Vikashkumar
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बहुत शानदार मित्र... लिखते रहिये...दोस्तो अभी के लिये बस इतना ही, बाकी की कहानी के लिये साथ बने रहियेगा और अपडेट कैसा लगा इसके लिये कोमन्टस जरुर किजिये...
बहुत ही मस्त और लाजवाब अपडेट है भाई मजा आ गयाअभी तक आपने पढा की लीला के कहे अनुसार रुपा व राजु एक दुसरे के चुत व लण्ड को अपने पिशाब से धोने के बाद ऐसे ही अपने सारे कपङे वही चौराहे पर छोङकर एकदम नँगे घर आ गये थे। उनके घर आने के बाद लीला तो अब खेत मे चली गयी और रुपा घर के दरवाजे की अन्दर से कुण्डी लगाकर वापस कमरे मे आ गयी अब उसके आगे....
वैसे तो रुपा व राजु साथ मे ही पलँग पर सोते थे इसलिये कमरे मे आकर रुपा अब एक बार तो राजु के साथ पलँग ही पर ही सोने को हुई , मगर इस तरह एकदम नँगे बदन उसके साथ सोने मे उसे कुछ अजीब सा लगा। वहाँ चौराहे पर टोटके के समय जो वो उत्तेजना महसूस कर रही थी, वो सारी उत्तेजना अब शर्मीँदगी मे बदल गयी थी
इसलिये जिस चारपाई पर लीला सो रही थी उस पर बिछावन नही था, मगर फिर भी वो उस पर बिछावन डालकर अब अलग से सो गयी।
वैसे तो कमरे मे अन्धेरा ही था मगर उसके व राजु के बीच अभी जो कुछ भी हुवा था उसके बारे मे सोच सोचकर वो पहले ही शर्मीँदगी महसूस कर रही थी, उपर से अब इस तरह एकदम नँगे बदन सोने मे भी उसे शरम सी आई इसलिये उसने भी पास ही रखी चद्दर को भी ओढ लिया। अब ठण्डे बदन को चद्दर की गर्म शेक लगी तो कुछ देर बाद ही उसे नीँद आ गयी।
रुपा तो अब सो गयी मगर राजु को नीँद नही आ रही थी। उसका तना खङा लण्ड उसे सोने नही दे रहा था, क्योंकि उसके साथ जीवन मे पहली बार ऐसा कुछ हुवा था इसलिये उसके बारे मे सोच सोचकर उसका लण्ड अभी भी झटके से खा रहा था। उसने अब जब तक बाहर जाकर हाथ से अपने लण्ड को शाँत नही किया तब तक उसे नीँद आ सकी। अपने लण्ड को शाँत कर लेने के बाद राजु को भी अब इतनी गहरी नीँद लगी की सुबह जब लीला खेत से वापस आई और उसने दो तीन बार दोनो को जोरो से आवाज नही दी, तब दोनो मे से किसी की भी नीँद नही खुली।
लीला के आवाज देने से रुपा तो फिर भी उठ गयी, मगर राजु अभी भी वैसे ही सोता रहा। पशुओ को चारा डालने व दुध निकालने के लिये लीला सुबह जल्दी ही खेत से आ गयी थी। रुपा ने उठकर अब बाहर देखा तो बाहर अभी अन्धेरा ही था इसलिये उसने अब जिस चद्दर को रात मे ओढ रखा था उस चद्दर को अपने बदन से लपेट लिया और बाहर आकर अपनी माँ के लिये दरवाजा खोल दिया और...
"व्.वो्.. माँ अभी तो मै कपङे पहन लुँ ना..!" रुपा ने अब लीला के अन्दर आते ही पुछा जिससे...
"हँ.हा्...., हाँ.. पहन ले..!" लीला ने उसे उपर से नीचे तक देखते हुवे कहा।
दरवाजा खोलकर रुपा अब वापस कमरे मे आ गयी और अलबारी से अपने कपङे निकालने लगी, तब तक लीला भी उसके पीछे पीछे ही कमरे मे आ गयी, जहाँ राजु अभी भी पलँग पर चद्दर ताने सो रहा था तो चारपाई पर भी बिछावन बिछा हुवा था। वैसे तो लीला बाहर रुपा के हाव भाव को ही देखकर समझ गयी थी की जैसा उसने सोचा था, रुपा व राजु के बीच वैसा कुछ भी नही हुवा है... बाकी उसने अब कमरे मे आकर चारपाई पर बिछावन को देखा तो वो समझ गयी की रात मे राजु अकेले पलँग पर सोया था और रुपा अलग से चारपाई बिछाकर सोई थी, क्योंकि रात को खेत मे जाने से पहले वो अपनी चारपाई से बिछावन को हटाकर गयी थी जो की अब बिछा हुवा था।
लीला इतनी रात को खेत मे ही बस इसलिये गयी थी, ताकि टोटके के बाद रुपा व राजु रात को अकेले मे नँगे एक साथ सोयेँगे तो उनके बीच कुछ हो सके, मगर वैसा कुछ भी नही हुवा था। रुपा जहाँ उसके व राजु के रिश्ते की शरम की वजह से अलग से सो गयी थी, तो वही राजु वैसे ही एकदम अनाङी और नासमझ था इसलिये दोनो के बीच कुछ भी नही हो सका था जिससे लीला अब एक गहरी सोच मे पङ गयी, मगर तभी...
"तुम दुध निकाल लो, तब तक मै चाय बना देती हुँ..!" रुपा ने अब अपने कपङे पहन कर अपनी माँ का काम मे हाथ बँटाने के इरादे से कहा जिसका लीला ने अब कोई कोई जवाब नही दिया। वो कुछ सोच सा रही थी इसलिये उसने रुपा की बात पर ध्यान ही नही दिया ...
"क्या हुवा माँ...? क्या सोचने लग गयी..?" रुपा ने अब अपनी माँ को ऐसे चुपचाप और गुमसुम सी खङी देखा तो उसके पास आकर हाथ से हिलाते हुवे पुछा जिससे...
"क्.क्.कुछ भी नही..!, इसे भी उठा दे और कपङे पहनने को बोल दे..!" लीला ने अब राजु की ओर इशारा करते हुवे कहा और कमरे से बाहर आकर पशुओं को चारा डालने व उनका दुध निकालने के काम मे लग गयी। रुपा भी अब राजु को भी उठाकर उसे कपङे पहनने का बोलकर रशोई मे जाकर चाय बनाने लग गयी।
अब लीला ने जब तक दुध निकाला तब तक रुपा ने चाय बना ली थी इसलिये राजु को तो वो कमरे मे ही जाकर चाय दे आई, और खुद लीला के साथ रशोई मे बैठकर चाय पीने लगी। वो अब ये जानने के लिये उत्सुक थी की उसका रात वाला टोटका सही से हुवा या नही इसलिये....
"माँ वो अब कैसे पता चलेगा मेरा दोष उतरा की नही..!" उसने चाय पीते पीते ही पुछा।
"देखते है, वो तो अब फकीर बाबा ही बतायेँगे, पर मुझे तो लगता नही..!" लीला ने उसका अब बेरुखी से उसकी ओर देखते हुवे जवाब दिया जिससे..
रुपा: क्यो माँ..?
लीला: तु रात मे उसके साथ ही क्यो नही सोई पलँग पर..? तुझे बोला था की रात भर तुम्हे एक साथ रहना है..!
रुपा: ऐसे एकदम नँगे उसके साथ कैसे सोती..? पहले ही इतनी शरम आ रही थी।
लीला: मैने तुझे उसके साथ कौन सा कुछ करने को कहा था बस रात भर साथ मे रहना ही तो था।
रुपा: फिर अब क्या होगा माँ..?
लीला: देखती हुँ बाकी तो अब फकिर बाबा ही बतायेँगे की तेरा दोष उतरा की नही..?
रुपा: पर उन्हे कैसे पता चलेगा की मेरा दोष उतरा की नही..?
"क्यो...? जब तेरे उपर दोष का पता करके बता सकते है तो ये नही बता सकते की तेरा दोष उतरा या नही..? जा तु खेतो से हो आ..( शौच से), तब तक मे झाङु लगाकर तैयार हो लेती हुँ, फिर बाकी के काम तु आराम से करती रहना मै फकीर बाबा के पास जाकर आऊँगी..!" लीला ने अपनी चाय को खत्म करके खाली कप को नीचे रखते हुवे कहा और झाङु लगाने मे लग गयी।
बहुत ही शानदार और जानदार अपडेट हैं भाई मजा आ गया हैअब जब तक रुपा खेतो से शौच आदि से निवर्त होकर आई तब तक लीला घर के छोटे मोटे काम निपटाकर नहा धोकर तैयार हो गयी थी इसलिये रुपा को घर के बचे हुवे काम करने को बोलकर वो अब एक थैला सा लेकर घर से बाहर आ गयी। बस अड्ढे से बस पकङकर वो अब शहर तक तो आई, मगर फिर शहर से वो अपने गाँव यानि की मायके मे आ गयी...
वैसे तो लीला का मायका शहर से ज्यादा दुर नहीं था बस पन्द्रह सोलह किलोमीटर ही दुर था मगर उस समय एक तो गाँवो के बीच इतने साधन नही चलते थे, उपर से कच्ची पक्की सङक होने के कारण लीला को अपने गाँव पहुँचते पहुँचते दोपहर हो गयी। अब गाँव मे भी लीला अपने घर नही गयी, बल्कि बगल के ही गाँव के वैध जी के पास जा पहुँची।
वैसे भी लीला के मायके मे बचा ही कौन था जिसके पास वो जाती। उसके पिता का तो पहले ही देहान्त हो चुका था। बचे उसकी माँ व भाई भाभी की भी एक सङक दुर्घटना मे मौत हो गयी थी। राजु उस समय सात आठ साल का ही था इसलिये लीला उसे अपने घर ले आई थी और राजु तब से ही लीला के घर पलकर बढ रहा था।
खैर वो वैध लीला के पिता की उम्र का एक अधेङ था मगर जङी बुटी व देशी दवा के मामले मे आस पास के सभी गाँवो मे काफी मशहूर था इसलिये लोगो की उसके पास भीङ लगी रहती थी। वैसे तो लीला उस वैध से रुपा व उसके पति के लिये पहले भी दवा लेकर जा चुकी थी मगर आज उसे जो चाहिये था उसके लिये लीला को वैध जी से अकेले मे बात करनी थी इसलिये सभी लोगो के चले जाने तक वो ऐसे ही बैठी रही।
वैद जी भी लीला को काफी देर से चुपचाप बैठे देख रहा था इसलिये जब एक एक कर सभी लोग चले गये तो...
"....हाँ बेटी..! मै देख रहा हुँ तुम बहुत देर से बैठी हुई हो कहो क्या बात है...?" वैध जी ने अब खुद ही पुछ लिया।
".......व्.व्.वो्.. वैध जी मै कह रही थी की... ...........व्.व्.वो्... मुझे....
........ ग्.ग्.गर्मी वाली दवा चाहिये थी..!" लीला ने शरम के मारे सकुचाते हुवे कहा।
"कैसी गर्मी वाली..?" वैध ने अपना चश्मा ठीक से करते हुवे पुछा।
"ज्.ज्.जी्...
....व्.व्.वो्.. अ्.औ्.औरत.. मर्द के रिश्ते वाली...!" लीला ने शर्म के कारण थोङा अटकते हुवे कहा जिससे वैध जी ने गर्दन उठाकर तुरन्त लीला की ओर देखा।
बुढे वैध की उम्र हो चली थी मगर ठरक अभी भी गयी नही थी इसलिये...
"किसके लिये चाहिये...?" बुढे वैध ने अपना चश्मा फिर से ठीक करके लीला की चुँचियो से लेकर नीचे उसके पैरो तक तक घुरते हुवे पुछा, जिससे लीला को भी जोरो की शरम सी महसूस हुई...
"शायद आपने मुझे पहचाना नही वो्. मेरी बेटी को बच्चा नही हो रहा जिसके लिये मै पहले भी आप से दवा लेकर गयी थी..!" लीला ने अपनी साङी का पल्लु सही से करते हुवे कहा।
"अच्छा...हाँ.. हाँ याद आया तुम पङोस के गाँव से हो ना.. अच्छा..अच्छा... ठीक है..!" ये कहते हुवे वैध जी ने पास ही रखी कुछ काँच की शीशियो मे से एक छोटी सी काँच की शीशी को उठाकर लीला की ओर बढा दिया...
" व्.वो्... वैध जी, मै पुछ रही थी की ये दवा बस मर्द के लिये ही है या फिर औरत पर भी इसका असर होगा..?" वैध जी ने ये सुनते ही पहले तो अपना चश्मा ठीक किया फिर...
"हाँ..हाँ... ये देशी बुटियो का चुर्ण है इसका असर औरत हो या मर्द दोनो पर ही होता है...!"
"वैसे तुम्हे लगता है की लङकी मे कोई ऐसी वैसी बात है तो उसे मेरे पास जाँच के लिये ले क्यो नही ले आती..? मै नाङी देखकर अच्छी दवा बना दुँगा..!" वैध जी ने लीला की ओर घुरकर देखते हुवे कहा।
"ह्.हाँ.आ्.. ज्.जी्... अभी तो वो अपने ससुराल मे है इसलिये अभी तो दवा लेकर जाती हुँ, अगली बार उसे ही ले आँउगी...!" लीला ने दवा की शीशी को लेते हुवे कहा।
"ठीक है.. ऐसी बात है तो रुको, और ये दवा मुझे दो..." ये कहते हुवे वैध ने लीला को जो शीशी दी थी उसे वापस रख लिया और चार पाँच डब्बो मे से थोङी थोङी कुछ सुखी घास फुस के जैसी बुटी को लेकर उन्हे पत्थर की एक कुण्डी मे पीसकर उनका चुर्ण बना लिया, और उसे एक दुसरी खाली शीशी मे भरकर...
"ये ले...!, ये दवा इतनी असरदार है की बुढे बुढिया मे भी जोश भर देगी, इसका ज्यादा खाना ठीक नही इसलिये अभी बस दो बार की लिये ही दवा दे रहा हुँ, अगली बार लङकी व उसके पति को साथ मे ले लाना, जाँच के बाद मै सही से दवा बनाकर दे दुँगा..!" बुढे वैद ने दवा की शीशी लीला को देते हुवे कहा।
" ज्.जी्.. इसे खानी कैसे है...?" लीला ने दवा की शीशी को अपने थैले मे रखते हुवे पुछा...
"कैसे भी.., बस चुटकी भर खानी है, पर चुटकी भर इतनी असरदार है की अगर हम भी खा ले तो ऐसी आग लगेगी की जब दो तीन बार एक दुसरे पर अच्छे से कुद नही लेँगे वो आग नही बुझेगी..!" बुठे वैध ने फिर से अपना ठरकीपन दिखाते हुवे कहा जिससे लीला वो दवा की शीशी थैले मे रखकर तुरन्त पीछे हट गयी और..
व्.वो्.. कितने पैसे हुवे वैध जी...?" लीला ने अपने ब्लाउज से पैसे निकालते हुवे पुछा।
"बस दो सौ रू०..!" वैध जी ने जवाब देते हुवे कहा मगर इस दौरान उसकी नजर लीला की चुँचियो पर ही बनी रही इसलिये लीला जल्दी से पैसे देकर तुरन्त वहाँ से निकल आई।
वैध जी से दवा लेकर लीला अब पहले तो शहर आई, फिर शहर से भी उसने एक दुकान पर आकर कुछ टोने टोटके करने के जैसा सामान, जैसे की टीकी बिन्दी सिन्दुर चुङी नारियल काला धागा आदि और साथ एक छोटा सा काले कपङे का टुकङा भी खरीदा। अब वैध से वो जो दवा लेकर आई थी उसने उसे काँच शीशी से निकालकर उस काले कपङे मे बाँधकर टोटके वाले सामान के साथ ही बैग मे रख लिया और वापस घर आ गयी...
Nice update broअब जब तक रुपा खेतो से शौच आदि से निवर्त होकर आई तब तक लीला घर के छोटे मोटे काम निपटाकर नहा धोकर तैयार हो गयी थी इसलिये रुपा को घर के बचे हुवे काम करने को बोलकर वो अब एक थैला सा लेकर घर से बाहर आ गयी। बस अड्ढे से बस पकङकर वो अब शहर तक तो आई, मगर फिर शहर से वो अपने गाँव यानि की मायके मे आ गयी...
वैसे तो लीला का मायका शहर से ज्यादा दुर नहीं था बस पन्द्रह सोलह किलोमीटर ही दुर था मगर उस समय एक तो गाँवो के बीच इतने साधन नही चलते थे, उपर से कच्ची पक्की सङक होने के कारण लीला को अपने गाँव पहुँचते पहुँचते दोपहर हो गयी। अब गाँव मे भी लीला अपने घर नही गयी, बल्कि बगल के ही गाँव के वैध जी के पास जा पहुँची।
वैसे भी लीला के मायके मे बचा ही कौन था जिसके पास वो जाती। उसके पिता का तो पहले ही देहान्त हो चुका था। बचे उसकी माँ व भाई भाभी की भी एक सङक दुर्घटना मे मौत हो गयी थी। राजु उस समय सात आठ साल का ही था इसलिये लीला उसे अपने घर ले आई थी और राजु तब से ही लीला के घर पलकर बढ रहा था।
खैर वो वैध लीला के पिता की उम्र का एक अधेङ था मगर जङी बुटी व देशी दवा के मामले मे आस पास के सभी गाँवो मे काफी मशहूर था इसलिये लोगो की उसके पास भीङ लगी रहती थी। वैसे तो लीला उस वैध से रुपा व उसके पति के लिये पहले भी दवा लेकर जा चुकी थी मगर आज उसे जो चाहिये था उसके लिये लीला को वैध जी से अकेले मे बात करनी थी इसलिये सभी लोगो के चले जाने तक वो ऐसे ही बैठी रही।
वैद जी भी लीला को काफी देर से चुपचाप बैठे देख रहा था इसलिये जब एक एक कर सभी लोग चले गये तो...
"....हाँ बेटी..! मै देख रहा हुँ तुम बहुत देर से बैठी हुई हो कहो क्या बात है...?" वैध जी ने अब खुद ही पुछ लिया।
".......व्.व्.वो्.. वैध जी मै कह रही थी की... ...........व्.व्.वो्... मुझे....
........ ग्.ग्.गर्मी वाली दवा चाहिये थी..!" लीला ने शरम के मारे सकुचाते हुवे कहा।
"कैसी गर्मी वाली..?" वैध ने अपना चश्मा ठीक से करते हुवे पुछा।
"ज्.ज्.जी्...
....व्.व्.वो्.. अ्.औ्.औरत.. मर्द के रिश्ते वाली...!" लीला ने शर्म के कारण थोङा अटकते हुवे कहा जिससे वैध जी ने गर्दन उठाकर तुरन्त लीला की ओर देखा।
बुढे वैध की उम्र हो चली थी मगर ठरक अभी भी गयी नही थी इसलिये...
"किसके लिये चाहिये...?" बुढे वैध ने अपना चश्मा फिर से ठीक करके लीला की चुँचियो से लेकर नीचे उसके पैरो तक तक घुरते हुवे पुछा, जिससे लीला को भी जोरो की शरम सी महसूस हुई...
"शायद आपने मुझे पहचाना नही वो्. मेरी बेटी को बच्चा नही हो रहा जिसके लिये मै पहले भी आप से दवा लेकर गयी थी..!" लीला ने अपनी साङी का पल्लु सही से करते हुवे कहा।
"अच्छा...हाँ.. हाँ याद आया तुम पङोस के गाँव से हो ना.. अच्छा..अच्छा... ठीक है..!" ये कहते हुवे वैध जी ने पास ही रखी कुछ काँच की शीशियो मे से एक छोटी सी काँच की शीशी को उठाकर लीला की ओर बढा दिया...
" व्.वो्... वैध जी, मै पुछ रही थी की ये दवा बस मर्द के लिये ही है या फिर औरत पर भी इसका असर होगा..?" वैध जी ने ये सुनते ही पहले तो अपना चश्मा ठीक किया फिर...
"हाँ..हाँ... ये देशी बुटियो का चुर्ण है इसका असर औरत हो या मर्द दोनो पर ही होता है...!"
"वैसे तुम्हे लगता है की लङकी मे कोई ऐसी वैसी बात है तो उसे मेरे पास जाँच के लिये ले क्यो नही ले आती..? मै नाङी देखकर अच्छी दवा बना दुँगा..!" वैध जी ने लीला की ओर घुरकर देखते हुवे कहा।
"ह्.हाँ.आ्.. ज्.जी्... अभी तो वो अपने ससुराल मे है इसलिये अभी तो दवा लेकर जाती हुँ, अगली बार उसे ही ले आँउगी...!" लीला ने दवा की शीशी को लेते हुवे कहा।
"ठीक है.. ऐसी बात है तो रुको, और ये दवा मुझे दो..." ये कहते हुवे वैध ने लीला को जो शीशी दी थी उसे वापस रख लिया और चार पाँच डब्बो मे से थोङी थोङी कुछ सुखी घास फुस के जैसी बुटी को लेकर उन्हे पत्थर की एक कुण्डी मे पीसकर उनका चुर्ण बना लिया, और उसे एक दुसरी खाली शीशी मे भरकर...
"ये ले...!, ये दवा इतनी असरदार है की बुढे बुढिया मे भी जोश भर देगी, इसका ज्यादा खाना ठीक नही इसलिये अभी बस दो बार की लिये ही दवा दे रहा हुँ, अगली बार लङकी व उसके पति को साथ मे ले लाना, जाँच के बाद मै सही से दवा बनाकर दे दुँगा..!" बुढे वैद ने दवा की शीशी लीला को देते हुवे कहा।
" ज्.जी्.. इसे खानी कैसे है...?" लीला ने दवा की शीशी को अपने थैले मे रखते हुवे पुछा...
"कैसे भी.., बस चुटकी भर खानी है, पर चुटकी भर इतनी असरदार है की अगर हम भी खा ले तो ऐसी आग लगेगी की जब दो तीन बार एक दुसरे पर अच्छे से कुद नही लेँगे वो आग नही बुझेगी..!" बुठे वैध ने फिर से अपना ठरकीपन दिखाते हुवे कहा जिससे लीला वो दवा की शीशी थैले मे रखकर तुरन्त पीछे हट गयी और..
व्.वो्.. कितने पैसे हुवे वैध जी...?" लीला ने अपने ब्लाउज से पैसे निकालते हुवे पुछा।
"बस दो सौ रू०..!" वैध जी ने जवाब देते हुवे कहा मगर इस दौरान उसकी नजर लीला की चुँचियो पर ही बनी रही इसलिये लीला जल्दी से पैसे देकर तुरन्त वहाँ से निकल आई।
वैध जी से दवा लेकर लीला अब पहले तो शहर आई, फिर शहर से भी उसने एक दुकान पर आकर कुछ टोने टोटके करने के जैसा सामान, जैसे की टीकी बिन्दी सिन्दुर चुङी नारियल काला धागा आदि और साथ एक छोटा सा काले कपङे का टुकङा भी खरीदा। अब वैध से वो जो दवा लेकर आई थी उसने उसे काँच शीशी से निकालकर उस काले कपङे मे बाँधकर टोटके वाले सामान के साथ ही बैग मे रख लिया और वापस घर आ गयी...