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रानी सा.. आपने बुलाया?
हाँ.. जयसिंह ज़ी.. गढ़ पर जाने की तैयारी कीजिये.. रुक्मा (18) की सखी कुशाला का विवाह सकुशल संपन्न हो चूका है.. तीन दिवस के भीतर ही कुशाला की विदाई भी हो जावेगी.. अब गढ़ से रुक्मा को लिवाने के लिए प्रस्थान करना उचित होगा..
जयसिंह - किन्तु रानी सा.. हुकुम का आदेश है कोई भी सैनिक जागीर छोड़कर कहीं नहीं जाए.. औऱ आप तो भली भाति जानती है आज कल खतरा कितना बढ़ चूका है? कल ही जागीर कि सीमा में पड़ने वाले तीन गाँव में हुकुम के छोटे भाई गजसिंह ने बागियों औऱ डाकुओ के साथ मिलकर लूट की है.. ऐसे में महल छोड़कर गढ़ जाना वो भी हुकुम के आदेश की अवहेलना करते हुए.. माफ़ कीजिये रानी सा.. मैं ऐसा कदापि नहीं कर सकता..
सुजाता उर्फ़ रानी माँ (44)
सुजाता (44)- जयसिंह ज़ी.. आप हुकुम के आदेश की चिंता मत कीजिये.. मैंने उनसे बात कर ली है औऱ उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी है.. कल प्रातः आप कुम्भसिंह को साथ लेकर गढ़ के लिए निकल जाए..
जयसिंह - रानी सा.. कुम्भसिंह कि यहां ज्यादा आवश्यकता है.. हुकुम की सुरक्षा औऱ महल की रखवाली कुम्भसिंह की ही जिम्मेदारी है.. मैं किसी औऱ सैनिक को अपने साथ ले जाऊँगा..
सुजाता - ठीक है जयसिंह ज़ी.. आप समर को भी अपने साथ ले जाइये.. वैसे भी उस जैसे कुशल योद्धा को महल के जनाना हिस्से की रक्षा मात्र तक सिमित रखना सही नहीं है..
जयसिंह - जैसी आपकी इच्छा रानी सा.. अनुभव में भले ही समर कुम्भसिंह से कमतर हो किन्तु युद्ध कौशल में समर बेजोड़ है.. मैं कल सुबह सूरज की पहली किरण निकलने से साथ गढ़ के लिए प्रस्थान कर दूंगा औऱ कुमारी रुक्मा को गढ़ से वापस महल ले आऊंगा..
सुजाता - सावधान रहिएगा जयसिंह ज़ी.. गजसिंह कपटी औऱ धूर्त है...
जयसिंह - रानी सा.. आप निश्चिन्त रहिये.. मैं राजकुमारी को पहाड़ी की तल्हाटी से गुजरे वाले गुप्त रास्ते से शीघ्र ही वापस ले लाऊंगा..
समर पास ही खड़ा हुआ जयसिंह औऱ सुजाता की बात सुन रहा था..
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लता उर्फ़ लीलावती (40)
इतनी सुबह कहां निकालना है समर?
माँ.. रानी मां का आदेश है आज जयसिंह ज़ी के साथ गढ़ प्रस्थान करना है राजकुमारी रुकमा को गढ़ से वापस लीवाना है..
लता (40) - पर उसके लिए तो सकुशल योद्धा और अनुभवी योद्धाओं की अलग टुकड़ी जाती है रानी ने तुझे क्यों इस काम के लिए नियुक्त किया है..
समर (20) - वो तो मुझे नहीं पता माँ... आप तो जानती हैं रानी मां ने जागीरदार के हाथों मुझे मरने से बचाया है, उनका कहा तो मानना ही पड़ेगा..
लता - तेरी बात बिल्कुल सही है समर, पर महल से गढ़ और गढ़ से वापस महल आने में बहुत खतरा है.. रामप्यारी बता रही थी कि अभी कुछ दिनों पहले ही उसके गांव में बागी औऱ डाकुओं ने लूट की है.. ऐसे में तेरा गढ़ जाना मुझे तो बहुत चिंता हो रही है..
समर - रामप्यारी जो कह रही थी वह सत्य है मां.. गजसिंह डाकुओं के साथ मिल चुका है और अब वही जागीर के गांव में लूटपाट मचा रहा है..
लता डर से काँपते हुए - गजसिंह?
समर अपनी माँ लता को बाहों में थामकर गले लगाते हुए - आप चिंता मत करो माँ.. मुझे कुछ नहीं होगा.. इस बार अगर गजसिंह सामने आया तो मैं उसका सर अपनी तलवार से काट लूंगा औऱ आपके सामने लाकर रख दूंगा.. वैसे भी जब तक मैं आपके अपमान का बदला और पिताजी की मौत का बदला नहीं ले लेता मुझे चैन नहीं मिलने वाला..
लता - समर तू ऐसा कुछ नहीं करेगा.. तु मुझसे वादा कर कि तू गजसिंह और उसके साथियों से दूर रहेगा और अपना बदला लेने का संकल्प मन से निकाल देगा.. जो कुछ हुआ उसे भूल जायेगा औऱ कभी उस गजसिंह औऱ उसके साथियो के पास नहीं जाएगा..
समर - जो कुछ हुआ उसे आप भूल सकती है माँ.. मगर मैं उसे नहीं भूल सकता.. मुझे आज भी याद है जब उस रात जगसिंह ने मुझे बाहर बाँध कर यहां भीतर आपके साथ गलत काम किया था.. वह सब आज भी मेरी आंखों के सामने घूमता है माँ.. मैं आज भी रातों में उस पापी को याद करके चैन से सो नहीं पाता और हर बार यही सोचता हूं कि कैसे मैं उससे आपके अपमान का और पिताजी की मौत का बदला लूंगा..
लता - मैं तेरे पिताजी को खो चुकी हूं समर.. अब मैं तुझे नहीं खोना चाहती.. गजसिंह बहुत खतरनाक है और अब तो उसके साथ सुना है डाकुओं की टोली भी जुड़ गई है.. उसकी ताकत बढ़ती जा रही है ऐसे में तू अगर उसके पास जाएगा तो निश्चित ही वह तुझे मार डालेगा.. मैं तुझे नहीं खोना चाहती तुम मुझसे वादा कर कि तू ऐसा कुछ नहीं करेगा.. राजकुमारी को लिवाने के बाद तू सीधा वापस आएगा.. गजसिंह से बदला लेने का संकल्प त्याग देगा..
समर - कैसे मैं अपना संकल्प त्याग दूंगा माँ.. उस रात मेरे हाथ पांव रस्सीयो से बांधकर उसने इसी कमरे में आपको निर्वस्त्र किया था औऱ इसी जगह आपके साथ गलत काम किया था.. मैं कितना चीख और चिल्ला रहा था और उस दानव से आपको छोड़ने की कितनी विनती कर रहा था मगर मेरे आंसू औऱ चीख पुकार का उसपर कोई असर नहीं हुआ.. मैं उसे नहीं छोड़ने वाला माँ.. उसके कई लोगों को मैंने मौत के घाट उतारा है उसी तरह उसे भी उतार दूंगा..
लता समर के चेहरे को अपने हाथो से पकड़कर - उस बात को 4 साल हो चुके हैं बेटा.. वह सब बातें अपने मन से निकाल दे.. आगे दुश्मनी रखने से किसी का भला नहीं होगा.. तेरे पिता ने गजसिंह से दुश्मनी की उसके कारण ही हमें वो सब झेलना पड़ा.. अब तू इसे आगे मत बढ़ा..
समर - धोखे से पिताजी को मारकर और मेरे सामने आपका मान सम्मान सब कुछ उतार कर, आपके साथ जबरन अपनी हवस मिटाकर वो गजसिंह अब तक बेखौफ घूम रहा औऱ आप कह रही है मैं अपना बदला भूल जाऊ? यह नहीं हो सकता माँ.. मैं अपने साथ हुई हर चीज भूल सकता हूं मगर आपके साथ और पिताजी के साथ गजसिंह ने जो किया उसे नहीं भूल सकता..
लता - तेरे सिवा मेरा है ही कौन जिसे मैं यह बात समझाऊं.. कई बार सबकुछ भूल जाने में ही सबकी भलाई होती है बेटा.. छोड़ दे ये हठ.. तू साधारण रास्ते से जाएगा औऱ वहा गजसिंह औऱ उसके साथी डाकुओ के साथ मिलके तुम पर हमला कर देंगे.. मेरा क्या होगा..
समर - मैंने आपका दूध पिया है माँ और आपके दूध का ऋण मैं जरूर चुका के रहूँगा.. मैं सब कुछ भूल जाने का वादा तो नहीं करता.. मगर यह वादा जरूर करता हूँ कि मैं गजसिंह का सर आपके कदमो में लाकर जरूर रख दूंगा.. हम साधारण रास्ते से जाएंगे जरूर पर आना हमारा गुप्त रास्ते से होगा.. जो पहाड़ की तल्हाटी से गुजरता है.. जाने की आज्ञा दीजिये..
समर ये कहते हुए लता के पैरों में झुक गया औऱ अपना सर लेता के पैरों में रखकर आशीर्वाद लेने लगा..
लता समर को उठाकर अपनी छाती से लगा लेती है औऱ कहती है - जल्द लौटना बेटा.. मैं तेरी प्रतीक्षा करुँगी..
समर अपनी मां से आशीर्वाद लेकर वहां से चला जाता है और जयसिंह के साथ राजकुमारी रुकमा को लीवाने के लिए गढ़ की और प्रस्थान करता है..
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रुक्मा उर्फ़ राजकुमारी (18) सुजाता औऱ वीरेंद्र की बेटी how far is heaven lyrics
अरे अरे ऐसे क्यों चेहरा उदास किया है मेरी सखी ने? अब तो सब तुम्हे राजकुमारी नहीं, रानी कहकर पुकारेंगे.. अजमेर से भी बड़ी रियासत में विवाह हुआ है तुम्हारा.. सुना बहुत सुन्दर स्थान है जहा तुम जाने वाली हो..
क्या तुम भी सबकी तरह मुझे छेड़ने लगी.. रुक्मा.. अब क्या विदाई से पहले के कुछ मैं अपने अतीत के उन लुभावने पलों को याद भी नहीं कर सकती जिन्हे मैंने यहां बिताये है? मैं उदास नहीं हूँ रुक्मा बस निराश हूँ कि आगे का जीवन मैं यहां से कहीं दूर बताने वाली हूँ..
रुक्मा (18) - विवाह का नियम तो औरत के त्याग का परिचायक है कुशाला.. हर औरत को इस डगर से निकलना पड़ता है.. माँ कहती है कि औरत का मन औऱ ह्रदय धरती की तरह शांत औऱ सहनशील होता है अहिंसा, स्नेह, बलिदान, सहजता औऱ संवेदना ही औरत को औरत बनाती है.. काम, क्रोध, क्रूरता, कपट, हिंसा औऱ असंवेदना पुरुषो में होती है.. औरत का उससे कोई नाता नहीं.. तुम जल्द ही नए बदलाव में ढल जाओगी औऱ अब की बातें तब तुम्हे हसने वाली प्रतीत होगी.
कुशाला (19) - तुम तो बड़ी सयानी बात करने लगी हो रुक्मा.. पता ही नहीं चला हम कब छोटे से बड़े हो गए..
रुक्मा - कुशाला अब उठो औऱ चलो विदाई का समय हुआ जा रहा है..
कुशाला - विदाई तो आज तुम्हारी भी है रुक्मा..
रुक्मा - मैं समझी नहीं कुशाला..
कुशाला - माँ ने बताया है कि तुम्हे लिवाने के लिए जागीर से जयसिंह काका आये है..
रुक्मा - इसका अर्थ है कि आज आप यहां से अपने ससुराल जायेंगी औऱ मैं वापस अपने माता पिता के पास..
कुशाला - सही कहा सखी..
रुक्मा कुशाला से गले मिलते हुए - जीवन के ये अठरा वर्ष जो हमने हंस खेलकर एकदूसरे से रूठकर औऱ एकदूसरे को मनाकर बिताये है वो हमेशा याद रहेंगे सखी..
कुशाला - सही कह रही हो सखी.. किन्तु मैं खत लिखूँगी.. औऱ अगली बार जब हम मिलेंगे तब मेरे हाथों कि मेहंदी तुम्हारे हाथों में होनी चाहिए.. मैं भी अब तुम्हारे विवाह मैं तुमसे मिलूंगी..
रुक्मा औऱ कुशाला दोनों सखियों की आँखों में आंसू थे औऱ दोनों ने एक दूसरे को अपनी बाहों में कसके पकड़ा हुआ था जो ये बता रहा कि जैसे दोनों को ही अब ये चिंता हो की आगे वो अब कहा औऱ कैसे मिलेंगे.. मिल भी पाएंगे या नहीं.. नियति ने आगे उनके लिए क्या तय किया है.. दोनों की विदाई आज तय थी औऱ दोनों ही इस जगह को नहीं छोड़ना चाहती थी ना ही एकदूसरे को नहीं छोड़ना चाहती थी.. मगर जो होना है सो होकर ही रहता है.. कुशाला बरात के संग अपने ससुराल तो रुक्मा जयसिंह के साथ जागीर की तरफ जाने के लिए मुड़ गई..
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गढ़ से जागीर तक वापसी का दो दिन का ये सफर शुरू हो चूका था औऱ रुक्मा घोड़ागाडी मैं बैठी हुई अपनी सखी कुशाला को याद कर रही थी औऱ उसके साथ बिताये उन पलों को याद कर रही थी जिसमे दोनों बचपन से खेलकर बड़ी हुई थी.. दो दिनो के सफर में आधे दिन का सफर ख़त्म हो चूका था औऱ रास्ते में एक बड़े से बड़ के पेड़ के नीचे जयसिंह ने कुछ देर घोड़ो को सुस्ताने के लिए अपना काफ़िला रोका औऱ रुक्मा को इसकी खबर करके खुद भी पेड़ के नीचे बैठकर साथ लाया हुआ भोजन खाने लगा.
सभी लोग खाना खाने में व्यस्त थे पर समर का ध्यान खाने में नहीं था वो कई दिनों से बस उस परछाई के बारे में ही सोच रहा था जिसे उसने बैरागी से निकलते औऱ उसीमें लीन होते देखा था..
रुक्मा घोड़ा गाडी से नीचे उतर चुकी थी औऱ अपने साथ अपनी दासीयों को लेकर बड़ के पेड़ के पीछे जाकर थोड़ा ठहलने लगी. रुक्मा जयसिंह की आँखों के सामने ही थी इसलिए उसने रुक्मा को वहा टहलने से नहीं रोका औऱ खाना खाते हुए अपने बाकी सैनिको के साथ बात करने लगा.. समर आधा अधूरा खाने के बाद उठ गया था औऱ उसने अपने हाथ पानी से धोकर वापस अपनी तलवार हाथ में पकड़ ली थी औऱ वही पर इधर उधर मंडराने लगा था..
रुक्मा औऱ उसकी दासिया हंस बोल कर इधरउधर टहल रहे थे की उन्हें सामने से खूंखार भेड़िया भागता हुआ उन्ही की तरफ आता हुआ दिखाई दिया औऱ एक साथ रुक्मा औऱ उसकी दासिया चिल्लाते हुए वापस बड़ के पड़ की तरफ भागने लगी. जयसिंह औऱ बाकी सैनिक उठकर अपनी अपनी तलवार संभालते हुए रुक्मा की तरफ दौड़े लेकिन वो लोग बहुत दूर थे.. भेड़िया रुक्मा औऱ उसकी दासियों पर झपटा मारने ही वाला था कि समर ने वहा आकर एन मोके पर अपनी तलवार के एक वार से उस भेड़िये के दो टुकड़े कर दिए औऱ भेड़िये को मार डाला..
जयसिंह ने समर को ऐसा करते देखकर अपनी सांस में सांस ली औऱ रुक्मा को वापस घोड़ा गाडी में बैठाकर आगे का रास्ता शुरू कर दिया..
रुक्मा औऱ उसकी दासिया इस हादसे से कुछ देर के लिए सहम गई थी मगर समर की बहादुरी औऱ उसके रूप पर मोहित होकर रुक्मा ने समर को उसी वक़्त अपने ह्रदय में प्रेमी का स्थान दे दिया था.. घोड़ागाडी मैं बैठी रुक्मा दासीयों से बात करने लगी थी औऱ उससे समर के बारे में पूछने लगी थी..
रुक्मा - ये क्या कह रही हो सुधा? मैं तो बस यूँही पूछ रही थी..
सुधा(दासी 21) - मैंने कई साल आपके साथ बिताये है राजकुमारी.. मैं आपका मन अच्छे से पढ़ सकती हूँ.. जिस पल उस योद्धा ने आपकी औऱ हम दोनों बहिनों की जान बच्चाई उसी वक़्त आपने उस योद्धा को अपने मन में उतार लिया था.. क्यों लीला..
लीला (दासी 22) - सही कहा सुधा.. राजकुमारी को जब से उस योद्धा ने भेड़िये के वार से बचाया है राजकुमारी की आँखे बस उसी योद्धा पर टिकी है.. मगर याद रहे राजकुमारी.. आप जागीरदार की पुत्री हो एक साधारण योद्धा से प्रेम करना आपके लिए उचित नहीं.. आपके प्रेम को जागीरदार कभी स्वीकृति नहीं देंगे..
रुक्मा - तुम दोनों क्या बेतुकी बातें कर रही हो.. ऐसा कुछ नहीं है.. मैंने बस ऐसे ही उसका नाम पूछा था.. नहीं बताना तो मत बताओ..
सुधा - राजकुमारी हमें भी उतना ही पता है उस योद्धा के बारे में जितना आप जानती हो.. मगर आप निश्चिन्त रहिये आगे जैसे ही गढ़ की सीमा पर कुए से पानी लेने के लिए कुछ देर हम रुकेंगे मैं उस योद्धा के बारे में सब सुचना जुटा कर ले आउंगी..
रुक्मा मुस्कुराती हुई परदे से बाहर समर को देखने लगती है जो आगे घोड़े पर सवार था..
गढ़ की सीमा पर से काफिला औऱ घोड़ा गाडी रुकी और पानी लेने के लिए कुछ लोग कुए की बढे.. सुधा घोड़ागाडी से उतर गई औऱ एक सैनिक के पास जाकर कुछ देर बात करके वापस आ गई सभी लोग वापस आगे के लिए बढ़ने लगे..
रुक्मा - कुछ पता चला सुधा?
लीला - देखा सुधा.. कुछ समय पहले तक तो राजकुमारी कह रही थी कि ऐसा कुछ नहीं है मगर अब कितनी उत्सुकता से उस योद्धा के बारे में जानने के लिए लालायित है.. इसे अब प्रेम ना कहा जाए तो क्या कह कर पुकारा जाए?
सुधा मुस्कुराते हुए - अब जान बचाने वाले के बारे में जानना प्रेम थोड़े हुआ लीला.. राजकुमारी ज़ी तो बस यूँही उस योद्धा के बारे में जानना चाहती है.. उस योद्धा से प्रेम थोड़ी हुआ है राजकुमारी ज़ी को.. सही कहा ना राजकुमारी ज़ी.
रुक्मा - मैं अच्छे से समझ रही हूँ जो खेल तुम दोनों बहिने मिलकर मेरे साथ खेल रही हो.. लौटने दो वापस पिताज़ी से कहकर खूब खबर लुंगी तुम्हारी..
सुधा औऱ लीला - अरे नहीं नहीं.. राजकुमारी..
लीला - राजकुमारी हम तो बस यूँही हंसी ठिठोली कर रहे थे आपके साथ..
सुधा - ज़ी राजकुमारी.. आप पूछिए जो आपको पूछना है.. मैंने सबकुछ पता लगा लिया है उस योद्धा के बारे में..
रुक्मा जिज्ञासा से - तो बताओ जो पूछा था मैंने.. नाम?
सुधा - समर सिंह.
रुक्मा - समर... रुक्मा सुधा को अधीरता से देखती हुई.. औऱ?
सुधा - कुछ दिनों पहले तक कोषागृह का पहरेदार था.. हुकुम के मेहमान का अपमान किया था.. हुकुम ने मौत का फरमान सुनाया था औऱ उस मेहमान से समर को मारकर अपने अपमान का प्रतिशोध लेने को कहा मगर मेहमान की दया औऱ रानी की कृपा से बच गया.. रानी ने जनाना महल का पहरेदार बनाया था मगर इस बार जयसिंह के साथ आपको लिवाने भेज दिया..
रुक्मा - घर-परिवार के बारे में?
सुधा - राजकुमारी ज़ी.. पिता भी राजाजी की सेना में थे मगर उस गजसिंह औऱ उसके साथियो ने धुपसिंह को मार डाला.. घर में बस उसकी माँ है.. एकलौता है.. औऱ कोई नहीं.. मगर एक भ्रान्ति है, पता नहीं इसमें कितना सच है औऱ कितना झूठ.
रुक्मा - कैसी भ्रान्ति?
सुधा - भ्रान्ति ये है राजकुमारी ज़ी कि समर के जन्म के वक़्त लल्ली ताई औऱ शान्ति धुपसिंह के घर पहुंची थी मगर उसके कुछ देर बाद शान्ति अकेले किसी बच्चे को लेकर जंगल की औऱ जाती हुई गाँव के एक बुजुर्ग को दिखाई दी थी.. लोग कहते थे वो बुढ़ा मंदबुद्धि था.. मगर वो बुढ़ा कहता था की उसने सच में शांति को बच्चा लेकर जंगल में जाते हुए देखा था औऱ उस दिन लता ने एक नहीं बल्कि दो बच्चों को जन्म दिया था.. कुछ सालों बाद वो मर गया, उसके कुछ सालों बाद लल्ली ताई भी चल बसी.. अब सिर्फ शान्ति बच्ची है जो बूढ़े को मंदिबुद्धि कहकर ही इस भ्रान्ति को खारिज कर देती है..
रुक्मा - समर इस बारे में क्या कहता है..
सुधा - उसे तो फर्क ही नहीं पड़ता राजकुमारी ज़ी.. वो शान्ति की बात को सही मानकर उस बूढ़े को गलत समझता है...
लीला - रात होने वाली है राजकुमार ज़ी.. लगता है जयसिंह ज़ी ने चाल धीरे करने को कहा है.. आसपास ही अब रात के विश्राम हेतु रुका जाएगा..
रुक्मा - तुमने सही कहा लीला..
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समर से राजकुमारी रुकमा को वापस लीवाने की सूचना पाकर लता घर से निकल पड़ती है और जंगल के छोटे-मोटे रास्तों से होती हुई एक सुनसान जगह पहुंचती है जहां कई लोगों ने डेरा डाला हुआ था..
लता उसके पास पहुंचकर पहरेदारी कर रहे एक आदमी से कहती है..
लेता - सरदार से मिलना है.. औऱ इतना कहकर लता अपने घाघरे को ऊंचा करके अपनी गांड पर एक निशान पहरेदार को दिखाती है..
पहरेदार लता की गांड पर निशान देखकर उसे अपने पीछे पीछे एक गुफा की तरफ ले आता है औऱ बाहर खड़ा होकर कहता है..
पहरेदार - सरदार.. आपकी एक रखैल आपसे मिलने आई है..
गुफा के अंदर गजसिंह किसी वैश्या से अपना लोडा चुसवा रहा था.. औऱ लोडा चुसवाते चुसवाते ही गजसिंह ने पहरेदार से रखैल को अंदर भेजने को कहा..
लेता पर्दा हटाकर गुफा में आगई औऱ वापस पर्दा लगाकर गजसिंह के सामने खड़ी होकर अपने हाथ जोड़कर गजसिंह से बोली..
लता - छोटे हुकुम..
गजसिंह ने अपना लंड चूस रही लड़की को वहा से जाने का इशारा किया औऱ लता से करीब आने का इशारा किया.. लता गजसिंह का इशारा समझ कर उसके करीब आ गयी औऱ उसी जगह बैठ गई जहा लड़की बैठी थी..
गजसिंह अपने करीब रखे मदिरा के प्याले को उठाकर मदिरा पीते हुए - क्या बात है लीलावती.. तू अपने छोटे हुकुम को भूल ही गई.. कितने समय बाद आई है..
लता उर्फ़ लीलावती - आपको कैसे भूल सकती हूँ छोटे हुकुम.. आपने ही तो इस वैश्या को वैश्यालय से निकालकर अपने साथ रखा है.. मेरा नाम लीलावती से लता करके मेरा विवाह धुपसिंह से करवाया ताकि मैं आपको जागीर से जुडी हुई गुप्त सुचना दे सकूँ औऱ आप अपने भाई वीरेंद्र सिंह को हराकर जागीरदार बन सके.. मेरी जैसी कितनी वैश्या को आपने नई जिंदगी दी है छोटे हुकुम.. ये कहकर लता गजसिंह का लोडा मुंह में भरके चूसने लगती है..
गजसिंह बाल पकड़ कर लंड चुसवाते हुए - समर का क्रोध शांत किया तूने या नहीं.. पिछली बार भी मेरे 4 साथियो को उसने मौत के घाट उतार दिया.. सिर्फ तेरे कहने पर मैंने उसे अब तक जीवित छोड़ा है..
लता मुंह से लंड निकालकर - उसकी रगो में आपका ही खून है छोटे हुकुम.. इतनी आसानी से कैसे ठंडा हो जाएगा.. अब तक उस रात जो हुआ उसे याद करके क्रोध से भर जाता है.. मैंने आपसे कहा था छोटे हुकुम मैं आपके पास जंगल में आ जाउंगी आप यहां कुछमत कीजिये.. मगर आप धुपसिंह से इतने क्रोधित थे कि आपने तो समर के सामने मेरे ही ऊपर चढ़ाई करके मेरे साथ अपनी हवस मिटाइ.. बेचारा अपनी माँ के साथ जो कुछ हुआ उसे नहीं भूल पाया है..
गजसिंह - धुपसिंह ने आखिरी मोके पर मुझे वीरेंद्र को मारकर जागीरदार बनने से रोक दिया था लीलावती.. मैं उस आग में जल रहा था.. मुझे औऱ कुछ नहीं सूझ रहा था.. मैं अपने हाथों से धुपसिंह को मारना चाहता था.. मगर तूने मुझसे वो मौका भी छीन लिया..
लता - मैं क्या करती छोटे हुकुम.. धुप सिंह को मेरे बारे में सब सच पता चल गया था औऱ वो मुझे मारने के लिए हाथों में तलवार उठाने ही वाला था.. मैं अगर उस कटार से धुपसिंह को नहीं मारती तो वो मुझे मार देता.. फिर मैं आपके किसी काम की नहीं रहती.. ना ही आपको कोई औऱ सुचना दे पाती..
गजसिंह लता के बाल पकड़कर - तो बता लीलावती.. इस बार क्या गुप्त सुचना लेकर आई है तू? या फिर इस बार भी मेरे साथ बस रात बिताकर मुझे खुश करने के लिए आई है?
लता मुस्कुराते हुए - सुचना तो बहुत गुप्त है छोटे हुकुम.. मगर पहले आपको मुझसे एक वादा करना होगा..
गजसिंह - केसा वादा लीलावती..
लता (लीलावती) - आप समर को कुछ नहीं करेंगे.. औऱ उसके प्राण बक्श देंगे..
गजसिंह - ये वादा मैंने पहले भी तुझसे किया है औऱ वापस करता हूँ लीलावती.. तू जानती है गजसिंह अपने वादे का कितना पक्का है.. अब बता क्या गुप्त सुचना है..
लता (लीलावती) - जागीरदार ने राजकुमारी रुक्मा को गढ़ से लिवाने के लिए एक 40 सैनिको की टुकड़ी भेजी है..
जागीरदार - इतना तो मुझे मेरा पहरेदार भी बता सकता है लीलावती.. कुछ औऱ बताना हो तो कहो..
लता (लीलावती) - मगर हर बार आप नाकाम रहे है छोटे हुकुम.. इस बार मुझे उनके वापसी के रास्ते का भी पता है..
गजसिंह - इतनी गोपनीय सुचना तुझे कैसे मिली लीलावती..
लता (लीलावती) - छोटे हुकुम.. समर ने जाने से पहले मुझसे बात कर रहा था.. मैंने बातों बातों में उससे ये सुचना उगलवा ली.. वो लोग वापसी में पहाड़ी की तल्हाटी वाले रास्ते से आएंगे.. छोटे हुकुम आप राजकुमारी को वहा से अगुवा कर वीरेंद्र सिंह से जागीरदारी छीन सकते है.. राजकुमारी को अगुवा कर आप सभी सैनिको को ख़त्म कर सकते है किन्तु समर को जीवित जाने देंगे..
गजसिंह लता के चुचे पकड़कर अपनी तरफ खींचते हुए - वाह.. लीलावती आज तूने सिद्ध कर दिया कि तू मेरी असली रखैल है.. जब मैं जागीरदार बन जाऊँगा तब तुझे महल में साथ रखूँगा..
लता - आराम से छोटे हुकुम.. चोली फट जायेगी..
गजसिंह चोली फाड़कर उसका घाघरा खोल देता है औऱ लता को नंगा करके अपने नीचे लेटा कर उसकी चुत में अपना लोडा डालकर लता को चोदने लगता है..
गजसिंह - लीलावती तेरी योनि तो आज बहुत मज़ा दे रही है मुझे..
लता (लीलावती) - छोटे हुकुम.. आठ माह हो गया.. पिछली बार भी आपने ही मुझे अपने नीचे लेटाया था.. तब से अब तक किसीने मेरे साथ कुछ नहीं किया..
गजसिंह लता को पीठ के बल लेटाते हुए - लीलावती तू अब वैश्या नहीं लगती.. ऐसा लगता है सच में किसी घर कि घरेलु औरत है..
लता (लीलावती) - ये आपका बड़प्पन है छोटे हुकुम.. मुझे वैश्या को इतना सम्मान देने के लिए..
गजसिंह पैर फैलाकर लता को चोदते हुए - समर को समझा लीलावती.. अपनी हठ छोड़ दे.. मैं बार बार उसके प्राण नहीं बक्शऊँगा.. उसने अब तक मेरे 26 आदमी मार दिए औऱ मैं बस तेरे कारण हर बार उसे माफ़ कर देता हूँ..
लता (लीलावती) - छोटे हुकुम.. समर मुझ वैश्या की कोख से पैदा हुआ है तो क्या हुआ.. है तो आपका अपना खून.. आपने एक बेटे के सामने उसकी माँ का चीरहरण किया था.. वो कैसे ये सब भूल जाएगा.. पर छोटे हुकुम मैं आपसे वादा करती हूँ.. मैं जल्द ही समर को लेके यहां से दूर चली जाउंगी.. औऱ जब आप जागीरदार बन जाएंगे तब समर को किसी भी तरह समझाकर मना लुंगी..
गजसिंह लता को घोड़ी बनाकर चोदता हुआ - ठीक है लीलावती.. इस बार मैं नहीं चुकने वाला.. वीरेंद्र से जागीरदारी छीनकर ही रहूँगा..
गजसिंह लता को चोदकर उसकी चुत से लोडा निकालकर उसके बदन पर अपना माल झाड़ते हुए गुफा से बाहर आ गया औऱ लता अपनी फ़टी हुई चोली औऱ घाघरा पहन कर रात के अँधेरे में छुपते छुपाते अपने घर वापस आ गई..
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वीरेंद्र सिंह - आओ बैरागी.. इतनी सुबह बुलवा लिया तुम्हे.. तुम्हारी नींद में विघ्न पड़ा होगा..
बैरागी - मुझे रातों में नींद नहीं आती हुकुम.. मैं तो बस अपने प्रियतम से ही बात करके अपनी राते गुज़ारता हूँ.. कहिये आपने जिस उद्देश्य से मुझे बुलवाया है उसका क्या प्रयोजन है? मैं आपके क्या काम आ सकता हूँ?
वीरेंद्र सिंह - तुम अच्छे से जानते हो बैरागी मैं तुमसे क्या चाहता हूँ.. फिर भी तुम मुझसे पूछ रहे हो तो मैं वापस तुम्हे बता दू.. मेरे डर औऱ चिंता को दूर करो बैरागी..
बैरागी - मैंने आपसे पहले भी कहा था हुकुम.. आपका डर केवल आपके मन की उपज मात्र है जिसे आप स्वम ही ठीक जर सकते है..
वीरेंद्र सिंह - अगर मेरे बस में होता तो मैं कई सालों से इस तरह बावरा बनकर अपना उपचार नहीं कर रहा होता बैरागी.. तुम कोई ना कोई उपाय तो जरूर जानते होंगे.. मुझे तुम्हारी क़ाबिलियत का अनुमान है.. तुम बस मुझे मेरा उपचार बताना नहीं चाहते..
बैरागी - ऐसा नहीं है हुकुम.. प्रकृति ने सब बहुत सोच समझ कर बनाया है.. उसके नियम हमारे नियमो से बहुत ऊपर है.. उसके साथ हेरफेर करना प्रकृति की संरचना को ललकारने जैसा है.. इसमें किसी का हित नहीं है हुकुम..
वीरेंद्र सिंह - बैरागी मुझे उपदेश नहीं उपचार चाहिए.. मैं तुम्हे जो भी चाहिए दे सकता हूँ.. हर वो पौधा जो इस जमीन पर वरदान बनकर उगा है, भले ही किसी किस्म का हो मेरे पास उपलब्ध है..
बैरागी - इस जमीन पर उगने वाली औषधि का समस्त भण्डार आपके पास होना.. ये तो बहुत विचित्र बात है हुकुम..
वीरेंद्र सिंह -चलो बैरागी मैं तुम्हे महल का वो हिस्सा दिखाता हूँ जो सिर्फ मेरे लिए ही सिमित है.. औऱ तुम्हारा संशय अभी दूर किये देता है..
बैरागी - अगर ऐसा है तो मैं भी आपके साथ उस हिस्से को देखने के लिए उत्सुक हूँ हुकुम..
वीरेंद्र सिंह बैरागी को अपने साथ महल के बीच एक हिस्से में ले आते है जहा किसी को आने की अनुमति नहीं थी औऱ एक बड़े से जमीनी हिस्से पर उगे हुए पौधे औऱ जड़ो को दिखाता हुआ बैरागी से कहता है..
वीरेंद्र सिंह - लो बैरागी.. देख लो अपनी आँखों से.. यहां 5 सो से ज्यादा अलग अलग किस्म के पौधे है जो किसी ना उपचार में काम आते है.. सबकी अपनी पहचान है.. मैं तो कुछ पौधों के बारे में ही जान पाया हूँ अभी तक..
बैरागी - राजा महाराजा जागीरदार ठिकानेदार सब धन दौलत सम्पति अर्जित करते है औऱ उन्हें पहरे में रखते है.. पर आपने तो इन पौधों को पहरे में रखा हुआ है..
वीरेंद्र सिंह - धन से ज्यादा जरुरी देह होती है बैरागी.. तुझे जिस किसी औषधि औऱ पौधे की जरुरत है तू यहां से ले जा सकता है मगर मेरा भय ख़त्म होने के पश्चात..
बैरागी - आपका भय मृत्यु से जन्मा है हुकुम...
वीरेंद्र सिंह - तो कुछ ऐसा प्रबंध कर कि मेरी मृत्यु कभी हो ही ना बैरागी..
बैरागी - धरती पर अमर तो ईश्वर भी नहीं रहे हुकुम.. उन्होंने भी प्रकृति के नियम नहीं बदले..
वीरेंद्र सिंह - जो ईश्वर नहीं कर पाए उसे मैं करना चाहता हूँ बैरागी.. मैं मरना नहीं चाहता.. हमेशा अमर रहना चाहता हूँ.. अगर तू मेरी मदद कर दे तो.. मैं इस जगह को तुझे सौंप दूंगा.. फिर तू इन पौधों औऱ औषधियौ से किसी भी उपचार की दवा बनाकर अपने उद्देश्य में सफलता पास सकता है..
बैरागी उस जगह उगे हुए पौधे औऱ औषधियों को देखकर - ठीक है हुकुम.. अगर आपकी यही शर्त है तो मुझे मंज़ूर है.. मैंने जो कुछ भी सीखा औऱ पाया है उससे मैं आपका ये भय दूर कर दूंगा..
वीरेंद्र सिंह मुस्कुराते हुए - अब तुमने मेरे ह्रदय को जितने वाले मधुर शब्द बोले है बैरागी.. आज से ये जगह तुम्हारी.. तुम्हे जो कुछ चाहिए पहरेदार लाकर देगा.. बस जल्दी से मुझे अमर कर दो..
बैरागी उस जगह पर घूमते हुए - सवान की पहली बारिश जब दूर पश्चिम की रेतीली जमीन पर गिरती है तो उस रेतीली जमीन से एक अलग किस्म की पिली खरपतवार निकलती है. जिसकी जड़ में सफ़ेद दानेदार बेल भी लगती है.. अगर वो बेल उगने के 3 दिवस में मुझे मिल जाए तो मैं आपको अपके जीवन से 11 गुनाह लम्बे समय तक जीवित रख सकता हूँ..
वीरेंद्र सिंह - सावन की पहली बारिश तो कभी भी बरस सकती है बैरागी.
बैरागी - फिर तो आपको देर नहीं करनी चाहिए हुकुम.. इस वक़्त पश्चिम के लिए किसी सैनिक को भेजना चाहिए..
वीरेंद्र सिंह उस जगह से बाहर जाते हुए - मैं अभी कुछ सैनिकों को इस काम के लिए भेजता हूँ वैरागी..
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कुछ देर बाद जागीर की सीमा पर पहुंचकर जयसिंह के इशारे पर सभी लोग पहाड़ी की तल्हाटी में एक समतल जगह देखकर घोड़ा गाडी औऱ बाकी की बैलगाड़ी रोक देते है औऱ घुड़सवार सैनिक भी घोड़े से नीचे उतर कर अपना घोड़ा खुटा गाड के बाँध देते है समर भी यही करता है.. सभी साथ लाये भोजन को ही खाने लगते है.. रुक्मा भी भोजन करने लगती है औऱ उसकी दोनों दासिया भी रुक्मा के कहने पर उसीके साथ बैठकर भोजन करती है..
खाना खाने के बाद लगभग आधे लोग पहरेदारी के लिए तैनात हो जाते है बाकी के आधे आराम करते है..
रात आधी बीत चुकी थी औऱ अब पहरेदार बदल चुके थे जो लोग अब तक आराम कर रहे थे वो लोग अब पहरेदारी करने लगे थे औऱ जो अब तक पहरेदारी कर रहे थे वो लोग आराम के लिए लेट गए थे..
समर खाना खाने के बाद लगातार एक पत्थर पर जलती हुई आग के सामने बैठकर किसी ख्याल में घूम था.. उसकी आँखों में नींद नहीं थी औऱ नींद तो रुक्मा की आँखों में भी नहीं थी.. रुक्मा अपना दिल समर पर हार चुकी थी.. रुक्मा ने दिन के हादसे के बाद से समर से अपनी नज़र नहीं हटाइ थी औऱ अब वो समर को ही देखे जा रही थी..
लाली औऱ सुधा दोनों को नींद आ चुकी थी.. आधी रात से ज्यादा का समय हो चूका था..
पहाड़ी के पीछे से गजसिंह डाकुओ के मुखिया कर्मा के साथ जयसिंह के इस काफ़िले को देख रहा था जो इस वक़्त रुका हुआ था..
कर्मा - अब किस बात की प्रतीक्षा सरदार.. मुट्ठी भर सैनिक ही तो है.. चलिए रोंध देते है इन सबको औऱ राजकुमारी का अपहरण कर लेते है.. उसके बाद तो वीरेंद्र सिंह अपने हथियार त्याग ही देगा..
गजसिंह - अभी नहीं कर्मा.. हमला सूरज की पहली किरण निकलने के साथ होगा.. इस अँधेरे में अगर कहीं रुक्मा को हानि होती है तो इस हमले का कोई मतलब नहीं रह जाएगा..
कर्मा - मगर सरदार सुबह की पहली किरण पर तो सभी सैनिक फिर से पहरे पर होंगे.. अभी आधे सैनिक नींद में है..
गजसिंह - तुझे कितने सैनिक दिखाई देते है कर्मा?
कर्मा - आग की रौशनी में देखने से लगता है लगभग 20 होंगे सरदार.. औऱ इतने ही सैनिक सोये हुए लगते है..
गजसिंह - तो क्या तुझे लगता है की हमारे 200 लोगो का मुकाबला ये 40 लोग कर सकते है?
कर्मा - वो बात नहीं है सरदार मुझे इस जयसिंह का डर है.. पिछली बार जब भिड़ंत हुई थी इसने अकेले ही मेरे बारह आदमियों को मार गिराया था.. बहुत सख्त जान है..
गजसिंह - इस जयसिंह का मुक़ाबला मुझसे होगा कर्मा.. मैं खुद जयसिंह को हराकर उसके अभिमान को परों से कुचल दूंगा.. तू अपने सभी आदमियों को समझा दे.. राजकुमारी रुक्मा औऱ उस आग के पास बैठे योद्धा समर को एक भी खरोच नही आनी चाहिए..
कर्मा - उस योद्धा को क्यों सरदार..
गजसिंह - कर्मा अभी ये तेरे जानने का समय नहीं है.. तू बस तेरे हर आदमी को ये समझा दे.. उन दोनों में से किसी को भी कुछ नहीं होना चाहिए.. औऱ सब सूरज की पहली किरण पर मेरे इशारे पर एक साथ हमला करेंगे..
कर्मा - जैसा आप कहे सरदार..
गजसिंह ने अपने बागियो औऱ कर्मा ने अपनी डाकुओ से राजकुमारी रुक्मा औऱ समर को छोड़कर सभी को जान से मार डालने का आदेश सुना दिया औऱ हमले के लिए त्यार रहने को कहा..
भोर होने में बहुत थोड़ा समय था गजसिंह का हमला होने वाला था.. समर आँख कुछ पल के लिए लगी थी जो अपने आसपास किसी के होने की आहट पाकर खुल गई थी.. समर ने देखा की राजकुमारी रुक्मा उसके समीप खड़ी हुई उसे देख रही थी..
समर झट से उठकर सर झुकाते हुए - राजकुमारी..
रुक्मा - बहुत कच्ची नींद है तुम्हारी.. राजकुमार.. रातभर इस पत्थर पर बैठकर पहरेदारी करते रहे औऱ कुछ पल आँख लगी तो मेरी आहट पर तुरंत ही नींद भी टूट गई..
समर - मैं कोई राजकुमार नहीं हूँ राजकुमारी.. बस एक साधारण सैनिक हूँ..
रुक्मा समर के थोड़ा नजदीक आकर - मुझे पता है तुम कौन हो.. मैंने तुम्हे उस नाम से बुलाया है जो मैं तुम्हे बनाना चाहती हूँ.. अब से तुम मेरे पहरेदार हो.. अब से मेरी अंतिम सांस तक मेरी रक्षा तुम्हारी जिम्मेदारी है.. मेरे प्राण बचाने के लिए आभार.. तुम्हारी बहादुरी औऱ सुंदरता मेरे मन को भा गई है..
समर - राजकुमारी.. ये आप क्या कह रही है.. जीवनभर आपकी रक्षा मेरे जिम्मेदारी? मैं एक साधारण योद्धा हूँ.. सूर्यउदय होने वाला है.. आपको वापस जाकर अपनी दासियों के साथ बैठना चाहिए..
रुक्मा - मुझे तुमसे प्रेम हो गया है राजकुमार.. अपनी राजकुमारी की रक्षा तो अब तुम्हे ही करनी पड़ेगी..
जयसिंह - क्या हुआ राजकुमारी.. कोई गलती हो गई इस योद्धा से?
रुक्मा - नहीं.. काका.. मैं तो बस कल मेरे प्राण बचाने के लिए आभार कहने आई थी.. औऱ अपनी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध करने..
जयसिंह - आपकी रक्षा के लिए तो सभी प्रतिबद्ध है राजकुमारी.. महल तक आपको सकुशल पंहुचा कर ही हम चैन से बैठेंगे.. भोर होने वाली सूरज की पहली किरण के साथ महल की औऱ आगे बढ़ेंगे.. आप जाकर घोड़ागाड़ी मैं बैठ जाइये..
रुक्मा - जैसा आप कहे.. काका..
पहली किरण के साथ ही चारो तरफ से गजसिंह कर्मा के साथ मिलकर काफ़िले पर हमला कर देता है औऱ जयसिंह अपने सैनिको के साथ गजसिंह औऱ कर्मा के साथ उनके लोगों से मुक़ाबला करने लगता है.. समर अपनी जगह छोड़कर रुक्मा के करीब आ जाता है औऱ रुक्मा के करीब आने वाले हर सैनिक को अपनी तलवार के एक ही वार से काट कर मार डालता है..
जयसिंह के साथ 40 लोग थे औऱ गजसिंह के साथ दो सो.. मगर फिर भी मुक़ाबला कड़ा हो रहा था.. जयसिंह के 22 आदमी मर चुके थे मगर अब तक गजसिंह भी अपने 90 से ज्यादा आदमी खो चूका था.. जयसिंह ने अकेलेपन ही 30 से ज्यादा आदमियों को मार गिराया था औऱ समर भी अब तक 22 से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार चूका था.. गजसिंह औऱ कर्मा का जो भी साथी रुक्मा की तरफ बढ़ता समर अपनी तलवार से उसके प्राण हरण कर लेता.. गजसिंह के कहे अनुसार उसके औऱ कर्मा के किसी भी साथी ने समर पर हमला नहीं किया जिसकी कीमत उन सबको अपनी जान देकर चुकानी पड़ी..
देखते ही देखते.. लाशों का जमघट लग गया औऱ औऱ उस स्थान पर रक्त ही रक्त बिखरा हुआ नज़र आने लगा.. आखिर में घोड़ागाड़ी में बैठी रुक्मा औऱ उसकी दासिया के अलावा जयसिंह औऱ समर ही जिन्दा बचे रह गए.. वही गजसिंह की तरफ से गजसिंह औऱ कर्मा के साथ उनके 3 औऱ साथी ज़िंदा बचे रह गए थे.. बाकी सब जमीन पर अपनी जान गवा कर पड़े हुए थे..
समर के सामने जैसे ही गजसिंह का चेहरा आया वो क्रोध से भर गया औऱ गजसिंह की तरफ भागते हुए उस पर हमला कर दिया.. गजसिंह इस हमले से बच गया लेकिन उसके दो साथी जो इस हमले को रोकने के लिए बीच में आये थे उनको जान गवाना पड़ा..
गजसिंह औऱ कर्मा अब पीछे हट गये थे औऱ मुड़कर घोड़े पर बैठकर भागने लगे..
समर का सर गजसिंह का चेहरा देखकर क्रोध औऱ बदले की अग्नि से फटा जा रहा था.. समर ने भी अपने घोड़े की लगाम खींची औऱ उस पर बैठकर गजसिंह का पीछा करने लगा..
जयसिंह भयानक रूप से घायल हो चूका था मगरफ़िर भी उसने आखिर में बचे गजसिंह के एक आखिरी साथी को मार गिराया और खुद भी उसके वार से जमीन पर गिरकर लहूलुहान हो गया..
समर गजसिंह का पीछा करते हुए पहाड़ी के दूसरी तरफ आ गया जहा से खाई शुरू होती थी. समर ने कर्मा डाकू को अपनी तलवार के एक ही वार से मार डाला.. पहाड़ी पर आगे रास्ता ख़त्म हो चूका था भागने की जगह नहीं थी.. औऱ समर अब गजसिंह के सामने खड़ा था..
गजसिंह घोड़े से उतर कर - बहुत बड़ी गलती की मैंने तुझे ज़िंदा छोड़कर.. मुझे अगर पता होता की तू आज मेरा जागीरदार बनने का सपना चकनाचूर कर देगा तो मैं पहले ही तुझे मार डालता..
समर - गलती तो तूने की गजसिंह.. मगर मुझे ज़िंदा छोड़कर नहीं बल्कि मेरे पिता को मारके औऱ मेरी माँ का अपमान करके..
गजसिंह जोर से हसते हुए - तेरा पिता? कौन तेरा पिता समर? वो धुपसिंह? अरे वो तेरा पिता नहीं था.. तेरा पिता तेरे सामने खडा है.. औऱ कोनसे अपमान की बात कर रहा है तू? तेरी माँ का अपमान? अरे उसको मैं तब से जानता हूँ जब तू इस धरती पर आया भी नहीं था.. दिल्ली के एक वैश्यालय में वैश्यवर्ती करती थी तेरी माँ.. औऱ सिर्फ तेरी माँ ही नहीं औऱ भी कई औरतों को मैंने उस वैश्यालय से खरीद कर उनका विवाह वीरेंद्र सिंह की रक्षा में तैनात सैनिको से करवाया था ताकि मुझे उन वैश्याओं से वीरेंद्र के बारे में गुप्त सुचना मिलती रहे..
समर - अपनी मौत को सामने देखकर कहानी बना रहा है गजसिंह.. मगर आज मैं अपनी तलवार से तेरा सर काटकर अपने पिता की मौत का बदला जरूर लूंगा..
गजसिंह हसते हुए - कितनी बार कहु तुझे.. तेरा बाप धुपसिंह मैं हूँ.. यकीन ना हो तो जाकर पूछ ले अपनी माँ से.. जिसे वैश्यालय की लीलावती से साधारण घरेलु लता बनाकर मैंने धुपसिंह से विवाह करवाया था. औऱ धुपसिंह की हत्या मैंने नहीं बल्कि तेरी माँ लीलावती ने अपने हाथों से की थी.. क्युकी धुपसिंह लीलावती के वैश्या होने रहस्य औऱ उसके कूल्हे पर मेरी निशानी का अर्थ वो जान गया था..
समर क्रोध से - चुपकर गजसिंह.. तुझे क्या लगता है मैं तेरी इन बातों पर विश्वास कर लूंगा? औऱ तू मुझे मुर्ख बनाकर यहां से निकल जाएगा? आज तेरा बचना संभव नहीं है गजसिंह..
गजसिंह अपने बाजू पर बनी निशानी दिखाते हुए - अगर मेरी बात पर विश्वास नहीं है तो जा औऱ जाकर अपनी माँ के दाए कूल्हे को देख.. ऐसी ही एक निशानी तुझे तेरी माँ के दाए कूल्हे पर भी दिखाई देगी जो मेरी हर बात सही सिद्ध कर देगी कि तेरी माँ मेरी रखैल है.. तुझे औऱ एक बात बताऊ? राजकुमारी को जयसिंह किस रास्ते से वापस जागीर ला रहा है ये गुप्त सुचना भी तेरी माँ ही मुझे देने आई थी.. औऱ जब आई थी तो सुचना के साथ अपना रूप औऱ जोबन भी देकर गई थी मुझे.. जिसके निशान उसकी छाती औऱ गले पर अब तक होंगे जा जाकर देख.. बदले में तुझे ज़िंदा छोड़ने वादा लिया था उसने मुझसे, इसिलए आज मेरे किसी आदमी ने तेरे ऊपर प्रहार नहीं किया.. राजकुमारी को किस गुप्त रास्ते से लाया जा रहा है.. तूने ही लीलावती को बताया था ना इस बारे में? लाल घाघरा चोली पहनी थी ना तेरी माँ ने उस दिन? अब भी कहेगा की मैं मनगढंत बात बना रहा हूँ? अरे तुझे तो उस रात से लेकर अब तक कई बार लीलावती मेरे हाथों मरने से बचा चुकी है.. कभी सोचा तूने कि मेरे इतने साथी मारे पर मैं कभी तुझे मारने क्यों नहीं आया? क्युकी तेरे अंदर मेरा भी खून है औऱ मैंने लीलावती से वादा किया तुझे ना मारने का..
समर का मन उथल पुथल था - गजसिंह.. अगर तेरी बातें सच हुई तो भी क्या मैं तुझे यहाँ से जीवित जाने दूंगा?
गजसिंह - मुझे मारकर तुझे कुछ हांसिल नहीं होने वाला समर.. वीरेंद्र सिंह पूछेगा भी नहीं तुझे.. उसके लिए तू बस एक प्यादा है जिसके होने या ना होने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता.. मेरी बात मान जा समर.. मुझे रुक्मा का हरण करने दे.. मैं वीरेंद्र सिंह को जागीरदारी से हटाकर खुद जागीरदारी संभाल लूंगा औऱ फिर तुझे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दूंगा.. तू जानता मेरा कोई उत्तराधिकारी नहीं है..
समर आगे बढ़ते हुए - बात अगर वीरेंद्र सिंह की होती तो शायद में अपना मन बदलने के बारे में सोचता.. मगर गजसिंह तूने ये कैसे सोच लिया कि मैं तुझे राजकुमारी रुक्मा का हरण करने दूंगा..
इतना कहकर समर ने गजसिंह का सर अपनी तलवार से काट दिया औऱ गजसिंह का सर लेकर वापस उसी जगह आ गया जहा गजसिंह औऱ जयसिंह के बीच लड़ाई हुई थी..
समर जब वापस आया तो उसने देखा कि जयसिंह पत्थर का सहारा लेकर बैठा हुआ है औऱ रुक्मा औऱ उसकी दासिया जयसिंह के जख्मो पर कपड़ा बाँध रही है..
समर ने गजसिंह का सर एक कपडे में लपेटकर घोड़ागाड़ी पर लटका लिया औऱ जयसिंह को घोड़ागाड़ी पर लादकर राजकुमारी रुक्मा औऱ उसकी दासियों से वापस घोड़ागाड़ी में बैठने को कहा.. फिर खुद उस घोड़ागाडी को चलाकर जागीर की सीमा पर तैनात सिपाहीयों तक ले आया.. जहा समर ने तैनात सैनिको को सुबह हुई लड़ाई के बारे में बताया औऱ जयसिंह के प्राथमिक उपचार का कार्य किया.. औऱ कुछ सैनिको को वहा जाकर पड़ी हुई लाशों को लाने का कहा औऱ स्वम राजकुमारी रुक्मा औऱ उसकी दासियो को लेकर सीमा पर तैनात कुछ सैनिको को साथ लेकर सांझ होने तक महल आ पंहुचा..
महल पहुंचने पर वहा के सैनिको ने जयसिंह को घोड़ागाड़ी से उतरा औऱ वैध के पास ले गए.. रुक्मा समर को मुस्कुराते हुए एक नज़र देखकर महल में चली गई औऱ बाकी सैनिक वापस सीमा की तरफ चले गए..
समर घोड़ागाड़ी महल में छोड़कर गजसिंह का सर लेकर महल से चला गया.. उसने किसी से भी कर्मा औऱ गजसिंह की मौत की बात नहीं की थी.. वीरेंद्र सिंह को जब इसका पता चला तो वो क्रोध में आग बबूला हो गया औऱ अपने सैनिको से हर जगह गजसिंह औऱ डाकुओ के मुखिया कर्मा को ढूंढने औऱ उसके ठिकानो का पता लगाने का आदेश सुना दिया वही खुद भी इस काम को करने के लिए महल से निकलने लगा पर सुजाता के समझाने पर रुक गया..
रानी सा.. आपने बुलाया?
हाँ.. जयसिंह ज़ी.. गढ़ पर जाने की तैयारी कीजिये.. रुक्मा (18) की सखी कुशाला का विवाह सकुशल संपन्न हो चूका है.. तीन दिवस के भीतर ही कुशाला की विदाई भी हो जावेगी.. अब गढ़ से रुक्मा को लिवाने के लिए प्रस्थान करना उचित होगा..
जयसिंह - किन्तु रानी सा.. हुकुम का आदेश है कोई भी सैनिक जागीर छोड़कर कहीं नहीं जाए.. औऱ आप तो भली भाति जानती है आज कल खतरा कितना बढ़ चूका है? कल ही जागीर कि सीमा में पड़ने वाले तीन गाँव में हुकुम के छोटे भाई गजसिंह ने बागियों औऱ डाकुओ के साथ मिलकर लूट की है.. ऐसे में महल छोड़कर गढ़ जाना वो भी हुकुम के आदेश की अवहेलना करते हुए.. माफ़ कीजिये रानी सा.. मैं ऐसा कदापि नहीं कर सकता..
सुजाता उर्फ़ रानी माँ (44)
सुजाता (44)- जयसिंह ज़ी.. आप हुकुम के आदेश की चिंता मत कीजिये.. मैंने उनसे बात कर ली है औऱ उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी है.. कल प्रातः आप कुम्भसिंह को साथ लेकर गढ़ के लिए निकल जाए..
जयसिंह - रानी सा.. कुम्भसिंह कि यहां ज्यादा आवश्यकता है.. हुकुम की सुरक्षा औऱ महल की रखवाली कुम्भसिंह की ही जिम्मेदारी है.. मैं किसी औऱ सैनिक को अपने साथ ले जाऊँगा..
सुजाता - ठीक है जयसिंह ज़ी.. आप समर को भी अपने साथ ले जाइये.. वैसे भी उस जैसे कुशल योद्धा को महल के जनाना हिस्से की रक्षा मात्र तक सिमित रखना सही नहीं है..
जयसिंह - जैसी आपकी इच्छा रानी सा.. अनुभव में भले ही समर कुम्भसिंह से कमतर हो किन्तु युद्ध कौशल में समर बेजोड़ है.. मैं कल सुबह सूरज की पहली किरण निकलने से साथ गढ़ के लिए प्रस्थान कर दूंगा औऱ कुमारी रुक्मा को गढ़ से वापस महल ले आऊंगा..
सुजाता - सावधान रहिएगा जयसिंह ज़ी.. गजसिंह कपटी औऱ धूर्त है...
जयसिंह - रानी सा.. आप निश्चिन्त रहिये.. मैं राजकुमारी को पहाड़ी की तल्हाटी से गुजरे वाले गुप्त रास्ते से शीघ्र ही वापस ले लाऊंगा..
समर पास ही खड़ा हुआ जयसिंह औऱ सुजाता की बात सुन रहा था..
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लता उर्फ़ लीलावती (40)
इतनी सुबह कहां निकालना है समर?
माँ.. रानी मां का आदेश है आज जयसिंह ज़ी के साथ गढ़ प्रस्थान करना है राजकुमारी रुकमा को गढ़ से वापस लीवाना है..
लता (40) - पर उसके लिए तो सकुशल योद्धा और अनुभवी योद्धाओं की अलग टुकड़ी जाती है रानी ने तुझे क्यों इस काम के लिए नियुक्त किया है..
समर (20) - वो तो मुझे नहीं पता माँ... आप तो जानती हैं रानी मां ने जागीरदार के हाथों मुझे मरने से बचाया है, उनका कहा तो मानना ही पड़ेगा..
लता - तेरी बात बिल्कुल सही है समर, पर महल से गढ़ और गढ़ से वापस महल आने में बहुत खतरा है.. रामप्यारी बता रही थी कि अभी कुछ दिनों पहले ही उसके गांव में बागी औऱ डाकुओं ने लूट की है.. ऐसे में तेरा गढ़ जाना मुझे तो बहुत चिंता हो रही है..
समर - रामप्यारी जो कह रही थी वह सत्य है मां.. गजसिंह डाकुओं के साथ मिल चुका है और अब वही जागीर के गांव में लूटपाट मचा रहा है..
लता डर से काँपते हुए - गजसिंह?
समर अपनी माँ लता को बाहों में थामकर गले लगाते हुए - आप चिंता मत करो माँ.. मुझे कुछ नहीं होगा.. इस बार अगर गजसिंह सामने आया तो मैं उसका सर अपनी तलवार से काट लूंगा औऱ आपके सामने लाकर रख दूंगा.. वैसे भी जब तक मैं आपके अपमान का बदला और पिताजी की मौत का बदला नहीं ले लेता मुझे चैन नहीं मिलने वाला..
लता - समर तू ऐसा कुछ नहीं करेगा.. तु मुझसे वादा कर कि तू गजसिंह और उसके साथियों से दूर रहेगा और अपना बदला लेने का संकल्प मन से निकाल देगा.. जो कुछ हुआ उसे भूल जायेगा औऱ कभी उस गजसिंह औऱ उसके साथियो के पास नहीं जाएगा..
समर - जो कुछ हुआ उसे आप भूल सकती है माँ.. मगर मैं उसे नहीं भूल सकता.. मुझे आज भी याद है जब उस रात जगसिंह ने मुझे बाहर बाँध कर यहां भीतर आपके साथ गलत काम किया था.. वह सब आज भी मेरी आंखों के सामने घूमता है माँ.. मैं आज भी रातों में उस पापी को याद करके चैन से सो नहीं पाता और हर बार यही सोचता हूं कि कैसे मैं उससे आपके अपमान का और पिताजी की मौत का बदला लूंगा..
लता - मैं तेरे पिताजी को खो चुकी हूं समर.. अब मैं तुझे नहीं खोना चाहती.. गजसिंह बहुत खतरनाक है और अब तो उसके साथ सुना है डाकुओं की टोली भी जुड़ गई है.. उसकी ताकत बढ़ती जा रही है ऐसे में तू अगर उसके पास जाएगा तो निश्चित ही वह तुझे मार डालेगा.. मैं तुझे नहीं खोना चाहती तुम मुझसे वादा कर कि तू ऐसा कुछ नहीं करेगा.. राजकुमारी को लिवाने के बाद तू सीधा वापस आएगा.. गजसिंह से बदला लेने का संकल्प त्याग देगा..
समर - कैसे मैं अपना संकल्प त्याग दूंगा माँ.. उस रात मेरे हाथ पांव रस्सीयो से बांधकर उसने इसी कमरे में आपको निर्वस्त्र किया था औऱ इसी जगह आपके साथ गलत काम किया था.. मैं कितना चीख और चिल्ला रहा था और उस दानव से आपको छोड़ने की कितनी विनती कर रहा था मगर मेरे आंसू औऱ चीख पुकार का उसपर कोई असर नहीं हुआ.. मैं उसे नहीं छोड़ने वाला माँ.. उसके कई लोगों को मैंने मौत के घाट उतारा है उसी तरह उसे भी उतार दूंगा..
लता समर के चेहरे को अपने हाथो से पकड़कर - उस बात को 4 साल हो चुके हैं बेटा.. वह सब बातें अपने मन से निकाल दे.. आगे दुश्मनी रखने से किसी का भला नहीं होगा.. तेरे पिता ने गजसिंह से दुश्मनी की उसके कारण ही हमें वो सब झेलना पड़ा.. अब तू इसे आगे मत बढ़ा..
समर - धोखे से पिताजी को मारकर और मेरे सामने आपका मान सम्मान सब कुछ उतार कर, आपके साथ जबरन अपनी हवस मिटाकर वो गजसिंह अब तक बेखौफ घूम रहा औऱ आप कह रही है मैं अपना बदला भूल जाऊ? यह नहीं हो सकता माँ.. मैं अपने साथ हुई हर चीज भूल सकता हूं मगर आपके साथ और पिताजी के साथ गजसिंह ने जो किया उसे नहीं भूल सकता..
लता - तेरे सिवा मेरा है ही कौन जिसे मैं यह बात समझाऊं.. कई बार सबकुछ भूल जाने में ही सबकी भलाई होती है बेटा.. छोड़ दे ये हठ.. तू साधारण रास्ते से जाएगा औऱ वहा गजसिंह औऱ उसके साथी डाकुओ के साथ मिलके तुम पर हमला कर देंगे.. मेरा क्या होगा..
समर - मैंने आपका दूध पिया है माँ और आपके दूध का ऋण मैं जरूर चुका के रहूँगा.. मैं सब कुछ भूल जाने का वादा तो नहीं करता.. मगर यह वादा जरूर करता हूँ कि मैं गजसिंह का सर आपके कदमो में लाकर जरूर रख दूंगा.. हम साधारण रास्ते से जाएंगे जरूर पर आना हमारा गुप्त रास्ते से होगा.. जो पहाड़ की तल्हाटी से गुजरता है.. जाने की आज्ञा दीजिये..
समर ये कहते हुए लता के पैरों में झुक गया औऱ अपना सर लेता के पैरों में रखकर आशीर्वाद लेने लगा..
लता समर को उठाकर अपनी छाती से लगा लेती है औऱ कहती है - जल्द लौटना बेटा.. मैं तेरी प्रतीक्षा करुँगी..
समर अपनी मां से आशीर्वाद लेकर वहां से चला जाता है और जयसिंह के साथ राजकुमारी रुकमा को लीवाने के लिए गढ़ की और प्रस्थान करता है..
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रुक्मा उर्फ़ राजकुमारी (18) सुजाता औऱ वीरेंद्र की बेटी how far is heaven lyrics
अरे अरे ऐसे क्यों चेहरा उदास किया है मेरी सखी ने? अब तो सब तुम्हे राजकुमारी नहीं, रानी कहकर पुकारेंगे.. अजमेर से भी बड़ी रियासत में विवाह हुआ है तुम्हारा.. सुना बहुत सुन्दर स्थान है जहा तुम जाने वाली हो..
क्या तुम भी सबकी तरह मुझे छेड़ने लगी.. रुक्मा.. अब क्या विदाई से पहले के कुछ मैं अपने अतीत के उन लुभावने पलों को याद भी नहीं कर सकती जिन्हे मैंने यहां बिताये है? मैं उदास नहीं हूँ रुक्मा बस निराश हूँ कि आगे का जीवन मैं यहां से कहीं दूर बताने वाली हूँ..
रुक्मा (18) - विवाह का नियम तो औरत के त्याग का परिचायक है कुशाला.. हर औरत को इस डगर से निकलना पड़ता है.. माँ कहती है कि औरत का मन औऱ ह्रदय धरती की तरह शांत औऱ सहनशील होता है अहिंसा, स्नेह, बलिदान, सहजता औऱ संवेदना ही औरत को औरत बनाती है.. काम, क्रोध, क्रूरता, कपट, हिंसा औऱ असंवेदना पुरुषो में होती है.. औरत का उससे कोई नाता नहीं.. तुम जल्द ही नए बदलाव में ढल जाओगी औऱ अब की बातें तब तुम्हे हसने वाली प्रतीत होगी.
कुशाला (19) - तुम तो बड़ी सयानी बात करने लगी हो रुक्मा.. पता ही नहीं चला हम कब छोटे से बड़े हो गए..
रुक्मा - कुशाला अब उठो औऱ चलो विदाई का समय हुआ जा रहा है..
कुशाला - विदाई तो आज तुम्हारी भी है रुक्मा..
रुक्मा - मैं समझी नहीं कुशाला..
कुशाला - माँ ने बताया है कि तुम्हे लिवाने के लिए जागीर से जयसिंह काका आये है..
रुक्मा - इसका अर्थ है कि आज आप यहां से अपने ससुराल जायेंगी औऱ मैं वापस अपने माता पिता के पास..
कुशाला - सही कहा सखी..
रुक्मा कुशाला से गले मिलते हुए - जीवन के ये अठरा वर्ष जो हमने हंस खेलकर एकदूसरे से रूठकर औऱ एकदूसरे को मनाकर बिताये है वो हमेशा याद रहेंगे सखी..
कुशाला - सही कह रही हो सखी.. किन्तु मैं खत लिखूँगी.. औऱ अगली बार जब हम मिलेंगे तब मेरे हाथों कि मेहंदी तुम्हारे हाथों में होनी चाहिए.. मैं भी अब तुम्हारे विवाह मैं तुमसे मिलूंगी..
रुक्मा औऱ कुशाला दोनों सखियों की आँखों में आंसू थे औऱ दोनों ने एक दूसरे को अपनी बाहों में कसके पकड़ा हुआ था जो ये बता रहा कि जैसे दोनों को ही अब ये चिंता हो की आगे वो अब कहा औऱ कैसे मिलेंगे.. मिल भी पाएंगे या नहीं.. नियति ने आगे उनके लिए क्या तय किया है.. दोनों की विदाई आज तय थी औऱ दोनों ही इस जगह को नहीं छोड़ना चाहती थी ना ही एकदूसरे को नहीं छोड़ना चाहती थी.. मगर जो होना है सो होकर ही रहता है.. कुशाला बरात के संग अपने ससुराल तो रुक्मा जयसिंह के साथ जागीर की तरफ जाने के लिए मुड़ गई..
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गढ़ से जागीर तक वापसी का दो दिन का ये सफर शुरू हो चूका था औऱ रुक्मा घोड़ागाडी मैं बैठी हुई अपनी सखी कुशाला को याद कर रही थी औऱ उसके साथ बिताये उन पलों को याद कर रही थी जिसमे दोनों बचपन से खेलकर बड़ी हुई थी.. दो दिनो के सफर में आधे दिन का सफर ख़त्म हो चूका था औऱ रास्ते में एक बड़े से बड़ के पेड़ के नीचे जयसिंह ने कुछ देर घोड़ो को सुस्ताने के लिए अपना काफ़िला रोका औऱ रुक्मा को इसकी खबर करके खुद भी पेड़ के नीचे बैठकर साथ लाया हुआ भोजन खाने लगा.
सभी लोग खाना खाने में व्यस्त थे पर समर का ध्यान खाने में नहीं था वो कई दिनों से बस उस परछाई के बारे में ही सोच रहा था जिसे उसने बैरागी से निकलते औऱ उसीमें लीन होते देखा था..
रुक्मा घोड़ा गाडी से नीचे उतर चुकी थी औऱ अपने साथ अपनी दासीयों को लेकर बड़ के पेड़ के पीछे जाकर थोड़ा ठहलने लगी. रुक्मा जयसिंह की आँखों के सामने ही थी इसलिए उसने रुक्मा को वहा टहलने से नहीं रोका औऱ खाना खाते हुए अपने बाकी सैनिको के साथ बात करने लगा.. समर आधा अधूरा खाने के बाद उठ गया था औऱ उसने अपने हाथ पानी से धोकर वापस अपनी तलवार हाथ में पकड़ ली थी औऱ वही पर इधर उधर मंडराने लगा था..
रुक्मा औऱ उसकी दासिया हंस बोल कर इधरउधर टहल रहे थे की उन्हें सामने से खूंखार भेड़िया भागता हुआ उन्ही की तरफ आता हुआ दिखाई दिया औऱ एक साथ रुक्मा औऱ उसकी दासिया चिल्लाते हुए वापस बड़ के पड़ की तरफ भागने लगी. जयसिंह औऱ बाकी सैनिक उठकर अपनी अपनी तलवार संभालते हुए रुक्मा की तरफ दौड़े लेकिन वो लोग बहुत दूर थे.. भेड़िया रुक्मा औऱ उसकी दासियों पर झपटा मारने ही वाला था कि समर ने वहा आकर एन मोके पर अपनी तलवार के एक वार से उस भेड़िये के दो टुकड़े कर दिए औऱ भेड़िये को मार डाला..
जयसिंह ने समर को ऐसा करते देखकर अपनी सांस में सांस ली औऱ रुक्मा को वापस घोड़ा गाडी में बैठाकर आगे का रास्ता शुरू कर दिया..
रुक्मा औऱ उसकी दासिया इस हादसे से कुछ देर के लिए सहम गई थी मगर समर की बहादुरी औऱ उसके रूप पर मोहित होकर रुक्मा ने समर को उसी वक़्त अपने ह्रदय में प्रेमी का स्थान दे दिया था.. घोड़ागाडी मैं बैठी रुक्मा दासीयों से बात करने लगी थी औऱ उससे समर के बारे में पूछने लगी थी..
रुक्मा - ये क्या कह रही हो सुधा? मैं तो बस यूँही पूछ रही थी..
सुधा(दासी 21) - मैंने कई साल आपके साथ बिताये है राजकुमारी.. मैं आपका मन अच्छे से पढ़ सकती हूँ.. जिस पल उस योद्धा ने आपकी औऱ हम दोनों बहिनों की जान बच्चाई उसी वक़्त आपने उस योद्धा को अपने मन में उतार लिया था.. क्यों लीला..
लीला (दासी 22) - सही कहा सुधा.. राजकुमारी को जब से उस योद्धा ने भेड़िये के वार से बचाया है राजकुमारी की आँखे बस उसी योद्धा पर टिकी है.. मगर याद रहे राजकुमारी.. आप जागीरदार की पुत्री हो एक साधारण योद्धा से प्रेम करना आपके लिए उचित नहीं.. आपके प्रेम को जागीरदार कभी स्वीकृति नहीं देंगे..
रुक्मा - तुम दोनों क्या बेतुकी बातें कर रही हो.. ऐसा कुछ नहीं है.. मैंने बस ऐसे ही उसका नाम पूछा था.. नहीं बताना तो मत बताओ..
सुधा - राजकुमारी हमें भी उतना ही पता है उस योद्धा के बारे में जितना आप जानती हो.. मगर आप निश्चिन्त रहिये आगे जैसे ही गढ़ की सीमा पर कुए से पानी लेने के लिए कुछ देर हम रुकेंगे मैं उस योद्धा के बारे में सब सुचना जुटा कर ले आउंगी..
रुक्मा मुस्कुराती हुई परदे से बाहर समर को देखने लगती है जो आगे घोड़े पर सवार था..
गढ़ की सीमा पर से काफिला औऱ घोड़ा गाडी रुकी और पानी लेने के लिए कुछ लोग कुए की बढे.. सुधा घोड़ागाडी से उतर गई औऱ एक सैनिक के पास जाकर कुछ देर बात करके वापस आ गई सभी लोग वापस आगे के लिए बढ़ने लगे..
रुक्मा - कुछ पता चला सुधा?
लीला - देखा सुधा.. कुछ समय पहले तक तो राजकुमारी कह रही थी कि ऐसा कुछ नहीं है मगर अब कितनी उत्सुकता से उस योद्धा के बारे में जानने के लिए लालायित है.. इसे अब प्रेम ना कहा जाए तो क्या कह कर पुकारा जाए?
सुधा मुस्कुराते हुए - अब जान बचाने वाले के बारे में जानना प्रेम थोड़े हुआ लीला.. राजकुमारी ज़ी तो बस यूँही उस योद्धा के बारे में जानना चाहती है.. उस योद्धा से प्रेम थोड़ी हुआ है राजकुमारी ज़ी को.. सही कहा ना राजकुमारी ज़ी.
रुक्मा - मैं अच्छे से समझ रही हूँ जो खेल तुम दोनों बहिने मिलकर मेरे साथ खेल रही हो.. लौटने दो वापस पिताज़ी से कहकर खूब खबर लुंगी तुम्हारी..
सुधा औऱ लीला - अरे नहीं नहीं.. राजकुमारी..
लीला - राजकुमारी हम तो बस यूँही हंसी ठिठोली कर रहे थे आपके साथ..
सुधा - ज़ी राजकुमारी.. आप पूछिए जो आपको पूछना है.. मैंने सबकुछ पता लगा लिया है उस योद्धा के बारे में..
रुक्मा जिज्ञासा से - तो बताओ जो पूछा था मैंने.. नाम?
सुधा - समर सिंह.
रुक्मा - समर... रुक्मा सुधा को अधीरता से देखती हुई.. औऱ?
सुधा - कुछ दिनों पहले तक कोषागृह का पहरेदार था.. हुकुम के मेहमान का अपमान किया था.. हुकुम ने मौत का फरमान सुनाया था औऱ उस मेहमान से समर को मारकर अपने अपमान का प्रतिशोध लेने को कहा मगर मेहमान की दया औऱ रानी की कृपा से बच गया.. रानी ने जनाना महल का पहरेदार बनाया था मगर इस बार जयसिंह के साथ आपको लिवाने भेज दिया..
रुक्मा - घर-परिवार के बारे में?
सुधा - राजकुमारी ज़ी.. पिता भी राजाजी की सेना में थे मगर उस गजसिंह औऱ उसके साथियो ने धुपसिंह को मार डाला.. घर में बस उसकी माँ है.. एकलौता है.. औऱ कोई नहीं.. मगर एक भ्रान्ति है, पता नहीं इसमें कितना सच है औऱ कितना झूठ.
रुक्मा - कैसी भ्रान्ति?
सुधा - भ्रान्ति ये है राजकुमारी ज़ी कि समर के जन्म के वक़्त लल्ली ताई औऱ शान्ति धुपसिंह के घर पहुंची थी मगर उसके कुछ देर बाद शान्ति अकेले किसी बच्चे को लेकर जंगल की औऱ जाती हुई गाँव के एक बुजुर्ग को दिखाई दी थी.. लोग कहते थे वो बुढ़ा मंदबुद्धि था.. मगर वो बुढ़ा कहता था की उसने सच में शांति को बच्चा लेकर जंगल में जाते हुए देखा था औऱ उस दिन लता ने एक नहीं बल्कि दो बच्चों को जन्म दिया था.. कुछ सालों बाद वो मर गया, उसके कुछ सालों बाद लल्ली ताई भी चल बसी.. अब सिर्फ शान्ति बच्ची है जो बूढ़े को मंदिबुद्धि कहकर ही इस भ्रान्ति को खारिज कर देती है..
रुक्मा - समर इस बारे में क्या कहता है..
सुधा - उसे तो फर्क ही नहीं पड़ता राजकुमारी ज़ी.. वो शान्ति की बात को सही मानकर उस बूढ़े को गलत समझता है...
लीला - रात होने वाली है राजकुमार ज़ी.. लगता है जयसिंह ज़ी ने चाल धीरे करने को कहा है.. आसपास ही अब रात के विश्राम हेतु रुका जाएगा..
रुक्मा - तुमने सही कहा लीला..
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समर से राजकुमारी रुकमा को वापस लीवाने की सूचना पाकर लता घर से निकल पड़ती है और जंगल के छोटे-मोटे रास्तों से होती हुई एक सुनसान जगह पहुंचती है जहां कई लोगों ने डेरा डाला हुआ था..
लता उसके पास पहुंचकर पहरेदारी कर रहे एक आदमी से कहती है..
लेता - सरदार से मिलना है.. औऱ इतना कहकर लता अपने घाघरे को ऊंचा करके अपनी गांड पर एक निशान पहरेदार को दिखाती है..
पहरेदार लता की गांड पर निशान देखकर उसे अपने पीछे पीछे एक गुफा की तरफ ले आता है औऱ बाहर खड़ा होकर कहता है..
पहरेदार - सरदार.. आपकी एक रखैल आपसे मिलने आई है..
गुफा के अंदर गजसिंह किसी वैश्या से अपना लोडा चुसवा रहा था.. औऱ लोडा चुसवाते चुसवाते ही गजसिंह ने पहरेदार से रखैल को अंदर भेजने को कहा..
लेता पर्दा हटाकर गुफा में आगई औऱ वापस पर्दा लगाकर गजसिंह के सामने खड़ी होकर अपने हाथ जोड़कर गजसिंह से बोली..
लता - छोटे हुकुम..
गजसिंह ने अपना लंड चूस रही लड़की को वहा से जाने का इशारा किया औऱ लता से करीब आने का इशारा किया.. लता गजसिंह का इशारा समझ कर उसके करीब आ गयी औऱ उसी जगह बैठ गई जहा लड़की बैठी थी..
गजसिंह अपने करीब रखे मदिरा के प्याले को उठाकर मदिरा पीते हुए - क्या बात है लीलावती.. तू अपने छोटे हुकुम को भूल ही गई.. कितने समय बाद आई है..
लता उर्फ़ लीलावती - आपको कैसे भूल सकती हूँ छोटे हुकुम.. आपने ही तो इस वैश्या को वैश्यालय से निकालकर अपने साथ रखा है.. मेरा नाम लीलावती से लता करके मेरा विवाह धुपसिंह से करवाया ताकि मैं आपको जागीर से जुडी हुई गुप्त सुचना दे सकूँ औऱ आप अपने भाई वीरेंद्र सिंह को हराकर जागीरदार बन सके.. मेरी जैसी कितनी वैश्या को आपने नई जिंदगी दी है छोटे हुकुम.. ये कहकर लता गजसिंह का लोडा मुंह में भरके चूसने लगती है..
गजसिंह बाल पकड़ कर लंड चुसवाते हुए - समर का क्रोध शांत किया तूने या नहीं.. पिछली बार भी मेरे 4 साथियो को उसने मौत के घाट उतार दिया.. सिर्फ तेरे कहने पर मैंने उसे अब तक जीवित छोड़ा है..
लता मुंह से लंड निकालकर - उसकी रगो में आपका ही खून है छोटे हुकुम.. इतनी आसानी से कैसे ठंडा हो जाएगा.. अब तक उस रात जो हुआ उसे याद करके क्रोध से भर जाता है.. मैंने आपसे कहा था छोटे हुकुम मैं आपके पास जंगल में आ जाउंगी आप यहां कुछमत कीजिये.. मगर आप धुपसिंह से इतने क्रोधित थे कि आपने तो समर के सामने मेरे ही ऊपर चढ़ाई करके मेरे साथ अपनी हवस मिटाइ.. बेचारा अपनी माँ के साथ जो कुछ हुआ उसे नहीं भूल पाया है..
गजसिंह - धुपसिंह ने आखिरी मोके पर मुझे वीरेंद्र को मारकर जागीरदार बनने से रोक दिया था लीलावती.. मैं उस आग में जल रहा था.. मुझे औऱ कुछ नहीं सूझ रहा था.. मैं अपने हाथों से धुपसिंह को मारना चाहता था.. मगर तूने मुझसे वो मौका भी छीन लिया..
लता - मैं क्या करती छोटे हुकुम.. धुप सिंह को मेरे बारे में सब सच पता चल गया था औऱ वो मुझे मारने के लिए हाथों में तलवार उठाने ही वाला था.. मैं अगर उस कटार से धुपसिंह को नहीं मारती तो वो मुझे मार देता.. फिर मैं आपके किसी काम की नहीं रहती.. ना ही आपको कोई औऱ सुचना दे पाती..
गजसिंह लता के बाल पकड़कर - तो बता लीलावती.. इस बार क्या गुप्त सुचना लेकर आई है तू? या फिर इस बार भी मेरे साथ बस रात बिताकर मुझे खुश करने के लिए आई है?
लता मुस्कुराते हुए - सुचना तो बहुत गुप्त है छोटे हुकुम.. मगर पहले आपको मुझसे एक वादा करना होगा..
गजसिंह - केसा वादा लीलावती..
लता (लीलावती) - आप समर को कुछ नहीं करेंगे.. औऱ उसके प्राण बक्श देंगे..
गजसिंह - ये वादा मैंने पहले भी तुझसे किया है औऱ वापस करता हूँ लीलावती.. तू जानती है गजसिंह अपने वादे का कितना पक्का है.. अब बता क्या गुप्त सुचना है..
लता (लीलावती) - जागीरदार ने राजकुमारी रुक्मा को गढ़ से लिवाने के लिए एक 40 सैनिको की टुकड़ी भेजी है..
जागीरदार - इतना तो मुझे मेरा पहरेदार भी बता सकता है लीलावती.. कुछ औऱ बताना हो तो कहो..
लता (लीलावती) - मगर हर बार आप नाकाम रहे है छोटे हुकुम.. इस बार मुझे उनके वापसी के रास्ते का भी पता है..
गजसिंह - इतनी गोपनीय सुचना तुझे कैसे मिली लीलावती..
लता (लीलावती) - छोटे हुकुम.. समर ने जाने से पहले मुझसे बात कर रहा था.. मैंने बातों बातों में उससे ये सुचना उगलवा ली.. वो लोग वापसी में पहाड़ी की तल्हाटी वाले रास्ते से आएंगे.. छोटे हुकुम आप राजकुमारी को वहा से अगुवा कर वीरेंद्र सिंह से जागीरदारी छीन सकते है.. राजकुमारी को अगुवा कर आप सभी सैनिको को ख़त्म कर सकते है किन्तु समर को जीवित जाने देंगे..
गजसिंह लता के चुचे पकड़कर अपनी तरफ खींचते हुए - वाह.. लीलावती आज तूने सिद्ध कर दिया कि तू मेरी असली रखैल है.. जब मैं जागीरदार बन जाऊँगा तब तुझे महल में साथ रखूँगा..
लता - आराम से छोटे हुकुम.. चोली फट जायेगी..
गजसिंह चोली फाड़कर उसका घाघरा खोल देता है औऱ लता को नंगा करके अपने नीचे लेटा कर उसकी चुत में अपना लोडा डालकर लता को चोदने लगता है..
गजसिंह - लीलावती तेरी योनि तो आज बहुत मज़ा दे रही है मुझे..
लता (लीलावती) - छोटे हुकुम.. आठ माह हो गया.. पिछली बार भी आपने ही मुझे अपने नीचे लेटाया था.. तब से अब तक किसीने मेरे साथ कुछ नहीं किया..
गजसिंह लता को पीठ के बल लेटाते हुए - लीलावती तू अब वैश्या नहीं लगती.. ऐसा लगता है सच में किसी घर कि घरेलु औरत है..
लता (लीलावती) - ये आपका बड़प्पन है छोटे हुकुम.. मुझे वैश्या को इतना सम्मान देने के लिए..
गजसिंह पैर फैलाकर लता को चोदते हुए - समर को समझा लीलावती.. अपनी हठ छोड़ दे.. मैं बार बार उसके प्राण नहीं बक्शऊँगा.. उसने अब तक मेरे 26 आदमी मार दिए औऱ मैं बस तेरे कारण हर बार उसे माफ़ कर देता हूँ..
लता (लीलावती) - छोटे हुकुम.. समर मुझ वैश्या की कोख से पैदा हुआ है तो क्या हुआ.. है तो आपका अपना खून.. आपने एक बेटे के सामने उसकी माँ का चीरहरण किया था.. वो कैसे ये सब भूल जाएगा.. पर छोटे हुकुम मैं आपसे वादा करती हूँ.. मैं जल्द ही समर को लेके यहां से दूर चली जाउंगी.. औऱ जब आप जागीरदार बन जाएंगे तब समर को किसी भी तरह समझाकर मना लुंगी..
गजसिंह लता को घोड़ी बनाकर चोदता हुआ - ठीक है लीलावती.. इस बार मैं नहीं चुकने वाला.. वीरेंद्र से जागीरदारी छीनकर ही रहूँगा..
गजसिंह लता को चोदकर उसकी चुत से लोडा निकालकर उसके बदन पर अपना माल झाड़ते हुए गुफा से बाहर आ गया औऱ लता अपनी फ़टी हुई चोली औऱ घाघरा पहन कर रात के अँधेरे में छुपते छुपाते अपने घर वापस आ गई..
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वीरेंद्र सिंह - आओ बैरागी.. इतनी सुबह बुलवा लिया तुम्हे.. तुम्हारी नींद में विघ्न पड़ा होगा..
बैरागी - मुझे रातों में नींद नहीं आती हुकुम.. मैं तो बस अपने प्रियतम से ही बात करके अपनी राते गुज़ारता हूँ.. कहिये आपने जिस उद्देश्य से मुझे बुलवाया है उसका क्या प्रयोजन है? मैं आपके क्या काम आ सकता हूँ?
वीरेंद्र सिंह - तुम अच्छे से जानते हो बैरागी मैं तुमसे क्या चाहता हूँ.. फिर भी तुम मुझसे पूछ रहे हो तो मैं वापस तुम्हे बता दू.. मेरे डर औऱ चिंता को दूर करो बैरागी..
बैरागी - मैंने आपसे पहले भी कहा था हुकुम.. आपका डर केवल आपके मन की उपज मात्र है जिसे आप स्वम ही ठीक जर सकते है..
वीरेंद्र सिंह - अगर मेरे बस में होता तो मैं कई सालों से इस तरह बावरा बनकर अपना उपचार नहीं कर रहा होता बैरागी.. तुम कोई ना कोई उपाय तो जरूर जानते होंगे.. मुझे तुम्हारी क़ाबिलियत का अनुमान है.. तुम बस मुझे मेरा उपचार बताना नहीं चाहते..
बैरागी - ऐसा नहीं है हुकुम.. प्रकृति ने सब बहुत सोच समझ कर बनाया है.. उसके नियम हमारे नियमो से बहुत ऊपर है.. उसके साथ हेरफेर करना प्रकृति की संरचना को ललकारने जैसा है.. इसमें किसी का हित नहीं है हुकुम..
वीरेंद्र सिंह - बैरागी मुझे उपदेश नहीं उपचार चाहिए.. मैं तुम्हे जो भी चाहिए दे सकता हूँ.. हर वो पौधा जो इस जमीन पर वरदान बनकर उगा है, भले ही किसी किस्म का हो मेरे पास उपलब्ध है..
बैरागी - इस जमीन पर उगने वाली औषधि का समस्त भण्डार आपके पास होना.. ये तो बहुत विचित्र बात है हुकुम..
वीरेंद्र सिंह -चलो बैरागी मैं तुम्हे महल का वो हिस्सा दिखाता हूँ जो सिर्फ मेरे लिए ही सिमित है.. औऱ तुम्हारा संशय अभी दूर किये देता है..
बैरागी - अगर ऐसा है तो मैं भी आपके साथ उस हिस्से को देखने के लिए उत्सुक हूँ हुकुम..
वीरेंद्र सिंह बैरागी को अपने साथ महल के बीच एक हिस्से में ले आते है जहा किसी को आने की अनुमति नहीं थी औऱ एक बड़े से जमीनी हिस्से पर उगे हुए पौधे औऱ जड़ो को दिखाता हुआ बैरागी से कहता है..
वीरेंद्र सिंह - लो बैरागी.. देख लो अपनी आँखों से.. यहां 5 सो से ज्यादा अलग अलग किस्म के पौधे है जो किसी ना उपचार में काम आते है.. सबकी अपनी पहचान है.. मैं तो कुछ पौधों के बारे में ही जान पाया हूँ अभी तक..
बैरागी - राजा महाराजा जागीरदार ठिकानेदार सब धन दौलत सम्पति अर्जित करते है औऱ उन्हें पहरे में रखते है.. पर आपने तो इन पौधों को पहरे में रखा हुआ है..
वीरेंद्र सिंह - धन से ज्यादा जरुरी देह होती है बैरागी.. तुझे जिस किसी औषधि औऱ पौधे की जरुरत है तू यहां से ले जा सकता है मगर मेरा भय ख़त्म होने के पश्चात..
बैरागी - आपका भय मृत्यु से जन्मा है हुकुम...
वीरेंद्र सिंह - तो कुछ ऐसा प्रबंध कर कि मेरी मृत्यु कभी हो ही ना बैरागी..
बैरागी - धरती पर अमर तो ईश्वर भी नहीं रहे हुकुम.. उन्होंने भी प्रकृति के नियम नहीं बदले..
वीरेंद्र सिंह - जो ईश्वर नहीं कर पाए उसे मैं करना चाहता हूँ बैरागी.. मैं मरना नहीं चाहता.. हमेशा अमर रहना चाहता हूँ.. अगर तू मेरी मदद कर दे तो.. मैं इस जगह को तुझे सौंप दूंगा.. फिर तू इन पौधों औऱ औषधियौ से किसी भी उपचार की दवा बनाकर अपने उद्देश्य में सफलता पास सकता है..
बैरागी उस जगह उगे हुए पौधे औऱ औषधियों को देखकर - ठीक है हुकुम.. अगर आपकी यही शर्त है तो मुझे मंज़ूर है.. मैंने जो कुछ भी सीखा औऱ पाया है उससे मैं आपका ये भय दूर कर दूंगा..
वीरेंद्र सिंह मुस्कुराते हुए - अब तुमने मेरे ह्रदय को जितने वाले मधुर शब्द बोले है बैरागी.. आज से ये जगह तुम्हारी.. तुम्हे जो कुछ चाहिए पहरेदार लाकर देगा.. बस जल्दी से मुझे अमर कर दो..
बैरागी उस जगह पर घूमते हुए - सवान की पहली बारिश जब दूर पश्चिम की रेतीली जमीन पर गिरती है तो उस रेतीली जमीन से एक अलग किस्म की पिली खरपतवार निकलती है. जिसकी जड़ में सफ़ेद दानेदार बेल भी लगती है.. अगर वो बेल उगने के 3 दिवस में मुझे मिल जाए तो मैं आपको अपके जीवन से 11 गुनाह लम्बे समय तक जीवित रख सकता हूँ..
वीरेंद्र सिंह - सावन की पहली बारिश तो कभी भी बरस सकती है बैरागी.
बैरागी - फिर तो आपको देर नहीं करनी चाहिए हुकुम.. इस वक़्त पश्चिम के लिए किसी सैनिक को भेजना चाहिए..
वीरेंद्र सिंह उस जगह से बाहर जाते हुए - मैं अभी कुछ सैनिकों को इस काम के लिए भेजता हूँ वैरागी..
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कुछ देर बाद जागीर की सीमा पर पहुंचकर जयसिंह के इशारे पर सभी लोग पहाड़ी की तल्हाटी में एक समतल जगह देखकर घोड़ा गाडी औऱ बाकी की बैलगाड़ी रोक देते है औऱ घुड़सवार सैनिक भी घोड़े से नीचे उतर कर अपना घोड़ा खुटा गाड के बाँध देते है समर भी यही करता है.. सभी साथ लाये भोजन को ही खाने लगते है.. रुक्मा भी भोजन करने लगती है औऱ उसकी दोनों दासिया भी रुक्मा के कहने पर उसीके साथ बैठकर भोजन करती है..
खाना खाने के बाद लगभग आधे लोग पहरेदारी के लिए तैनात हो जाते है बाकी के आधे आराम करते है..
रात आधी बीत चुकी थी औऱ अब पहरेदार बदल चुके थे जो लोग अब तक आराम कर रहे थे वो लोग अब पहरेदारी करने लगे थे औऱ जो अब तक पहरेदारी कर रहे थे वो लोग आराम के लिए लेट गए थे..
समर खाना खाने के बाद लगातार एक पत्थर पर जलती हुई आग के सामने बैठकर किसी ख्याल में घूम था.. उसकी आँखों में नींद नहीं थी औऱ नींद तो रुक्मा की आँखों में भी नहीं थी.. रुक्मा अपना दिल समर पर हार चुकी थी.. रुक्मा ने दिन के हादसे के बाद से समर से अपनी नज़र नहीं हटाइ थी औऱ अब वो समर को ही देखे जा रही थी..
लाली औऱ सुधा दोनों को नींद आ चुकी थी.. आधी रात से ज्यादा का समय हो चूका था..
पहाड़ी के पीछे से गजसिंह डाकुओ के मुखिया कर्मा के साथ जयसिंह के इस काफ़िले को देख रहा था जो इस वक़्त रुका हुआ था..
कर्मा - अब किस बात की प्रतीक्षा सरदार.. मुट्ठी भर सैनिक ही तो है.. चलिए रोंध देते है इन सबको औऱ राजकुमारी का अपहरण कर लेते है.. उसके बाद तो वीरेंद्र सिंह अपने हथियार त्याग ही देगा..
गजसिंह - अभी नहीं कर्मा.. हमला सूरज की पहली किरण निकलने के साथ होगा.. इस अँधेरे में अगर कहीं रुक्मा को हानि होती है तो इस हमले का कोई मतलब नहीं रह जाएगा..
कर्मा - मगर सरदार सुबह की पहली किरण पर तो सभी सैनिक फिर से पहरे पर होंगे.. अभी आधे सैनिक नींद में है..
गजसिंह - तुझे कितने सैनिक दिखाई देते है कर्मा?
कर्मा - आग की रौशनी में देखने से लगता है लगभग 20 होंगे सरदार.. औऱ इतने ही सैनिक सोये हुए लगते है..
गजसिंह - तो क्या तुझे लगता है की हमारे 200 लोगो का मुकाबला ये 40 लोग कर सकते है?
कर्मा - वो बात नहीं है सरदार मुझे इस जयसिंह का डर है.. पिछली बार जब भिड़ंत हुई थी इसने अकेले ही मेरे बारह आदमियों को मार गिराया था.. बहुत सख्त जान है..
गजसिंह - इस जयसिंह का मुक़ाबला मुझसे होगा कर्मा.. मैं खुद जयसिंह को हराकर उसके अभिमान को परों से कुचल दूंगा.. तू अपने सभी आदमियों को समझा दे.. राजकुमारी रुक्मा औऱ उस आग के पास बैठे योद्धा समर को एक भी खरोच नही आनी चाहिए..
कर्मा - उस योद्धा को क्यों सरदार..
गजसिंह - कर्मा अभी ये तेरे जानने का समय नहीं है.. तू बस तेरे हर आदमी को ये समझा दे.. उन दोनों में से किसी को भी कुछ नहीं होना चाहिए.. औऱ सब सूरज की पहली किरण पर मेरे इशारे पर एक साथ हमला करेंगे..
कर्मा - जैसा आप कहे सरदार..
गजसिंह ने अपने बागियो औऱ कर्मा ने अपनी डाकुओ से राजकुमारी रुक्मा औऱ समर को छोड़कर सभी को जान से मार डालने का आदेश सुना दिया औऱ हमले के लिए त्यार रहने को कहा..
भोर होने में बहुत थोड़ा समय था गजसिंह का हमला होने वाला था.. समर आँख कुछ पल के लिए लगी थी जो अपने आसपास किसी के होने की आहट पाकर खुल गई थी.. समर ने देखा की राजकुमारी रुक्मा उसके समीप खड़ी हुई उसे देख रही थी..
समर झट से उठकर सर झुकाते हुए - राजकुमारी..
रुक्मा - बहुत कच्ची नींद है तुम्हारी.. राजकुमार.. रातभर इस पत्थर पर बैठकर पहरेदारी करते रहे औऱ कुछ पल आँख लगी तो मेरी आहट पर तुरंत ही नींद भी टूट गई..
समर - मैं कोई राजकुमार नहीं हूँ राजकुमारी.. बस एक साधारण सैनिक हूँ..
रुक्मा समर के थोड़ा नजदीक आकर - मुझे पता है तुम कौन हो.. मैंने तुम्हे उस नाम से बुलाया है जो मैं तुम्हे बनाना चाहती हूँ.. अब से तुम मेरे पहरेदार हो.. अब से मेरी अंतिम सांस तक मेरी रक्षा तुम्हारी जिम्मेदारी है.. मेरे प्राण बचाने के लिए आभार.. तुम्हारी बहादुरी औऱ सुंदरता मेरे मन को भा गई है..
समर - राजकुमारी.. ये आप क्या कह रही है.. जीवनभर आपकी रक्षा मेरे जिम्मेदारी? मैं एक साधारण योद्धा हूँ.. सूर्यउदय होने वाला है.. आपको वापस जाकर अपनी दासियों के साथ बैठना चाहिए..
रुक्मा - मुझे तुमसे प्रेम हो गया है राजकुमार.. अपनी राजकुमारी की रक्षा तो अब तुम्हे ही करनी पड़ेगी..
जयसिंह - क्या हुआ राजकुमारी.. कोई गलती हो गई इस योद्धा से?
रुक्मा - नहीं.. काका.. मैं तो बस कल मेरे प्राण बचाने के लिए आभार कहने आई थी.. औऱ अपनी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध करने..
जयसिंह - आपकी रक्षा के लिए तो सभी प्रतिबद्ध है राजकुमारी.. महल तक आपको सकुशल पंहुचा कर ही हम चैन से बैठेंगे.. भोर होने वाली सूरज की पहली किरण के साथ महल की औऱ आगे बढ़ेंगे.. आप जाकर घोड़ागाड़ी मैं बैठ जाइये..
रुक्मा - जैसा आप कहे.. काका..
पहली किरण के साथ ही चारो तरफ से गजसिंह कर्मा के साथ मिलकर काफ़िले पर हमला कर देता है औऱ जयसिंह अपने सैनिको के साथ गजसिंह औऱ कर्मा के साथ उनके लोगों से मुक़ाबला करने लगता है.. समर अपनी जगह छोड़कर रुक्मा के करीब आ जाता है औऱ रुक्मा के करीब आने वाले हर सैनिक को अपनी तलवार के एक ही वार से काट कर मार डालता है..
जयसिंह के साथ 40 लोग थे औऱ गजसिंह के साथ दो सो.. मगर फिर भी मुक़ाबला कड़ा हो रहा था.. जयसिंह के 22 आदमी मर चुके थे मगर अब तक गजसिंह भी अपने 90 से ज्यादा आदमी खो चूका था.. जयसिंह ने अकेलेपन ही 30 से ज्यादा आदमियों को मार गिराया था औऱ समर भी अब तक 22 से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार चूका था.. गजसिंह औऱ कर्मा का जो भी साथी रुक्मा की तरफ बढ़ता समर अपनी तलवार से उसके प्राण हरण कर लेता.. गजसिंह के कहे अनुसार उसके औऱ कर्मा के किसी भी साथी ने समर पर हमला नहीं किया जिसकी कीमत उन सबको अपनी जान देकर चुकानी पड़ी..
देखते ही देखते.. लाशों का जमघट लग गया औऱ औऱ उस स्थान पर रक्त ही रक्त बिखरा हुआ नज़र आने लगा.. आखिर में घोड़ागाड़ी में बैठी रुक्मा औऱ उसकी दासिया के अलावा जयसिंह औऱ समर ही जिन्दा बचे रह गए.. वही गजसिंह की तरफ से गजसिंह औऱ कर्मा के साथ उनके 3 औऱ साथी ज़िंदा बचे रह गए थे.. बाकी सब जमीन पर अपनी जान गवा कर पड़े हुए थे..
समर के सामने जैसे ही गजसिंह का चेहरा आया वो क्रोध से भर गया औऱ गजसिंह की तरफ भागते हुए उस पर हमला कर दिया.. गजसिंह इस हमले से बच गया लेकिन उसके दो साथी जो इस हमले को रोकने के लिए बीच में आये थे उनको जान गवाना पड़ा..
गजसिंह औऱ कर्मा अब पीछे हट गये थे औऱ मुड़कर घोड़े पर बैठकर भागने लगे..
समर का सर गजसिंह का चेहरा देखकर क्रोध औऱ बदले की अग्नि से फटा जा रहा था.. समर ने भी अपने घोड़े की लगाम खींची औऱ उस पर बैठकर गजसिंह का पीछा करने लगा..
जयसिंह भयानक रूप से घायल हो चूका था मगरफ़िर भी उसने आखिर में बचे गजसिंह के एक आखिरी साथी को मार गिराया और खुद भी उसके वार से जमीन पर गिरकर लहूलुहान हो गया..
समर गजसिंह का पीछा करते हुए पहाड़ी के दूसरी तरफ आ गया जहा से खाई शुरू होती थी. समर ने कर्मा डाकू को अपनी तलवार के एक ही वार से मार डाला.. पहाड़ी पर आगे रास्ता ख़त्म हो चूका था भागने की जगह नहीं थी.. औऱ समर अब गजसिंह के सामने खड़ा था..
गजसिंह घोड़े से उतर कर - बहुत बड़ी गलती की मैंने तुझे ज़िंदा छोड़कर.. मुझे अगर पता होता की तू आज मेरा जागीरदार बनने का सपना चकनाचूर कर देगा तो मैं पहले ही तुझे मार डालता..
समर - गलती तो तूने की गजसिंह.. मगर मुझे ज़िंदा छोड़कर नहीं बल्कि मेरे पिता को मारके औऱ मेरी माँ का अपमान करके..
गजसिंह जोर से हसते हुए - तेरा पिता? कौन तेरा पिता समर? वो धुपसिंह? अरे वो तेरा पिता नहीं था.. तेरा पिता तेरे सामने खडा है.. औऱ कोनसे अपमान की बात कर रहा है तू? तेरी माँ का अपमान? अरे उसको मैं तब से जानता हूँ जब तू इस धरती पर आया भी नहीं था.. दिल्ली के एक वैश्यालय में वैश्यवर्ती करती थी तेरी माँ.. औऱ सिर्फ तेरी माँ ही नहीं औऱ भी कई औरतों को मैंने उस वैश्यालय से खरीद कर उनका विवाह वीरेंद्र सिंह की रक्षा में तैनात सैनिको से करवाया था ताकि मुझे उन वैश्याओं से वीरेंद्र के बारे में गुप्त सुचना मिलती रहे..
समर - अपनी मौत को सामने देखकर कहानी बना रहा है गजसिंह.. मगर आज मैं अपनी तलवार से तेरा सर काटकर अपने पिता की मौत का बदला जरूर लूंगा..
गजसिंह हसते हुए - कितनी बार कहु तुझे.. तेरा बाप धुपसिंह मैं हूँ.. यकीन ना हो तो जाकर पूछ ले अपनी माँ से.. जिसे वैश्यालय की लीलावती से साधारण घरेलु लता बनाकर मैंने धुपसिंह से विवाह करवाया था. औऱ धुपसिंह की हत्या मैंने नहीं बल्कि तेरी माँ लीलावती ने अपने हाथों से की थी.. क्युकी धुपसिंह लीलावती के वैश्या होने रहस्य औऱ उसके कूल्हे पर मेरी निशानी का अर्थ वो जान गया था..
समर क्रोध से - चुपकर गजसिंह.. तुझे क्या लगता है मैं तेरी इन बातों पर विश्वास कर लूंगा? औऱ तू मुझे मुर्ख बनाकर यहां से निकल जाएगा? आज तेरा बचना संभव नहीं है गजसिंह..
गजसिंह अपने बाजू पर बनी निशानी दिखाते हुए - अगर मेरी बात पर विश्वास नहीं है तो जा औऱ जाकर अपनी माँ के दाए कूल्हे को देख.. ऐसी ही एक निशानी तुझे तेरी माँ के दाए कूल्हे पर भी दिखाई देगी जो मेरी हर बात सही सिद्ध कर देगी कि तेरी माँ मेरी रखैल है.. तुझे औऱ एक बात बताऊ? राजकुमारी को जयसिंह किस रास्ते से वापस जागीर ला रहा है ये गुप्त सुचना भी तेरी माँ ही मुझे देने आई थी.. औऱ जब आई थी तो सुचना के साथ अपना रूप औऱ जोबन भी देकर गई थी मुझे.. जिसके निशान उसकी छाती औऱ गले पर अब तक होंगे जा जाकर देख.. बदले में तुझे ज़िंदा छोड़ने वादा लिया था उसने मुझसे, इसिलए आज मेरे किसी आदमी ने तेरे ऊपर प्रहार नहीं किया.. राजकुमारी को किस गुप्त रास्ते से लाया जा रहा है.. तूने ही लीलावती को बताया था ना इस बारे में? लाल घाघरा चोली पहनी थी ना तेरी माँ ने उस दिन? अब भी कहेगा की मैं मनगढंत बात बना रहा हूँ? अरे तुझे तो उस रात से लेकर अब तक कई बार लीलावती मेरे हाथों मरने से बचा चुकी है.. कभी सोचा तूने कि मेरे इतने साथी मारे पर मैं कभी तुझे मारने क्यों नहीं आया? क्युकी तेरे अंदर मेरा भी खून है औऱ मैंने लीलावती से वादा किया तुझे ना मारने का..
समर का मन उथल पुथल था - गजसिंह.. अगर तेरी बातें सच हुई तो भी क्या मैं तुझे यहाँ से जीवित जाने दूंगा?
गजसिंह - मुझे मारकर तुझे कुछ हांसिल नहीं होने वाला समर.. वीरेंद्र सिंह पूछेगा भी नहीं तुझे.. उसके लिए तू बस एक प्यादा है जिसके होने या ना होने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता.. मेरी बात मान जा समर.. मुझे रुक्मा का हरण करने दे.. मैं वीरेंद्र सिंह को जागीरदारी से हटाकर खुद जागीरदारी संभाल लूंगा औऱ फिर तुझे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दूंगा.. तू जानता मेरा कोई उत्तराधिकारी नहीं है..
समर आगे बढ़ते हुए - बात अगर वीरेंद्र सिंह की होती तो शायद में अपना मन बदलने के बारे में सोचता.. मगर गजसिंह तूने ये कैसे सोच लिया कि मैं तुझे राजकुमारी रुक्मा का हरण करने दूंगा..
इतना कहकर समर ने गजसिंह का सर अपनी तलवार से काट दिया औऱ गजसिंह का सर लेकर वापस उसी जगह आ गया जहा गजसिंह औऱ जयसिंह के बीच लड़ाई हुई थी..
समर जब वापस आया तो उसने देखा कि जयसिंह पत्थर का सहारा लेकर बैठा हुआ है औऱ रुक्मा औऱ उसकी दासिया जयसिंह के जख्मो पर कपड़ा बाँध रही है..
समर ने गजसिंह का सर एक कपडे में लपेटकर घोड़ागाड़ी पर लटका लिया औऱ जयसिंह को घोड़ागाड़ी पर लादकर राजकुमारी रुक्मा औऱ उसकी दासियों से वापस घोड़ागाड़ी में बैठने को कहा.. फिर खुद उस घोड़ागाडी को चलाकर जागीर की सीमा पर तैनात सिपाहीयों तक ले आया.. जहा समर ने तैनात सैनिको को सुबह हुई लड़ाई के बारे में बताया औऱ जयसिंह के प्राथमिक उपचार का कार्य किया.. औऱ कुछ सैनिको को वहा जाकर पड़ी हुई लाशों को लाने का कहा औऱ स्वम राजकुमारी रुक्मा औऱ उसकी दासियो को लेकर सीमा पर तैनात कुछ सैनिको को साथ लेकर सांझ होने तक महल आ पंहुचा..
महल पहुंचने पर वहा के सैनिको ने जयसिंह को घोड़ागाड़ी से उतरा औऱ वैध के पास ले गए.. रुक्मा समर को मुस्कुराते हुए एक नज़र देखकर महल में चली गई औऱ बाकी सैनिक वापस सीमा की तरफ चले गए..
समर घोड़ागाड़ी महल में छोड़कर गजसिंह का सर लेकर महल से चला गया.. उसने किसी से भी कर्मा औऱ गजसिंह की मौत की बात नहीं की थी.. वीरेंद्र सिंह को जब इसका पता चला तो वो क्रोध में आग बबूला हो गया औऱ अपने सैनिको से हर जगह गजसिंह औऱ डाकुओ के मुखिया कर्मा को ढूंढने औऱ उसके ठिकानो का पता लगाने का आदेश सुना दिया वही खुद भी इस काम को करने के लिए महल से निकलने लगा पर सुजाता के समझाने पर रुक गया..