अपडेट -3
अगले दिन
"रोहित उठो ऑफिस नहीं जाना, नाश्ता टिफ़िन तैयार है "
काया एक आदर्श बीवी की तरह सुबह सब तैयारी कर दी थी.
थोड़ी ही देर मे रोहित तैयार डाइनिंग टेबल पर बैठा नाश्ता कर रहा था.
समय 9.00am
टिंग टोंग....
"शायद मकसूद होगा, उसने आने को कहा था " रोहित नाश्ता करते हुए बोला
काया दरवाजे की ओर बढ़ चली, वो अभी भी रात वाले गाउन मे ही थी, यहाँ कौन से सांस ससुर थे की सूट साड़ी पहननी है.
पल भर मे ही दरवाजा खुल गया
"नमस्ते ममम... म.. मैड... मैडम जी " दरवाजा खुलते से ही मकसूद का मुँह भी खुला ही रह गया
काया के लिए ये सामान्य बात होंगी लेकिन गांव देहात के मकसूद के लिए ये सामन्य नहीं थस, उसे लगा शायद जन्नत का दरवाजा खोल कोई हर उसे अंदर बुला रही है.
"नमस्ते... नमस्ते मकसूद जी आईये" लेकिन मकसूद के कान पे जु भी ना रेंगी वो मुँह बाये कभी काया को देखता तो कभी अगल बगल झाकता
सामने गया हलके सफ़ेद गाउन मे खड़ी किसी अप्सरा से काम नहीं लग रही थी, एक एक अंग साफ नुमाया हो रहा था,
मकसूद की मनोदशा को भाम्प काया भी झेम्प गई, और दरवाजे से साइड हो गई.
"मै यही इंतज़ार कर लेता हूँ " मकसूद से और कुछ कहते नहीं बना,
"आ गए मकसूद, चलो चले"इतनी देर मे ही रोहित आपने बेग के साथ दरवाजे पर आ गया था.
रोहित मकसूद बाहर को निकलिए गए.
धाड़ से दरवाजा बंद कर काया उस से सट गई...
उफ्फ्फ्फ़.... मै भी क्या करती हूँ, मुझे ध्यान रखना चाहिए ये गांव देहात है.
काया आपने कामों मे व्यस्त हो गई,
बाहर कार मे
"हेलो हाँ मल्होत्रा सर, जी आज से ज्वाइन कर रहा हूँ, यस सर पहुंचने वाला हूँ " रोहित कार मे बैठा मल्होत्रा साहब से बात कर रहा था.
मल्होत्रा बैंक के हेड है, दिल्ली ब्रांच मे ही बैठते है,
इन्होने ही ख़ास रोहित के टैलेंट को पहचाना था.
दूसरी तरफ फ़ोन पर " देखो रोहित मन लगा के काम करना, सुमित मिलेगा वहा वो सब समझा देगा "
"ओके सर " पिक
फ़ोन कट हो गया
रोहित अपनी तरक्की से बेहद ख़ुश था.
लगभग 20 मिनट मे कार बैंक के सामने खड़ी थी.
बैंक गांव के बाहर ही स्थित था,
उसके बाजु मे सरकारी स्कूल, फिर पंचायत ऑफिस फिर बड़ा सा गांव मोहब्बतपुर.
"नाम तो बड़ा अच्छा है मकसूद गांव का "
"जी साब लोग भी अच्छे ही है " मकसूद मे कार का गेट खोल रोहित का बेग थाम लिया.
आइये आइये सर.... एक पतला सा सामान्य कद काठी का आदमी तुरंत भागता हुआ आया और फूलो की मला रोहित के गले मे डाल दी.
सर मै सुमित अभी तक मै ही ब्रांच को देख रहा था, अब आप आ गए है मै धन्य हुआ hehehehe.... सुमित थोड़ा मजाकिया लगा.
रोहित ने भी हाथ मिलाया.
सभी ब्रांच मे दाखिल हो चले.
बैंक मे कुल 4 लोगो का ही स्टाफ था, पाँचवा खुद रोहित.
चौकीदार रमेश तोमर जो की सेना मे सिपाही था, रिटायर होने के बाद बैंक मे चौकीदार है, कद काठी मे लबा चौड़ा, घनी मुछे रोबदार चेहरा,हेड केशियार कम अस्सिटेंट मैनेजर सुमित, चपरासी पांडे, और एक महिला क्लर्क आरती जो की विधवा थी और अपने पति के स्थान पर ही नौकरी पाई हुई थी.
आरती 40साल की महिला, पति बच्चा पैदा करने से पहले चल बसा, दिखने मे कोई खास नहीं, सवाली हष्ट पुष्ठ महिला, शरीर बिलकुल भरा हुआ, आम तौर पर साड़ी मे ही रहना पसंद करती थी.
सभी ने रोहित का स्वागत किया और रोहित ने अभिवादन स्वीकार भी किया.
कुछ हूँ देर मे सभी मैनेजर रूम मे बैठे चाय की चुस्की ले रहे थे.
"सर ये लीजिये पेपर सिग्नेचर कर दीजिये और मुझे मुक्त कीजिये इस भार से " सुमित ने एक फ़ाइल आगे बड़ा दी जिसमे रोहित की जोइनिंग, बैंक और उसकी सम्पति का ब्यौरा लिखा था
"बड़ी जल्दी है भाई सुमित तुम्हे, रोहित ने हलके लहजे मे कहा और सिग्नेचर कर दिए.
तुरंत ही सुमित ने फाइल्स का एक पुलिंदा आगे बड़ा दिया
"ये क्या है?"
"यही तो समस्या है "
"क्या मतलब?" रोहित हैरान था
"मल्होत्रा साहब ने बताया होगा ना आपको "
"नहीं, उन्होंने कहा था सुमित बता देगा "
"अच्छा...." सुमित सर खुजाने लगा.
"बोलो... क्या बात है" रोहित फ़ाइल खोल के देखने लगा.
"लोन डिफाल्टीर्स " फ़ाइल के पहले पन्ने भी ही कोई 10, 15 नाम लिखें थे.
"सर यही समस्या है, हमारी ये ब्रांच लोन डिफाल्टर्स से परेशान है, कोई 60,70 लाख का लोन पिछले 3 सालो मे बाट दिया गया है, लेकिन एक नया पैसा वापस नहीं आया है.
रोहित फ़ाइल के पन्ने पलटे जा रहा था, सुमित हर पन्ने को समझाये जा रहा था.
सुमित के चेहरे पे सुकून बढ़ता जा रहा था वही रोहित के माथे पर परशानियों की लकीरें बनती जा रही थी.
कुल मिला सुमित ने अपने कंधे का सारा बोझ रोहित के सर पर लाद दिया था.
"उउउफ्फ्फ्फ़...... पहले ही दिन रोहित के दिमाग़ के फ्यूज उड़ गए थे.
ट्रिंग... ट्रिंग....तभी फ़ोन की घंटी बज उठी
"हेलो.... हेलो.... हर मल्होत्रा सर "
"उम्मीद है तुमने ब्रांच का कार्यभार सुमित से ले लिए होगा " फ़ोन पर मल्होत्रा
"जज... ज.. जी सर ले लिया लल... लेकिन?"
"क्या हुआ रोहित सब ठीक तो है ना?"
"सर यहाँ तो सब कुछ क्रेडिट पर चल रहा है, बैंक तो डूबने की हालत मे है " रोहित ने जैसे शिकायत की हो.
"तुमसे इस तरह की उम्मीद नहीं थी रोहित, तुम्हे प्रमोशन क्यों दिया गया? तुम्हारी सैलरी क्यों बड़ाई गई? काम मे तो चुनौती आती ही है समझो यही वो चुनौती है, वहा जयपुर मे तुम्हारा 100% लोन रिकवरी का रिकॉर्ड था इसलिए ही तो तुम्हे प्रमोट किया गया है. क्या बैठने की तनख्वाव्हा लोगे?
80% ही कवर कर दो वही बहुत है बैंक के लिए, और ना हो सके तो बता देना मुझे, ठाक से मल्होत्रा ने लम्बा चौड़ा भाषण दे कर फ़ोन काट दिया.
रोहित सोच मे था, गहरी सोच मे जयपुर उसका इलाका था वहा वो सबको जनता था, सभ्य समाज था, यहाँ तो कुछ नहीं पता? कैसे करे? क्या करे?
"सर क्या हुआ? सर... सर..." सुमित की आवाज़ से रोहित थोड़ा सा हड़बड़या
"हा.. हाँ.... कुछ नहीं "
एक बात बताओ सुमित इतने दिन तक तुम क्या कर रहे थे? तुमने क्या किया? " रोहित थोड़ा कड़क हो चला
अक्सर ऐसा ही होता है बॉस अपने से नीचे के इंसान पे ऐसे ही रोब झाड़ता है जैसे अभी मल्होत्रा ने रोहित को हड़काया था.
"सर... वो... वो... मुझे भी तो 5 महीने ही हुए है यहाँ आये, जो पहले के मैनेजर और केशियर थे ये उनकी करास्तानी है, साले खुद लोन बाट कर रिटायर हो गए बोझ हम पर डाल गए " सुमित ने बेचारा सा मुँह बना लिया.
रोहित भी समझ चूका था यहाँ किसी की गलती नहीं है.
"सुमित तुम यहाँ बैठो बाकि लोग अपना काम करे "
सुमित रोहित घंटो फाइल्स मे उलझे रहे.
दिन के 12 बज चुके थे.
वहा घर पर काया घर के सभी काम निपटा कपडे बालकनी मे सूखने को डाल रही थी, अकस्मात ही उसकी नजर उसी कमरे पर जा पड़ी जहाँ कल रात वो लड़का निकला था, काया के दिमाग़ मे कोतुहाल सा मचने लगा, अँधेरी रात मे पेशाब की वो धार दिमाग़ मे जगमगाने लगी, काया ने उस धार का पीछा किया तो उसके स्त्रोत तक जा पहुंची... काला सा कुछ लम्बा सा था जहाँ से वो सफ़ेद चमकती धार निकल रही थी...
उफ्फ्फ.... क्या सोचने लगी मै, काया ने अपने दिमाग़ को झटक दिया,
"सब्जी... सब्जी.... ऐ सब्जी..." तभी काया के कान मे एक आवाज़ पड़ी सर उठा के देखा तो पाया बिल्डिंग के गेट के बाहर सब्जी के ठेला लिया आदमी खड़ा था.
"आज रात के लिए तो कुछ सब्जी लेनी पड़ेगी, अभी तो कोई बजार वगैरह भी पता नहीं कहा है?"
काया झट से बाहर की ओर दौड़ पड़ी कही वो चला ना जाये, नयी जगह है अब कहा मिलेगी कोई सब्जी,
काया ने नाहा धो कर एक टाइट लेगी और सूट पहना हुआ था, सोफे पे पड़ा दुपट्टा उठाया और बाहर को चल दी, बाल अभी भी भीगे हुए थे, बालो से पानी किसी मोटी की तरह रिस कर सूट को भिगो दे रहा था.
तुरंत ही काया गैलरी मे थी, लिफ्ट तक गई "ओफ़्फ़्फ़... हो... ये लिफ्ट तो बंद है, क्या yaar क्या जगह है" काया ने तेज़ कदमो से बाजु की सीढ़ी उतरना शुरू कर दिया.
लगभग 3मिनिट मे वो बिल्डिंग के गेट पे खड़ी थी
"अरे कहा गया, अभी तो यही था सब्जी वाला " काया जब तक पहुंची सब्जिवाला जा चूका था.
आस पास कही कोई नहीं था, सिर्फ कुछ मजदूर जो की यहाँ वहा काम मर रहे थे.
"क्या हुआ मैडम जी "
पीछे से आई आवाज़ से काया चौंक सी गई.
पीछे मूड देखा तो पीछे से एक औसत कद काठी का लड़का उसी तरफ बढ़ा चला आ रहा था.
"कककक.... कुछ नहीं "
"आप तो वही मैडम है ना जो कल ही यहाँ आई है " वो लड़का पास आ चूका था.
"आआ... आ. हाँ... कल ही आये है हम लोग "
"मै बाबू हूँ मैडम जी मतलब मेरा नाम बाबू है, यही इसी कमरे मे रहता हूँ, " बाबू ने उस कमरे की ओर इशारा कर दिया
बाबू दिखने मे छोटा सा, दुबला पतला, मासूम, गेहूए रंगत का लड़का था,
काया उसके इशारे को देख थोड़ा सकते मे आ गई " यानि यही वो लड़का है रात वाला " चिंता की एक लकीर सी काया के माथे पर रेंग गई.
"क्या हुआ मैडम कुछ परेशान सी लग रही है आप? कोई काम है तो बताइये "
बाबू सहज़ लहजे मे ही बोला लेकिन चोर तो काया के मन मे था ना इसलिए वो हकला रही थी भले चोर सफाई से चोरी कर ले लेकिन डर हमेशा होता है किसी ने देखा तो नहीं ना, बस यही चोर काया के मन मे था कही बाबू ने उसे नीचे झाकते देखा तो नहीं ना?
"ससस.... सब्जी वो.. सब्जी लेने आई थी मै " काया ने जल्दी से जबाब दे दिया.
"लो इसमें इतना क्या मैडम जी बताइये क्या लाना है अभी ले आता हूँ, सब्जी वाला यही बाजु ही रहता है "
बाबू के सहज़ व्यवहार से काया का दिल दिमाग़ कुछ शांत हुआ. उसे यकीन हो चला कल रात बाबू ने उसे नहीं देखा था.
"आलू भिंडी, बेंगन, टमाटर.... बला.. बला... ले आना " काया ने फट से बैग से पैसे निकाल बाबू को थमा दिए.
"अभी आया मैडम जी यही रुकना "
बाबू हवा की तरह फुर्र हो गया.
"कितना अच्छा लड़का है " काया मंद मंद मुस्कुरा दी.
लें दोपहर की चिलचिलाती धुप काया को परेशान कर रही थी, इधर उधर देखने पर उसे कमरे की शेड की छाव दिखी, काया ने वही इंतज़ार करना भला समझा.
टाइट लेगी कुर्ती पसीने से सराबोर हो चली थी, काया को पसीना ही इतना आता था, "उफ्फ्फ.... ये गर्मी " काया ने दुपट्टा हटा चेहरा और गार्डन पोछ दुपट्टा कंधे पर एक तरफ लटका लिया,
गर्मी से राहत मिली या नहीं ये तो लता नहीं लेकिन काया की खूबसूरत मादक स्तन की दरार जरूर चमक उठी.
लगभग पांच मिनट हुए ही होंगे की "ये लीजिये मैडम आपकी सब्जी " बाबू सामने एक दम से प्रकट हो गया.
बाबू सामने खड़ी काया को देखता ही रह गया, पसीने से भीग कर कपडे जिस्म से लगभग चिपक ही गए थे, ऊपर से काया चुस्त कपडे ही पहनना पसंद करती थी.
बाबू का सब्जी वाला हाथ आगे बढ़ गया लेकिन नजरें किसी खास जगह पर टिकी हुई थी,
काया ने देखा बभु के हाथ मे कोई 5 थेलिया था जिसमे अलग अलग सब्जियाँ थी, काया ने आगे हाथ बढ़ा के सब्जी लेनी चाही लेकिन बाबू सब्जी छोड़े तो सही.
काया ने बाबू की नजर का पीछा किया तो सकपका के रह गई, बाबू की नजर काया के सीने पे बानी कामुक दरार पर थी,
उसके पसीने ज़े भीगे स्तन सूट से बाहर झाँक रहे थे, दुप्पटा साइड मे कही अलग दुनिया मे था.
"बाबू... बाबू... लाओ सब्जी दो " काया ने तुरंत दुप्पटा ठीक कर लिया.
"हहह... आए..... हाँ... ये लो सब्जी मैडम जी " बाबू का मुँह ऐसे बना जैसे किसी बच्चे से उसकी लॉलीपॉप छीन ली हो.
ना जाने क्यों काया के चेहरे पे उसकी मासूमियत देख हसीं आ गई.
"चलिए मैडम मै सब्जी पंहुचा देता हूँ, इतना सारा आप कैसे ले जाएगी? " काया ने सहर्ष ऑफर स्वीकार कर लिया
ना जाने क्यों उसे बाबू अच्छा लगा था, मासूम, छोटा सा लड़का.
वैसे भी काया को अकेलापन सा लग रहा था, बाबू से मिल के उसे अच्छा लगा.
"दिखने मे तो छोटे से हो तुम, यहाँ नौकरी करने आ गए " काया ने चलते हुए पूछा
"का करे मैडम जी चाचा हमारे यही काम करते थे तो आ गए हम भी मज़बूरी देख के "
" अच्छा क्या उम्र है तुम्हारी अभी "
"18 का हो गए है मैडम जी, बस हाईट थोड़ा छोटा रह गया " बाबू ऐसे बोला जैसे खुद को बड़ा साबित करना चाह रहा हो.
"हाहाहाहा.... क्या बाबू तुम भी "काया उसकी मासूमियत पे हस पड़
तब तक लिफ्ट आ गई थी.
"आइये मैडम लिफ्ट से चलते है " बाबू लिफ्ट की तरफ बढ़ा
"लिफ्ट नहीं चल रही है, मै सीढ़ियों से ही नीचे आई थी " काया ने भी जानबूझ के मुँह बनाते हुए कहा.
असलम मे इंसान सामने वाले के हिसाब से ही बाट करता है, काया ने भी बाबू की मासूमियत के हिसाब से बात की.
"आई हो दादा.... मतलब आप सीढ़ी चढ़ के आई, आप जैसी शहरी मैडम सीढ़ी से आई " बाबू हैरान था
"इतना भी मत बोलो बाबू... ये शहरी क्या होता है इंसान ही हूँ मै, दूसरी दुनिया से नहीं हूँ, आओ सीढ़ी से चलते है "
"का मैडम... आप दूसरी दुनिया से ही तो हो, हमने तो आप जैसे सुंदर गोर मैडम आजतक नहीं देखी " बाबू मासूमियत मे बोल गया
काया सामने सीढ़ी चढ़ने लगी, पीछे बाबू हाथ मे सब्जी थामे
काया का सीढ़ी चढ़ना था की बाबू की सांसे भी चढ़ने लगी, सामने जन्नता का दरवाजा आपस मे रगड़ खा रहा था.
काया की बड़ी सुन्दर गांड आपस मे लड़ झगड़ के सीढिया चढ़ रही थी, जैसे काया एक पैर उठती उसकी गांड का एक हिस्सा निकल के बाहर आ जाता, फिर दूसरा
उउउफ्फ्फ.... बाबू ने ये नजारा सपने मे भी नहीं सोचा होगा.
काया इन सब से बेफिक्र चढ़ी जा रही थी.
"और क्या नहीं देखा?" काया फ्लो मे बोल गई
बाबू का कोई जवाब नहीं.
"बताओ ना और क्या नहीं देखा आजतक?" काया स्त्री सुलभ व्यवहार के नाते अपनी और तारीफ सुनना चाहती थी शायद, तारीफ कोई भी करे कैसी भी करे स्त्री को पसंद आता ही है.
पीछे से जवाब ना पर कर काया ने पीछे मूड देखा बाबू मुँह बाये चला आ रहा था, लगता था सुनने समझने की क्षमता खो बैठा है.
उसकी नजर गया की मदमस्त कर देने वाली गांड पर टिकी हुई थी.
"बाबू... बाबू...." काया ने जोर से कहा
"कक्क.... कक्क..क्या मैडम जी " बाबू चौंक गया, काया के चेहरे पे गुस्सा था
बाबू काया के बराबर आ चूका था,
"कहा ध्यान है तुम्हारा?" काया ने जानबूझ के ये सवाल किया जैसे कुछ जानना चाहती हो, ना जाने क्यों बाबू को परेशानी मे देख उसे अच्छा लग रहा था.
"कक्क... कही तो नहीं " बाबू ने सीधा सा जवाब दिया.
"अच्छा तो मेरी बात का जवाब क्यों नहीं दिया "
"क्या... कक्क... क्या पूछा आपने "
"जाने दो... चलो अब... गर्मी बहुत है " काया अगर बढ़ गई
बाबू वैसे ही उसकी गांड निहारता पीछे पीछे चल पड़ा.
काया जानती थी वो क्या देख रहा है, जानते हुए बहुत उसकी चाल ने एक मादकता आ गई थी.
किसी के मजे ले लेने मे क्या दिक्कत है, वैसे भी काया जानती थी हर मर्द उसकी गांड ही देखता है लेकिन उसे पता नहीं था बाबू जैसे छोटे उम्र के लड़को का भी यही हाल होगा.
खेर... कुछ ही देर मे काया का घर आ गया था.
दरवाजा खुला....
"Wow मैडम जी आपका घर कितना अच्छा है, और एक हम है टुटा फूटा सा झोपडी जैसा कमरा मिला है " बाबू सरल स्वाभाव का था कहा क्या बोलना है पता नहीं बस दिल की बात बोल गया.
शायद काया को यही सरल सुलभ व्यवहार पसंद आया था बाबू का.
"ऐसा नहीं बोलते बाबू, मेहनत से सब मिलता है तुम भी करना"
"सब्जी कहा रख दू मैडम जी "
"वहा किचन मे "
तब तक काया दो glass पानी ले आई, "लो बाबू पी लो "
बाबू एकटक काया को देखे जा रहा था
"क्या देख रहे हो पियो, प्यास नहीं लगी है " काया मुस्कुरा दी
"आप कितनी अच्छी है मैडम जी, वरना हम जैसे को कौन पूछता है, नीचे आरती मैडम रहती है वो तो हमेशा डांट देती है, गुटूक गुटूक गुटूक... बाबू एक सांस मे पानी पी गया.
कौन आरती?
"नीचे वाले फ्लोर पर रहती है, काली मोटी "
"ऐसा नहीं बोलते किसी के लिए बाबू "
काया को जानकारी हुई की ओर भी लोग रहते हे यहाँ
"अच्छा मैडम चलता हुआ मै, ये आपके बाकि पैसे " बाबू ने सब्जी मे से बचे पैसे काया की तरफ बढ़ा दिए.
"रख लो बाबू काम आएंगे " काया मे एक सादगी थी, एक अपनापन था जिस से मिलती वो उसका दीवाना हो जाता उसका व्यवहार ही ऐसा था
बाबू भी प्रभावित था.
"थन्कु मैडम जी "
बाबू चल दिया ...
काया मन ही मन मुस्कुरा उठी, बाबू उसे भला लड़का लगा.
वही दूसरी ओर बैंक मे रोहित और सुमित घंटो फाइल्स मे सर खापा के उठे, 4,5 कप चाय के खाली हो चुके थे.
"सुमित ये तो बहुत बहुत बढ़ा अमाउंट है पुरे 50 लाख रिकवर करने होंगे हमें "
"जी सर "
"और ये कय्यूम खान कौन है बैंक ने अकेले इसे 30लाख दिए है, ये मोटा बकरा है इसे ही पकड़ के पैसे निकाल ले तो काम हो जायेगा "
"सर यही तो मैन समस्या है, कय्यूम खान इस गांव का रसूखदार व्यपारी है, व्यापार के नाम पर 15, 10,5 लाख कर ले लोन उठाया था, अब बोलता है धंधा डूब गया, पैसे देने को राज़ी नहीं है "
सुमित ने तुरंत दुखड़ा रो दिया
"ऐसे कैसे चलेगा सुमित, एक बार बात करनी पड़ेगी ना "
टंग... टंग.... टंग.... मकसूद...
रोहित ने ऑफिस की बेल बजा मकसूद को बुलावा भेजा
"जी... साब..." मकसूद फ़ौरन हाजिर
"तुम तो यहाँ के लोकल आदमी हो, ये कय्यूम को जानते हो?"
"साब कय्यूम नहीं कय्यूम दादा बोलिये "
"ओह शटअप मकसूद, ये दादा क्या होता है?" रोहित ने अफसरगिरी दिखाते हुए तुरंत मकसूद को झाड़ दिया.
"साब इस गांव के दूसरी तरफ कय्यूम खान का ठीकाना है, "
"क्या धंधा करता है वो"
"साब... वो... वो..."
"बोलो भी... दिन भर का समय नहीं है मेरे पास "
"साब वो बुचड़खाना चलता है, मांस का धंधा करता है, बकरा मुर्गा काटने और बेचने का धंधा है उसका "
"हम्म्म्म..... रोहित सोच मे पड़ गया, अब ओखल मे सर दे दिया है तो मुसल से क्या डरना, वैसे भी उसने ऐसे टेड़े आदमियों को हैंडल किया ही था.
"चलो सुमित बात कर के आते है, मकसूद गाड़ी निकालो "
"मममम.... मै... मै... कैसे... मै कैसे जा सकता हूँ " सुमित कुर्सी पर पीछे की ओर जा बैठा जैसे की रोहित ना हो कोई भूत हो.
"क्यों तुम बैंक के कर्मचारी नहीं हो? तुम सैलरी नहीं लेते? तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है?"
"हहह.... है... है... सर लेकिन वो कय्यूम खान का बुचड़ खान बदबू और खून से भरा रहता है, मै शुद्ध शाकाहारी आदमी हूँ सर, एक बार गया था उल्टिया करता वापस आया हूँ"
सुमित ने साफ तौर पर असमर्थता जाता दी.
अब मरता क्या ना करता " चलो मकसूद " रोहित अकेला ही चल पड़ा.
20मिनट मे ही कार कय्यूम के बुचड़खाने के सामने खड़ी थी.
रोहित आस पास के लोगो के कोतुहाल का विषय बना हुआ था, सफ़ेद साफ सुथरे कपडे, टाई पहना शहरी बाबू....
"कय्यूम दादा अंदर है क्या?" मकसूद ने गेट पर खड़े आदमी से पूछा.
"बोलो क्या काम है " गेट लार खड़ा काला भद्दा सा आदमी ने कड़की से सवाल दागा
"बोलो बैंक से नये बड़े साब आये है "
तुरंत ही आदेश का पालन हुआ, गेट खोल दिया गया.
गेट से चल कर कोई 100 मीटर की दुरी पर एक घर नुमा आकृति बनी हुई थी,
पुरे रास्ते बकरे, मुर्गीयो के दबडे, कीचड़ भरा पड़ा था.
मकसूद और रोहित को पैदल ही वहा तक जाना पड़ा. इमारट की दहलीज पर दोनों के पैर थिठक गए.
" आप मकसूद आओ.... कौन बड़े साब आये है इस बार? "
एक भारी कड़क रोबदार आवाज़ ने रोहित के पैर वही थाम लिए.
सामने एक 6फीट का काला बिलकुल काला, भद्दा सा मोटा आदमी खड़ा मुस्कुरा रहा था.
गंदी सी लुंगी पहने, मैली बनियान शायद सफ़ेद बनियान रही होंगी कभी आज खून और मेल से लाल काली हुई पड़ी थी.
काले पसीने से तर गले मे भारी सी सोने की चैन लटक रही थी, उसके नीचे गंदे से, पसीने से भरे बालो का गुच्छा बनियान से बाहर झाँक रहा था.
पसीने की इतनी बदबू गंध ना जाने कब से नहीं नहाया था कय्यूम.
"तुम ही ही कय्यूम खान " रोहित ने हिम्मत दीखते हुए सवाल तलब किया.
"हाँ साब मै ही हूँ कय्यूम दादा" रोबदार भारी आवाज़ गूंज उठी.
पति पत्नी दोनी के पहले दिन मे अंतर था, दोनों ही किसी अनजान शख्स से मिले थे.
अनजान इंसान से मिल के काया के चेहरे पे मुस्कान थी तो वही रोहित के माथे पर पसीना और दिल मे खौफ ने जगह बन ली थी.
क्या रोहित लोन रिकवर कर पायेगा?
रोहित और काया का जीवन जल्द ही बदलने वाला है शायद.
बने रहिये कथा जारी है....