#118
वसीयत का चौथा पन्ना और कुछ नहीं एक वादा था . वो वादा जो राय साहब ने प्रकाश की माँ से किया था . उस वादे के अनुसार राय साहब को परकाश को जमीने देनी थी पर शायद अब राय साहब के मन में फर्क आ गया होगा. पर पिताजी ने ऐसा वादा किया ही क्यों था . वो शायद जमीने देना भी चाहते होंगे इसलिए ही तो वसीयत का चौथा पन्ना बनाया गया था . असली बात क्या थी ये मालुम करना बेहद जरुरी हो गया था क्योंकि परकाश अब रहा नहीं , जो पिताजी को ब्लेकमेल कर रहा था . दूसरी बात ये की ऐसी क्या मज़बूरी थी जो प्रकाश की माँ को वादा करना पड़ा.
जमीन के लिए तो परकाश हरगिज ब्लेकमेल नहीं करता मामला कुछ और ही था .मैंने मलिकपुर प्रकाश की माँ से मिलने का सोचा. बेशक मैं थका हुआ था पर सोचा की शाम ढलने से पहले लौट आऊंगा. और फिर देर ही कितनी लगनी थी . मैं सीधा परकाश की माँ के पास गया और दुआ सलाम के बाद मुद्दे पर आ गया .
मैं- काकी, मेरे पास समय की सख्त कमी है , मन में केवल एक प्रशन है तो एक सौदा करते है तू मुझे मेरा जवाब दे मैं तुझे बता दूंगा की तेरे बेटे का कातिल कौन है .
काकी की आँखे फ़ैल सी गयी . पर मैं जानता था की ये दांव चलेगा जरुर.
काकी- क्या सवाल है कुंवर.
मैं- बरसो पहले राय साहब ने तुझसे एक वादा किया था . उसके बारे में पूछना है मुझे. ऐसा क्या किया था तूने
मेरा सवाल सुन कर काकी सन्न रह गयी. उसे समझ ही नहीं आया की क्या कहे क्या ना कहे.
मैं- काकी बात बस तेरे मेरे बीच रहेगी. मेरा कोई लेना देना नहीं तुझसे न मैं कभी दुबारा तुझसे ऐसे मिलूँगा तेरी दहलीज से बाहर कदम रखते ही मैं भूल जाऊंगा की हमारे बीच क्या बातचीत हुई.
मैंने अपनी तरफ से काकी को आश्वस्त किया.
कुछ देर वो खामोश रही श्याद हिम्मत जुटा रही थी उस बात को होंठो पर लाने की.
काकी- मैं उनसे कुछ नहीं चाहती थी. मैं भूल जाना चाहती थी पर तक़दीर ,
मैं- क्या हुआ था .
काकी- अक्सर मैं बड़ी ठकुराइन से मिलने जाया करती थी . एक दोपहर मैं जब तुम्हारे घर सी लौट रही थी तो मैंने देखा की जंगल में राय साहब घायल अवस्था में पड़े थे . उनको इस हालात में देख कर मैं बहुत घबरा गई थी . पर वो होश में थे. उन्होंने मुझसे कहा की सहारा दू उनको. और वो मुझे तुम्हारे कुवे पर ले आये. उन्होंने बस इतना कहा की वैध को बुला लाऊ किसी को भी मालूम ना हो की राय शाब घायल है .मैंने वैसे ही किया. वैध के उपचार से उनको बहुत आराम हुआ.
“मैंने सोचा की इस हालात में उनको अकेले छोड़ना ठीक नहीं होगा. मैंने उनके लिए वय्व्स्थाये की, जब जब वैध नहीं होता तो मैं उनके पास होती. घंटो राय साहब और मैं बाते करते. जो समय मैं बड़ी ठकुराइन के साथ बिताती अब राय साहब के साथ बिताने लगी. घर से कह कर मैं आती की बड़ी ठकुराइन के पास जा रही हूँ पर जाती राय साहब के पास. किसी चुम्बक की तरह वो मुझे अपनी तरफ खींच रहे थे . ये उस दौर की बात है जब अभिमानु पैदा ही हुआ था .बड़ी ठकुराइन का जायदातर समय छोटे अभिमानु के साथ ही बीतता था . चूँकि हम दोनों बहुत समय एक दुसरे के साथ बिता रहे थे तो जाहिर है की आकर्षण सा होना ही था और उसी आकर्षण में किसी कमजोर लम्हे में हम एक हो गए ” काकी ने गहरी साँस ली
वो जोर से हांफ रही थी . कुछ गिलास पानी उसने गटका और फिर बोलना शुरू किया.-सिलसिला एक बार जो शुरू हुआ फिर रुका ही नहीं जब तक की बड़ी ठकुराइन ने एक दिन हमें पकड़ नहीं लिया. उस दोपहर बहुत बड़ा कलेश हो गया था . राय शाब ने मुझसे कहा की वो अब कभी नहीं आयेंगे मेरे पास. ये रिश्ता उसी समय खत्म हो गया. मैंने तब उनको बताया की मैं पेट से हूँ , कोख में उनका अंश पल रहा है . तब उन्होंने मुझसे वादा किया था की सही समय आने पर वो उस अंश के को उसके हिस्से की जमीने देंगे.
काकी धम्म से पलंग पर बैठ गयी थी . मेरी समझ में नहीं आ रहा था की कहूँ तो क्या कहूँ. बाप चुतिया ने एक औलाद और पैदा कर रखी थी . मेरे पैरो की जान निकल ही गयी थी .
मैं- तेरे बेटे को राय साहब ने ही मारा है
मैंने अपना वादा निभाया. काकी की आँखों से आंसू बहने लगे पर मेरी हिम्मत नहीं थी की उनको पोंछ सकू. वापसी में मैं सोचता रहा की परकाश को सिर्फ इसलिए नहीं मरवाया गया था की राय साहब उसे जमीने नहीं देना चाहते होंगे , परकाश की हसरत किसी खास जमीन के टुकड़े में रही होगी और वो खास जमीन थी मेरा खेत जिसके निचे अथाह सोना था . परकाश का खेतो पर बार बार चक्कर लगाना यही दर्शाता था .
वापिस आकर पाया की अंजू अभी तक नहीं लौटी थी . होलिका दहन की तैयारिया चल रही थी . कल फाग था , कल मैं अपनी जिन्दगी की नयी शुरुआत करने वाला था . कल का दिन बहुत महत्वपूर्ण होने वाला था . मैं रसोई में गया , सुबह से कुछ खाया नहीं था सरला से मैंने खाना लिया और बैठ गया .
मैं- कुछ बात करनी थी
सरला- हाँ कुंवर.
मैं- मंगू वाला काम हुआ
सरला- लेने को तो तैयार है वो पर बाते नहीं बताता . काफी घुन्ना है वो
मैं- कुछ तो बात निकाल उस से .
सरला- मिलता ही कहाँ है वो न जाने कहाँ गायब रहता है वो
मैं- कभी चाचा ने तुझसे कहा था की किसी और को भी दे दे
सरला- ठाकुर साहब उस तरह के आदमी नहीं थे की किसी और के साथ सोने को मजबूर करते
मैं- क्या रमा ने तुझसे कभी कहा था की किसी और से चुदले
सरला- ऐसे सीधा तो नहीं कहा पर अक्सर कविता मुझसे कहती थी चूत का काम है चुदना , क्या फर्क पड़ता है एक चोदे या हजार.
मैंने उसे जाने को कहा और सोचने लगा. मामला बस इतना नहीं था . मरने से पहले चाचा परेशां सा रहने लगा था , उसे किस चीज की परेशानी थी ये मालूम करना बेहद जरुरी था मेरे लिए.