अध्याय – 6
“आप अंदर आकर सुनोगी तो मैं नाराज़ नहीं हो जाऊंगी"!
हमेशा की ही तरह स्नेहा ने जब विवान से बात कर अपना मोबाइल रखा तो उसकी नज़र दरवाज़े की ही तरफ थी। वहां मौजूद एक साया, स्नेहा साफ देख सकती थी, पर आज उसके चेहरे पर उस साए को देखकर मुस्कान आने की जगह, दृढ़ता आ गई। जहां हमेशा उसकी मौजूदगी पर स्नेहा को हंसी सी आ जाती, वहीं आज वो दुखी थी। इन बदले भावों का भी एक विशेष कारण था...
अस्मिता के शब्दों को सुन मैं पूर्णतः स्तब्ध होकर वहीं खड़ा रह गया। वो मुझे चाहती थी, मुझसे प्रेम करती थी, मैं जानता था परंतु उसके प्रेम की गहराई से मैं शायद अनभिज्ञ था। मैं जाने कितनी देर वहीं खड़ा उसके अक्स को हवा में उकेरता रहा और उसकी अनुपस्थिति में भी उसे खोजता रहा। तभी मेरे मोबाइल ने हमेशा की तरह मेरा ध्यान भंग किया। हालांकि, अस्मिता के विचारों में जब मैं गुम होता तब मुझे किसी प्रकार का व्यवधान अच्छा नहीं लगता था परंतु मोबाइल पर वो नाम देख कर मैं, नाराज़ होने की जगह प्रसन्न हो गया। वो स्नेहा का ही फोन था, मैंने जैसे ही फोन उठाया वो एक दम से मुझ पर बरस पड़ी,
स्नेहा : सुबह से फोन क्यों नहीं किया आपने? मैं पूरा दिन इंतज़ार करती रही कि अब आएगा फोन, अब आएगा, पर आपको तो कोई लेना – देना ही नहीं है। कल भी मैंने ही फोन किया था, और आज भी...
उसकी गुस्से भरी आवाज़ को सुनकर मेरी हंसी छूट गई जिसके कारण वो एक दम से चुप हो गई। मैं समझ गया था कि वो और भी नाराज़ हो गई होगी। घर में सबसे छोटी होने के कारण, बचपन से ही सबने, स्नेहा को बहुत लाड से पाला। उसके माता – पिता अर्थात, मेरे चाचा – चाची के लिए तो वो उनकी जीवन रेखा ही रही है हमेशा से। इसकी एक वजह जो मुझे पता है, वो ये कि स्नेहा का जन्म बहुत सी कठिनाइयों के बाद हुआ था। एक बार मैंने मां और दादी को इस बारे में बात करते सुना था। जब चाची का विवाह हुआ था, उसके कुछ समय पश्चात एक गंभीर बीमारी से वो ग्रसित हो गईं थीं, जिसके फलस्वरूप चिकत्सकों ने यहां तक कह दिया था कि शायद वो कभी मां ना बन पाएं। परंतु, कितने ही समय तक अस्पतालों और मंदिरों के चक्कर काटने के बाद उन्हें संतान सुख प्राप्त हुआ था।
खैर, स्नेहा, अब तो वो 18 की हो गई थी, परंतु अपनी नादानी और अल्हड़पन अभी भी उसने खुद में संजोया हुआ था। जब भी कोई उसकी नादानी भरी बात पर हंस देता तो वो अत्यधिक नाराज़ हो जाती। अभी भी यही हुआ था, क्योंकि जब भी वो नाराज़ होती तो बोलना बिल्कुल बंद कर दिया करती थी। सत्य में, तीन वर्षों के बाद भी वो बिल्कुल नहीं बदली थी। वो आज भी वही गुड़िया थी, जो एक तरह से मेरे बचपन का मेरा पसंदीदा जीवंत खिलौना हुआ करती थी। जब वो कुछ देर तक कुछ न बोली तो मैंने दुखी स्वर में कहा,
मैं : स्नेहा मैं नहीं आ पाऊंगा तेरे जन्मदिन पर...
इसके बाद वही हुआ जिसकी मुझे अपेक्षा थी,
स्नेहा : क्या!! क्यों? आपने वादा किया था.. हुह्ह, गंदे भईया.. मैं कुछ नहीं सुनूंगी, आपको आना ही पड़ेगा।
मैं : अब मुझसे कोई बात तो करता नहीं, तो क्या करूंगा वहां आकर।
स्नेहा : कौन नहीं करता? मैं कर तो रही..
वो एक पल को शांत हो गई और फिर दोबारा गुस्से में बोली,
स्नेहा : बहुत खराब हो आप भईया। इतनी छोटी बच्ची के साथ कोई ऐसे करता है क्या?
मैं : छोटी बच्ची? कौन?
स्नेहा : कौन? हां, कौन? आप आओ एक बार, बताती हूं मैं आपको, कौन।
मैं : कभी – कभी तो मुझे समझ नहीं आता कि मैं तुझसे बड़ा हूं या तू मुझसे?
स्नेहा : बस – बस, ज़्यादा नाटक मत करो आप, और बताओ कि कब आ रहे हो? नहीं छोड़ो, आप मत बताओ, आप सुबह – सुबह सीधे मंदिर में ही आ जाना। अगर देर की आपने तो याद रखना..
उसकी यही आदत थी। हमेशा से वो मुझ पर एक बड़ी बहन की तरह धौंस जमाया करती थी और जब भी उसे मुझे कोई चेतावनी देना होती, तो अपनी बात अधूरी छोड़ दिया करती।
विवान : हम्म्म, आ जाऊंगा। कैसे हैं सब वहां?
स्नेहा (मुस्कुराकर) : कल भी आपने यही पूछा था, और परसों भी, और उससे पिछले दिन भी और उससे...
मैं : ऐ बस कर ना, सीधे – सीधे जवाब दे दिया कर कभी।
मैंने हल्की सी तेज़ आवाज़ में कहा तो वो ऊपर से और भी अधिक भड़क गई..
स्नेहा : अच्छा, अब आप मुझपर रौब जमाओगे। जाओ मैं नहीं करती आपसे बात।
मैं : स्नेहा, क्यों परेशान कर रही है, बता ना..
स्नेहा : पहले बोलो कि आप मुझसे कभी गुस्से में बात नहीं करोगे और मेरी सारी बातें मानोगे।
मैं (बड़बड़ाकर) : पहले अस्मिता और अब ये.. सब मुझसे अपनी बात क्यों मनवाना चाहते हैं...
स्नेहा : क्या? क्या कहा? ये अस्मिता कौन है..?
ये सुनकर मैंने अपने सर पर हाथ मार लिया,
मैं : कौन अस्मिता?
स्नेहा : कौन अस्मिता? मैंने सुन लिया भाई, बताओ – बताओ कौन है ये अस्मिता?
मैं : मैं तुझसे बाद में बात करूंगा..
स्नेहा : अच्छा? ज़रा काटकर दिखाना फोन, अगर आपमें हिम्मत है तो। चलो छोड़ो, जब आप आओगे तब देखती हूं आपको और आपकी अस्मिता को।
मैं (मन में) : बच गया..
स्नेहा : और ये मत सोचना कि बच जाओगे मुझसे, स्नेहा का दिमाग कंप्यूटर है, कुछ नहीं भूलता.. हां नहीं तो!
मैं : समझ गया दादी अम्मा, अब मुझ नादान बालक को माफ करें और बताने की कृपा करें कि आज क्या – क्या हुआ वहां।
स्नेहा : हां अब ठीक है। एक बात बताओ, आपने आरोही दी से बात की थी क्या?
मैं (हड़बड़ाकर) : क.. क्या मतलब?
स्नेहा : आज आरोही दी ने सबके साथ रात का खाना खाया.. मुझे तो याद भी नहीं कि आखिरी बार ऐसा कब हुआ था। ना वो आज पूरा दिन अपने कमरे में रहीं, सच है ना भईया,आपकी बात हुई थी ना..
स्नेहा की बात सुनकर मैं मौन हो गया। जहां मेरे केवल एक फोन से ही आरोही में आए बदलाव को जानकर मुझे प्रसन्नता हुई तो वहीं उसकी तीन वर्ष से चली आ रही पीड़ा मुझे द्रवित भी कर रही थी। इधर, स्नेहा के बुद्धि चातुर्य ने मुझे विस्मित सा कर दिया। सत्य में बहुत ही तीव्र बुद्धि थी उसकी। खैर, जब मेरी ओर से कोई जवाब नहीं मिला, तो शायद वो भी मेरे मन की अवस्था समझ गई और,
स्नेहा : मैं आपसे बाद में बात करूंगी। ध्यान रखना अपना।
यही कारण था की फिलहाल स्नेहा के चेहरे पर गंभीरता झलक रही थी। जैसे ही उसने फोन काटा, सीधे उसकी नज़रें कमरे के दरवाज़े पर चली गईं और तभी उसने वो शब्द कहे। स्नेहा की बात से वो साया ठिठक सा गया। ये समझकर स्नेहा अपने बिस्तर से उठी और तेज़ कदमों से चलकर दरवाज़े तक पहुंच गई। इससे पहले की वो शख़्स वहां से जाता, स्नेहा ने उसकी कलाई थाम ली और उसे रुकने पर विवश कर दिया। ये शख्स और कोई नहीं बल्कि आरोही ही थी जो हर बार की तरह आज भी स्नेहा को विवान से बातें करते सुन रही थी। आरोही की तीव्र होती सांसों को स्नेहा भी देख पा रही थी परंतु अभी भी आरोही उसकी तरफ पलटी नहीं थी।
स्नेहा : कब तक छुपकर भईया की आवाज़ सुनने की कोशिश करती रहोगी दी, कब तक छुप कर ये जानने की कोशिश करती रहोगी कि भईया ठीक हैं या नहीं, कब तक खुद को ये झूठा दिलासा देती रहोगी...
स्नेहा ने हल्की सी धीमी पर भारी आवाज़ में कहा, आरोही के हाथ में होती कंपन से वो अनजान नहीं थी पर आज वो इस आंख मिचौली का शायद अंत करना चाहती थी।
स्नेहा : मैं जानती हूं दी कि भईया के जाने से अगर इस घर में कोई सबसे ज़्यादा दुखी है तो वो आप हैं, शायद ताई जी से भी ज़्यादा। पर कब तक आप खुद में ही दुखी होती रहोगी, क्यों नहीं किसी से अपने दिल की बात कह देती आप। क्या आप सिर्फ भईया से ही प्यार करती हो, मैं आपकी कुछ नहीं लगती?
अब तक आरोही की आंखों से अश्रुधारा बह निकली थी, जिससे की स्नेहा अंजान थी। आरोही वहां से निकलना चाहती थी पर उसके अंदर इतनी शक्ति नहीं बची थी कि वो स्नेहा से अपनी कलाई छुड़वा ले। वो बस असहाय सी होकर आंसू बहा रही थी। शायद स्नेहा भी आरोही की हालत समझ रही थी इसलिए,
स्नेहा : अंदर आइए दी।
इतना कहकर उसने आरोही की कलाई छोड़ दी और कमरे का दरवाज़ा पूरी तरह खोल दिया। आरोही भी बिन कुछ कहे उसकी बात मानकर अंदर चल दी और जब वो पलटी तभी, उसकी भीगी आंखों को देखकर स्नेहा को भी बहुत बुरा लगा पर वो जानती थी कि शायद ये ज़रूरी था। स्नेहा ने दरवाज़ा बंद कर दिया ताकि कोई उनकी बातें ना सुन सके, और इधर आरोही किसी अपराधी की तरह नज़रें झुकाए खड़ी थी।
स्नेहा : आपने बताया नहीं दी, क्या आप सिर्फ भईया से प्यार करती हैं, मैं आपकी कुछ नहीं लगती?
आरोही की नज़रें एक दम से ऊपर हुई और अचानक से उसने स्नेहा को अपने गले से लगा लिया। स्नेहा इसकी उम्मीद नहीं कर रही थी पर आरोही की इस क्रिया से उसे बेहद खुशी हुई। विवान के घर से जाने के बाद से आरोही ने सबसे बात करना बंद कर दिया था। बस कभी – कभी वो शुभ्रा से बात कर लिया करती थी, जिसका कारण वो खुद ही जानती थी। उसके अलावा बाकी सब जैसे आरोही के लिए अनजान हो गए थे। पर ऐसा शुरू से नहीं था, आरोही पहले बहुत ही हंसमुख और चुलबुली हुआ करती थी, स्नेहा को तो वो सदा से अपनी सगी बहन की तरह प्यार करती थी। इसीलिए, विवान के घर से जाने के बाद आरोही में आए बदलाव के कारण स्नेहा को भी बहुत दुख हुआ था। आरोही ही उसकी वो दीदी थी, जिससे वो बेझिझक अपनी सारी परेशानियां कह दिया करती थी। यहां तक कि, जो कुछ वो अपनी मां तक से नहीं कह पाती, आरोही से कह दिया करती।
खैर, आरोही ने जब उसे यूं गले लगा लिया, तो स्नेहा को वो पुराने दिन याद आ गए, जब ये तीनों भाई – बहन साथ में खेला करते थे। परंतु, अधिक देर तक वो अपनी यादों में नहीं रही क्योंकि आरोही, उसके गले लगते ही फफक – फफक कर रोने लगी थी। स्नेहा ने उसे शांत करने का प्रयास भी नहीं किया क्योंकि वो जानती थी कि ये उसके वश की बात नहीं थी। विवान ही था जो आरोही को पुराने अवतार में लौटा सकता था। आरोही जाने कितनी देर तक रोती रही और फिर, अपने आप ही उससे अलग होकर खड़ी हो गई। उसने स्नेहा के चेहरे को अपने हाथों में थामा और उसके माथे पर एक चुम्बन अंकित कर दिया। इसके पश्चात वो उसके बाएं गाल को सहलाते हुए बोली,
आरोही : दोबारा ऐसा कभी मत कहना, तू ही तो गुड़िया है मेरी। मुझे पता है कि मैं तेरे साथ अच्छा नहीं कर रही, आखिर तेरी तो कोई गलती नहीं है, पर अब कुछ भी पहले जैसा नहीं हो सकता स्नेहा, इसलिए.. इसलिए अपनी दीदी को माफ कर दे।
इतना कहकर आरोही वहां से जाने को हुई, पर इससे पूर्व की वो दरवाज़ा खोलती स्नेहा ने पुनः अपनी बात रखी,
स्नेहा : नहीं दी, देखना सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा, आपने सुना था ना, भईया वापिस आ रहें हैं, वो भी बस दो दिन बाद।
आरोही : नहीं स्नेहा अब कुछ भी पहले जैसा नहीं हो सकता, वो तुझसे मिलने आ रहा है, और तुझसे मिलकर वापिस चला जाएगा...
आरोही के ये शब्द, जाने वो किसे ये बता रही थी? स्नेहा को या खुद को? विवान वापिस आ रहा था, कल जब स्नेहा को उसने फोन पर ये कहते सुना था, तब उसके हृदय में जो हलचल हुई, वो सिर्फ वही जानती थी। उसके बाद आज विवान का उसे खुद फोन करना, और अब ये सब... विवान की वापसी से यदि किसी को सबसे अधिक प्रसन्नता होनी थी तो वो शायद आरोही ही थी, परंतु वो जाने क्यों, खुद को ये बताने की कोशिश कर रही थी कि विवान अब कभी लौटकर नहीं आएगा। पिछले तीन वर्षों की प्रतीक्षा उसपर इस कदर भारी पड़ी थी कि अब वो किसी भी झूठी उम्मीद के भंवर में नहीं फंसना चाहती थी। पर उसे क्या पता था कि जिसे वो झूठ समझ रही थी, एक भ्रम समझ रही थी वही उसकी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत सत्य साबित होने वाला था।
स्नेहा और आरोही की ही इस हवेली के एक अन्य कमरे में भी गहन विचार – विमर्श चल रहा था। जहां रामेश्वर जी और उनकी धर्मपत्नी सुमित्रा, दोनों बेहद गंभीर दिखाई दे रहे थे। रामेश्वर जी अपने हाथ बांधे, खिड़की के नज़दीक खड़े शून्य में खोए हुए थे। इधर सुमित्रा जी उन्हें उदास नज़रों से देख रही थीं और इंतज़ार कर रहीं थीं उनके कुछ कहने का,
रामेश्वर जी : सुमित्रा.. क्या हमारा घर सच में टूट रहा है सुमित्रा?
“नहीं – नहीं, आप ऐसा क्यों कह रहें हैं, आज भी हमारे परिवार में बहुत प्रेम है"।
रामेश्वर जी : किसे दिलासा दे रहीं हैं आप, मुझे या खुद को? हमारा परिवार तो तीन बरस पहले ही बिखर गया था, वो भी.. वो भी सिर्फ हमारे कारण!
“ऐसा मत कहिए, आपने तो वही किया जो आपको करना चाहिए था"।
रामेश्वर जी : ये आप कह रहीं हैं? क्या हम नहीं जानते कि आप कितनी आहत हैं हमारे उस फैसले के कारण। हम.. हम उस दिन रामेश्वर सिंह राजपूत बनकर रह गए, और शायद एक दादा का कर्तव्य नहीं निभा सके।
“आपने वही किया जो ये पूरा गांव आपसे अपेक्षा करता था, जो आपके पूर्वज करते आएं हैं, इस वंश की लाज बनाए रखने के लिए वो ज़रूरी था".. द्रवित मन से सुमित्रा जी ने कहा।
रामेश्वर जी : कभी – कभी आपको देखकर हैरान हो जाते हैं हम, इतना सब होने के बाद भी आप हमें ही सही ठहरा रहीं हैं?
“क्योंकि हम आपकी पत्नी हैं, मां ने हमें यही सिखाया था कि पति परमेश्वर होता है और उसकी हर बात सही होती है और हम जानते हैं कि वो फैसला सुनाना आपके लिए कितना पीड़ादाई रहा होगा"।
रामेश्वर जी : विवान ने कुछ नहीं किया था, वो ऐसा कर ही नहीं सकता। हम जानते हैं अपने पोते को, सच कहें सुमित्रा, विवान में कभी – कभी हमें पिताजी की झलक दिखाई देती थी। उसकी बातें, उसकी सोच, उसकी कार्यशैली और बुद्धिमत्ता, पिताजी के अलावा केवल विवान में ही हमने इतनी योग्यता देखी है।
“इसीलिए आपने आज तक वीरेंद्र, दिग्विजय या विक्रांत को अपनी जगह नहीं बैठाया, है ना"?
प्रथम बार रामेश्वर जी के मुख पर एक मुस्कान आई,
रामेश्वर जी : पिताजी की आज भी हम प्रशंसा करते हैं, जानती हैं क्यों? इसलिए नहीं कि वो हमारे पिता थे अपितु इसलिए क्योंकि उनकी दूरदर्शिता अविश्वसनीय थी। अब देखिए ना, आपको उन्होंने ही चुना था हमारे लिए, और आपने इस घर में कदम रखते ही इस घर को मंदिर बना दिया।
अपनी प्रशंसा पर इस आयु में भी सुमित्रा जी लज्जा गईं। रामेश्वर जी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा,
रामेश्वर जी : रही बात हमारी जगह की, तो वो केवल विवान का अधिकार है। पिताजी ने सदैव एक ही बात हमें सिखाई थी कि अधिकार, जन्म से नहीं बल्कि कर्म से पाया जाता है। वीरेंद्र में कभी भी नेतृत्व क्षमता नहीं थी, वो किशोरावस्था से ही रुपए – पैसे के फेर में पड़ गया था। दिग्विजय, कभी भी हमारी जगह बैठना स्वीकार नहीं करता, आखिर अपने भाई का लक्ष्मण जो है वो। उसके मुताबिक वीरेंद्र के होते, किसी भी वस्तु पर उसका प्रथम अधिकार नहीं हो सकता। रही बात विक्रांत की तो...
अचानक ही रामेश्वर जी चुप हो गए। सुमित्रा जी भी कुछ हद तक समझ गईं थीं उनकी चुप्पी का कारण,
“हमने इस बच्ची के साथ अन्याय किया है। हम.. शायद उसकी माफी के भी काबिल नहीं"!
रामेश्वर जी : सही कहा आपने। शुभ्रा के साथ अन्याय की माफी भी नहीं मांग सकते हम उससे। किस मुंह से माफी मांगेंगे, इतना असहाय हमने खुद को कभी महसूस नहीं किया सुमित्रा जी.. कभी नहीं!
अचानक ही रामेश्वर जी की आंखें नम हो गईं जिसे देखकर सुमित्रा जी की हैरानी की कोई सीमा ना रही। दोनों के विवाह को कितने वर्ष हो चुके थे, पर कभी भी रामेश्वर जी की रौबदार आंखों में उन्होंने अश्रु नहीं देखे थे। वो आगे बढ़ीं और उनके कंधे पर हाथ रख दिया।
रामेश्वर जी : काश वो वापिस आ जाता। वही.. बस वही एक है जो इस घर को मकान में परिवर्तित होने से रोक सकता है। यदि ये घर मकान बना तो हम जीते जी मर जाएंगे सुमित्रा, हमने पिताजी से जो वादा किया था, वो बिखर जाएगा.. और हम भी।
सुमित्रा जी काफी देर तक उन्हें सांत्वना देती रहीं। खुद भी वो अत्यंत व्यथित थी पर आज प्रथम बार रामेश्वर जी को इस हालत में देख वो तड़प गईं थीं। दोनों आधी रात तक जागते रहे और खुद को समझाते रहे, रात के किसी पहर अपने आप ही दोनों की आंख लग गई।
“इस दफा हम कोई भी खता नहीं कर सकते, आरिफ, उन सबमें से अगर एक भी ज़िंदा बचा, तो हम में से एक भी नहीं बचेगा"!
सुबह का समय था और एक पुराना गोदाम, जिसमें चारों तक काफी सारे बक्से और कई सीलन से ग्रस्त बोरियां पड़ी थीं, उसी गोदाम के मध्य में एक लकड़ी की जर्जर कुर्सी पर बैठा था एक शख्स। बैठे होने के कारण उसके कद का अंदाज़ा लगाना मुश्किल था, पर प्रतीत हो रहा था की कम से कम 6 फुट का तो होगा ही वो। उसने काले रंग का कुर्ता और पायजामा पहना हुआ था और गर्दन के चारों तरफ एक सफेद और काले रंग के मिश्रण का गमछा लिपटा हुआ था। उसके सामने कुछ 20 – 25 लोग खड़े थे जिनका पहनावा काफी हद तक उस शख्स के ही जैसा था। उन्हीं सब में, सबसे आगे खड़े एक व्यक्ति से ये बात कही थी उसने, जिसपर,
आरिफ : कोई खता नहीं होगी जनाब, हमने सारा बंदोबस्त कर लिया है। पर एक मुश्किल हो रही है...
शख्स : कैसी मुश्किल?
आरिफ : भाईजान, हमें तारीख तो पता है पर हम उन सबको घेरेंगे कहां? उनके ठिकाने पर जाना खुदखुशी साबित होगा।
उस शख्स के चेहरे पर ये सुनकर एक रहस्मयी मुस्कान आ गई और,
शख्स : इससे हमें कोई मुश्किल नहीं होने वाली आरिफ। जिनके लिए हम काम करते हैं उनकी पहुंच सब जगह है। वो सब लोग कब, कहां और कैसे जाएंगे, इसके बारे में हमें सब कुछ पहले ही मालूम चल जाएगा।
आरिफ : मतलब उनके बीच में बड़े मालिक का कोई आदमी भी है?
शख्स : ऐसा ही समझ लो।
आरिफ : पर...
शख्स : बस! इससे ज़्यादा जानने की ना तो तुम्हें ज़रूरत है और ना ही तुम्हारी हैसियत। जाओ जाकर सभी इंतजामों को और भी पुख्ता करो।
आरिफ : जैसा आप कहें।
इतना कहकर आरिफ उस शख्स को अदब से झुककर सलाम कर वहां से निकल गया। इधर वो शख्स बाकी के आदमियों से कुछ सवाल – जवाब करने में मशगूल हो गया वहीं आरिफ उस गोदाम से निकलकर कुछ दूरी पर जाकर खड़ा हो गया। ये एक संकरी सी पगडंडी थी, जहां से गोदाम और उसके आस – पास की गतिविधियों को देखा जा सकता था। आरिफ ने एक बार चारों तरफ का मुआयना किया कि कहीं कोई उसे देख ना रहा हो। उसके पश्चात उसने अपनी जेब से मोबाइल निकाला और उसपर कुछ पल अंगुलियों को घुमाने के बाद उसे अपने कान से लगा लिया। कुछ पलों के बाद,
आरिफ : कैसे हैं आप भाईजान...
फोन : *****
आरिफ : जी भाईजान, ज़रूरी खबर है इसीलिए आपको फोन किया।
फोन : *****
आरिफ : भाईजान, कल अशफ़ाक को किसी रणवीर नाम के बंदे का फोन आया था पर शायद बात किसी और ने की थी...
फोन : *****
आरिफ : मतलब, जिसने अशफ़ाक को फोन किया था, उसके मोबाइल से शायद किसी और ने बात की थी। हुआ यूं था कि, जब अशफ़ाक ने फोन उठाया तब उसने कड़क आवाज़ में ही रणवीर को तख़ातुब किया था पर तभी एक दम से उसकी आवाज़ भीगी बिल्ली जैसी हो गई। पहली बार इतना डरा हुआ था देखा था उसे मैंने भाईजान। फिर जब उसने सारी बात कर ली उसके बाद वो वहां से अचानक ही चला गया।
फोन : *****
आरिफ : जी भाईजान, अभी भी इसी गोदाम को अड्डा बनाया हुआ है इसने।
फोन : *****
आरिफ : नहीं भाईजान, उसके बाद ये अभी एक घंटे पहले ही गोदाम में वापिस आया है। आते ही उसने अपने सभी बंदों को इकट्ठा करने को कह दिया। आज शाम तक इसके सभी बंदे यहीं हाज़िर हो जाएंगे।
फोन : *****
आरिफ : वो.. वो उस फोन वाले शख्स जिसको अशफाक बड़े मालिक बुला रहा था, उसने.. उसने ****** को.. म.. मारने को बोला है अशफ़ाक को।
फोन : *****
आरिफ : भाईजान उन सबके आने – जाने की और कहां उनकी मौजूदगी होगी, इसकी सारी जानकारी कोई उस बड़े मालिक को दे रहा है। ठीक से तो बताया नहीं अशफ़ाक ने पर मेरे ख्याल से, ज़रूर कोई घर का भेदी होगा।
फोन : *****
आरिफ : बिलकुल भाईजान। आप बेफिक्र रहिए, जैसे ही कुछ और पता चलेगा, मैं बताऊंगा आपको।
आरिफ के इतना कहते ही दूसरी तरफ से फोन कट गया और आरिफ आस – पास नज़रें घुमाता हुआ वापिस गोदाम के अंदर चला गया...
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