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खंड ८
विधवाओं की घाटी
सुबह का समय था, धुप बहुत ही तेज थी लेकिन उन घने जंगलो के अन्दर तक सूर्य की किरणे कम ही प्रवेश कर पाती थी, उन बड़े और ऊचे-ऊचे वृक्षों से हमेशा सूर्य को लड़ना पड़ता था उन छोटी-छोटी वनस्पतियों के लिए, जो उन जंगलो के अन्दर ही सिकुड़ के रह जाया करती थी, इसी के कारण उन जंगलो के अन्दर का वातावरण हमेशा ठंडा ही रहता था, जंगल थोडा बहुत दलदली भी थाविधवाओं की घाटी
चार व्यक्ति जमींन पर बेसुध पड़े थे जिनमे ३ तो पुरुष थे और १ स्त्री ! उनके पास में ही रात के जले हुए लकडियो के अवशेष पड़े हुए थे, और थोड़े बहुत बर्तन थे जिसमे अब भी खाना पड़ा हुआ था, दोहपर होने ही वाली थी फिर भी वो चारो अभी तक सोये हुए पड़े थे !
जंगल शांत था, शांत था मतलब ?, मतलब की उस जंगल में किसी की भी आवाज नहीं आ रही थी, ना ही पक्षियों की और ना ही जानवरों की, बस एक ही आवाज आ रही थी और वो थी पास ही में बह रही उस नदी की ! एक तरह से वहा पर शमशान की सी शांति प्रतीत हो रही थी ! ऐसा लग रहा था मानो जैसे वो जंगल भूखा बैठा हो और प्रतीक्षा कर रहा हो भोजन की !
तभी उनमे से किसी एक को होश आता है, और ‘अह्ह्ह्ह’ की ध्वनि के साथ वो धीरे-धीरे बैठता है, आखे उसकी अभी भी बंद ही थी, दर्द के मारे उसका सर फटा जा रहा था, पास में रखे एक झोले में कुछ टटोलता है और एक पानी से भरा चमड़े का थैला निकलता है और उसे अपने सर पर उड़ेल देता है, अब थोडा सयंत हुआ वो, आखे खोली उसने, देखा आस-पास, सभी बेहोश पड़े थे, और ये क्या ???, दो लोग गायब थे, अब चौका वो, याद करने की कोशिश की उसने पिछली रात को, लेकिन सर दर्द के कारण कुछ भी याद नहीं आ रहा था, पास में पड़े हुए को आवाज दी उसने “रमन, ओ रमन” और इसी तरह सबको आवाज दी उसने “डामरी, माणिक उठो सब लोग, जल्दी करो” लेकिन सब तो को जैसे कुछ होश ही नहीं था, एक बार वापस आवाज डी उसने सबको, लेकिन कुछ हरकत नहीं, अब डरा वो, देखा उसने सभी को, जांचा उसने, उन सबकी धड़कन सामान्य से बहुत ही धीमी गति चल रही थी,
अब अनिष्ट की आशंका घिरी उसके मन में, अब क्या करे वो ?, उस चमड़े के थैले से पानी पिलाना चाहा उसने सभी को, लेकिन, सारा पानी उसके सर पर डालने से ख़त्म हो चूका था, टटोला उसने और भी सभी थैलों को, लेकिन सब खाली थे, अब दौड़ा वो पास ही बह रही नदी की ओर, जैसे ही वो उस चमड़े के थैले में पानी भरने लगा तभी याद आया उसे, की मना किया गया था उस नदी के पानी को इस्तेमाल करने से, अब फिक्र हुई उसको अपने साथियों की, यदि जल्द ही पानी की व्यवस्था नहीं की गयी तो, उनकी जान खतरे में थी ! अब बिना कुछ विचारे दौड़ा वो, २-३ थैले लिए जंगल में किसी ओर, पानी की तलाश में !
दूसरी तरफ इस जंगल के उत्तर-दक्षिण की ओर दूर उस पहाड़ की छोटी पर धुरिक्ष बहुत ही व्याकुल बैठा था, प्रतीक्षा कर रहा था कामरू के होश में आने के ! उसके प्रेम ने बहुत प्रतीक्षा करवाई है उससे, और लगता है अभी-भी बहुत करनी बाकी है !
“१० दिन”
“क्या ?” यकायक धुरिक्ष बोल पड़ता है “१० दिन क्या बाबा ?”
“१० दिन का समय है हमारे पास” वो बाबा ऊपर आसमान की ओर देखते हुए बोलता है “१० दिन का समय ही शेष बचा है हमारे पास, चोमोलूंगमा की प्राण उर्जा को वापस उसके मनुष्य रूपी काया में प्रवेश कराने में, नहीं तो”
अब डरा वो गान्धर्व, जैसे किसी ने उसके हृदय ने अपनी मुट्ठी में जकड लिया हो “नहीं तो...” बोलते-बोलते जैसे वायु उसके हलक में ही रुक सी गयी
“नहीं तो तुम्हे नियति को स्वीकार करना होगा” वो बाबा कठोर भाव में धुरिक्ष को देखते हुए बोलता है
इससे पहले धुरिक्ष कुछ बोलने लगता है उसे कुछ खासने की आवाज आती है, बाबा और धुरिक्ष दोनों उस आवाज को ओर देखते है, वो कामरू था जिसको अभी होश आ ही रहा था, बाबा और धुरिक्ष गए दोनों कामरू की तरफ !
आखे खोली कामरू ने, दोनों उसे ही देख रहे थे, उस बैठा वो, और सम्मान की मुद्रा में हाथ उठाये उसने धुरिक्ष की तरफ, कामरू ने सम्मान किया उस धुरिक्ष का, अपने गाव के देवता का !
“माफ़ करना, हे मनुष्य, आज मै तेरे इस सम्मान का कोई हकदार नहीं हु” लाचारी से धुरिक्ष कामरू की तरफ देखते हुए बोलता है, “ मेरी वजह से तेरा वो कोमल बचपन उस समय की गर्त में चला गया जो तुम हर पल जीने के हकदार थे”
“मेने ही तेरे पिता को चोमोलूंगमा की काया की सुरक्षा का भार सौपा था, मेरे ही कारण तुझको पिता छोटी-सी उम्र में पिता से अलग रहना पड़ा”
धुरिक्ष लाचारी से सब बोलता रहा, लेकिन कामरू की उन बुड्ढी आखो को एक सुकून सा मिल रहा था, कामरू बोलता है “आप ऐसा मत कहिये, देव ! बल्कि आज आपके ही कारण मेरे का वो कार्य पूरा कर सकूँगा जो उन्होंने मुझे सौपा था”
वाकई में,
मन जीत लिया उस मनुष्य ने,
उस कामरू ने,
उस बाबा का,
धुरिक्ष का,
उस गान्धर्व कुमार का,
जहा पर आज हर कोई अपनी जिम्मेदारियों को दुसरो पर मढ लेता है, अपनी त्रुटियों को ना स्वीकारते हुए दुसरो पर थोप लेता है, अपने आप को छिपाता है, अपने को बचाता है ! वही दूसरी और कामरू ने सब कुछ स्वीकार लिया, सहर्ष होनी को स्वीकार लिया उसने !
अब कुछ इशारा किया बाबा ने धुरिक्ष को,
समझ लिया धुरिक्ष,
शुन्य में से एक केसर का फूल निकाला उसने,
मसला उसको,
और एक तेज हवा के साथ,
उड़ा दिया कामरू की तरफ,
नहा गया कामरू उस केसर में,
उस अलौकिक खुशबु में,
उसी के साथ,
चमत्कार हुआ एक कामरू के साथ,
कमर सीधी होने लगी उसकी अब,
बाल वापस काले होने लगे,
शरीर में मॉस भरने लगा अब,
और देखते ही देखते उम्र लौटने लगी उसकी,
अब वापस जवान हो गया वो,
फल मिला कामरू को,
उसकी इमानदारी का फल !
“अब समय हाथ से जा रहा है कामरू” वो बाबा बोल पड़ता है “जल्दी बता, कहा है तेरा पिता ?, इवान कहा पर है ? “
कुछ पल शांति रही वहा पर, धुरिक्ष के कान खड़े हो गए जैसे वही सुनना चाह रहा था वो, वो बाबा भी एक टक देखने लगा अब वो कामरू को
एक गहरी सास ले, आखे बंद कर बोलता है “विधवाओ की घाटी में”
ये सुनते ही जैसे बाबा को अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हुआ, वो वापस बोल पड़ते है “क्या कहा तुमने ? , कहा है इवान ?”
“विधवाओ की घाटी में” कमरू फिर से बोल पड़ता है
“ नहीं, ये नहीं हो सकता, संभव नहीं है, ये एक मिथक है “ वो बाबा हडबडाहट में बोलता है “नहीं, इसका कोई अस्तित्व नहीं है”
अब धुरिक्ष शांति से बैठ जाता है, और बाबा की तरफ देखने हुए बोलता है “है, इसका अस्तित्व है, ये कोई मिथक नहीं है, इसका वजूद आज भी है”
“ऐसा नहीं हो सकता” बाबा बोलता है “यदि इसका अस्तित्व होता तो मेरी ‘देख’ में आ जाता, मेरी पकड़ से नहीं बच सकता था इवान”
“ऐसा संभव है बाबा, क्योकि वो घाटी बंधी है, मंत्रो से बंधी है, बहुत ही शक्तिशाली मंत्रो से, जिसे उस महायौगिनी ने स्वयं बांधा था इस बाहरी दुनिया से, जिसके आर-पार कोई नहीं देख सकता, कोई नहीं झांक सकता उसके भीतर” दलक्ष बोलता है “लेकिन”
“लेकिन क्या ???” वो बाबा बोलता है
लेकिन वहा तक जाने का रास्ता कोई भी नहीं जानता है,
स्वयं में भी नहीं