• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Incest प्रेम बंधन

Status
Not open for further replies.

Rajm1990

Active Member
1,173
1,392
143
भाई कहानी जबरदस्त है।
पढ़ के बोहोत अच्छा लग रहा है।
अगले अपडेट का इंतजार रहेगा।
 

Sanju@

Well-Known Member
4,706
18,897
158
अध्याय – 7


“जा रहा हूं मैं"...

कल रात, पहले अस्मिता और फिर स्नेहा से बात करने के पश्चात बहुत हद तक मुझे मेरी उदासी और उद्वेग से निजात मिल गया था, परंतु अब भी वो दुस्वप्न और आरोही के विचार मेरे मस्तिष्क में बने हुए थे। शायद सुबह के सात बज रहे थे अभी, और जैसा कि कल रात से ही मुझे अपेक्षा थी, बाहर काफी ज़्यादा पानी भरा हुआ था। स्पष्ट था की कल दिन भर रही उमस का नतीजा रात में बरसात के रूप में प्रकट हुआ था। मैंने नित्य कर्मों से फुर्सत होने के बाद, अपने बिस्तर के नज़दीक रखे एक सूटकेस को उठाया और बाहर की तरफ चल दिया। कल रात ही मैंने यशपुर जाने की तैयारी कर ली थी ताकि सुबह उठकर देरी ना हो। खैर, मैं जब बाहर के मुख्य दरवाज़े, जोकि लोहे का था, उसपर ताला लगा रहा था तभी मुझे अनुभूति हुई कि मेरे पीछे कोई खड़ा था और उसी से मैंने वो शब्द कहे थे।

जब मैं पलटा तो जो अंदेशा मुझे हुआ था, वो सही निकला। वहां अस्मिता ही खड़ी थी, उसके हाथ में एक डब्बा था, और वो मुझे बड़े गौर से देख रही थी, जैसे मुझे जांच रही हो। अभी मैंने काले रंग की एक जींस पैंट और उसके साथ पूरी बाज़ू की एक सफेद रंगी कमीज़ पहनी हुई थी। अस्मिता की आंखों में प्रशंसा के भाव मैं स्पष्ट देख पा रहा था। अस्मिता मेरे नज़दीक आई और बिन कुछ कहे मेरे कंधे पर लटक रहे बस्ते में वो डब्बा रख दिया। दो पल को वो खड़ी मेरी आंखों में झांकती रही, और फिर अचानक ही उसने मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया। जब वो मेरी कलाई से कमीज़ का बटन खोलने लगी, तो मेरे चेहरे पर हैरानी उतर आई, परंतु उसे नजरंदाज करते हुए, अस्मिता अपने काम में लगी रही।

उसने मेरी कमीज़ की आस्तीन को दोनों तरफ से, ऊपर कर मोड़ दिया और फिर बोली, “ऐसे अच्छे लगते हो"! उसकी बात सुनकर जहां मेरे चेहरे की हैरांगी दूर हो गई और उसकी जगह एक मुस्कान ने मेरे होंठों पर ले ली, वहीं, उसकी आंखों में झलकती प्रसन्नता और प्रशंसा अचानक ही उदासी में परिवर्तित हो गई। मैं समझ गया था कि शायद उसे एहसास हुआ कि कुछ दिन उसे मेरे बिना ही रहना था। पर फिर अपने चेहरे पर उन भावों को आने से रोकते हुए बोली,

अस्मिता : डब्बे में नाश्ता है, रास्ते में खा लेना, मुझे पता है तुमने कुछ नहीं खाया होगा। अपना ध्यान रखना और पहुंचकर मुझे फोन कर देना और हां.. ज.. जल्दी आना।

अंत में उसका स्वर थोड़ा लड़खड़ा सा गया और उसकी उदासी को भांपकर, मैंने शरारत भरे लहज़े में कहा,

मैं : क्यों? रह नहीं पाओगी मेरे बिना?

अस्मिता ने एक दफा फिर मुझे परखने की निगाहों से देखा और सहसा ही वो ज़ोर से मुझसे लिपट गई। पहले तो मैं हैरान हुआ, परंतु फिर, उसके करीब होने के एहसास में खोए हुए मैंने भी उसे अपनी बाहों के घेरे में कस लिया। तभी,

अस्मिता : इतने बन – ठन कर निकलने की क्या ज़रूरत है?

एक बार फिर उसके सवाल ने मुझे चौंका दिया,

मैं : क्यों? तुम्हें पसंद नहीं आया?

अस्मिता : मैं नहीं चाहती कोई चुड़ैल रास्ते में तुम पर डोरे डाले, तुम बस मेरे सामने ही ऐसे रहा करो।

कल रात मुझे प्रथम बार अस्मिता की बातों और कृत्यों से ऐसा आभास हुआ था जैसे वो मुझपर अपना अधिकार जता रही हो, वो अधिकार जो उसे तीन बरस पहले ही मिल गया था, पर उसने कभी जताना उचित नहीं समझा और अब, उसके स्वर में मुझे अधिकार के साथ स्वत्वात्मकता की झलक भी दिखाई दे रही थी। मैंने उत्तर दिया,

मैं : क्यों? सिर्फ तुम्हारे सामने क्यों? तुम बाकी सबसे अलग हो क्या?

अस्मिता मुझसे अलग हुई और मेरी आंखों में झांकने लगी, शायद मेरे शब्दों का मंतव्य समझने का प्रयास कर रही थी वो, सहसा उसने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ लिया और,

अस्मिता : विवान.. तुम जल्दी आओगे ना, मैं और इंतज़ार नहीं कर सकती।

उसकी बात द्विअर्थी थी, और मैं ये समझ गया था। उसके शब्दों का तात्पर्य मेरे यहां, उज्जैन लौटने के इंतज़ार से तो था ही, पर उस इंतज़ार से भी था जो वो पिछले कई महीनों से कर रही थी। मैंने उसके हाथों से अपना हाथ छुड़ाया और अपनी हथेली उसके गाल पर रखते हुए बोला,

मैं : ज़्यादा इंतज़ार नहीं करवाऊंगा तुम्हें और वहां भी तुम्हारे लिए ही जा रहा हूं। ये मकान इस लायक नहीं है कि तुम यहां रहो, तुम्हारी मंज़िल को भी तो तुम्हारे स्वागत के लिए तैयार करना पड़ेगा ना।

अपने मकान की ओर इशारा करते हुए कहा मैंने, तो उसके चेहरे पर असमंजस के भाव आ गए। परंतु, जल्दी ही वो मेरे शब्दों का तात्पर्य समझ गई और एक बेहद ही हसीन शर्म उसके चेहरे पर उभर आई। अपनी पलकों को झुकाकर उसने कहा,

अस्मिता : त.. तुम...

मैं : जो वादा मैंने परसों तुम्हारे घर की रसोई में किया था, वो याद तो है ना तुम्हें?

अस्मिता ने अपनी पलकें झुकाए हुए ही धीरे से सर हिला दिया,

मैंने उसकी कमर पर अपने हाथ रखते हुए, एक दम से उसे खींचकर अपने साथ लगा लिया, अभी तक उसकी सांसों का शोर भी मुझे बढ़ता हुआ महसूस होने लगा था। उसकी पलकें अभी भी झुकी हुई थी और ये देखकर, “आशु, मेरी आंखों में देखो"... इस बार मेरे स्वर में अधिकार की भावना थी, जिसके कारण अस्मिता के शरीर में हुई कंपन से मैं भी अवगत हो गया था। उसने धीरे से अपनी नज़रें उठाई और उन्हें मेरी नज़रों से मिला दिया।

मैं : मैं अपना वादा ज़रूर पूरा करता हूं अस्मिता, जितना इंतज़ार तुम्हें है, उतना ही मुझे भी है उस पल का, जब तुम और मैं...

उसके बाएं कान पर झुककर जब मैंने अपनी बात शुरू की तो मेरे हर शब्द के साथ अस्मिता की पकड़ मेरी पीठ पर और भी मज़बूत होती चली गई, और फिर,

मैं : लेकिन.. एक बात तुम्हें अभी कह देता हूं..

मेरे गंभीर हुए स्वर के कारण अस्मिता भी जिज्ञासा भरी निगाहों से मुझे देखने लगी और फिर मैंने शायद वो शब्द कहे, जिस आश्वासन की अस्मिता को प्रतीक्षा थी,

मैं : तुम सिर्फ मेरी हो.. सिर्फ मेरी!

अस्मिता की आंखें पहले तो जड़ सी होकर मुझे देखती रहीं और फिर धीरे – धीरे उनमें पानी उतरने लगा। जिन शब्दों को सुनने के लिए वो तरस रही थी, वो उसे अंततः मिल ही गए। पर तभी, आज फिर उसके घर से दादी ने उसे तेज़ आवाज़ में पुकारा और वो एक झटके में मुझसे अलग होकर अपने घर की तरफ चल दी। लेकिन अचानक ही वो रुकी और पलटकर मेरी ओर आई, दो पल मुझे देखते रहने के बाद, उसके होंठ मेरे चेहरे की ओर बढ़े, और मेरे दाएं गाल पर आकर थम गए। केवल दो पल का ही स्पर्श था ये, पर मेरे लिए वो अविस्मरणीय अनुभव था, जिसके साथ मैं और मेरा हृदय सदैव प्रसन्न रह सकते थे। इसके बाद उसके लिए वहां रुक पाना, शायद संभव नहीं था, इसीलिए मैंने भी उसे रोकने का प्रयास नहीं किया।


2 दिन बाद...


मैं एक गाड़ी में बैठा था जोकि एक कच्ची सड़क पर दौड़ रही थी। सड़क पर उड़ती धूल, बरसात के कारण मिट्टी से आ रही सौंधी – सौंधी खुशबू, वो पेड़ – पौधे, और सब कुछ... भली – भांति पहचानता था मैं इन सबको। अभी यशपुर से काफी दूर था मैं, और मेरा रुख यशपुर की तरफ था भी नहीं, मेरा रुख उस पर्वत – श्रृंखला की तरफ था जो यशपुर की उत्तर – पूर्वी दिशा में अपना डेरा डाले हुए थी। वैसे तो यशपुर के वासी गांव से ही जुड़े एक छोटे मार्ग से निकलकर इस पर्वत – श्रृंखला की तरफ बढ़ सकते थे, परंतु मैंने अभी तक गांव में प्रवेश किया ही नहीं था। इसीलिए मुझे हरिद्वार कि सरहद से घूमकर निकलना पड़ा था, जिसके कारण ये सफर कुछ लंबा हो चला था। परंतु, कुछ था जो मुझे इस सफर की लंबाई से भी अधिक परेशान कर रहा था। मेरा ध्यान बारंबार गाड़ी में मेरे सामने रखे मोबाइल पर जा रहा था परंतु अभी तक वो बजा नहीं था, और यही मेरी परेशानी का सबब बन चुका था।

मैंने गाड़ी की रफ्तार और भी कुछ बढ़ा दी और अंततः मैं उस कच्ची सड़क से निकलकर मुख्य मार्ग पर आ गया। बाल्यकाल से लेकर किशोरावस्था तक का हर एक पल, जो मैंने अपने परिवार के साथ, खासकर आरोही के साथ बिताया, वो हर एक पल मेरी आंखों के सामने एक चलचित्र की तरह चल रहा था। ये इंतज़ार सत्य में मेरे लिए बहुत मुश्किल था,मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि आज जहां मैं जा रहा था, वहां सभी की क्या प्रतिक्रिया होने वाली थी। ना मैं ये जानता था कि मैं उन सबसे क्या कहूंगा, खास कर आरोही से.. क्या जवाब था मेरे पास उन कष्टों के लिए जो मेरे विरह में उसने सहन किए थे? उसकी तो कोई गलती भी नहीं थी, गलती तो खैर मेरी भी नहीं थी, पर प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष रूप से मैं उस घटनाक्रम से जुड़ा हुआ था, जिसके कारण मुझे वो सजा मिली, वो सजा जिसका हकदार कोई और ही था।

परंतु आरोही का उस घटनाक्रम से, उस षड्यंत्र से या उस राक्षस से कोई सरोकार नहीं था। उसे ये सब सहना पड़ा तो केवल उस प्रेम के कारण, जो उसके हृदय में मेरे लिए था, और यही सच्चाई मुझे और भी अधिक झकझोर रही थी। तभी मुझे एक पुराना किस्सा स्मरण हो आया...


“तुझे ऐसा नहीं बोलना चाहिए था आरोही"...

आरोही और विवान, दोनों उसी नदी के पास घास के ऊपर लेटे आकाश को ताक रहे थे। हमेशा की तरह दोनों ने एक – दूसरे का हाथ थाम रखा था, और तभी विवान ने वो शब्द आरोही से कहे थे। परंतु, शायद उसे, विवान की बात कुछ खास पसंद नहीं आई, इसीलिए वो उठकर वहां से दूसरी तरफ़ चलने लगी। विवान ये देखकर मुस्कुराते हुए ना में सर हिलाने लगा और फिर वो भी उठ खड़ा हुआ। उसने तेज़ कदमों से चलते हुए आरोही को पीछे से अपनी बाहों के घेरे में जकड़ लिया और,

विवान : नाराज़ क्यों हो रही है, क्या मैं अब तुझे कुछ कह भी नहीं सकता?

आरोही ने अपने इर्द – गिर्द कसे विवान के हाथों को अलग किया और उसकी तरफ पलट गई।

आरोही : तू मुझे कुछ भी कह सकता है पर मेरे रहते तुझे कोई कुछ गलत बोले, ये मैं बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करूंगी।

विवान की प्रथम बात का उत्तर दिया था यहां आरोही ने, जिसपर विवान का चेहरा भी गंभीर हो गया ,

विवान : आरोही वो कोई नहीं हैं, वो हमारे पापा हैं और अगर उन्होंने मुझे कुछ बोल दिया, तो वो उनका हक है, तुझे उन्हें पलटकर जवाब नहीं देना चाहिए...

उसकी बात के बीच में ही आरोही ने उसके गाल पर एक थप्पड़ मार दिया और फिर उसे घूरने लगी। उसकी क्रोधपूर्ण आंखें देखकर विवान की भी हालत पतली हो गई जिसमें इज़ाफा करते हुए आरोही ने उसके गिरेबान को पकड़ा और,

आरोही : मेरी बात कान खोलकर सुन ले तू, किसीने भी बेवजह तुझपर हाथ उठाना तो दूर, अगर तुझे डांटा भी ना, तो मैं बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करूंगी और फिर मुझे कतई फर्क नहीं पड़ता कि वो कौन है, समझ गया ना...

विवान के माथे पर पसीने की बूंदें झलकने लगीं थीं। उसने लड़खड़ाती हुई आवाज़ में जवाब दिया,

विवान: स.. समझ.. समझ गया।

आरोही कुछ देर विवान की आंखों को टटोलती रही और फिर उसे छोड़कर वहीं नदी किनारे एक बड़े से पत्थर पर बैठ गई। अभी भी उसके चेहरे पर गुस्सा स्पष्ट दिखाई दे रहा था। विवान की हालत अभी भी खराब थी, पर वो जानता था कि यदि उसने जल्दी से आरोही को नहीं मनाया तो उसका हर्जाना भी उसके ही गालों को भुगतना पड़ेगा। वो आगे बढ़ा और आरोही के ही साथ बैठ गया, आरोही ने अपनी क्रोधपूर्ण निगाहों से उसे देखा तो विवान का हलक ही सूख गया। पर वो अच्छी तरह जानता था कि उसे कैसे मनाया जा सकता है। विवान ने उसके भावों को नजरंदाज करते हुए उसे एक दम से गले लगा लिया। आरोही ने कुछ देर उससे छूटने का प्रयास किया पर विवान की पकड़ बेहद मज़बूत थी। फलस्वरूप, कुछ देर बाद उसका विरोध थम गया और वो स्थिर हो गई।

विवान : माफ कर दे ना। देख तू चाहे एक और थप्पड़ मार ले पर नाराज़ मत रह। तू खुद बता, क्या तुझे पापा से वैसे बात...

जैसे ही विवान ने दोबारा वही कहना शुरू किया तो आरोही ने उसे खुद से दूर धकेल दिया। इस बार आरोही के चेहरे पर एक अलग ही ज्वाला दिख रही थी। वो विवान को उंगली दिखाते हुए बोली,

आरोही : बस बहुत हो गया अब तेरा। कौन पापा? हां, कौन पापा? तुझे पता भी है पापा का मतलब क्या होता है? कहां थे पापा जब मुझे बचपन में बुखार हुआ था, कौन जगा रहा था पूरी रात, मेरे सर पर ठंडी पट्टियां करते हुए? कौन था? पापा थे, बोल ना? जब वो लड़का स्कूल में मुझे परेशान करता था, मैंने किसी को बताया नहीं, तब किसने मुझे समझा? पापा ने? हां, बोल, समझा और सुलझाया मेरी परेशानी को पापा ने? बचपन में कभी खेले मेरे साथ वो? कभी मुझे महसूस करवाया कि मैं भी उनकी ज़िंदगी में जगह रखती हूं? कभी समझा उन्होंने मुझे? कभी मेरे रूठने पर मनाया उन्होंने मुझे... नहीं.. कभी नहीं। वो कभी भी, कहीं भी नहीं थे विवान... हमेशा तू था, सिर्फ तू था मेरे पास, जिसने हर बार मेरे कहने से पहले ही मेरी हर इच्छा पूरी की, जिसने मेरी हर मुश्किल को मेरे आगे रहकर सुलझाया, जिसने मेरी गलती छुपाने के लिए हमेशा मेरे हिस्से की डांट खाई...

आरोही के स्वर में छुपी वेदना विवान भली – भांति महसूस कर पा रहा था। आरोही हमेशा से ही अपने पिता से खींची – खींची रहती थी, ये जानता था विवान। पर उसने अपने दिल में इतना सब कुछ दबा रखा था, इस बात की विवान को बिल्कुल भी अपेक्षा नहीं थी। आरोही की आंखें लागतार बह रहीं थीं, जो उसके तीक्ष्ण स्वर के साथ मिलकर, विवान को झकझोर रही थी। जब काफी देर तक आरोही का रोना नहीं रुका और उसके आंसू हिचकियों में परिवर्तित होने लगे, तो विवान ने पुनः उसे अपने गले से लगा लिया। वो बेहद प्यार से उसकी पीठ और बालों को सहलाने लगा, और उसके स्पर्श में छुपे प्रेम से अभिभूत होकर आरोही के आंसू भी कुछ ही देर में धीमे पड़ने लगे। लगभग 5–6 मिनट बाद आरोही पूर्णतः शांत हो चुकी थी पर विवान ने अभी भी उसे अपनी बाहों से आज़ाद नहीं किया था। वो एक गहरी सोच में डूबा हुआ था, आरोही के शब्दों ने उसे मजबूर कर दिया था एक विशेष पहलू के बारे में सोचने पर।

आरोही ने जब कुछ देर तक उसकी ओर से कोई हरकत महसूस नहीं की तो वो स्वयं ही उससे अलग हो गई। वो देख रही थी कि विवान किसी गहरे सोच – विचार में लगा हुआ था। तभी,

विवान : अगर कभी मैं तुझसे दूर हो गया तो क्या करेगी तू?

विवान के चेहरे पर दिख रही गंभीरता और उसके स्वर ने आरोही को हिला दिया। उसने घबराकर विवान का हाथ पकड़ लिया और,

आरोही : त.. तू ऐसा क्यों कह रहा है?

विवान : जवाब दे आरोही, क्या करेगी तू अगर मैं तुझसे दूर हो गया तो...

आरोही समझ रही थी कि कुछ तो विवान उससे छुपा रहा था, पर उसके सवाल के जवाब के रूप में उसने कहा,

आरोही : वो पौधा देख रहा है...

उनसे कुछ दूर लगे एक छोटे से पौधे की ओर इशारा करते हुए कहा उसने, तो विवान की नज़रें भी उधर ही घूम गईं। आरोही ने अपनी बात जारी रखी,

आरोही : अगर उसे मैं धूप और पानी से दूर कर दूं तो क्या होगा विवान?

विवान : वो मुरझा जाए...

विवान के आगे के शब्द उसके मुख में ही रह गए जब वो आरोही की बात का तात्पर्य समझा। वो आरोही से अताह प्रेम करता था, इतना जितना उसने कभी किसी से नहीं किया था, वो आरोही के लिए, उसकी हर इच्छा पूरी करने के लिए, कुछ भी कर सकता था। आरोही भी उससे अत्यधिक प्रेम करती थी, ये भी वो जानता था। पर आरोही के प्रेम का जो स्वरूप आज उसने देखा था वो उसे व्यथित कर रहा था।

विवान : आ.. आरोही तू समझ नहीं रही। ये.. ये ठीक नहीं है। तू मुझसे प्यार करती है, मैं भी तुझे बहुत चाहता हूं, पर तू ऐसे मेरी आदत मत डाल...

आरोही (मुस्कुराकर) : अब तो मुझे आदत पड़ चुकी है।

विवान : तू क्यों नहीं समझ रही? कल को तेरी शादी होगी तब भी तो तुझे अपने ससुराल जाना होगा ना...

आरोही : मैं ना तो खुद कुछ ऐसा करूंगी जिससे मुझे तुझसे अलग होना पड़े, और ना ही तुझे ऐसा कुछ करने दूंगी।

अब विवान और उसके तर्क, दोनों ही असहाय हो गए थे। वो बेबसी भरी निगाहों से आरोही को देख रहा था जिसके चेहरे पर एक दृढ़ मुस्कान थी। विवान ने भी अभी के लिए इस मुद्दे को दरकिनार करना ही सही समझा, और बात बदलने के लिए अपने गाल पर हाथ फेरते हुए बोला,

विवान : पर इस सबमें मुझे मारा क्यों तूने?

आरोही (मुस्कुराकर) : मेरी मर्ज़ी, मैं चाहे कुछ भी करूं तेरे साथ।

विवान : पर तू तो कह रही थी कि कोई मुझे डांटे ये भी तुझे बर्दाश्त नहीं।

आरोही (मुस्कुराकर) : मैं कोई और थोड़ी ना हूं। तू भी तो मेरा ही है, मैं जो चाहे करूं तेरे साथ।


ये दृश्य याद कर स्वतः ही विवान के मुख से निकल गया, “झल्ली"! अब तक वो पर्वत श्रृंखला को पर कर चुका था और अंततः उसे वो स्थान दिख गया जहां उसे जाना था। सामने, पर्वतों की गोद में, एक बहुत ही प्राचीन और खूबसूरत मंदिर था, जो कला का अद्भुत नमूना प्रतीत हो रहा था। मंदिर के पास एक कतार में अनेकों गाड़ियां खड़ी थीं। विवान अभी आगे बढ़ता उससे पहले ही उसकी गाड़ी के समक्ष कुछ हट्टे – कट्टे आदमी आकर खड़े हो गए। वो शायद सुरक्षा व्यवस्था देखने हेतु वहां मौजूद थे। उनमें से किसी ने भी अभी तक विवान को नहीं देखा था, और तभी उनमें से एक बोला, “थोड़ा दूर जाकर इंतज़ार कर, थोड़ी देर बाद आना यहां"!

विवान ने अपना मोबाइल अपनी जेब में रखा और गहरी श्वास छोड़कर गाड़ी से उतर गया। जहां उस पावन स्थान, जहां विवान बचपन में कई बार आ चुका था, वहां कदम रखते ही उसे एक आलौकिक सुख की अनुभूति हुई वहीं.. विवान को देख उन सभी आदमियों की आंखें अपनी आखिरी हद तक फैल गईं। उनमें से एक अचंभित आंखों और लड़खड़ाते स्वर के साथ बोला,

“छ.. छोटे मालिक"...


X––––––––––X
Awesome update
यह कहानी मुझे एक प्रेम कहानी के साथ पारिवारिक भी लग रही है जहां प्रेम भी है और नफरत भी । जहां निस्वार्थ सेवा की भावना भी है और छल कपट भी

मुझे लगता है आरोही के बारे में जानकारी उसे स्नेहा से पता लग सकती हैं या अस्मिता का संबंध उसके परिवार में किसी से भी हो सकता है या कोई और भी हो सकता है ??? देखते हैं अस्मिता को विवान के बारे में केसे पता चला ???
 
Last edited:

Hunter798252

New Member
20
55
13
Aise story padhna na padhna barabar hai.

Bas story start kar dete hai uske baad update dene ka time nhi rhta ,, important kaam aa jata hai,,busy ho jate hai ,, Falana dhimka bas bahane to bahut rahte hai ,,, writter sahab aapki story aapko Mubarak

Good bye
 

The Sphinx

𝙸𝙽𝚂𝙲𝚁𝚄𝚃𝙰𝙱𝙻𝙴...
39
304
54
:congrats:for start A new story this theard
आपकी लेखनी बहुत ही सुन्दर लाजवाब और अद्भुद रमणीय है कहानी में रोमांस के साथ साथ सस्पेंस भी अच्छा बना रखा है आपने
Fantastic update आशु का किरदार बहुत ही सुन्दर कोमल और अच्छा है वह विवान से बहुत प्यार करती है आरोही की वजह से विवान को घर से बाहर निकाला है या इसकी वजह और भी हो सकती है
विवान और आरोही एक दूसरे से काफी ज़्यादा जुड़े हुए हैं जिसके बारे में ब्राह्मण पंडित ने बताया भी था इन दोनों पर ग्रहों का ऐसा साया है जिससे इनकी मौत भी हो सकती है । वो हम एक विलेन और अशफाक की बातों से अनुमान लगा सकते हैं जिसने सब को मारने के लिए बोला है। जहां एक तरफ विवान आरोही से दूर होने की पीड़ा से व्यथित है तो वहीं आरोही का भी कम बुरा हाल नहीं है। विवान और आरोही के बारे में अतीत के जो दृश्य दिखाए गए उससे स्पष्ट है कि दोनों के बीच भावनात्मक रिश्ता मामूली नहीं है बल्कि वो दोनों आत्मा से जुड़े हुए हैं। लेकिन अभी तक ये मालूम नही हुआ है कि विवान को हवेली से क्यो निकाला और डायरी के लास्ट पेज में ऐसा क्या लिखा है?????
बहुत ही सुन्दर लाजवाब और अद्भुद रमणीय अपडेट है उनके मध्य प्रेम संलाप, वार्तालाप भावों का आदान प्रदान अतीव सुंदर एवं मर्मस्पर्शी है

ये प्यार ही तो है जो इजहार ना करके भी इजहार और इकरार दोनो कर देता है
बहुत ही खूबसूरत और लाजवाब अपडेट है
स्नेहा और आरोही के बीच जो वार्तालाप हुआ वह बहुत ही मार्मिक और दिल को झकाझोर करने वाला था वही रामेश्वर को अपने फैसले पर पछतावा हो रहा है उसको अपना परिवार बिखरा हुआ दिखाई दे रहा है दोनो पति पत्नी बहुत दुखी दिखाई दे रहे हैं वही दूसरी और विवान और उसकी फैमिली को मारने की प्लानिंग हो रही है अब क्या अशफाक और आरिफ अलग अलग है या एक ही गैंग के है
Awesome update
यह कहानी मुझे एक प्रेम कहानी के साथ पारिवारिक भी लग रही है जहां प्रेम भी है और नफरत भी । जहां निस्वार्थ सेवा की भावना भी है और छल कपट भी

मुझे लगता है आरोही के बारे में जानकारी उसे स्नेहा से पता लग सकती हैं या अस्मिता का संबंध उसके परिवार में किसी से भी हो सकता है या कोई और भी हो सकता है ??? देखते हैं अस्मिता को विवान के बारे में केसे पता चला ???
स्वागत है भाई आपका कहानी में। काफी अच्छा विश्लेषण किया है आपने सभी भागों का। आपके सभी प्रश्नों के उत्तर आगे आपको मिल ही जायेंगे। आशा है की आप आगे भी यूंही कहानी के साथ जुड़े रहेंगे।

पुनः धन्यवाद, बने रहिए!
 

The Sphinx

𝙸𝙽𝚂𝙲𝚁𝚄𝚃𝙰𝙱𝙻𝙴...
39
304
54
विवान की जिंदगी कुछ इस शेर की तरह हो गई है फिर बात विवान और आरोही की हो या विवान और अस्मिता की

ये इश्क नहीं आसां , इतना ही समझ लीजिये
एक आग का दरिया है , और डूब के जाना है
अभी तो विवान के प्रेम जीवन में अनेकों मुश्किलें आनी हैं भाई, कभी लोगों से, कभी अपने प्रेम से तो कभी खुद से जूझना होगा उसे।
कैसे गुजरे होंगे आरोही के तीन साल बिना विवान के, जिसके बिना वो जी भी नही सकती थी? आरोही की वर्तमान स्थिति पर विवान की तरफ से ये लाइन सटीक बैठती है।

मुझसे नाराज़ हो तो हो जाओ
ख़ुद से लेकिन खफ़ा-खफ़ा न रहो
मुझसे तुम दूर जाओ तो जाओ

आप अपने से तुम जुदा न रहो
सही पंक्तियों का चुनाव किया आपने। आरोही के इन तीन वर्षों की झलक आगे मिलेगी।
क्या होगा अब जब सब को पता चलेगा की विवान आ गया है? क्या इसकी सजा खतम होगी, क्या अब विवान अपने प्यार और आरोही के लिए सबसे बगावत करने आया है?

बहुत ही इमोशनल अपडेट जिसमे अटूट प्यार के दो निस्वार्थ या फिर बहुत ही स्वार्थी स्वरूप दिखाए है।
अंत में आपने बहुत ही सटीक विश्लेषण किया है बंधु। आगे प्रेम के विभिन्न रूप आपको देखने को मिलेंगे। बहुत धन्यवाद आपका।

बने रहिएगा!
अब तक की कहानी पढ़ कर यही महसूस हुआ है कि बेहद intense प्लॉट है कहानी का! 🔪🔪
विवान - अस्मिता - आरोही -- उफ़्फ़! एक जटिल प्रेम-त्रिकोण जैसा लग रहा है यह सब। अस्मिता और आरोही दोनों का प्रेम कहा अनकहा होने के बावज़ूद भी कितना गहरा है।
ऊपर ही Lib am साहब ने बिलकुल ठीक लिखा है - 'अटूट प्यार के दो निस्वार्थ या फिर बहुत ही स्वार्थी स्वरूप'!
बेशक। आगे चलकर यही प्रेम कहानी की दिशा और दशा परिवर्तित कर देगा।
चाह ऐसी है, जो बेहद शिद्दत से चाही जा रही है - एक भी लड़की अपनी चाहत को छोड़ती नहीं प्रतीत होती। ऐसे में विवान के प्रेम के दो टुकड़े होने निश्चित हैं। बाकी सब तो आगे ही मालूम पड़ेगा।
जो चाहत छूट जाए वो चाहत ही क्या! बंधु, आगे ही पता चलेगा की विवान के प्रेम के यदि हिस्से होंगे, तो कितने होंगे, क्या पता हों ही ना...
इतना ही क्या कम था कि ऊपर से विवान के परिवार के विरुद्ध षणयंत्र भी होते हुए दिखाई दे रहा है।
पुनश्च, सुन्दर लेखनी! नपा तुला अंदाज़, और धारदार लेखन! :applause:
बहुत बहुत धन्यवाद भाई। षड्यंत्र के बादल तो आगे तक गहराते रहेंगे।

बने रहिएगा!
 
Status
Not open for further replies.
Top