अध्याय – 5
जब मैं वापिस अपने मकान पर पहुंचा तब क्षितिज से सूर्य ढल चुका था। चांद – सितारे आकाश में टिमटिमाने लगे थे, पवन अच्छे वेग से बह रही थी और दिन में जिस प्रकार की उमस रही थी, मुझे पूरी उम्मीद थी कि आज रात जोरों की बरसात होने वाली थी। इस वक्त मेरा मन काफी उदास था, रह – रह कर मुझे आरोही का वो स्वर, जिसमें केवल उदासी थी, याद आ रहा था। उसके रोने की आवाज़ भी मेरे कानों में गूंज रही थी परंतु सबसे अधिक तीव्र थे वो दृश्य, जो बार – बार मेरी आंखों के समक्ष आ रहे थे। बचपन का, किशोरावस्था का हर वो पल जो मैंने आरोही के साथ हंसते – खेलते बिताया था, सब कुछ मानो एक चलचित्र के समान मुझे दिखाई दे रहा था।
मैं झुके हुए कंधों और परेशान मन के साथ अपने मकान के अंदर चल दिया कि सहसा मेरे चेहरे के भाव बदल गए। मेरे मकान के भीतर काफी मात्रा में रोशनी नज़र आ रही थी। मुझे अच्छी तरह याद था कि आज सुबह मैंने सभी बत्तियां बुझा दी थी। मैं दरवाज़े के निकट पहुंचा तो मैंने पाया कि वहां भी ताला नहीं था। अर्थात, कोई ताला तोड़कर मेरे मकान में घुस गया था। मैंने खुदको नियंत्रित किया और एक लंबी सांस खींचकर एक झटके में दरवाज़ा खोल दिया और स्वतः ही मेरे मुंह से निकल गया, “तुम"!!
मेरे सामने खाने के मेज के नज़दीक से अस्मिता खड़ी थी और उसके हाथ में कुछ बर्तन थे। मेरे अचानक से दरवाज़ा खोलने पर वो ज़रा भी नही हड़बड़ाई और वैसे ही खड़ी रही। मुझे देखकर बस एक छोटी सी मुस्कान उभर आई थी उसके होंठों पर। उसने मेरी ओर कुछ पलों के लिए देखा और फिर उन बर्तनों को वहीं मेज पर रखने लगी। मैं चलकर उसके नज़दीक पहुंचा और,
मैं : तुम इस वक्त, यहां?
अस्मिता ने अपना काम जारी रखते हुए, मुझे नज़र उठाकर देखा पर कोई जवाब नहीं दिया। जैसे ही मैं पुनः कुछ कहने को हुआ तभी,
अस्मिता : जाओ जाकर हाथ – मुंह धो लो, खाना तैयार है।
मेरी और देखे बिना ही कहा उसने, जिसपर मैं कुछ देर उसे बस देखता रहा और फिर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अस्मिता के घर पर मैं अपने मकान की एक चाबी रखा करता था कि यदि मुझसे एक चबाई कहीं खो जाए तो दिक्कत ना हो। इधर, जैसे ही मैं अपने कमरे में पहुंचा, मैंने अपने सर पर हाथ दे मारा। वजह थी अस्मिता की वो तस्वीर जो मैंने अपने बिस्तर के नज़दीक एक पटल पर रखी हुई थी। ये तस्वीर मैंने आज से दो वर्ष पूर्व खींची थी, और अस्मिता को इसकी कोई जानकारी नहीं थी। मुझे अच्छे से याद है, वो वक्त शायद मेरी ज़िंदगी का सबसे खराब पहलू था, मुझे अपने घर से दूर आए हुए एक वर्ष बीत चुका था परंतु एक वर्ष बाद भी मैं उस घर से पूर्णतः निकल नहीं पाया था। मेरी उदासी, मेरी परेशानी, मेरे अकेलेपन में यदि कोई ऐसा था जो मुझे जीवन का एक नया पहलू दिखा रहा था, तो वो अस्मिता ही थी। उस दिन अस्मिता का जन्मदिन था, और उसने श्वेत रंग का सलवार – कमीज़ पहना था जिसके साथ एक कढ़ाईदार दुपट्टा उसने ओढ़ा हुआ था। उस दिन मेरे दिल ने मुझे इशारा किया था कि अब वो एक ऐसे शख्स के लिए धड़कने लगा था जिसे मैं एक वर्ष पहले जानता तक नहीं था।
खैर, उस तस्वीर में अस्मिता का दुपट्टा पवन के वेग से लहरा रहा था और उसके मुखमंडल पर एक बड़ी सी मुस्कान दिखाई दे रही थी। मेरे सर पर हाथ मारने का कारण मेरा संदेह था कि कहीं अस्मिता ने वो तस्वीर यहां देख ना ली हो। अजीब सा बंधन था मेरा उसके साथ, कभी – कभी मैं ना जाने कैसे उसे स्पर्श तक कर दिया करता, और कभी – कभी छोटी सी बात पर भी मैं उसकी प्रतिक्रिया के बारे में सोचकर घबराने लगता। सत्य में ये लड़की मुझे पागल कर चुकी थी। मैं, अब मैं रहा ही नहीं था। अभी मैं इन्ही विचारों में गुम था कि तभी पुनः अस्मिता की आवाज़ मुझे सुनाई दी, “जल्दी आओ विवान"! उसने तेज़ स्वर में कहा था और मैंने भी ये सुनकर अपने सभी विचारों को झटका और कमरे से जुड़े स्नानघर में हाथ – मुंह धोने हेतु चल दिया।
जब मैं बाहर आकर उस मेज से सटी कुर्सी पर बैठा तभी अस्मिता रसोईघर से एक पानी की बोतल लेकर बाहर आई। उसके बाल बंधे हुए नहीं थे और बारंबार उसके चेहरे पर आ रहे थे। खैर, उसने उस बोतल को वहीं मेज पर रखा और मेरी बगल वाली कुर्सी पर बैठ गई। ना उसने कुछ कहा और ना ही मैंने कुछ बोला। अपने आप ही उसने एक थाली में, भिन्न – भिन्न बर्तनों से कुछ व्यंजन निकलकर परोस दिए और जब पूरी थाली बन गई, तो मेरी आंखों में झांकते हुए उसने वो थाली मेरे सामने रख दी। मैं इस पूरी प्रक्रिया के दौरान बस उसके चेहरे को ही देख रहा था। किंतु जैसे ही वो अपने लिए थाली लगाने को हुई, मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। उसकी नज़रें मेरे ही ऊपर थी, मैंने बिना कुछ कहे अपनी कुर्सी उसके और अधिक नज़दीक कर ली और वो थाली हम दोनों के मध्य में खिसका ली।
वो अभी भी अपनी प्रश्नों से भरी निगाहों से मेरी ओर देख रही थी। जिसके उत्तर में मैंने एक छोटा सा निवाला उसकी तरफ बढ़ा दिया। अचानक ही उसकी आंखों में हैरानी के भाव उतर आए परंतु उसने मेरी और देखते हुए अपना मुख भी खोल दिया। इसके पश्चात उसने भी मुझे अपने हाथ से एक निवाला खिलाया। उसके हाथों में जो स्वाद था उसका मैं ना जाने कब से दीवाना था, शायद ही कोई उसके जैसा निपुण हो खाना बनाने में, और हो भी तो मैं नहीं जानता था। पर जब वो अपने हाथों से मुझे खिलाने लगी, जो आज से पूर्व कभी नहीं हुआ था, तो मेरी धड़कनें भी अपने आप ही तीव्र हो गईं। कुछ ही देर में हमने एक – दूसरे को खिलाते – खिलाते थाली में मौजूद सभी व्यंजनों को ग्रहण कर लिया था। पर उसके बाद भी हम दोनों कुछ देर तक केवल एक – दूसरे को ही निहारते रहे। जैसे ही अस्मिता उठने को हुई मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और खुद भी उठ खड़ा हुआ।
एक बार फिर वो सवालिया नज़रों से मुझे देख रही थी, और मैंने भी एक बार फिर, बिना कुछ कहे अपनी अंगुलियों से उसके होंठों के नज़दीक लगे भोजन के एक अंश को वहां से हटा दिया। परंतु, इस सब में आज प्रथम बार मेरी अंगुलियों ने उसके होंठों पर हल्का सा स्पर्श कर लिया था। अस्मिता की आंखों को बोझिल होता मैं भली – भांति देख पा रहा था। पर तभी, वो एक दम से वहां से हटी और बर्तन समेटने लगी। आज अस्मिता का यूं अचानक से यहां आना, मेरे पहुंचने से पहले ही भोजन तैयार करना, और फिर उसकी ये चुप्पी, मैं समझ रहा था कि ज़रूर कुछ तो बात थी.. ये सब कुछ व्यर्थ ही नहीं था।
अब असल में इसका कारण क्या था, ये तो अस्मिता ही जानती थी जिसने अभी तक कुछ खास बात की नहीं थी मुझसे। वैसे तो हमेशा ही अस्मिता बहुत कम बोलती थी, पिछले तीन वर्षों से साथ होते हुए भी हम दोनों में कोई बहुत अधिक बातें नहीं हुई थी, पर आज की उसकी ये चुप्पी कुछ अलग सी प्रतीत हो रही थी। मैं इसके बारे में सोच रहा था और ना जाने कब अस्मिता सारे बर्तन समेटकर रसोईघर में भी चली गई। जब मुझे उसकी अनुपस्थिति का आभास हुआ तो मैं भी जाकर रसोईघर की चौखट पर खड़ा होकर उसे देखने लगा। वो सभी बर्तनों को धोकर उचित स्थान पर रख रही थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो इस रसोईघर के प्रत्येक स्थान और वस्तु से परिचित हो। मैं चलता हुआ उसके नज़दीक, उसकी दाईं और खड़ा हो गया, परंतु अभी तक उसने मुझे नज़र उठाकर भी नहीं देखा था। अंततः मेरा सब्र जवाब दे गया और,
मैं : क्या गलती हुई है मुझसे?
उसने बड़ी अदा से मुझे तिरछी निगाहों से देखा परंतु अभी भी उसकी चुप्पी ज्यों कि त्यों कायम ही थी।
मैं : आशु, बता ना, क्यों नाराज़ है?
पुनः उसने मुझे अपनी नज़रें उठाकर देखा पर इस बार उसकी आंखों में मौजूद क्रोध को मैंने पढ़ लिया था। कहां तो मेरे द्वारा उसे आशु नाम से संबोधित किए जाने पर उसका चेहरा खिल जाया करता था और कहां अब उसकी आंखों में क्रोध झलक रहा था। परंतु अगले ही पल उसकी आंखों में दिख रहा वो क्रोध अश्रुधारा बनकर बहने लगा। दूसरी बार मैंने उसकी आंखों में आंसू देखे थे, प्रथम बार वो शायद खुशी के आंसू थे पर आज इस अश्रुधारा को देख मेरा चेहरा कठोर होता चला गया। मैंने उसके कंधों को थामकर उसे अपनी तरफ घुमाया और,
मैं : किसने रुलाया है तुझे, नाम बता उसका..
मेरे स्वर में कठोरता और क्रोध, उसने भी अनुभव कर लिया था। वो मेरे हाथों को अपने कंधों से झटकते हुए बोली,
अस्मिता : तुमने.. तुमने रुलाया है मुझे, मेरी उम्मीद ने रुलाया है मुझे!
उस चिल्लाहट ने मेरे पूरे शरीर में सनसनी सी मचा दी और मैं आंखें फाड़े उसे देखने लगा। अचानक से उसके तीव्र होते रूदन के कारण, स्वयं ही मेरी बाजुओं ने उसे अपने घेरे में ले लिया। आज पहली बार अस्मिता मेरी बाहों में थी, जहां मेरी धड़कन रफ्तार पकड़ रही थी वहीं मेरा मन उसके आंसुओं से चिंता में भी था। अस्मिता पूरी कोशिश कर रही थी मेरी बाहों से निकलने की पर मेरी पकड़ बेहद ही मज़बूत थी। परंतु जब उसका विरोध बढ़ने लगा तो मैंने उसके कान में धीरे से कहा,
मैं : तेरे दुख का, तेरे आंसुओं का, और तेरी उदासी का अगर मैं कारण हूं, तो तेरी दी हर सज़ा मंज़ूर है मुझे। पर.. पर तेरी इन भीगी आंखों को नहीं देख सकता मैं। मुझे तेरी आंखों में अपना अक्स देखने की आदत है, जो इस पानी से धुंधला हो जाता है...
एक दम से मुझे ऐसे लगा जैसे अस्मिता के शरीर से पूरी ताकत मेरे शब्दों ने खींच ली हो। उसका विरोध पूर्णतः थम चुका था और धीरे – धीरे मुझे लगने लगा जैसे उसके हाथों की पकड़ मेरी कमीज़ पर मज़बूत हो रही हो। कुछ ही पलों में वो मेरी कमीज़ को मेरे सीने पर से, अपनी मुट्ठियों में भींच चुकी थी, उसका रूदन भी अब धीमा होकर सुबकियों में तब्दील होने लगा था। मैं हल्के – हल्के, एक हाथ से उसकी पीठ को सहला रहा था तो दूजे हाथ को उसके बालों में घुमा रहा था। पुनः उसके कानों में मैंने अपना स्वर पहुंचाया,
मैं : दादी तेरी राह देख रहीं होंगी..
अस्मिता : दादी आज जल्दी सो गईं थीं।
उसकी हल्की सी रुआंसी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी पर उसकी जिस गतिविधि ने मुझे चकित सा कर दिया, वो था उसका धीरे – धीरे मेरे सीने पर अपने गाल को चलाना। मानो वो अपने गाल से मेरे सीने को सहला रही हो।
मैं : जल्दी सो गईं, क्यों?
अस्मिता : थकावट हो रही थी उन्हें, इसलिए दवा खाने के कारण उन्हें नींद आ गई।
मैं : तुम क्यों नहीं सो गई फिर?
अस्मिता कुछ पल चुप रही और फिर एक दम से मुझसे अलग होकर खड़ी हो गई। उसके गालों पर अभी भी कुछ नमी थी पर अब तक उसके आंसू पूर्णतः थम चुके थे। वो एक अजीब भाव से मेरी ओर देख रही थी और फिर,
अस्मिता : मेरी क्या जगह है तुम्हारी ज़िंदगी में?
एकाएक उसके इस प्रश्न ने मुझे चकित कर दिया पर फिर मैं एक छोटी सी मुस्कान अपने होंठों पर लाते हुए बोला,
मैं : तुम्हारी जगह? अगर मैं कहूं कि तुम ही मेरी ज़िंदगी हो..
मैंने भावावेश में आकर कह तो दिया था, परंतु अगले ही पल मुझे एहसास हुआ कि शायद मैं कुछ अधिक बोल गया था। मैंने हिम्मत कर अस्मिता के चेहरे को देखा तो पुनः मैं हैरान हो गया। उसकी आंखों में वही प्रसन्नता हिलोरे मार रही थी जिसे देखने का मैं आदी था। परंतु जो मैं अभी तक नहीं समझ पा रहा था, वो था अस्मिता के पल – पल बदल रहे इन भावों और क्रियाओं की कारण। शायद इसका भान उसे भी हो गया था, सहसा ही वो मेरे नज़दीक आ गई, इतना नज़दीक की मेरे और उसके मध्य शायद पवन के बहने हेतु जगह भी नहीं बची थी। उसने अपने दोनों हाथों से मेरे गिरेबान को खींचा और मेरा चेहरा अपने चेहरे के और भी करीब कर लिया। मेरी श्वास बेहद तीव्र हो चुकी थी पर अस्मिता के मुखमंडल पर दृढ़ता की झलक मैं देख पा रहा था।
अस्मिता : झूठ.. झूठ बोल रहे हो तुम! जो तुमने कहा, अगर वैसा होता तो तुम यूं अपनी परेशानी मुझसे नहीं छिपाते, ना तुम पूरा दिन कॉलेज में खोए – खोए रहते, ना तुम्हारी आंखों में पूरा दिन ये सूनापन और चिंता रहती, ना तुम कॉलेज के बाद मुझे बिना बताए चले जाते और ना ही इतनी देर से घर आते। मैं समझती थी कि तुम मुझे चाहते... (अल्पविराम)... मैं सोचती थी कि तुम जानते हो कि तुम मेरे लिए क्या हो, मुझे हमेशा उम्मीद थी कि तुम्हें कोई भी परेशानी होगी, तुम उसे मुझसे कहोगे। क्या मैं नहीं जानती कि तुम यहां अकेले, दुखी, खुद में खोए क्यों रहते हो? क्या मैं नहीं जानती तुम्हारे परिवार ने तुम्हारे साथ क्या किया। मैं सब जानती हूं विवान, तुम्हें तुमसे ज़्यादा जानती हूं, पर तुमने तो मुझे इस लायक भी नहीं समझा कि तुम अपने दिल की मुझसे कह सको।
स्तब्ध.. मैं बिल्कुल स्तब्ध था। अस्मिता मेरे अतीत का सत्य जानती थी, ये मेरे लिए एक झटका था। हां, आरोही के बारे में मैं उससे अक्सर बातें करता रहता था, मैं अभी तक यही समझता था कि अस्मिता केवल इतना ही जानती है कि मेरी आरोही नाम की एक जुड़वा बहन है, जिससे मैं बेहद प्यार करता हूं। इससे अधिक मैंने ना तो कभी उसे बताया और ना उसने कभी मुझसे पूछा। अस्मिता से प्यार करता था मैं, असीम प्यार, इतना जितना मैंने कभी सोचा नहीं था कि एक अंजान लड़की से कर बैठूंगा। उसके दिल में क्या था ये भी मैं जानता था, मुझे देखकर उसकी आंखों की शरारत, उसके लबों की मुस्कान, उसके चेहरे पर उभरती खुशी, सबसे परिचित था मैं। परंतु, मैंने कभी नहीं सोचा था कि वो यूं खुलकर भी अपने जज्बात मुझसे कहेगी। अब तक हम दोनों में सब कुछ अप्रत्यक्ष रूप से प्रत्यक्ष था, पर शायद उसके इस कथन से बहुत कुछ बदलने वाला था।
जैसे ही अस्मिता चुप हुई मैं अचंभित होकर उसकी झिलमिल निगाहों में झांकने लगा। उसकी पलकों पर सजे आंसुओं के कतरे, आंखों में तैरती नमी और वो इल्तिजा जो वो मुझसे कर रही थी, स्वतः ही मेरे होंठ हल्के से नीचे झुके और उसकी पेशानी पर आकर थम गए। एक गहरा चुम्बन, उसके माथे पर अंकित करने के बाद मैंने ज़ोर से उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया। सुबह से विचलित मेरा मन अब शांत होने लगा था और एक नया एहसास मेरे दिल में उबाल मार रहा था। अस्मिता की बाहों को अपने इर्द – गिर्द पकड़ बनाते हुए पाकर मैं एक अलग ही आयाम में पहुंच गया था।
मैं : जब सब कुछ जानती ही हो, तो ये भी जानती होगी कि आज मैं ऐसा बर्ताव क्यों कर रहा था?
अस्मिता : आरोही.. उससे जुड़ी बात है ना?
मैं : हम्म.. तीन सालों से मुझे एक ही सपना आ रहा है। एक लड़की जिसकी आंखें बिल्कुल मेरे जैसी हैं, वो एक जंगल में फंसी हुई है, और मुझे.. मुझे पुकार रही है पर ना जाने क्यों, ना तो मैं उस लड़की को पहचान पाता और ना ही ये जान पाता कि वो कौन सा स्थान है। पिछले कुछ दिन से रोज़ ही ये सपना आने लगा है, और जब आज सुबह तुमने कहा कि मेरी और आरोही की आंखें एक समान हैं, तब मुझे एहसास हुआ कि मैंने कभी इस ओर गौर ही नहीं किया। आशु, मुझे डर लग रहा है, अगर.. अगर उसे कुछ हो गया तो.. तो मैं.. मैं ज़िंदा...
अस्मिता ने अपना हाथ एक दम से मेरे मुंह पर रख दिया और हल्का सा पीछे होकर ना में सर हिलाने लगी। मेरे दाएं गाल पर अपना हाथ फेरते हुए उसने कहा,
अस्मिता : उसे कुछ नहीं होगा, मैं जानती हूं तुम उसे कुछ नहीं होने दोगे। जानते हो, जब तुम अपनी बहन के लिए ऐसे परेशान हो जाते हो, तब मुझे एहसास होता है कि मैं कितनी खुशकिस्मत हूं.. जो.. जो तुम मुझसे..
काफी देर बाद उसकी बात पर मैं मुस्कुरा दिया और शरारत भरे लहज़े में बोला,
मैं : मैं तुमसे क्या?
अस्मिता के होंठों पर भी एक मुस्कान उभर आई और,
अस्मिता : तुम नहीं जानते।
मैं : मैं सिर्फ़ तुम्हें जानता हूं!
अस्मिता : मुझे तो नहीं लगता कि तुम मुझे जानते हो।
मैं : क्यों?
अस्मिता : अगर तुम मुझे जानते तो.. तो मुझे यूं इंतज़ार ना करवाते।
मैं (मुस्कुराकर) : किस चीज़ का इंतज़ार?
अस्मिता ने मुझे घूरकर देखा और फिर मेरे गाल पर एक हल्की सी चपत लगाते हुए बोली, “बुद्धू"! फिर अचानक ही जैसे उसे कुछ याद आ गया और वो पुनः मेरे नजदीक आकर बोली,
अस्मिता : तुम्हारे कमरे में.. वो तस्वीर किसकी है?
उसकी मुस्कान में छिपी शरारत और उसके स्वर की वो चंचलता किसी का भी मन मोह लेने के लिए काफी थी और मैं तो जाने कबसे उसपर.. खैर, मैंने उत्तर दिया,
मैं : कौन सी तस्वीर?
अस्मिता : कितनी तस्वीरें हैं तुम्हारे कमरे में?
सहसा ही उसने दोबारा से मेरे गिरेबान को खींचकर मुझे अपने चेहरे पर झुका लिया,
मैं : तू आज ठीक नहीं लग रही..
अस्मिता : ठीक ही तो करने आईं हूं तुम्हें.. कान खोलकर सुन लो, आज से.. अभी से, एक बार में मेरी कही बात मान लेना वरना..
मैं : व.. वरना.. वरना क्या?
अस्मिता : घबरा गए क्या?
उसके द्वारा कहे गए “वरना" पर जब मैं अपनी प्रतिक्रिया देने को हुआ तो अचानक से ही उसने मेरे चेहरे पर एक फूंक मार दी और मेरी ज़ुबान हल्की सी लड़खड़ा गई,जिसपर एक शरारती मुस्कान के साथ उसने ये अंतिम शब्द कहे। हर बार की ही तरह मैंने उसके कान के पीछे छिपी उस ज़ुल्फ को उसके चेहरे पर कर दिया और उसकी कमर पर अपने दोनों हाथ रख, उसे खुदसे और भी लगाता हुआ बोला,
मैं : किसीने सच ही कहा है.. खूबसूरती बहुत खतरनाक होती है।
अस्मिता (मुस्कुराकर) : बताया नहीं तुमने वो तस्वीर किसकी है?
मैं : मेरे दिल से पूछ लो कि उसकी धड़कन पर किसका नाम लिखा है, जवाब मिल जाएगा।
एकाएक उसने मुझे धक्का दिया और बाहर की ओर, खिलखिलाते हुए भागने लगी। जब वो मकान के दरवाज़े तक पहुंची तभी,
मैं : यशपुर जा रहा हूं मैं..
अस्मिता (बिना पलटे) : कब?
मैं : 10 तारीख को..
अस्मिता : ठीक है।
मैं : पूछोगी नहीं कि लौटूंगा या अब वहीं रहूंगा।
मेरे इस सवाल पर वो पलटी और,
अस्मिता : जो यहां छोड़कर जाओगे, उसके बगैर रह लगे तुम?
मैं (गंभीरता से) : बदली – बदली लग रही हो आज!
अस्मिता : बदल तो मैं तीन साल पहले ही गई थी लेकिन कभी जताया नहीं, पर अब लगता है जताने की ज़रूरत है।
मैं : कुछ पूछूं तुमसे?
(उसकी आंखों से ही मिली एक मूक सहमति के पश्चात)...
मैं : मेरे अतीत के बारे में कैसे जाना तुमने?
अस्मिता : ये मैं तुम्हें नहीं बता पाऊंगी।
मैं : क्यों?
अस्मिता : जिसने बताया था उन्होंने सौगंध दी थी तुम्हारी, कि तुम्हें उनका नाम और पहचान ना बताऊं।
मैंने एक पल को उसे देखा और फिर,
मैं : जब मैंने अचानक से दरवाज़ा खोला, तो तुम ना घबराई और ना ही हैरान हुई। क्यों?
अस्मिता मुस्कुराई और पलटकर बाहर की ओर चल दी। पर जाते – जाते उसके कहे वो शब्द मुझे एक और बार अचंभित कर गए...
“जताती नहीं हूं कभी पर तुम्हारी आहट, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारी महक, और तुम्हें, नींद में भी पहचान सकती हूं मैं"...
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