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मैं नहीं जानता था की मेरी तक़दीर मेरे लिए कुछ ऐसा लिख रही है जो नहीं होना था , बल्ब की पीली रौशनी में मैंने देखा चाची बिस्तर पर अकेली , लहंगा पेट तक उठा हुआ, छाती खुली हुई , एक हाथ में वो कोई किताब लिए थी जिसे पढ़ते हुए वो दुसरे हाथ को जोर जोर से हिला रही थी जो उनकी जांघो के बीच था . बेशक कमरे में पंखा पूरी रफ़्तार से चल रहा था पर गर्मी कुछ बढ़ सी गयी हो ऐसा मुझे महसूस हो रहा था . जांघो के बीच वो हाथ अजीब सी हरकते कर रहा था और तब मुझे मालूम हुआ की वो दरअसल वो चाची की उंगलिया थी जो तेजी से उनकी योनी के अन्दर बाहर हो रही थी .
बेशक मैं योनी को ठीक से नहीं देख पा रहा था परन्तु बालो की उस काली घटा को जरुर महसूस कर रहा था , चाची का पूरा ध्यान उस किताब को पढने में था . मेरी साँसे फूलने लगी थी . दो दिन में ये तीसरी बार हुआ था जब मैं चाची के बदन को इस तरह महसूस कर पा रहा था . मैंने अपने सीने पर पसीने की बूंदों को दौड़ते हुए महसूस किया .
ये सब देखने में बड़ा अच्छा लग रहा था पर अचानक से चाची बिस्तर पर गिर गयी . और लम्बी लम्बी साँसे भरने लगी . जैसे की बेहोशी छा गयी हो उनपर, पर फिर वो उठी, अपने ब्लाउज को बंद किया और उस किताब जिसे वो पढ़ रही थी तकिये के निचे रखा और बिस्तर से उठ गयी . मैं तुरंत वहा से हट गया क्योंकी अगर वो मुझे वहां पर देख लेती तो शायद हम दोनों ही शर्मिंदा हो जाते.
सुबह मैं उठा तो चाची ने मुझे चाय पिलाई, ऐसा लग ही नहीं रहा था की रात को यही औरत आधी नंगी होकर कुछ कर रही थी . खैर, मेरे दिमाग में बस यही था की उस किताब को देखूं की चाची क्या पढ़ रही थी , पर अफ़सोस तकिये के निचे अब वो किताब नहीं थी, शायद चाची ने उसे कहीं और रख दिया था .
घर जाते ही मेरा सामना मेरे पिता से हुआ. जो नाश्ता कर रहे थे .उन्होंने मुझे पास रखी कुर्सी पर बैठने को कहा .
“एक ही घर में रहते हुए , हम आपस में मिल नहीं पाते है , थोडा अजीब है न ये ” उन्होंने कहा.
मैं- ऐसी बात नहीं है जी
पिताजी- तुमने मोटर साइकिल लेने से मना कर दिया , गाड़ी तुम्हे नहीं चाहिए , घर वालो से तुम घुल मिल नहीं पाते हो , दोस्त तुम्हारे नहीं है , बेटे हमें तुम्हारी फ़िक्र होती है , कोई समस्या है तो बताओ, हम है तुम्हारे लिए तुम्हारे साथ .
मैं- कोई समस्या नहीं है पिताजी , और मैं बस यही आस पास ही तो आता जाता हूँ, उसके लिए साइकिल ठीक है गाड़ी मोटर की क्या ही जरुरत है .
पिताजी- चलो मान लिया , पर बेटे हमें मालूम हुआ तुम कीचड़ में उतर गए एक बैल गाड़ी को निकालने के लिए, तुम हमारे बेटे हो तुम्हे समझना चाहिए .
मैं- किसी की मदद करना अच्छी बात होती है आप ने ही तो सिखाया है
पिताजी- बेशक हमें दुसरो की मदद करनी चाहिए पर आम लोगो में और हम में थोडा फर्क है , इस बात को तुम्हे समझना होगा . खैर, हम चाहते है की तुम आगे की पढाई करने बम्बई या दिल्ली जाओ .
मैं- क्या जरुरत है पिताजी वहां जाने की जब अपने ही शहर में पढ़ सकता हूँ मैं
पिताजी- हम तुम्हारी राय नहीं पूछ रहे तुम्हे बता रहे है
मैं- मैं नहीं जाऊंगा कही और
ये कहकर मैं उठ गया और आँगन में आ गया . मैंने इस घर को देखा , इसने मुझे देखा और देखते ही रहे . खैर मैंने भाभी के साथ नाश्ता किया और अपनी साइकिल उठा कर बाहर आया ही था की चाची मिल गयी .
चाची- किधर जा रहा है
मैं- और कहा जाना बस उधर ही जहाँ अपना ठिकाना है
चाची- दो मिनट रुक फिर मुझे भी साथ ले चलना
“नहीं खुद ही आना ” मैंने कहा और उन्हें वही छोड़ कर चल दिया. गलियों को पार करते हुए मैं बड़े मैदान की तरफ जा रहा था की तभी मैंने सामने से उसे आते हुए देखा .केसरिया सूट में क्या गजब ही लग रही थी . वो नजदीक आई , उसने मुझे देखा, उसके होंठो पर जो मुस्कान थी उसका रहस्य अजीब लगा . बस हलके से उसकी उडती चुन्नी मुझे छू भर सी गयी और न जाने मुझे क्या हो गया . एक रूमानी अहसास , उसके गीले बालो से आती क्लिनिक प्लस शम्पू की खुशबु मुझे पागल कर गयी .
मैं उस से बात करना चाहता था , पर वो बस आगे बढ़ गयी , हमेशा की तरह उसने पलट कर नहीं देखा, इसके बारे में मालूम करना होगा , दिल ने संदेसा भेजा और मैंने कहा , हाँ जरुर. दिन भर मैं क्रिकेट खेलता रहा पर दिल दिमाग में बस उसका ही अक्स छाया रहा . और फिर कुछ सोचकर मैं जंगल में उस तरफ गया जहाँ पहली बार मैं उस से मिला था .
यकीं मानिए, उस दिन मैंने जाना था की किस्मत भी कोई चीज़ होती है , थोड़ी ही दूर वो मुझे लकडिया काटते हुए दिखी, लगभग दौड़ते हुए मैं उसके पास गया .
“क्या ” उसने मुझे हांफता देख पर पूछा
मैं- आपसे बात करनी थी .
वो-क्या बात करनी है
मैं- वो तो मालूम नहीं जी,
मेरी बात सुनकर उसने कुल्हाड़ी निचे रखी और लगभग हंस ही पड़ी .
“तो क्या मालूम है तुम्हे ” उसने शोखी से पूछा
मैं- पता नहीं जी
वो- चलो, मेरी मदद करो लकडिया काटने में एक से भले दो , अब तुम मिल ही गए हो तो मेरा काम थोडा आसान हो जायेगा.
मैंने कुल्हाड़ी उठाई और लकड़ी काटने लगा. करीब आधे घंटे में ही अच्छा ख़ासा गट्ठर हो गया .
“तुम्हारा मुझसे बार बार यूँ मिलना क्या ये इत्तेफाक है “ उसने पूछा
मैं- आपको क्या लगता है
वो- मुझे क्या लगेगा कुछ भी तो नहीं .
मैंने गट्ठर साइकिल पर रखा और बोला- चले
वो - हाँ, पर उठने दो मुझे जरा
उसने अपना हाथ आगे किया तो मैंने उसे थाम कर उठाया. ये हमारा पहला स्पर्श था.उसको क्या महसूस हुआ वो जाने , पर मैं बिन बादल झूम ही गया था .
“अब छोड़ भी दो न ” उसने उसी शोखी से कहा तो मैं थोडा लाज्जित हो गया और हम थोड़ी बहुत बाते करते हुए वापिस गाँव की तरफ चल पड़े. पिछली जगह पर हम अलग हुए ही थे की मैंने प्रोफेसर साहब की गाड़ी को खड़े देखा. चाचा की गाडी इस वक्त यहाँ जंगल की तरफ क्या कर रही थी मैं सोचने को मजबूर हो गया . और गाड़ी की तरफ बढ़ गया .