#2
मैंने देखा भाई घर लौट आया था और अब मेरा यहाँ रहना मुश्किल था . मैं निचे आया और घर से निकल गया .
“देवर जी चाय ” भाभी आवाज देते रह गयी पर मैंने अनसुना किया और वहां से दूर हो गया . ये जानते हुए भी मैं इस घर से दूर नहीं भाग सकता हार कर मुझे यही लौटना होता है , फिर भी मैं भागता था .आज का दिन बड़ा बेचैनी भरा था . मेरे मन में बार बार चाची की तस्वीर आ रही थी . न चाहते हुए भी मेरा ध्यान बस उस द्रश्य पर ही जा रहा था . ऐसी बेचैनी मैंने पहले कभी भी महसूस नहीं की थी . अपनी तिश्नगी में भटकते हुए मैं जंगल की तरफ चल दिया.
अपनी साइकिल एक तरफ खड़ी की मैंने और पैदल ही झाडिया पार करते हुए अन्दर की तरफ बढ़ गया . काफी दूर जाने के बाद मैंने देखा एक लड़की , लकडिया काट रही थी . ढलती धुप में पसीने से भीगा उसका लाल हुआ चेहरा , मेरी नजर जो उसके चेहरे पर ठहरी बस ठहर ही गयी . उसने भी मुझे देखा , कुल्हाड़ी चलाते हुए उसके हाथ मुझे देख कर रुक गए.
“सुनो, ” उसने चिल्लाकर मुझसे कहा .
मैं उसके पास गया .
“लकडिया थोड़ी ज्यादा काट ली मैंने क्या तुम उठा कर मेरे सर पर रखवा दोगे ” उसने कहा .
मैं- जी,
वो - बस मेरा काम लगभग हो ही गया है , अच्छा हुआ तुम इस ओर आ निकले , मुझे आसानी हो जाएगी.
वो न जाने क्या बोल रही थी क्या मालूम मेरी नजर उसके चेहरे से हट ही नहीं रही थी , सांवला चेहरा धुप की रंगत में और निखर आया था . मैंने पसीने की कुछ बूंदे उसके लबो पर देखि और न जाने क्यों कलेजे में मैंने जलन सी महसूस की .
“क्या सोच रहे हो , उठाओ इंधन को ” उसकी आवाज जैसे मेरे कानो में शहद सा घोल गयी .
“हाँ, ” मैंने हडबडाते हुए कहा.
उसने अपने सर को बड़ी अदब से थोडा सा झुकाया और मैंने लकडियो का ढेर उसके सर पर रख दिया.
“शुक्रिया, ” उसने हौले से कहा . और आगे बढ़ गयी . मैं बस उसे जाते हुए देखता रहा . जब तक की वो नजरो से लगभग ओझल नहीं हो गयी. तभी न जाने मुझे क्या हुआ मैं दौड़ा उसकी तरफ . उसने मुझे हाँफते हुए देखा .
“क्या मैं ये लकडिया ले चलू, मेरी साइकिल पर रख दो इन्हें ” मैंने साँसों को काबू करते हुए कहा.
उसने एक पल मुझे देखा और बोली- ठीक है .
हम मेरी साइकिल तक आये और मैंने लकडियो का गठर उस पर रख लिया.
“चलो ” उसने कहा
“हाँ, ” मैंने कहा .
जैसा मैंने कहा , आज का दिन बड़ा अजीब था ढलते सूरज की लाली जैसे चारो तरफ बिखर सी गयी थी . वो बेखबर मेरे साथ कदम से कदम मिलाते हुए चल रही थी . हवा बार बार उसकी चुन्नी को सर से हटा रही थी मुझे रश्क होने लगा था उन झोंको से . जी चाह रहा था की उस से बात करूँ, और शायद वो भी किसी उलझन में थी उसकी उंगलिया चुन्नी के किनारे से जो उलझने लगी थी .
“आप रोज यहाँ आती है ” मैंने पूछा
“नहीं तो ” उसने कहा .
उसने एक पल मुझे देखा और बोली- रोज तो नहीं पर तीसरे चौथे दिन आ ही जाती हूँ , बस यही रुक जाओ गाँव शुरू होने वाला है , अब ये लकडिया मुझे दे दो
मैं- मैं ले चलता हूँ न
वो- नहीं गाँव आ गया है ,
मैंने एक पल उसकी आँखों में देखा और जैसा उसने कहा वैसा किया . वो एक बार फिर से आगे बढ़ने लगी. जी तो किया की इसे यही रोक लू पर मेरा क्या बस चले किसी पर बस उसे जाते हुए देखता रहा एक तरफ वो जा रही थी दूसरी तरफ सूरज ढल रहा था .
घर आकर भी मुझे चैन नहीं था मैं चोबारे में गया और अपना डेक चलाया ”तुम्हे देखे मेरी आँखे इसमें क्या मेरी खता है ”
पिछले कुछ बक्त से ऐसा बहुत कम हुआ था की मैंने कोई गाना बजाया हो . मैं बाहर आकर कुर्सी पर बैठ गया और सांझ की ठंडी हवा को दिल में उतरते महसूस करने लगा.
“वाह क्या बात है , ये शाम और ये गाना, क्या हुआ मेरे देवर को आज तेवर बदले बदले से लगते है ” भाभी ने मेरी तरफ आते हुए कहा .
उन्होंने चाय का कप मुझे पकडाया और पास बैठ गयी .
“कुछ नहीं भाभी , काफी दिनों से इसे देखा नहीं था लगा की कहीं खराब न हो जाये तो बजा लिया. ” मैंने कहा .
भाभी- चलो इसी बहाने तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान तो आई .
मैं- क्या भाभी आप भी .
भाभी- अब तुमसे ही तो मजाक करुँगी, हक़ है हमारा
मैं- सो तो है .
हम बाते कर ही रहे थे की चाची भी ऊपर आ गयी .
“मुझे तुमसे एक काम है , क्या तुम मेरे साथ शहर चलोगे कल ” चाची ने कहा
मैं- नहीं, मुझे अल कुछ काम है आप चाचा के साथ क्यों नहीं जाती
चाची- वो ले जाते ही नहीं , तुम्हे तो पता ही है उनका हिसाब कभी कभी तो लगता है की उनकी बीवी मैं नहीं बल्कि ये निगोड़ी किताबे है , कालेज से आने के बाद भी बस लाइब्रेरी में ही घुसे रहते है कभी कभी सोचती हूँ आग लगा दू इन किताबो को .
भाभी- कर ही दो चाची ये काम
चाची- तू भी छेड़ ले बहुरानी , खैर अकेली चली जाउंगी मैं .
बहुत देर तक हम तीनो बाते करते रहे, रात बस ऐसे ही बीत गयी . सुबह मैं भाभी को लेकर मंदिर की तरफ चला गया . भाभी को मैंने पूजा की थाली दी और अन्दर जाने को भाभी .
“तुम भी चलो साथ ,हमें अच्छा लगेगा ” भाभी ने कहा
मैं- नहीं भाभी मेरा मन नहीं है .
मैं वही सीढियों पर बैठ गया सुबह सुबह का वक्त,और अलसाया मेरा मन पर तभी कुछ ऐसा हुआ की ..................... ....... .