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Ek number

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Update 11

सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है

लोक-लाज और शरम से हारे
साकी ना पिने ना जीने दे है

मन मतवाला पहन दुशाला
सबको नचाये ना जीने दे है

मेरी बतिया पढ़ पढ़ रोये
प्रीत ना मारे ना जीने दे है

सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है..


कौन? कौन ये गीत गाता हुआ इधर चला आ रहा है इतनी रात में?

लगता है कोई राहगीर है. बैलगाडी की आवाज भी आ रही है..

मगर इतनी रात में? और इतने घने जंगल के रास्ते से? कोई साधारण आदमी तो नहीं जान पड़ता.

बात तो तुम सही कह रहे हो कर्मसिंह. जिस जंगल से जागीर का हर आदमी दिन के उजाले में गुजरने से डरता है वही ये आदमी रात के इस पहर इतने अँधेरे में अकेला चला आ रहा है..

मुझे तो जरूर कोई बहरूपिया लगता है वीरसिंह. देखो केसा भेस बनाया है. बड़ी बड़ी दाढ़ी कंधे तक उलझें हुए बाल और फटा पुराना शाल बदन पर लपेट रखा है..

देखने से लड़का सा लगता है. मगर इस तरह इतनी रात में यहां इसका क्या काम? रोककर पूछना तो अनिवार्य है..

हाँ मेरा भी यही मत है. इसे रोककर इसके आने का कारण तो पूछना जरुरी है.


सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है

गाँव की नादिया सावन रतिया
सखियाँ छेड़े ना जीने दे है

रंग लगाकर अंग से खेले
प्रियतम रिझाये ना जीने दे है

लम्बा रास्ता तन्हा राही
घर की यादे ना जीने दे

सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है


अरे.. रोको रोको.. कहा चले आ रहे हो आधी रात को इतनी सुरुतान में गीत गाते हुए? और ये क्या भेष बनाया हुआ है? कहाँ के हो? कौन हो? नाम क्या है? यहां आने का कारण? कहीं किसी उद्देश्य से तो नहीं आये.. इस जागीर में? पता है ना यहां का जागीरदार कौन है? वीरेंद्र सिंह.. उनके नाम से आस पास की जागीरो के सरदार और ठिकानेदार खौफ खाते है..

आदमी बैठगाड़ी रोककर जागीर की सीमा पर तैनात सिपाहियो को देखकर मुस्कुरा पड़ता है और उनकी बात सुनता हुआ अपने पास रखे घड़े में बर्तन डालकर उससे पानी पिने लगता है.. जब सिपाहियों के सवाल ख़त्म हो जाते है तब आदमी हलकी सी मुस्कान अपने होंठों पर सजा कर कहता है..

आदमी - मैं तो राही हूँ.. अफगान जा रहा था. अगर इज़ाज़त दो तो चला जाऊ? सुबह तक आपके वीरेंद्र सिंह की जागीर की सीमा से भी बाहर निकल जाऊंगा..

सैनिक - वो तो ठीक है पर उम्र से तो बहुत कम लगते हो फिर इस तरह जोगियो का भेष क्यों बनाया हुआ है? और नाम क्या है तुम्हारा?

आदमी - नाम का क्या है पहरेदार ज़ी, जो जिसके ज़ी में आता है वही कहकर पुकार लेता है. आपके जो ज़ी में आये वो आप कहकर पुकार लो.

सैनिक - हालत से तो भिखारी लगते हो.. भिखारी कहा कर बुलाऊ? तुम्हरे पास ये बैलगाड़ी कहा से आई? किसकी चुरा के लाये हो?

आदमी मुस्कुराते हुए - भिखारी ही कह लो.. वैसे भी सब भिखारी तो है इस जमीन पर.. कोई इंसान से मांगता है तो भगवान् से. बैलगाड़ी तो मेरी ही है चाहो तो इन दोनों बैलो से पूछ लो..

सैनिक - देखो ये पहेलियाँ ना बुझाओ.. साफ साफ बताओ कौन हो और कहा से आये हो..

आदमी - मैंने बता तो दिया, राहगीरी हूँ हिंदुस्तान के अलग अलग हिस्से में घूमता हूँ थोड़ा बहुत वैद्य का हुनर भी जानता हूँ अफगान जा रहा हूँ..

सैनिक - हमें यक़ीन नहीं है लौट जाओ वापस..

आदमी - मैं तो आगे के लिए आया हूँ.. पीछे मुड़कर जाना संभव नहीं..

सैनिक - अगर कहा हुआ नहीं मानोगे तो पकड़ के बंधी बना लिए जाओगे.. और जागीरदार से सजा मिलेगी..

आदमी - तो फिर क़ैद कर लो मुझे. मैं तो वापस जाने से रहा..

सैनिक - जैसा तुम चाहो.. चलो यहां से..

दोनों सैनिक उस आदमी को कैद में डाल देते हैं और उसकी बैलगाड़ी को जपत करके जागीर की सीमा में बाहर बने एक छोटे से सामान ग्रह के बाहर खड़ा कर देते हैं.. आदमी कैद कर लिया जाने पर भी उसी मुस्कान के साथ हंसता रहता है और इस शालीनता और सद्भाव के साथ दोनों सैनिकों और बाकी लोगों के साथ बात करता हुआ बंदी खाने में बैठ जाता है और वापस से वही गीत गाता है जो वह खाता हुआ जंगल के रास्ते से चला आ रहा था और जिसे सुनकर दोनों पहरेदारों ने उसे संदिग्ध मानकर बंदी गृह में डाल दिया था.

आदमी अपनी मस्ती में मस्त बंदीगृह में अकेला बैठा हुआ गीत गाता जा रहा था और अपने पास मौजूद एक पुस्तक को पढ़ता हुआ अपने गले में लटक रहे 1 ताबीज़ को छूता हुआ उसे देखे जा रहा था.. आदमी को देखने से ऐसा लगता था जैसे वह किसी की याद में खोया हुआ मुस्कुराते हुए गीत गा रहा है और अपने प्रीतम को याद कर रहा है और उसकी विरह में सुलगता हुआ अपने मन को उसकी वेदना के सागर में डूबता चला जा रहा है और उससे पार पाने का उसे कोई मन नहीं है.. जिस तरह कोई बूढ़ा अपनी जवानी के दिन याद करके रोमांचित हो उठता है और अपने बच्चों को या अपने पोते पोती हो या नाते नातीयों को अपनी जवानी के किस्से सुनाते हैं उस तरह वह आदमी कुछ याद करता हुआ मुस्कुरा रहा था और बंदी गृह में भी ऐसा लग रहा था जैसे भी आजाद है और उसे कोई कैद नहीं कर सकता..


सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है

बैरी सुख में सोये रे पंछी
सईया जागे ना जीने दे है

उठ उठ रोये रतिया जागे
विरह की राते ना जीने दे है

जग झूठा है यार ही है रब
रब मुंह खोले ना जीने दे है

सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है


अपनी मस्ती में मस्त आदमी गीत गाता हुआ गुनगुनाता हुआ और मुस्कुराता हुआ रात भर यूं ही बिता कर सुबह नींद के हवाले हो गया और उसकी नींद किसी पहरेदार के जागने पर ही खुली..


अरे उठो उठो.. कब तलक़ यूँही सोते रहोगे? रात दिन सुबह शाम की कुछ खैर खबर भी रखते हो या नहीं? दिन के इस पहर भी आँखों में रातों सा नींद का जमघट लिए पड़े हो.. जरा बदन को जोर दो उठो.. जागीरदार की बैठक में लेजाना है.. अब वही तय करेंगे तुम जागीर से आगे जाओगे या वापस..

पहरेदार की बात पर आदमी कोई जवाब नहीं देता और चुपचाप खड़ा होकर उसके साथ चलने को सज्य हो जाता है और मुस्कुराता हूआ वापस गीत गाते हुए पहले पहरेदार के साथ चल पड़ता है.. पहरेदार उसे छोटी मोटी गलियों से गुजार कर लाता हुआ महल के मुख्य भाग से दाई ओर एक कमरे की तरफ ले आता है जहां बड़े से हाल में वीरेंद्र सिंह अपनी में बैठक में बैठा हुआ होता है और जागीर में रहने वाले लोगों के साथ किसानों की समस्याओं को सुनकर उसका हल करता है..

आदमी पहरेदार के बताए अनुसार बैठक के मुहाने पर खड़ा हो जाता है और अपनी बारी का इंतजार करने लगता है आदमी वीरेंद्र सिंह को देख रहा था और मुस्कुराते हुए उसके न्याय करने के तरीके और उसके स्वभाव का जाँच रहा था मानो उसकी क़ाबिलियत का परीक्षण कर रहा हो..

समय के साथ भीड़ कम होती गई औऱ कुछ देर बाद वीरेंद्र सिंह के सामने उस आदमी को पेश कर दिया गया जिसे पहरदार ने जागीर की सीमा से कल रात पकड़ा था..


वीरेंद्र - कहो क्या बात है?

पहरेदार - सरकार इस आदमी को कल रात जागीर की सीमा पर तैनात सिपाही कर्मसिंह औऱ वीरसिंह ने पकड़ा है.. कह रहे थे ये आदमी आधी रात को जंगल के रास्ते से अकेला कोई गीत गुनगुनाता हुआ चला आ रहा था.. पूछने पर उलटे सीधे जवाब देता था.. अपना नाम भी उन पहरेदारो को नहीं बताया..

वीरेंद्र आदमी से - क्या नाम है तुम्हारा? कहा से आये हो?

आदमी - मेरा असल नाम तो अब मुझे भी याद नहीं आता हुकुम.. पर सब बैरागी कहकर पुकारते है.. छोटा सा वैद्य हूँ छोटे छोटे मर्ज़ का इलाज़ करता हूँ.. राही भी हूँ इस हुनर को यहां वहा घूमकर सीखता सीखता हूँ.. पहरेदारों से रात में मैंने कहा था मैं अफगान जा रहा हूँ.. अगर वो इज़ाज़त दे देते तो सुबह पहली किरण से पहले आपकी जागीर से बाहर भी चला गया होगा..

बीरेंद्र - वैद्य हो?
बैरागी - हुकुम..

वीरेंद्र - अफगान जाने का प्रयोजन?
बैरागी - सुना है वहा एक ख़ास किस्म का पौधा है जो स्त्री रोग में देह को आराम देता है.. बस उसी की तलाश में जा रहा था..

वीरेंद्र - स्त्री रोग में पौधे से देह को आराम? बड़े अचरज की बात है.. वैद्य ज़ी आपने कभी ऐसे पौधे के बारे में सुना है?

वैद्य - नहीं सरकार.. मुझे तो ये लड़का कोई बहरूपिया लगता है. इसकी बातें सुनकर हँसने को ज़ी चाहता है..

वीरेंद्र - जो भी हो वैद्य ज़ी.. एक बार प्रत्यक्ष में इसके हुनर कोई नमूना तो देखना चाहिए..

वैद्य - ज़ी सरकार आप सही औऱ तर्कसंगत बात करते है..

वीरेंद्र - बैरागी.. क्या तुम किसी बीमार को स्वस्थ कर सकते हो?

बैरागी - बीमार तो यहां बहुत से लोग है हुकुम.. आप बताइये किसे स्वस्थ करना है.

वैद्य - देखा सरकार.. इसे तो यहां सभी बीमार नज़र आते है.. मुझे तो लगता है इसे जागीर से बाहर कर देना चाहिए..

वीरेंद्र - युम्हे यहां कौन बीमार लगता है? औऱ बिमारी क्या है यहां लोगों को?

बैरागी - सबसे पहले तो वैद्य ज़ी की ही बात कर ली जाए हुकुम.. इनके पेट में दाई तरफ थोड़ा नीचे कई बरसो से दर्द है जिसकी वजह से ये बार बार अपना हाथ अपने पेट पर रखकर दबा रहे है औऱ एक पैर को हल्का रखकर चलते है लेकिन सालों से मौज़ूद इस दर्द ने वैद्य ज़ी को नहीं छोड़ा..

उसके बाद जो पहरेदार मुझे यहां लाया है उसे आँख से धुंधला दीखता है.. आपके दाई औऱ नीचे बैठे हुए आदमी के बदन में कम्पन की बिमारी है जो ज्यादा अमल से पैदा हुई है.. औऱ हुकुम आप.. एक बिमारी आपको भी है.. बिमारी से बड़ा भय है..

बैरागी की बात पर सब हैरान थे औऱ वैद्य की हालात पतली थी..

वीरेंद्र - मुझे क्या भय है?
बैरागी - मृत्यु का भय हुकुम..

बैरागी की बात सुनकर वीरेंद्र उसे हैरात के भाव से देखने लगा औऱ सोचने लगा की कैसे बैरागी को इतना सब मालूम हो गया वो भी एक नज़र देखने पर..

वीरेंद्र - अगर तुम्हे जो पौधा चाहिए मैं यही तुम्हे दे दू तो क्या तुमको मेरे इस भय का समाधान कर पाओगे?

बैरागी - मृत्यु तो अंतिम सत्य है हुकुम औऱ सत्य से केसा भय? आपका भय तो केवल आपके मन की उपज मात्र है इसे तो आप स्वम भी दूर कर सकते है. औऱ जो पौधा मुझे चाहिए आप यही मुझे दे दे तो मैं वापस अपनी राह लौट जाऊँगा..

वीरेंद्र - मेरे बस की बात होती तो ये भय मैंने कब का अपने मन से निकाल दिया होता बैरागी.. मैं तुझे अपनी जागीर मैं एक ऊंचा दर्जा देता हूँ.. रहने को इसी महल में अलग स्थान जहा भोग विलास की जो चीज तुझे पसंद हो वो.. अपने इन साथियो के बराबर का कद होगा तेरा. बस मेरा ये रोग ठीक कर दे.

बैरागी - इन सब का मैं क्या करूंगा हुकुम? अकेला आदमी हूँ एक घरवाली थी जिसे 3 महीने पहले बनाने वाले ने अपने पास बुला लिया. कोई संतान नहीं ना ही कोई परिजन.. मैं तो अब बंजारा हूँ हुकुम ठहरना मेरे बस कहाँ?

वीरेंद्र - तो फिर मेरे रोग के उपचार तक यहां अपना बसेरा कर लो बैरागी.. उसके बाद तुम जहा जाना चाहो जा सकते हो.. अब मना मत करना बैरागी क्युकी तुम्हारी ना तुम्हारी जीवन की रेखा मिटा सकती है..

बैरागी - मगर मैं कह चूका हूँ हुकुम आपका रोग आपके मन की उपज है जिसका उपचार करना आपके ही हाथ में है. मैं इसमें भला आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ..

वीरेंद्र - जो आदमी को देखकर उसका रोग बता दे वो रोग का उपचार भी अच्छे से जानता होगा.. औऱ ये बात मैं अच्छे से जानता हूँ बैरागी.. अभी मैं तुमसे ज्यादा बात नहीं करूंगा.. तुम जाओ.. इस जागीर के बंदीग्रह का अनुभव औऱ पीड़ा ले चुके हो अब यहां के मेहमान बनकर आराम उठाओ..

वीरेंद्र पहरेदारो से - आज से बैरागी इस जागीर के मेहमान है इनकी सेवा में कोई कमी ना रहे.. सभा बर्खास्त...


इसीके साथ बड़े बाबाजी जो अपनी कुटिया में सो रहे थे उनकी नींद खुल जाती है औऱ वो सपने में, जो आज से सैकड़ो सालों पहले सच में हुआ था उसे देखकर घबराहट के साथ उठ बैठते है. बड़ेबाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र सिंह को अपने सामने एक आदमी बैठा हुआ दिखाई देता है औऱ बड़े बाबाजी एक लम्बी सांस लेकर उस आदमी से कहते है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - कभी तो चैन से सोने दे बैरागी.. सैकड़ो सालों से तू मेरी नींद औऱ सुख छीन के बैठा है.. ना मरने देता है ना जीने.

बैरागी - आपने तो मेरी जिंदगी मुझसे छीन ली हुकुम.. कम से कम आपकी नींद औऱ सुखचैन पर तो मेरा अधिकार बनता है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - तूने भी तो वो किया था जिसे करने की इज़ाज़त मेरे अतिरिक्त किसी को नहीं थी. औऱ तू अच्छे से जानता है उस गलती की सजा केवल मौत थी फिर क्यों मुझे इतनी सजा मिल रही है?

बैरागी - ये सजा मैंने नहीं किसी औऱ ने तय की है आपके लिए हुकुम. मैं तो केवल जरिया मात्र हूँ.. मैंने कहा था मुझे वो ताबीज मेरे गले से उतार लेने दो मगर आपने मेरी एक बात ना सुनी औऱ अपनी तलवार से मेरा सर अलग कर दिया.. उस दिन से आज तक जो जो दुख दर्द औऱ पीड़ाये आपने झेली है ये उसी का परिणाम है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - मैं क्रोध की अग्नि में सुलग रहा था बैरागी.. मुझे कहा सही गलत औऱ अच्छे बुरे का ख्याल था? मगर तूने आज तक नहीं बताया उस ताबीज में ऐसा था क्या? जो तू उस दिन से आज तक इस तरह बेताल बनकर मेरे कंधे पर बैठा है.. तूने तो कहा था तू केवल वैद्य औऱ उपचार जानता है..

बैरागी - उस ताबीज मे ऐसा क्या था वो तो मुझे भी नहीं पता हुकुम. मैं तो बस इतना जानता हूँ कि आपने जो अमर होने कि लालच में प्रकृति के नियम को बदला है उसकी सजा आपको इस तरह मिल रही है.

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - सैकड़ो साल.. बड़े से बड़े तपस्वी औऱ साधुओ के पास रहकर आ चूका हूँ बैरागी.. बहुत कुछ सिखने को मिला इस प्रकृति के कुछ रहस्य भी समझ आये मगर वो नहीं पता चला जो पता करना था.. मगर अब लगता है बैरागी तेरा औऱ मेरा सफर जरूर ख़त्म हो जाएगा. अगर वो लड़का मेरे कार्य में सफल रहा तो मेरे साथ साथ तुझे भी मुक्ति मिल जायेगी..

बैरागी - समय के गर्भ में क्या छीपा है ये तो वही जानता है हुकुम..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - थोड़ी देर तो सोने दे बैरागी इतना सताना ठीक नहीं. देख मेरी आँखे किस तरह पथरा गई है जब इनमे नींद उतरती है तू आकर इनसे नींद छीन लेटा है.. उस दिन से आज तक कोई भी सुख तूने मुझे महसूस नहीं करने दिया.. इतना सब ज्ञान औऱ कलाये जानने के भी मैं तेरे औऱ मेरे लिए कुछ नहीं कर सकता..

बैरागी - मैं भी कब से आपको सुखी देखना चाहता हूँ हुकुम.. मगर मै मजबूर हूँ. कोई है जो मुझसे ये सब करवा रहा है.. जिसके बारे में मुझे भी नहीं पता..

कुटिया के दरवाजे पर खट खट की आवाज आती है तो बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र सिंह सामने बैठे बैरागी के साये से बात करना बंद करके थोड़ा तेज़ कहते है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - कौन?
किशोर - बड़े बाबाजी मैं किशोर..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - अंदर आजा..

किशोर कुटिया के अंदर आता है जहा वो बड़े बाबाजी को दण्डवत प्रणाम करके कुटिया में अकेले बैठे बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र सिंह से कहता है..
किशोर - बड़े बाबाजी भोर की पहली किरण निकल चुकी है आपके स्नान की सारी व्यवस्थाये हो चुकी है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - ठीक है चलो..


बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र सिंह किशोर के अनुरोध पर कुटिया से बाहर आ जाता है औऱ नहाने चला जाता है कुछ देर बाद सूरज जब चढ़ता है तब पहाड़ी पर लोगों के आने का ताँता लगने लगता है.. ये भीड़ बाबाजी से अपने दुखो का समाधान पूछने आये लोगों का था जो एक के बाद एक कतार में बैठ रहे थे..
Nice update
 
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yourhotkamini

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सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है

लोक-लाज और शरम से हारे
साकी ना पिने ना जीने दे है

मन मतवाला पहन दुशाला
सबको नचाये ना जीने दे है

मेरी बतिया पढ़ पढ़ रोये
प्रीत ना मारे ना जीने दे है

सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है..


कौन? कौन ये गीत गाता हुआ इधर चला आ रहा है इतनी रात में?

लगता है कोई राहगीर है. बैलगाडी की आवाज भी आ रही है..

मगर इतनी रात में? और इतने घने जंगल के रास्ते से? कोई साधारण आदमी तो नहीं जान पड़ता.

बात तो तुम सही कह रहे हो कर्मसिंह. जिस जंगल से जागीर का हर आदमी दिन के उजाले में गुजरने से डरता है वही ये आदमी रात के इस पहर इतने अँधेरे में अकेला चला आ रहा है..

मुझे तो जरूर कोई बहरूपिया लगता है वीरसिंह. देखो केसा भेस बनाया है. बड़ी बड़ी दाढ़ी कंधे तक उलझें हुए बाल और फटा पुराना शाल बदन पर लपेट रखा है..

देखने से लड़का सा लगता है. मगर इस तरह इतनी रात में यहां इसका क्या काम? रोककर पूछना तो अनिवार्य है..

हाँ मेरा भी यही मत है. इसे रोककर इसके आने का कारण तो पूछना जरुरी है.


सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है

गाँव की नादिया सावन रतिया
सखियाँ छेड़े ना जीने दे है

रंग लगाकर अंग से खेले
प्रियतम रिझाये ना जीने दे है

लम्बा रास्ता तन्हा राही
घर की यादे ना जीने दे

सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है


अरे.. रोको रोको.. कहा चले आ रहे हो आधी रात को इतनी सुरुतान में गीत गाते हुए? और ये क्या भेष बनाया हुआ है? कहाँ के हो? कौन हो? नाम क्या है? यहां आने का कारण? कहीं किसी उद्देश्य से तो नहीं आये.. इस जागीर में? पता है ना यहां का जागीरदार कौन है? वीरेंद्र सिंह.. उनके नाम से आस पास की जागीरो के सरदार और ठिकानेदार खौफ खाते है..

आदमी बैठगाड़ी रोककर जागीर की सीमा पर तैनात सिपाहियो को देखकर मुस्कुरा पड़ता है और उनकी बात सुनता हुआ अपने पास रखे घड़े में बर्तन डालकर उससे पानी पिने लगता है.. जब सिपाहियों के सवाल ख़त्म हो जाते है तब आदमी हलकी सी मुस्कान अपने होंठों पर सजा कर कहता है..

आदमी - मैं तो राही हूँ.. अफगान जा रहा था. अगर इज़ाज़त दो तो चला जाऊ? सुबह तक आपके वीरेंद्र सिंह की जागीर की सीमा से भी बाहर निकल जाऊंगा..

सैनिक - वो तो ठीक है पर उम्र से तो बहुत कम लगते हो फिर इस तरह जोगियो का भेष क्यों बनाया हुआ है? और नाम क्या है तुम्हारा?

आदमी - नाम का क्या है पहरेदार ज़ी, जो जिसके ज़ी में आता है वही कहकर पुकार लेता है. आपके जो ज़ी में आये वो आप कहकर पुकार लो.

सैनिक - हालत से तो भिखारी लगते हो.. भिखारी कहा कर बुलाऊ? तुम्हरे पास ये बैलगाड़ी कहा से आई? किसकी चुरा के लाये हो?

आदमी मुस्कुराते हुए - भिखारी ही कह लो.. वैसे भी सब भिखारी तो है इस जमीन पर.. कोई इंसान से मांगता है तो भगवान् से. बैलगाड़ी तो मेरी ही है चाहो तो इन दोनों बैलो से पूछ लो..

सैनिक - देखो ये पहेलियाँ ना बुझाओ.. साफ साफ बताओ कौन हो और कहा से आये हो..

आदमी - मैंने बता तो दिया, राहगीरी हूँ हिंदुस्तान के अलग अलग हिस्से में घूमता हूँ थोड़ा बहुत वैद्य का हुनर भी जानता हूँ अफगान जा रहा हूँ..

सैनिक - हमें यक़ीन नहीं है लौट जाओ वापस..

आदमी - मैं तो आगे के लिए आया हूँ.. पीछे मुड़कर जाना संभव नहीं..

सैनिक - अगर कहा हुआ नहीं मानोगे तो पकड़ के बंधी बना लिए जाओगे.. और जागीरदार से सजा मिलेगी..

आदमी - तो फिर क़ैद कर लो मुझे. मैं तो वापस जाने से रहा..

सैनिक - जैसा तुम चाहो.. चलो यहां से..

दोनों सैनिक उस आदमी को कैद में डाल देते हैं और उसकी बैलगाड़ी को जपत करके जागीर की सीमा में बाहर बने एक छोटे से सामान ग्रह के बाहर खड़ा कर देते हैं.. आदमी कैद कर लिया जाने पर भी उसी मुस्कान के साथ हंसता रहता है और इस शालीनता और सद्भाव के साथ दोनों सैनिकों और बाकी लोगों के साथ बात करता हुआ बंदी खाने में बैठ जाता है और वापस से वही गीत गाता है जो वह खाता हुआ जंगल के रास्ते से चला आ रहा था और जिसे सुनकर दोनों पहरेदारों ने उसे संदिग्ध मानकर बंदी गृह में डाल दिया था.

आदमी अपनी मस्ती में मस्त बंदीगृह में अकेला बैठा हुआ गीत गाता जा रहा था और अपने पास मौजूद एक पुस्तक को पढ़ता हुआ अपने गले में लटक रहे 1 ताबीज़ को छूता हुआ उसे देखे जा रहा था.. आदमी को देखने से ऐसा लगता था जैसे वह किसी की याद में खोया हुआ मुस्कुराते हुए गीत गा रहा है और अपने प्रीतम को याद कर रहा है और उसकी विरह में सुलगता हुआ अपने मन को उसकी वेदना के सागर में डूबता चला जा रहा है और उससे पार पाने का उसे कोई मन नहीं है.. जिस तरह कोई बूढ़ा अपनी जवानी के दिन याद करके रोमांचित हो उठता है और अपने बच्चों को या अपने पोते पोती हो या नाते नातीयों को अपनी जवानी के किस्से सुनाते हैं उस तरह वह आदमी कुछ याद करता हुआ मुस्कुरा रहा था और बंदी गृह में भी ऐसा लग रहा था जैसे भी आजाद है और उसे कोई कैद नहीं कर सकता..


सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है

बैरी सुख में सोये रे पंछी
सईया जागे ना जीने दे है

उठ उठ रोये रतिया जागे
विरह की राते ना जीने दे है

जग झूठा है यार ही है रब
रब मुंह खोले ना जीने दे है

सुन रे पवन संग ले चल अपने
ज़ी के सपने ना जीने दे है


अपनी मस्ती में मस्त आदमी गीत गाता हुआ गुनगुनाता हुआ और मुस्कुराता हुआ रात भर यूं ही बिता कर सुबह नींद के हवाले हो गया और उसकी नींद किसी पहरेदार के जागने पर ही खुली..


अरे उठो उठो.. कब तलक़ यूँही सोते रहोगे? रात दिन सुबह शाम की कुछ खैर खबर भी रखते हो या नहीं? दिन के इस पहर भी आँखों में रातों सा नींद का जमघट लिए पड़े हो.. जरा बदन को जोर दो उठो.. जागीरदार की बैठक में लेजाना है.. अब वही तय करेंगे तुम जागीर से आगे जाओगे या वापस..

पहरेदार की बात पर आदमी कोई जवाब नहीं देता और चुपचाप खड़ा होकर उसके साथ चलने को सज्य हो जाता है और मुस्कुराता हूआ वापस गीत गाते हुए पहले पहरेदार के साथ चल पड़ता है.. पहरेदार उसे छोटी मोटी गलियों से गुजार कर लाता हुआ महल के मुख्य भाग से दाई ओर एक कमरे की तरफ ले आता है जहां बड़े से हाल में वीरेंद्र सिंह अपनी में बैठक में बैठा हुआ होता है और जागीर में रहने वाले लोगों के साथ किसानों की समस्याओं को सुनकर उसका हल करता है..

आदमी पहरेदार के बताए अनुसार बैठक के मुहाने पर खड़ा हो जाता है और अपनी बारी का इंतजार करने लगता है आदमी वीरेंद्र सिंह को देख रहा था और मुस्कुराते हुए उसके न्याय करने के तरीके और उसके स्वभाव का जाँच रहा था मानो उसकी क़ाबिलियत का परीक्षण कर रहा हो..

समय के साथ भीड़ कम होती गई औऱ कुछ देर बाद वीरेंद्र सिंह के सामने उस आदमी को पेश कर दिया गया जिसे पहरदार ने जागीर की सीमा से कल रात पकड़ा था..


वीरेंद्र - कहो क्या बात है?

पहरेदार - सरकार इस आदमी को कल रात जागीर की सीमा पर तैनात सिपाही कर्मसिंह औऱ वीरसिंह ने पकड़ा है.. कह रहे थे ये आदमी आधी रात को जंगल के रास्ते से अकेला कोई गीत गुनगुनाता हुआ चला आ रहा था.. पूछने पर उलटे सीधे जवाब देता था.. अपना नाम भी उन पहरेदारो को नहीं बताया..

वीरेंद्र आदमी से - क्या नाम है तुम्हारा? कहा से आये हो?

आदमी - मेरा असल नाम तो अब मुझे भी याद नहीं आता हुकुम.. पर सब बैरागी कहकर पुकारते है.. छोटा सा वैद्य हूँ छोटे छोटे मर्ज़ का इलाज़ करता हूँ.. राही भी हूँ इस हुनर को यहां वहा घूमकर सीखता सीखता हूँ.. पहरेदारों से रात में मैंने कहा था मैं अफगान जा रहा हूँ.. अगर वो इज़ाज़त दे देते तो सुबह पहली किरण से पहले आपकी जागीर से बाहर भी चला गया होगा..

बीरेंद्र - वैद्य हो?
बैरागी - हुकुम..

वीरेंद्र - अफगान जाने का प्रयोजन?
बैरागी - सुना है वहा एक ख़ास किस्म का पौधा है जो स्त्री रोग में देह को आराम देता है.. बस उसी की तलाश में जा रहा था..

वीरेंद्र - स्त्री रोग में पौधे से देह को आराम? बड़े अचरज की बात है.. वैद्य ज़ी आपने कभी ऐसे पौधे के बारे में सुना है?

वैद्य - नहीं सरकार.. मुझे तो ये लड़का कोई बहरूपिया लगता है. इसकी बातें सुनकर हँसने को ज़ी चाहता है..

वीरेंद्र - जो भी हो वैद्य ज़ी.. एक बार प्रत्यक्ष में इसके हुनर कोई नमूना तो देखना चाहिए..

वैद्य - ज़ी सरकार आप सही औऱ तर्कसंगत बात करते है..

वीरेंद्र - बैरागी.. क्या तुम किसी बीमार को स्वस्थ कर सकते हो?

बैरागी - बीमार तो यहां बहुत से लोग है हुकुम.. आप बताइये किसे स्वस्थ करना है.

वैद्य - देखा सरकार.. इसे तो यहां सभी बीमार नज़र आते है.. मुझे तो लगता है इसे जागीर से बाहर कर देना चाहिए..

वीरेंद्र - युम्हे यहां कौन बीमार लगता है? औऱ बिमारी क्या है यहां लोगों को?

बैरागी - सबसे पहले तो वैद्य ज़ी की ही बात कर ली जाए हुकुम.. इनके पेट में दाई तरफ थोड़ा नीचे कई बरसो से दर्द है जिसकी वजह से ये बार बार अपना हाथ अपने पेट पर रखकर दबा रहे है औऱ एक पैर को हल्का रखकर चलते है लेकिन सालों से मौज़ूद इस दर्द ने वैद्य ज़ी को नहीं छोड़ा..

उसके बाद जो पहरेदार मुझे यहां लाया है उसे आँख से धुंधला दीखता है.. आपके दाई औऱ नीचे बैठे हुए आदमी के बदन में कम्पन की बिमारी है जो ज्यादा अमल से पैदा हुई है.. औऱ हुकुम आप.. एक बिमारी आपको भी है.. बिमारी से बड़ा भय है..

बैरागी की बात पर सब हैरान थे औऱ वैद्य की हालात पतली थी..

वीरेंद्र - मुझे क्या भय है?
बैरागी - मृत्यु का भय हुकुम..

बैरागी की बात सुनकर वीरेंद्र उसे हैरात के भाव से देखने लगा औऱ सोचने लगा की कैसे बैरागी को इतना सब मालूम हो गया वो भी एक नज़र देखने पर..

वीरेंद्र - अगर तुम्हे जो पौधा चाहिए मैं यही तुम्हे दे दू तो क्या तुमको मेरे इस भय का समाधान कर पाओगे?

बैरागी - मृत्यु तो अंतिम सत्य है हुकुम औऱ सत्य से केसा भय? आपका भय तो केवल आपके मन की उपज मात्र है इसे तो आप स्वम भी दूर कर सकते है. औऱ जो पौधा मुझे चाहिए आप यही मुझे दे दे तो मैं वापस अपनी राह लौट जाऊँगा..

वीरेंद्र - मेरे बस की बात होती तो ये भय मैंने कब का अपने मन से निकाल दिया होता बैरागी.. मैं तुझे अपनी जागीर मैं एक ऊंचा दर्जा देता हूँ.. रहने को इसी महल में अलग स्थान जहा भोग विलास की जो चीज तुझे पसंद हो वो.. अपने इन साथियो के बराबर का कद होगा तेरा. बस मेरा ये रोग ठीक कर दे.

बैरागी - इन सब का मैं क्या करूंगा हुकुम? अकेला आदमी हूँ एक घरवाली थी जिसे 3 महीने पहले बनाने वाले ने अपने पास बुला लिया. कोई संतान नहीं ना ही कोई परिजन.. मैं तो अब बंजारा हूँ हुकुम ठहरना मेरे बस कहाँ?

वीरेंद्र - तो फिर मेरे रोग के उपचार तक यहां अपना बसेरा कर लो बैरागी.. उसके बाद तुम जहा जाना चाहो जा सकते हो.. अब मना मत करना बैरागी क्युकी तुम्हारी ना तुम्हारी जीवन की रेखा मिटा सकती है..

बैरागी - मगर मैं कह चूका हूँ हुकुम आपका रोग आपके मन की उपज है जिसका उपचार करना आपके ही हाथ में है. मैं इसमें भला आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ..

वीरेंद्र - जो आदमी को देखकर उसका रोग बता दे वो रोग का उपचार भी अच्छे से जानता होगा.. औऱ ये बात मैं अच्छे से जानता हूँ बैरागी.. अभी मैं तुमसे ज्यादा बात नहीं करूंगा.. तुम जाओ.. इस जागीर के बंदीग्रह का अनुभव औऱ पीड़ा ले चुके हो अब यहां के मेहमान बनकर आराम उठाओ..

वीरेंद्र पहरेदारो से - आज से बैरागी इस जागीर के मेहमान है इनकी सेवा में कोई कमी ना रहे.. सभा बर्खास्त...


इसीके साथ बड़े बाबाजी जो अपनी कुटिया में सो रहे थे उनकी नींद खुल जाती है औऱ वो सपने में, जो आज से सैकड़ो सालों पहले सच में हुआ था उसे देखकर घबराहट के साथ उठ बैठते है. बड़ेबाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र सिंह को अपने सामने एक आदमी बैठा हुआ दिखाई देता है औऱ बड़े बाबाजी एक लम्बी सांस लेकर उस आदमी से कहते है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - कभी तो चैन से सोने दे बैरागी.. सैकड़ो सालों से तू मेरी नींद औऱ सुख छीन के बैठा है.. ना मरने देता है ना जीने.

बैरागी - आपने तो मेरी जिंदगी मुझसे छीन ली हुकुम.. कम से कम आपकी नींद औऱ सुखचैन पर तो मेरा अधिकार बनता है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - तूने भी तो वो किया था जिसे करने की इज़ाज़त मेरे अतिरिक्त किसी को नहीं थी. औऱ तू अच्छे से जानता है उस गलती की सजा केवल मौत थी फिर क्यों मुझे इतनी सजा मिल रही है?

बैरागी - ये सजा मैंने नहीं किसी औऱ ने तय की है आपके लिए हुकुम. मैं तो केवल जरिया मात्र हूँ.. मैंने कहा था मुझे वो ताबीज मेरे गले से उतार लेने दो मगर आपने मेरी एक बात ना सुनी औऱ अपनी तलवार से मेरा सर अलग कर दिया.. उस दिन से आज तक जो जो दुख दर्द औऱ पीड़ाये आपने झेली है ये उसी का परिणाम है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - मैं क्रोध की अग्नि में सुलग रहा था बैरागी.. मुझे कहा सही गलत औऱ अच्छे बुरे का ख्याल था? मगर तूने आज तक नहीं बताया उस ताबीज में ऐसा था क्या? जो तू उस दिन से आज तक इस तरह बेताल बनकर मेरे कंधे पर बैठा है.. तूने तो कहा था तू केवल वैद्य औऱ उपचार जानता है..

बैरागी - उस ताबीज मे ऐसा क्या था वो तो मुझे भी नहीं पता हुकुम. मैं तो बस इतना जानता हूँ कि आपने जो अमर होने कि लालच में प्रकृति के नियम को बदला है उसकी सजा आपको इस तरह मिल रही है.

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - सैकड़ो साल.. बड़े से बड़े तपस्वी औऱ साधुओ के पास रहकर आ चूका हूँ बैरागी.. बहुत कुछ सिखने को मिला इस प्रकृति के कुछ रहस्य भी समझ आये मगर वो नहीं पता चला जो पता करना था.. मगर अब लगता है बैरागी तेरा औऱ मेरा सफर जरूर ख़त्म हो जाएगा. अगर वो लड़का मेरे कार्य में सफल रहा तो मेरे साथ साथ तुझे भी मुक्ति मिल जायेगी..

बैरागी - समय के गर्भ में क्या छीपा है ये तो वही जानता है हुकुम..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - थोड़ी देर तो सोने दे बैरागी इतना सताना ठीक नहीं. देख मेरी आँखे किस तरह पथरा गई है जब इनमे नींद उतरती है तू आकर इनसे नींद छीन लेटा है.. उस दिन से आज तक कोई भी सुख तूने मुझे महसूस नहीं करने दिया.. इतना सब ज्ञान औऱ कलाये जानने के भी मैं तेरे औऱ मेरे लिए कुछ नहीं कर सकता..

बैरागी - मैं भी कब से आपको सुखी देखना चाहता हूँ हुकुम.. मगर मै मजबूर हूँ. कोई है जो मुझसे ये सब करवा रहा है.. जिसके बारे में मुझे भी नहीं पता..

कुटिया के दरवाजे पर खट खट की आवाज आती है तो बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र सिंह सामने बैठे बैरागी के साये से बात करना बंद करके थोड़ा तेज़ कहते है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - कौन?
किशोर - बड़े बाबाजी मैं किशोर..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - अंदर आजा..

किशोर कुटिया के अंदर आता है जहा वो बड़े बाबाजी को दण्डवत प्रणाम करके कुटिया में अकेले बैठे बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र सिंह से कहता है..
किशोर - बड़े बाबाजी भोर की पहली किरण निकल चुकी है आपके स्नान की सारी व्यवस्थाये हो चुकी है..

बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र - ठीक है चलो..


बड़े बाबाजी उर्फ़ वीरेंद्र सिंह किशोर के अनुरोध पर कुटिया से बाहर आ जाता है औऱ नहाने चला जाता है कुछ देर बाद सूरज जब चढ़ता है तब पहाड़ी पर लोगों के आने का ताँता लगने लगता है.. ये भीड़ बाबाजी से अपने दुखो का समाधान पूछने आये लोगों का था जो एक के बाद एक कतार में बैठ रहे थे..
shandaar update hai nikku ji
geet padhkar toh maja hi aa gaya bahut pyara geet hai
past me le jaakar story ko aur romanchik rochak bana diya hai
bade babaji(virendra singh) toh amar hai unke saath bairagi bhi vedal ke roop me rehta hai yeh ku hua aisa kya hua honga jiske karan virendra singh ne bairagi ka gala kaat diya aur taveej na utarne se woh vedal ban gaya ab yeh aveej ka kya raaj hai lekin jo bhi honga interesting hi honga
gugu ke upar bahut badi jimmedaari aane wali hai bahut bada karya karne wala hai gugu ab toh intjar hai ki kab woh dhaga safed honga aur kab gugu veersingh ka roop lenga
pratiksha rahegi agle update ki....
 
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