अध्याय – 10
“आज तेरे ही सामने तेरे इस भाई को मारूंगा मैं"...
अशफ़ाक, रेशमा और उनके साथ मौजूद आदमियों की हैरानी हर पल बढ़ती जा रही थी। बाहर से आई गोलियों की आवाज़ और साथ ही बाहर मौजूद आदमियों के नीचे गिरने से पैदा हुई ध्वनि, काफी थी बताने के लिए की उन पर हमला हो गया था। अब बाहर कितने आदमी थे, उन्हें मारने के लिए, इसके बारे में अशफ़ाक और उसके साथियों को कोई जानकारी नहीं थी। तभी, रेशमा की नज़र आरोही पर पड़ी, जिसके चेहरे पर आत्मविश्वास से भरी एक मुस्कान थी, रेशमा को अंदेशा हो गया की बाहर कौन हो सकता था। जब उसने अशफ़ाक को इस बात से अवगत किया तो एक पुरानी घटना को याद कर उसके गुस्से का ज्वालामुखी धधक उठा। उसने आरोही की तरफ देखा और क्रोधपूर्ण लहज़े में उससे ये शब्द बोला। परंतु, उसकी बात सुनने के बाद भी आरोही के भाव बिलकुल नहीं बदले थे।
अशफ़ाक: तुम सब अपनी – अपनी बंदूकें निकालो और जैसे ही वो दरवाज़ा खोले, भून डालो साले को।
इस बार आरोही के चेहरे पर चिंता की लकीरें लाने में कामयाब हो चुका था अशफ़ाक, और अपनी इस कामयाबी पर उसके चिंतित चेहरे पर अहंकार उभरते देर ना लगी। रेशमा, अभी भी वो कुछ घबराई हुई थी। जैसे ही कदमों की आवाज़ दरवाज़े की तरफ बढ़ी उन सभी आदमियों ने अपनी बंदूकों को मजबूती से थाम लिया और फिर एक साथ उन सभी की बंदूकों से गोलियां निकली, जिसके साथ ही आरोही के मुख से वो चींख भी निकल गई, “विवान"...
मैं दरवाज़े के बगल में दीवार से टेक लगाए बैठा था, दो गोलियां लगीं थीं मेरी दाईं बांह में परंतु मुझे थोड़ी भी पीड़ा अनुभव नहीं हो रही थी। आरोही की आवाज़ सुनकर जैसे मेरे ज़ख्म अपने आप ही भर गए थे। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला, उसी पल मेरी बाज़ू में वो दो गोलियां लग गईं थीं, हालांकि गोलियां तो और भी चलीं थीं परंतु उनमें से अपने लक्ष्य, यानी मुझ पर केवल दो ही लग पाई। जैसे ही मुझे वो गोलियां लगीं तभी मैं दरवाज़े के इस तरफ कूद गया और दीवार से टेक लगाकर बैठ गया। मैं जानता था कि वो लोग एक दम से बाहर नहीं आयेंगे क्योंकि उन्हें मेरे पास बंदूक होने का भय तो होगा ही।
अंदर से लगातार मुझे आरोही का स्वर सुनाई दे रहा था जो मुझे पुकार रही थी। उसकी आवाज़ में छलकती उस चिंता ने मुझे आश्वस्त कर दिया की वो चाहे मुझसे नाराज़ हो, पर उसे मनाना उतना मुश्किल नहीं होगा। खैर, इस वक्त हालात वैसे नहीं थे की मैं इसपर अधिक विचार कर पाता। मैंने उस बंदूक पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली थी और अंदर से कोई यदि बाहर आता, तो उसके कदमों की आहट सुनने का प्रयास करने में लग गया था। कुछ ही देर बाद मुझे एहसास हो गया की कोई बाहर आ रहा था, शायद दो लोगों के कदमों की आहट थी ये। मैंने अपनी श्वास को नियंत्रित किया और दरवाज़े पर अपनी आंखें गड़ा दीं। अगले ही पल उस बंदूक से दो गोलियां निकली जो सीधे उन दोनों के माथे के पर हो गईं।
अभी वो दरवाज़े से केवल थोड़ा ही बाहर निकले थे कि पहले ही ऊपर पहुंच गए। आज मुझे खुद के निशाने इतने सटीक लगने पर, उस परिश्रम का मूल्य पता चल रहा था जो गुरुजी मुझसे करवाया करते थे। खैर, अभी मैं इस बारे में कुछ सोचता, की तभी मुझे अंदर से आवाज़ सुनाई दी,
“बंदूक अंदर फेंक दे और अंदर आ, वरना तेरी इस बहन को मारने में मुझे एक मिनट भी नहीं लगेगा"...
वही हुआ जिसे लेकर मैं चिंतित था, आरोही का अंदर होना ही मेरे लिए सबसे बड़ी मुश्किल थी, मैं किसी भी कीमत पर उसकी जान दांव पर नहीं लगा सकता था, इसीलिए जैसी अंदर से आवाज़ आई थी मैंने वही करने का फैसला किया। परंतु, एक छोटे से बदलाव के साथ। मैंने वो बंदूक तो अंदर फेंक दी, पर वहां पहले से ही मरे पड़े एक दूसरे आदमी के पास से उसकी पिस्तौल उठा ली और उसे अपनी कमर में फंसा लिया। पीछे की तरफ रखने से अंदर मौजूद लोगों को इसकी भनक भी नहीं लगनी थी। इसके बाद मैं उठा और बाज़ू में हो रही पीड़ा को अपने अंदर ज़ब्त करता हुआ उठकर अंदर की तरफ चल दिया।
जैसे ही दरवाज़े से अंदर मेरी नज़र पड़ी, सर्वप्रथम मुझे उसका ही चेहरा दिखाई दिया, जिसके होने से मैं था.. जिसके कारण ही मेरा वजूद था, उसकी नज़रें भी मुझ पर ही थीं और आज तीन बरस बाद उसे देख कर मुझे वो मिल गया था, जिसके बाद शायद मुझे किसी और चीज़ की आवश्यकता नहीं थी।
विवान के जल्दबाजी में वहां से निकलने पर सभी हैरान रह गए, और जाने से पहले आरोही के बारे में विवान द्वारा पूछे जाने पर उनकी चिंता और भी बढ़ गई। रामेश्वर जी ने सर्वप्रथम स्नेहा से आरोही को फोन करने को कहा, पर आरोही का फोन बंद आ रहा था। दिग्विजय ने चिंतित होकर घर के लैंडलाइन पर फोन किया पर उधर से किसी ने उत्तर नहीं दिया। सभी लोग बेहद चिंतित हो गए थे, और घर के सभी नौकरों और सुरक्षा कर्मियों के द्वारा भी फोन ना उठाए जाने पर उन सभी को किसी अनिष्ट का आभास हो गया।
बिना देर किए, सभी परिवारजन गाड़ियों में बैठकर यशपुर के लिए निकल गए। पूरे रास्ते सभी केवल यही कामना कर रहे थे की आरोही सकुशल हो, कुछ देर के सफर के बाद जब गाडियां हवेली पर पहुंचीं तो सभी की आंखें हैरानी से भर गई। कारण, हवेली के बाहर ग्रामवासियों की भीड़ लगी हुई थी जो आपस में कुछ बातें कर रहे थे। जैसे ही उन सबने गाड़ियों को देखा तो वो सभी सतर्क मुद्रा में आ गए।
“दादा साहब, हमने हवेली की दिशा से कई गाड़ियों को गांव के बाहर जाते देखा तो जिज्ञासा के चलते हम इधर आ गए। चूंकि आप लोग तो सुबह ही बाहर चले गए थे, इसलिए हम समझ नहीं पाए की वो गाडियां किसकी थीं। हम काफी देर से यहां खड़े हैं और अंदर आवाज़ लगा रहें हैं पर अभी तक कोई बाहर नहीं आया"।
गाड़ियों से जैसे ही सब लोग उतरे तो रामेश्वर जी ने सबसे पहले उन लोगों से यहां आने का प्रयोजन पूछा, जिसका जवाब सुनकर उनकी हैरानी और भी बढ़ गई। पर तभी अंदर से उन्हें दिग्विजय की आवाज़ आई जो चिल्लाकर उन्हें पुकार रहा था। सभी लोग, और उनके पीछे ज– पीछे ग्रामवासी भी जैसे ही अंदर पहुंचे, सभी का कलेजा मुंह को आ गया। अंदर का दृश्य ही इतना भयावह था। हवेली के सभी नौकरों और सुरक्षाकर्मियों की लाशें अंदर मौजूद थीं, और फर्श पर हर तरफ खून के धब्बे फैले हुए थे। अचानक से, नंदिनी आरोही का नाम लेकर चिल्ला पड़ीं और भागती हुई उसके कमरे की तरफ जाने लगीं।
बाकी सभी भी उनके पीछे ही चल दिए पर आरोही के कमरे में पहुंचकर एक और झटका उन सबका इंतज़ार कर रहा था। सर्वप्रथम, आरोही के कमरे में हर तरफ विवान और उसकी तस्वीरें थीं। तीन साल बाद, आज प्रथम बार शुभ्रा के अतिरिक्त कोई और आरोही के कमरे में आया था और ये उन सबको हैरान कर गया। परंतु, तभी जब उनकी नजर खिड़की के नज़दीक फर्श पर पड़े रक्त के छींटों पर पड़ीं तो सभी की हालत खराब हो गई। नंदिनी इस दृश्य को और बर्दाश्त नहीं कर पाईं और मूर्छित हो गईं।
इसके बाद उन सबने मिलकर पूरी हवेली को छान मारा पर आरोही कहीं नहीं मिली। नंदिनी अभी भी बेहोश थीं और वंदना उनके पास ही बैठी थीं। सभी बेहद चिंतित थे, जहां दिग्विजय ने पुलिस विभाग के आला अधिकारियों को इसकी सूचना दे दी थी, और वो लोग अपने काम में जुट गए थे, वहीं राजपूत परिवार के अंगरक्षक भी निकल चुके थे आरोही को खोजने के लिए। ग्रामवासियों ने उन्हें उस दिशा की सूचना दे दी थी जिस ओर वो सारी गाड़ियां गईं थीं।
मैं अपलक आरोही को ही देख रहा था, मुझे पता भी नहीं चला कब अशफ़ाक मेरे नज़दीक आ गया और मेरे मुंह पर मुक्के बरसाकर अपनी सालों पुरानी भड़ास निकालने लगा। मेरी नज़रें आरोही से हट ही नहीं रहीं थीं। कितना निश्छल चेहरा था आज भी उसका, जो आज भी वो अपने भाव छुपा पाने में नाकाम रही थी। पर तभी, मेरा ध्यान उसके गाल पर गया तो मुझे अपना रक्त उबलता सा महसूस हुआ। उसके होंठों से खून बह रहा था और गाल बुरी तरह सूजा हुआ था, मुझे समझते देर ना लगी की यहां क्या हुआ था। मेरा हाथ मेरी पीठ की तरफ जींस पैंट में लगाई हुई बंदूक पर गया और इस बार जैसे ही अशफ़ाक मुझ पर हाथ उठाने को हुआ मैंने उसके पेट में अपना घुटना मार दिया।
नतीजतन, अशफ़ाक कराहता हुआ नीचे झुक गया और इतने में मेरे हाथ में मौजूद उस बंदूक से एक के बाद एक गोलियां चलीं जिनका क्रम तभी रुका जब वो बंदूक खाली हो चुकी थी। रेशमा और अशफ़ाक आंखें फाड़े, जो हुआ उसे समझने का नाकाम प्रयास कर रहे थे, और उधर उनके पीछे खड़े वो सभी आदमी ज़मीन पर गिरे अपनी मौत से मिलन करने में व्यस्त थे। बंदूकें उनके हाथों में भी थीं पर जो हमला मैंने किया उसकी उन्हें अपेक्षा नहीं थी। मैंने पहले वाली बंदूक अंदर फेंक दी थी जिसके कारण ये मूर्ख निश्चिंत हो गए थे और यही इनकी भूल साबित हुई।
इसके बाद मैंने बिना एक भी पल गवाएं अशफ़ाक को गर्दन से पकड़कर चार इंच ऊपर हवा में उठाकर दीवार से लगा दिया। आरोही को चोट पहुंचाकर, उसका रक्त बहाकर अशफ़ाक ने मेरे जीवन के उस भाग को चोट पहुंचाई थी जिसे मैं खुद से ज़्यादा चाहता था। मुझे नहीं पता की इसके बाद मैं कब तक अशफ़ाक को भिन्न – भिन्न तरीकों से मारता रहा, परंतु मैं जब हकीकत में लौटा तो मैंने पाया की उसके चेहरे का नक्शा बुरी तरह से बिगड़ चुका था। मेरा ध्यान खींचा था रेशमा की उस आवाज़ ने, “रुक जा, वरना इसे खत्म कर दूंगी"!
मैंने अशफ़ाक को छोड़कर पलटा तो पाया की रेशमा ने आरोही की गर्दन पर चाकू रखा हुआ था, एक बार फिर परिस्थिति बदल चुकी थी और मैं फिर एक बार भूल वश रेशमा पर से ध्यान हटाने का नतीजा देख रहा था।
मैं : हट जा, मैं वादा करता हूं की तुझे जिंदा छोड़ दूंगा, दूर हट जा उससे।
रेशमा : तू पहले खुद तो ज़िंदा निकल यहां से, तब मेरी सोचना।
मैं : हट जा रेशमा, वही गलती मत कर जो तेरे पति ने की थी। याद कर उसे कैसी मौत दी थी मैंने, इसे चोट पहुंचाकर तू पहले ही गलती कर चुकी है, मुझे मजबूर मत कर नहीं तो हर एक पल मौत की भीख मांगने पर मजबूर हो जाएगी।
अपने पति का ज़िक्र सुनकर रेशमा जहां और भी क्रोधित हो गई वहीं, अशफ़ाक अभी तक संभाल चुका था। वो लड़खड़ाता हुआ उठा, और रेशमा का मनोबल बढ़ता हुआ बोला,
अशफ़ाक : तू चिंता मत कर, कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा ये तेरा।
रेशमा की नज़रें मुझ पर ही थीं, जैसे ही मैं कोई भी हरकत करता, उसका खामियाजा आरोही को भुगतना पड़ता, इसलिए मैं शांत खड़े रहने के लिए मजबूर था। इतने में अशफ़ाक ने वहां पड़ी एक बंदूक उठाकर मुझ पर तान दी थी, पर जैसे ही वो घोड़ा दबाने को हुआ, एक साथ दो प्रतिक्रिया हुईं। पहली अशफ़ाक पूरी तरह हतप्रभ रह गया वहीं दूसरी ओर मेरे चेहरे पर दिख रही चिंता की लकीरें छांट गईं।
अशफ़ाक : ये.. ये क्या कर रहा है आरिफ..
वो आरिफ ही था, अभी – अभी वो शायद यहां पहुंचा था और कमरे में आते ही उसने बंदूक निकालकर अशफ़ाक के सर पर तान दी। अशफ़ाक की पीठ दरवाज़े की तरफ थी इसलिए वो आरिफ को अंदर आते हुए नहीं देख पाया, पर जैसे ही उसे अपने सर पर मंडरा रही मौत का एहसास हुआ, तो वो पलटा, और पलटते ही उसे ये झटका लगा। वहां आरिफ को पाकर उसकी घिग्गी बंध गई थी। आरिफ ने जब उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया तो वो दोबारा चिल्लाया,
अशफ़ाक : बंदूक हटा आरिफ.. नमकहराम बंदूक हटा!
अशफ़ाक की बात सुनकर आरिफ मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया और बोला,
आरिफ : नमक हराम नहीं नमक हलाल हूं मैं, और वही कर रहा हूं जो मुझे करना चाहिए।
मैं : चल अब खेल खत्म करते हैं, बोल इसे की चाकू हटाए।
मैं जानता था की भले ही मैं आरोही की गर्दन पर चाकू होने से बेहद असमर्थ था पर अशफ़ाक की कायरता उस असमर्थता से बहुत बड़ी थी। जब अपनी जान पर बार आती थी, तब अशफ़ाक का क्या हाल होता था मैं भली – भांति जानता था और वही हुआ जो मैंने सोचा था,
अशफ़ाक : अंधी है क्या तू, हट वहां से।
रेशमा को तरफ देखकर हड़बड़ी में वो बोला परंतु रेशमा, खेल में हुए इस परिवर्तन के बाद भी अपनी जगह पर अडिग खड़ी थी।
अशफ़ाक : साली हट वहां से, याद रख अगर मैं मरा तो कभी अपने बेटे से नहीं मिल पाएगी कमीनी।
ये सुनकर प्रथम बार मैंने रेशमा के चेहरे पर डर देखा। रेशमा का कोई बेटा था, ये मेरे लिए भी हैरानी की बात थी। पर अभी मैंने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन रेशमा आरोही से दूर हो चुकी थी।
अशफ़ाक : देख विवान.. मुझे मारकर तुझे कुछ नहीं मिलेगा। मुझे छोड़ दे, मैं किसी और के कहने पर ये सब कर रहा था..
मैं (मुस्कुराकर) : गलती कर दी तूने। कुछ भी करता पर इसे हाथ नहीं लगाना चाहिए था।
अशफ़ाक को ये कहकर मैंने आरोही की तरफ देखा तो पाया की वो अब भी मुझे ही देख रही थी। जो कुछ अभी हुआ उसके कारण विस्मित तो थी वो पर उससे अलग और भी कई भाव मुझे देखते वक्त मौजूद थे उसके चेहरे पर। मैंने आरिफ की तरफ देखा तो वो मेरा मंतव्य समझ गया, आरिफ के साथ मौजूद एक आदमी रेशमा की तरफ बढ़ा तो मैंने उसे रुकने को बोला।
मैं (रेशमा को देखकर) : अपने आप चली जाओ इनके साथ। मैं जिम्मेदारी लेता हूं कोई तुम्हें छुएगा नहीं। तुमने जो किया है उसका हिसाब तो करना ही है पर, तुम्हारी इज्ज़त पर कोई आंच नहीं आएगी।
रेशमा ने अचंभित नज़रों से मुझे देखा और फिर एक मूक स्वीकृति देते हुए हां में सर हिला दिया। इसके बाद आरिफ और उसके आदमी, अशफ़ाक और रेशमा को लेकर वहां से चले गए और मैं पुनः आरोही की तरफ बढ़ने लगा। उसके पास जाकर एक पल को मैं उसे देखता रहा और फिर घुटनों के बल नीचे बैठ गया। पहले, मैंने उसके पैरों को रस्सी से आज़ाद किया और फिर उसके दोनों हाथों को। परंतु, अब उसकी तरफ देखूं, ये हिम्मत नहीं हो रही थी, इसलिए मैं नज़रें झुकाए वैसे ही बैठा रहा। कुछ मिनटों तक वहां एक असहज सी शांति फैली रही और तभी,
आरोही : क्यों आए हो यहां?
आरोही के इस सवाल ने मुझे चकित कर दिया। मैंने उसकी तरफ देखा तो पाया की वो अभी भी कुर्सी पर ही बैठी थी, और मेरी तरफ देख रही थी। एक अजीब सी कठोरता थी उसके चेहरे पर जो मुझे विचलित कर रही थी।
मैं : म.. मतलब?
आरोही : चले जाओ।
सपाट से लहज़े में कहा उसने और उसी के साथ उसकी आंखों से दो बूंदें भी छलक गईं। मैं उसकी बात पर कुछ न कह सका और चुप – चाप उसे देखता रहा। कुछ पल बाद, मैंने अपनी जेब से रुमाल निकाला और उसके गाल पर धीरे से रख दिया। शायद जलन के कारण उसकी आंखें एक दम से बंद हो गईं पर उसने कुछ कहा नहीं। कुछ देर तक मैं रुमाल की दिशा बदल – बदल कर उसके गालों पर रखता रहा, और अंततः उसके होंठों के किनारों से रिस रहा खून बंद हो गया। अभी भी मैं उसी मुद्रा में बैठा था, मैंने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में लिया, और उसके घुटनों पर सर टिकाकर बोला,
मैं : माफ नहीं करेगी मुझे? सिर्फ एक बार.. दोबारा कभी मैं गलती नहीं..
मैं बोलना तो बहुत कुछ चाहता था पर आगे के शब्द मेरे हलक में ही दम तोड़ गए। अभी तक मेरी आंखों का भी सब्र टूट चुका था और मेरे आंसू टपककर उसकी हथेलियों पर गिर रहे थे। कुछ देर तक उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई पर फिर अचानक ही उसने अपने दाएं हाथ को मुझसे छुड़ाकर मेरे सर पर रख दिया। मैंने नज़र उठाकर उसकी ओर देखा तो पाया की उसका हाल भी कुछ मेरे ही जैसा था।
अगले ही पल मैं नीचे से उठा और साथ ही आरोही को भी कंधों से पकड़ कर उठा, अपने गले से लगा लिया। परंतु जब आरोही मेरी बांहों में भी निर्जीव सी होकर खड़ी रही, तो मैं उसके कान पर झुका और,
मैं : रो ले..
इसके बाद हर पल आरोही की पकड़ मुझ पर मज़बूत होती गई। उसने मेरी कमीज़ को सीने के हिस्से से अपनी मुट्ठियों में जकड़ लिया और उसकी आंखों से बहता वो पानी, मेरी कमीज़ को भिगोने लगा। कभी वो मेरे सीने पर मुक्के बरसाती तो कभी मेरी पीठ पर, कभी उसका रूदन तीव्र हो जाता तो कभी वो शांत हो जाती। जाने कब तक वो मेरे सीने से लगी मुझ पर अपना क्रोध जाहिर करती रही, और वो वेदना जो उसके भीतर तीन वर्षों से दबी हुई थी, उसे अपनी आंखों के रास्ते बाहर निकालती रही। जब उसका रोना सिसकियों में तब्दील हो गया, तब मैं धीरे – धीरे से उसकी पीठ को सहलाने लगा और दूसरे हाथ से उसके सर को।
अचानक ही मुझे अपने हाथ पर कुछ तरल सा अनुभव हुआ, मैंने हाथ आगे किया तो पाया की वो रक्त था जो आरोही के सर से बह रहा था। अगले ही पल मुझे आरोही का शरीर ढीला पड़ता महसूस हुआ, और वो मेरी बाहों में झूल गई। आरोही के सर से काफी खून बह चुका था जिसके चलते वो बेहोश हो गई थी और इधर मेरी बाज़ू से लगातार बह रहे खून के कारण, मुझे भी कमज़ोरी महसूस होने लगी थी...
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