जीवंत कहानी ऐसी हीं होती है....जिम्मेदारियां कई बार वक्त से पहले बड़ा कर देती हैं
और कई बार बूढा भी।
पर शायद इस फोरम /कथा शैली की परम्परा से अलग मैं वो बातें कर रही हूँ जिसे सुनने सुनाने न कोई आता है न करनी चाहिए पर क्या करूँ मेरी कहानियां शरारती बच्चों की तरह है एक अलग दिशा में मुड़ जाती है और बाते भी।
इसी तरह के पार्ट थे जब जिंदगी फंतासी पर भारी पड़ गयी। भाग ५५ और ५६ इसी तरह के पार्ट थे।
और ऐसा क्यों कहा आपने कि सुनने कोई नहीं आता...
आते बहुत सारे लोग हैं ...
लेकिन पहले जैसे नानी कहानी सुनाती थी तो हम हुंकारी भरते थे...
अब कहानी में हुंकारी नहीं भरते बल्कि कुछेक लोग हीं ओरिजिनल कहानी पढ़ते हुए दो शब्द कह पाते हैं...