था उसने। मैंने लाख समझाया की गहनों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है, फिर भी! अल्प-वय पत्नी होने के अपने ही नुकसान हैं – लोग कैसी कैसी नज़रों से देखते रहते हैं! और तो और, सारे मॉडर्न कपड़े-लत्ते खरीदना बेकार सिद्ध हो रहा था। जवान लोगो के शौक होते हैं... लेकिन ये तो परंपरागत परिधान छोड़ ही नहीं रही है।
फ्लाइट अपने निर्धारित समय पर निकली – मैंने संध्या को विंडो सीट पर बैठाया, जिससे वो बाहर के नज़ारे देख सके। बंगाल की खाड़ी पर उड़ते समय कुछ भी साफ़ नहीं दिख रहा था – अधिक रोशनी और धूल-भरी धुंध के कारण कुछ भी नहीं समझ आ रहा था। लेकिन, जब हम द्वीप समूह के निकट पहुंचे, तब नजारे एकदम से अलग दिखने लगे। नीले रंग का पानी, उसके बीच में अनगिनत हरे रंग के टापू, नीला आसमान, उसमें छिटपुट सफ़ेद बादल! फ्लाइट पूरा समय सुगम रूप से चली, लेकिन आखिरी पंद्रह मिनट किसी एयर-पॉकेट के कारण हमको झटके लगते रहे। बेचारी संध्या ने डर के मारे मेरा हाथ कस के पकड़ रखा था (अब कोई किसी को कैसे समझाए की अगर हवाई जहाज गिर जाए, तो कुछ भी पकड़ने का कोई फायदा नहीं!)।
खैर, उतरते समय नीचे का जो भी दृश्य दिखा वो अत्यंत मनोरम था। एअरपोर्ट पर हवाई पट्टी के चहुँओर छोटे-छोटे पहाड़ी टीले थे, जिन पर प्रचुर मात्रा में हरे हरे पेड़ लगे हुए थे। देख कर ऐसा लग रहा था की यहाँ बहुत ठंडक होगी, लेकिन सूरज की गर्मी और समुद्री प्रभाव के कारण वातावरण गुनगुना गरम था। उत्तराँचल की ठंडी (जो की मेरे दिलोदिमाग में बस गई थी) से तुरंत ही बहुत राहत मिली।
कुछ शब्द अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के बारे में :
अंडमान में मानव जीवन हजारों सालों से है – तब से जब से मानव-जाति अफ्रीका से बाकी विश्व में प्रवास कर रही थी। वहां पर मिलने वाले पुरातात्विक प्रमाण कोई ढाई हज़ार साल पुराने हैं। माना जाता है की प्राचीन ग्रीक भूगोलवेत्ता टालमी को इनके बारे में मालूम था। महान चोल राजाओं को भी इनके बारे में मालूम था और वे इन द्वीप समूहों को ‘अशुद्ध द्वीप’ कहते थे। खैर, उनके लिए इन द्वीपों की आवश्यकता एक नौसेना छावनी से अधिक नहीं थी। बाद में महान मराठा योद्धा, शिवाजी महाराज ने भी इन द्वीपों पर राज किया। अंततः अंग्रेजों ने 1780 के आस पास इन पर अपना प्रभुत्त्व जमा लिया, और इनका प्रयोग एक दण्ड-विषयक कॉलोनी जैसे करना आरम्भ किया। 1857 की क्रान्ति के बाद अनगिनत युद्ध बंदियों को यहाँ पर कारावास दिया गया और अंततः, आजादी की लड़ाई के समय बहुत से महत्त्वपूर्ण राजनीतिकी बंदियों को यहाँ बनायीं हुई ‘सेलुलर जेल’ में बंधक बना कर रखा गया। इसी अतीत के कारण, इनको ‘काला पानी’ कहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के समय थोड़े समय के लिए जापानियों ने इन पर कब्ज़ा कर लिया था, जिनके अवशेष वहां अभी भी मौजूद हैं। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात इनको केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा मिला, और तब से यह स्थान शान्ति से है।
अंडमान की सबसे ख़ास बात यह है की पूरे भारत में यही एक जगह है, जिसको सही मायने में अवकाश वाली जगह कहा जा सकता है। पूरा देश, जब टी-टी पो-पो के शोर से, गंदगी और दुर्गन्ध से, और हर प्रकार के प्रदूषण से दो चार होता रहता है, तब साफ़, स्वच्छ, उच्च-दृश्य, और नीले पानी से घिरा यह स्थान, हमको सच में आनंदित करता है। देश के काफी पूर्वी हिस्से में रहने के कारण यहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त दिल्ली या मुंबई के मुकाबले कम से कम एक घंटे पहले होता है।
हमने पूरे दस दिनों का प्रोग्राम बनाया था (दरअसल, बॉस ने बनाया था... और एक बात, मेरे ऑफिस के सभी सहकर्मियों ने हमारे हनीमून के लिए योगदान किया था। यह एक अभूतपूर्व घटना थी, और लोगो के प्रेम के इस संकेत से में पहले ही बहुत प्रभावित और भावुक था), और उसका सारा दारोमदार बॉस के मित्र पर था। उन्होंने पूरी दयालुता से हमारे हनीमून को अविस्मरणीय अनुभव बनाने की गारंटी ली थी।
पोर्ट ब्लेयर आते ही एक टैक्सी ने हमको एक जेटी (जलबंधक) तक पहुँचाया, जहाँ एक उत्तम प्रकार की फेरी में फर्स्ट-क्लास में हमारी बुकिंग थी। यह सब कुछ हम दोनों के लिए ही नया था और रोमांचक भी। फिरोज़ी नीला समुद्री जल, उसमें उठती अनंत लहरें, हमारे जहाज द्वारा छोड़े जाने वाला फेन और शोर – सब कुछ रोमांचक था। फर्स्ट क्लास में हमारे अलावा एक और नव-विवाहित जोड़ा भी था, लेकिन वो दोनों अपने में ही इतना मगन थे, की उनसे बात करने का अवाल ही नहीं उठा, और ऐसा भी नहीं है की मुझको उनसे बात करने की तीव्र इच्छा थी। खैर, इन सब में समय यूँ ही निकल गया, और हम लोग वहां के हेवलॉक द्वीप पर पहुँच गए।
वहां जेटी पर हमें लेने होटल की गाड़ी आई। कार की खुली खिड़की से गुनगुनी धूप मिली हुई हवा और समुद्री महक बहुत अच्छी लग रही थी। कोई दस मिनट में ही हम लोग अपने रिसोर्ट पर पहुँच गए। आज सवेरे हवाई अड्डे पर ही जो खाया था, वही था, इसलिए अभी बहुत तेज भूख लग रही थी। हमने होटल में चेक-इन किया और अपने कमरे में पहुँच गए। यह रिसोर्ट एक विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ था – उसमे कुछ टेंट लगे हुए कमरे थे, और कुछ झोपड़े-नुमा कमरे। टेंट और झोपड़े सिर्फ कहने के लिए है – दरअसल ज्यादातर कमरों में वातानुकूलन लगा हुआ था। पूरे रिसोर्ट में नारियल के पेड़ और बहुत सारे फूल लगे हुए थे, जिससे दृश्य बहुत ही सुन्दर बन पड़ता था। इस समय मुझे जितने भी ग्राहक वहां दिखे, वो सारे ही विदेशी थे। इस रिसोर्ट में खूबी यह भी थी की यहाँ पर समुद्री एडवेंचर स्पोर्ट्स का भी बंदोबस्त करते थे। हमारा कमरा उनके सबसे अच्छे कमरों में से एक था, और रिसोर्ट के अपने बीच के ठीक सामने था। कमरे को सफ़ेद रंग से रंग गया था, और लिनेन फिरोज़ी नीले रंग के विभिन्न शेड्स के थे। पेंटिंग में भी समुद्र ही दिख रहा था। बिस्तर के सामने की तरफ फ्लैट-स्क्रीन टीवी लगी हुई थी, और दाहिनी तरफ लकड़ी का ड्रेसर – कुल मिला कर एक स्टैण्डर्ड रख रखाव!
“हियर वी आर!” बेलहॉप ने हमारा सामान ड्रेसर में रखते हुए कहा, और फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए, “कान्ग्रेचुलेशंस ऑन योर वेडिंग, मिस्टर एंड मिसेज़ सिंह! आपको अगर कुछ आर्डर करना है तो मेनू साइड टेबल पर है और रेस्त्राँ का नंबर 10 है।“
कह कर वह कमरे से बाहर चला गया। खैर, मैंने अपने आपको बिस्तर पर पटका और खाने का मेनू उठाया, और संध्या को पूछा की वो क्या खाएगी। जैसा पहले भी हो चुका है, अंततः मुझे ही आर्डर करना पड़ा। खाने के साथ-साथ फ्रेश लाइम सोडा भी मंगाया।
“चलिए, आपको इन कपड़ों से छुट्टी दिलाते हैं?” आर्डर देते ही मैंने जैसे ही संध्या की तरफ हाथ बढाया, वह झट से पीछे हट गई।
“धत्त! आप भी न, जब देखो तब शुरू हो जाते हैं! आपके छुन्नू पर आपका कोई कंट्रोल नहीं है!”
“छुन्नू? ये छुन्नू है?” कहते हुए मैंने संध्या का हाथ पकड़ कर अपने सख्त होते लिंग पर फ़िराया.... “जानेमन, इसको लंड कहते हैं.... क्या कहते हैं?”
“मुझे नहीं मालूम।“ संध्या ने ठुनकते हुए कहा।
“अरे! अभी तो बताया – इसको ल्ल्ल्लंड कहते हैं।“ मैंने थोडा महत्व देकर बोला। “अब बोलो।“
अब तक मैं बिस्तर के कोने पर बैठ गया था, और संध्या मेरे बांहों के घेरे में थी।
“नहीं नहीं!.. मैं नहीं बोल सकती!”
मैंने संध्या के नितम्ब पर एक हल्की सी चपत लगाई, “बोलो न! प्लीईईज्! क्या कहते हैं इसको?”
संध्या, हिचकते और शर्माते हुए, “ल्ल्ल्लंड...”
“वेरी गुड! और लंड कहाँ जाता है?”
“मेरे अन्दर...”
“नहीं, ऐसे कहो, ‘मेरी चूत के अन्दर..’ .... कहाँ?”
संध्या अब तक शर्मसार हो चली थी, लेकिन गन्दी भाषा का प्रयोग हम दोनों के ही लिए बहुत ही रोमांचक था, “मेरी .. चूत.. के अन्दर...”
“गुड! कल ही आपने कहा था की मैं चाहूँ तो दिन के चौबीसों घंटे आपकी चूत में अपना लंड डाल सकता हूँ, और आप बिलकुल भी मना नहीं करेंगी! कहा था न?”
“मैंने कहा था? कब?” संध्या भी खेल में शामिल हो गई।
“जब आप मेरे लंड को अपनी चूत में डाल कर उछल-कूद कर रहीं थी तब...” मैंने संध्या की साड़ी का फेंटा उसके पेटीकोट के अंदर से निकाल लिया और ज़मीन पर फेंक दिया। “बोलिए न, मुझे रोज़ डालने देंगी?”
“आप भी न! जाइए, मैं अब और कुछ नहीं बोलूंगी..”
“अरे! मुझसे क्या शर्माना? यहाँ मेरे सिवाय और कौन है यह सब सुनने को? बोलिए न!”
“नहीं! आप बहुत गंदे हैं! और, मैं अब कुछ नहीं बोलूंगी.... जो बोलना था, वो सब बोल दिया।“
अब उसकी पेटीकोट का नाडा खुल गया और खुलते ही पेटीकोट नीचे सरक गया। संध्या सिर्फ ब्लाउज और चड्ढी में मेरे सामने खड़ी हुई थी।
“ऐसे मत सताओ! प्लीज! बोलो न!”
“हाँ!”
“क्या हाँ? ऐसे बोलो, ‘हाँ, मैं तुमको रोज़ डालने दूंगी’...”
“छी! मुझे शरम आती है।“
“कल तो बड़ी-बड़ी बाते कह रही थी, और आज इतना शर्मा रही हैं! अब क्या शरमाना? ये देखो, मेरी उंगली आपकी चूत के अन्दर घुस रही है! और कुछ ही देर में मेरा लंड भी घुस जाएगा! अब बोल दो प्लीज। मेंरे कान तरस रहे हैं!” संध्या की चड्ढी मैंने थोड़ा नीचे सरका दी और उसकी योनि को अपनी तर्जनी से प्यार से स्पर्श कर रहा था।
“बोलो न!”
“हाँ, मैं रोज़ डालने दूंगी।“
“कभी मना नहीं करोगी?”
“कभी नहीं... जब आपका मन हो, तब डाल लीजिये!”
“क्या डाल लीजिये?”
“जो आप थोड़ी देर में डालने वाले हैं!”
“क्या डालने वाले हैं?”
इस बार थोड़ी कम हिचक से, “ल्ल्ल्लंड...”
“गुड! और कहाँ डालने वाले हैं?” कहते हुए मैंने संध्या के भगोष्ट को सहलाते हुए उसकी योनि में अपनी तर्जनी प्रविष्ट करा दी।
“अआह्हह! मेरी चूत में!”
“वेरी वेरी गुड! अब पूरा बोलो!”
संध्या फिर से सकुचा गई, “मैं रोज़ आपका लंड.... अपनी चूत में... डालने दूँगी! और.... कभी मना नहीं करूँगी।”
यह सुन कर मैंने संध्या को अपनी ओर भींच लिया और उसके सपाट पेट पर एक जबरदस्त चुम्बन दिया। हमारी ‘डर्टी टॉक’ से वह बहुत उत्तेजित हो गई थी। एक दो और चुम्बन जड़ने के बाद मैंने संध्या को बिस्तर पर पेट के ही बल पटक दिया और उसकी चड्ढी उतार फेंकी।