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Incest पाप ने बचाया

Sweet_Sinner

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Index

~~~~ पाप ने बचाया ~~~~

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Premkumar65

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"रजनी", "ओ रजनी बिटिया" जरा एक लोटा पानी ला, जोर की प्यास लगी है", - गांव का मुखिया उदयराज अपने सिर से गेहूं का बोझ जमीन पर गिराकर, अंगौछे से अपना पसीना पोछते हुए अपनी बिटिया को आवाज लगते हुए बोला।

रजनी- "लायी बाबू"


(Hello दोस्तों नमस्कार मैं हूँ S_Kumar, यह मेरी पहली कहानी है, आप लोगों की तरह कहानियों का शौकीन मैं भी हूँ, काफी दिनों से कहानियां पढ़ता चला आ रहा हूँ। आज सोचा क्यों न मैं भी एक कहानी लिखूं।

मैं कोई professional writer नही हूँ और न ही मैंने कभी कोई कहानी लिखी है, तो अगर कोई गलती हो तो माफ कीजियेगा और अगर अच्छी लगे या न भी लगे तो भी comment कीजियेगा।

यह कहानी हिंदी font में होगी जिसकी एक छोटी सी झलक आप लोग शुरू में ही देख चुके हैं, और हां यह कहानी पारिवारिक संबंधों पर आधारित है तो जिसको भी ऐसी कहानियां नही पसंद वो कृपया न पढ़ें। यह कहानी सामाजिक नियमों के खिलाफ है, पारिवारिक रिश्तों पर आधारित है, यह पुर्ण रूप से काल्पनिक है वास्तविकता से इसका कहीं कोई संबंध नही, अगर कहीं कोई संबंध पाया गया तो वह बस एक संयोग ही होगा। इस कहानी में बताए गए कोई भी तंत्र मंत्र या टोना टोटका या कोई विधि बस एक कल्पना हैं वास्तविकता से इसका कोई संबंध नही।

इस कहानी का update मैं 2 या 3 दिन के अंतराल पे दूंगा अगर कोई जरूरी काम या किसी और चीज़ में busy न हुआ तो, और अगर हुआ तो ये अंतराल और भी बढ़ सकता है और इसके लिए भी मुझे माफ़ कीजियेगा।)

तो चलिए फिर कहानी को आगे बढाते हैं---

Update-1

बात बहुत पहले की है उत्तर प्रदेश में कहीं दूर-दराज एक बहुत ही पिछड़ा हुआ गांव था-विक्रमपुर। बहुत ही पिछड़ा हुआ इशलिये क्योंकि यह एक बहुत बड़ी नदी के दूसरी तरफ था। शहर से इसका कोई खास लेना देना नही था। कुल मिलाकर 100-200 घर होंगे वो भी काफी दूर-दूर थे।

नदी के किनारे होने की वजह से गांव बहुत ही हरा भरा था। यह गांव बहुत बड़े जंगल से चारों तरफ से घिरा हुआ था। यह गांव कई दशकों पहले और भी बड़ा हुआ करता था, आज जो इस गांव में सिर्फ 100-200 घर है वहीं एक वक्त इस गांव में 1000-1500 घर हुआ करते थे, जो कि आज के वक्त में सिमटकर केवल 100-200 घर ही रह गए थे।

लेकिन ऐसा क्यों? आखिर क्या ऐसा हो रहा था
इस गांव में जो परिवार के परिवार धीरे धीरे खत्म हो रहे थे। बहुत तेजी से नही बल्कि बहुत धीरे धीरे, एक बार को अचानक से देखने में नही लगेगा परंतु जब कोई गांव का बाहरी इंसान गौर से इस गांव की दशकों पुरानी हिस्ट्री से दूसरी जगहों की तुलना करता तो वो भी सोच में पड़ जाता कि आखिर ऐसा क्यों?

माना कि मौत हर जगह होती है, जो इस दुनियां में आया है उसे जाना ही है, लेकिन हर जगह एक balance maintain है। लोग मर रहे हैं तो बच्चे पैदा भी हो रहे हैं। एक पीढ़ी गुजर रही है तो नई पीढ़ी आ भी रही है।

परंतु इस गांव में मृत्यु दर बहुत ज्यादा थी और जन्म दर नाम मात्र।

देखने में लोग बिकुल स्वस्थ रहते, न जाने कब कैसे धीरे धीरे बीमार पड़ते और चले जाते, इस गांव के लोग जब बाहरी दुनिया में इलाज कराने जाते तो report में कहीं कुछ नही आता। वैसे तो जल्दी इलाज़ के लिए जाते नही थे क्योंकि इस गांव के लोग थे- रूढ़िवादी, अन्धविश्वासी और वो झाड़ फूंक, में ज्यादा विश्वास रखते थे।

इस गांव के लोगों ने जानबूझ के भी अपने आप को दीन दुनियां से अलग कर रखा था। इसका पहला कारण तो ये ही था कि यह गांव चारों तरफ जंगल से घिरा हुआ था, नदी के दूसरी छोर पर था और.....और... इस गांव के लोगों को सबसे ज्यादा नफरत थी- गलत चीजों से, जैसे- गलत काम करना, झूठ बोलना, किसी का दिल दुखाना, बेईमानी करना, कोई भी गलत काम, गलत सोच, गलत विचार, भावना किसी के मन में नही थी, जैसे कोई जानता ही नही था इन सब चीजों को। यही main वजह थी जो इस गांव के लोग बाहरी दुनिया से ज्यादा मेल जोल नही रखना चाहते थे क्योंकि उस गांव के अलावा हर जगह गलत चीज़ें थी, गलत काम था, गलत सोच थी, गलत भावना थी। यूँ समझ लीजिये हर जगह कलयुग था और इस गांव में सतयुग था।

लेकिन सोचने वाली बात ये है कि ऐसा गांव में क्या था कि परिवार के परिवार धीरे धीरे खत्म हो रहे थे, न कोई महामारी, न कोई रोग, न कोई आक्रमण, न कोई दंगा फसाद, फिर ऐसा क्या था? ऐसा नही है कि गांव के लोग इससे अनजान थे वो जानते थे कि कुछ तो इस गांव में गड़बड़ है, परंतु उनके पास इसका कोई इलाज नही था, उनके पास कोई रास्ता नही था इससे बाहर निकलने का, इसलिये गांव के लोगों के मन में कहीं न कहीं किसी कोने में एक उदासी सी रहती थी।

परंतु ऐसा क्या था, जिसकी वजह से ऐसा हो रहा था, वो आपको आगे इस कहानी में पता चलेगा---


Update-2

दोस्तों यह कहानी दो मुख्य किरदार के इर्द गिर्द ही रहेगी, कहानी में कुछ और किरदार भी आएंगे आगे चलकर, कहानी का हीरो गांव का मुखिया ही है।

कहानी के मुख्य पात्र-

उदयराज
- उदयराज विक्रमपुर गांव का मुखिया है, उसकी उम्र 44 वर्ष है, वह बहुत ही नेकदिल और ईमानदार इंसान है। 20 वर्ष की उम्र में ही उसकी शादी विमला से हो गयी थी, जो अब इस दुनियां में नही है।
विमला से उसके 2 बच्चे हुए, 1 लड़का और 1 लड़की, जब वह 22 वर्ष का था तब लड़का पैदा हुआ जिसका नाम अमन रखा गया था, जो अभी 7 वर्ष पहले इस दुनिया से चला गया उसी रहस्यमयी वजह से जो गांव में थी। उदयराज जब 23 वर्ष का था तब विमला को 1 बेटी पैदा हुई जिसका नाम रजनी रखा गया। रजनी अमन से एक वर्ष छोटी थी।

इस वक्त वो अपनी बेटी के साथ ही रहता है करीब कुछ सालों से।

उदयराज गांव का मुखिया तो था ही साथ ही साथ वह एक तजुर्बेदार किसान भी था, खेतों में खुद ही सारा काम संभालने की वजह से उसका शरीर काफी बलिष्ट था, कद काठी ऊंची थी, रंग थोड़ा सांवला था, धूप में अक्सर कड़ी मेहनत करने की वजह से भी हो गया था।

उदयराज को खेती करना बहुत पसंद था, खेतों में वो अकेला ही लगा रहता था, लोग कहते भी थे कि उदयराज कुछ आदमी वगैरह रख लिया करो काम में मदद हो जाया करेगी तो वो कहता कि इतना तो मैं अकेले ही कर लूंगा, जब मुझे लगेगा कि काम बस के बाहर है तो रख लूंगा।

खेतीबाड़ी में ज्यादा वक्त देने से वो मुखिया का काम कम ही संभाल पाता था, परंतु उसका स्वभाव अत्यंत सरल और अच्छा होने की वजह से खुद गांव वालों ने उससे कहा रखा था कि "मुखिया तो हमारे तुम ही होगे उदयराज, भले ही तुम मुखिया का सारा काम अपने परम मित्र बिरजू से कराओ, पर मुखिया तो तुम ही हो"

उदयराज भी गांववालों से इतना सम्मान मिलने पर उनका दिल नही दुखाना चाहता था इसलिये वह गांव का मुखिया बना हुआ था पर ज्यादातर काम उसका मित्र बिरजू ही देखता था।


रजनी- रजनी की उम्र 21 वर्ष थी, उसका विवाह हो चुका था उसकी एक छोटी बेटी भी थी (ये बहुत भाग्य की बात थी क्योंकि गांव में बच्चे बहुत मुश्किल से हो रहे थे)।
रजनी अपनी माँ की तरह काफी गोरी थी। बला की खूबसूरत, कद काठी में सुडौल थी, भरा पूरा यौवन था उसका, बड़े बड़े स्तन, चौड़े और भारी नितम्ब, वो एक अत्यंत मादक जिस्म की मालकिन थी, उसकी चाल तो अलग ही कहर ढाती थी। पर उस गांव में कोई भी मर्द या लड़का कभी भी किसी परायी लड़की या स्त्री को बुरी नज़र से नही देखता था और न ही कभी कोई ऐसा विचार अपने मन में लाता था, जैसे ये सब गलत विचार उन्हें पता ही नही था। इतने शरीफ थे इस गांव के लोग।

जो स्त्री विधवा होती थी या अपने पति से किसी भी वजह से दूर रहती थी और जो पुरुष विदुर होते थे जिनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी होती थी वो कामाग्नि में जल जल कर जीवन बिता देते थे पर कभी परायी स्त्री या पुरुष को कभी गंदी या गलत निगाह से नही देखते थे।

रजनी का पति थोड़ा सनकी था और शारीरिक रूप से रजनी से कमजोर था, उसे स्त्री में कोई खास रुचि नही रहती थी, न ही उसे सेक्स पसंद था, उसके अंदर बहुत बचपना था, शादी के इतने साल बाद तक भी कभी ऐसा नही हुआ कि उसने रजनी को सेक्स में चरमसुख दिया हो, यौनसुख के लिए रजनी हमेशा ही प्यासी रहती थी, पर क्या करे स्त्री थी कुछ कह भी नही सकती थी लोक लाज की वजह से। इस वजह से उसका पति उसकी नज़रों में उतरता चला गया, पर ऐसा नही था कि वो अपने पति की इज़्ज़त नही करती थी बस ये था कि वो ये उम्मीद छोड़ चुकी थी की उसका पति कभी बिस्तर पे उससे रगड़ रगड़ के संभोग करेगा, जिससे वो सन्तुष्ट हो सकेगी। क्योंकि वह अब यह जान चुकी थी कि उसके पति में इतनी ताकत ही नही थी कि वो उस जैसी सुडौल और भरे जिस्म वाली औरत की प्यास बुझा सके।

उसकी यौवन की रसीली गहराइयों के आखिरी छोर तक उसका पति न तो अभी तक पहुच पाया था और न ही कभी पहुंच पायेगा ये वो जानती थी, उसकी पूरी गहराई को नापने के लिए एक बलिष्ट मर्द की जरूरत थी, और वो कभी भी किसी भी कीमत पर पराये मर्द के बारे में सोच भी नही सकती थी, या यूं मान लो उसे पता ही नही था कि व्यभिचार भी कोई चीज़ होती है। इसलिए वो अब इसको अपना भाग्य मानकर कामाग्नि में जल रही थी।

पर रजनी थी बहुत हंसमुख और चंचल स्वभाव की। एक बेटी हो जाने के बाद भी उसका बचपना नही गया था।

(रजनी के पति और उसके ससुराल के बारे मे और अन्य पात्र के बारे में विस्तार से अगले अपडेट में)
Bahut achhi suruat.
 

Premkumar65

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Update-3

रजनी के ससुराल वाले इतने नेक और भले इंसान थे कि जब उसके भाई की मौत हुई तो उन्होंने रजनी को अपने मायके में ही रहने को बोल दिया था ताकि रजनी के पिता को कोई दिक्कत या परेशानी न हो, उनको एक सहारे की जरूरत थी, और बाप को एक बेटी से अच्छा सहारा कौन दे सकता है, आप लोग तो जानते ही हैं कि बेटियां बाप की लाडली होती है। बेटियां बाप से ज्यादा गहराई से जुड़ी होती है अक्सर बेटे के मुकाबले।

बेटे अमन की मौत के बाद उदयराज बहुत अकेला हो गया था, उनको एक सहारे की जरूरत थी इसलिए रजनी के ससुराल वालों ने रजनी को इतनी छूट तक दे दी कि वो चाहे तो उम्र भर अपने मायके में रहकर अपने पिता की देखभाल करे।

रजनी के ससुराल में भी कम ही लोग थे, उसके सास-ससुर, (रजनी के ससुर का नाम बलराज था), देवर देवरानी और उनका एक बेटा (जो बड़ी ही मुश्किल से कई मन्नतों के बाद पैदा हुआ था)।

जब रजनी के भाई की मृत्यु हुई और उसके मायके में ससुराल में हर जगह गमहीन माहौल था, और उसके पिता उस वक्त बिल्कुल अकेले रह गए थे तो एक दिन उसके ससुर ने घर के आंगन में शाम को जब सब लोग बैठे थे, रजनी को बुलाकर ये बात कह दी-

बलराज- बहू, बड़ी बहू जरा इधर आना बेटी, तुमसे कुछ बात कहनी है।

(कुछ देर इंतजार करने के बाद भी जब बहू नही आई तो उन्होंने बगल में बैठी अपनी पत्नी से कहा)

बलराज- लगता है बहू ने सुना नही, जरा तुम जाकर आवाज लगा देना, किसी काम में व्यस्त है क्या शायद?

बलराज की पत्नी- हां लगता तो है, घर के पीछे की तरफ जानवरों को चारा तो नही डाल रही, रुको मैं बुला कर लाती हूं।


फिर रजनी की सासु उसे बुला कर लायी और बलराज ने सभी के सामने उससे ये कहा कि बेटी देखो तुम्हारे पिता मेरे समधी होने के साथ साथ एक परम मित्र भी हैं, तो मेरा ये फर्ज बनता है कि मुसीबत की घड़ी में मैं उनके काम आऊं,अब जब तुम्हारा भाई भी इस दुनियां में नही है तो वो बहुत अकेले पड़ गए हैं, उन्हें एक सहारे की बहुत जरूरत है, ये तो तुम जानती ही हो।
उन्होंने आगे कहा- देखो बेटी कोई भी पिता या माँ कभी भी अपनी बेटी के ससुराल में रहकर जीवन नही बिताना चाहेगा और न ही बिताता है वार्ना मैं उनको यहीं बुला लेता।


(रजनी सिर नीचे करके चुपचाप सुन रही थी, बगल में उसके देवर देवरानी भी बैठे थे, बस उसका पति ही वहां नही था, वो कहाँ था अभी थोड़ी देर में बताऊंगा)

बलराज आगे बोला- तो मेरी प्रिय बड़ी बहू मैने और तुम्हारी सास ने यहां तक कि तुम्हारे देवर देवरानी ने भी यही सोचा है कि अगर तुम चाहो तो उम्र भर अपने मायके में रहकर अपने पिता की सेवा कर सकती हो और उनका ख्याल रख सकती हो, क्योंकि हम लोग उनका दर्द बहुत अच्छे से महसूस कर रहे है और तुम भी कर ही रही होगी, आखिर बेटी हो तुम उनकी।

यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है तुम यहाँ रहना चाहो तो यहां रहो और अपने पिता जी के पास रहना चाहो तो वहां रह सकती हो उम्र भर। लेकिन ऐसा अपने मन में कभी गलती से भी मत सोचना की यहां की धन दौलत, जमीन जायदाद तुम्हे नही मिलेगा, जो हिस्सा तुम्हारा है वो तुम्हारा ही है तुम चाहे यहां रहो या न रहो, क्योंकि गलत तो कभी इस गांव में सदियों से नही हुआ और आगे भी नही होगा शायद, बेटी शायद शब्द मैंने इश्लिये लगाया क्योंकि भविष्य का किसी को नही पता, पर तुम्हारे साथ कभी गलत नही होगा जब तक मैं जिंदा हूं।

अब तुम्हारे पति को ही देख लो हमे क्या पता था कि ये नालायक निकलेगा, जिसको अपने परिवार की कोई फिक्र नही, अपनी पत्नी की कोई फिक्र नही, वो कहाँ है, कब आएगा, सही सलामत है भी या नही कुछ नही पता, उसकी नालायकी और बेफिक्री के कारण ही मैंने जमीन जायदाद का जो तुम्हारे हिस्से का है वो पहले ही तुम्हारे नाम कर दिया है, मुझे उस पर विश्वास नही, उसको मैं अपना बेटा नही मानता, जब उसने मेरी फूल जैसी बहू को, हम सबको इतना दुख दिया है, तो मैं भी उसे अब अपना बेटा नही मानता। तुम खुद ही देखो पिछले 8 9 महीने से बिना किसी को कुछ बताये कहाँ चला गया पता नही, कुछ सूत्रों से सुनने में मिला कि शहर भाग गया है।




(इतना सुनते ही रजनी की आंखों से आंसू बहने लगे, वो घूंघट किये हुए थी, वो अपने आपको संभाल न सकी और जब ये सुना कि उसका पति शहर भाग गया तो आंसू बह निकले, हालांकि वो बहुत हंसमुख स्वभाव की थी, धैर्यवान थी पर ऐसी खबर सुनके इंसान रो ही पड़ेगा न)

उसकी सास ने उठकर उसे गले से लगा लिया और बोली- न बेटी न, रोना नही मेरी बेटी, और उसके सिर को सहला सहला कर चुप कराने लगी

बलराज- बेटी तू फिक्र मत कर उसको उसके किये की सजा तो ईश्वर देगा ही, ये मेरा दिल कहता है कि आने वाले वक्त में तुझे भरपूर सुख मिलेगा, तू चिंता मत कर, बस इस वक्त जो पहाड़ हम सबके सिर पे टूटा है उससे संभालना है। यह मेरा घर है और इस घर में जब तक मैं जिंदा हूँ मेरी ही चलेगी, बेटी तू पूरी तरह आजाद है अपनी मनमर्जी की जिंदगी जीने के लिए, तेरे ऊपर कोई बंधन नही है तू चाहे जहां रह सब तेरा ही है।

मैं अपने मित्र उदयराज से बात कर लेता हूँ कि तू अब उसके साथ ही मायके में रहेगी, उनकी सेवा करेगी, देखभाल करेगी, नही मानेंगे तो मैं मना लूंगा सब समझा के, क्योंकि यहां तो तेरी सास है, देवरानी है देवर है, उनके पास कौन है कोई नही, तुझे उनके पास होना चाहिए। मैं बात करता हूँ उनसे पर तु कुछ बोल तो सही बस रोये जा रही है, अपनी मन की बात तो बता बेटी।

इतना सुनते ही रजनी रोते हुए अपने ससुर के पैरों में पड़ गयी और बोली- मैं धन्य हूं जो आप जैसे पिता समान ससुर मुझे मिले, जिन्होंने मुझे इतनी छूट दे दी कि मैं उम्र भर भी अपने मायके में अपने बाबू जी के साथ रहूं तो भी उन्हें कोई परेशानी नही, मैं धन्य हूँ पिताजी।

रजनी ने आगे बोला- कौन बेटी नही चाहेगी की वो अपने बाबूजी के साथ रहे बस मुझे यही चिंता होती थी कि आप लोगों की सेवा का फल मुझे नही मिल पायेगा।

बलराज- नही बेटी ऐसा नही है इतने दिन तूने हमारी सेवा तो कर ली न अब वहां उनको तेरी जरूरत है, हम धन्य है तेरी सेवा से, और तेरी जैसी बहू किसी को सौभाग्य से ही मिलती है, बस ये मेरा बेटा ही नालायक निकला।


(इतने में रजनी की देवरानी बोली)

रजनी की देवरानी- दीदी आप फिक्र मत कीजिये हम सब है यहाँ, संभाल लेंगे, कोई परेशानी नही होगी, आप वहां देखिए और संभालिये।

बलराज- ठीक है बेटी मैं कल ही उदयराज से बात कर लेता हूँ


(और फिर रजनी की सास उसकी देवरानी भावुक होकर एक दूसरे से लिपटकर रोने लगी, और काफी देर बाद जाकर एक दूसरे को सांत्वना देकर चुप हुई, रजनी के ससुर और देवर भी भावुक होकर वहां से उठकर बाहर चले गए)

(अगले दिन बलराज ने उदयराज से अपने मन की बात कही, काफी न नुकुर के बाद उसने उदयराज को मना लिया और रजनी उसके अगले ही दिन अपनी बेटी के लेकर अपने मायके अपने बाबूजी के पास आ गयी उनके साथ रहने, उनकी सेवा करने)

(रजनी ने इस वक्त अपने पति के बारे में क्या सोचा, की वह उनके बगैर कैसे रहेगी और वो आ गया तो क्या होगा, रजनी ने अपना ससुराल छोड़कर अपने मायके में अपने पिता के साथ रहने का निर्णय लेने में देरी क्यों नही की, और रजनी के ससुर ने ऐसा क्यों बोला कि "मेरा दिल कहता है कि आने वाले वक्त में तुझे भरपूर सुख मिलेगा" इसके बारे में अगले अपडेट में)
Nice update on the story.
 

Premkumar65

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Update-5

(रजनी घर के अंदर से एक लोटा पानी साथ में गुड़ लेकर बाहर आई)

रजनी- लो बाबू जी पानी।

(उदयराज खाट पर लेटा हुआ था और अंगौछा मुँह पर डाल लिया था)

उदयराज - (खाट से उठते हुए) हाँ बिटिया ला, अरे गुड़ क्यों ले आयी, ऐसे ही पानी दे देती।

रजनी- ऐसे भला क्यों दे देती पानी अपने बाबू को, खाली पानी नही देते पीने को।


(रजनी खाट पर अपने बाबू जी के बगल में बैठते हुए बोली, उसने आज लाल रंग का लहँगा चोली पहना हुआ था, जिसमे वो बहुत खुबसूरत लग रही थी)

उदयराज- ये गुड़ कुछ नया सा लग रहा है, इतना मीठा गुड़ मैंने आजतक नही खाया।

रजनी- बाबू जी ये आपकी बिटिया के हाँथ का गुड़ है जो उसने अपनी ससुराल में बनाया था, और आते वक्त अपने बाबू जी के लिए ले आयी हूं, ये एक नई किस्म के गन्ने से बना गुड़ है। जिसको मैंने बनाया है, ताकि आपके जीवन में मिठास भर सकूँ (रजनी ने बड़े ही चहकते हुए मुस्कुराकर कहा)

उदयराज- बेटी मेरे जीवन की मिठास तो तू है, तेरे आने से तो वैसे ही अब मेरे जीवन में बाहार आ गयी है। मैं बहुत अकेला हो गया था पर अब तेरा साथ पा कर मैं बहुत खुश हूं, और यह गुड़ तो वाकई में तेरा मेरे प्रति प्रेम की मिठास का अहसास करा रहा है।

रजनी- बाबू अब मैं आ गयी हूं न तो अब आप अकेले बिल्कुल नही है, और मैं अब आपके जीवन में ख़ुशियों के रंग भर दूंगी। ऐसा कहते हुए रजनी अपने बाबू जी के गले से लग गयी।

उदयराज- ओह्ह! मेरी बेटी, मेरी लाडली।


(ऐसा कहते हुए उदयराज ने भी रजनी को निष्छल भाव से कस के अपनी बाहों में भर लिया)

(परंतु रजनी की जब मोटी मोटी चूचियाँ उदयराज के सीने से टकराई और दब गई तो उदयराज थोड़ा झिझका, परंतु रजनी अपने बाबू से लिपटी रही, उसके मादक, गदराए बदन ने उदयराज को थोड़ा विचलित सा तो कर दिया पर तुरंत ही उसने मन में आये इस गंदे भाव को झिड़क दिया)

उदयराज ने जब महसूस किया कि रजनी हल्का हल्का सुबुकने सी लगी है तो उसने उसको अपने से थोड़ा अलग करते हुए उसके सुंदर और गोरे गोर चहरे को अपने हांथों में लेकर बोला-

उदयराज- अरे तू रो रही है, क्यों भला, अब मेरे पास आ गयी है फिर भी रो रही है, अभी तो बोल रही थी कि मेरी जिंदगी खुशियों से भर देगी मेरी बिटिया, क्या ऐसे रो रो के भरेगी क्या? ह्म्म्म

रजनी- बाबू ये तो खुशी के आंसू है, सच तो ये है कि मैं आपके बिना नही रह सकती अब, मैं आपको बचपन से ही बोलती आ रही थी न कि मुझे शादी नही करनी, मुझे तो बस आपके साथ रहना है, और आज ईश्वर ने मेरी सुन ली, इसलिए ये आंसू निकल आये।

उदयराज- बेटी मैं भी तेरे साथ ही रहना चाहता था, कौन पिता भला अपनी बेटी के साथ नही रहना चाहेगा पर इस दुनियां के, समाज के नियम कानून तो नही बदल सकते न, मेरा बस चलता तो मैं तेरे जीवन में किसी तरह का कोई दुख आने ही न देता।

रजनी- मैं जानती हूं बाबू, आप मुझे कितना स्नेह करते हैं। पर अब हम कभी दूर नही रहेंगे चाहे जो भी हो।

उदयराज- हां बिल्कुल मेरी बेटी।


(दोनों घर के सामने द्वार पर खुले आसमान के नीचे एक दूसरे को बाहों में लिए खाट पे बैठे थे।
गांव का कोई भी दूसरा इंसान कभी भी इस तरह अपनी जवान गदराई सगी बेटी को बाहों में नही लेता था पर उदयराज और रजनी की बचपन की ये आदत गयी नही थी। जो जवानी में भी बरकार थी। हालांकि कभी भी उनके मन में कभी कोई पाप नही था। ये बस बाप बेटी का एक निश्छल प्रेम था)

तभी सुखिया काकी सामने से आती हुई बोली-

अरे आज बहुत प्यार आ रहा है अपने बाबू पर hmmm

रजनी कुछ झेंपती हुई उदयराज से झट से अलग हो गयी और बगल में बैठते हुए बोली- क्यों न आये काकी कितने दिनों बाद अपने बाबू जी के पास आई हूं।

काकी- अरे बाबा तो करले प्यार पगली मैंने कब मना किया, तुझे तो पता ही है मेरी मजाक करने की आदत है, मैं तो ये कहने आयी थी कि तेरी गुड़िया जो अंदर कमरे में सो रही है वो अब उठ गई है जा के उसको दूध पिला दे, जैसे तुझे अपने बाबू की जरूरत है वैसे ही उसे तेरी।


इतना कहकर काकी हंसने लगी और रजनी भागी भागी घर में गयी और अपने 2 साल की बेटी जो रो रही थी उसको दूध पिलाते हुए बाहर आने लगी।

उदयराज थोड़ी देर काकी से इस बार अगली फसल कब तक बोई जाए इस पर बातचीत करने लगा फिर उठकर उसने जो बोझ फेंका था उसको उठाकर एक साइड में दालान में रखा और बैलों को चारा डालने चला गया।
Beti baap ke beech excitement suru ho raha hai.
 

Premkumar65

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Update-7

उदयराज बैलों को चारा डाल कर आया और आते ही काकी से पूछा- रजनी कहाँ गयी?

काकी- वो रात का खाना बनाने अंदर रसोई में गयी है।


(उदयराज भी सुखिया को काकी ही बुलाता था)

उदयराज- काकी आज गर्मी कितनी है न देखो मैं कितना पसीना-पसीना हो गया, बैलों को चारा डालते-डालते, ये नया बैल जो पिछले महीने खरीदा है न, इसके बड़े नखरे हैं सूखा भूसा तो खाता ही नही है बिल्कुल, जब तक उसमे हरी घास काटकर न मिलाओ, दूसरा वाला पुराना बैल बहुत सीधा है जो दे दो खा लेता है।
इसी नए के चक्कर में रोज घास को मशीन में डालकर काटना पड़ता है और इतना काम बढ़ जाता है। सोच रहा हूँ कुएं पे जा के नहा लूँ।


ऐसा कहते हुए उसने अपनी बनियान निकल दी और खाट पर बैठ गया, काकी जो पंखा बच्ची को कर रही थी वो अब उदयराज को करने लगी स्नेहपूर्वक, और उसके इस उम्र में भी गठीले शरीर को देखते हुए बोली- हां तो जा के नहा ले न कुएँ के ठंडे ठंडे पानी से राहत मिल जाएगी, रस्सी कुएँ पर ही है बाल्टी लेता जा घर के अंदर से, साबुन भी ले लेना कुएं पर होगा नही, रजनी ने दोपहर को हटा दिया था वहां से।

उदयराज खाट से उठा और अंगौछा कन्धे पे रख के घर के अंदर जाने लगा।

(उदयराज के घर का मुख्य दरवाज़ा पुर्व की तरफ था, घर पक्का बना हुआ था, घर में एक आंगन और चारों तरफ चार कमरे थे उन चार कमरों के पीछे एक छोटी सी कोठरी भी थी उस कोठरी के ऊपर घर के पीछे लगे बरगद के पेड़ की ठंडी छाया आती थी जिससे वो कोठरी गर्मियों के मौसम में दिन में भी ठंढी रहती थी, पहले जो औरतें घर में रहा करती थी वो अक्सर कोठरी में ही खाट बिछा के वही लेटती थी। अब तो खैर घर में रजनी और काकी ही थे। घर के मुख्य दरवाजे और आंगन के बीच एक बरामदा था, उन चार कमरों में जो दक्षिण की तरफ कमरा था वो रसोई थी। उसके ठीक सामने जो कमरा था उसके बगल में बाथरूम था और बाथरूम के सामने एक चौकी थी जिसपर पानी से भरी बाल्टियां या खाली बाल्टियां भी रखी रहती थी।

घर के आगे बड़ा सा द्वार था, द्वार पर कई तरह के पेड़ थे जैसे नीम, महुआ, अमरूद, सफेदा, आम, गूलर।

घर के ठीक सामने करीब 100 मीटर दूर कूआं था जो सफेद रंग से पुता हुआ चारों तरफ से क्यारियों से घिरा हुआ बहुत ही सुंदर लगता था, उन क्यारियों में अनार के पेड़ लगे हुए थे जिनपर फूल आ गए थे इसके अलावा वहां कई प्रकार की सब्जियां और फूल भी लगाए हुए थे जो कुएं के आने वाले पानी से हमेशा हरे भरे रहते थे, कुएं से आगे गांव का आम रास्ता था जिसपर इक्के दुक्के लोग आते जाते रहते थे और जब उन्हें उदयराज इधर उधर दिख जाता था तो वो "जय राम जी की मुखिया" कहना नही भूलते थे।

घर के उत्तर की तरफ पशुओं का दालान था और उसके विपरीत दिशा में आम का बाग था)

उदयराज ऊपर से निवस्त्र था बस धोती पहन रखी थी, घर में जाते हुए जब वो बरामदा पार करके आंगन तक पहुंचा तो सामने का दृश्य देखकर स्तब्ध रह गया।

सामने रजनी पीढ़े पर बैठ के सिलबट्टे पर दाल पीस रही थी, पीसने की वजह से वो काफी झुकी हुई थी जिससे उसकी बड़ी बड़ी गुदाज चुचियाँ साफ दिख रही थी, चुचियों के बीच की घाटी इतनी मादक थी कि कुछ सेकेंड के लिए उदयराज देखता रह गया, दाल पीसने की वजह से वो बार बार आगे पीछे हो रही थी जिससे मोटी मोटी चूचियाँ चोली में हिल रही थी मानो अभी उछल कर बाहर आ जाएंगी। रजनी ने गर्मी की वजह से चुन्नी बगल में रख दी थी।

उदयराज यह देखकर थोड़ा झेंप गया पर एक ही पल में उसके अंदर तक रोमांच दौड़ गया, उसे अपने मन में अपनी ही सगी बेटी की सुडौल चुचियाँ देखते हुए ग्लानि हुई और वह बनावटी खांसी करता हुआ आंगन में आ गया।

उसे देखकर रजनी भी अपनी अवस्था देखकर थोड़ा झिझक गयी और चुन्नी उठाकर चुचियों को ढकते हुए अपने बाबू के बलिष्ट ऊपरी नंगे बदन को देखकर थोड़ी शरमा सी गयी, जब से रजनी मायके आयी थी आज पहली बार उसने अपने बाबू को इस तरह नंगा देखा था, इससे पहले उसने अपने बाबू को इस तरह निवस्त्र कई साल पहले देखा था पर इस समय वो पहले से ज्यादा मजबूत और बलिष्ट दिख रहे थे। अक्सर वो बनियान ही पहने रहते थे पर आज एकदम से हल्के बालों से भरी चौड़ी छाती और मजबूत भुजाओं को देखकर वो भी अंदर तक न जाने क्यों सिरह सी गयी।

फिर मंद मंद मुस्कुराते हुए बोली- क्या हुआ बाबू, कुछ चाहिए क्या?

उदयराज- हां बेटी, वो बाल्टी लेने आया था, काफी गर्मी है न तो मन किया कि कुएं पर जा के नहा लूं।

रजनी- हाँ बाबू क्यों नही, साबुन भी लेते जाना, वहीं रखा है, और तौलिया मैं पहुँचा दूंगी आप जा के नहा लो।

उदयराज- ठीक है मेरी रानी बिटिया।


इतना कहकर वो बाल्टी उठाकर जाने लगा फिर न जाने क्यों वो रुका और पलटकर देखा तो रजनी उसे ही देख रही थी, नजरें मिलते ही रजनी मुस्कुरा दी और वो भी मुस्कुराते हुए बाहर कुएं पे चला गया।
Aag dono taraf se slug rahi hai. Jaldi hi bhadkegi.
 

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Update-9

काकी घर में आवाज़ लगाती हुई गई- रजनी! ओ रजनी बिटिया! खाना बन गया?

रजनी- हाँ काकी, लगता है आज आपको जल्दी ही भूख लग गयी। बस दाल में तड़का लगा दूँ, हो गया बस।

काकी- अरे मुझे नही री पगली! मैं तो तेरे बाबू के लिए पूछ रही थी, वो नहा के आया और बाहर खाट पे लेटे-लेटे सो गया, लगता है आज ज्यादा ही थक गया है खेतों में काम करके।

रजनी- क्या! बाबू सो गए, हे भगवान! मैं भी न, वैसे खाना बन गया है मैं उन्हें बुला कर लाती हूँ, आज मैंने उनकी पसंद का खाना बनाया तो वो सो गए जल्दी।
इतना कहते हुए वो बाहर गयी, और काकी बोली- हाँ तू बुला ला मैं दाल में तड़का लगा के निकलती हूँ खाना सबका।

रजनी- हाँ ठीक है।


रजनी बाहर आई एक नज़र अपनी बेटी पर डाला वो पालने में खेल रही थी, ठंढी हवा चल रही थी। बरामदे में लालटेन जल रही थी जिसकी हल्की रोशनी बाहर आ रही थी। अमावश्या की रात होने के कारण घाना अंधेरा था चारों तरह, एक लालटेन पशुओं के दालान के दरवाजे पर जल रही थी लेकिन उसकी रोशनी दूर तक नही थी।

रजनी अपने पिता की खाट पर बैठ गयी और उनके ऊपर झुकते हुए उनके माथे और बालों को सहलाते हुए बड़े प्यार से बोली- बाबू, ओ बाबू, तुम तो सो ही गए, चलो उठो खाना खा लो, बन गया है।

रजनी का इस तरह आधा उसके ऊपर लेटने से उसका मखमली बदन उदयराज को अंदर तक झकझोर गया, रजनी की मोटी मोटी चूचियाँ अपने पिता के सीने से दब गई, जिससे उदयराज जग गया, उसने ये सोचा भी नही था कि आज का दिन इतना खास होगा कि रजनी उसे इस तरह कामुक तरीके से उठाएगी, उदयराज इसके लिए तैयार नही था, उसका मन मयूर झूम उठा, अपनी ही सगी बेटी की भारी उन्नत चुचियाँ उसके चौड़े सीने से दबी हुई थी और उसके सख्त निप्पल उदयराज को बखूबी महसूस हुए, रजनी लगभग आधी अपने पिता पर चढ़ी हुई थी जिससे उसे न चाहते हुए भी नारी बदन से बहुत ही लज़्ज़त का अहसास हुआ और इस हरकत ने एक बार फिर बरसों से दबी हुई उसकी कामेक्छा के तार को हिला दिया, परंतु दूसरे ही छड़ उसने इस गंदे ख्याल को अपने दिमाग से झटक सा दिया और
जैसे ही उसने रजनी को स्नेहपूर्वक अपनी बाहों में भरने की कोशिश की रजनी की बेटी रोने लगी, रजनी ने झट उठकर उसे गोद में उठा लिया और उदयराज बोला- हाँ बेटी चलो, मैं हाथ मुँह धो के आता हूँ, अरे वो ठंडी हवा चल रही थी तो मेरी आँख लग गयी थी ऐसे ही, और इस गुड़िया को यहां किसने अकेले लिटा दिया।

रजनी मुस्कुराते हुए बोली- अरे वो काकी लिटा कर गयी थी पालने में। चलो आप आओ।


इतना कहकर रजनी बेटी को गोद में लेकर घर में चली गयी।

उदयराज घर में आया तो आंगन में काकी ने सबका खाना परोस दिया था, उदयराज ने देखा कि आज उसकी बेटी ने उसकी मनपसंद चीज़ बनाई है तो वो बहुत खुश हुआ और बोला- अरे वाह! आज तो मेरी बिटिया ने ये सब बना डाला।

रजनी बोली- हाँ बाबू, रोज तो मेरे ही मन का बन रहा है, तो आज मैंने सोचा कि आज वो बनाउंगी जो मेरे बाबू को पसंद है। रजनी उदयराज के बगल में बैठ गयी खाना खाने।

फिर सब खाना खाने लगे, उदयराज उंगलियां चाट चाट के खाना खा रहा था,

काकी बोली- आज तू बड़ा उंगलिया चाट चाट के खा रहा है हम्म और हंसने लगी।

रजनी भी हंसने लगी उसके चेहरे पर अलग ही चमक थी।

उदयराज- क्या करूँ काकी खाना ही इतना स्वादिस्ट बनाया है मेरी रानी बिटिया ने।

काकी- अच्छा क्या रोज स्वादिष्ट नही बनता क्या? (काकी ने छेड़ते हुए बोला, रजनी ने काकी की तरफ गोल गोल आंखें घुमाते हुए बड़ी अदा से देखा)

उदयराज- अरे बनता है बाबा, पर आज न जाने क्यों बहुत ही मन को भा रहा है।

रजनी- बाबू अब आपके लिए हर रोज़ मैं ऐसे ही खाना बनाउंगी।

काकी- अरे अपनी उंगलिया कम चाट, चाटना है तो उसकी उंगलियां चाट जिसने ये बनाया है (काकी ने फिर छेड़ते हुए कहा)

उदयराज- अरे हाँ काकी तूने सही कहा।

और इतना कहकर उदयराज ने बगल में बैठी रजनी का हाँथ पकड़कर चूम लिया और रजनी अपने बाबू की इस हरकत से जोर से हंस पड़ी, उसे अजीब सी गुदगुदी हुई।

रजनी- अरे मेरे बाबू, आपको इतना प्यार आ रहा है मेरे ऊपर, आपने मुझे गदगद कर दिया, लाओ अब मैं ही आपको अपने हाँथ से खिला देती हूं खाना। (रजनी ने मन में सोचा की देखो मेरे बाबू जी का अकेलापन दूर होने से वो अब कितना खुश हैं, मैं इनका साथ कभी नही छोडूंगी, ऐसे ही प्यार दूंगी)

उदयराज- (हंसते हुए) नही नही बेटी फिर कभी खिलाना अपने हाँथ से अभी तू खाना खा।


काकी भी बाप बेटी का ऐसा प्यार और उदयराज की बचकानी हरकत को देखकर हंसने लगी।

उदयराज बहुत खुश था उसकी जिंदगी में मानो जैसे बाहर सी आ गयी थी, इतना खुश काकी ने उसे काफी सालों बाद देखा था।

सबने मिलके खाना खाया और फिर बाहर आ गए, रजनी बर्तन धोने लगी और काकी ने गुड़िया को पालने में लिटा दिया।

उदयराज अपना बिस्तर उठा के कुएं के पास ले गया वहां सीधी ठंडी हवा आ रही थी।

रोज की तरह काकी ने अपना और रजनी का बिस्तर द्वार पे ही नीम के पेड़ के नीचे लगा दिया बिस्तर अक्सर रजनी ही लगती थी पर आज काकी ने लगाया।

इतने में रजनी बर्तन धो के बाहर आ गयी और अपने बिस्तर पर आके बैठ गयी और बोली- अरे बाबू अपना बिस्तर वहां कुएं के पास ले गए आज।

काकी- हां उधर सीधी ठण्डी हवा आती है न इसलिए।

रजनी ने गुड़िया को गोद में लिया और अपने बिस्तर पर लेटते हुए बोली- काकी

काकी- हम्म

रजनी- मुझे अपना शेरू नही दिखाई दिया जब से मैं आयी हूँ। कहाँ गया वो? (शेरू उदयराज के कुत्ते का नाम था जब रजनी की शादी नही हुई थी उस समय उदयराज उसे नदी के पास से ले आया था उस वक्त शेरु छोटा था जिसे रजनी ने पाला था)

काकी- क्या बताऊँ बेटी जब से तेरे बापू अकेले हुए, शेरु भी अकेला सा हो गया था फिर उसकी आदत बिगड़ गयी और वो घुमक्कड़ किस्म का हो गया है, 3-4 दिन में एक बार ही अपने घर आता है 1, 2 दिन रहेगा फिर इधर उधर घूमना चालू कर देगा। देखो क्या पता कल सुबह घूमता फिरता आये अपने घर।

रजनी- शेरु अपना कुत्ता कितना अच्छा था न, मेरे न रहने से देखो सब जैसे बेसहारा हो गए थे इतना कहके रजनी थोड़ी भावुक सी हो गयी फिर बोली अच्छा काकी उसकी कुतिया भी होगी न जो हमेशा उसके साथ रहती थी, जिससे उसके कई बच्चे हुए थे, वो सब कहाँ है?

काकी- वो तो मर गयी बेटी, कई बच्चे भी मर गए, कुछ को दूसरे गांव वाले उठा ले गए पालने के लिए, अभी इस वक्त तो उसकी एक बेटी है।जिसका नाम मैंने बीना रखा है।

रजनी- अच्छा, तो वो कहाँ है, कितनी बड़ी है।

काकी- अरे वो भी तेरी तरह अपने बाप से बहुत प्यार करती है, जहां जहां शेरु जाएगा बीना भी उसके पीछे पीछे जाएगी, बीना भी अब काफी बड़ी हो गयी है, लगभग शेरु के बराबर ही हो गयी है, सफेद रंग की है।

रजनी- अच्छा, इतना प्यार है बाप-बेटी में

काकी- हम्म, और क्या, अगर शेरु को खाना दो, तो जबतक बीना आ नही जाएगी तबतक वो अकेले खाना छूता भी नही है।

रजनी को बड़ा आश्चर्य हुआ और वो उनको देखने के लिए उतावली हो गयी और काकी से बोली- देखो न काकी मेरे न होने की वजह से मेरे शेरु को भी दर-दर भटकना पड़ रहा है, सब कितना बिखर-बिखर सा गया था न, लेकिन अब मैं सब सही करूँगी।

काकी- हाँ बेटी बिल्कुल, (काकी आगे बोली) आजकल तो शेरु कुछ अलग ही शरारत करता है बीना के साथ, एक दो दिन देखा था मैंने।

रजनी- क्या? क्या शरारत करता है शेरु, कोई बाप अपनी बेटी से शरारत करेगा क्या?

काकी- अरे हाँ करता है वो।

रजनी- ऐसा क्या करता है वो (उत्सुकता से)

काकी- अरे वो बीना का पिशाब का रास्ता सूंघता है (काकी थोड़ा फुसफुसाते हुए सही शब्द का प्रयोग न करके कुछ इस तरह बोली)

रजनी- ईईईशशशशश.....क्या काकी! सच में, हे भगवान!, बेटी है वो उसकी, ऐसा क्यों करता है वो।

काकी- मुझे लगता है कि बीना अब बड़ी हो गयी है, वो यौनाग्नि में गरम हो रही है धीरे धीरे, अब ये तो जानवर हैं बेटी, इनके लिए क्या रिश्ता नाता, पर देखने में मजा आ जाता है, कैसे सूंघता है वो बीना की.....बू

रजनी जानती थी कि काकी क्या बोलने वाली है वो भी थोड़ी गरम हो गयी थी ये सुनकर तो वो बात काटते हुए बोली- कब देखा था काकी अपने?

काकी- अरे यही कोई 4 दिन पहले।
रजनी- पर काकी मुझे बड़ी हैरानी हो रही है सुनके, वो बेटी है उसकी, सगी बेटी।

काकी- बेटी ये नशा ही ऐसा होता है, जब चढ़ जाता है तो कुछ नही देखता, और फिर वो तो जानवर हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नही पड़ता। तुझे दिखाउंगी किसी दिन।


रजनी काफी गर्म हो जाती है ये सोचकर कि एक बाप अपनी ही सगी बेटी की बूर कैसे सूंघ सकता है, कैसा लगता होगा उस वक्त, उसकी सांसें उखड़ने सी लगती है, कितना गलत है ये, फिर भी इसमें मजा क्यों है? सोचकर ही कैसा लग रहा है। बड़ी मुश्किल से अपने को संभाल कर काकी को सोने को बोलकर खुद भी सोने लगती है और कुछ ही पल में नींद के आगोश में चली जाती है।
Super update.
 

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Update-11

एक दो दिन ऐसे ही बीत गए

एक दिन रजनी कुएं के पास फूल तोड़ रही थी तो सामने से जाती हुई नीलम जो उसकी बचपन की सहेली थी उसने आश्चर्य से देखा तो बोली- अरे रजनी तू कब आयी?

रजनी- अरे नीलम तू कैसी है? मुझे तो आये कुछ दिन हो गए।

नीलम- बड़ा गदरा गयी है तू, जीजा जी खूब मेहनत कर रहे हैं क्या?

नीलम बहुत मजाकिया किस्म की थी, बेबाक कुछ भी बोल देती थी।

रजनी- उनके बस का है जो करेंगे? मुझसे मतलब होता तो लापता ही क्यों होते?

नीलम- क्या... लापता?

रजनी- हाँ, कुछ पता नही कहाँ गए, एक साल होने को आया, मुझे तो रहना भी नही अब उनके साथ, है न मेरे बाबू अब यहीं रहूंगी हमेशा।

नीलम- अब यहीं रहेगी, मायके में, हाँ ठीक है और क्या, जब उन्हें तेरी कोई कद्र नही तो तू क्यों फिक्र करेगी, तू भी अपनी मनपसंद जिंदगी जी, एक बात बोलूं।

रजनी- हाँ बोल

नीलम- जितना प्यार तुझे तेरे बाबू करते हैं, दुनिया में कोई नही करेगा। वही तेरा ख्याल रखेंगे, वही फिक्र करेंगे और कोई नही।

रजनी- (मन में गदगद होते हुए) मैं भी उनकी सदा सेवा करूँगी, हमेशा उनके पास ही रहूंगी।


इस तरह रजनी और नीलम कुछ देर बात करती रहीं फिर नीलम चली गयी।

रजनी घर में आई तो काकी से बोली- काकी वो जो घर के पीछे बरगद का पेड़ है न वहां क्यारी में सब्जियां लगाई हुई हैं।

काकी- हाँ लगाई तो हैं फिर

रजनी- उसकी निराई गुड़ाई करनी है तो मैं जाती हूँ कर दूंगी।

काकी- रुक मैं भी चलती हूँ, गुड़िया तो सो गई है, मैं भी चलती हूँ।

रजनी - ठीक है चलो।


दोनों घर के पीछे क्यारी में आ जाती है बरगद के पेड़ के नीचे, वहां काफी घनी छाया होती है।

रजनी और काकी दोनों को अभी काम शुरू किये कुछ ही देर हुआ था कि इतने में बीना वहां आ जाती है। कुछ ही देर में शेरु भी पीछे पीछे आ जाता है।

आज तो बहुत ही गर्मी पड़ रही है न काकी, लेकिन यहां बरगद के नीचे काफी राहत है- रजनी ने बोला

शेरु और बीना भी गर्मी से हांफ रहे थे बीना ने पैर से जमीन में थोड़ा गढ्ढा किया, और फिर उसमें बैठ गयी, जमीन में काफी नमी थी तो उसे ठंडक महसूस हो रही थी वहां।

शेरु बीना के आस पास घूम रहा था, बीना आज कुछ ज्यादा ही कूं कूं कर रही थी।

काकी बोली- रजनी देख ये दोनों भी यही आ गए, आज इनका मुझे कुछ गड़बड़ लग रहा है, आज मुझे लग रहा है कि शेरु बीना की बूर सूंघेगा। मौसम आज गरम है लगता है कि बीना को गर्मी बर्दाश्त नही हो रही।

रजनी ने एकदम से काकी की तरफ देखा, उसने नही सोचा था को काकी बूर शब्द बोलेंगी, वो शर्मा गयी और मुस्कुरा दी।

तभी शेरु ने वो किया जिसका काकी को अनुमान था, शेरु पहले तो थोड़ी देर इधर उधर घूमता रहा फिर एकदम से बीना की बूर को सूंघने लगा, बीना खड़ी हो गयी, ताकि शेरु को आराम से अपनी बूर सुंघा सके।

रजनी को अपनी आंखों के सामने ये दृश्य देखकर विश्वास नही हुआ।

रजनी- काकी ये तो सच में अपनी ही बेटी की बूर सूंघ रहा है बेशर्म।

काकी- देख ले अब खुद ही, मैं न कहती थी।


इतने में ही शेरु जीभ निकाल के बीना की बूर को अब चाटने लगा, बीना की बूर से हल्का हल्का पेशाब निकल जाता, और वो थरथरा जाती, पर शेरु को पूरा सहयोग कर रही थी

रजनी को काटो तो खून नही, वो इस बात से चकित थी कि बीना पूरा सहयोग कर रही थी, उसे भी मजा आ रहा था। एक बाप अपनी बेटी की बूर कैसे चाट सकता है, पर अब ये उसके सामने हो रहा था तो उसे विश्वास करना ही था।

रजनी गरम होने लगती है, काकी का भी कुछ ऐसा ही हाल था पर ज्यादा नही।

इतने में नीलम वहां आ जाती है, नीलम का खेत रजनी के घर के पीछे ही था, वो खेत में कुछ घास लेने आयी थी, रजनी और काकी को देखती है तो उनके पास आ जाती है अभी तक नीलम की नजर शेरु पर नही पड़ी थी पर जैसे ही नज़र पड़ती है-

नीलम- हाय दैया! रजनी ये तेरा शेरु तो अपनी बेटी की ही बूर चाट रहा है, उफ्फ्फ!

रजनी की सांसे तो पहले ही तेज़ हो चुकी थी अब नीलम भी एक टक लगा के देखने लगी।

काकी क्यारी में गुड़ाई करती और कनखियों से देख लेती पर रजनी और नीलम एक टक लगा के देख रहे थे।

शेरु बीना के चारो तरफ घूमने लगा, बार बार घमता फिर पीछे आ के बूर को सूंघता फिर चाटने लगता, जैसे ही शेरु बीना की बूर को जीभ लगता रजनी को ऐसा लगता कि जैसे शेरु की जीभ उसकी खुद की बूर पर लग रही हो और वो बैठे बैठे ही अपनी जांघों से अपनी बूर को हल्का सा दबा लेती, और iiisssssshhhhhhh की आवाज उसके मुंह से निकल जाती, नीलम का भी यही हाल हो चला था, वो भी अब वहीं बैठ गयी।

आज विक्रमपुर में ये अनर्थ और महापाप हो रहा था भले ही जानवर के रूप में ही क्यों न हो।

काकी, रजनी और नीलम अब तीनो ये नज़ारा देखने लगी, काकी का तो कम, पर रजनी और नीलम का अब हाल बुरा होने वाला था, क्योंकि उन्होंने कभी कुत्ता कुतिया की चुदाई नही देखी थी

बीना चुपचाप खड़ी थी और शेरु चपड़ चपड़ उसकी बूर चाटे जा रहा था, बीना अब बिल्कुल गरम हो चुकी थी, बूर चाटते चाटते एकदम से ही शेरु का बड़ा सा लंड बाहर आ गया

रजनी की तो अब हालत खराब हो गयी अपने ही शेरु का लाल लाल लंड देखके,

रजनी (फुसफुसाते हुए)- काकी देखो तो इसका कैसा है, कितना लाल और बडा सा है, और हाय! अपनी ही सगी बेटी की बूर चाटने में इसको कितना मजा आ रहा है।

रजनी भी अब बेशर्मी से "बूर" शब्द बोल गयी।

काकी- अपनी बेटी का ख्याल रखता है तो उसकी ये इक्छा भी तो वही पूरी करेगा न, मुझे तो लग रहा है कि अब पक्का चोदेगा बीना को।


नीलम- हे भगवान कितना मजा आ रहा होगा इन दोनों को, रजनी तेरा कुत्ता तो बहुत भाग्यशाली है रे घर में ही मिल गयी इसको तो बूर वो भी अपनी ही बेटी की।


रजनी का शर्म और मजे से बुरा हाल था।

तभी शेरु का पूरा लंड बाहर आ गया, वो करीब 6 इंच तक लंबा और 2 इंच मोटा होगा, रजनी उसे उखड़ी उखड़ी सी देखती रही, उसकी खुद की दबी हुई चुदास को उसके खुद के ही कुत्ते की कामलीला ने जगा दिया था।

तभी शेरु एकदम से उछला और बिना के ऊपर चढ़ गया और अपना लंड बीना की फूली हुई बूर के मुहाने पर लगाने लगा पर असफल हो गया और नीचे खड़ा हो गया, फिर उसने दुबारा सुंघा, चाटा और फिर चढ़ गया, चढ़ते ही वो जोश के मारे तेज तेज धक्के मारने लगा, उसका लंड बार बार कभी बीना की बूर की दायीं फांक पर टकराता कभी बाई फांक पर टकराता, कभी कभी बीना भी थोड़ा हिल जाती, पर तभी एकदम से निशाना सही बैठा और शेरु का लंड बीना की बूर में जड़ तक समा गया।

रजनी और नीलम के मुंह से aaaaahhhhhhhh! uuuuuuuuuiiiiiiiiiimmmaaaaaaaaaannn निकल गया, जैसे शेरु का लंड उनकी ही बूर में घुस गया हो।

काकी- आखिर बीना ने अपने बाप को दे ही दिया इनाम, मैंने शेरु को, जबसे बीना की माँ मरी है आजतक किसी दूसरी कुतिया को चोदते नही देखा, और आज देखो अपनी ही बेटी को कैसे घच्छ घच्छ चोद रहा है। आखिर बेटी की बूर का मजा ही कुछ और है।

नीलम - hhhaaaaiiiiiiii काकी क्या क्या बोले जा रही हो, आपको कैसे पता कि बाप को बेटी की बूर चोदने में ज्यादा मजा आता है, आपने चुदवा रखा है क्या अपने बाबू से (नीलम से तपाक से मजे लेते हुए कहा, और रजनी खिलखिला के हंस पड़ी)

काकी- अरी कहाँ रे नीलम, मेरे बाबू अगर मेरा इतना ख्याल रखते होते न जितना तुम लोगों के और खासकर रजनी के बाबू रखते है तो मैं तो सच कह रही हूं उनको घर की चार दिवारी के भीतर छुप छुप के बूर का ऐसा मजा देती की उनका जीवन धन्य हो जाता। पर हाय री किस्मत। खैर अब तो वो हैं ही नही इस दुनियां में।


रजनी और नीलम ये सुनकर दंग रह जाती है, की काकी ने कैसे बड़े ही बेशर्म तरीके से अपने मन में छुपी हुई बात इतने बेबाक तरीके से कह दी।

रजनी को आज काकी के कामुक स्वभाव का आभास हुआ था, काकी की ऐसी बातें सुनकर उसके अंदर की चुदास पूरी तरह खुल गयी, अभी तक वो गंदी बात करने से या अपने अंदर की छुपी हुई कामाग्नि को जाहिर करने से झिझकती थी काकी के सामने, क्योंकि वो उसकी माँ समान थी, उसने उसे बचपन से पाला पोशा था, और रजनी सभ्य भी थी, पर आज खुद जब काकी ऐसी गंदी बात खुलकर उसके ही सामने बोल गयी, तो उसे ऐसा लगा कि उसे एक साथी मिल गया हो, जिससे वो खुलकर गंदी बात कर सकती है, उसने मन में सोचा कि वो काकी से बाद में घर में जाकर इस विषय पर बात करेगी।

नीलम सलवार के ऊपर से ही अपनी बूर को हल्का हल्का सहला रही थी।

रजनी उसे देखकर हंस पड़ी और बोली-, तेरे से बर्दाश्त नही हो रहा तो तू भी चुदवा ले मेरे शेरु से।

नीलम- hhhhhaaaaiiiii चुदवा लेती यार, पर उसे तो अपनी बेटी ही चोदनी है। बेटी चोदने का मजा अलग ही होगा न। और बीना को देखो कैसे मजे से अपने ही बाप के मोटे से लंड से चुद रही है, कैसे गचा-गच लन्ड बूर में जा रहा है, आखिर बाप से चुदने का मजा अलग ही होगा न।

रजनी को नीलम की ये बात अंदर तक झकझोर देती है कि- "बाप से चुदने का मजा ही अलग होगा न" तो उसका चेहरा शर्म से लाल हो जाता है।

रजनी कामुक अंदाज में- तो तू अपने बाबू जी को लाइन मार न क्या पता बात बन जाये (रजनी ने चुटकी लेते हुए कहा)

नीलम- dhatt पगली, बेशर्म, मैं तो ऐसे ही कह रही थी (हालांकि नीलम के बदन में ये सोचकर झुरझुरी सी दौड़ गयी)


शेरु ताबड़तोड़ बीना की बूर में धक्के लगाए जा रहा था, बीना की बूर अब पूरी खुल चुकी थी वो शांत खड़ी थी और अपने ही बाप को अपनी कमसिन बूर चखाने में भरपूर सहयोग कर रही थी
the fire is igniting.
 

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Update- 12

काफी देर बीना की बूर चोदने के बाद शेरु अपनी बेटी की बूर में थरथरा के झड़ने लगा, बीना का भी कुछ ऐसा ही हाल था, बाप बेटी का मिलन हो चुका था।

ये देखकर रजनी बेहाल सी हो गयी, नीलम के मुंह से aaaahhhhh निकल गया ये देखकर और वो बोली- hhhaaaiiii अब फंस जाएंगे ये दोनों एक दूसरे में, अटक जाएगा शेरु का बीना की बूर में, कितना मजा आ रहा होगा दोनों को uuuuffffff.

इतने में दूर से गांव की कोई औरत उस तरफ आती दिखाई दी तो नीलम ये बोलकर की काकी मैं चलती हूँ, आज तो मजा ही आ गया इनको देखकर, अब तो ये ऐसे ही कुछ देर अटके रहेंगे, कोई हमे देखेगा इनको देखते हुए तो क्या सोचेगा, मैं चलती हूँ

रजनी की सांसे धौकनी की तरफ ऊपर नीचे हो रही थी, वो उसे देखकर हंस पड़ी, इतने में नीलम उठी और अपने घर की तरफ भाग गई।

रजनी का भी अब काम में कहां मन लगता उसकी तो हालत खराब हो चली थी, वो बार बार कभी काम करने लगती तो कभी बीना की बूर में अटके हुए शेरु के लंड को देखती और सिरह जाती। फिर वो एकदम से उठी और बोली- काकी अब रहने दो चलो मुझसे नही होगा अब काम, बाद में कर लेंगे, फिर वो भी घर के पीछे वाली कोठरी में जिसका एक दरवाजा बाहर की तरफ खुलता था उसको खोलकर कोठरी में चली गयी और वहां पड़ी खाट पर औंधे मुंह पसर गयी, वो जैसे हांफ रही थी, सांसे काफी तेज चल रही थी उसकी, बार बार वो अंगडाई लेती आंखें बंद करती तो कभी शेरु और बीना की चुदाई उसके सामने आ जाती तो कभी उसके बाबू का गठीला मर्दाना जिस्म, अनायास ही उसके मुंह से निकल गया- aaaaahhhhhhh बाबू, पास होकर भी क्यों हो तुम मुझसे इतना दूर। ऐसे ही वो बुदबुदाते जा रही थी

तभी काकी घर में आती है तो देखती है कि रजनी कोठरी में खाट पे लेटी है।

रजनी उन्हें देखती है तो उठकर बैठ जाती है, काकी उसके पास बदल में खाट पे बैठ जाती है और उसको अपने सीने से लगते हुए बोलती है- मैं जानती हूं बिटिया तेरी हालत, आखिर मैं भी एक स्त्री हूँ, मैं भी इस अवस्था से गुजरी हूँ।

रजनी बेधड़क काकी के गले लग जाती है और बोलती है- काकी हम स्त्रियों को आखिर इतना तड़पना क्यों पड़ता है, हमारा क्या कसूर है, हम स्वच्छन्द क्यों नही, क्यों नही हम अपने मन की कर सकते? क्यों हम इतना मान मर्यादा में बंधे हैं?

रजनी ने एक ही साथ कई सवाल दाग दिए

काकी- मैं तेरी तड़प समझ सकती हूं बिटिया।
स्त्री के हिस्से में अक्सर आता ही यही है, पुरुष स्वच्छन्द हो सकता है पर स्त्री इतनी जल्दी नही हो पाती खासकर हमारे गांव और कुल में, यहां कोई गलत नही कर सकता, करना तो दूर कोई सोच भी नही सकता, खासकर पुरुष वर्ग, स्त्रियां तो बहक सकती हैं पर जहां तक मैं जानती हूं हमारे कुल के पुरुष तो जैसे ये सब जानते ही नही है, हमारे गांव और कुल में तो ऐसा है कि अगर किसी की स्त्री या मर्द मर जाये या उसको उसका हक न दे तो वो पूरी जिंदगी तड़प तड़प के बिता देगा या बिता देगी पर कोई ऐसा काम नही करेंगे जिससे हमारे गांव की सदियों से चली आ रही मान मर्यादा भंग हो, हमारे पूर्वजों के द्वारा संजोई गयी इज्जत, कमाया गया नाम (कि इस कुल में, इस गांव में कभी किसी भी तरह का कुछ गलत नही हो सकता) कोई मिट्टी में नही मिलाएगा, यही चीज़ हमे दुनियां से अलग करती है
इसलिये ही हम जैसे लोग जो विधवा है, या जिनके पति नही है, या ऐसे पुरुष जिनकी पत्नी नही हैं उनकी जिंदगी एक तरह से नरक के समान ही हो जाती है, किसी से कुछ कह नही सकते, बस तड़पते रहो।

काकी कहे जा रही थी और रजनी उनकी गोदी में लिपटे सुने जा रही थी।

रजनी- लेकिन काकी ये कहाँ तक सही है, क्या ये तर्क संगत है?

काकी कुछ देर चुप रहती है और रजनी आशाभरी नज़रों से उनकी आंखों में देखती है।

काकी- नही! बिल्कुल नही मेरी बेटी। ये गलत है, पर हम स्त्रियाँ कर भी क्या सकती हैं

रजनी- क्या हमारे कुल के पुरुष, हमारे गांव के मर्द इतने मर्यादित है, मेरे बाबू भी ( रजनी ने फुसफुसके कहा)

काकी- मैं पक्के तौर पर नही कह सकती बेटी, ये तो खुद औरत को मर्द का मन टटोल कर देखना पड़ता है कि उसके मन में क्या है?

रजनी- अच्छा काकी क्या सच में आप वो करती अपने बाबू के साथ (रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा)

काकी- क्या? (जानबूझकर बनते हुए)

रजनी- वही जो अपने बाहर कहा था

काकी उसकी आँखों में देखती हुए- क्या कहा था मैंने?

रजनी काकी का हाँथ हल्का सा दबाते हुए भारी आवाज में फुसफुसाते हुए बोली- यही की आप अपने बाबू को अपनी बूर का मजा उनको देती अगर वो मेरे बाबू जैसे होते।

काकी- hhhhaaaaiiiiii, हां क्यों नही, क्यों नही देती भला, आखिर ये उनका हक होता न, आखिर उन्होंने मुझे पाल पोष के बड़ा किया, मेरा इतना ख्याल रखा, और अगर मुझे ये पता लगता कि वो मुझसे वो वाला प्यार करते है जो एक औरत और मर्द करते है, या मुझे ये पता लगता कि वो मुझे दूसरी नज़र से देखते है तो मैं भला क्यूं पीछे रहती। भले ही वो मेरे पिता थे पर थे तो वो भी एक मर्द ही न। (काकी की भी आवाज भर्रा जाती है)

रजनी फिर से गरम होते हुए- पर काकी आपको ये कैसे पता लगता, आप ये अंतर कैसे कर पाती की वो आपको बेटी की नज़र से नही देख रहे बल्कि वासना की नजर से देख रहे हैं

काकी- ये तो बिटिया रानी औरत को खुद ही पता लगाना होता है कि उसके घर के मर्द उसे किस नज़र से देखते हैं। उनकी हरकतों से।

रजनी काफी देर सोचती है फिर

रजनी- तो काकी सच में आपने अपने बाबू को मजा दिया था।

काकी- नही री पगली, मेरी ऐसी किस्मत कहाँ, मेरे बाबू मुझे ज्यादा मानते नही थे, बचपन में ही उन्होंने मेरा विवाह कर दिया और मैं यहां ससुराल चली आयी, उसके कुछ ही सालों बाद तेरे काका चल बसे और मैं विरह में कई वर्षों तक तड़पती रही, अब तो जैसे आदत पड़ गयी है, तेरे जैसी मेरी किस्मत कहाँ मेरी की मेरे ससुराल वाले बोलते की बेटी तू उम्र भर अपने पिता के पास रह सकती है।

रजनी को मन ही मन इस बात पे नाज़ हुआ।

काकी- तू मुझे गलत तो नही समझ रही न बेटी।

रजनी- ये क्या बोल रही हो काकी, आप तो मेरी माँ जैसी हो, और आज तो मैं और भी खुश हूं कि एक दोस्त की तरह आपने अपने मन की बात अपनी इस बिटिया को बताई, कोई बात नही छुपाई, मुझे तो आज आप पर नाज़ हो गया जो मुझे आप जैसी माँ मिली, जो मेरा दर्द समझ सकती है।

रजनी और काकी एक दूसरे को गले से लगा लेती हैं

काकी- ओह्ह! मेरी बेटी, बेटी मैं कोई ज्ञानी या सिद्ध प्राप्त स्त्री तो नही की भविष्य देख सकूँ पर इतना तो मेरा मन कहता है कि जो पीड़ा मैन झेली है वो तू नही झेलेगी, तेरे हिस्से में सुख है, समय अब बदलेगा, जरूर बदलेगा।

ऐसे कहते हुए वो रजनी के माथे को चूम लेती है और बोलती है कि तू जाके नहा ले गर्मी बहुत है थोड़ी राहत मिल जाएगी, शाम हो गयी है तेरे बाबू भी आते होंगे

रजनी- हाँ काकी


और रजनी नहाने चली जाती है, काकी कुछ देर बैठ के सोचती रहती है फिर अचानक ही गुड़िया उठ जाती है तो काकी उसको लेके बाग में घूमने चली जाती है रजनी के ये बोलकर की वो नहाने के बाद गुड़िया को दूध पिला देगी।

रजनी को नहाते नहाते काकी की बात याद आती है की औरत को खुद ही अपने घर के मर्द का मन टटोलना पड़ता है कि वो उसको किस नज़र से देखता है, और इस वक्त घर में एक ही मर्द था वो थे उसके पिता, यह बात सोचकर वो रोमांचित हो जाती है, और सोचती है कि वो अब ऐसा ही करेगी। वो उस दिन कुएं पर हुई बात सोचती है कि कैसे उस दिन बाबू ने मुझे बाहों में भरकर मेरी पीठ को सहला दिया था और मेरी सिसकी निकल गयी थी। हो न हो उसके मन में कुछ तो है।

ऐसा सोचते हुए वो जल्दी जल्दी नहा कर एक गुलाबी रंग की मैक्सी डाल लेती है। आज गर्मी बहुत थी और अभी खाना भी बनाना था, फिर वो गुड़िया को दूध पिलाती है और खाना बनाने के लिए चली जाती है।

आज काफी देर हो गयी पर उदयराज अभी तक आया नही था, अंधेरा हो गया था, रजनी खाना बनाते हुए बार बार बीच में उठकर बाहर आती और जब देखती की उसके बाबू अभी तक नही आये तो उदास होकर फिर जाके खाना बनाने लगती।

काकी इस वक्त गुड़िया को लेके अपने घर की तरफ गयी हुई थी कि तभी उदयराज हल और बैल लेके आ जाता है, बैल बंधता है और पसीने ले लथपथ सीधा घर में रजनी, ओ रजनी बोलता हुआ जाता है।

रजनी उदयराज को देखके चहक उठती है वो उस वक्त आटा गूंथ रही होती है अपने बाबू के मजबूत और गठीले बदन पर जब उसकी नजर जाती है तो वो रोमांचित हो जाती है और उदयराज के जिस्म की पसीने की मर्दानी गंध उसको बहुत मनमोहक लगती है, वो उदयराज से बनावटी गुस्सा दिखाते हुए बोलती है कि- क्या बाबू, कब से मैं राह देख रही हूं आज इतनी देर।

उदयराज अपनी बेटी को आज मैक्सी में देखकर बहुत खुश होता है और बोलता है- बेटी, मैं तो वक्त से ही घर आने के लिए निकला था कि रास्ते में कुछ लोग मिल गए तो उन्ही से बात करने लगा।

रजनी- अच्छा! लगता है आपको अपनी बेटी की याद नही आती (रजनी ने जानबूझकर ऐसे बोला)

उदयराज- याद नही आती तो भला घर क्यों आता मेरी बिटिया रानी। बस इतना है कि थोड़ी देर हो गयी, और अब मेरी बेटी अगर इस बात से मुझसे नाराज़ हो जाएगी तो मैं तो जीते जी मर जाऊंगा।

रजनी - आपकी बेटी आपसे नाराज़ नही हो सकती ये बात उसने आपसे पहले भी कही है न बाबू

रजनी आटा गूथ रही थी और उसका मादक बदन हिल रहा था, उदयराज सामने खड़ा खड़ा एक टक उसे ही देख रहा था, रजनी कभी शर्मा जाती, कभी मुस्कुरा देती, कभी खुद सर उठा के अपने बाबू की आंखों में देखने लगती।

फिर रजनी एकाएक बोली- ऐसे क्या देख रहे हो मेरे बाबू जी, अभी सुबह ही तो देखके गए थे, क्या मैं माँ जैसी दिख रही हूं क्या? और मुस्कुराके हंस दी।

उदयराज- अपनी बेटी को देख रहा हूँ, जो कि अपनी माँ से भी कहीं ज्यादा खूबसूरत है, और इस वक्त मुझे लगता है कि मुझसे नाराज है।

रजनी फिर हंसते हुए - अरे बाबू मैं आपसे गुस्सा नही हूँ मैं तो ऐसे ही बोल रही थी।

उदयराज- काकी कहाँ है?

रजनी- वो गुड़िया को लेके अपने घर की तरफ गयी हैं।

उदयराज- कितनी देर हो गयी?

रजनी- अभी अभी तो गयी हैं

अब उदयराज ने बड़ी ही चालाकी से ये बात घुमा के बोली- तो अगर एक बेटी अपने पिता से नाराज़ नही होती, और घर में उन दोनों के सिवा कोई न हो, तो भला वो अपने पिता से इतना दूर होती।

रजनी ने जब ये सुना और इस बात का अर्थ समझा की उसके बाबू क्या चाहते हैं तो उसके चेहरे पर उत्तेजना के भाव आ गए और वो मुस्कुराते और शर्माते हुए आटा गूँथना छोड़कर भागकर उदयराज के गले लग जाती है, उदयराज उसे और वो उदयराज को कस के बाहों में भर लेते हैं। एक बार फिर रजनी का गुदाज बदन उदयराज की गिरफ्त में था, इस बार वो रजनी की पीठ फिर सहला देता है और रजनी की aaahhhh निकल जाती है,
रजनी अपना हाँथ उदयराज की पीठ पर नही रख पाती क्योंकि उसके हाँथ में आटा लगा होता है, परंतु उदयराज उसे कस के अपने से इतना सटा लेता है कि उसका एक एक अंग उदयराज के अंग से भिच जाता है।
रजनी उदयराज की आंखों में मुस्कुराके देखने लगती है, और अपने पिता की मंशा पढ़ने लगती है, उदयराज भी रजनी की आंखों में देखने लगता है।

रजनी खिलखिलाकर हंसते हुए- अब आपको पता चला कि मैं आपसे नाराज़ नही हूँ।

उदयराज- हाँ, तुम मुझसे नाराज़ होगी न तो मैं तो जी ही नही पाऊंगा अब।

रजनी- अपनी बेटी से इतना प्यार करने लगे हो।

उदयराज- बहुत

रजनी- पहले तो ऐसा कभी नही किया

उदयराज- क्या नही किया।

रजनी- (लजाते हुए), यही की जब कोई न हो तब बेटी को बाहों में लेना।

उदयराज- मेरी बेटी है ही इतनी खूबसूरत, की क्या करूँ, उसकी खूबसूरती को बाहों में भरकर मेरी थकान मिट जाती है।

रजनी खिलखिलाकर हंस दी- अच्छा आपकी थकान बस इतने से ही मिट गई।

उदयराज- हाँ सच।

रजनी- तो मुझे रोज अकेले में बाहों में ले लिया करो, जब जी करे, और कहके हंसने लगी

उदयराज उसके लाली लगे हुए होंठो को देखने लगा, की तभी काकी की आहट सुनाई दी, रजनी ने जल्दी से उदयराज के कानों में फुसफुसाते हुए कहा- काकी आ रही है, अब बस करो, मेरे बाबू

उदयराज- मन नही भरा मेरा।

रजनी- थकान नही मिटी, अभी तक (हंसते हुए)

उदयराज- नही, बिल्कुल नही

रजनी ने आज पहली बार शर्माते हुए एक बात उदयराज के कान में बोली- आज जल्दी सो मत जाना रात को आऊंगी आपके पास, फिर थकान मिटा लेना।

उदयराज- जिसकी बेटी इतनी सुंदर हो उसको नींद कहाँ आने वाली।

रजनी- धत्त, बाबू.....गंदे...

और शर्माते हुए रसोई में भाग जाती है, इतने में काकी आ जाती है और उदयराज बाल्टी उठा के नहाने चला जाता है
Great going.
 

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Update- 13


जिंदगी में आज पहली बार उदयराज के मन में लड्डू फूटा था, उसके रूखे, नीरस, उत्साहहीन, सूखे जीवन में उसी की सगी बेटी ने एक कामुक और रसीला सा संभावित संकेत देके उसकी मन की गहराइयों में छिपे यौनतरंग के तारों को आज छेड़ दिया था जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि अब वो बादलों में उड़ रहा है, आने वाली जिंदगी अब कितनी लज़्ज़त से भरी होगी और उसमें कितना मिठास होगा, बस यही बार बार सोच कर वो गुदगुदा जा रहा था

आज उदयराज ने नहाने में जरा भी वक्त नही लगाया, सोच कर ही शरीर में आज उसके इतनी गर्मी बढ़ गयी थी कि कुएं का ठंडा पानी भी आज उसको शांत नही कर पा रहा था।

परंतु फिर भी उसके मन की स्थिति असमंजस में थी, की क्या पता वैसा न हो जैसा वो सोच रहा है तो? क्या पता ये रजनी का केवल बेटी वाला प्रेम हो तो?

एक तरफ उसके संस्कार, उसकी मर्यादा, उसे बार बार अपने कुल की मर्यादा, बाप बेटी के पवित्र रिश्ते की दुहाई देती, उसके इतने नेक पुरुष होने पर सन्देह करती, उसे ये अहसास दिलाती की तू गांव का मुखिया है, जब तू ही ये अनर्थ करेगा तो गांव के लोगों में तेरी जो एक आदर्श छवि है उसका क्या होगा?

दूसरी तरफ नारी सुख की बरसों की दबी प्यास, नारी को भोगने पर मिलने वाले मजे की लज़्ज़त का अहसास कराती, वो कहती कि किसी को पता ही क्या चलेगा, और जब तेरी बेटी ही यह चाहती है तो पुरुष होने के नाते तेरा एक फ़र्ज़ ये भी है कि एक तड़पती, प्यासी नारी को तू संतुष्ट कर, चाहे वो तेरी बेटी ही क्यों न हो, सोच कितना मजा आएगा, और ये गलत तो तब होता जब तू जबरदस्ती कर रहा होता। सोच जरा पगले स्वर्ग की अप्सरा सी तेरी बेटी तेरे पौरुष द्वार पर आके यौनसुख की विनती कर रही है और तुझे लोक लाज की पड़ी है, क्या ये पुरुष का फर्ज नही की वो अपने घर की औरत को संतुष्ट करे, आखिर रजनी अपना पूरा जीवन तेरी सेवा करने तेरे पास चली आयी, तो क्या तेरा उसके प्रति कोई फ़र्ज़ नही।

फिर उसका दूसरा मन कहता तू इतना गिर गया है उदयराज, तू ये कैसे कह सकता है कि रजनी भी यही चाहती है? वो तेरी बेटी है वो भला ऐसा पाप करेगी।

फिर उसका पहला मन कहता है- अगर ऐसा न होता तो रजनी उसकी बाहों में भला क्यों आती, चलो माना कि वह बेटी के नजरिये से उसकी बाहों में आई, पर उसके मुंह से जो आह और सिसकी निकली वो क्या था, और अगर ऐसा न होता तो वो इतने मादक रूप में भला उसके कान में ऐसा क्यों बोलती।

उदयराज तू अपनी बेटी की मंशा को समझ, सबको ऐसा बेटी सुख नही मिलता, सोच तू कितना भाग्यशाली है, वो तुझे घर की चार दिवारी में चुपके चुपके यौनसुख देना चाहती है, इस मौके को मत खो, देख गलत तो तू फिर भी हो ही जायेगा, एक फ़र्ज़ की तरफ देखेगा तो दूसरा छूट जाएगा, और दूसरा फ़र्ज़ ये है कि एक पुरुष को एक प्यासी औरत को संतुष्ट करना ही चाहिए, और जब गलत होना ही है तो मजे ले के होने में क्या बुराई है

खैर उदयराज कोई सिद्ध और योगी पुरुष तो था नही जो अपने आपको इस ग्लानि, विषाक्त, घृणा, वासना, यौनसुख की लालसा के मिले जुले मन स्थिति से निकाल ले जाता, वो असहाय हो गया और सबकुछ नियति पे छोड़ दिया।

फटाफट नहा के आया वो और रजनी ने खाना लगा रखा था, रजनी को देखते ही उसे फिर खुमारी चढ़ने लगी, रजनी अपने बाबू की मन स्थिति को देखकर मंद मंद मुस्कुराये जा रही थी, वो छुप छुप के तिरछी नजर से अपने बाबू को देखकर कामुक मुस्कान देती और उदयराज का आदर्श, मानमर्यादा, कुल की लाज, सब एक ही पल में धराशाही हो जाता, वो वासना के दरिया में ख्याली गोते लगते हुए खाना खाए जा रहा था, कभी कभी जब एक टक लगा के रजनी को निहारता तो रजनी आंखों के इशारे से शिकायत करती की अभी ऐसे न देखो कहीं काकी न देख ले, (जैसे वो कोई प्रेमिका हो), उदयराज अपनी बेटी की इस अदा पर कायल हो जाता।

सबने खाना खाया और उदयराज आज अपनी खाट कुएं के और नजदीक ले गया, बिस्तर लगा के उसपर करवटें बदलने लगा।

रजनी ने बर्तन धोया, बिस्तर लगाया फिर काकी और रजनी अपने अपने बिस्तर पर रोज़ की तरह लेट गए, रजनी की बेटी उसी के पास थी, रजनी का बिस्तर रोज की तरह घर के मुख्य द्वार के ठीक सामने नीम के पेड़ के नीचे था और उदयराज का बिस्तर 200 मीटर कुएं के पास था, रजनी आज अपने बाबू को छेड़ना चाहती थी, पहले तो वो काकी से इधर उधर की बातें करती रही, फिर बोली- काकी मैं बाबू के सर पर तेल मालिश करके आती हूँ आप सोइए।

काकी- हां जा न, ला गुड़िया को मेरी खाट पे लिटा दे, तू जा उदय के सर की तेल मालिश कर आ और हां बदन की भी मालिश कर देना, थक जाता है बेचारा

रजनी- हां काकी जरूर

रजनी इतना कहकर घर में जा के कटोरी में तेल और एक हाँथ में बैठने का स्टूल लेके अपने बाबू की खाट की तरफ जाने लगती है

अभी कृष्ण पक्ष की ही रातें चल रही थी, चाँद थोड़ी ही देर के लिए निकलता था वो भी रात के दूसरी पहर में, अंधेरी रात होने की वजह से गुप्प अंधेरा पसरा हुआ था, बहुत हल्का हल्का सा पास आने पर दिखता था

रजनी ने उदयराज की खाट के पास आके कहा- बाबू, ओ मेरे बाबू, सो गए क्या? मैं आ गयी।

उदयराज ने झट से सर उठा के अपनी बेटी की तरफ देखा तो उसकी बांछे खिल गयी, धीरे से बोला- नही बेटी, तेरे आदेश का पालन कर रहा हूँ।

रजनी (हंसते हुए)- वो मेरा आदेश नही आग्रह था बाबू, एक बेटी भला अपने बाबू को आदेश करेगी।

उदयराज- क्यों नही कर सकती, कर सकती है, मैं तो तेरा गुलाम हूँ।

रजनी- अच्छा जी

उदयराज- हम्म

रजनी- और क्या क्या हैं आप मेरे?

उदयराज- बाबू हूँ, गुलाम हूँ, और....और...बताऊंगा वक्त आने पर।

रजनी- हंस देती है, अरे वाह! मेरे बाबू मुझे इतना चाहते हैं कि मेरे गुलाम बन गए, जबकि मैं तो खुद आपकी दासी हूँ।

उदयराज- तू मेरी दासी नही मेरी बेटी।

रजनी- फिर, फिर मैं क्या हूँ आपकी।, बेटी तो मैं हूँ ही, इसके अलावा और क्या हूँ।

उदयराज- तू मेरी रानी है। (ऐसा कहते हुए उदयराज की आवाज जोश में थोड़ी भारी हो जाती है)

रजनी- सच, और आप मेरे राजा....ऐसा कहते हुए रजनी अपने हांथ की उंगलियाँ अपने बाबू के हाँथ की उंगलियों में cross फंसा लेती है और उनके ऊपर झुकते हुए अपना चेहरा उनके कानों के पास लाकर धीरे से बोलती है- आपको थकान नही लगी, क्या अब?

उदयराज- वो तो मुझे बरसों से लगी है।

रजनी फिर अपने बाबू को छेड़ने की मंशा से - तो लाओ न बाबू आपके सिर पर तेल मालिश कर दूं, थकान उतर जाएगी। (और रजनी मन ही मन हंसने लगती है, अपने बाबू को तडपाने में उसको मजा आ रहा था)

उदयराज आश्चर्य में पड़ जाता है, की उसकी बेटी ने उसकी बाहों में आकर थकान मिटाने की बात बोली थी, ये तेल मालिश की बात बीच में कहां से आ गयी, परंतु वो तुरंत ही समझ जाता है की रजनी उसे तड़पा रही है, फिर वो भी चुप रहकर थोड़ा इंतज़ार करता है।

रजनी स्टूल लेके अपने बाबू के सिरहाने बैठ जाती है, और हाथ में तेल लेकर उनके सिर की हल्के हल्के मालिश करने लगती है, रजनी की नर्म नर्म उंगलियों की छुअन से उदयराज को अद्भुत सुख की अनुभूति होती है, दोनों चुप रहकर एक दूसरे को महसूस करते हैं कुछ पल, फिर रजनी एकाएक बोली- अब थकान मिटी बाबू।

उदयराज- मेरी थकान सिर्फ तुम्हारी उंगलियों से कहाँ मिटने वाली बेटी, मेरे पूरे बदन को तुम्हारा पूरा बदन चाहिए।

रजनी- ओह्ह! मेरे बाबू

ऐसा कहते हुए रजनी स्टूल से उठकर उदयराज की खाट पर उसके बगल में लेट जाती है, दोनों एक दूसरे को कस के बाहों में भर लेते हैं, रजनी के मुँह से oooohhhhhhh मेरे बाबू, और उदयराज के मुंह से oooohhhhhh मेरी बेटी, मेरी रानी, की धीमी धीमी कामुक आवाज, और सिसकियां आस पास के वातावरण में गूंज जाती हैं।

रजनी दायीं तरफ होती है और उदयराज बाई तरफ, दोनों का बदन एक दूसरे में मिश्री की तरह घुल रहा होता है, दोनों ही कुछ देर के लिए सुन्न से हो जाते है, विश्वास ही नही हो रहा था दोनों को, की आज वो हो गया, जो अभी तक सिर्फ ख्यालों में ही था, तभी उदयराज के हाँथ रजनी की पीठ को हौले हौले सहलाने लगते हैं तो रजनी अपनी जांघों को भीच के सिसक उठती है।

उदयराज अब अपना हाथ थोड़ा नीचे की ओर रजनी की गांड की तरफ जैसे ही सरकाता है रजनी ये महसूस करती है कि side side में लेटे होने की वजह से उसके बाबू उसकी गांड को अच्छे से नही सहला पाएंगे, तो इसकी सहूलियत के लिए वो धीरे धीरे aaaaahhhhh करती हुई उदयराज के ऊपर आ जाती है, और उदयराज को अपनी सगी बेटी की ये मौन स्वीकृति इतना जोश से भर देती है कि वो अपने दोनों हाथों से उसकी अत्यंत मांसल उभरी हुई गांड को भीच देता है, कभी वो मैक्सी के ऊपर से ही अपनी बेटी के मोटे चूतड़ की दोनों फांकों को अलग कर उसमें हाँथ फेरने लगता कभी अपने दोनों हथेलियों में मांसल गांड को भर भर के सहलाने लगता।

रजनी- aaaaaaaahhhhhh, ooooooohhhhhhh bbbbbbbaaaabbbbbuuuuu,, ssssshhh

एकाएक उदयराज ने रजनी को नीचे किया और उसके ऊपर चढ़ गया, रजनी की तो बस सिसकियां ही निकली जा रही थी, शर्म के मारे वो कुछ न बोली, बस oooohhh baabu

उदयराज ने एक जोरदार चुम्बन रजनी के गाल पे जड़ दिया, फिर रजनी ने जानबूझ के अपना दूसरा गाल आगे कर दिया उदयराज ने इस गाल पे भी एक दूसरा जोरदार चुम्बन किया और अब वो ताबड़तोड़ रजनी के गालों पे, कान के नीचे, गर्दन पे, माथे पे, आंखों पे चूमने लगा, इतना मजा तो उसको अपनी पत्नी के साथ भी नही आया था जितना बेटी के साथ आ रहा था, रजनी को तो मानो होश ही नही रहा अब, वो तो बस hhhaaaaai hhhhhhaaaai कर के सिसके जा रही थी।

जैसे ही उदयराज ने अपना सीधा हाँथ रजनी के बायीं चूची पे रखा, उसे गांव वालों की कुछ आवाज़ें उत्तर की तरफ से आती हुई सुनाई दी, जैसे गांव के कुछ लोग मुखिया के घर की तरफ ही आ रहे थे कुछ फरियाद लेके, रजनी ने भी जब ये आवाज सुनी जो उनके घर की तरफ आती हुआ महसूस हुई तो दोनों ही बड़े मायूस होके खाट से उठे और रजनी बोली- बाबू लगता है कुछ गांव के लोग इतनी रात को आपसे मिलने आ रहे हैं, अभी मुझे जाना होगा।

उदयराज मायूस होते हुए- हाँ बेटी, देखता हूँ क्या मामला है।

रजनी खुद उदास हो गयी थी, थोड़ी दूर जाके वो वापिस पलटी और फिर एक बार भाग के अपने उदास बाबू की बाहों में समा गई, उदयराज रजनी को एक बार फिर बड़ी शिद्दत से चूमने लगा, रजनी ने सिसकते हुए उसे रोका- बाबू वो लोग अब ज्यादा ही नजदीक आ गए हैं, थोड़ा सब्र करो अब, फिर आऊंगी कल।

इतना कहकर रजनी उखड़ती सांसों से अपने बिस्तर की तरफ भाग गई और उदयराज उसे देखता रहा।
Bapu initiative le rahe hain.
 

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जिंदगी में आज पहली बार उदयराज के मन में लड्डू फूटा था, उसके रूखे, नीरस, उत्साहहीन, सूखे जीवन में उसी की सगी बेटी ने एक कामुक और रसीला सा संभावित संकेत देके उसकी मन की गहराइयों में छिपे यौनतरंग के तारों को आज छेड़ दिया था जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि अब वो बादलों में उड़ रहा है, आने वाली जिंदगी अब कितनी लज़्ज़त से भरी होगी और उसमें कितना मिठास होगा, बस यही बार बार सोच कर वो गुदगुदा जा रहा था

आज उदयराज ने नहाने में जरा भी वक्त नही लगाया, सोच कर ही शरीर में आज उसके इतनी गर्मी बढ़ गयी थी कि कुएं का ठंडा पानी भी आज उसको शांत नही कर पा रहा था।

परंतु फिर भी उसके मन की स्थिति असमंजस में थी, की क्या पता वैसा न हो जैसा वो सोच रहा है तो? क्या पता ये रजनी का केवल बेटी वाला प्रेम हो तो?

एक तरफ उसके संस्कार, उसकी मर्यादा, उसे बार बार अपने कुल की मर्यादा, बाप बेटी के पवित्र रिश्ते की दुहाई देती, उसके इतने नेक पुरुष होने पर सन्देह करती, उसे ये अहसास दिलाती की तू गांव का मुखिया है, जब तू ही ये अनर्थ करेगा तो गांव के लोगों में तेरी जो एक आदर्श छवि है उसका क्या होगा?

दूसरी तरफ नारी सुख की बरसों की दबी प्यास, नारी को भोगने पर मिलने वाले मजे की लज़्ज़त का अहसास कराती, वो कहती कि किसी को पता ही क्या चलेगा, और जब तेरी बेटी ही यह चाहती है तो पुरुष होने के नाते तेरा एक फ़र्ज़ ये भी है कि एक तड़पती, प्यासी नारी को तू संतुष्ट कर, चाहे वो तेरी बेटी ही क्यों न हो, सोच कितना मजा आएगा, और ये गलत तो तब होता जब तू जबरदस्ती कर रहा होता। सोच जरा पगले स्वर्ग की अप्सरा सी तेरी बेटी तेरे पौरुष द्वार पर आके यौनसुख की विनती कर रही है और तुझे लोक लाज की पड़ी है, क्या ये पुरुष का फर्ज नही की वो अपने घर की औरत को संतुष्ट करे, आखिर रजनी अपना पूरा जीवन तेरी सेवा करने तेरे पास चली आयी, तो क्या तेरा उसके प्रति कोई फ़र्ज़ नही।

फिर उसका दूसरा मन कहता तू इतना गिर गया है उदयराज, तू ये कैसे कह सकता है कि रजनी भी यही चाहती है? वो तेरी बेटी है वो भला ऐसा पाप करेगी।

फिर उसका पहला मन कहता है- अगर ऐसा न होता तो रजनी उसकी बाहों में भला क्यों आती, चलो माना कि वह बेटी के नजरिये से उसकी बाहों में आई, पर उसके मुंह से जो आह और सिसकी निकली वो क्या था, और अगर ऐसा न होता तो वो इतने मादक रूप में भला उसके कान में ऐसा क्यों बोलती।

उदयराज तू अपनी बेटी की मंशा को समझ, सबको ऐसा बेटी सुख नही मिलता, सोच तू कितना भाग्यशाली है, वो तुझे घर की चार दिवारी में चुपके चुपके यौनसुख देना चाहती है, इस मौके को मत खो, देख गलत तो तू फिर भी हो ही जायेगा, एक फ़र्ज़ की तरफ देखेगा तो दूसरा छूट जाएगा, और दूसरा फ़र्ज़ ये है कि एक पुरुष को एक प्यासी औरत को संतुष्ट करना ही चाहिए, और जब गलत होना ही है तो मजे ले के होने में क्या बुराई है

खैर उदयराज कोई सिद्ध और योगी पुरुष तो था नही जो अपने आपको इस ग्लानि, विषाक्त, घृणा, वासना, यौनसुख की लालसा के मिले जुले मन स्थिति से निकाल ले जाता, वो असहाय हो गया और सबकुछ नियति पे छोड़ दिया।

फटाफट नहा के आया वो और रजनी ने खाना लगा रखा था, रजनी को देखते ही उसे फिर खुमारी चढ़ने लगी, रजनी अपने बाबू की मन स्थिति को देखकर मंद मंद मुस्कुराये जा रही थी, वो छुप छुप के तिरछी नजर से अपने बाबू को देखकर कामुक मुस्कान देती और उदयराज का आदर्श, मानमर्यादा, कुल की लाज, सब एक ही पल में धराशाही हो जाता, वो वासना के दरिया में ख्याली गोते लगते हुए खाना खाए जा रहा था, कभी कभी जब एक टक लगा के रजनी को निहारता तो रजनी आंखों के इशारे से शिकायत करती की अभी ऐसे न देखो कहीं काकी न देख ले, (जैसे वो कोई प्रेमिका हो), उदयराज अपनी बेटी की इस अदा पर कायल हो जाता।

सबने खाना खाया और उदयराज आज अपनी खाट कुएं के और नजदीक ले गया, बिस्तर लगा के उसपर करवटें बदलने लगा।

रजनी ने बर्तन धोया, बिस्तर लगाया फिर काकी और रजनी अपने अपने बिस्तर पर रोज़ की तरह लेट गए, रजनी की बेटी उसी के पास थी, रजनी का बिस्तर रोज की तरह घर के मुख्य द्वार के ठीक सामने नीम के पेड़ के नीचे था और उदयराज का बिस्तर 200 मीटर कुएं के पास था, रजनी आज अपने बाबू को छेड़ना चाहती थी, पहले तो वो काकी से इधर उधर की बातें करती रही, फिर बोली- काकी मैं बाबू के सर पर तेल मालिश करके आती हूँ आप सोइए।

काकी- हां जा न, ला गुड़िया को मेरी खाट पे लिटा दे, तू जा उदय के सर की तेल मालिश कर आ और हां बदन की भी मालिश कर देना, थक जाता है बेचारा

रजनी- हां काकी जरूर

रजनी इतना कहकर घर में जा के कटोरी में तेल और एक हाँथ में बैठने का स्टूल लेके अपने बाबू की खाट की तरफ जाने लगती है

अभी कृष्ण पक्ष की ही रातें चल रही थी, चाँद थोड़ी ही देर के लिए निकलता था वो भी रात के दूसरी पहर में, अंधेरी रात होने की वजह से गुप्प अंधेरा पसरा हुआ था, बहुत हल्का हल्का सा पास आने पर दिखता था

रजनी ने उदयराज की खाट के पास आके कहा- बाबू, ओ मेरे बाबू, सो गए क्या? मैं आ गयी।

उदयराज ने झट से सर उठा के अपनी बेटी की तरफ देखा तो उसकी बांछे खिल गयी, धीरे से बोला- नही बेटी, तेरे आदेश का पालन कर रहा हूँ।

रजनी (हंसते हुए)- वो मेरा आदेश नही आग्रह था बाबू, एक बेटी भला अपने बाबू को आदेश करेगी।

उदयराज- क्यों नही कर सकती, कर सकती है, मैं तो तेरा गुलाम हूँ।

रजनी- अच्छा जी

उदयराज- हम्म

रजनी- और क्या क्या हैं आप मेरे?

उदयराज- बाबू हूँ, गुलाम हूँ, और....और...बताऊंगा वक्त आने पर।

रजनी- हंस देती है, अरे वाह! मेरे बाबू मुझे इतना चाहते हैं कि मेरे गुलाम बन गए, जबकि मैं तो खुद आपकी दासी हूँ।

उदयराज- तू मेरी दासी नही मेरी बेटी।

रजनी- फिर, फिर मैं क्या हूँ आपकी।, बेटी तो मैं हूँ ही, इसके अलावा और क्या हूँ।

उदयराज- तू मेरी रानी है। (ऐसा कहते हुए उदयराज की आवाज जोश में थोड़ी भारी हो जाती है)

रजनी- सच, और आप मेरे राजा....ऐसा कहते हुए रजनी अपने हांथ की उंगलियाँ अपने बाबू के हाँथ की उंगलियों में cross फंसा लेती है और उनके ऊपर झुकते हुए अपना चेहरा उनके कानों के पास लाकर धीरे से बोलती है- आपको थकान नही लगी, क्या अब?

उदयराज- वो तो मुझे बरसों से लगी है।

रजनी फिर अपने बाबू को छेड़ने की मंशा से - तो लाओ न बाबू आपके सिर पर तेल मालिश कर दूं, थकान उतर जाएगी। (और रजनी मन ही मन हंसने लगती है, अपने बाबू को तडपाने में उसको मजा आ रहा था)

उदयराज आश्चर्य में पड़ जाता है, की उसकी बेटी ने उसकी बाहों में आकर थकान मिटाने की बात बोली थी, ये तेल मालिश की बात बीच में कहां से आ गयी, परंतु वो तुरंत ही समझ जाता है की रजनी उसे तड़पा रही है, फिर वो भी चुप रहकर थोड़ा इंतज़ार करता है।

रजनी स्टूल लेके अपने बाबू के सिरहाने बैठ जाती है, और हाथ में तेल लेकर उनके सिर की हल्के हल्के मालिश करने लगती है, रजनी की नर्म नर्म उंगलियों की छुअन से उदयराज को अद्भुत सुख की अनुभूति होती है, दोनों चुप रहकर एक दूसरे को महसूस करते हैं कुछ पल, फिर रजनी एकाएक बोली- अब थकान मिटी बाबू।

उदयराज- मेरी थकान सिर्फ तुम्हारी उंगलियों से कहाँ मिटने वाली बेटी, मेरे पूरे बदन को तुम्हारा पूरा बदन चाहिए।

रजनी- ओह्ह! मेरे बाबू

ऐसा कहते हुए रजनी स्टूल से उठकर उदयराज की खाट पर उसके बगल में लेट जाती है, दोनों एक दूसरे को कस के बाहों में भर लेते हैं, रजनी के मुँह से oooohhhhhhh मेरे बाबू, और उदयराज के मुंह से oooohhhhhh मेरी बेटी, मेरी रानी, की धीमी धीमी कामुक आवाज, और सिसकियां आस पास के वातावरण में गूंज जाती हैं।

रजनी दायीं तरफ होती है और उदयराज बाई तरफ, दोनों का बदन एक दूसरे में मिश्री की तरह घुल रहा होता है, दोनों ही कुछ देर के लिए सुन्न से हो जाते है, विश्वास ही नही हो रहा था दोनों को, की आज वो हो गया, जो अभी तक सिर्फ ख्यालों में ही था, तभी उदयराज के हाँथ रजनी की पीठ को हौले हौले सहलाने लगते हैं तो रजनी अपनी जांघों को भीच के सिसक उठती है।

उदयराज अब अपना हाथ थोड़ा नीचे की ओर रजनी की गांड की तरफ जैसे ही सरकाता है रजनी ये महसूस करती है कि side side में लेटे होने की वजह से उसके बाबू उसकी गांड को अच्छे से नही सहला पाएंगे, तो इसकी सहूलियत के लिए वो धीरे धीरे aaaaahhhhh करती हुई उदयराज के ऊपर आ जाती है, और उदयराज को अपनी सगी बेटी की ये मौन स्वीकृति इतना जोश से भर देती है कि वो अपने दोनों हाथों से उसकी अत्यंत मांसल उभरी हुई गांड को भीच देता है, कभी वो मैक्सी के ऊपर से ही अपनी बेटी के मोटे चूतड़ की दोनों फांकों को अलग कर उसमें हाँथ फेरने लगता कभी अपने दोनों हथेलियों में मांसल गांड को भर भर के सहलाने लगता।

रजनी- aaaaaaaahhhhhh, ooooooohhhhhhh bbbbbbbaaaabbbbbuuuuu,, ssssshhh

एकाएक उदयराज ने रजनी को नीचे किया और उसके ऊपर चढ़ गया, रजनी की तो बस सिसकियां ही निकली जा रही थी, शर्म के मारे वो कुछ न बोली, बस oooohhh baabu

उदयराज ने एक जोरदार चुम्बन रजनी के गाल पे जड़ दिया, फिर रजनी ने जानबूझ के अपना दूसरा गाल आगे कर दिया उदयराज ने इस गाल पे भी एक दूसरा जोरदार चुम्बन किया और अब वो ताबड़तोड़ रजनी के गालों पे, कान के नीचे, गर्दन पे, माथे पे, आंखों पे चूमने लगा, इतना मजा तो उसको अपनी पत्नी के साथ भी नही आया था जितना बेटी के साथ आ रहा था, रजनी को तो मानो होश ही नही रहा अब, वो तो बस hhhaaaaai hhhhhhaaaai कर के सिसके जा रही थी।

जैसे ही उदयराज ने अपना सीधा हाँथ रजनी के बायीं चूची पे रखा, उसे गांव वालों की कुछ आवाज़ें उत्तर की तरफ से आती हुई सुनाई दी, जैसे गांव के कुछ लोग मुखिया के घर की तरफ ही आ रहे थे कुछ फरियाद लेके, रजनी ने भी जब ये आवाज सुनी जो उनके घर की तरफ आती हुआ महसूस हुई तो दोनों ही बड़े मायूस होके खाट से उठे और रजनी बोली- बाबू लगता है कुछ गांव के लोग इतनी रात को आपसे मिलने आ रहे हैं, अभी मुझे जाना होगा।

उदयराज मायूस होते हुए- हाँ बेटी, देखता हूँ क्या मामला है।

रजनी खुद उदास हो गयी थी, थोड़ी दूर जाके वो वापिस पलटी और फिर एक बार भाग के अपने उदास बाबू की बाहों में समा गई, उदयराज रजनी को एक बार फिर बड़ी शिद्दत से चूमने लगा, रजनी ने सिसकते हुए उसे रोका- बाबू वो लोग अब ज्यादा ही नजदीक आ गए हैं, थोड़ा सब्र करो अब, फिर आऊंगी कल।

इतना कहकर रजनी उखड़ती सांसों से अपने बिस्तर की तरफ भाग गई और उदयराज उसे देखता रहा।
Bapu initiative le rahe hain.
 

Premkumar65

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Update- 83

नरेन्द्र अपनी बेटी कंचन की दोनों फूलकर तनी हुई चूचीयों को पिये जा रहा था, नीचे बूर में लंड जड़ तक समाया हुआ था, कंचन पर तो सनसनाहट की अब दोहरी मार हो रही थी, एक तो उसकी कमसिन सी गोरी बूर में उसके बाबू का काला लौड़ा जड़ तक घुसा हुआ उसे जन्नत का अहसाह करा रहा था ऊपर से उसके बाबू का लगातार उसकी छलकती चूचीयों को सहला सहला कर पीना उसे बेसुध कर रहा था, इतनी उत्तेजना उसे जीवन में कभी नही हुई थी, अत्यधिक उत्तेजना में वो कभी तेज तो कभी धीमे धीमे सिसकती कराहती जा रही थी।

बड़े प्यार से बीच बीच में सर नीचे कर कभी अपने सगे बाबू को अपनी चूचीयाँ किसी बच्चे की तरह पीते देख कर उनके सर को चूम लेती और कभी खुद ही अपनी मोटी चूची को पकड़ के गुलाबी कड़क निप्पल को बड़ी मादकता से उनके मुँह में भरती तो नरेन्द्र और उत्तेजित होकर चूचीयों पर और टूट पड़ता, "हाय.....बाबू.......ऊई अम्मा.....ईईईईईईईईईशशशशश.......कैसे पी रहे हैं आप मेरी चूची..........आआआआआ आहहहहहहह.........मेरे बच्चे.......मेरे बाबू

मेरे बच्चे बोलने पर नरेन्द्र ने सर उठा के नीलम को देखा तो वो मुस्कुराते हुए बहुत ही प्यार से उन्हें देख रही थी, नरेन्द्र को कंचन के बच्चा बोलने पर उन्हें इतना प्यार आया कि उन्होंने थोड़ा ऊपर उठकर उसके मुस्कुराते होंठों को अपने होंठों में भरकर चूम लिया और बोला- हाँ मैं अपनी बेटी का बच्चा हूँ।

कंचन ने वासना में फिर बोला- मेरा बच्चा......और पियो न बाबू मेरी चूची..... मेरा बच्चा बनकर

कंचन के मुंह से "चूची" सुनकर नरेन्द्र को अदभुत उत्तेजना होने लगी, वो समझ गया कि उत्तेजना अब कंचन के सर चढ़कर बोल रही है, उसकी आँखों में देखने लगा तो कंचन भी अपने बाबू को देखकर मुस्कुराने लगी, नरेन्द्र बोला- क्या पियूँ अपनी बिटिया की.....उसका बच्चा बनकर

कंचन ने उनकी आंखों में देखते हुए बोला- "चूची"

और इस बार वो शरमा कर अपने बाबू के सीने से लग गयी, मोटी मोटी तनी हुई चूचीयाँ एक बार फिर नरेन्द्र के बालों से भरे सीने से किसी सपंज की तरफ दब गई। नरेन्द्र ने कंचन के चेहरे को ऊपर किया तो उसकी आंखें बंद थी, बेटी के होंठों पर नरेन्द्र ने अपने होंठ रख दिये और बड़ी तन्मयता से कुछ देर चूसा, कंचन उनके सर को सहलाते हुए पूरा साथ देने लगी। कुछ देर होंठ चूसने के बाद वो गालों पर चुम्बन करता हुआ नीचे झुका और एक बार फिर मोटी मोटी तनी हुई चूचीयों को मुंह मे भर लिया तो कंचन सिसक उठी, नरेन्द्र फिर लगा अपनी बेटी की चूचीयों को मसल मसल कर पीने तो कंचन उत्तेजना में फिर कराह उठी, कुछ ही देर में कंचन की दोनों चूचीयाँ अत्यधिक उत्तेजना में तनकर और कस कस के मीजे जाने की वजह से लाल हो गयी, उसे अब इतना मजा आ रहा था कि उससे रहा नही जा रहा था, वो छटपटाने लगी, नीचे से हल्का हल्का जब खुद ही उसकी चौड़ी गाँड़ तीन चार बार ऊपर को उछली तो नरेन्द्र ने कंचन की आंखों में देखा और कंचन शरमाकर अपने बाबू से लिपट गयी, उसे विश्वास ही नही हुआ कि अचानक उसने कैसे बेशर्मी से खुद ही अपनी गाँड़ नीचे से उछालकर अपने बाबू को अब बूर चोदने का इशारा कर डाला, और एक बार और हल्का सा शर्माते हुए दुबारा अपनी गाँड़ नीचे से उठाकर अपने बाबू के कान में "बाबू अब चोदिये न" बोलते हुए उनसे फिर लिपट गयी, नरेन्द्र ने उसके चेहरे को सामने किया तो उसकी आँखें शर्म से बंद थी, होंठ थरथरा रहे थे, चहरे पर वासना की भरपूर खुमारी थी, उन्होंने कंचन के होंठों को कस के एक बार चूमा और होठ को बिना उठाए गाल पर से सरकाते हुए बाएं कान के पास ले जाकर बोला- क्या चोदू?

कंचन और शरमा गयी, नरेन्द्र ने उसके गाल को चूम लिया और बोला- बोल न

कंचन ने बोला- गंदे हो आप

नरेन्द्र - गंदेपन का अपना अलग ही मजा है.....बोलकर देख

कंचन शर्माते हुए बोली- "बूर" "बूर चोदिये न".......... आह बाबू

कंचन को बोलकर बहुत सिरहन हुई।

नरेन्द्र- किसकी बूर?.......किसकी बूर चोदू?

कंचन सिरहते हुए- "अपनी बिटिया की........अपनी बिटिया की बूर चोदिये"

कंचन के ये कहते ही नरेन्द्र उससे बुरी तरह लिपट गया और कंचन ने अपने बाबू को कराहते हुए अपने आगोश में भरकर नीचे से फिर एक दो बार अपनी गाँड़ को हिलाया, नरेन्द्र ने कंचन के कान में फिर बोला - बूर

कंचन फिर सिरह उठी, बदन उसका गनगना गया, उसके बाबू ने फिर उसके कान में धीरे से बोला- बूबूबूबूबूरररररर

कंचन फिर गनगना गयी और "अह.... बाबू" कहकर मचल उठी।

एक बार फिर नरेन्द्र ने कंचन के कान में दुबारा बोला- "बूबूबूबूबूबूबूररररररररर.................बुरिया"

कंचन फिर एक बार सनसना गयी और इस बार अनजाने में उसके मुंह से भी धीरे से निकला- "लंड............पेल्हर"

और कहते हुए वो अपने बाबू को उनकी पीठ पर चिकोटी काटते हुए उन्हें चूमने लगी।

(पेल्हर अक्सर गांव में बोले जाने वाला शब्द है, जिसका अर्थ होता है बूर को पेलने वाला दमदार लंड)

नरेंद को इतना जोश चढ़ा की उन्होंने कस के अपने लन्ड को अपनी बेटी की बूर में गाड़ ही दिया, कंचन चिहुँक कर हल्का सा कराह उठी।

नरेन्द्र ने फिर बोला- "बूबूबूबूबूबूबूररररररररर...........माखन जैसी तोर बुरिया"

इस बार कंचन ने गनगनाते हुए तुरंत उनके कान में बोला- "लंड.............लोढ़ा जइसन हमरे बाबू क पेल्हर"

(लोढ़ा- सिलबट्टा, जिससे सिल पर मसाला पीसा जाता है)

कंचन को अपने सगे बाबू के मुंह से और नरेन्द्र को अपनी सगी बेटी के मुंह से ये शब्द सुनकर बहुत उत्तेजना हो रही थी, और एक अलग ही प्रकार के रोमांच और वासना से बदन सनसना जा रहा था। दोनों इसी तरह थोड़ी देर तक कामुक उत्तेजक बोल बोल कर गनगनाते रहे फिर नरेन्द्र ने अपना समूचा लंड कंचन की बूर से बाहर निकाला और एक ही झटके में दुबारा जड़ तक पेल दिया, कंचन मारे जोश के थरथरा गयी, नरेन्द्र ने शुरू में आठ दस बार ऐसे ही किया और हर बार दोनों के मुंह से तेज सिसकी और कराह निकल जाती। अब तक नरेन्द्र के मोटे लंड ने अच्छे से बेटी की बूर में जगह बना ली थी बूर काफी देर से पहले ही रिस रही थी इसलिए कंचन को भी कम दर्द हो रहा था, ज्यादा से ज्यादा मीठे मीठे दर्द के अहसास से वो मस्ती में कराह जा रही थी, ऐसा लग रहा था कि उसकी बूर की बरसों की खुजली मिट रही है, अपने ही सगे बाबू का लंड कैसे उसकी बूर की खुजली को मिटा रहा था और कितना अच्छा लग रहा था कि वो इसकी बयां नही कर सकती थी, कैसे उसके बाबू के लंड का मोटा चिकना सुपाड़ा उसकी बूर की प्यासी दीवारों से रगड़ता हुआ बच्चेदानी पर ठोकर मारता और फिर वापस जाता, वो आंखे बंद कर कराहते हुए जन्नत में थी।

अपनी सगी बेटी की मखमली बूर की लज़्ज़त पाकर नरेन्द्र पर भी अब वहशीपन छा रहा था, एक लेवल के बाद बूर को तेज तेज चोदने की इच्छा होने ही लगती है फिर चाहे बूर कितनी ही नाजुक क्यों न हो, और बूर भी एक लेवल के बाद यही चाहती है कि उसको बक्शा न जाय।

नरेन्द्र से रहा नही गया तो उसने झट से अपनी बिटिया की चौड़ी गाँड़ को अपने हांथों से उठाया और गचा गच बेरहमी से बूर को चोदने लगा, कंचन बिन पानी की मछली की तरह तड़पने लगी, कभी वो जोर जोर से सिसकते हुए अपने पैर अपने बाबू के कमर से कस देती, कभी पैर हवा में उठाकर फैला लेती तो कभी कराहते हुए दोनों पैर फैलाकर खटोले के पाटों पर रख लेती, तेज तेज धक्कों के साथ लंड कभी बूर में बिल्कुल सीधा गप्प से जाता और बच्चेदानी से टकराता तो उसके मुंह से "आह बाबू" की तेज सिसकी निकल जाती और कभी सरसरा कर थोड़ा टेढ़ा होकर दीवारों से रगड़ता हुआ जाता तो वो तेजी से कराह कर मस्ती में "ऊऊऊऊऊईईईईईईईईई अम्मा" कहते हुए थोड़ा उछल सी जाती। अपने बाबू का उसकी कमसिन बूर को इस तरह कुचल कुचल कर चोदना उसे अपने बाबू का और दीवाना बना रहा था।

नरेन्द्र काफी तेज तेज धक्के अपनी बेटी की बूर में मार रहा था, कंचन इतनी उत्तेजित हो चुकी थी कि वो भी नीचे से तेज तेज कूल्हे उछालकर अब अपने बाबू का साथ दे रही थी मानो अपनी निगोड़ी बूर जिसने उसे इतने दिन तड़प तड़प के परेशान किया हो उसको पिटवाने में अपने बाबू का साथ दे रही हो "कि हाँ बाबू इसको और चोदो ये मुझे बहुत तड़पाती है, अब छोड़ना मत इसको" अब लाज और शर्म छूमंतर हो चुकी थी दोनों एक दूसरे को इस कदर तेज तेज चोद रहे थे कि पूरा खटोला चर्रर्रर्रर चर्रर्रर्रर करते हुए हिलने लगा, तेज तेज चुदायी की सिसकियां झोपड़ी में गूंजने लगी।

तभी अचानक तेज धक्कों से खटोले के सिरहाने का बायां पाया टूट गया, खटोला पुराना था, उसका पाया टूटा तो खटोला बायीं तरफ से चराचर कर जमीन को छू गया, दोनों का वजन और तेज धक्कों की मार बूर तो झेल रही थी पर खटोला नही झेल पाया, एक साइड से नीचे पूरा झुकने की वजह से तकिया सरककर नीचे रखी टॉर्च से जा टकराया और टॉर्च गोल गोल घूमती हुई लुढ़ककर कुएं में जा गिरी, पर उसका जलना बंद नही हुआ, कुएं में नीचे मिट्टी थोड़ी गीली गीली थी और इत्तेफ़ाक़ देखो टॉर्च गिरी तो उसका पीछे का हिस्सा सीधे जमीन में धंस गया और मुँह ऊपर को था, टॉर्च से रोशनी अब कुएं के अंदर से सीधी झोपड़ी के छप्पर पर टकरा रही थी और झोपड़ी में रोशनी और हल्की हो गयी।

पर फर्क किसे पड़ने वाला था, दोनों बाप बेटी तो एक दूसरे में समाय बस एक दूसरे को भोगे जा रहे थे, जैसे ही खटोला टूटा एक पल के लिए नरेन्द्र रुका पर कंचन से नीचे से गाँड़ उचका के चोदते रहने का इशारा किया और इस रोमांच से नरेन्द्र और कस कस के धक्के अपनी बिटिया की बूर में मारने लगा, खटोला टूटने से कंचन का बदन कुछ टेढ़ा जरूर हो चुका था उसका सर नीचे और कमर से नीचे का हिस्सा ऊपर हो चुका था, नरेन्द्र उसपर चढ़ा ही हुआ था, अब बदन की पोजीशन इस तरह होने से नरेन्द्र का लंड कंचन की बूर में और गहराई में उतरने लगा, जिसने कंचन को दूसरी ही दुनियां में पंहुचा दिया, कुछ ही और तेज धक्कों के बाद दोनों का बदन तेजी से सनसना कर अकड़ने लगा और दोनों मदहोश होकर सीत्कारते हुए एक साथ झड़ने लगे, कंचन कस के अपने बाबू से लिपट गयी, "ओओओओओ ओहहहहहह.......मेरे बाबू.......मैं गयी.........आआआआआहहहहह दैय्या.......बस बाबू.....बस.......बस मेरे बाबू........आपका पेल्हर......कितना मजा देता है.......आआआआआहहहहह....मेरी बूर

कंचन ऐसे ही कराहते हुए काफी देर तक झड़ती रही।

नरेन्द्र ने तो आतिउत्तेजना में अपना समूचा लंड मानो अपनी बेटी की बूर में गाड़ ही दिया था,
"आआआआआहहहहह.......मेरी बेटी......कितनी सुखद है तेरी बूबूबूबूबूबूबूबूबूबूररररररररररररर.........तेरी बुरिया........ये सुख सबको कहाँ मिलता है.........हाय मेरी बिटिया कहते हुए नरेन्द्र अपनी बेटी से कस के लिपटता चला गया।

कंचन झड़ते हुए परम चर्मोत्कर्ष की अनुभूति से सराबोर हो गयी। इतने प्यार और दुलार से अपने बाबू को चूमने लगी जैसे कोई मां अपने बेटे के विजयी होने पर उसे गले लगा कर प्यार करती है, दोनों काफी देर तक हाँफते हुए टूटे खटोले पर लेटे रहे।
Bahut hi mast chudai ho rahi hai kanchan ki.
 
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