- 22,546
- 58,927
- 259
भाग १०० - ननद की बिदाई -
बाँझिन का सोहर

२३,७६,200
मैं खिड़की के बाहर देख रही थी, चुपचाप, जिस रास्ते से ननद गयी थीं, घर में अकेली । ये तो सबेरे ही निकल गयी थे, थोड़ी देर पहले सासू माँ भी।
पहले तो डोली पालकी से बेटी बिदा होती थी, अभी तो दू चक्की, नन्दोई की फटफटिया पे पीछे बैठ के ननद,
घर खाली लग रहा था, एकदम सूना। मुझे लग रहा था जैसे ननद नहीं बिटिया को बिदा किया है, वही नीम का बड़ा सा पेड़, उसके थोड़ी दूर पर पाकुड़, बरगद और पांच पेड़ आम के, बगल में कूंवा, जब से गौने उतरी थी, कितनी बार देख चुकी थी, पर आज सब एकदम बदला लग रहा था, खाली खाली, सूना,
सासू माँ ने कहा आज ननद को अंचरा भराई, बिदाई मैं करूँ।
मैं समझ सकती थी, उनकी हालत। न ननद ने उनसे कुछ कहा था न मैंने, लेकिन जिस बेटी को माँ ने पेट में नौ महीने रखा हो,… उसका दुःख सुख कहना पड़ता है क्या।
वो दरवाजे पे खड़ी, मुझे,… मेरी ननद को देख रहे थीं, बार बार उनकी पलकें झपक रही थीं, किसी तरह आंसू को भीतर ठेलते, वापस,
ननद से चाहे जितना मजाक करें, गरियाये, लेकिन पैर छूते हैं, और ये तो उमर में भी ज्यादा नहीं, लेकिन बड़ी तो थी हीं। मैं जैसे पैर छूने के लिए झुकी, ननद ने मुझे रोक दिया और हम लोग गले भेंट के, देर तक,
न वो बोलीं, न मैं, बस सावन भादों हम दोनों की आँखों से, झर झर, न मैंने रोकने की कोशिश की आंसुओं को न उन्होंने,
" भौजी, तू न होतु, तो हम कउनो ताल पोखरा में मिलते"
किसी तरह मेरे मुंह से बोल निकले ,
"चुप, अब आगे से सोचिएगा मत, हँसत बिहँसत जा, हँसत बिहँसत आवा। अब तू एक जनी नहीं दो जान हो, ….और हम काहें न होते, ऊपर से लिखवा के लाये थे "
अंचरा में दूब, घर का चावल, हल्दी, पांच बताशा और फिर मांग में सिन्दूर,
लग रहा था मैं बेटी की बिदाई कर रही थी और कान में ननद की बात गूँज रही थी,
"भौजी जिद करके हम होली में आये थे, अबकी तय किये थे खूब मस्ती करेंगे, एक बार तो खुश हो लें, जो हमरी सास तय की थी, हमारे बस का नहीं, …. मुझे पक्का लग रहा था ये आखिरी होली होगी और आप से, माई से, भैया से अब दुबारा मिलना हो की न हो, …..सासु ने तो निकलते निकलते,…. बाँझिन का बोल,"
एक बार हम दोनों फिर अँकवार में, और मैंने फुसफुसाते हुए कहा,
"केहू जोर से भी बोले न तो बस एक दायं फोन घुमा दीजियेगा, कुछ नहीं तो मिस्ड काल, दो घंटे के अंदर तोहार भैया दरवाजे पे होंगे, सोना अस हमार ननद,… तोहार भाई हैं, भौजाई है, माई है "
अब ननद मेरी थोड़ी मुस्काई, बोलीं
"लोग कहते हैं मायका माई से होता है, लेकिन हमार भौजी तो माई से भी बढ़कर, "
तबतक नन्दोई जी भी आये, झुक के, हाथ में आँचल पकड़ के माथे पे लगा के उनका पैर छूने के बाद उन्हें भी दही गुड़ खिला के बिदाई की रस्म पूरी की और अपने को रोकते भी उन्हें समझा दिया
" अबकी आप एक नहीं दो को ले जा रहे हैं तो रस्ते में सम्हाल के, बेटी की भी जिम्मेदारी आपके ऊपर सबसे ज्यादा, और दस दिन बाद हमारी ननद वापस कर दीजियेगा, मैं खुद जाके डाक्टर मीता को, अपनी डाक्टर भौजी को दिखा के लाऊंगी, "
काफी देर हो गयी थी, ननद पहुंच भी गयी थीं, ननद की सास का फोन भी मेरे सास के पास आ गया था, और मैं सूनी आँखों से खिड़की की ओर देख रही थी,…. लग रहा था अभी ननद आ जाएंगी।
मैं एक सोहर गा रही थी, गुनगुना रही थी धीरे धीरे, अक्सर ये सोहर* लोग गाते नहीं,.... लेकिन पता नहीं क्यों मेरे मन में,….
और गाने के साथ एक कागज के टुकड़े टुकड़े कर के आग में डाल रही थी,
*( सोहर -पुत्र जन्म के अवसर पर गायेजाना वाला लोक गीत )
बाँझिन का सोहर

२३,७६,200
मैं खिड़की के बाहर देख रही थी, चुपचाप, जिस रास्ते से ननद गयी थीं, घर में अकेली । ये तो सबेरे ही निकल गयी थे, थोड़ी देर पहले सासू माँ भी।
पहले तो डोली पालकी से बेटी बिदा होती थी, अभी तो दू चक्की, नन्दोई की फटफटिया पे पीछे बैठ के ननद,
घर खाली लग रहा था, एकदम सूना। मुझे लग रहा था जैसे ननद नहीं बिटिया को बिदा किया है, वही नीम का बड़ा सा पेड़, उसके थोड़ी दूर पर पाकुड़, बरगद और पांच पेड़ आम के, बगल में कूंवा, जब से गौने उतरी थी, कितनी बार देख चुकी थी, पर आज सब एकदम बदला लग रहा था, खाली खाली, सूना,
सासू माँ ने कहा आज ननद को अंचरा भराई, बिदाई मैं करूँ।
मैं समझ सकती थी, उनकी हालत। न ननद ने उनसे कुछ कहा था न मैंने, लेकिन जिस बेटी को माँ ने पेट में नौ महीने रखा हो,… उसका दुःख सुख कहना पड़ता है क्या।
वो दरवाजे पे खड़ी, मुझे,… मेरी ननद को देख रहे थीं, बार बार उनकी पलकें झपक रही थीं, किसी तरह आंसू को भीतर ठेलते, वापस,
ननद से चाहे जितना मजाक करें, गरियाये, लेकिन पैर छूते हैं, और ये तो उमर में भी ज्यादा नहीं, लेकिन बड़ी तो थी हीं। मैं जैसे पैर छूने के लिए झुकी, ननद ने मुझे रोक दिया और हम लोग गले भेंट के, देर तक,
न वो बोलीं, न मैं, बस सावन भादों हम दोनों की आँखों से, झर झर, न मैंने रोकने की कोशिश की आंसुओं को न उन्होंने,
" भौजी, तू न होतु, तो हम कउनो ताल पोखरा में मिलते"
किसी तरह मेरे मुंह से बोल निकले ,
"चुप, अब आगे से सोचिएगा मत, हँसत बिहँसत जा, हँसत बिहँसत आवा। अब तू एक जनी नहीं दो जान हो, ….और हम काहें न होते, ऊपर से लिखवा के लाये थे "
अंचरा में दूब, घर का चावल, हल्दी, पांच बताशा और फिर मांग में सिन्दूर,
लग रहा था मैं बेटी की बिदाई कर रही थी और कान में ननद की बात गूँज रही थी,
"भौजी जिद करके हम होली में आये थे, अबकी तय किये थे खूब मस्ती करेंगे, एक बार तो खुश हो लें, जो हमरी सास तय की थी, हमारे बस का नहीं, …. मुझे पक्का लग रहा था ये आखिरी होली होगी और आप से, माई से, भैया से अब दुबारा मिलना हो की न हो, …..सासु ने तो निकलते निकलते,…. बाँझिन का बोल,"
एक बार हम दोनों फिर अँकवार में, और मैंने फुसफुसाते हुए कहा,
"केहू जोर से भी बोले न तो बस एक दायं फोन घुमा दीजियेगा, कुछ नहीं तो मिस्ड काल, दो घंटे के अंदर तोहार भैया दरवाजे पे होंगे, सोना अस हमार ननद,… तोहार भाई हैं, भौजाई है, माई है "
अब ननद मेरी थोड़ी मुस्काई, बोलीं
"लोग कहते हैं मायका माई से होता है, लेकिन हमार भौजी तो माई से भी बढ़कर, "
तबतक नन्दोई जी भी आये, झुक के, हाथ में आँचल पकड़ के माथे पे लगा के उनका पैर छूने के बाद उन्हें भी दही गुड़ खिला के बिदाई की रस्म पूरी की और अपने को रोकते भी उन्हें समझा दिया
" अबकी आप एक नहीं दो को ले जा रहे हैं तो रस्ते में सम्हाल के, बेटी की भी जिम्मेदारी आपके ऊपर सबसे ज्यादा, और दस दिन बाद हमारी ननद वापस कर दीजियेगा, मैं खुद जाके डाक्टर मीता को, अपनी डाक्टर भौजी को दिखा के लाऊंगी, "
काफी देर हो गयी थी, ननद पहुंच भी गयी थीं, ननद की सास का फोन भी मेरे सास के पास आ गया था, और मैं सूनी आँखों से खिड़की की ओर देख रही थी,…. लग रहा था अभी ननद आ जाएंगी।
मैं एक सोहर गा रही थी, गुनगुना रही थी धीरे धीरे, अक्सर ये सोहर* लोग गाते नहीं,.... लेकिन पता नहीं क्यों मेरे मन में,….
और गाने के साथ एक कागज के टुकड़े टुकड़े कर के आग में डाल रही थी,
*( सोहर -पुत्र जन्म के अवसर पर गायेजाना वाला लोक गीत )