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Horror नदी का रहस्य (Completed)

Dark Soul

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४)

एक दिन सुबह उठते ही रुना को अपना शरीर भारी और हल्का; दोनों ही लगने लगा. ऐसा पहले कभी हुआ नहीं था उसके साथ. बिस्तर पर उठ बैठी. आँखें खोलना चाही पर नींद तो जैसे जम कर पलकों पर बैठ गई हो. फ़िर भी कोशिश करते करते किसी तरह आँख खोल पाई. संयोग ऐसा हुआ की आँख खोलते ही अपने बदन पर ही सबसे पहले उसकी नज़र गई.

और इसी के साथ बुरी तरह चौंक उठी वह.

सीने पर उसके तो ब्लाउज है ही नहीं..!

सिर्फ़ ब्रा में है और उसमें भी नब्बे प्रतिशत चूचियाँ ब्रा कप से ऊपर उठ कर बाहर की ओर झलक रही हैं... और ऐसा हो भी क्यों न... ब्रा तो खुद भी अधखुली सी है... एक स्ट्रेप कंधे पर से उतरी हुई है. साड़ी तो जैसे हो कर भी नहीं है बदन पर.. ज़रा सा हिस्सा ही कमर पर किसी तरह लिपटा हुआ है ...वो भी सिर्फ़ जांघों तक ही.!

आशंकित सी हो पलट कर बिस्तर पर अपने बगल में देखी.

पति पेट के बल लेटे मुँह दूसरी ओर किए अभी भी गहरी नींद में सो रहा है.

रुना जल्दी से पलंग से उतरी.. और कमरे में ही मौजूद अटैच्ड बाथरूम में घुस गई.

कपड़ों को ठीक करने के बाद ब्रश वगैरह की.

मुँह अच्छे से धोकर बाथरूम से निकलने के बाद रुना को अच्छा तो लग रहा था पर बदन अब भी टूट रहा था. आँखों पर इतना पानी देने, इतना धोने साफ़ करने के बाद भी नींद तो जैसे अंगद के पाँव की तरह आँखों पर जम गई थीं.. पति को ऑफिस के लिए देर न हो जाए ये सोच कर वो अपने वर्तमान शारीरिक अनुभूतियों को छोड़ नीचे उतर कर सीधे रसोई में घुसी.

कुछ देर में पति के लिए टिफ़िन तैयार कर के उन्हें जगाने ऊपर अपने कमरे में गई. सुबह का नाश्ता के साथ साथ अपने और अपने पति के लिए टिफ़िन जल्दी बन जाने के कारण रुना थोड़ा खुश थी. दो दिन हुआ बिट्टू अपने नाना नानी के पास (मामार बाड़ी) चला गया है. इसलिए चाहे नाश्ता हो, टिफ़िन हो या फ़िर दोपहर और रात का खाना; रुना को थोड़ा कम ही मेहनत करनी पड़ रही है पिछले दो दिन से.

कमरे में पहुँच कर पलंग पर अभी भी बेख्याली से सोये अपने पति को देख कर मुस्कराई.

पति को तीन चार बार आवाज़ दी ... उठने को बोली... पर पति ने कोई जवाब नहीं दिया.

अचरज हो जैसे ही पति के पास जा कर उन्हें हाथ लगा कर उठाने को हुई; अचानक से उसे अपना सिर फ़िर भारी सा लगने लगा. झुकी हुई स्थिति से तुरंत सीधी हो कर खड़ी हो गई. ध्यान दी, सिर सच में भारी हो गया है. नींद ठीक से न हो पाने को कारण मानते हुए वह तुरंत बाथरूम में घुसी और वॉशबेसिन का नल चला कर आँखों और मुँह पर ज़ोर ज़ोर से पानी लेने लगी.

पूरे दो मिनट तक वो जम कर अपने चेहरे, आँखों पर पानी लेती रही.

इस क्रम में उसकी साड़ी का ऊपरी हिस्सा और ब्लाउज भी बहुत भीग गए. करीब 70% तक ब्लाउज बुरी तरह भीग कर उसके बदन से चिपक गया. भीगे कपड़ों में खड़े रहने पर जैसा आभास होता है ठीक वैसा ही अब रुना को होने लगा.

नल बंद की..

वॉशबेसिन के ऊपर लगे आईने में खुद को देखने के लिए चेहरा ऊपर उठाई...

पलकों पर अभी भी बहुत पानी होने के कारण तुरंत आँख खोल कर देख नहीं पाई.

और जब आँखें खोल पाई, तब आईने में जो देखी... जो दिखा उसे... उसे बिल्कुल भी विश्वास नहीं हुआ. कुछ क्षण अपलक देखती रही वो आईने में. कुछ पल आईने में देखते हुए उसे ऐसा लगने लगा मानो उसे बहुत नींद आ रही है... उसकी आँखें बंद होने लगीं... उसे उसी समय बिस्तर पर जा कर लेट जाने का मन करने लगा. उसकी धड़कने धीरे धीरे तेज़ होने लगी.

वॉशबेसिन के दोनों साइड को अपने हाथों से कस कर पकड़ कर खुद को खड़ा रखने की कोशिश करने लगी. आईने में जो कुछ दिखा उसे; उसे कन्फर्म करने के लिए दुबारा देखने की कोशिश की.. पर आँखें अब बंद हो आई थीं... जो उसके लाख चाहने के बावजूद खुलने को राज़ी नहीं हो रहे थे.

खुद को सम्भालने के लिए कुछ सोचती; कि तभी वो चिहुंक उठी...

और ऐसा करने को विवश किया दो मर्दाना हाथों ने जो उसके पेट को पीछे से दोनों साइड से सहलाते हुए अपने आगोश में ले लिया था. दो गर्म हथेलियों का स्पर्श अपने पेट की नर्म त्वचा पर पाते ही रुना पहले डर ज़रूर गई थी पर जल्द ही उसका सारा डर उन हाथों की कोमल सहलाहट ने दूर कर दिया.

उन दोनों हाथों ने नर्म और कोमल तरीके से रुना के पेट, नाभि और कमर का मसाज करना शुरू कर दिया. इतने प्यार से कि कुछ ही पलों में रुना ने खुद को, अपने सिर दर्द को, अपने टूटते बदन की पीड़ा को उन हाथों के स्पर्श से हो रही चमत्कारिक सुख के हवाले कर दिया. किसी के भी हाथों के स्पर्श से ऐसी सुख की कभी आशा नहीं की थी रुना ने.

अब तक आँचल भी सीने पर ढीला हो कर कंधे से सरक कर बाएँ हाथ पर किसी तरह फँस कर रह गया था.

पर रुना को तो अब इसकी भी सुध नहीं थी...

उसे तो ये तक पता नहीं चला कि उन हाथों ने उसकी साड़ी को पेटीकोट सहित कमर व नाभि से नीचे.... बहुत नीचे कर दिया था. मतलब इतना नीचे कि शायद अगली एक और कोशिश में रुना की गांड की दरार और सामने से झांटें दिख जाए.

कुछ देर बड़े प्यार से चर्बीयुक्त कमर को मसलने के बाद वे हाथ धीरे धीरे ऊपर उठने लगे... बिल्कुल मेरुदंड की सीध में... उठते उठते ब्लाउज के बॉर्डर के पास जा रुके... फ़िर उस पूरे जगह को दोनों अँगूठों की मदद से थोड़े दबाव से मसाज किया जाने लगा.

रुना की सांसे गहरी और लंबी होने लगी.

इधर दोनों हाथ अब ब्लाउज के बॉर्डर को थोड़ा ऊपर कर अंदर घुस चुके थे... एक साथ दोनों हाथों को न संभाल पाने के कारण पीठ के तरफ़ से ही ब्लाउज का सिलाई दो साइड से खुल गया जिससे अब तक बदन पर फ़िट बैठता ब्लाउज अब अपेक्षाकृत ढीला हो गया. दोनों हाथ अब बहुत सरलता से ब्लाउज के अंदर रहते हुए पूरे मांसल पीठ पर घूमने लगे.

भरे पीठ को अच्छे से मसलते हुए वे दोनों हाथ बहुत बेहतरीन मसाज दे रहे थे.

मदहोशी में होने के बावजूद कुछ अटपटा सा ज़रूर लग रहा था रुना को पर वो इस मसाज वाले शारीरिक सुख को अभी तुरंत न तो रोक सकती है और ना ही रोकना चाहती है. जिस तरह इन हाथों ने उसके चर्बीयुक्त कमर, पेट और यहाँ तक की नाभि को रगड़ रगड़ कर आराम दिया है; ऐसा आराम वो अपने पूरे बदन पर पाने को इच्छुक हो गई. उसका रोम रोम इस मर्दाना छुअन से पुलकित हुआ जा रहा था. मन के किसी कोने में एक तमन्ना ऐसी जगने लगी थी कि काश ये हाथ अब उसके स्तनों पर जाए और जिस प्रकार अभी तक उसके शरीर के दूसरे अंगों को आराम मिला ठीक वैसा ही आराम ये हाथ उसके स्तनों का बेरहमी से मर्दन कर के दे.

अचानक उसे लगा जैसे पीठ पर पड़ने वाला दबाव कम हो गया... कम ही नहीं बल्कि दबाव एकदम से ही हट गया. पर.. पर... दोनों हाथ तो अब भी वहीँ हैं... उसके पीठ पर ... उसके भरी हुई पीठ का आनंद लेते हुए उसे आनंद देने का काम करते... तो फ़िर..?

क्षण भर बाद ही उसे उसका उत्तर मिल गया... और ऐसा होते ही स्त्री सुलभ एक मोहक लाज उसके सुंदर मुखरे पर बिखर गई.

उन दो हथेलियों के अलावा जो चीज़ रुना के पीठ पर दबाव बना रहा था और जो अभी अभी एकदम से हट गया; वो था उसकी ब्रा की हुक. उन हथेलियों की करामाती अँगुलियों ने बड़े ही सरलता से उसके हुक को खोल दिए जिसका पता खुद रुना को कम से कम दो तीन मिनट बाद लगा.

अब तो वे हथेलियाँ और भी स्वतंत्र रूप से पूरे पीठ का भ्रमण करने लगे... जहाँ मन करे वहीँ रम जाए ... और फ़िर बड़े अच्छे तरीके से बिना तेल के ही मर्दन करने लग जाए.

काम पीड़ित होती जा रही रुना उन हथेलियों का स्पर्श अपने यौनक्षुद्रात स्तनों पर पाने की कामना में इतनी ही विभोर हो गई थी कि उसे अपने बदन के दूसरी जगह पर होते छेड़छाड़ का रत्ती भर भी पता न चला. पता ही कब और कैसे उसकी साड़ी पेटीकोट सहित उसके भरे गोल पिछवाड़े पर से और नीचे सरक गई थी और अब तो किसी प्रकार इस तरह ऊपरी जांघों के इर्द – गिर्द इस तरह लिपटी – अटकी हुई थी की अब गिरे तो तब गिरे!

और अब एक और मर्दाना अंग अपने काम पर लग चुका था.

जोकि बड़े प्रेम और समर्पित भाव से रुना के गांड के दरार पर ऊपर नीचे हो रहा था. एक बार ऊपर से नीचे आता.. फ़िर नीचे से ऊपर.... फ़िर ऊपर से नीचे... पर अब की बार बीच में ही रुक कर कुछेक क्षणों के लिए दरार पर हल्का दबाव डालता... और फ़िर नीचे जाता... और फ़िर वही काम शुरू से शुरू होता.

ऐसी लगातार हरकतों ने रुना को गर्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

चरम यौनेतेज्जना में ‘म्मम्म....आह्ह्ह..’ करने लगी..

उस गर्म अंग का यूँ बार बार ऊपर नीचे हो कर उसकी तृष्णा को बढ़ा कर छोड़ देना; ये उससे सहन नहीं हो रहा था. वो उस अंग को जल्द से जल्द अपने में समाहित करना चाहती थी. इसलिए धीरे धीरे अपनी गांड को पीछे करने लगी... उसके ऐसा करने के बावजूद वह अंग अपने पूर्व की हरकत से तनिक भी नहीं डिगा और पहले की तरह ही दरार पर ऊपर नीचे होता रहा.

रुना के बर्दाश्त के बाहर होने लगा ये सब अब. उसके अतृप्त मन ने ठान लिया की अब चाहे जो हो, जैसे भी हो, जितना भी हो.. वो उस गर्म फड़कते अंग को अपने अंदर ले कर रहेगी. ये सोचने के साथ ही उसने अपनी गांड को आगे पीछे करना शुरू किया. तीन से चार बार ऐसा की ही थी कि कानों से एक आवाज़ टकराई,

“रुना....ओ रुना...”

पर उसने ध्यान नहीं दिया... वो तो बस अपने अतृप्त मन की अधीन हो अपने जिस्म के एक एक रोएँ को आराम... सुख देना चाहती थी.

आवाज़ फ़िर गूँजी..

और साथ ही किसी ने उसके बाँह को पकड़ कर झकझोड़ा,

“अरे रुना... उठो... क्या कर रही हो??”

रुना अचानक से हड़बड़ा कर उठी,

और इसी के साथ वर्तमान स्थिति को देख कर हतप्रभ रह गई...

सीने पर आँचल अनुपस्थित है.. ब्लाउज के सारे बटन खुले हुए हैं... ब्रा भी गैर हाजिर... पेटीकोट कमर तक उठा हुआ और खुद उसका हाथ... बायीं हाथ की मध्यमा और अनामिका ऊँगली उसकी चूत में अंदर तक प्रविष्ट हैं जो खुद भी गीली है!

रुना अविश्वास से अपने आस पास देखी...

बगल में ही उसके पति श्री नबीन मुख़र्जी, अर्थात् “नबीन बाबू” बड़े आश्चर्य से आँखें फाड़े उसे देख रहे थे...

बोले,

“रुना.. ये क्या कर रही हो... सुबह सुबह ही... छी: ... कोई और समय होता तो और बात होती... क्या हुआ है तुम्हें..?”

सेक्स को लेकर नबीन बाबू आज भी उतने ही अपरिचित हैं जितना की सत्रह साल पहले अपने शादी के समय थे.. सफलता बस इतनी ही रही की किसी तरह अपने खड़े अंग को किसी तरह रुना के ताज़ी योनि में डाल पाए और समय समय पर थोड़ा बहुत कर के एक संतानोपत्ति कर पाए.

ऐसा नहीं की सेक्स के मामले में एकदम भोंदू हैं नबीन बाबू... फ़िर भी सेक्स किसी रॉकेट साइंस की ही तरह रहा है हमेशा से उनके लिए.

“ज..जी... वो....म”

“चलो चलो... जल्दी उठो... मुझे देर हो रही है.. आठ बजने को आया है.”

“आप नहा लिए?”

“हाँ.”

“ओह.. ठीक है. नाश्ता टेबल पर है. खा लीजिए.” खुद को सम्भालते हुए बोली रुना.

नबीन बाबू कुछ बोले नहीं.. आश्चर्य से देखते रहे रुना को.

रुना को अजीब लगा.. बोली,

“क्या हुआ... क्या देख रहे हैं?”

“देख रहा हूँ की ये तुम क्या अनाप शनाप बक रही हो... तुम सुबह से एक बार भी उठी ही कब थी? मैंने तुम्हें उठाया... अभी... जब उठी ही नहीं तब नाश्ता कैसे बना ली?”

“ओह्हो... मैं बना चुकी हूँ... टेबल पर है... चलिए .. दिखाती हूँ.”

रुना नबीन को लेकर नीचे वाले कमरे में आई...

“देखिए... टेबल प...”

डाइनिंग टेबल की ओर इशारा करते करते रुना के हाथ और होंठ थम गए.

टेबल पर कुछ नहीं था!

रुना आश्चर्य से दोहरी हो गई.

उसे अपने सामने खाली टेबल को देख कर खुद पे विश्वास नहीं हो रहा था.

कहाँ गया सारा नाश्ता...??

कुछ देर पहले ही तो रखी थी....

नबीन बाबू कुछ बोले नहीं.. काम के प्रेशर का नतीजा बता कर उसे स्कूल से छुट्टी लेकर आज घर पर ही रहने को कहा.

नबीन का बिना कुछ खाए ही ऑफिस के लिए निकल जाते देख रुना को बहुत दुःख हुआ.

पर दुखी होने से भी ज़्यादा अपने साथ सुबह से हो रही घटनाओं को लेकर परेशान हो रही थी.

बिस्तर पर लेटी हुई पूरे घटनाक्रम के बारे में सोच ही रही थी कि मुख्य दरवाज़े पर दस्तक हुई.

साथ ही एक आवाज़ भी आई,

“मैडम जी, दूध ले लीजिए...”

इच्छा तो नहीं थी उठने की... फ़िर भी उठी....

रसोई में गई, बर्तन ली और जा कर दरवाज़ा खोल कर बर्तन आगे बढ़ा दी.

“नमस्ते मैडम जी.”

“हम्म.. नमस्ते.”

अनमने भाव से रुना प्रत्युत्तर देते हुए देबू की ओर देखी.. और एक बार फ़िर बुरी तरह चौंक उठी,

“अरे...ये क्या.... ये तो बिल्कुल सुबह जैसे.... उफ़..!!”
 

Dark Soul

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५)

एक दिन तुपी काका के घर के सामने बहुत भीड़ लग गई. ऐसी भीड़ की लगे मानो सारा गाँव उठ कर तुपी काका के घर आ गया हो. जवान हो, या बच्चा या बूढ़ा या फ़िर महिलाएँ... सबके मुँह में केवल यही बातें हो रही हैं कि ‘हाय राम.. ये कैसे हो गया?’, ‘न जाने बूढ़े माँ बाप का क्या होगा?’, ‘अभी तो जवान हो ही रहा था.. इतनी जल्दी... न जाने कैसे हो गया....?’ इत्यादि.

तभी ‘जगह दीजिए...’ ‘आगे जाने दीजिए.’ ‘हटिए हटिए’ ‘साइड होइए’ कहते हुए सात पुलिसियों वाला एक दल उस ठसाठस भीड़ में से खुद के लिए जगह बनाते हुए काका के घर के मुख्य दरवाज़े तक पहुंची.

दल को लीड करने वाला एक मोटा तोंदू सा पुलिस वाला आगे बढ़ा और घर के ही एक सदस्य से पूछा,

“घटना कहाँ घटी है...? तुपी काका कौन हैं?”

उस सदस्य के मुँह से बोली नहीं फूट रही थी. चेहरे पर ऐसी हवाईयाँ उड़ रही थी मानो कुछ ऐसा देखा है उसने जो इस जीवन में कभी देखने या सुनने की उम्मीद बिल्कुल नहीं की होगी.. कभी नहीं की होगी.

काँपते हाथ से घर के एक तरफ़ इशारा किया उसने.

उस पुलिस वाले ने आँखों से इशारा कर के उसे आगे चलने को कहा. वो जाना बिल्कुल नहीं चाह रहा था पर पुलिस वाले की रोब झलकाती आँखों को देख कर और भी डर गया. मान गया.

चुपचाप आगे आगे चलने लगा.

चार सिपाहियों को वहाँ भीड़ संभालने की जिम्मेदारी दे कर वह तोंदू पुलिस वाला अपने साथ दो पुलिस वाले को लेकर उस सदस्य के पीछे पीछे चलने लगा.

कच्चे मार्ग से आगे बढ़ कर दाएँ मुड़ना पड़ा और फ़िर दस कदम चलने के बाद एक छोटा सा खटाल/गोशाला में पहुंचे सब. यहाँ तीन गाय और दो भैंसे बंधी हैं.. साफ़ सुथरा ही है सब.

“ये किसका है?” उस मोटे पुलिसिये ने पूछा.

“तुपी जी का ही है.” उस सदस्य ने कहा.

“आप कौन लगते हैं उनके??”

“जी, मैं उनका भांजा हूँ. चार दिनों के लिए घूमने आया था.”

“ह्म्म्म... तो आज कितने दिन हुए?”

“जी दो ही दिन हुए.”

“तुपी जी कहाँ हैं?”

“सुबह जब से वह भयावह काण्ड देखा है... मानो सुध बुध ही खो चुके हैं. वहीं उसी जगह बैठे हुए हैं.”

“ले चलिए हमें वहाँ.”

आदेश दिया पुलिसिए ने.

तुरन्त पालन हुआ आदेश का.

उन सब को ले कर थोड़ा और आगे बढ़ा वो युवक. खटाल से सटा हुआ एक छोटे से कमरे के पास पहुँचा.

उस कमरे के पास पहुँचने पर सबने देखा की आस पास फर्श पर खून ही खून है जो कि अंदर कमरे से बह कर बाहर निकल रही है. सभी तुरन्त अंदर घुसे... और घुस कर अंदर का जो दृश्य देखा उससे तो सबका दिमाग ही घूम गया. दिल दहल गया. उल्टी होने को आई. सामने जो दृश्य था ऐसा कभी कुछ उन लोगों को जीवन में कभी देखना भी होगा ये अपने सबसे बुरे सपने में भी नहीं सोचा था किसी ने.

सामने फर्श पर पाँच कदम आगे एक नवयुवक का शव पड़ा हुआ था. शरीर तो सामने की ओर था पर सिर पूरी तरह पीछे घूमा हुआ था. साथ ही पूरे शरीर में जगह जगह से माँस नोचा हुआ था. सबसे भयावह था उस शरीर का सीने वाला हिस्सा जहाँ बहुत बड़ा सा गड्ढा बना हुआ था...

वो मोटा पुलिस वाला आगे बढ़ कर शव को तनिक ध्यान से देखने पर पाया कि सीने से तो दिल ही गायब है!

“हे भगवान! इतनी क्रूरता!”

बरबस ही निकला उसके मुँह से.

बगल में ही, शव से चार हाथ दूर फर्श पर ही एक प्रौढ़ आदमी बैठा हुआ था. अत्यंत उदास... बदहवास... आँखों से अविरल आँसू बहाता हुआ.

उस आदमी की हालत देख कर मोटा पुलिसिया को भी थोड़ा बुरा लगा पर क्या करे... पुलिस जो ठहरा... ये समय संवेदना जताने से अधिक ड्यूटी बजाने का है.

गला खंखार कर उस आदमी से पूछा,

“सुनिए...आप ही तुपी काका हैं क्या?”

वह आदमी कुछ बोला नहीं.. अभी भी कहीं खोया हुआ अपलक उस शव को निहारे जा रहा था. उसे तो शायद इस बात का भी भान न हुआ होगा कि कोई उस कमरे में घुस कर उनके सामने खड़ा भी हुआ है.

पुलिस वाला साथ आए युवक को इशारे से पास बुलाया और धीमे स्वर में पूछा,

“तुपी काका यही हैं न?”

युवक पूरे आत्मविश्वास के साथ सिर हिलाता हुआ बोला,

“हाँ साहब.”

“ह्म्म्म... और ये मृत युवक कौन है? क्या लगता है इनका?”

“ये इस घर में काम करता था. नौकर जैसा ही था पर चूँकि बहुत ही कम उम्र से ही इस घर में रहता आ रहा था इसलिए घर के सदस्य जैसा ही हो गया था. यहाँ तक कि तुपी काका और सीमा काकी ने भी सभी को कह दिया था कि कोई इसे नौकर न समझे और हमेशा अच्छे से नाम ले कर ही बुलाया करे.”

“नाम क्या है इसका?”

“नाम तो कुछ और था... पर सीमा काकी प्यार से मिथुन कह कर बुलाती थी... धीरे धीरे घर में सभी और गाँव वाले भी इसे मिथुन नाम से ही बुलाने लगे थे.”

उस युवक का वाक्य खत्म होते ही तपाक से पुलिस वाले ने पूछा,

“ये सीमा काकी कौन हैं?”

“इनकी (तुपी काका की ओर इशारा करते हुए) पत्नी है साहब.”

“हम्म.. और तुम्हारा नाम?”

“गोबिन्दो दास, साहब... घर और बाहर सब प्यार से बिल्टू कह कर बुलाते हैं.”

“बिल्टू... हम्म.. अच्छा नाम है.. मैं भी इसी नाम से बुलाऊँगा तुझे.. कोई दिक्कत?”

खैनी और गुटखा से पीले पड़ चुके दांतों को एक बड़ी सी मुस्कान से दिखाते हुए चापलूसी वाले अंदाज़ में हाथ जोड़ते हुए बिल्टू बोला,

“आप माई बाप हो सरकार... जो जी में आए...कह सकते हैं.”

पुलिस वाला पैनी नज़रों से एकबार उस युवक की आँखों में अच्छे से देखा; फ़िर तुपी काका की ओर इशारा करते हुए धीमे पर गंभीर आवाज़ में बोला,

“इन्हें पानी दो... सम्भालो.”

युवक जल्दी से एक बड़े से ग्लास में पानी ले आया और हथेली में थोड़ा पानी ले तुपी काका के चेहरे पर छींट दिया.

वास्तविकता में लौटने में एक-दो मिनट और लग गए तुपी काका को.

सामने पुलिस वाला को अचानक से देख सहम गए. प्रश्नसूचक नेत्रों से बिल्टू की ओर देखा. बिल्टू ने शव की ओर इशारा कर के पुलिस के आने का आशय समझा दिया काका को.

तुपी काका उठे और हाथ जोड़ कर पुलिस वाले के सामने जा कर खड़े हो गए.

“तुपी काका आप ही हैं न?” उत्तर जानते हुए भी पुलिस वाले ने पूछा.

काका ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया,

“जी मालिक.”

“आपका पूरा नाम...बढ़िया नाम?”

“तपन सुनील पाल, मालिक.”

“हम्म.. पिताजी का नाम सुनील पाल?”

“जी मालिक.”

“हैं?”

“नहीं मालिक... चार साल हो गए उनके गुज़रे हुए.”

“ओह.. सॉरी.”

एक पल चुप रह कर पुलिसिए ने फ़िर कहा,

“मेरा नाम बिशम्बर रॉय है. इंस्पेक्टर बिशम्बर रॉय. थाना इंचार्ज.”

प्रत्युत्तर में तुपी काका ने केवल हाथ जोड़ कर अभिवादन जताया.

“ये युवक आपका कौन था?”

“बेटा था मालिक.” कहते हुए तुपी काका फफक पड़े.

“जी?!”

इंस्पेक्टर चौंक कर उछल पड़े.

“मतलब मालिक... कम उम्र से ही मेरे यहाँ काम कर रहा है न मालिक... इसलिए घर का सदस्य और मेरे बेटे जैसा हो गया था. बहुत अच्छा लड़का था... कर्मठ, आज्ञाकारी, विनोदी....”

और भी बहुत कुछ कहना चाह रहे थे तुपी काका... पर गला भर आया था उनका... फ़िर से रोने लगे.

इंस्पेक्टर रॉय से भी तुपी काका की हालत देखी नहीं जा रही थी. उन्होंने बगल में खड़े हवलदार को बुलाया.. आगे की पूछताछ और कुछेक कार्यवाही का निर्देश दिया और वहाँ से निकल गए.

जा कर भीड़ हटाते हुए अपनी जीप में बैठ गए.

सीट पर ही रखा पानी का बोतल उठा कर पीने लगे.

पानी पीते पीते ही उनकी नज़र गई तुपी काका के घर के दूसरी मंजिल की खिड़की पर.

खिड़की से लगे पर्दे के ओट से एक महिला नीचे भीड़ को देख रही थी. महिला गुमसुम सी थी... बहुत उदास... इंस्पेक्टर समझ गए की हो न हो यही सीमा जी हैं... तुपी काका की धर्मपत्नी.

इंस्पेक्टर रॉय को कुछ अलग लगा सीमा में. उसके चेहरे में, चेहरे के कसावट में, बालों में....

इंस्पेक्टर ने गौर किया... सीमा जी की नज़रें उस भीड़ पर एकदम स्थिर है... लगातार एक ही ओर देखे जा रही है... कदाचित उस भीड़ में से किसी एक ही व्यक्ति को देख रही है... इंस्पेक्टर ने उस ओर देखने का प्रयास किया. भीड़ में सबकुछ स्पष्ट तो नहीं था पर इतना ज़रूर दिख गया की सीमा जी जिसे लगातार अपलक देखे जा रही है वो एक महिला है.

इंस्पेक्टर के दिमाग ने शक उपजाऊ प्रश्न करना शुरू कर दिया,

‘सीमा जी उस महिला को ऐसे क्यों देख रही हैं? क्या सीमा जी कुछ जानती हैं इस हत्या के बारे में? जिसे वो देख रही हैं क्या उस महिला का इस हत्या से कोई सम्बन्ध है?’

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थाने में,

टेबल पर गरमागर्म चाय रखा हुआ है पर इंस्पेक्टर रॉय दोनों हाथों को सिर के पीछे रख आँखें बंद किए किसी गहन सोच में डूबा हुआ है. तभी हवलदार वहाँ आया और सलाम कर के खड़ा हो गया.

इंस्पेक्टर रॉय ने आँख खोला, सामने हवलदार को देख कर मुस्कराया और कुर्सी पर ठीक से बैठते हुए पूछा,

“और... क्या ख़बर लाए हो?”

“ख़बर तो है सर, पर बहुत अटपटी सी.”

“क्या अटपटी है.. ज़रा हम भी तो सुने.”

“सर, आपके आ जाने के बाद मैंने और दूसरे सिपाहियों ने घटना से संबंधित पूछताछ की ग्रामीणों से... अधिकतर तो कुछ बता पाने की स्थिति में नहीं थे... पर कुछेक ऐसे भी मिले जिनसे जो कुछ जानने को मिला.. उस पे विश्वास कर पाना थोड़ा मुश्किल हो रहा है.”

“हुंम.”

“सर, एक ग्रामीण का कहना था कि वैसे तो मिथुन अर्थात् मृत युवक का गाँव के सभी लोगों के साथ उठाना बैठना था और काफ़ी व्यवहार कुशल भी था... पर सप्ताह – दस दिन से बहुत गुमसुम चुपचाप सा रहने लगा था. पहले किसी को देखते ही बोल पड़ता था पर कुछ दिनों से ऐसा हो गया था कि कुछ पूछने पर ही जवाब देता था... कड़े मेहनत से कड़ा हुआ उसका शरीर पिछले दिनों से काफ़ी सूख सा गया था. चेहरा निस्तेज हो गया था.”

“ओह.. ये बात थोड़ा अलग तो है... पर अजीब तो नहीं.”

“एक अजीब बात तुपी काका ने बताया सर.”

“तुपी काका ने? कैसे है वो अभी...??”

“आपके जाने के पन्द्रह बीस मिनट बाद तक रोते रहे वो... धीरे धीरे शांत हुए... शांत होने के बाद ही उन्होंने बताया की पिछले कुछ समय से मिथुन प्रायः अपने आप से ही बातें करता रहता और पहले की तुलना में थोड़ा आलसी भी हो गया था. लगातार तीन रात उन्होंने मिथुन को मध्यरात्रि में आँगन में चहलकदमी करता और बात करता हुआ देखा था... देख कर लग रहा था कि अपने आप से बातें नहीं कर वो मानो किसी और के साथ बातें कर रहा था. हँस रहा था.. मुस्करा रहा था.”

“हुमम्म... ये बातें तो कुछ और ही इशारा कर रही हैं... मैं तो सोच रहा था की कोई षड्यंत्रकारी होगा... हत्यारा होगा... हत्या का कोई मोटिव होगा... पर यहाँ तो... कुछ और ही खिचड़ी पक रही है.”

“जी सर.”

“अच्छा श्याम... वो लड़का.. क्या नाम...”

“मिथुन.”

“हाँ.. मिथुन!.. वो दिमागी तौर पर कैसा था?”

“ठीक था सर. कोई बीमारी नहीं.”

“और तुपी काका ने कुछ देखा था क्या... उस रात... जब मिथुन आँगन में किसी से बातें कर रहा था..? कोई था वहाँ?”

“नहीं सर ... कोई नहीं था.. मिथुन अकेला था... मैंने बहुत अच्छे से पूछा है तुपी काका से.”

“तुम तो उसी गाँव से हो न?”

“यस सर.”

“तब तो तुपी काका को बहुत पहले से और शायद अच्छे से जानते होगे?”

“यस सर.”

“उनके बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?”

“अच्छे इंसान हैं... गाय और भैंस पालते हैं. उन्हीं के दूध बेच कर उनका गुज़ारा चलता है. पुश्तैनी धंधा है. बाप दादा परदादा.. सब यही व्यापार करते आए हैं. दूध बेचने में कभी कोई घपला घोटाला नहीं हुआ है उनकी तरफ़ से. बाप सुनील पाल भी बहुत अच्छे थे. इतना दूध बेचते आए हैं कि दूध बेच कर जमा किए पैसो से एक बहुत अच्छा दो मंजिला घर बना लिया तुपी काका ने.”

“ओह... ओके.”

इंस्पेक्टर थोड़ा चिंतित स्वर में बोला.

ऐसी भयावह हत्या का दृश्य बार बार उनके आँखों के सामने तैर रहा था.

हवलदार इंस्पेक्टर को चिंतित देख कर बोला,

“क्या बात है सर... परेशान लग रहे हैं?”

“हाँ... एक बात समझ में नहीं आ रही... वहाँ से आने से पहले मैंने दूसरी मंजिल की खिड़की पे एक महिला को देखा था.. सीमा जी ही होंगी... वो वहाँ चुपचाप खड़ी नीचे घर के सामने जमा भीड़ की ओर देख रही थी. पता नहीं मुझे बार बार उनका चेहरा, रंगत आदि सब अलग सा क्यों लग रहा था?”

हवलदार दो पल चुप रहा... फ़िर बोला,

“सर, अलग लग सकती है... क्योंकि उनकी आयु बहुत कम है. करीब १२ साल छोटी हैं तुपी काका से. दरअसल काका शादी करने के खिलाफ़ थे.. आजीवन अकेले रहना चाहते थे और अपने वृद्ध हो चले माँ बाप की सेवा करना चाहते थे.. सब ठीकठाक चल रहा था. एक दिन अचानक उनकी माँ को दिल का दौरा पड़ा और गुज़र गईं. तब उनके पिताजी ने ही ज़िद कर के उनकी शादी करवाई कि माँ तो बहु नहीं देख पाई.. कम से कम वो मतलब पिताजी ही देख ले. साथ ही, वृद्धावस्था में कोई साथी हो होगा पास में. तुपी काका की जो उम्र हो रही थी उस वक़्त उतनी उम्र की दुल्हन मिलना बड़ा दुष्कर कार्य था. तब बहुत खोजने पर एक गरीब परिवार की लड़की मिली. सीमा. उसी के साथ काका की शादी हो गई.”

“ओह.. ये बात है. बच्चे हैं इनके?”

“पता नहीं सर. मैंने उतना खोज ख़बर लिया नहीं. पर जहाँ तक लगता है.... शायद नहीं है.”

“ह्म्म्म.. अच्छा ठीक है.. तुम जाओ अभी.”

“जी सर.”

सलाम ठोक कर हवलदार श्याम वहाँ से चला गया और इधर इंस्पेक्टर रॉय फ़िर किसी सोच में डूब गया.
 

kamdev99008

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bahut badhiya kahani ban rahi hai............dhire-dhire sabhi paatr ek dusre se judte lag rahe hain..................

kee it up
 

Iron Man

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४)

एक दिन सुबह उठते ही रुना को अपना शरीर भारी और हल्का; दोनों ही लगने लगा. ऐसा पहले कभी हुआ नहीं था उसके साथ. बिस्तर पर उठ बैठी. आँखें खोलना चाही पर नींद तो जैसे जम कर पलकों पर बैठ गई हो. फ़िर भी कोशिश करते करते किसी तरह आँख खोल पाई. संयोग ऐसा हुआ की आँख खोलते ही अपने बदन पर ही सबसे पहले उसकी नज़र गई.

और इसी के साथ बुरी तरह चौंक उठी वह.

सीने पर उसके तो ब्लाउज है ही नहीं..!

सिर्फ़ ब्रा में है और उसमें भी नब्बे प्रतिशत चूचियाँ ब्रा कप से ऊपर उठ कर बाहर की ओर झलक रही हैं... और ऐसा हो भी क्यों न... ब्रा तो खुद भी अधखुली सी है... एक स्ट्रेप कंधे पर से उतरी हुई है. साड़ी तो जैसे हो कर भी नहीं है बदन पर.. ज़रा सा हिस्सा ही कमर पर किसी तरह लिपटा हुआ है ...वो भी सिर्फ़ जांघों तक ही.!

आशंकित सी हो पलट कर बिस्तर पर अपने बगल में देखी.

पति पेट के बल लेटे मुँह दूसरी ओर किए अभी भी गहरी नींद में सो रहा है.

रुना जल्दी से पलंग से उतरी.. और कमरे में ही मौजूद अटैच्ड बाथरूम में घुस गई.

कपड़ों को ठीक करने के बाद ब्रश वगैरह की.

मुँह अच्छे से धोकर बाथरूम से निकलने के बाद रुना को अच्छा तो लग रहा था पर बदन अब भी टूट रहा था. आँखों पर इतना पानी देने, इतना धोने साफ़ करने के बाद भी नींद तो जैसे अंगद के पाँव की तरह आँखों पर जम गई थीं.. पति को ऑफिस के लिए देर न हो जाए ये सोच कर वो अपने वर्तमान शारीरिक अनुभूतियों को छोड़ नीचे उतर कर सीधे रसोई में घुसी.

कुछ देर में पति के लिए टिफ़िन तैयार कर के उन्हें जगाने ऊपर अपने कमरे में गई. सुबह का नाश्ता के साथ साथ अपने और अपने पति के लिए टिफ़िन जल्दी बन जाने के कारण रुना थोड़ा खुश थी. दो दिन हुआ बिट्टू अपने नाना नानी के पास (मामार बाड़ी) चला गया है. इसलिए चाहे नाश्ता हो, टिफ़िन हो या फ़िर दोपहर और रात का खाना; रुना को थोड़ा कम ही मेहनत करनी पड़ रही है पिछले दो दिन से.

कमरे में पहुँच कर पलंग पर अभी भी बेख्याली से सोये अपने पति को देख कर मुस्कराई.

पति को तीन चार बार आवाज़ दी ... उठने को बोली... पर पति ने कोई जवाब नहीं दिया.

अचरज हो जैसे ही पति के पास जा कर उन्हें हाथ लगा कर उठाने को हुई; अचानक से उसे अपना सिर फ़िर भारी सा लगने लगा. झुकी हुई स्थिति से तुरंत सीधी हो कर खड़ी हो गई. ध्यान दी, सिर सच में भारी हो गया है. नींद ठीक से न हो पाने को कारण मानते हुए वह तुरंत बाथरूम में घुसी और वॉशबेसिन का नल चला कर आँखों और मुँह पर ज़ोर ज़ोर से पानी लेने लगी.

पूरे दो मिनट तक वो जम कर अपने चेहरे, आँखों पर पानी लेती रही.

इस क्रम में उसकी साड़ी का ऊपरी हिस्सा और ब्लाउज भी बहुत भीग गए. करीब 70% तक ब्लाउज बुरी तरह भीग कर उसके बदन से चिपक गया. भीगे कपड़ों में खड़े रहने पर जैसा आभास होता है ठीक वैसा ही अब रुना को होने लगा.

नल बंद की..

वॉशबेसिन के ऊपर लगे आईने में खुद को देखने के लिए चेहरा ऊपर उठाई...

पलकों पर अभी भी बहुत पानी होने के कारण तुरंत आँख खोल कर देख नहीं पाई.

और जब आँखें खोल पाई, तब आईने में जो देखी... जो दिखा उसे... उसे बिल्कुल भी विश्वास नहीं हुआ. कुछ क्षण अपलक देखती रही वो आईने में. कुछ पल आईने में देखते हुए उसे ऐसा लगने लगा मानो उसे बहुत नींद आ रही है... उसकी आँखें बंद होने लगीं... उसे उसी समय बिस्तर पर जा कर लेट जाने का मन करने लगा. उसकी धड़कने धीरे धीरे तेज़ होने लगी.

वॉशबेसिन के दोनों साइड को अपने हाथों से कस कर पकड़ कर खुद को खड़ा रखने की कोशिश करने लगी. आईने में जो कुछ दिखा उसे; उसे कन्फर्म करने के लिए दुबारा देखने की कोशिश की.. पर आँखें अब बंद हो आई थीं... जो उसके लाख चाहने के बावजूद खुलने को राज़ी नहीं हो रहे थे.

खुद को सम्भालने के लिए कुछ सोचती; कि तभी वो चिहुंक उठी...

और ऐसा करने को विवश किया दो मर्दाना हाथों ने जो उसके पेट को पीछे से दोनों साइड से सहलाते हुए अपने आगोश में ले लिया था. दो गर्म हथेलियों का स्पर्श अपने पेट की नर्म त्वचा पर पाते ही रुना पहले डर ज़रूर गई थी पर जल्द ही उसका सारा डर उन हाथों की कोमल सहलाहट ने दूर कर दिया.

उन दोनों हाथों ने नर्म और कोमल तरीके से रुना के पेट, नाभि और कमर का मसाज करना शुरू कर दिया. इतने प्यार से कि कुछ ही पलों में रुना ने खुद को, अपने सिर दर्द को, अपने टूटते बदन की पीड़ा को उन हाथों के स्पर्श से हो रही चमत्कारिक सुख के हवाले कर दिया. किसी के भी हाथों के स्पर्श से ऐसी सुख की कभी आशा नहीं की थी रुना ने.

अब तक आँचल भी सीने पर ढीला हो कर कंधे से सरक कर बाएँ हाथ पर किसी तरह फँस कर रह गया था.

पर रुना को तो अब इसकी भी सुध नहीं थी...

उसे तो ये तक पता नहीं चला कि उन हाथों ने उसकी साड़ी को पेटीकोट सहित कमर व नाभि से नीचे.... बहुत नीचे कर दिया था. मतलब इतना नीचे कि शायद अगली एक और कोशिश में रुना की गांड की दरार और सामने से झांटें दिख जाए.

कुछ देर बड़े प्यार से चर्बीयुक्त कमर को मसलने के बाद वे हाथ धीरे धीरे ऊपर उठने लगे... बिल्कुल मेरुदंड की सीध में... उठते उठते ब्लाउज के बॉर्डर के पास जा रुके... फ़िर उस पूरे जगह को दोनों अँगूठों की मदद से थोड़े दबाव से मसाज किया जाने लगा.

रुना की सांसे गहरी और लंबी होने लगी.

इधर दोनों हाथ अब ब्लाउज के बॉर्डर को थोड़ा ऊपर कर अंदर घुस चुके थे... एक साथ दोनों हाथों को न संभाल पाने के कारण पीठ के तरफ़ से ही ब्लाउज का सिलाई दो साइड से खुल गया जिससे अब तक बदन पर फ़िट बैठता ब्लाउज अब अपेक्षाकृत ढीला हो गया. दोनों हाथ अब बहुत सरलता से ब्लाउज के अंदर रहते हुए पूरे मांसल पीठ पर घूमने लगे.

भरे पीठ को अच्छे से मसलते हुए वे दोनों हाथ बहुत बेहतरीन मसाज दे रहे थे.

मदहोशी में होने के बावजूद कुछ अटपटा सा ज़रूर लग रहा था रुना को पर वो इस मसाज वाले शारीरिक सुख को अभी तुरंत न तो रोक सकती है और ना ही रोकना चाहती है. जिस तरह इन हाथों ने उसके चर्बीयुक्त कमर, पेट और यहाँ तक की नाभि को रगड़ रगड़ कर आराम दिया है; ऐसा आराम वो अपने पूरे बदन पर पाने को इच्छुक हो गई. उसका रोम रोम इस मर्दाना छुअन से पुलकित हुआ जा रहा था. मन के किसी कोने में एक तमन्ना ऐसी जगने लगी थी कि काश ये हाथ अब उसके स्तनों पर जाए और जिस प्रकार अभी तक उसके शरीर के दूसरे अंगों को आराम मिला ठीक वैसा ही आराम ये हाथ उसके स्तनों का बेरहमी से मर्दन कर के दे.

अचानक उसे लगा जैसे पीठ पर पड़ने वाला दबाव कम हो गया... कम ही नहीं बल्कि दबाव एकदम से ही हट गया. पर.. पर... दोनों हाथ तो अब भी वहीँ हैं... उसके पीठ पर ... उसके भरी हुई पीठ का आनंद लेते हुए उसे आनंद देने का काम करते... तो फ़िर..?

क्षण भर बाद ही उसे उसका उत्तर मिल गया... और ऐसा होते ही स्त्री सुलभ एक मोहक लाज उसके सुंदर मुखरे पर बिखर गई.

उन दो हथेलियों के अलावा जो चीज़ रुना के पीठ पर दबाव बना रहा था और जो अभी अभी एकदम से हट गया; वो था उसकी ब्रा की हुक. उन हथेलियों की करामाती अँगुलियों ने बड़े ही सरलता से उसके हुक को खोल दिए जिसका पता खुद रुना को कम से कम दो तीन मिनट बाद लगा.

अब तो वे हथेलियाँ और भी स्वतंत्र रूप से पूरे पीठ का भ्रमण करने लगे... जहाँ मन करे वहीँ रम जाए ... और फ़िर बड़े अच्छे तरीके से बिना तेल के ही मर्दन करने लग जाए.

काम पीड़ित होती जा रही रुना उन हथेलियों का स्पर्श अपने यौनक्षुद्रात स्तनों पर पाने की कामना में इतनी ही विभोर हो गई थी कि उसे अपने बदन के दूसरी जगह पर होते छेड़छाड़ का रत्ती भर भी पता न चला. पता ही कब और कैसे उसकी साड़ी पेटीकोट सहित उसके भरे गोल पिछवाड़े पर से और नीचे सरक गई थी और अब तो किसी प्रकार इस तरह ऊपरी जांघों के इर्द – गिर्द इस तरह लिपटी – अटकी हुई थी की अब गिरे तो तब गिरे!

और अब एक और मर्दाना अंग अपने काम पर लग चुका था.

जोकि बड़े प्रेम और समर्पित भाव से रुना के गांड के दरार पर ऊपर नीचे हो रहा था. एक बार ऊपर से नीचे आता.. फ़िर नीचे से ऊपर.... फ़िर ऊपर से नीचे... पर अब की बार बीच में ही रुक कर कुछेक क्षणों के लिए दरार पर हल्का दबाव डालता... और फ़िर नीचे जाता... और फ़िर वही काम शुरू से शुरू होता.

ऐसी लगातार हरकतों ने रुना को गर्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

चरम यौनेतेज्जना में ‘म्मम्म....आह्ह्ह..’ करने लगी..

उस गर्म अंग का यूँ बार बार ऊपर नीचे हो कर उसकी तृष्णा को बढ़ा कर छोड़ देना; ये उससे सहन नहीं हो रहा था. वो उस अंग को जल्द से जल्द अपने में समाहित करना चाहती थी. इसलिए धीरे धीरे अपनी गांड को पीछे करने लगी... उसके ऐसा करने के बावजूद वह अंग अपने पूर्व की हरकत से तनिक भी नहीं डिगा और पहले की तरह ही दरार पर ऊपर नीचे होता रहा.

रुना के बर्दाश्त के बाहर होने लगा ये सब अब. उसके अतृप्त मन ने ठान लिया की अब चाहे जो हो, जैसे भी हो, जितना भी हो.. वो उस गर्म फड़कते अंग को अपने अंदर ले कर रहेगी. ये सोचने के साथ ही उसने अपनी गांड को आगे पीछे करना शुरू किया. तीन से चार बार ऐसा की ही थी कि कानों से एक आवाज़ टकराई,

“रुना....ओ रुना...”

पर उसने ध्यान नहीं दिया... वो तो बस अपने अतृप्त मन की अधीन हो अपने जिस्म के एक एक रोएँ को आराम... सुख देना चाहती थी.

आवाज़ फ़िर गूँजी..

और साथ ही किसी ने उसके बाँह को पकड़ कर झकझोड़ा,

“अरे रुना... उठो... क्या कर रही हो??”

रुना अचानक से हड़बड़ा कर उठी,

और इसी के साथ वर्तमान स्थिति को देख कर हतप्रभ रह गई...

सीने पर आँचल अनुपस्थित है.. ब्लाउज के सारे बटन खुले हुए हैं... ब्रा भी गैर हाजिर... पेटीकोट कमर तक उठा हुआ और खुद उसका हाथ... बायीं हाथ की मध्यमा और अनामिका ऊँगली उसकी चूत में अंदर तक प्रविष्ट हैं जो खुद भी गीली है!

रुना अविश्वास से अपने आस पास देखी...

बगल में ही उसके पति श्री नबीन मुख़र्जी, अर्थात् “नबीन बाबू” बड़े आश्चर्य से आँखें फाड़े उसे देख रहे थे...

बोले,

“रुना.. ये क्या कर रही हो... सुबह सुबह ही... छी: ... कोई और समय होता तो और बात होती... क्या हुआ है तुम्हें..?”

सेक्स को लेकर नबीन बाबू आज भी उतने ही अपरिचित हैं जितना की सत्रह साल पहले अपने शादी के समय थे.. सफलता बस इतनी ही रही की किसी तरह अपने खड़े अंग को किसी तरह रुना के ताज़ी योनि में डाल पाए और समय समय पर थोड़ा बहुत कर के एक संतानोपत्ति कर पाए.

ऐसा नहीं की सेक्स के मामले में एकदम भोंदू हैं नबीन बाबू... फ़िर भी सेक्स किसी रॉकेट साइंस की ही तरह रहा है हमेशा से उनके लिए.

“ज..जी... वो....म”

“चलो चलो... जल्दी उठो... मुझे देर हो रही है.. आठ बजने को आया है.”

“आप नहा लिए?”

“हाँ.”

“ओह.. ठीक है. नाश्ता टेबल पर है. खा लीजिए.” खुद को सम्भालते हुए बोली रुना.

नबीन बाबू कुछ बोले नहीं.. आश्चर्य से देखते रहे रुना को.

रुना को अजीब लगा.. बोली,

“क्या हुआ... क्या देख रहे हैं?”

“देख रहा हूँ की ये तुम क्या अनाप शनाप बक रही हो... तुम सुबह से एक बार भी उठी ही कब थी? मैंने तुम्हें उठाया... अभी... जब उठी ही नहीं तब नाश्ता कैसे बना ली?”

“ओह्हो... मैं बना चुकी हूँ... टेबल पर है... चलिए .. दिखाती हूँ.”

रुना नबीन को लेकर नीचे वाले कमरे में आई...

“देखिए... टेबल प...”

डाइनिंग टेबल की ओर इशारा करते करते रुना के हाथ और होंठ थम गए.

टेबल पर कुछ नहीं था!

रुना आश्चर्य से दोहरी हो गई.

उसे अपने सामने खाली टेबल को देख कर खुद पे विश्वास नहीं हो रहा था.

कहाँ गया सारा नाश्ता...??

कुछ देर पहले ही तो रखी थी....

नबीन बाबू कुछ बोले नहीं.. काम के प्रेशर का नतीजा बता कर उसे स्कूल से छुट्टी लेकर आज घर पर ही रहने को कहा.

नबीन का बिना कुछ खाए ही ऑफिस के लिए निकल जाते देख रुना को बहुत दुःख हुआ.

पर दुखी होने से भी ज़्यादा अपने साथ सुबह से हो रही घटनाओं को लेकर परेशान हो रही थी.

बिस्तर पर लेटी हुई पूरे घटनाक्रम के बारे में सोच ही रही थी कि मुख्य दरवाज़े पर दस्तक हुई.

साथ ही एक आवाज़ भी आई,

“मैडम जी, दूध ले लीजिए...”

इच्छा तो नहीं थी उठने की... फ़िर भी उठी....

रसोई में गई, बर्तन ली और जा कर दरवाज़ा खोल कर बर्तन आगे बढ़ा दी.

“नमस्ते मैडम जी.”

“हम्म.. नमस्ते.”

अनमने भाव से रुना प्रत्युत्तर देते हुए देबू की ओर देखी.. और एक बार फ़िर बुरी तरह चौंक उठी,


“अरे...ये क्या.... ये तो बिल्कुल सुबह जैसे.... उफ़..!!”
Behad hi shandar or jabardast update
 
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५)

एक दिन तुपी काका के घर के सामने बहुत भीड़ लग गई. ऐसी भीड़ की लगे मानो सारा गाँव उठ कर तुपी काका के घर आ गया हो. जवान हो, या बच्चा या बूढ़ा या फ़िर महिलाएँ... सबके मुँह में केवल यही बातें हो रही हैं कि ‘हाय राम.. ये कैसे हो गया?’, ‘न जाने बूढ़े माँ बाप का क्या होगा?’, ‘अभी तो जवान हो ही रहा था.. इतनी जल्दी... न जाने कैसे हो गया....?’ इत्यादि.

तभी ‘जगह दीजिए...’ ‘आगे जाने दीजिए.’ ‘हटिए हटिए’ ‘साइड होइए’ कहते हुए सात पुलिसियों वाला एक दल उस ठसाठस भीड़ में से खुद के लिए जगह बनाते हुए काका के घर के मुख्य दरवाज़े तक पहुंची.

दल को लीड करने वाला एक मोटा तोंदू सा पुलिस वाला आगे बढ़ा और घर के ही एक सदस्य से पूछा,

“घटना कहाँ घटी है...? तुपी काका कौन हैं?”

उस सदस्य के मुँह से बोली नहीं फूट रही थी. चेहरे पर ऐसी हवाईयाँ उड़ रही थी मानो कुछ ऐसा देखा है उसने जो इस जीवन में कभी देखने या सुनने की उम्मीद बिल्कुल नहीं की होगी.. कभी नहीं की होगी.

काँपते हाथ से घर के एक तरफ़ इशारा किया उसने.

उस पुलिस वाले ने आँखों से इशारा कर के उसे आगे चलने को कहा. वो जाना बिल्कुल नहीं चाह रहा था पर पुलिस वाले की रोब झलकाती आँखों को देख कर और भी डर गया. मान गया.

चुपचाप आगे आगे चलने लगा.

चार सिपाहियों को वहाँ भीड़ संभालने की जिम्मेदारी दे कर वह तोंदू पुलिस वाला अपने साथ दो पुलिस वाले को लेकर उस सदस्य के पीछे पीछे चलने लगा.

कच्चे मार्ग से आगे बढ़ कर दाएँ मुड़ना पड़ा और फ़िर दस कदम चलने के बाद एक छोटा सा खटाल/गोशाला में पहुंचे सब. यहाँ तीन गाय और दो भैंसे बंधी हैं.. साफ़ सुथरा ही है सब.

“ये किसका है?” उस मोटे पुलिसिये ने पूछा.

“तुपी जी का ही है.” उस सदस्य ने कहा.

“आप कौन लगते हैं उनके??”

“जी, मैं उनका भांजा हूँ. चार दिनों के लिए घूमने आया था.”

“ह्म्म्म... तो आज कितने दिन हुए?”

“जी दो ही दिन हुए.”

“तुपी जी कहाँ हैं?”

“सुबह जब से वह भयावह काण्ड देखा है... मानो सुध बुध ही खो चुके हैं. वहीं उसी जगह बैठे हुए हैं.”

“ले चलिए हमें वहाँ.”

आदेश दिया पुलिसिए ने.

तुरन्त पालन हुआ आदेश का.

उन सब को ले कर थोड़ा और आगे बढ़ा वो युवक. खटाल से सटा हुआ एक छोटे से कमरे के पास पहुँचा.

उस कमरे के पास पहुँचने पर सबने देखा की आस पास फर्श पर खून ही खून है जो कि अंदर कमरे से बह कर बाहर निकल रही है. सभी तुरन्त अंदर घुसे... और घुस कर अंदर का जो दृश्य देखा उससे तो सबका दिमाग ही घूम गया. दिल दहल गया. उल्टी होने को आई. सामने जो दृश्य था ऐसा कभी कुछ उन लोगों को जीवन में कभी देखना भी होगा ये अपने सबसे बुरे सपने में भी नहीं सोचा था किसी ने.

सामने फर्श पर पाँच कदम आगे एक नवयुवक का शव पड़ा हुआ था. शरीर तो सामने की ओर था पर सिर पूरी तरह पीछे घूमा हुआ था. साथ ही पूरे शरीर में जगह जगह से माँस नोचा हुआ था. सबसे भयावह था उस शरीर का सीने वाला हिस्सा जहाँ बहुत बड़ा सा गड्ढा बना हुआ था...

वो मोटा पुलिस वाला आगे बढ़ कर शव को तनिक ध्यान से देखने पर पाया कि सीने से तो दिल ही गायब है!

“हे भगवान! इतनी क्रूरता!”

बरबस ही निकला उसके मुँह से.

बगल में ही, शव से चार हाथ दूर फर्श पर ही एक प्रौढ़ आदमी बैठा हुआ था. अत्यंत उदास... बदहवास... आँखों से अविरल आँसू बहाता हुआ.

उस आदमी की हालत देख कर मोटा पुलिसिया को भी थोड़ा बुरा लगा पर क्या करे... पुलिस जो ठहरा... ये समय संवेदना जताने से अधिक ड्यूटी बजाने का है.

गला खंखार कर उस आदमी से पूछा,

“सुनिए...आप ही तुपी काका हैं क्या?”

वह आदमी कुछ बोला नहीं.. अभी भी कहीं खोया हुआ अपलक उस शव को निहारे जा रहा था. उसे तो शायद इस बात का भी भान न हुआ होगा कि कोई उस कमरे में घुस कर उनके सामने खड़ा भी हुआ है.

पुलिस वाला साथ आए युवक को इशारे से पास बुलाया और धीमे स्वर में पूछा,

“तुपी काका यही हैं न?”

युवक पूरे आत्मविश्वास के साथ सिर हिलाता हुआ बोला,

“हाँ साहब.”

“ह्म्म्म... और ये मृत युवक कौन है? क्या लगता है इनका?”

“ये इस घर में काम करता था. नौकर जैसा ही था पर चूँकि बहुत ही कम उम्र से ही इस घर में रहता आ रहा था इसलिए घर के सदस्य जैसा ही हो गया था. यहाँ तक कि तुपी काका और सीमा काकी ने भी सभी को कह दिया था कि कोई इसे नौकर न समझे और हमेशा अच्छे से नाम ले कर ही बुलाया करे.”

“नाम क्या है इसका?”

“नाम तो कुछ और था... पर सीमा काकी प्यार से मिथुन कह कर बुलाती थी... धीरे धीरे घर में सभी और गाँव वाले भी इसे मिथुन नाम से ही बुलाने लगे थे.”

उस युवक का वाक्य खत्म होते ही तपाक से पुलिस वाले ने पूछा,

“ये सीमा काकी कौन हैं?”

“इनकी (तुपी काका की ओर इशारा करते हुए) पत्नी है साहब.”

“हम्म.. और तुम्हारा नाम?”

“गोबिन्दो दास, साहब... घर और बाहर सब प्यार से बिल्टू कह कर बुलाते हैं.”

“बिल्टू... हम्म.. अच्छा नाम है.. मैं भी इसी नाम से बुलाऊँगा तुझे.. कोई दिक्कत?”

खैनी और गुटखा से पीले पड़ चुके दांतों को एक बड़ी सी मुस्कान से दिखाते हुए चापलूसी वाले अंदाज़ में हाथ जोड़ते हुए बिल्टू बोला,

“आप माई बाप हो सरकार... जो जी में आए...कह सकते हैं.”

पुलिस वाला पैनी नज़रों से एकबार उस युवक की आँखों में अच्छे से देखा; फ़िर तुपी काका की ओर इशारा करते हुए धीमे पर गंभीर आवाज़ में बोला,

“इन्हें पानी दो... सम्भालो.”

युवक जल्दी से एक बड़े से ग्लास में पानी ले आया और हथेली में थोड़ा पानी ले तुपी काका के चेहरे पर छींट दिया.

वास्तविकता में लौटने में एक-दो मिनट और लग गए तुपी काका को.

सामने पुलिस वाला को अचानक से देख सहम गए. प्रश्नसूचक नेत्रों से बिल्टू की ओर देखा. बिल्टू ने शव की ओर इशारा कर के पुलिस के आने का आशय समझा दिया काका को.

तुपी काका उठे और हाथ जोड़ कर पुलिस वाले के सामने जा कर खड़े हो गए.

“तुपी काका आप ही हैं न?” उत्तर जानते हुए भी पुलिस वाले ने पूछा.

काका ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया,

“जी मालिक.”

“आपका पूरा नाम...बढ़िया नाम?”

“तपन सुनील पाल, मालिक.”

“हम्म.. पिताजी का नाम सुनील पाल?”

“जी मालिक.”

“हैं?”

“नहीं मालिक... चार साल हो गए उनके गुज़रे हुए.”

“ओह.. सॉरी.”

एक पल चुप रह कर पुलिसिए ने फ़िर कहा,

“मेरा नाम बिशम्बर रॉय है. इंस्पेक्टर बिशम्बर रॉय. थाना इंचार्ज.”

प्रत्युत्तर में तुपी काका ने केवल हाथ जोड़ कर अभिवादन जताया.

“ये युवक आपका कौन था?”

“बेटा था मालिक.” कहते हुए तुपी काका फफक पड़े.

“जी?!”

इंस्पेक्टर चौंक कर उछल पड़े.

“मतलब मालिक... कम उम्र से ही मेरे यहाँ काम कर रहा है न मालिक... इसलिए घर का सदस्य और मेरे बेटे जैसा हो गया था. बहुत अच्छा लड़का था... कर्मठ, आज्ञाकारी, विनोदी....”

और भी बहुत कुछ कहना चाह रहे थे तुपी काका... पर गला भर आया था उनका... फ़िर से रोने लगे.

इंस्पेक्टर रॉय से भी तुपी काका की हालत देखी नहीं जा रही थी. उन्होंने बगल में खड़े हवलदार को बुलाया.. आगे की पूछताछ और कुछेक कार्यवाही का निर्देश दिया और वहाँ से निकल गए.

जा कर भीड़ हटाते हुए अपनी जीप में बैठ गए.

सीट पर ही रखा पानी का बोतल उठा कर पीने लगे.

पानी पीते पीते ही उनकी नज़र गई तुपी काका के घर के दूसरी मंजिल की खिड़की पर.

खिड़की से लगे पर्दे के ओट से एक महिला नीचे भीड़ को देख रही थी. महिला गुमसुम सी थी... बहुत उदास... इंस्पेक्टर समझ गए की हो न हो यही सीमा जी हैं... तुपी काका की धर्मपत्नी.

इंस्पेक्टर रॉय को कुछ अलग लगा सीमा में. उसके चेहरे में, चेहरे के कसावट में, बालों में....

इंस्पेक्टर ने गौर किया... सीमा जी की नज़रें उस भीड़ पर एकदम स्थिर है... लगातार एक ही ओर देखे जा रही है... कदाचित उस भीड़ में से किसी एक ही व्यक्ति को देख रही है... इंस्पेक्टर ने उस ओर देखने का प्रयास किया. भीड़ में सबकुछ स्पष्ट तो नहीं था पर इतना ज़रूर दिख गया की सीमा जी जिसे लगातार अपलक देखे जा रही है वो एक महिला है.

इंस्पेक्टर के दिमाग ने शक उपजाऊ प्रश्न करना शुरू कर दिया,

‘सीमा जी उस महिला को ऐसे क्यों देख रही हैं? क्या सीमा जी कुछ जानती हैं इस हत्या के बारे में? जिसे वो देख रही हैं क्या उस महिला का इस हत्या से कोई सम्बन्ध है?’

-------------

थाने में,

टेबल पर गरमागर्म चाय रखा हुआ है पर इंस्पेक्टर रॉय दोनों हाथों को सिर के पीछे रख आँखें बंद किए किसी गहन सोच में डूबा हुआ है. तभी हवलदार वहाँ आया और सलाम कर के खड़ा हो गया.

इंस्पेक्टर रॉय ने आँख खोला, सामने हवलदार को देख कर मुस्कराया और कुर्सी पर ठीक से बैठते हुए पूछा,

“और... क्या ख़बर लाए हो?”

“ख़बर तो है सर, पर बहुत अटपटी सी.”

“क्या अटपटी है.. ज़रा हम भी तो सुने.”

“सर, आपके आ जाने के बाद मैंने और दूसरे सिपाहियों ने घटना से संबंधित पूछताछ की ग्रामीणों से... अधिकतर तो कुछ बता पाने की स्थिति में नहीं थे... पर कुछेक ऐसे भी मिले जिनसे जो कुछ जानने को मिला.. उस पे विश्वास कर पाना थोड़ा मुश्किल हो रहा है.”

“हुंम.”

“सर, एक ग्रामीण का कहना था कि वैसे तो मिथुन अर्थात् मृत युवक का गाँव के सभी लोगों के साथ उठाना बैठना था और काफ़ी व्यवहार कुशल भी था... पर सप्ताह – दस दिन से बहुत गुमसुम चुपचाप सा रहने लगा था. पहले किसी को देखते ही बोल पड़ता था पर कुछ दिनों से ऐसा हो गया था कि कुछ पूछने पर ही जवाब देता था... कड़े मेहनत से कड़ा हुआ उसका शरीर पिछले दिनों से काफ़ी सूख सा गया था. चेहरा निस्तेज हो गया था.”

“ओह.. ये बात थोड़ा अलग तो है... पर अजीब तो नहीं.”

“एक अजीब बात तुपी काका ने बताया सर.”

“तुपी काका ने? कैसे है वो अभी...??”

“आपके जाने के पन्द्रह बीस मिनट बाद तक रोते रहे वो... धीरे धीरे शांत हुए... शांत होने के बाद ही उन्होंने बताया की पिछले कुछ समय से मिथुन प्रायः अपने आप से ही बातें करता रहता और पहले की तुलना में थोड़ा आलसी भी हो गया था. लगातार तीन रात उन्होंने मिथुन को मध्यरात्रि में आँगन में चहलकदमी करता और बात करता हुआ देखा था... देख कर लग रहा था कि अपने आप से बातें नहीं कर वो मानो किसी और के साथ बातें कर रहा था. हँस रहा था.. मुस्करा रहा था.”

“हुमम्म... ये बातें तो कुछ और ही इशारा कर रही हैं... मैं तो सोच रहा था की कोई षड्यंत्रकारी होगा... हत्यारा होगा... हत्या का कोई मोटिव होगा... पर यहाँ तो... कुछ और ही खिचड़ी पक रही है.”

“जी सर.”

“अच्छा श्याम... वो लड़का.. क्या नाम...”

“मिथुन.”

“हाँ.. मिथुन!.. वो दिमागी तौर पर कैसा था?”

“ठीक था सर. कोई बीमारी नहीं.”

“और तुपी काका ने कुछ देखा था क्या... उस रात... जब मिथुन आँगन में किसी से बातें कर रहा था..? कोई था वहाँ?”

“नहीं सर ... कोई नहीं था.. मिथुन अकेला था... मैंने बहुत अच्छे से पूछा है तुपी काका से.”

“तुम तो उसी गाँव से हो न?”

“यस सर.”

“तब तो तुपी काका को बहुत पहले से और शायद अच्छे से जानते होगे?”

“यस सर.”

“उनके बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?”

“अच्छे इंसान हैं... गाय और भैंस पालते हैं. उन्हीं के दूध बेच कर उनका गुज़ारा चलता है. पुश्तैनी धंधा है. बाप दादा परदादा.. सब यही व्यापार करते आए हैं. दूध बेचने में कभी कोई घपला घोटाला नहीं हुआ है उनकी तरफ़ से. बाप सुनील पाल भी बहुत अच्छे थे. इतना दूध बेचते आए हैं कि दूध बेच कर जमा किए पैसो से एक बहुत अच्छा दो मंजिला घर बना लिया तुपी काका ने.”

“ओह... ओके.”

इंस्पेक्टर थोड़ा चिंतित स्वर में बोला.

ऐसी भयावह हत्या का दृश्य बार बार उनके आँखों के सामने तैर रहा था.

हवलदार इंस्पेक्टर को चिंतित देख कर बोला,

“क्या बात है सर... परेशान लग रहे हैं?”

“हाँ... एक बात समझ में नहीं आ रही... वहाँ से आने से पहले मैंने दूसरी मंजिल की खिड़की पे एक महिला को देखा था.. सीमा जी ही होंगी... वो वहाँ चुपचाप खड़ी नीचे घर के सामने जमा भीड़ की ओर देख रही थी. पता नहीं मुझे बार बार उनका चेहरा, रंगत आदि सब अलग सा क्यों लग रहा था?”

हवलदार दो पल चुप रहा... फ़िर बोला,

“सर, अलग लग सकती है... क्योंकि उनकी आयु बहुत कम है. करीब १२ साल छोटी हैं तुपी काका से. दरअसल काका शादी करने के खिलाफ़ थे.. आजीवन अकेले रहना चाहते थे और अपने वृद्ध हो चले माँ बाप की सेवा करना चाहते थे.. सब ठीकठाक चल रहा था. एक दिन अचानक उनकी माँ को दिल का दौरा पड़ा और गुज़र गईं. तब उनके पिताजी ने ही ज़िद कर के उनकी शादी करवाई कि माँ तो बहु नहीं देख पाई.. कम से कम वो मतलब पिताजी ही देख ले. साथ ही, वृद्धावस्था में कोई साथी हो होगा पास में. तुपी काका की जो उम्र हो रही थी उस वक़्त उतनी उम्र की दुल्हन मिलना बड़ा दुष्कर कार्य था. तब बहुत खोजने पर एक गरीब परिवार की लड़की मिली. सीमा. उसी के साथ काका की शादी हो गई.”

“ओह.. ये बात है. बच्चे हैं इनके?”

“पता नहीं सर. मैंने उतना खोज ख़बर लिया नहीं. पर जहाँ तक लगता है.... शायद नहीं है.”

“ह्म्म्म.. अच्छा ठीक है.. तुम जाओ अभी.”

“जी सर.”

सलाम ठोक कर हवलदार श्याम वहाँ से चला गया और इधर इंस्पेक्टर रॉय फ़िर किसी सोच में डूब गया.
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sunoanuj

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बहुत ही जबरदस्त कहानी है । शुरुआत बहुत ही दमदार ओर लेखन भी बहुत ही उम्दा है आपका मित्र ।
अगले भाग की प्रतीक्षा में ।
 

Dark Soul

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६)

संध्या समय...

छ: बज रहे होंगे.

रुना और नबीन गाँव में ही एक परिचित के यहाँ से लौट रहे थे...

एक चाय दुकान में कालू, देबू और शुभो चाय पीते हुए आपस में हंसी मजाक कर रहे थे. तभी रुना और नबीन उस दुकान के सामने से गुज़रे और साथ ही साथ चाय पीते तीनों दोस्तों की नजर भी उन दोनों पर गई.

कालू तुरन्त खड़ा हो गया और सधे कदमों से उन दोनों की ओर बढ़ कर हाथ जोड़ कर ‘नमस्ते’ किया...


नबीन और रुना ने भी मुस्करा कर नमस्ते का उत्तर दिया. कालू को कुछ कहने जा रही थी रुना की तभी उसकी नज़र गई देबू पर. उसे वहाँ देख कर रुना डर से सहम कर चुप हो गई. उसकी ये प्रतिक्रिया नबीन और कालू; दोनों ने नहीं देखा.

नबीन और कालू में कोई और ही बातें शुरू हो चुकी थीं.

नबीन हँसते हुए बोले,

“अरे कालू! कैसे हो?”

“बढ़िया हूँ भैया... आप कैसे हैं... और भाभीजी?”

“अच्छे हैं..” “बढ़िया हैं.” नबीन और रुना ने एक साथ जवाब दिया.

“आपसे एक बात पूछनी है भैया.”

“हाँ कालू .. बोलो.”

“आप तो पोस्ट ऑफिस में काम करते हैं न?”

“हाँ.”

“मुझे एक टी. डी. करवानी है.”

“टी. डी. ?? किसके लिए?”

“जी, अपने लिए ही... नॉमिनेशन के लिए मम्मी का नाम दे दूँगा.”

“एक बात बोलूँ ... कालू?”

“जी भैया.. बिल्कुल.”

“तुम टी. डी. करवाने से बेहतर, आर. डी खोलवा लो.”

“क्यों भैया...??”

“अम्म्म... देखो... ये सब थोड़ा विस्तार से बताना पड़ता है. एक काम करो... तुम कल मिलना मुझसे... यहीं... चाय पीते हुए हम आगे की बात करेंगे. ठीक है?”

“ठीक है भैया. मुझे कोई दिक्कत नहीं.”

“ठीक है.. आज चलता हूँ.”

एक बार फ़िर हाथ जोड़ कर दोनों को नमस्ते कर के कालू वापस दुकान में आ गया और एक चाय का ऑर्डर दे कर बेंच पर अच्छे से बैठ गया.

शुभो हँसते हुए बोला,

“क्यों बे... अचानक ये टी. डी. खोलवाने की क्या ज़रुरत आन पड़ी है तुझे?”

“अबे नहीं बे... कोई टी. डी. वी. डी. नहीं खोलवाना मुझे.”

“तो फ़िर?”

“भाभी को देखने गया था.”

“क्या? रुना भाभी को..?? साले... तूने पहले कभी बताया नहीं कि रुना भाभी पर तेरा दिल आ गया है?” शुभो मज़े लेता हुआ बोला.

लेकिन कालू सीरियस था,

बोला,

“यार... जो तू समझ रहा है... वो बात नहीं है... बिल्कुल नहीं है.”

“तो असल बात ही समझा ना साले.” देबू ने चिढ़ते हुए कहा.

“यार... मिथुन के साथ हुए हादसे की ख़बर है न तुझे?”

“हाँ भाई.. बिल्कुल है.. हमारा गाँव है ही कितना बड़ा जो ऐसी बातों की ख़बर देर से हो या बिल्कुल ही न हो.”

“लेकिन ऐसी एक बात है जो बहुत ही अजीब है और वो सिर्फ़ मुझे पता है.. तुम लोगो को नहीं... किसी को नहीं.”

“भाई...क्या सस्पेंस पे सस्पेंस दे रहा है... सीधे असल बात बता ना.” शुभो ने कहा.

“मिथुन के मृत्यु वाले दिन से कुछ रोज़ पहले तक मैंने खुद अपनी इन्हीं आँखों से रुना भाभी और मिथुन को एक साथ देखा था. कई बार.”

“क्या बात कर रहा है बे?” देबू और शुभो दोनों चौंक उठे.

“सच कह रहा हूँ.”

देबू कुछ सोचते हुए बोला,

“एक मिनट यार... तुमने रुना भाभी को मिथुन के साथ देखा.. शायद किसी काम से कहीं जाते वक़्त दोनों रास्ते में मिल गए हों और साथ चल पड़े हों? या फ़िर शायद रुना भाभी को ही कोई काम आन पड़ा हो जिसके लिए उन्हें मिथुन की सहायता लेने की ज़रुरत पड़ी हो??”

“हो सकता है... ये सही है की मैंने दोनों को साथ जाते हुए तो मैंने देखा था... पर बाद में जो देखा......”

कहते हुए कालू बीच में ही चुप हो गया.

देख के ऐसा लगने लगा मानो किसी और ही दुनिया में खो गया है.

शुभो ने उसके कंधे को पकड़ कर हिलाते हुए पूछा,

“बाद में क्या देखा था भाई; बता तो सही?”

कालू तुरंत कुछ बोलना नहीं चाह रहा था पर देबू और शुभो की ओर से लगातार पड़ते दबाव ने उसको अपना विचार बदलने को मजबूर किया.

चाय की अंतिम चुस्की लेकर कप को बेंच के नीचे रखा.. शर्ट के पॉकेट से एक मुड़ा हुआ पेपर निकाल कर उसमें से एक बीड़ी निकाल कर अपने दांतों के बीच दबाया और माचिस से सुलगाते हुए बोला,


“दरअसल बात है ही ऐसी जिसपे मैं आज भी यकीं नहीं कर पा रहा हूँ... और शायद तुम लोग भी नहीं कर पाओगे... पहले दिन दोनों को साथ जब सब्जी दुकानों की ओर जाते देखा तो मुझे कुछ अजीब नहीं लगा. दूसरे दिन भी मैंने दोनों को शम्भू जी के घर की ओर जाते देखा.. मुझे तब भी कुछ भी अजीब नहीं लगा. इसी तरह तीसरे दिन भी उन दोनों को मैंने देखा... साथ में... दोनों आपस में हँसते मुस्कराते हुए बातें करते जा रहे थे. तभी मेरा दिमाग ठनका... याद आया कि पिछले दो दिन भी ये दोनों इसी तरह आपस में हँसते मुस्कराते बातें करते हुए जा रहे थे. मेरा बदमाश मन ज़ोरों से मचलने लगा. मन अनजाने में ही गवाही देने लगा की कुछ तो गड़बड़ झाला है. उनसे थोड़ी दूरी बनाते हुए मैं भी उनके पीछे हो लिया. कुछ दूर चलने पर पाया की दोनों तो जंगल की ओर जा रहे हैं! उस भयावह भूतिया जंगल में! जहाँ शायद परिंदा भी मुश्किल से पर मारता होगा.. दिल बैठने लगा मेरा.. सोचा, अब आगे नहीं जाऊँ. पर दोनों क्या गुल खिलने वाले हैं ये जानने के लिए मन भी बहुत बेचैन हो रहा था.


अपने अंदर चल रही इस उथल पुथल को शांत करने के लिए मैंने एक बीड़ी निकाल लिया. दो तीन धुआं छोड़ने के बाद निश्चय किया कि आगे ज़रूर जाऊँगा. जब तक कुछ देखूँगा नहीं... तब तक मन शांत नहीं होगा मेरा.


अपने सामने देखा तो चौंक गया.. कुछ देर पहले जहाँ दोनों मेरे सामने ही थोड़ी दूरी पर आगे आगे चल रहे थे; अभी अचानक से इतनी ही देर में दोनों न जाने कहाँ गायब हो गए? मैं तुरंत दौड़ कर आगे गया और उन दोनों को ढूँढने लगा. पर दोनों मुझे कहीं नहीं मिले. मैं ऐसे ही हार मानने वालों में नहीं.. खोजबीन जारी रखा. मुझे लगता है करीब एक घंटे तक उन दोनों को ढूँढता रहा था मैं... अपने आस पास गौर किया तो डर गया. मैं घने जंगल में था! पता नहीं उन दोनों को ढूँढने के चक्कर में कब उस घने भूतिया जंगल के एकदम अंदर घुस गया था.. थक हार कर और अंदर ही अंदर डर से काँपता हुआ मैं एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गया. अपनी मूर्खता पर बड़ा क्रोध आ रहा था.. जहाँ मैं बैठा था; उससे कुछ दूरी पर सामने एक पुआल घर था.. ऊपर नीचे, आगे पीछे, पुआल ही पुआल... और स्थिति भी ऐसी कि उसे भी देख कर एक बार के लिए कोई भी डर जाए. अब भला ऐसे घने जंगल में पुआल से भरा और बना वीरान घर देख कर कौन न डरे...? घर नहीं बोल कर कुटिया कहना भी गलत नहीं होगा. अनमने भाव से ही गुस्से में एक पत्थर उठाया और सामने की ओर ज़ोर से फेंक दिया.

पत्थर सीधे पुआल के ढेर में जा गिरा.

और तभी एक हलचल हुई.

पुआलों के ढेर से मिथुन उठ बैठा और इधर उधर देखने लगा. मैं जल्दी से उस पेड़ के ओट में आ गया. मिथुन पत्थर फेंकने वाले को देखने की कोशिश कर ही रहा था कि एक जनाना हाथ उसका हाथ पकड़ के नीचे की ओर खींचा और मिथुन वापस उन ढेरों पर जा गिरा. फ़िर से मुझे उस ओर चलने वाली गतिविधियाँ दिखनी बंद हो गई थी इसलिए मैं पेड़ पर चढ़ गया ये सोच कर की शायद ऊँचाई से कुछ दिख जाए.

पेड़ पर चढ़ कर मैंने उस ओर देखा... और जो देखा उस पे विश्वास नहीं हुआ.

मिथुन पुआल के ढेरों पर लेटा हुआ है और रुना भाभी उसके कमर पर बैठी हुई ऊपर नीचे हो रही है. साड़ी पेटीकोट जांघ तक उठा हुआ था. आँचल भी शायद नीचे गिरा हुआ था.

मिथुन के होंठों पर मुस्कान और चेहरे पर तृप्ति के भाव थे.

थोड़ा और अच्छे से देखने के लिए मैं एक डाली पर आगे बढ़ कर पैर रखा ही था की वह डाली टूट गई. टूटने से जो आवाज़ हुई वो उन दोनों के कानों तक तो नहीं पहुँचना चाहिए था पर एक क्षण के लिए भाभी रुक ज़रूर गई थी और बैठे बैठे ही, ऊपर नीचे होते होते मेरी दिशा की ओर देखी... बड़ी अजीब ढंग से देख रही थी... हाँ, नज़र उनका कहीं और था... पेड़ पर नहीं. बस एक ही बार इधर उधर देख लेने के बाद भाभी फ़िर मिथुन की ओर मुड़ गई.


मुझे वहाँ से निकल जाने लायक यही सही समय उचित जान पड़ा और मैंने वही किया भी.

चुपचाप पेड़ से उतरा और सरपट गाँव की ओर जाने वाले रास्ते की ओर दौड़ पड़ा. भूल कर भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.”

पूरी बात कहने के बाद कालू चुप हुआ. एक गहरी साँस लिया और एक और चाय मँगवाया.

देबू और शुभो को काटो तो खून नहीं.


डर तो नहीं पर घोर अविश्वसनीय लगा ये घटना उन दोनों को. ऐसा कुछ पहली बार सुना था देबू और शुभो ने इसलिए आगे क्या कहे दोनों को समझ में नहीं आ रहा था. दोनों ही भाभी को बहुत मानते थे. एक अच्छी संस्कारी बहु और शिक्षिका के रूप में काफ़ी अच्छी पहचान और सम्मान है रुना भाभी का इस गाँव में. ऐसी चरित्रहीनता वाली चीज़ें करना तो दूर शायद सोचती तक नहीं होंगी वो.

देबू ने दबे स्वर में पूछा,

“भाई.. तू बिल्कुल पक्का है न... कि वो रुना भाभी ही थी?”

“अरे हाँ भाई हाँ... उनके पीछे उस दिन करीब २ घंटे बीत गए थे मेरे... उन दो घंटे तक मुझे ये पता नहीं चलेगा क्या की मैं किसे देख रहा हूँ और किसे नहीं?” कालू ने बीड़ी बुझाते हुए कहा.

इस पे देबू शांत रहा. शायद कुछ और ही सोचने लगा वो.

शुभो ने चिंतित स्वर में कहा,

“यार कालू, क्या मिथुन की मृत्यु में रुना भाभी का कोई सम्बन्ध .... हो सकता है?”

“लगता तो नहीं पर....”

“पर क्या?”

“जो कुछ अविश्वसनीय सा देखा... उसके बाद किसी तरह की बात या घटना पे विश्वास करना या संदेह होना कोई बड़ी बात नहीं. इसलिए मैंने सोचा है कि जब तक मिथुन की मृत्यु की गुत्थी सुलझ नहीं जाती तब तक मैं भाभी पे नज़र रखूँगा. अकेले.”

ये सुनकर देबू और शुभो चौंक गए.

एक साथ ही बोले,

“अबे क्या बात कर रहा है? पागल हो गया है क्या? भाभी के पीछे लगेगा? किसी ने देख लिया तो? मान ले भाभी को ही पता चल गया तो? क्या सोचेगी वो? शोर मचा कर तुझे पकड़वा देगी और फ़िर गाँव वालों के हाथों भरपेट मार खिलवाएगी.”

कालू हँसा...

बोला,

“अबे निश्चिन्त रहो बे अक्ल के अंधों... मेरा नाम कालू है कालू... कालीचरण घोष उर्फ़ कालू... हर काम पर्फेक्ट्ली करता हूँ. टेंशन न लो. समझे?”

कोई कुछ न बोला.

दुकान के मालिक घोष काका को शायद कालू के अंतिम तीन चार वाक्य सुनाई दे गए थे. उन तीनों की ओर मुड़ कर कुछ बोलने के लिए मुँह खोला ही था कि चार ग्राहक और आ गए. काका उसी तरफ़ व्यस्त हो गए और पल भर में ही कालू की बातों को भूल गए.

इधर कुछ देर शांत बैठे रहने के बाद तीनों दूसरे विषयों पर बात करते हुए हंसी मजाक में रम गए.


चाय पर चाय चलता रहा.


परन्तु तीनों को ही ये नहीं पता था की उनसे कुछ दूरी पर ज़मीन से दो फूट ऊँची.. हवा में स्थिर एक काला साया उन तीनों की बातें सुन रही थी ... चेहरे पर निष्ठुरता... होंठों पर मुस्कान और आँखें चमकती हुईं!
 
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