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Erotica जोरू का गुलाम उर्फ़ जे के जी

motaalund

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another sequel too has background of Tantra, which was based in Banaras and let me share it again here.

आलमोस्ट खुला मैदान, कुछ पुराने पेड़ , और दो मकानों के बीच एक संकरी सी जगह थी , गली भी नहीं, बस हम दोनों का हाथ पकड़ के भाभी करीब करीब खींचते हुए उस दरार सी जगह से ले गयीं, करीब दो तीन सौ मीटर हम लोग ऐसे ही चले, फिर एक एकदम खुले मैदान में हम तीनों, कुछ भी नहीं था, बस कुछ टूटी दीवालें , ढेर सारे पेड़ थोड़े दूर दूर, और एक दो पेड़ों के नीचे कुछ साधू गांजे का दम लगाते, लेकिन एकदम अलग ढंग के, बहुत पुराने बाल जटा जूट से , भभूत लपेटे,... और जब वो चिलम खींचते तो आग की लपट ऊपर तक उठती,

भाभी ने हम दोनों को इशारे से बताया की हम उधर न देखें, और हम दोनों का हाथ पकडे पकडे, एक टूटी बहुत पुरानी दीवाल के सहारे, दीवाल में जगह जगह पेड़ उगे हुए थे, ईंटे गिर रहे थे, भाभी ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा, तो सूरज बस अस्तांचल की ओर , एक पीले आग के गोले की तरह, आसमान एकदम साफ़,

हम दोनों भाभी का हाथ पकडे पकडे,... और जहाँ वो दीवाल ख़तम हो रही थी, कुछ बहुत पुराने खडंहर, बरगद के पाकुड़ के पेड़ , पेड़ों के खोटर , और जैसे ही हम खंडहर में घुसे,...

ढेर सारे चमगादड़, ... उड़ गए, गुड्डो डर के मुझसे चिपक गयी.

लेकिन भाभी मेरा हाथ पकड़ के करीब खींचते हुए, गुड्डो मुझसे चिपकी दुबकी, आलमोस्ट अँधेरा और चमगादड़ों के फड़फाड़ने की जोर जोर आवाज, और उसी खंडहर की एक टूटी दीवार, और वो भी एक पेड़ की ओट में, दीवार में जैसे कोई ईंटों के ढहने से दो ढाई फीट का एक छेद सा बन गया था, नीचे दो ढाई फीट ईंटे थे उसके बाद वो टूटा हिस्सा, और उसके पीछे भी कोई बड़ा पेड़,

भाभी ने मुझे इशारा किया और गुड्डो को हाथ में उठा के आलमोस्ट कूद के उस टूटी जगह से मैं और पीछे पीछे भाभी,... गुड्डो मेरी गोद में चढ़ी दुबकी, कस के चिपकी,...

एक बार फिर भाभी ने मेरा हाथ पकड़ा और उस पेड़ के पीछे,.... अब जैसे हम किसी पुराने खंडहर के आंगन में पहुँच गए थे, एकदम सन्नाटा, शाम अब गहरा रही थी , और भाभी ने चारो ओर देखा, एक ओर उन्हे पीली सी रौशनी आती दिखी,... रौशनी कहीं दूर से आ रही थी झिलमिल झिलमिल,..

और एक सरसराती हुयी ठंडी हवा पता नहीं किधर से आ रही थी, चारो ओर एक चुप्पी सी छायी थी, बस वही हवा की सरसराहट सुनाई दे रही थी,गुड्डो का डर अब ख़तम हो चुका था, वो मेरे सामने खड़ी मुझे देख रही थी, मुस्कराते और अचानक उसने मुझे अपनी बांहों में दुबका लिया और उसके होंठ मेरे होंठों पर चिपक गए, मुझे भी एक अलग ढंग का अहसास हो रहा था अच्छा अच्छा , कोमल सा मीठा।

तभी मैंने देखा, भाभी आंगन के दूसरे किनारे से जहाँ से वो झिलमिल झिलमिल रोशनी आ रही थी, वहीं खड़ी इशारे से हम दोनों को बुला रही थीं,...


वह पीली रोशनी एक ताखे में रखे बड़े से कडुवे तेल के दीये से आ रही थी और लग रहा था जैसे जमाने से इसी ताखे में वो दीया जल रहा हो. उसकी कालिख से पूरा ताखा काला हो गया था। और उस ताखे के बगल में एक खूब बड़ा सा पुराना दरवाजा बंद था, उसमें लेकिन कोई सांकल नहीं थी, एक चौड़ी सी चौखट और खूब ऊँची, फीट . डेढ़ फीट ऊँची, दरवाजे के चारो ओर लगता है लकड़ी के चौखटों पर किसी जमाने में चांदी का काम रहा होगा लेकिन अब सब धुंधला गया था। दरवाजे के ऊपर कुछ मिथुन आकृतियां बनी थीं, और दरवाजे के दोनों ओर लगता है चांदी के रहे होंगे या चांदी मढ़े नाग नागिन का जोड़ा, ...

भाभी ने फुसफुसाते हुए कहा,

इस दरवाजे को पार करने के बाद हम वापस नहीं आ सकते,... इसलिए सोच लो,...

मैं और गुड्डो कस के हाथ पकडे एक दूसरे का बस चुप रहे, तो भाभी ने आगे की बातें बोली,

बस तीन बात याद रखो, अपना मन दिमाग, सही गलत सब खाली कर दो इस दरवाजे को पार करने के पहले, उसके बाद जो पुजारी कहेंगे, मैं बिना बोले हाथ के इशारे से या खुद करुँगी, बस मुझे करने देना,...

मैंने गुड्डो का हाथ कस के दबाया और उसने मेरा, और हम दोनों का मौन ही स्वीकृति था।

दूसरी बात, हम तीनों को ये जो कपड़ा मैं दे रही हूँ , वही पहनना है , उसके अलावा कुछ भी नहीं, कोई एक धागा तक इसके अलावा नहीं होगा। और वो जो पूजा की सामग्री ली हुए थीं उसी में एक झोला उन्होंने खोला, मुश्किल से दो तीन हाथ का मलमल का सफ़ेद कपडा, बिना सिला और ऐसे तीन कपडे ,...

मैंने अपने कपडे उतारने की कोशिश की तो उन्होंने रोक दिया और बोलीं अब तुम कुछ नहीं करोगे , जो करुँगी मैं करुँगी या जब तक मैं या पुजारी कुछ करने को न कहे,

उन्होंने पहले मेरे फिर गुड्डो के कपडे उतारे और वही कपडा आधी धोती की तरह मुझे और साडी की तरह गुड्डो को पहना दिया, हाँ गाँठ न उन्होंने मेरी धोती में बाँधी न गुड्डो की साड़ी में बस लपेट दी। और फिर खुद भी उसी तरह वो सफ़ेद कपड़ा लपेट लिया,

और अब तीसरी बात,... लेकिन ये बात कहने के पहले , उन्होंने उस दीये से निकली कालिख को काजल की तरह मेरी आँखों में अच्छी तरह लगाया, और मुझे बोला की मैं आँखे बंद कर लूँ और जब तक वो न कहें , आँखें न खोलूं। काजल आँखों के बाद, मेरी दोनों भुजाओं पर, वक्षस्थल पर निप्स के नीचे, नाभि पर और दोनों जाँघों पर लगाया।

मेरी आँखे अच्छी तरह छरछरा रही थीं, लेकिन कुछ देर बाद मुझे सब कुछ दिख रहा था, बिना आँखे खोले ,

गुड्डो के आँख में भाभी काजल लगा रही थीं , फिर उसके दोनों सीनो पर, फिर नाभि पर,...

और जहां पहले आँगन में बस इसी दिए की रौशनी दिख रही थी अब न जाने कहाँ कहाँ से रौशनी छन छन कर आ रही थी। जैसे हम सब रौशनी से नहाये हुए थे, एक अजीब से आनंद की अनुभूति हो रही थी।

और तीसरी बात अब दरवाजे के पार की बातें हफ्ते भर तक किसी से कहना तो छोड़ सोचना भी मत क्या हुआ क्यों हुआ,...

और तुम और गुड्डो अब जोड़े से साथ साथ वो भांग की बर्फी नाग नागिन को खिलाओं,



जैसे ही हमने खिलाई, जैसे हम दोनों के हाथ से वो बर्फी गायब हो गयी, तेजी से एक सरसराने की आवाज आयी और तेज हवा,...

दरवाजा खुल गया था, और जो झिरझिर हवा अब तक हलकी हलकी हम महसूस कर रहे थे वही अब पूरे तेजी के साथ,



गुड्डो को ,... और भाभी की बात को जैसे मैं बिना कहे समझ गया था, उन नाग नागिन को मैंने हाथ जोड़ा, आदर से झुका , और गुड्डो को उठाकर उस ऊँची चौखट के पार हो गया, भाभी मेरे बाएं मेरे साथ,... और फिर दरवाजे के पार एक बहुत पुराने पेड़ों का झुण्ड,



मंदिर के कपाट खुले थे, बल्कि लग रहा था कपाट शायद थे ही नहीं, और पुष्पों की सुरभि वाला एक धूम्र सेतु बस वही दिख रहा था, और उसे बेधती, सूर्य की किरणे, जो सीधे मंदिर के गर्भ गृह तक जैसे स्वर्णजटित कोई रूपसी पूजा में लीन हो और बिन मुड़े, बिन देव की ओर पीठ दिखाए , छोटे छोटे डग भरते वापस लौट रही हो,

और जब मैं एकदम पास पहुंचा, तो जैसे स्वर्णकिरणऔर धूम्र मिश्रित रूप के ही बने पुजारी, मैं जैसे ही प्रणाम की मुद्रा में झुका और उनकी अभय मुद्रा, आशीष के हाथ को मैंने अपने सर, और माथे पर महसूस किया,... और बिना उनके बोले,... और मैंने मन में सोचा ही था क्या मांगूंगा,... रजत जड़ित वह द्वार शायद गजराजों के जोर से भी नहीं हिलता, लेकिन अपने आप, एक अलग ढंग की रौशनी

और दरवाजे के ठीक ऊपर एक तोते की आकृति,... जैसे पन्ने का हो, पल भर के लिए चमका, नीचे कुछ मंत्र सा लिखा,... और उसी समय भाभी ने गुड्डो की ओर दिखा के कुछ इशारा किया,

ऊँची सी चौखट, गुड्डो को गोद में उठाकर मैं द्वार के पार, बांये भाभी,

बिन बोले जैसे मन मना कर रहा हो पीछे मुड़ के देखने को,

जीवन और समय आगे ही चलते हैं,

और अब आगे ढेर सारे पेड़, अशोक के छोटे छोटे लाल फूलों से लदे, आम्र मंजरी से भरे पड़े ढेर सारे आम के पेड़, उन सब पर सैकड़ों तोते,... चमेली की बेल और लताओं पेड़ों का एक गझिन गुम्फन लेकिन उनको पार करती सूरज की विदा लेती सुनहली किरणे, और उन पेड़ों के बीच एक बहुत ही पुराना मंदिर,
एक बहुत ही अलग ढंग की हवा, सुरभित मंद मलय समीर,आम की बौर की महक के साथ चम्पा और चमेली की महक,

भाभी ने इशारा किया और पूजा की सामग्री जो भाभी के हाथ में थी उसके अलावा हमारे पहने कपडे, झोले सा गुड्डो का पर्स , बाकी सब सामान एक पेड़ के नीचे रख दिया, और भाभी के साथ हम दोनों, पेड़ों का झुरमुट और उसके ठीक बीचोबीच एक पुराना सा मंदिर और उसके शिखर पर डूबते सूर्य की किरणें पड़ रही थी और सूरज की उन किरणों से वो सोने सा चमक रहा था।

भाभी ने मुझे इशारा किया, ( वह पहले ही बोल चुकी थीं मुझे और गुड्डो को, हम दोनों को बोलना

लेकिन मेरे होंठ हिले ही नहीं की उनका आशीर्वचन में उस इच्छा की पूर्ती,... अगले चार वर्ष महादेव के शरण में और दो वर्ष माँ काली की पूजा का अवसर,.... उन्होंने भी बोला भी नहीं, ... उनके होंठ भी नहीं हिले पर मुझे जैसे सीधे मन और मष्तिष्क में एक साथ,...

यही तो मैं चाहता था,

और फिर एक आवाज सी आयी, पता नहीं कहाँ से पुजारी जी के होंठ अभी भी नहीं हिले थे, बस जैसे मेरे कानों में घुल रही हो हो,...

" यह तुम्हारी इच्छा नहीं है यह तो तुम्हारा भवितव्य है, ... " एक मुस्कराती सी आवाज,...

और फिर वही आवाज, भाभी से,... एकदम ठीक समय पर आयी हो और यही , इन्ही के लिए, ... "

भाभी की बस पलकें झुक गयी, और वो हाथ मैंने फिर से सर पर महसूस किया जैसे कह रहे हों , वो पढ़ाई लिखाई नौकरी , ये तो होता ही है ,चाहते क्या हो,...

मैंने बस गुड्डो की ओर, और खुद बढ़ कर उसने मेरे हाथ को हाथ लिया,

एक मृदुल स्मिति,... और फिर वही आवाज,

' ये तो तेरा कर्म है और कर्मों का फल भी,... "

जैसे बच्चा माँ की गोद में सर घुसेड़े, तोड़े मरोड़े, बस उसे अच्छा लग रहा और कुछ भी समझ में न आ रहा हो,...

काम,... शक्ति,.. आनंद,... पुरुष,... बस कुछ कुछ,... और ये भी

स्मरण और विस्मरण दोनों ही जरूरी हैं और दोनों एक दूसरे के पूरक,... यहाँ से जाते ही सब कुछ विस्मृत के गर्त में और कुछ यादों का धंधलका जिसमें याद भी न रहे की क्या याद है या क्या कल्पना,...

जैसे एकदम संवेदन शून्य होकर या संवेदना की आखिरी चढ़ाई पार कर के
भाभी ने फुसफुसाते हुए कहा,

इस दरवाजे को पार करने के बाद हम वापस नहीं आ सकते,... इसलिए सोच लो,...


इस पोस्ट उपरोक्त पंक्तियों के बाद कहानी.. शायद पहली बार पोस्ट की है...
चारों तरफ के माहौल को सही शब्दों में ढालकर .. कल्पनाओं को एकदम मूरत रूप दे दिया है....
और मानवीय अहसास, चेतना, वेदना, जज्बात को छू लिया है....
 

motaalund

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काम -काम्या, रम्या, प्रमदा


काम का चरम रूप स्त्री -पुरुष, देह मन मस्तिष्क तीनो का संगम और रस की पराकाष्ठा,... मैं कुछ सायास सोच नहीं रहा था, गंगा की लहरें देखते हुए अपने आप मन में विचारों की भावों की लहरे बह रही थीं,...


रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है । यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है।


कमनीया का एक कटाक्ष, सभी दृष्टि के सुखों से ऊपर होता है, बिना कहे सुख की कितनी पिचकारियां, उस कटाक्ष के साथ लजाने से छूट पड़ती हैं,... छेड़छाड़ की बातें कभी आधी कही, बातें सब वाग सुखों का निचोड़ हो जाता है, और मिलन में तो सब रस एक साथ,... दृश्य का वाग का स्पर्श का गंध का,...


पुजारी जी जैसे जैसे प्रसाद का पान करा रहे थे, ... सब कुछ भूल कर,... जैसे शैवाल से भरा ताल भले ऊपर से जैसा लगे पर उसके नीचे प्यास बुझाने वाला निर्मल जल ,... नीति -अनीति, नाते रिश्ते भौतिक सम्बन्ध जैसे कटते जा रहे थे , जैसे काई हटती जा रही हो और अंदर का सुंदर स्वादिष्ट जल प्यास बुझाने के लिए ,... कामना, उसको पूरा करने के लिए शक्ति और सबसे बढ़कर रस, छक कर रस पान,...

रमणी,... जिसके साथ रमण किया जाये, रम्या,... कामिनी, काम्या,... जिसकी कामना की जाये,... और स्त्री में ही पुरुष की पूर्ण आहुति होती है, वहीँ पुरुष स्थान पाता है ,धात्री धरती बीज को धारण करती है और शष्य श्यामला धान्य से भर जाती है, स्त्री यज्ञ की समिधा की तरह है , जिसमे पुरुष घृत की तरह,... दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, और सृष्टि का निर्माण भले ही हो गया है , लेकिन यह काम की भावना ही चाहे पेड़ पौधे हों, अलग योनियों के जीव जंतु हो,उनकी वृद्धि के लिए जिम्मेदार है , और काम की पूर्ती के साथ जो स्त्री पुरुष दोनों को आनंद मिलता है, वह शब्दातीत है, लेकिन उस आनंद को देना और लेना दोनों ही, कर्म है,...

तभी तो उन्होंने कहा था,... ये तो कर्म है,... और एक पल के लिए वो छवि उभरी,... वो कमनीया किशोरी मेरे ऊपर, और छलकता बिखरता मधु उसके ऊपर से ,... मेरे प्यासे होंठों को तृप्त करती,... काम्या के देह से निकला,बहा, छलका सब कुछ कमनीय है,... सब कुछ,... उन क्षणों की अनभूति ,जब सिर्फ रस बरस रहा हो, रस के सागर में डुबकी, देह तो बस सीढ़ी है उस आनंद के कूप में उतरने के लिए, सुख के पहाड़ों पर चढ़ने के लिए,

और शक्ति, ऊर्जा सुख का स्रोत वही है , जो सृष्टि का स्त्रोत है, काम्या, रम्या, प्रमदा

जैसे गंगा की लहरों की तरह मेरे मन में विचार हिलोरे ले रहे थे थिर हुयी लहरों की तरह धीरे धीरे रुक गए. अबतक चाँद आसमान में अच्छी तरह से निकल आया था,, होली के अगले दिन का चाँद, कभी मैं छिटकी चांदनी को देखता कभी गंगा में चाँद की परछाईं को,

लेकिन फिर एक बात मन में उठी, अपनी कोई बात मैंने नहीं कही थी, लेकिन मेरे बिना कहे उन्होंने सुन भी लिया, समझ भी लिया और और मुझे आशीष भी, और उनके भी होंठ नहीं हिल रहे थे, लेकिन मैं साफ़ साफ़ सुन रहा था, जैसे आवाजों को देख रहा होऊं,...



पश्यन्ती,



एक बार फिर मन में वही उथल पुथल,... वाक् भले ही होंठो, जिह्वा तालू और कंठ के संयोजन से निकलता हो, समझी जाने वाली ध्वनियों, शब्दों का रूप लेता हो , अर्थ के साथ हम तक पहुंचता हो, लेकिन उपजता तो वह विचार के रूप में है , हमारे चैतन्य होने का प्रमाण भी है और सम्प्रेषण का साधन भी, ... और वह जन्म लेता है मूलाधार चक्र से, ध्वनि के चार रूप हैं , जो हम सुनते हैं , जिसके जरिये बातचीत करते हैं, वह है वैखरी, ध्वनि का भौतिक और सबसे स्थूल रूप, लेकिन जो विचार या चेतना के रूप में, सबसे बीज रूप में जब यह जन्म लेती है तो उसका रूप परा है, पर वह अति सूक्ष्म होती है , उसके बाद है पश्यन्ती। यदि यह जागृत है, शब्द रूप लेने से पहले ही हम उसे देख सकते हैं , और यह नाभि के स्तर पर जब विचार पहुंचता है उस समय, यानी क्या कहना है उसका मन में तो जन्म होगया पर अभी वह शब्दों का रूप अभी नहीं ले पाया है.

और शब्दों की एक सीमा है, वह विचारों को अभिव्यक्त तो करते हैं पर उसे सीमित भी करते हैं और कई बार अर्थ और विचार में अंतर् भी हो जाता है।

पश्यन्ति और वाक् के बीच मध्यमा का स्थान है, हृदय स्थल पर।

पश्यन्ती की स्थिति में शब्द और उसके अर्थ में कोई अंतर् नहीं होता और विचार का आशय, तत्वर और सहज होता है। इसमें क्या कहने योग्य है, क्या नैतिकता के आवरण में छिपा लें , ऐसा कुछ भी नहीं होता वह शुद्ध रूप में मन की बात होती है, यह वाक् स्फोट का एक सीधा साक्षात्कार होता है, जो कोई कहना चाहता है वह सब सुनाई पड़ता है। और उस स्तर तक विचारों में बुद्धि का हस्तक्षेप, सही गलत का अवरोध नहीं होता है , कामना सीधे सीधे अभिव्यक्त होती है,

और मैं भी उनकी बात सुन पा रहा था , इसका सीधा अर्थ है , ... पश्यन्ति का गुण उनके अंदर तो था ही,वाक् की इस स्थिति को सुनने, समझने की शक्ति उनके आशीष से मेरे अंदर भी बिन कहे सुनने की, सीधे मन से मेरे मन तक पल बना के पहुंचने का रास्ता बन गया था।

दूर किसी घाट से गंगा आरती की हलकी हलकी आवाज गूँज रही थी, नाव नदी के बीचोबीच बस मध्धम गति से चल रही थी, रात हो चली थी इसलिए और कोई नाव भी आसपास नहीं दिख रही थी, हाँ किसी घाट पर जरूर कुछ कुछ लोग नज़र आ रहे थे, मंदिरों के शिखर, घंटो की आवाजें, चढ़ती हुयी रात के धुँधलके में दिख रहे थे. आज आसमान एकदम साफ़ था और चाँद भी पूरे जोबन पर,... कभी मैं आसमान में छिटके तारों को देखता कभी नदी में नहाती चांदनी को , मस्त फगुनहाटी बयार चल रही थी, हवा में फगुनाहट घुली थी, और मेरे मन तन पर भी,
...
पात्रों के बीच कोई डाय्लोग्स नहीं...
लेकिन फिर भी पूरे परिस्थिति/वातावरण को इस तरह उकेरा है कि लगता है सबकुछ आँखों के सामने घट रहा हो....
 

motaalund

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प्रिय कोमल जी

आपसे करबद्ध निवेदन है कि इस तंत्र वाले भाग को पूर्ण करे, यदि संभव हो तो। यही नहीं कहानी यहीं - कहीं रुकी हुई भी है।

आप मानेंगीं या नहीं, नही जानता लेकिन मुझ जैसे पाठकों की जिद है, तो है।

वस्तुतः आपके विशद ज्ञान के तंत्र ज्ञान वाले आयाम से परिचय सभी पाठक चाहते हैं ऐसा मेरा मानना है बाकी निर्णय आप ही लेंगी। फिर कहानी भी आगे बढ़ानी है वो CCTV कैमरे भी आदि आदि।

आपकी कहानियों में अपार संभावनाएं हैं बस आपको राजी करना ही मुश्किल है।

आप कैसे राजी होंगी इसका भी कोई तंत्र - टोटका अवश्य बताइएगा।

सादर
श्रीमान... ये तो कोई ज्ञानी व्यक्ति हीं बता सकता है कि कृपा कहाँ रुकी हुई है....
हम सब तो बारंबार निवेदन कर सकते हैं....
 

motaalund

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आप के चरण कहाँ हैं...जितना आपको पड़ता हूँ उतना ही आपके अध्ययन की गहराई, गम्भीरता, शब्दों की समझ, उद्धरण देने की कला, हिंदी ,गवई, शब्दो के साथ उनके भाव पर भी जबरदस्त पकड़ है। आपके अध्ययन का जो आयाम है उसकी कल्पना कर के केवल आश्चर्य ही नहीं होता बल्कि आपके चरणस्पर्श की इच्छा हो जाती है।
🙏🙏🙏
पायं लागू कोमल जी...
इसमें कोई शक नहीं कि कुछ शब्दों में आपने कोमल जी के भाषा और ज्ञान पर सटीक टिप्पणी की है....
 

motaalund

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प्रिय कोमल जी

आपसे करबद्ध निवेदन है कि इस तंत्र वाले भाग को पूर्ण करे, यदि संभव हो तो। यही नहीं कहानी यहीं - कहीं रुकी हुई भी है।

आप मानेंगीं या नहीं, नही जानता लेकिन मुझ जैसे पाठकों की जिद है, तो है।

वस्तुतः आपके विशद ज्ञान के तंत्र ज्ञान वाले आयाम से परिचय सभी पाठक चाहते हैं ऐसा मेरा मानना है बाकी निर्णय आप ही लेंगी। फिर कहानी भी आगे बढ़ानी है वो CCTV कैमरे भी आदि आदि।

आपकी कहानियों में अपार संभावनाएं हैं बस आपको राजी करना ही मुश्किल है।

आप कैसे राजी होंगी इसका भी कोई तंत्र - टोटका अवश्य बताइएगा।

सादर
:yes1::yes1:
 

motaalund

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बहुत शानदार तरीके से बारिश में आग लगाई जा रही है
आग लगेगी बदन में...
घटा बरसेगी... सावन में...
 

motaalund

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यही तो होती है जवानी के अंगड़ाई बस जब लड़की एक बार अच्छे से चूदाई करवा ले तो फिर उसकी सारी तमन्ना है एक-एक करके बाहर आने लगती है और वह बिंदास हो जाती है
उमंगें उफान लेने लगती है....
 

motaalund

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अब उतरी जायेगी बारिश की लगी हुई ठंड जब खेल खेल में दिया जाएगा भाई का लंड



लाज़वाब अपडेट
भाई के लंड से तो पहाड़ों के बर्फबारी में भी सारी ठंड मिट जाएगी....
 

motaalund

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Yah last mein kaun a Gaya Guddi ke sath is tarike se romanchkari khel khelne lekin Jo bhi aaya hai har kar hi jaega kyunki ab Guddi Shatir Khiladi ho chuke hain
ये कोमल जी के आदतों में शुमार है कि अंत में सस्पेंस छोड़ जाती हैं...
 
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