Umakant007
चरित्रं विचित्रं..
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Chutphar बहुत ही शानदार कथानक... बहुत दिनों बाद ऐसा कुछ पढ़ कर आनंद आ गया। लिखते रहिये....
अब जब तक रुपा खेतो से शौच आदि से निवर्त होकर आई तब तक लीला घर के छोटे मोटे काम निपटाकर नहा धोकर तैयार हो गयी थी इसलिये रुपा को घर के बचे हुवे काम करने को बोलकर वो अब एक थैला सा लेकर घर से बाहर आ गयी। बस अड्ढे से बस पकङकर वो अब शहर तक तो आई, मगर फिर शहर से वो अपने गाँव यानि की मायके मे आ गयी...
वैसे तो लीला का मायका शहर से ज्यादा दुर नहीं था बस पन्द्रह सोलह किलोमीटर ही दुर था मगर उस समय एक तो गाँवो के बीच इतने साधन नही चलते थे, उपर से कच्ची पक्की सङक होने के कारण लीला को अपने गाँव पहुँचते पहुँचते दोपहर हो गयी। अब गाँव मे भी लीला अपने घर नही गयी, बल्कि बगल के ही गाँव के वैध जी के पास जा पहुँची।
वैसे भी लीला के मायके मे बचा ही कौन था जिसके पास वो जाती। उसके पिता का तो पहले ही देहान्त हो चुका था। बचे उसकी माँ व भाई भाभी की भी एक सङक दुर्घटना मे मौत हो गयी थी। राजु उस समय सात आठ साल का ही था इसलिये लीला उसे अपने घर ले आई थी और राजु तब से ही लीला के घर पलकर बढ रहा था।
खैर वो वैध लीला के पिता की उम्र का एक अधेङ था मगर जङी बुटी व देशी दवा के मामले मे आस पास के सभी गाँवो मे काफी मशहूर था इसलिये लोगो की उसके पास भीङ लगी रहती थी। वैसे तो लीला उस वैध से रुपा व उसके पति के लिये पहले भी दवा लेकर जा चुकी थी मगर आज उसे जो चाहिये था उसके लिये लीला को वैध जी से अकेले मे बात करनी थी इसलिये सभी लोगो के चले जाने तक वो ऐसे ही बैठी रही।
वैद जी भी लीला को काफी देर से चुपचाप बैठे देख रहा था इसलिये जब एक एक कर सभी लोग चले गये तो...
"....हाँ बेटी..! मै देख रहा हुँ तुम बहुत देर से बैठी हुई हो कहो क्या बात है...?" वैध जी ने अब खुद ही पुछ लिया।
".......व्.व्.वो्.. वैध जी मै कह रही थी की... ...........व्.व्.वो्... मुझे....
........ ग्.ग्.गर्मी वाली दवा चाहिये थी..!" लीला ने शरम के मारे सकुचाते हुवे कहा।
"कैसी गर्मी वाली..?" वैध ने अपना चश्मा ठीक से करते हुवे पुछा।
"ज्.ज्.जी्...
....व्.व्.वो्.. अ्.औ्.औरत.. मर्द के रिश्ते वाली...!" लीला ने शर्म के कारण थोङा अटकते हुवे कहा जिससे वैध जी ने गर्दन उठाकर तुरन्त लीला की ओर देखा।
बुढे वैध की उम्र हो चली थी मगर ठरक अभी भी गयी नही थी इसलिये...
"किसके लिये चाहिये...?" बुढे वैध ने अपना चश्मा फिर से ठीक करके लीला की चुँचियो से लेकर नीचे उसके पैरो तक तक घुरते हुवे पुछा, जिससे लीला को भी जोरो की शरम सी महसूस हुई...
"शायद आपने मुझे पहचाना नही वो्. मेरी बेटी को बच्चा नही हो रहा जिसके लिये मै पहले भी आप से दवा लेकर गयी थी..!" लीला ने अपनी साङी का पल्लु सही से करते हुवे कहा।
"अच्छा...हाँ.. हाँ याद आया तुम पङोस के गाँव से हो ना.. अच्छा..अच्छा... ठीक है..!" ये कहते हुवे वैध जी ने पास ही रखी कुछ काँच की शीशियो मे से एक छोटी सी काँच की शीशी को उठाकर लीला की ओर बढा दिया...
" व्.वो्... वैध जी, मै पुछ रही थी की ये दवा बस मर्द के लिये ही है या फिर औरत पर भी इसका असर होगा..?" वैध जी ने ये सुनते ही पहले तो अपना चश्मा ठीक किया फिर...
"हाँ..हाँ... ये देशी बुटियो का चुर्ण है इसका असर औरत हो या मर्द दोनो पर ही होता है...!"
"वैसे तुम्हे लगता है की लङकी मे कोई ऐसी वैसी बात है तो उसे मेरे पास जाँच के लिये ले क्यो नही ले आती..? मै नाङी देखकर अच्छी दवा बना दुँगा..!" वैध जी ने लीला की ओर घुरकर देखते हुवे कहा।
"ह्.हाँ.आ्.. ज्.जी्... अभी तो वो अपने ससुराल मे है इसलिये अभी तो दवा लेकर जाती हुँ, अगली बार उसे ही ले आँउगी...!" लीला ने दवा की शीशी को लेते हुवे कहा।
"ठीक है.. ऐसी बात है तो रुको, और ये दवा मुझे दो..." ये कहते हुवे वैध ने लीला को जो शीशी दी थी उसे वापस रख लिया और चार पाँच डब्बो मे से थोङी थोङी कुछ सुखी घास फुस के जैसी बुटी को लेकर उन्हे पत्थर की एक कुण्डी मे पीसकर उनका चुर्ण बना लिया, और उसे एक दुसरी खाली शीशी मे भरकर...
"ये ले...!, ये दवा इतनी असरदार है की बुढे बुढिया मे भी जोश भर देगी, इसका ज्यादा खाना ठीक नही इसलिये अभी बस दो बार की लिये ही दवा दे रहा हुँ, अगली बार लङकी व उसके पति को साथ मे ले लाना, जाँच के बाद मै सही से दवा बनाकर दे दुँगा..!" बुढे वैद ने दवा की शीशी लीला को देते हुवे कहा।
" ज्.जी्.. इसे खानी कैसे है...?" लीला ने दवा की शीशी को अपने थैले मे रखते हुवे पुछा...
"कैसे भी.., बस चुटकी भर खानी है, पर चुटकी भर इतनी असरदार है की अगर हम भी खा ले तो ऐसी आग लगेगी की जब दो तीन बार एक दुसरे पर अच्छे से कुद नही लेँगे वो आग नही बुझेगी..!" बुठे वैध ने फिर से अपना ठरकीपन दिखाते हुवे कहा जिससे लीला वो दवा की शीशी थैले मे रखकर तुरन्त पीछे हट गयी और..
व्.वो्.. कितने पैसे हुवे वैध जी...?" लीला ने अपने ब्लाउज से पैसे निकालते हुवे पुछा।
"बस दो सौ रू०..!" वैध जी ने जवाब देते हुवे कहा मगर इस दौरान उसकी नजर लीला की चुँचियो पर ही बनी रही इसलिये लीला जल्दी से पैसे देकर तुरन्त वहाँ से निकल आई।
वैध जी से दवा लेकर लीला अब पहले तो शहर आई, फिर शहर से भी उसने एक दुकान पर आकर कुछ टोने टोटके करने के जैसा सामान, जैसे की टीकी बिन्दी सिन्दुर चुङी नारियल काला धागा आदि और साथ एक छोटा सा काले कपङे का टुकङा भी खरीदा। अब वैध से वो जो दवा लेकर आई थी उसने उसे काँच शीशी से निकालकर उस काले कपङे मे बाँधकर टोटके वाले सामान के साथ ही बैग मे रख लिया और वापस घर आ गयी...