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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता।
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता।।

न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में,
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता।।

ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती,
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता।।

तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते,
अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता।।

______"दाग़" देहलवी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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पुकारती है ख़ामोशी मेरी फ़ुगां की तरह।
निगाहें कहती हैं सब राज़-ए-दिल ज़ुबां की तरह।।

जला के दाग़-ए-मुहब्बत ने दिल को ख़ाक किया,
बहार आई मेरे बाग में ख़िज़ां की तरह।।

तलाश-ए-यार में छोड़ी न सर-ज़मीं कोई,
हमारे पांव में चक्कर हैं आसमां की तरह।।

अदा-ए-मत्लब-ए-दिल हमसे सीख जाए कोई,
उन्हें सुना ही दिया हाल दास्तां की तरह।।

_______"दाग़" देहलवी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया,
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया।।

हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया,
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया।।

हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता,
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया।।

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी,
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया।।

ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया,
कि दिल से शोर उठा, हाए! बेक़रार किया।।

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं,
आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया।।

भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां,
छिपा छिपा के मोहब्बत के आशकार किया।।

तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था,
ये क्या किया कि जहाँ के उम्मीदवार किया।।

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मालन्देश,
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया।।

न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं,
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया।।

कुछ आगे दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे,
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया।।

________"दाग़" देहलवी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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रस्म-ए-उल्फ़त सिखा गया कोई।
दिल की दुनिया पे छा गया कोई।।

ता कयामत किसी तरह न बुझे,
आग ऐसी लगा गया कोई।।

दिल की दुनिया उजाड़ सी क्यूं है,
क्या यहां से चला गया कोई।।

वक्त-ए-रुखसत गले लगा कर 'दाग़',
हंसते हंसते रुला गया कोई।।

______"दाग़" देहलवी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ।
हुस्न-ए-यज़्दां
से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं।।

तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था,
मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ।।

सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें,
मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ।।

वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल,
यूं तो मैं टूटते तारों का धुआं तक देखूँ।।


दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता,
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ।।


एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद,
हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ।।


______अहमद नदीम क़ासमी
 

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ख़ुदा नहीं, न सही, ना-ख़ुदा नहीं, न सही।
तेरे बगै़र कोई आसरा नहीं, न सही।।

तेरी तलब का तक़ाज़ा है ज़िन्दगी मेरी,
तेरे मुक़ाम का कोई पता नहीं, न सही।।

तुझे सुनाई तो दी, ये गुरूर क्या कम है,
अगर क़बूल मेरी इल्तिजा नहीं, न सही।।

तेरी निगाह में हूँ, तेरी बारगाह में हूँ,
अगर मुझे कोई पहचानता नहीं, न सही।।

नहीं हैं सर्द अभी हौसले उड़ानों के,
वो मेरी जात से भी मावरा नहीं, न सही।।

_______अहमद नदीम क़ासमी
 

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गुलाबों की तरह दिल अपना शबनम में भिगोते हैं।
मोहब्बत करने वाले ख़ूबसूरत लोग होते हैं।।

किसी ने जिस तरह अपने सितारों को सजाया है,
ग़ज़ल के रेशमी धागे में यूँ मोती पिरोते हैं।।

पुराने मौसमों के नामे-नामी मिटते जाते हैं,
कहीं पानी, कहीं शबनम, कहीं आँसू भिगोते हैं।।

यही अंदाज़ है मेरा समन्दर फ़तह करने का,
मेरी काग़ज़ की कश्ती में कई जुगनू भी होते हैं।।

सुना है बद्र साहब महफ़िलों की जान होते थे,
बहुत दिन से वो पत्थर हैं, न हँसते हैं न रोते हैं।।

________डाॅ. बशीर बद्र
 

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कहीं चांद राहों में खो गया कहीं चांदनी भी भटक गई।
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई।।

मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में,
मेरे साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गई।।

कभी हम मिले तो भी क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले,
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गई।।

मुझे पदने वाला पढ़े भी क्या मुझे लिखने वाला लिखे भी क्या,
जहाँ नाम मेरा लिखा गया वहां रोशनाई उलट गई।।

तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी क़ामयाब न हो सकीं,
तेरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई।।


_______डाॅ. बशीर बद्र
 

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मेरे साथ तुम भी दुआ करो यूँ किसी के हक़ में बुरा न हो।
कहीं और हो न ये हादसा कोई रास्ते में जुदा न हो।।

मेरे घर से रात की सेज तक वो इक आँसू की लकीर है,
ज़रा बढ़ के चाँद से पूछना वो इसी तरफ़ से गया न हो।।

सर-ए-शाम ठहरी हुई ज़मीं, आसमाँ है झुका हुआ,
इसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चराग़ ले कर खड़ा न हो।।

वो फ़रिश्ते आप ही ढूँढिये कहानियों की किताब में,
जो बुरा कहें न बुरा सुने कोई शख़्स उन से ख़फ़ा न हो।।

वो विसाल हो के फ़िराक़ हो तेरी आग महकेगी एक दिन,
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या जो चराग़ बन के जला न हो।।

मुझे यूँ लगा कि ख़ामोश ख़ुश्बू के होँठ तितली ने छू लिये,
इन्ही ज़र्द पत्तों की ओट में कोई फूल सोया हुआ न हो।।

इसी एहतियात में मैं रहा, इसी एहतियात में वो रहा,
वो कहाँ कहाँ मेरे साथ है किसी और को ये पता न हो।।

_______डाॅ. बशीर बद्र
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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बहार रुत मे उजड़े रस्ते,
तका करोगे तो रो पड़ोगे।
किसी से मिलने को जब भी मोहसिन,
सजा करोगे तो रो पड़ोगे।।

तुम्हारे वादों ने यार मुझको,
तबाह किया है कुछ इस तरह से।
कि जिंदगी में जो फिर किसी से,
दगा करोगे तो रो पड़ोगे।।

मैं जानता हूँ मेरी मुहब्बत,
उजाड़ देगी तुम्हें भी ऐसे।
कि चाँद रातों मे अब किसी से,
मिला करोगे तो रो पड़ोगे।।

बरसती बारिश में याद रखना,
तुम्हें सतायेंगी मेरी आँखें।
किसी वली के मज़ार पर जब
दुआ करोगे तो रो पड़ोगे।।

_______"मोहसिन" नक़्वी
 
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