भाभी ने फुसफुसाते हुए कहा,another sequel too has background of Tantra, which was based in Banaras and let me share it again here.
आलमोस्ट खुला मैदान, कुछ पुराने पेड़ , और दो मकानों के बीच एक संकरी सी जगह थी , गली भी नहीं, बस हम दोनों का हाथ पकड़ के भाभी करीब करीब खींचते हुए उस दरार सी जगह से ले गयीं, करीब दो तीन सौ मीटर हम लोग ऐसे ही चले, फिर एक एकदम खुले मैदान में हम तीनों, कुछ भी नहीं था, बस कुछ टूटी दीवालें , ढेर सारे पेड़ थोड़े दूर दूर, और एक दो पेड़ों के नीचे कुछ साधू गांजे का दम लगाते, लेकिन एकदम अलग ढंग के, बहुत पुराने बाल जटा जूट से , भभूत लपेटे,... और जब वो चिलम खींचते तो आग की लपट ऊपर तक उठती,
भाभी ने हम दोनों को इशारे से बताया की हम उधर न देखें, और हम दोनों का हाथ पकडे पकडे, एक टूटी बहुत पुरानी दीवाल के सहारे, दीवाल में जगह जगह पेड़ उगे हुए थे, ईंटे गिर रहे थे, भाभी ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा, तो सूरज बस अस्तांचल की ओर , एक पीले आग के गोले की तरह, आसमान एकदम साफ़,
हम दोनों भाभी का हाथ पकडे पकडे,... और जहाँ वो दीवाल ख़तम हो रही थी, कुछ बहुत पुराने खडंहर, बरगद के पाकुड़ के पेड़ , पेड़ों के खोटर , और जैसे ही हम खंडहर में घुसे,...
ढेर सारे चमगादड़, ... उड़ गए, गुड्डो डर के मुझसे चिपक गयी.
लेकिन भाभी मेरा हाथ पकड़ के करीब खींचते हुए, गुड्डो मुझसे चिपकी दुबकी, आलमोस्ट अँधेरा और चमगादड़ों के फड़फाड़ने की जोर जोर आवाज, और उसी खंडहर की एक टूटी दीवार, और वो भी एक पेड़ की ओट में, दीवार में जैसे कोई ईंटों के ढहने से दो ढाई फीट का एक छेद सा बन गया था, नीचे दो ढाई फीट ईंटे थे उसके बाद वो टूटा हिस्सा, और उसके पीछे भी कोई बड़ा पेड़,
भाभी ने मुझे इशारा किया और गुड्डो को हाथ में उठा के आलमोस्ट कूद के उस टूटी जगह से मैं और पीछे पीछे भाभी,... गुड्डो मेरी गोद में चढ़ी दुबकी, कस के चिपकी,...
एक बार फिर भाभी ने मेरा हाथ पकड़ा और उस पेड़ के पीछे,.... अब जैसे हम किसी पुराने खंडहर के आंगन में पहुँच गए थे, एकदम सन्नाटा, शाम अब गहरा रही थी , और भाभी ने चारो ओर देखा, एक ओर उन्हे पीली सी रौशनी आती दिखी,... रौशनी कहीं दूर से आ रही थी झिलमिल झिलमिल,..
और एक सरसराती हुयी ठंडी हवा पता नहीं किधर से आ रही थी, चारो ओर एक चुप्पी सी छायी थी, बस वही हवा की सरसराहट सुनाई दे रही थी,गुड्डो का डर अब ख़तम हो चुका था, वो मेरे सामने खड़ी मुझे देख रही थी, मुस्कराते और अचानक उसने मुझे अपनी बांहों में दुबका लिया और उसके होंठ मेरे होंठों पर चिपक गए, मुझे भी एक अलग ढंग का अहसास हो रहा था अच्छा अच्छा , कोमल सा मीठा।
तभी मैंने देखा, भाभी आंगन के दूसरे किनारे से जहाँ से वो झिलमिल झिलमिल रोशनी आ रही थी, वहीं खड़ी इशारे से हम दोनों को बुला रही थीं,...
वह पीली रोशनी एक ताखे में रखे बड़े से कडुवे तेल के दीये से आ रही थी और लग रहा था जैसे जमाने से इसी ताखे में वो दीया जल रहा हो. उसकी कालिख से पूरा ताखा काला हो गया था। और उस ताखे के बगल में एक खूब बड़ा सा पुराना दरवाजा बंद था, उसमें लेकिन कोई सांकल नहीं थी, एक चौड़ी सी चौखट और खूब ऊँची, फीट . डेढ़ फीट ऊँची, दरवाजे के चारो ओर लगता है लकड़ी के चौखटों पर किसी जमाने में चांदी का काम रहा होगा लेकिन अब सब धुंधला गया था। दरवाजे के ऊपर कुछ मिथुन आकृतियां बनी थीं, और दरवाजे के दोनों ओर लगता है चांदी के रहे होंगे या चांदी मढ़े नाग नागिन का जोड़ा, ...
भाभी ने फुसफुसाते हुए कहा,
इस दरवाजे को पार करने के बाद हम वापस नहीं आ सकते,... इसलिए सोच लो,...
मैं और गुड्डो कस के हाथ पकडे एक दूसरे का बस चुप रहे, तो भाभी ने आगे की बातें बोली,
बस तीन बात याद रखो, अपना मन दिमाग, सही गलत सब खाली कर दो इस दरवाजे को पार करने के पहले, उसके बाद जो पुजारी कहेंगे, मैं बिना बोले हाथ के इशारे से या खुद करुँगी, बस मुझे करने देना,...
मैंने गुड्डो का हाथ कस के दबाया और उसने मेरा, और हम दोनों का मौन ही स्वीकृति था।
दूसरी बात, हम तीनों को ये जो कपड़ा मैं दे रही हूँ , वही पहनना है , उसके अलावा कुछ भी नहीं, कोई एक धागा तक इसके अलावा नहीं होगा। और वो जो पूजा की सामग्री ली हुए थीं उसी में एक झोला उन्होंने खोला, मुश्किल से दो तीन हाथ का मलमल का सफ़ेद कपडा, बिना सिला और ऐसे तीन कपडे ,...
मैंने अपने कपडे उतारने की कोशिश की तो उन्होंने रोक दिया और बोलीं अब तुम कुछ नहीं करोगे , जो करुँगी मैं करुँगी या जब तक मैं या पुजारी कुछ करने को न कहे,
उन्होंने पहले मेरे फिर गुड्डो के कपडे उतारे और वही कपडा आधी धोती की तरह मुझे और साडी की तरह गुड्डो को पहना दिया, हाँ गाँठ न उन्होंने मेरी धोती में बाँधी न गुड्डो की साड़ी में बस लपेट दी। और फिर खुद भी उसी तरह वो सफ़ेद कपड़ा लपेट लिया,
और अब तीसरी बात,... लेकिन ये बात कहने के पहले , उन्होंने उस दीये से निकली कालिख को काजल की तरह मेरी आँखों में अच्छी तरह लगाया, और मुझे बोला की मैं आँखे बंद कर लूँ और जब तक वो न कहें , आँखें न खोलूं। काजल आँखों के बाद, मेरी दोनों भुजाओं पर, वक्षस्थल पर निप्स के नीचे, नाभि पर और दोनों जाँघों पर लगाया।
मेरी आँखे अच्छी तरह छरछरा रही थीं, लेकिन कुछ देर बाद मुझे सब कुछ दिख रहा था, बिना आँखे खोले ,
गुड्डो के आँख में भाभी काजल लगा रही थीं , फिर उसके दोनों सीनो पर, फिर नाभि पर,...
और जहां पहले आँगन में बस इसी दिए की रौशनी दिख रही थी अब न जाने कहाँ कहाँ से रौशनी छन छन कर आ रही थी। जैसे हम सब रौशनी से नहाये हुए थे, एक अजीब से आनंद की अनुभूति हो रही थी।
और तीसरी बात अब दरवाजे के पार की बातें हफ्ते भर तक किसी से कहना तो छोड़ सोचना भी मत क्या हुआ क्यों हुआ,...
और तुम और गुड्डो अब जोड़े से साथ साथ वो भांग की बर्फी नाग नागिन को खिलाओं,
जैसे ही हमने खिलाई, जैसे हम दोनों के हाथ से वो बर्फी गायब हो गयी, तेजी से एक सरसराने की आवाज आयी और तेज हवा,...
दरवाजा खुल गया था, और जो झिरझिर हवा अब तक हलकी हलकी हम महसूस कर रहे थे वही अब पूरे तेजी के साथ,
गुड्डो को ,... और भाभी की बात को जैसे मैं बिना कहे समझ गया था, उन नाग नागिन को मैंने हाथ जोड़ा, आदर से झुका , और गुड्डो को उठाकर उस ऊँची चौखट के पार हो गया, भाभी मेरे बाएं मेरे साथ,... और फिर दरवाजे के पार एक बहुत पुराने पेड़ों का झुण्ड,
मंदिर के कपाट खुले थे, बल्कि लग रहा था कपाट शायद थे ही नहीं, और पुष्पों की सुरभि वाला एक धूम्र सेतु बस वही दिख रहा था, और उसे बेधती, सूर्य की किरणे, जो सीधे मंदिर के गर्भ गृह तक जैसे स्वर्णजटित कोई रूपसी पूजा में लीन हो और बिन मुड़े, बिन देव की ओर पीठ दिखाए , छोटे छोटे डग भरते वापस लौट रही हो,
और जब मैं एकदम पास पहुंचा, तो जैसे स्वर्णकिरणऔर धूम्र मिश्रित रूप के ही बने पुजारी, मैं जैसे ही प्रणाम की मुद्रा में झुका और उनकी अभय मुद्रा, आशीष के हाथ को मैंने अपने सर, और माथे पर महसूस किया,... और बिना उनके बोले,... और मैंने मन में सोचा ही था क्या मांगूंगा,... रजत जड़ित वह द्वार शायद गजराजों के जोर से भी नहीं हिलता, लेकिन अपने आप, एक अलग ढंग की रौशनी
और दरवाजे के ठीक ऊपर एक तोते की आकृति,... जैसे पन्ने का हो, पल भर के लिए चमका, नीचे कुछ मंत्र सा लिखा,... और उसी समय भाभी ने गुड्डो की ओर दिखा के कुछ इशारा किया,
ऊँची सी चौखट, गुड्डो को गोद में उठाकर मैं द्वार के पार, बांये भाभी,
बिन बोले जैसे मन मना कर रहा हो पीछे मुड़ के देखने को,
जीवन और समय आगे ही चलते हैं,
और अब आगे ढेर सारे पेड़, अशोक के छोटे छोटे लाल फूलों से लदे, आम्र मंजरी से भरे पड़े ढेर सारे आम के पेड़, उन सब पर सैकड़ों तोते,... चमेली की बेल और लताओं पेड़ों का एक गझिन गुम्फन लेकिन उनको पार करती सूरज की विदा लेती सुनहली किरणे, और उन पेड़ों के बीच एक बहुत ही पुराना मंदिर,
एक बहुत ही अलग ढंग की हवा, सुरभित मंद मलय समीर,आम की बौर की महक के साथ चम्पा और चमेली की महक,
भाभी ने इशारा किया और पूजा की सामग्री जो भाभी के हाथ में थी उसके अलावा हमारे पहने कपडे, झोले सा गुड्डो का पर्स , बाकी सब सामान एक पेड़ के नीचे रख दिया, और भाभी के साथ हम दोनों, पेड़ों का झुरमुट और उसके ठीक बीचोबीच एक पुराना सा मंदिर और उसके शिखर पर डूबते सूर्य की किरणें पड़ रही थी और सूरज की उन किरणों से वो सोने सा चमक रहा था।
भाभी ने मुझे इशारा किया, ( वह पहले ही बोल चुकी थीं मुझे और गुड्डो को, हम दोनों को बोलना
लेकिन मेरे होंठ हिले ही नहीं की उनका आशीर्वचन में उस इच्छा की पूर्ती,... अगले चार वर्ष महादेव के शरण में और दो वर्ष माँ काली की पूजा का अवसर,.... उन्होंने भी बोला भी नहीं, ... उनके होंठ भी नहीं हिले पर मुझे जैसे सीधे मन और मष्तिष्क में एक साथ,...
यही तो मैं चाहता था,
और फिर एक आवाज सी आयी, पता नहीं कहाँ से पुजारी जी के होंठ अभी भी नहीं हिले थे, बस जैसे मेरे कानों में घुल रही हो हो,...
" यह तुम्हारी इच्छा नहीं है यह तो तुम्हारा भवितव्य है, ... " एक मुस्कराती सी आवाज,...
और फिर वही आवाज, भाभी से,... एकदम ठीक समय पर आयी हो और यही , इन्ही के लिए, ... "
भाभी की बस पलकें झुक गयी, और वो हाथ मैंने फिर से सर पर महसूस किया जैसे कह रहे हों , वो पढ़ाई लिखाई नौकरी , ये तो होता ही है ,चाहते क्या हो,...
मैंने बस गुड्डो की ओर, और खुद बढ़ कर उसने मेरे हाथ को हाथ लिया,
एक मृदुल स्मिति,... और फिर वही आवाज,
' ये तो तेरा कर्म है और कर्मों का फल भी,... "
जैसे बच्चा माँ की गोद में सर घुसेड़े, तोड़े मरोड़े, बस उसे अच्छा लग रहा और कुछ भी समझ में न आ रहा हो,...
काम,... शक्ति,.. आनंद,... पुरुष,... बस कुछ कुछ,... और ये भी
स्मरण और विस्मरण दोनों ही जरूरी हैं और दोनों एक दूसरे के पूरक,... यहाँ से जाते ही सब कुछ विस्मृत के गर्त में और कुछ यादों का धंधलका जिसमें याद भी न रहे की क्या याद है या क्या कल्पना,...
जैसे एकदम संवेदन शून्य होकर या संवेदना की आखिरी चढ़ाई पार कर के
इस दरवाजे को पार करने के बाद हम वापस नहीं आ सकते,... इसलिए सोच लो,...
इस पोस्ट उपरोक्त पंक्तियों के बाद कहानी.. शायद पहली बार पोस्ट की है...
चारों तरफ के माहौल को सही शब्दों में ढालकर .. कल्पनाओं को एकदम मूरत रूप दे दिया है....
और मानवीय अहसास, चेतना, वेदना, जज्बात को छू लिया है....