Riky007
उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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जबरदस्त८)
रह रह कर कालू के आँखों के सामने कुछ दृश्य उभर आते और उसी के साथ कालू का सिर दुखने लगता. इसी दर्द से कालू बिस्तर पर पड़े पड़े छटपटाने लगता.
बंद आँखों से सजग रहते हुए ही उन दृश्यों को समझने का प्रयत्न करता; पर जैसे ही दिमाग पर जरा सा ज़ोर क्या लगाता सिर फिर से दुखने लगता. कुछ टूटे बिखरे से रंगीन दृश्य; जो यदि जरा सा थम जाए या धीमे हो जाए तो तब शायद कुछ समझ पाए कालू... पर.... पर... दृश्य तो जैसे सब खिचड़ी से आते जाते.
बस इतना ही समझ पाया था कालू कि इन दृश्यों का उससे अवश्य कोई सम्बन्ध है अन्यथा वो स्वयं को इन दृश्यों में नहीं पाता.
पर... पर... ये दूसरा व्यक्ति कौन है?
जिन दृश्यों को अपने बंद आँखों से देख रहा है... जिन्हें वो सपना समझ रहा है.... उन सपनों में उसके अलावा कोई और भी है जिसे वो महसूस तो कर पा रहा है पर स्पष्ट देख नहीं पा रहा.
तभी किसी ने उसे ज़ोर से हिलाया, झकझोरा...
एक झटके से उठ बैठा वो.
देखा, उसके आस पास उसे घेरे हुए बहुत लोग हैं; दोस्त हैं, सम्बन्धी हैं, गाँव के कुछ लोग हैं, पड़ोसी हैं, पिताजी बिस्तर पर उसके पास बैठे हुए हैं, माताजी सिरहाने बैठी उसे हाथ वाले पंखे से हवा कर दे रही हैं.
कालू अपनी आँखें मलता हुआ चारों ओर और अच्छे से देखा तो पाया कि वो इस समय अपने कमरे में ही है.
कालू हैरानी से सबको देखने लगा. खास कर माँ की आँखों में आँसू और पिताजी के चेहरे पर गहरी चिंता देख कर उसे बहुत ज्यादा हैरानी हुई. शुभो और देबू थोड़ा पास आ कर उसकी ओर झुक कर पूछे,
“कालू... यार... कैसा है तू... क्या हुआ था तुझे?”
उनका ये पूछने भर की देरी थी कि जितने भी लोग वहाँ उपस्थित थे, सब के सब यही प्रश्न एक साथ करने लगे.
गहरी नींद से उठा कालू बेचारा कुछ समझ ही नहीं पा रहा था की देबू और शुभो ने उससे क्या पूछा और उसके परिवार जनों के साथ साथ बाकी के लोग भी आखिर उससे क्या जानना चाहते हैं. उसने असमंजस भरी निगाहों से अपने माँ बाबूजी की ओर देखा. दोनों को देख कर ये साफ़ महसूस किया उसने की दोनों अभी अभी किसी गहरी दुष्चिन्ता से बाहर निकले हैं.
उसे घेर कर खड़े लोगों ने फिर से प्रश्नोत्तर का पहला चरण शुरू कर दिया और इसी में पूरा दिन पार हो गया.
शाम को वो घर पर ही रहा.
लोगों के प्रश्नों के बारे में सोचता रहा.
सबके प्रश्न उसे बहुत अटपटे और मजाकिया लग रहे थे.
“तुम्हें क्या हुआ था... कहाँ चले गए थे... ऐसा क्यों हुआ... और कौन था साथ में....” इत्यादि इत्यादि प्रश्न.
इन सबके अलावा जो चीज़ उसे सबसे अजीब लग रही थी वो ये कि उसे कुछ भी याद क्यों नहीं है. यहाँ तक की उसे शुभो के घर जाने के बारे में भी कुछ याद नहीं. वो तो शुभो ने उससे जब पूछा की उसके घर से जाने के बाद वो कहाँ गया था और शाम को मिलने क्यों नहीं आया था.. तब कालू को पता चला की वो शुभो के घर गया था और शाम को मिला भी नहीं अपने दोस्तों से.
कालू ने शर्ट के बटन खोल कर अपने सीने पर अभी भी ताज़ा लग रहे उन तीन खरोंचों को देखा.
आश्चर्य..
इनके बारे में भी कुछ याद नहीं उसे.
बस यही समझ पाया की इनमें अब सूजन और दर्द नहीं है.
अगले दिन सुबह आठ बजे शुभो उसके घर आया.
जल्दी ही आया क्योंकि उसे फिर जा कर अपनी दुकान भी खोलनी थी.
कालू अपने कमरे में ही बैठा चाय पी रहा था. दोस्त को आया देख बहुत खुश हुआ और बैठा कर उसे भी चाय बिस्कुट दिया. थोड़ी देर के कुशल क्षेम और इधर उधर की बातचीत के बाद कालू गम्भीर होता हुआ बोला,
“यार, कुछ पूछना है तेरे से... पूछूँ?”
गर्म चाय की एक सिप लेता हुआ शुभो बोला,
“हाँ ... पूछ.”
“यार.... हुआ क्या था?”
होंठों तक चाय के कप को लाते हुए शुभो रुक गया और शंकित लहजे में कालू से पूछा,
“मतलब?”
“मतलब, मेरे साथ क्या हुआ था... मुझे कुछ भी याद क्यों नहीं है? आधे से ज्यादा गाँव वाले, दोस्त, रिश्तेदार, माँ बाबूजी.. सब के सब मुझे घेर कर क्यों खड़े थे? मामला क्या है?”
चाय खत्म कर कप को एक साइड रखते हुए पॉकेट से बीड़ी निकाल कर होंठों के बीच दबाते हुए शुभो पूछा,
“यार एक बात तो मुझे समझ नहीं आ रही और वो यह कि तू सच बोल रहा है या झूठ ... की तुझे कुछ भी याद नहीं. वैसे तू जिस हालत में मिला था, उससे तो तेरी इस बात पे की तुझे कुछ पता नहीं या कुछ भी याद नहीं; पर विश्वास किया जा सकता है.”
“हालत? कैसी हालत?”
कालू उत्सुक हो उठा.
बीड़ी सुलगाते हुए शुभो बोला,
“नंगा!”
कालू समझा नहीं... इसलिए दोबारा पूछा,
“क्या? क्या बोला तू?”
कालू की ओर देख कर शुभो फिर अपनी बात को दोहराया; पर इस बार थोड़ा अच्छे से बोला,
“अबे तू नंगा था... नंगा ! एकदम निर्वस्त्र!... नंगी हालत में गाँव के ताल मैदान में मिला था तू. नंगा तो था ही... साथ ही बुखार से तड़प रहा था... और...”
“और?”
“और धीमे आवाज़ में एक ही बात को बार बार दोहरा रहा था... ‘और चाहिए... और चाहिए’... सबने सुना पर किसी को कुछ भी समझ में नहीं आया. अब ये ‘और क्या चाहिए’ ये तो तू ही बता सकता है. है न?”
व्यंग्य करता हुआ शुभो कालू को तीक्ष्ण दृष्टि से देखा.
कालू तो शुभो की बात सुनकर ही हैरान परेशान हो गया. अभी अभी शुभो ने उसे जो कुछ भी बताया; उनसे वो कुछ भी नहीं समझा... पर कालू के चेहरे पर उमड़ते चिंता के बादल से इतना तो तय है कि कालू वाकई में कुछ नहीं जानता है.
शुभो सामने दीवार घड़ी पर नज़र डाला.
अब उसके उठने का समय हो आया है अतः बीड़ी को जल्दी खत्म कर के उठता हुआ बोला,
“देख भाई, सही गलत, याद आना या नहीं आना बाद की बात है. सबसे पहले तो तू कुछ दिन और आराम कर... चंगा हो जा, हम लोग के साथ चाय दुकान पर बैठना शुरू कर, पहली वाली दिनचर्या शुरू होने दे.. फिर इस बारे में कभी सोचेंगे. ठीक है? अब चलना चाहिए मेरे को. समय हो रहा है.”
कहते हुए शुभो कालू के कंधे पर सहानुभूति से हाथ रखा, फिर पलट कर जाने लगा.
दरवाज़े तक पहुँचा ही था कि कालू ने पीछे से पूछा,
“यार... देबू नहीं आया?”
ठीक दरवाज़े के पास जा कर ठिठक कर रुका शुभो; कालू की ओर पीछे मुड़ा और एक मुस्कान लिए बोला,
“वो तो अभी नहीं आ सकता न... सुबह सुबह सबको दूध पहुँचाता है... पर कह रहा था कि तुझसे ज़रूर मिलेगा. उसे भी तेरी बहुत चिंता हो रही थी.”
इतना कह कर शुभो कमरे से निकल गया.
इस समय कालू शुभो का चेहरा नहीं देखा पाया; अन्यथा बड़ी आसानी से बता देता की शुभो ने उससे झूठ बोला.
इधर कालू के घर से निकल कर शुभो अपनी दुकान की ओर साइकिल चलाता कालू के बारे में सोचता हुआ जा रहा था.
अभी कुछ दूर गया ही होगा कि तभी उसे दूर से देबू आता दिखा. वो भी अपनी साइकिल पर दूध के बड़े बड़े तीन कैन लिए मस्ती में झूमता हुआ सा चला आ रहा था. सुबह सुबह अपने एक और जिगरी यार को देख कर शुभो बहुत खुश हुआ और साइकिल तेज़ चलाता हुआ आगे बढ़ा.
पर उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा जब उसने देखा की देबू न सिर्फ अपनी धुन में उस के आगे आया, अपितु उसके बगल से ऐसे निकल गया मानो शुभो वहाँ है ही नहीं. शुभो की ओर नज़र फेर कर भी नहीं देखा.
शुभो के बिल्कुल बगल से निकल जाने के बाद भी देबू के साइकिल के स्पीड में कोई कमी नहीं आई. पहले की ही भांति अपनी ही दुनिया में मग्न वह चला जा रहा था. शुभो पीछे मुड़ कर देबू को आवाज़ लगाया ये सोच कर कि अगर देबू ने उसे वाकई में नहीं देखा होगा तो कम से कम आवाज़ सुन कर रुक जाएगा.
पर ऐसा हुआ नहीं.
उल्टे ऐसा लगा मानो देबू ने अपना स्पीड बढ़ा दिया है.
शुभो को कुछ ठीक नहीं लगा. देबू उसे ऐसे नज़रंदाज़ भला क्यों करे? शुभो को ये बात अजीब लगा. उसने साइकिल घूमाया और चल पड़ा देबू के पीछे. पर जान बूझ कर देबू से दूरी बनाए रखा.
देबू सीधे नबीन बाबू के घर जा कर रुका.
सीटी बजाते हुए साइकिल का स्टैंड लगाया, कैन उतारा और दरवाज़ा खटखटाया. अंदर से शायद किसी ने पूछा होगा कि ‘कौन है?’ तभी तो देबू ने बाहर से आवाज़ लगाया,
“मैं हूँ भाभी जी. दूध ले लीजिए.”
दो मिनट बाद दरवाज़ा खुला और अंदर से रुना भाभी मुस्कराती हुई बाहर निकली. लाल साड़ी-ब्लाउज में एक लंबी वक्षरेखा दिखाती रुना इतनी सुंदर लग रही थी कि उसे देखने के बाद शुभो तो क्या; गाँव का अस्सी – नब्बे साल का बूढ़ा भी उसके प्रेम में पड़ जाए.
दोनों में थोड़ी सी बातचीत हुई और फिर रुना भाभी अंदर चली गई.
देबू भी एक मिनट बाद अपने चारों ओर अच्छे से देखने के बाद अंदर घुसा और दरवाज़ा बंद कर दिया.
शुभो पहले तो कुछ समझा नहीं. और फिर जो कुछ भी वो समझा, उसे मानने के लिए वो कतई तैयार नहीं हुआ. देबू एक अच्छा लड़का है और उसका दोस्त भी. वहीँ रुना भाभी भी एक सुशिक्षित और अच्छे आचार विचार वाली महिला हैं. ऐसे कैसे वो कुछ भी समझ और मान ले.
करीब दस मिनट तक वो अपनी जगह पर ही खड़ा देबू के निकलने की प्रतीक्षा करने लगा.
जब देबू दस मिनट बाद भी नहीं निकला तब उसका सब्र का बाँध टूट गया. साइकिल बगल की झाड़ियों के अंदर खड़ी कर के शुभो घर के मुख्य दरवाज़े तक आया. हाथ बढ़ा कर दस्तक देने ही वाला था कि रुक गया. सोचा, ‘ये ठीक नहीं होगा. कुछ और करना चाहिए.’ कुछ पल सोचा और फिर कुछ निश्चय कर दरवाज़े से हट गया. बाहर से खड़े खड़े ही पूरे घर को अच्छे से निहारा और घूम कर घर के पिछवाड़े की ओर चल दिया.
घर के पीछे एक छोटा सा मैदान जैसा ज़मीन था जिसे देख कर साफ पता चलता है की एक समय यहाँ एक सुंदर बगीचा हुआ करता था. अभी भी कुछ छोटे छोटे पौधे लगे हुए थे. खास कर गेंदे के पौधे... कुछ सूखे हुए तो कुछ हरे भरे. कुछेक बांस को काट कर उन्हीं से बाउंड्री बनाया गया था कभी पर आज अधिकांश हिस्सा टूटा हुआ है.
शुभो आगे कुछ सोचता कि तभी उसे ऊपर के कमरे से हँसने की आवाज़ आई. अब वो और देर नहीं करना चाहता. जल्दी अपने चारों ओर देखा. थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा सा पेड़ दिखा. दौड़ता हुआ गया और जितनी जल्दी हो सके पेड़ पर चढ़ने लगा. थोड़े से प्रयास के बाद शुभो पेड़ के सबसे ऊँची डाली पर पहुँच गया. खुद को अच्छे से डालियों पर जमा लेने के बाद वो रुना के घर की तरफ बड़े ध्यान से देखने लगा. खास कर उस कमरे की ओर जहाँ से कुछ मिनट पहले उसने हँसी की आवाजें सुनी थी.
वहीँ एक डाली पर बैठे बैठे एक अनजाना तीव्र कौतुहल के साथ साथ भय भी घर किए जा रहा था शुभो के मन में,
‘क्या हो अगर किसी ने उसे इस तरह पेड़ पर बैठे देख लिया? क्या होगा अगर वो रुना भाभी के कमरों की ताक – झाँक करते हुए पकड़ा गया?? अपने इस उद्द्दंड शरारत का क्या स्पष्टीकरण देगा वो???’
इस तरह के अनगिनत भयावह परिस्थितियाँ और प्रश्नों के घेरे में खुद को संभावित तौर पर फँसता देखने में व्यस्त शुभो शायद थोड़ी ही देर बाद उतर जाने का निर्णय ले लेता कि तभी....
तभी उसे उसी कमरे में एक हलचल होती दिखाई दी.
सामने की तीन कमरों में एक कमरे में एक स्त्री दिखाई दे रही है.
रुना भाभी ही है वो.
मस्त अल्हड़ जवानी लिए किसी के साथ मदमस्त हो झूम रही है. शायद जिसके साथ वो है; उसकी बाँहों में आने से बचने की कोशिश कर रही है. और जिससे बचने की कोशिश कर रही है.. वो और कोई नहीं, देबू है.
रुना के चेहरे पर एक बहुत ही अलग तरह की रौनक है... और... देबू भी कितना खुश लग रहा है. अजीब, अलग सी ख़ुशी. जैसे बहुत जिद, मिन्नत, विनती और एक लंबी प्रतीक्षा के बाद एक बच्चे को उसका मनपसंद कोई सामान.. कोई खिलौना मिलता है तो वो कैसे खुश होता है... बिल्कुल वैसे ही.
पेड़ की ऊँची डाली पर बैठा शुभो देख रहा था कि कैसे देबू ने अंततः रुना भाभी को अपनी बाँहों में ले लिया और फिर एक दीवार से भाभी की पीठ को लगा कर उनकी आँखों, गालों और होंठों को बेतहाशा चूमने लगा. रुना कुछ पलों के लिए चुपचाप बुत सी खड़ी रही... फिर... धीरे धीरे... अपने दोनों हाथों को देबू के पीछे, उसके पीठ पर ले जाकर अच्छे से पकड़ ली.
देबू रुके नहीं रुक रहा था. या शायद खुद को रोकना ही नहीं चाह रहा था. गालों और होंठों को चूमते हुए वह थोड़ा नीचे आया और रुना के चेहरे को थोड़ा ऊपर उठा कर, उनकी गर्दन को चूमने और चूसने लगा. जैसे ही देबू ने भाभी की गर्दन को चूसना शुरू किया ठीक तभी उनकी होंठों पर एक मुस्कान तैर गई और ये मुस्कान साफ़ बता रही थी कि भाभी को न सिर्फ इस क्रिया से एक अपरिचित सुख मिल रहा है अपितु उन्होंने तो शायद ऐसे किसी क्रिया और उससे मिलने वाली सुख के बारे में कभी कल्पना भी नहीं की होगी.
देबू कभी उनकी जीभ को चूसता तो कभी गालों को. रह रह कर रुना की पूरी गर्दन को चुम्बनों से भर देता. इस पूरे काम क्रिया के दौरान रुना हँसती रही और देबू के पीठ और सिर के बालों को सहलाती रही.
इधर देबू के हाथ भी हरकत में आ रहे थे. धीरे धीरे उसने रुना के ब्लाउज के सभी हुक खोल दिया. ब्लाउज के खुले दोनों पल्लों को साइड कर वो रुना के गदराई दुधिया स्तनों का ब्रा के ऊपर से ही हस्त मर्दन करने लगा. उसके हाथों का स्पर्श पाते ही रुना ऐसे चिहुंक उठी मानो बरसों की तड़प पर आज किसी ने पानी डाल कर शांत किया हो.
वो और कस कर जकड़ ली देबू को.
देबू भी तो यही चाह रहा था. दरअसल वो हमेशा से ही ऐसी गदराई महिलाओं का दीवाना रहा है जिनका नैन नक्श अच्छा हो, बड़े स्तनों के साथ गदराया बदन हो, अपेक्षाकृत पतली कमर हो और सहवास के समय जो अपने साथी को अपने बदन से जम के जकड़ ले.
यौन उन्माद की अतिरेकता में देबू ने ब्रा उतारने का झंझट न ले कर ब्रा कप्स को एक झटके में नीचे कर दिया. कठोर मर्दन के कारण दुधिया रंग से सुर्ख गुलाबी हो चुके दोनों स्तन एकदम से कूद कर बाहर आ गए. दोनों स्तनों के बस बाहर आने की ही देर थी; देबू ने उन्हें लपकने में क्षण भर का भी समय नहीं गँवाया. कॉटन से भी अधिक मुलायम दोनों स्तनों के स्पर्श का आनंद अपने हथेलियों द्वारा लेते हुए सुध बुध खोया सा देबू ने अपना मुँह दोनों स्तनों के बीच में घुसा कर दोनों तरफ से मुलायम दुदुओं का दबाव अनुभव करने लगा.
बहुत ही भिन्न और दिमाग के सभी बत्तियों को गुल कर देने वाली एक मीठी सुगंध आ रही थी रुना के शरीर से... विशेषतः उसके स्तन वाले क्षेत्र से.
और इसी मीठी सुगंध से पागल सा हुआ जा रहा था देबू. जीवन में अभी तक शायद ही कभी ऐसी सुगंध से वास्ता हुआ होगा. जैसे एक मतवाला हाथी हरे भरे खेत में बेलगाम घुस कर सभी फ़सल को ध्वस्त कर देता है; ठीक वैसे ही देबू भी मतवाला हो चुका था और बेलगाम हो कर उस हसीन तरीन गदराई स्त्री देह को रौंद देना चाहता था.
इधर,
दो जवान सख्त हाथों के द्वारा अपने सुकोमल नग्न स्तनों पर पड़ते दबाव से बुरी तरह तड़पते हुए कसमसा रही थी रुना. पुरुषों की एक प्राकृतिक एवं स्वाभाविक लालसा होती है स्त्री देह पर ... विशेष कर उसके वक्षों के प्रति... ऐसा अपनी जवानी के पहले पायदान पर कदम रखते ही सुना था रुना ने. पर फूले, गदराए वक्षों के प्रति ऐसा दीवानापन होता है इन मर्दों का ये कदाचित इतने लंबे समय बाद अनुभव कर रही थी वो. निःसंदेह विवाह के पश्चात अपने पति के हाथों अपना कौमार्य भंग करवाते हुए यौन सुख भोगी थी... पर... पर आज तो एक पराए मर्द... नहीं.. एक पराए लड़के के द्वारा....
‘आह्ह!’
एक हल्की सिसकारी ले उठी वह.
उन्माद में देबू ने कुछ ज्यादा ही ज़ोर से उसका स्तन दबा दिया था.
प्यार भरे शब्दों से रुना ने देबू को डांटना चाहा... ये कहना चाहा की अभी बहुत समय है.. आराम से करे... उसे पीड़ा होती है.
पर, जिस अनुपम कलात्मक ढंग से देबू के हाथ और उसकी अंगुलियाँ दोनों स्तनों के क्षेत्रफल पर गोल गोल घूमते हुए उसके दोनों निप्पल से छेड़छाड़ कर रहे थे और जिस दीवानगी से देबू उन सुंदर अंगों पर अपने चुम्बनों की वर्षा करते हुए चाटे जा रहा था; उससे रुना के मन में अपने लिए गर्व और देबू के लिए ढेर सारा प्यार उमड़ पड़ा. इसलिए कुछ कहे बिना बचे हुए लाज को ताक पर रख कर अधखुली आँखों से देबू के कामक्रियाओं को देखने लगी.
इधर पेड़ की डाल पर खुद को किसी तरह से बिठा कर कमरे के अंदर का पूरा दृश्य को देख कर चरम उत्तेजना से भरा हुआ शुभो वहीं हस्तमैथुन करने लगा था. थोड़ी ही देर में उसका वीर्य निकलने वाला था कि अचानक उसे ऐसा लगा मानो उस कमरे से देबू से प्यार पाती और उसे प्यार करती रुना की नज़रें सीधे उस पर यानि शुभो पर टिकी हुई हैं... वो... वो... शायद शुभो को ही देख रही थी...
‘पर...पर ये कैसे संभव है?!’
मन ही मन सोचा शुभो.
‘मैं तो अच्छे से एक ऐसे डाल पर बैठा हुआ हूँ जिसके आगे पत्तों का झुरमुठ है. इतनी सरलता से मुझे देख पाना; वो भी इस दूरी से... असंभव हो न हो, एक कठिन दुष्कर कार्य तो ज़रूर है. उफ़.. क्या करूँ... पकड़े जाने का खतरा मैं नहीं ले सकता. गाँव वाले पूछेंगे की मैं क्या कर रहा था... या.. क्यों बैठा हुआ था एक डाली पर... वो भी रुना भाभी के कमरे की ओर मुँह कर के... तो मैं क्या उत्तर दूँगा..?? न भाभी की इज्ज़त को दांव पर लगा सकता हूँ और न खुद की. उफ़... नहीं.. अब और नहीं.. बहुत देर बैठ लिया.. अब मुझे जाना चाहिए. ज्यादा दिमाग लगाना ठीक नहीं होगा.’
शुभो बिना आवाज़ किए; आहिस्ते से पेड़ से उतरा, अपने कपड़े झाड़ा और दबे पाँव लंबे डग भरते हुए वहाँ से निकल गया.
देखा जाए तो ये भी अच्छा ही हुआ शुभो के लिए क्योंकि कुछ ही क्षणों बाद रुना देबू को अपने गद्देदार बिस्तर पर ले गई जोकि खिड़की से काफ़ी परे हट कर था. तो शुभो अगर बैठा भी रहता डाली पर तब भी उसे कुछ दिखने वाला नहीं था.
अपनी साइकिल उठा कर जल्दी जल्दी पैडल मारते हुए शुभो अपने दुकान पहुँचा. करीब बीस मिनट की देरी हो गई थी. दो – तीन ग्राहक आ चुके थे. जल्दी से दुकान खोल कर, हाथ धो कर भगवान श्री गणेश एवं माता लक्ष्मी जी की छोटी मूर्तियों को अगरबत्ती दिखा कर दुकानदारी शुरू कर दी.
पूरा दिन दुकानदारी में अच्छे से दिमाग लगाया. हालाँकि बीच बीच में बेकाबू हो जा रहा था पर जैसी तैसे मन को समझाया.
संध्या में यथासमय दुकान को बढ़ा कर (बंद कर) कालू को साथ ले एक अन्य चाय दुकान में ले गया.
कुछ देर एक दूसरे का कुशल क्षेम पूछने के बाद चाय पीते पीते शुभो ने कालू को दिन की सारी घटना विस्तार से कह सुनाया. कालू को विश्वास तो नहीं हो रहा था पर चूँकि शुभो फालतू के लंबे लंबे गप्पे हांकने का शौक़ीन नहीं था और ना ही आज से पहले इस तरह की बातें जो की झूठ साबित हो जाए; कभी किया था इसलिए उसकी बातों को मानने के अलावा फिलहाल कालू के पास और कोई चारा न था.
जब पूरी घटना सुनाने के बाद शुभो चुप हुआ तब थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच शांति छा गई.
एक कुल्हड़ चाय मँगाते हुए कालू ने कहा,
“यार.. अपनी दृष्टि से देखें तो पूरी बात बहुत संदेहास्पद है. पर.. ये दो लोगों के बीच का मामला है... भाभी को नहीं तो क्या देबू से इस बारे में बात किया जा सकता है?”
बहुत गम्भीर हो कर कुछ सोचता हुआ शुभो बोला,
“यार कालू, हमें देबू से ही बात करनी होगी.”
“देबू से ही बात करनी होगी...?! क्यों भई?”
“कालू... ये जो पूरी घटना है... ये केवल संदेहास्पद ही नहीं अपितु भयावह भी है.”
“वो कैसे?”
“यार, पेड़ की डाली पर बैठा जब मैं उस घर के ऊपरी तल्ले के कमरे में भाभी और देबू के काम क्रीड़ा को देख रहा था और जब अचानक से मुझे ऐसा लगा कि भाभी मेरी ही ओर देख रही है; तब मैंने एक बात पर गौर किया.”
“किस बात पर?”
“भाभी की आँखें... उ..उन.. की आँखें.....”
“भाभी की आँखें का क्या शुभो?” एक तीव्र कौतुक जाग उठा कालू के मन में.
“यार, भाभी की आँखें पूरी तरह से काली थीं!”
“क्या?! क्या मतलब??”
“मतलब की, हमारी आँखों में जो सफ़ेद अंश होता है... वो.. वो भाभी की आँखों में नहीं था! पूरी आँखें काली थीं!!”
बोलते हुए शुभो का गला काँप उठा.
और कालू के हाथ से भी कुल्हड़ छूट कर जमीन पर धड़ाम से गिरा....
मतलब ये रूना नही कोई और ही है उसके भेष में।