Update-27
उदयराज तेजी से बैलगाडी चलाये जा रहा था और सोचे जा रहा था कि जब वो गांव पहुँचेगा तो लोगों की भीड़ लग जायेगी, लोग पूछेंगे की क्या हुआ, क्या हल निकला, क्या उस दिव्य पुरुष से मिले या नही, सफर कैसा रहा? सफर आसान था या कठिन था, तो उनको मैं क्या बताऊंगा, बिरजू, परशुराम ये सब बड़ी उत्सुकता से इतंज़ार कर रहे होंगे। इसी तरह गांव की स्त्रियां रजनी और काकी से पूछेंगी, तो क्या हमें उन्हें सही सही बताना चाहिए, पूरे गांव में चर्चा करना ठीक नही होगा, चलो एक बार को उपाय तो मैं उनसे बता भी दूंगा पर कर्म का क्या करूँ, उसके बारे में तो मुझे अभी खुद भी नही पता। एक काम करता हूँ गांव वालों को खाली यही बोलूंगा की उपाय बताया है और एक हवन करने को बोला है कुल वृक्ष के नीचे बस, और काकी और रजनी को भी बस इतना ही बताने को बोल दूंगा।
उदयराज ऐसा सोचता हुआ बैलगाडी चलाये जा रहा था।
धीरे धीरे शाम हो गयी और वो सुलोचना की कुटिया पहुँच गए।
सबको बहुत भूख लगी थी क्योंकि रास्ते में वो रुके ही नही, जल्दी पहुचने के चक्कर में।
सब बैलगाडी से उतरे, उदयराज ने बैलगाडी पेड़ से बांध दी और बैलों को घास चरने के लिए लंबी रस्सी से बांध दिया।
पुर्वा सबको देखकर बहुत खुश हुई और सबके लिए तांबे के गिलास में पानी और गुड़ लेके आयी, सब खाट पर बैठ गए और सबने पानी पिया।
सुलोचना ने पुर्वा को जल्दी से खाना बनाने के लिए बोला तो रजनी भी जिद करके उसका हाँथ बटाने चली गयी
बाहर उदयराज, काकी और सुलोचना बैठे थे।
उदयराज- माता जी आपने इस मुश्किल काम में हमारा जो साथ दिया है, हमे जो रास्ता दिखाया और इतना ही नही सदैव हमारे साथ बनी रही उसका अहसान मैं कभी नही चुका पाऊंगा, आपकी वजह से आज हमारी और हमारे कुल की जान बची है, एक तरह से देखा जाए तो आप ही इसकी नींव हो, हम तो घर से बस चल दिये थे ये सोचकर कि आगे जो होगा जैसा होगा देखा जाएगा, आप न मिलती तो मेरा यह प्रण सफल नही होता, मैं अगर आपके किसी भी तरह काम आ पाऊंगा, किसी भी वक्त तो आप निसंकोच मुझसे कहियेगा, आपको मैंने माता माना है मुझसे जो भी बन पड़ेगा मैं आपकी सेवा में करूँगा।
सुलोचना- पुत्र जैसा कि मैंने पहले ही बताया पहली बात तो ये है कि ये तो मेरा फ़र्ज़ है, मैं अपने फ़र्ज़ से बंधी हुई हूँ दूसरा जब तुमने मुझे माँ माना है तो तुम मेरे पुत्र हुए और पुर्वा तुम्हारी बहन हो गयी, तो क्या मैं अपने पुत्र के लिए इतना नही कर सकती। केवल तुम ही मुझे पाकर नही बल्कि मैं और पुर्वा भी तुम सबको पाकर बहुत खुश है, हमने इससे पहले और भी बहुत लोगों की मदद की है पर न जाने क्यों तुम लोगों से एक अजीब सा लगाव हो गया है, पुर्वा को मैंने इतना खुश पहले कभी नही देखा, जितना वो तुम लोगों से मिलकर हुई है।
वो तो मुझसे कह भी रही थी कि अम्मा रजनी कितनी अच्छी लड़की है ऐसी लड़की मैंने आजतक नही देखी, मैं तो अब उसकी पक्की सहेली बन चुकी हूँ, तो मैंने कहा हाँ वो अब खाली तेरी पक्की सहेली नही अब तेरी भतीजी भी हो गयी है, तो वो चौंक कर बोली- क्या वो मेरी भतीजी और मैं उसकी बुआ।
मैं- हाँ, बिल्कुल
तो वो बोली- कैसे अम्मा
तो मैं बोली- उसके बाबू ने मुझे अपनी माँ माना है और मैंने उनको अपना पुत्र, तो हुई न तू रजनी की बुआ और उसके बाबू की बहन।
उसका चहरा मारे खुशी के खिल उठा जैसे उसकी एकांत जिंदगी में किसी ने एक जान फूंक दी हो वो चहकते हुए बोली- पर अम्मा मैं तो रजनी से उम्र में दो तीन साल छोटी हूँ, बुआ छोटी और भतीजी बड़ी, बड़ा मजा आएगा फिर तो और वो मेरी सहेली भी है।
सुलोचना- क्या है न पुत्र जब मैं यहां जंगल में आई तो वह काफी छोटी थी, इस घने भयानक जंगल में बस हम दो ही प्राणी है, मेरी तो उम्र कट गई लेकिन वो तो बच्ची है, कभी कभी बहुत अकेलापन महसूस करती है हालांकि मैं उसको तंत्र मंत्र की विद्या सिखा रही हूं तो वो उसमे व्यस्त रहती है परंतु फिर भी अकेलापन तो खलता ही है, हम माँ बेटी आपस में कितनी और कबतक बातें करेंगे, मैं महसूस करती हूं कि उसकी जिंदगी में बहुत अकेलापन और खालीपन है वो भी और बच्चों की तरह दोस्त बनाना चाहती है, लोगों के बीच में रहना चाहती है भरा पूरा परिवार चाहती है पर क्या करें नियति ने यही चाहा था शायद, मुझे अपनी चिंता नही बस उसकी चिंता होती है, मेरी वजह से उस बच्ची का जीवन नीरस होकर रह गया है, यही कारण है कि जब भी कोई फरियादी अपनी फरयाद लेके महात्मा जी के पास जाता है तो यहां रुकता है और हम उसकी मदद करते हैं उस वक्त मेरी बेटी पुर्वा बहुत प्रफ़ुल्लित रहती है पर फिर बाद में लोगों के चले जाने के बाद थोड़ा उदास हो जाती है। परंतु जब से तुम लोग आए हो वो तो बहुत ही खुश है खासकर रजनी से मिलकर और देख लेना तुम लोग जब जाने लगोगे तो रो देगी जरूर।
काकी की आंखें भर आयी ये सुनकर उसने सुलोचना को गले से लगा लिया और बोली- बहन तुमने तो अपने वचन के चलते इस फूल सी बच्ची को बचपन से जंगल की जिन्दगी दी है उसके साथ कितना अन्याय किया लेकिन तुम करती भी क्या? सबकुछ ईश्वर के हाँथ में है वो जो चाहते हैं वैसा ही होता है परंतु तुम्हारे मुँह से ये सब सुनकर अब पुर्वा बेटी की नीरस जिंदगी पर बहुत दुख हो रहा है।
सुलोचना ने आगे कहा- मुझे इससे ज्यादा चिंता इस बात की है कि मेरी काफी उम्र हो चली है मैं कब तक की मेहमान हूँ पता नही, तंत्र मंत्र के सहारे मैं जी रही हूं पर कब तक जिऊंगी, इस दुनियां में जो आया है उसको एक न एक दिन जाना ही है पर मेरे चले जाने के बाद इसका क्या होगा? कहाँ जाएगी? किसके पास रहेगी? कौन इसका होगा जो इसका ख्याल रखेगा? मैंने अपना वचन पालन करने के चक्कर में अनजाने में ही अपनी फूल सी बिटिया का जीवन बहुत कष्टमय कर दिया है, इस बात को सोच सोच कर मैं अपने को बहुत कोसती हूँ पर क्या करूँ, एक को पूरा करती तो दूसरा छूट जाता और ये बात मैंने आजतक किसी से कही भी नही है आज न जाने क्यों तुम लोगों से अपनापन जैसा प्यार मिला तो बोल रही हूं।
इतना कहकर सुलोचना के आंखों में आंसू आ गए लेकिन वो बहुत मजबूत नारी थी उसने तुरंत अपने को संभाल लिया।
उदयराज ने आगे बढ़कर सुलोचना को गले से लगा लिया और उसके आंसू पोछते हुआ बोला- माता ये आप कैसे सोच सकती हैं कि आप अकेली हैं या मेरी बहन पुर्वा अकेली है, उसका भी भरा पूरा परिवार है अब, जब आपने मुझे पुत्र माना है और मेरी इतनी मदद की है तो क्या मैं आपको और अपनी बहन को अकेला छोड़ दूंगा, नही ऐसा नही हो सकता, मेरी एक विनती है मैं आपको और अपनी बहन पुर्वा को अपने गांव विक्रमपुर लेकर जाना चाहता हूं, और आप मेरी बात टालेंगी नही, बोलिये माता, अब आप मेरे साथ ही चलिए।
सुलोचना- पुत्र मैं तुम्हारी इस इच्छा से बहुत कृतज्ञ हूँ पर मैं इस जंगल में रहकर जनमानस की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ नही तो मैं अपने पुत्र के साथ जरूर चलती, मेरी पति का संकल्प अधूरा रह जायेगा।
उदयराज- तो आप मेरी बहन पुर्वा को ही मेरे साथ भेजिए, वो वहां हमारे साथ रहेगी तो उसका जीवन बदल जायेगा, उसकी सारी जिम्मेदारी मेरी हुई अब।
काकी- हाँ बहन, उसे ही हमारे साथ भेज दो, रजनी और उसकी जोड़ी बहुत जमेगी, बुआ भतीजी की।
सुलोचना- पुत्र उसे भी मैं जरूर भेज देती पर अभी उसकी मंत्र विद्या अधूरी है, जो कि 2 महीने बाद पूरी हो जाएगी तो जब तुम महात्मा जी को वो कागज वापिस करने आओगे तो अपनी बहन को साथ लिवा जाना, क्योंकि मैंने प्रण किया था कि मैं अपनी पुत्री को तंत्र मंत्र सीखा कर निपुण बना दूंगी ताकि वह अपने जीवन में आने वाली परेशानियों को स्वयं हल कर सके, उसकी मंत्र विद्या पूरी होने वाली है बस दो अमावस्या उसको मंत्र और जगाना है और उसके लिए दो महीने लगेंगे।
सुलोचना ने आगे कहाँ- पुत्र तुमने तो मेरी सबसे गहरी चिंता को एक पल में दूर कर दिया और सुलोचना ने उदयराज को गले से लगा लिया।
उदयराज ने सुलोचना से कहा- माता जरा मेरी बहन को इस बात से अवगत तो करा दो।
सुलोचना जैसे ही पुर्वा को घर के अंदर से बुलाने को हुई काकी ने रोकते हुए कहा- रुको बहन मैं बुलाती हूं
काकी- रजनी ओ रजनी!
रजनी- हां काकी, आयी
और रजनी भागती हुई बाहर आई
रजनी- हाँ काकी क्या हुआ?
काकी- अरे अपनी बुआ को लेके नही आई।
रजनी- कौन बुआ?
काकी- अरे पुर्वा, वो तेरी बुआ बन गयी है, तुझे नही पता।
रजनी चौकते हुए- क्या! मुझे तो नही पता, कैसे, वो तो मेरी सहेली है पर वो मेरी बुआ भी है अरे वाह! ये हुई न बात। पर कैसे?
काकी- तेरे बाबू ने बहन को माँ माना है तो वो हुई न तेरी बुआ।
रजनी- अरे हां, सो तो है, बुआ ओ बुआ जरा बाहर आओ (रजनी ऐसे बोलते हुए कुटिया में चली गयी और कुछ देर बाद दोनों ही मस्ती करती हुई बाहर आई)
सुलोचना- देखो, दो तीन दिन में ही कितना प्यार है दोनों में। पुर्वा अब तू खुश है न अपनी भतीजी और भैया को पा के।
पुर्वा- हाँ अम्मा, बहुत खुश!
उदयराज ने पुर्वा को देखा और पूछा- खुश तो मैं भी हूँ तुम्हे पाकर मेरी बहन, क्या तुम मेरे साथ हमारे गांव चलना चाहोगी?
पुर्वा और रजनी आश्चर्य से एक दूसरे को देखने लगी
रजनी- बाबू क्या पुर्वा हमारे साथ चल रही है? (रजनी ने चौकते हुए कहा)
उदयराज- अब ये तो पूर्वा के ऊपर है, उसका क्या मन है
पूर्वा- मन तो मेरा भी है भैया पर मैं अम्मा को अकेला छोड़ कर नही जा सकती, और मेरी मंत्र विद्या भी अभी अधूरी है।
उदयराज- हां मेरी बहन हमारी बात हो गयी है, माता जी ने बोला है कि दो महीने बाद मैं तुम्हे लेने आऊंगा, तुम कुछ दिन वहां रहना फिर कुछ दिन यहां रहना, ऐसे करके जब जहां तुम्हारा दिल करे रहना।
पुर्वा सुनकर बहुत खुश हो गयी और सुलोचना के गले लग गयी सुलोचना ने हाथ बढ़ा कर रजनी को भी गले से लगा लिया
काकी और उदयराज भी काफी खुश थे, फिर हंसी खुसी रजनी और पुर्वा कुटिया में चले गए खाना बनाने।