#59
वो लाश जब्बर की थी . दरअसल मुझे इस बात ने नहीं चौंकाया था की लाश जब्बर की थी , मेरा ध्यान इस बात पर था की लाश की हालत ठीक वैसी ही थी जैसी की लाला महिपाल की लाश थी , बिलकुल सफ़ेद, जैसे किसी ने सारा खून चूस लिया हो . पर कातिल ने इसे यहाँ पर क्यों फेंका. क्या कातिल को भी हवेली के बारे में पता था .
मेरे आस पास ये जो भी लोग थे एक एक करके मौत के मुह में जा रहे थे , कौन मार रहा था क्यों मार रहा था किसी को कुछ नहीं मालूम था . मैंने दरवाजा बंद किया और वापिस हवेली के अन्दर आ गया. जब्बर की मौत से कुछ समीकरण बदल जाने थे . पर फिलहाल मुझे इंतजार था सुबह होने का . मैं एक कमरे में गया और सोने की कोशिश करने लगा. बिस्तर आरामदेह था . मालूम नहीं मैं नींद में था या सपने में था . पर ऐसा लगा की कोई तो है मेरे साथ .
मैंने हलके से आँखे खोली कमरे में घुप्प अँधेरा था . जबकि मैं सोया तब रौशनी थी , मुझे लगा की कमरे में दो लोगो की सांसे चल रही थी . कौन हो सकता है इस समय. आँखे जब अँधेरे की आदी हुई तो मैंने देखा , कुर्सी पर एक साया था जो शायद आराम कर रहा था , क्योंकि वो हलचल नहीं कर रहा था . मेरे सिवा इस हवेली में कौन हो सकता था .
“मोना क्या ये तुम हो ” मैंने आवाज दी.
साये की आँखे एक झटके से खुल गयी .और वो तेजी से बाहर की तरफ भागा मैं भी उसके पीछे भागा. पर मेरा पैर चादर में उलझ गया जब तक मैं बाहर आया वहां कोई नहीं था .
“सामने क्यों नहीं आते, क्यों सता रहे हो तुम अपनी पहचान उजागर क्यों नहीं करते तुम.” मैं चीख पड़ा.
कलाई में बंधी घडी पर नजर पड़ी तो देखा तीन पच्चीस हो रहे थे . मैं निचे आया थोडा पानी पिया और हवेली से बाहर जाने के लिए सीढियों से उतरा .न जाने क्यों मेरे दिल को ऐसा लग रहा था की वो मेरे आसपास ही है, यही कही है , दूर होकर भी मेरे पास है . इतनी शिद्दत पहले कभी नहीं हुई थी . पर वो जब पास थी तो ये दुरी क्यों थी. क्यों छिप रही थी मुझसे.
सुबह होते ही मैंने कुछ मशीन और मजदुर बुलवाए और मंदिर की खुदाई शुरू करवा दी. शकुन्तला ने भरपूर विरोध किया पर गाँव की पंचायत ने मेरा साथ दिया. गाँव वालो को भी लगता था की मंदिर का दुबारा से निर्माण होना चाहिए. दिन भर धुल मिटटी में बीत गया. शाम को मैं चाय पि रहा था की मैंने बाबा सुलतान को आते देखा.
बाबा- एक बार जो सोच लिया फिर रुकता नहीं तू.
मैं- बरसो से उपेक्षित मंदिर की शान दुबारा लौट आये तो बुरा क्या है .
बाबा- पर तेरे मनसूबे तो कुछ और है .
मैं- क्या फर्क पड़ता है .
बाबा- बेकार है तुझसे कुछ भी कहना अब , खैर तेरी बात सही है इसी बहाने हम भी शम्भू के दर्शन कर लेंगे.
बाबा मुस्कुराने लगे.
मैं- एक बात और कहनी थी .
बाबा- हाँ
मैं- मैं ब्याह करना चाहता हूँ
बाबा- बेशक, सब करते है तू भी कर ले
मैं- मैं चाहता हूँ आप लड़की के बाप से बात करे. ब्याह की तारीख आप पक्की करे.
बाबा- पर मैं कैसे.
मैं- मेरा कौन है आपके सिवा.
बाबा- मुझे लगता है तू तेरे ताऊ के पास जा
मैं- मैंने कहा न आप ही करेंगे ये काम.
बाबा- ठीक है मुसाफिर , अब तेरी मर्जी के आगे मेरी क्या , तू मुझे पता दे उसका मैं चला जाऊंगा.
मैंने बाबा को एक पर्ची लिख कर दी. बस रूपा का नाम नहीं लिखा मैं बाबा को देखना चाहता था जब वो वहां रूपा को पाएंगे. बाबा ने पर्ची झोले में रख ली . हम खुदाई देखते रहे. शाम को मजदूरो के जाने के बाद बाबा मुझे खंडित ईमारत में ले गए.
“जैसे बस कल ही की बात हो ” बाबा ने गहरी साँस ली .
मैंने पहली बार बाबा की आँखों में पानी देखा. उन आँखों में पानी था , उन होंठो पर मुस्कान थी , रमता जोगी अपने आप में जैसे खो गया था , बाबा को मेरा होना न होना जैसे एक ही था उस समय. कभी इस टूटी दिवार के पास जाते वो कभी उस दिवार से लिपट जाते. इतना तो मैं समझ गया था की बाबा का बड़ा गहरा नाता रहा हो गा इस जगह से.
वो बस अपने अतीत में खो गए थे, क्या कहा मैंने अपने अतीत में, पर बाबा का क्या लेना देना था यहाँ से ,कही बाबा नागिन के पिता तो नहीं जो शायद किसी तरह से बच गए थे . मैंने सोचा. शायद हो भी सकता है क्योंकि नागिन को उनसे बेहतर कोई नहीं जानता था . अब सीधा सीधा तो मेरी हिम्मत नहीं थी उनसे पूछने की पर इस बात को पुख्ता करने का मैंने निर्णय ले लिया था.
“इधर आ बेटे, ” बाबा ने मुझे पुकारा .
मैं दौड़ कर उनके पास गया .
बाबा- ये मिटटी हटाने में मदद कर मेरी .
मैं- सुबह मजदुर हटा देंगे न
बाबा- तुझसे कहा न मैंने
मैं- ठीक है , आप रौशनी करो मैं मशीन चालू करता हूँ
बाबा के कहे अनुसार मैंने मिटटी हटाना शुरू किया करीब पंद्रह मिनट बाद मुझे वो दिखने लगा जो बाबा देखना चाहते थे . वो एक टूटा कमरा था शायद मंदिर का मुख्य कमरा रहा होगा. क्योंकि पास में एक टूटा जलपात्र पड़ा था. एक नंदी की छोटी मूर्ति थी . बाबा ने उसे अपने सीने से लगा लिया और जोर जोर से रोने लगे.
पर जिस चीज ने मेरा ध्यान खींचा था वो ये था की शिव की मूर्ति नहीं थी वहां पर.
“मूर्ति कहाँ है बाबा ” मैंने सवाल किया .
पर बाबा को जैसे कोई सरोकार नहीं था. बाबा मूझे न जाने क्या बता रहे थे , अपने अतीत की बाते, यहाँ ये होता था यहाँ वो होता था आदी, ऐसे ही काफी समय बीत गया अचानक से बाबा की तबियत कुछ ख़राब सी होने लगी . बाबा असहज होने लगे.
मैं- क्या हुआ बाबा,
बाबा ने कोई जवाब नहीं दिया , अपना झोला लिया और लगभग वहां से दौड़ पड़े मैं आवाज देता रह गया . और मेरे साथ रह गयी ये ख़ामोशी. ये तन्हाई. मैंने नंदी की मूर्ति को उठाया और साफ़ करके एक तरफ रख दिया. तभी मेरे पैरो के निचे कुछ आ गया . मैंने मिटटी हटाई तो देखा की......................