#11
इन्सान का मन बड़ा विचित्र होता है , उसकी इच्छाए, उसकी लालसा , उसकी अनगिनत महत्वकांक्षी योजना, मन कब बावरा हो जाये, कब वो छल कर जाये कौन जानता है. कुछ ऐसा ही हाल मेरा उस समय था जब आगे चलती ताई की मटकती गांड को देख कर मैं महसूस कर रहा था . जबसे उसे ठेकेदार से चुदते देखता था मेरे मन में कहीं न कहीं ये था की मैं भी ताई की ले लू.
करीब आधा कोस चलने के बाद मेरे लिए एक अजूबा और इंतज़ार कर रहा था , ये एक बड़ी सी बावड़ी थी जिसकी पक्की सीढिया अन्दर को उतरती थी. चारो कोनो पर चार मीनार जैसी मध्यम आकार की छत्रिया , लाल पत्थर जिस पर समय ने अपनी कहानी लिख दी थी . सीढिया चढ़ कर ऊपर आकर मैंने देखा तो कुछ सीढिया छोड़कर बावड़ी लगभग भरी ही थी .
काफी समय से उपेक्षित होने के कारण अन्दर पानी में काई, शैवाल लगा था ,
“किसी ज़माने में बड़ा मीठा पानी होता था इसका. आसपास के लोग, चरवाहे, राहगीर न जाने कितने लोगो की प्यास बुझाती थी ये बावड़ी. ” ताई ने कहा.
“तुम्हारे पिता को बड़ी प्रिय थी ये जमीन, उसका ज्यादातर वक्त इधर ही गुजरता था . उसके हाथ में न जाने कैसा जादू था, जिस खेत में उसने मेहनत की वो ऐसे झूम के लहलहाता था की खड़ी फसल देखते ही बनती है , और देखो किस्मत की बात जब से वो गया , ये धरती भी रूठ गयी ” ताई ने कुछ उदासी से कहा.
“पर चाचा इस जमीन को क्यों बेचना चाहता है ” मैंने कहा
ताई- शायद इसका अब कोई मोल नहीं रहा इसलिए.
मैं- अगर मेरे पिता को इस से लगाव था तो ये अनमोल हुई मेरे लिए. इसे बिकने नहीं दूंगा. मैं बात करूँगा चाचा से .
ताई थोडा मेरी तरफ सरकी, मेरे हाथ को अपने हाथ में लिया और बोली- तेरा चाचा बुरा आदमी नहीं है, बहुत चाहता है तुझे पर तेरी चाची से थोडा दबता है , इसलिए खुल कर तुझसे प्यार नहीं जता पाता.
मैं- जानता हूँ , आज घर पर कोई आदमी आया था ,उसके आने के बाद चाचा बहुत परेशान था .
ताई- अब तू बड़ा हो रहा है, उसका साथ दे, तेरे दादा, तेरे पिता के जाने के बाद जैसे तैसे उसने परिवार को संभाला है , पर वो तेरे दादा, तेरे पिता जैसा वीर नहीं है ,
मैं- कैसे थे मेरे पिता.
ताई- वो अलग था दुनिया से, उडती पतंग जैसा. गाँव के हर घर का बेटा, ऐसा कोई नहीं था गाँव में जो उसे पसंद नहीं करता हो.
बातो बातो में कब रात घिरने लगी होश कहाँ था तो हम वहां से चलने लगे, पर मैंने सोच लिया था की अब तो इधर आता जाता ही रहूँगा. बाते करते हुए हम लोग नहर की पुलिया पार करके गाँव की तरफ जाने वाले मोड़ की तरफ मुड़ने को ही थे की मैंने सामने से उसे आते देखा, चार पांच बकरियों संग सर पर लकडियो का गट्ठर उठाये हुए रीना लम्बे लम्बे कदम उठाये चली आ रही थी . मैंने साइकिल रोकी.
ताई- क्या हुआ
मैं- ताई तू चल घर मैं रीना के साथ आता हूँ
तब तक रीना पास आ चुकी थी .
मैं-साइकिल पर रख दे लकडियो को वैसे ये क्या समय है लकडिया लाने का वो भी अकेले
रीना- अकेली कहाँ हूँ मैं, तू साया है तो सही मेरा.
मैं- इन बातो से मत बहला , थोडा देख भाल लिया कर घर से किसी को साथ ला सकती थी न .
रीना- अरे, मेरी सहेली आई थी साथ , फिर न जाने उसे क्या जल्दी हुई भाग खड़ी हुई वो .
मैं- चल कोई न.
रीना- वैसे मैंने देखा , मेरी बड़ी फ़िक्र करता है तू.
मैं- एक तू ही तो है मेरी.
वो मुस्कुरा पड़ी.
“वो इसी बात से तो डर लगता है मुझे, ” उसने कहा
मैं- किस बात से
वो- अब क्या बताऊ किस बात से .......
उसने एक ठंडी आह भरी.
मैं- तू साथ है , तूने मुझे तब थामा जब सबने ठुकराया . मेरी दुनिया में बस तू है
रीना- आ दो पल बैठते है .
मैंने साइकिल खड़ी की और हम सड़क किनारे कच्ची मिटटी पर ही बैठ गए.
मैं- चुप क्यों हो गयी .
रीना- समझ नहीं आ रहा क्या कहू, कहना भी है चुप रहना भी है .
आज से पहले उस चुलबुली को कभी इतना संजीदा नहीं देखा था .
मैं- क्या हुआ , क्यों परेशान हुई भला.
रीना- परेशां नहीं हूँ, बस सोच रही हूँ आने वाले कल के बारे में.
मैं- कल की क्या फ़िक्र करनी
रीना- फ़िक्र है , तू तो जानता है की बचपन से मामा के घर ही पली बढ़ी हूँ, पर एक न एक दिन तो यहाँ से जाना ही होगा
मैं- हां, तो कुछ दिन अपने गाँव रह कर फिर वापिस आ जाना उसमे क्या बात है .
रीना- कल मेरी माँ का संदेसा आया था, बारहवी होते ही मेरा रिश्ता कर देंगे.
मैं- पर तू तो बहुत पढना चाहती है ,पढ़ लिख कर नौकरी करना चाहती है .
रीना- बदनसीबो के सपने भला कहाँ पुरे हुआ करते है .
मैं-सो तो है.
रीना- माँ को ना भी तो नहीं कह सकती, अभी तक तो मामा ने पढ़ा दिया, खाना कपडे सब देते है पर उनके बच्चे भी बड़े हो रहे है , वो अपनी औलादों का भी सोचेंगे .
मैं- अभी एक साल बचा है न , तू तेरी माँ से फिर बात करके देखना, कोई न कोई हल निकल आएगा.
रीना- क्या हल निकलेगा. तू तो जानता है मेरा पिता शराबी है , माँ कहती है मुझे ब्याह के वो अपनी जिमेदारी निभा देगी आगे मेरे भाग.
मैं जानता था की आगे अगर कुछ और बोली तो वो रो पड़ेगी. मैंने बस उसे अपने सीने से लगा लिया.
“जब तक मैं हूँ,तुझे गमो की जरा भी हवा नहीं लगने दूंगा, मेरा वचन है तुझे. ” मैंने उसे कहा.
बाकी पुरे रस्ते हम दोनों चुपचाप आये. कहने को और कुछ था भी नहीं . आज तक मैं खुद की हालत देख कर रोता था पर आज मालूम हुआ की इस दुनिया में मैं अकेला ही मजबूर नहीं था .
अगली दोपहर मैं फिर से मेरी बंजर जमीन पर खड़ा था , तपती दुपहरी में जमीन जैसे जल रही थी . मैं और अच्छे से इस जमीन को देखना चाहता था . कभी इधर भटका, कभी उधर. घूमते घूमते मैं थोडा ज्यादा आगे ही निकल आया. इतना आगे की रुद्रपुर ही आ गया . आज से पहले मैं रुद्रपुर कभी नहीं आया था .
गाँव की शुरुआत में ही एक के बाद एक कतार में पुरे ग्यारह पीपल लगे हुए थे. पास में ही एक जोहड़ था, कुछ चरवाहे बकरियों-भेड़ो को पानी पिला रहे थे, कुछ बुजुर्ग पीपलो की छाया में ताश खेल रहे थे. थोडा आगे चलने पर दो रस्ते जाते थे एक आबादी की तरफ और दूसरा उस तरफ जहाँ मैं खड़ा था . वो एक बहुत बड़ी, पुराणी इमारत थी , बड़ी बड़ी छतरिया दूर से ही दिखती थी . मैं उसी तरफ चल दिया.
पहली नजर में समझ नहीं आया की ये क्या इमारत थी, स्लेटी पत्थरों की बनी ये इमारत जिसके चार कोनो ने दो बरगद, दो पीपल. पत्थरों को काट कर ही खिडकिया, चोखटे बनाई हुई. पास एक पानी की टंकी थी, एक खेली थी जो न जाने कब से सूखी थी. आस पास सन्नाटा तो नहीं था पर ख़ामोशी कह सकते है, कुछ कबूतर गुटर गुटर कर रहे थे . मैं अन्दर जाने को पैर उठाया ही था की मेरी नजर पास ही पड़ी , खडाऊ पर पड़ी तो मुझे भान हुआ ये कोई पवित्र जगह होगी.
मैंने चप्पल उतारी और सीढ़ी चढ़ा, पहली , दूसरी तीसरी सीढ़ी पर जैसे ही मैंने पैर रखा, ऐसा लगा की पैर जैसे जल ही गया हो मेरा. स्लेटी पत्थर धुप की वजह से पूरा गर्म हुआ पड़ा था. भाग कर मैं अन्दर गया. अन्दर कुछ भी नहीं था , जगह जगह जाले लगे थे, कई जगह पक्षियों की बीट थी. घोंसलों का कचरा था. उस बड़े से हाल को पार करके मैं आगे गया तो मैंने देखा की एक बड़ी सी बावड़ी थी जिसके तीन किनारों पर पत्थरों की नक्काशी किये हुए छज्जे लगे थे.
ठीक वैसी ही बावड़ी जैसी हमारे खेत में बनी थी . पानी हिलोरे मार रहा था इतना साफ़ नीला पानी मैंने कभी नहीं देखा था ,अंजुल में भर कर मैंने पानी पिया. अब क्या कहूँ ये मेरा वहम था या मेरी प्यास पानी मुझे शरबती लगा. जी भर कर पीने के बाद , मैंने कुछ छींटे चेहरे पर मारे. गजब का सुख मिला.
इधर उधर देखते हुए मैं आगे बढ़ा, अब कच्चा आँगन आ गया था . पास में एक कुवा था ,बहुत पुराना . एक तरफ कुछ सूखे पेड़ खड़े थे. थोडा आगे एक विशाल बरगद था जिसके ऊपर बहुत से धागे बंधे थे जिनका रंग उड़ चूका था. शायद बहुत पहले बाँधा गया होगा इन्हें. घूरते हुए मैं अब उस हिस्से की तरफ गया जहाँ पर कुछ ठंडक सी थी, गहरी छाँव थी . मेरी नाक में अब कुछ खुशबु सी आने लगी थी .
ईमारत के अन्दर ईमारत अपने आप में ही गजब सा था . वो काला दरवाजा कोयले से भी काला था, जिसमे कोई कुण्डी नहीं थी बस दो बड़े बड़े लोहे के गोले लटक रहे थे. मैंने पूरी ताकत से दरवाजे को खोलने की कोशिश की पर वो टस से मस नहीं हुआ.
पुराना दरवाजा जिसकी लकड़ी जगह जगह से उखड़ी हुई थी,तीसरी कोशिश में वो दरवाजा खुला और अन्दर कदम रखते ही मैंने देखा की.............................................