अध्याय – 4
संध्या का समय था, सूर्य का ताप और प्रकाश दोनों ही कुछ कम हो चले थे। वैसे तो बरसात का मौसम चल ही रहा था, परंतु आज हल्की सी भी बूंदा – बांदी नहीं हुई। इसी कारण सूर्य ढलते हुए भी, और दिनों के मुकाबले अधिक ताप का अनुभव करवा रहा था। मैं अपने मकान से लगभग एक – डेढ़ किलोमीटर दूरी पर बने एक खाली मैदान में बैठा था। वैसे तो अक्सर यहां बच्चे खेलते – कूदते मिल जाया करते हैं परंतु जैसा मैंने बताया कि बरसातों के कारण मैदान के कुछ हिस्सों में पानी भर गया था, ऐसे में शायद इन बच्चों के माता – पिता उन्हें यहां खेलने देने से कतरा रहें होंगे। पिछले आधे घंटे से मैं यहीं, एक वृक्ष के नीचे बैठा शून्य को निहार रहा था। मेरा मन आज बेहद ही अशांत था, कुछ था जो मुझे विचलित कर रहा था। आज का दिन सही मायनों में थोड़ा भारी रहा था। सुबह ही अस्मिता के द्वारा अनजाने में कहे गए वो शब्द, अभी तक मुझे परेशान कर रहे थे। ऐसा नहीं था कि मैं इस सत्य से अनभिज्ञ था कि मेरी और आरोही की आंखें हुबहू एक समान थीं। परंतु, जाने कैसे, पिछले तीन वर्षों में एक बार भी मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया।
किंतु जैसे ही अस्मिता ने मेरा ध्यान इस ओर खींचा तभी से मैं अपने आप को कोस रहा था, मैं भली – भांति जानता था कि आरोही पर अभी क्या बीत रही होगी और मैं उस स्वप्न या कहूं की दुःस्वप्न का मर्म भी समझ गया था। मेरे हाथ में ही मेरा मोबाइल था, जिसपर कई दफा मेरी अंगुलियों ने एक ही व्यक्ति से बात करने की चेष्टा की लेकिन ना जाने क्यों, अगले ही पल उस चेष्टा को मेरे भीतर का अंतर्द्वंद्व मार ही देता। परंतु तभी अचानक से मेरी आंखों के सामने फिर वही स्वप्न आ गया और शायद उस स्वप्न से जन्मा भय मेरे उस अंतर्द्वंद्व पर बहुत भारी था। मेरी अंगुलियों को पूर्णतः ज्ञात था कि अब उन्हें क्या करना था। अगले ही पल मेरा मोबाइल मेरे कान के करीब था और मुझे प्रतीक्षा थी उस स्वर की जिसे सुनने के लिए मेरे कान तरस गए थे।
कुछ ही पलों में शायद मेरा इंतज़ार पूरा हो गया और मुझे वो स्वर सुनाई दिया जिसे मैं कभी भी और कहीं भी, हजारों की भीड़ में पहचान सकता था। उसने केवल एक ही शब्द कहा था, “हेलो", परंतु उसी एक शब्द ने मेरे भीतर एक नया ही भाव उत्पन्न कर दिया था। क्योंकि इस स्वर में वो मिठास, वो चंचलता, वो प्रसन्नता नहीं थी जिसे मैं तीन बरस पहले छोड़कर आया था। इस स्वर में कुछ था तो वो थी, केवल और केवल उदासी। कुछ पलों के लिए मैं जड़वत सा हो गया, मुझे समझ ही नहीं आया की उससे कहूं तो क्या कहूं? पर जब दोबारा उसकी आवाज़, “हेलो, कौन बोल रहा है", मुझतक पहुंची, जिसमें इस बार थोड़ी अधीरता भी झलक रही थी, फिर जैसे मेरी तंद्रा टूटी और मेरे लबों ने प्रथम बार हरकत की,
मैं : अ.. आ.. आरोही...
आंखों से टपक चुकी दो बूंदों के बीच, मेरे थरथराते लबों ने जैसे ही उसका नाम पुकारा, मुझे लगा जैसे एक कभी न खत्म होने वाली खामोशी हमारे मध्य छा गई हो। तभी मुझे लगा जैसे वो रो रही हो और फिर अगले ही पल उसने फोन काट दिया। मैंने दोबारा उसे फोन लगाने का प्रयास किया तो उसका नंबर बंद आ रहा था। मैं मोबाइल पर दिख रहे उसके नाम को देखता रहा और एक गहरी सोच में डूब गया कि ये तीन साल उसने कैसे गुजारे होंगे। परंतु, इस सोच के साथ, मैं अभी भी थोड़ा डरा हुआ था, क्योंकि मुझे अंदेशा हो रहा था जैसे कुछ बुरा, बहुत बुरा होने को था। वो क्या था, ये मैं नहीं जानता था, पर वो आरोही से ही जुड़ा था, ऐसी अनुभूति मुझे हो रही थी। खैर, मैंने अपनी तर हो चुकी आंखों को अपनी हथेलियों से साफ किया और फिर वहां से उठ गया।
“हेलो"...
आरोही, जो संध्या के समय भी अपने कमरे की खिड़की के पास ही खड़ी थी, पर इस बार उसकी दृष्टि उस पर्वत – श्रृंखला पर ना होकर, कमरे में ही रखी एक तस्वीर पर थी। वो तस्वीर, जिसमें आरोही एक लड़के के कान खींच रही थी और वो रो रहा था, या शायद रोने का अभिनय कर रहा था। आरोही के होंठों पर एक बड़ी सी मुस्कान थी, पर वो मुस्कान केवल उस तस्वीर में ही कैद थी, क्योंकि असल में तो इस वक्त, उस तस्वीर को निहारते हुए आरोही का चेहरा उदासी से सना हुआ था। उसने अपना हाथ आगे बढ़ाकर उस तस्वीर को मेज से उठा लिया और बड़े गौर से उसे देखने लगी। जाने क्या खोजना चाहती थी वो उस तस्वीर में, पर तभी उसकी खोज में व्यवधान के रूप में उसका मोबाइल बजने लगा।
आरोही ने उस तस्वीर को अपने हाथ में थामे रखा और दूसरे हाथ से मोबाइल उठा लिया। जिस नंबर से फोन आया था, आरोही उससे अनजान थी पर फिर भी उसने उसे स्वीकार कर, मोबाइल अपने कान से लगा लिया और वो शब्द बोला। पर कुछ देर बाद भी उस ओर से कोई उत्तर ना मिलने पर आरोही ने अधीरता वश ये शब्द कहे, “हेलो, कौन बोल रहा है"? उसके शब्दों का शायद दूसरी तरफ असर हुआ और तभी, आरोही के कानों में वो ध्वनि.. वो शब्द पड़ा, जिसके कारण उसके कदम डगमगा से गए। वो एक पल को जड़ सी हो गई, पर फिर स्वतः ही उसकी अखियों से एक तीव्र अश्रुधारा बह निकली। उसने बिना देर किए फोन काट दिया और जाने किसके ऊपर उसका क्रोध था कि वो मोबाइल भी उसने अपनी पूरी शक्ति से दीवार पर से मारा।
एक दफा फिर आरोही, सुबह की तरह ज़मीन पर बैठी थी, पिछली बार की ही तरह उसके घुटने मुड़े हुए थे। तब्दीलियां थी तो मात्र दो, पहली उसने उस तस्वीर को कसकर खुदसे भींचा हुआ था और दूसरी, उसकी अश्रुधारा और सिसकियां बदस्तूर जारी थी। इतना तीव्र रूदन देखकर तो शायद पाषाण का भी हृदय दहल जाता तो आरोही की तकदीर कब तक उससे विमुख रहती। शायद, अब वो वक्त आ गया था जब आरोही को कुछ राहत प्राप्त होनी थी।
दृश्य : 1...
“दोनों का भाग्य एक ही है यजमान। अर्थात, दोनों के हाथों की रेखाएं बता रहीं हैं कि दोनों का प्रेम अटूट होगा, ऐसा जैसा कभी भी किसी भी जुड़वा शिशुओं में नहीं रहा होगा"।
एक बड़ी सी हवेली के आंगन में यज्ञवेदी के समक्ष बैठे, एक भगवाधारी ब्राह्मण ने ये बात कही थी अपने सामने बैठे व्यक्तियों से। यज्ञवेदी के दूसरी ओर, ब्राह्मण देव के ठीक सामने एक महिला बैठी थी जिनकी गोद में दो नवजात शिशु थे। उन्ही शिशुओं की हस्त – रेखाओं को बारी – बारी से जांचने के बाद वो शब्द कहे थे ब्राह्मण देव ने, जिन्हे सुनकर वहां मौजूद सभी लोगों के चेहरे प्रसन्नता से भर गए। लेकिन तभी,
“परंतु.."
ब्राह्मण देव द्वारा कहे गए इस शब्द ने शायद सभी को विचलित कर दिया, और इसे देखते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी,
“इनके जीवन में अनेकों कठिनाइयां और दिक्कतें भी आएंगी, मुझे क्षमा कीजिएगा परंतु जब दोनों अपनी किशोरावस्था के अंतिम चरण में होंगे, तब मृत्यु का संकट भी इनपर मंडरा सकता है"।
“ये आप क्या कह रहें हैं गुरुजी"!
ब्राह्मण देव के वचन सुनकर वही महिला अधीर होते हुए बोली। जिसपर,
“मैं वही कह रहा हूं देवी, जो ग्रह – नक्षत्र और इनकी हस्त – रेखाएं मुझे बता रहीं हैं"।
“इसका कोई उपाय तो होगा ना गुरुजी"?
वहीं बैठे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने उनसे ये प्रश्न किया जिसकी प्रतिक्रिया में,
“उपाय, वो तो केवल यही दोनों कर सकेंगे। दोनों का प्रेम और विश्वास ही इन्हें हर बाधा पार करवाने में सहायक होगा। परंतु, एक बात का खास ध्यान रखिएगा, इनकी शक्ति एक – दूसरे से जुड़ी है, अर्थात, इन्हें कभी अलग मत कीजिएगा, अन्यथा परिणाम अच्छे नहीं होंगे"।
ब्राह्मण देव ने अपने माथे पर बल देते हुए कहा। जहां वो उन सबको इनका भाग्य बता रहे थे, वहीं उनका चेहरा भी बहुत कुछ बता रहा था। अवश्य ही कुछ तो ऐसा था जो ब्राह्मण देव इन सबसे छुपा रहे थे। अब ऐसी क्या बात थी ये तो वही जाने! पर एक सवाल ज़रूर था की जब मृत्युदोष की बात बताने से ब्राह्मण देव नहीं सकुचाए, तो ऐसा क्या सत्य था जिसे छुपाने के लिए वो भी बाध्य हो गए।
दृश्य : 2...
“ऐ मार क्यों रही है बंदरिया"!
“क्या बोला? तू होगा बंदर, अभी बताती हूं तुझे"!
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“हाय मार दिया रे! कोई बचाओ मुझे इस राक्षसी से"!
एक बड़ा सा मैदान था ये, जहां से पहाड़ियां कुछ पास नज़र आ रही थी। पवन अपनी गति से बह रही थी, और बादलों की ओट में छुपा सूर्य, मध्यम – मध्यम सा ताप धरती पर बिखेर रहा था। आस – पास से कुछ पंछियों और पशुओं का स्वर भी सुनाई दे रहा था परंतु जो चीज़ सबसे अधिक रमणीय थी, वो थी उस झरने की मौजूदगी, जो दूर पहाड़ियों से गिर रहा था और एक छोटी सी नदी के रूप में इस मैदान के पास से प्रवाहित हो रहा था। मैदान से कुछ दूर दो साइकिल भी खड़ी थी और जिनका यहां सबसे अधिक शोर था, जो इस स्थान में जीवन फूंक रहे थे, वो दोनों मैदान के बीचों – बीच उधम मचाते कूद – फांद रहे थे।
शायद दस – बारह बरस के रहे होंगे ये दोनों बच्चे, जिनमें से एक लड़की थी तो दूसरा लड़का। जहां लड़का अपनी पूरी गति से भाग रहा था तो वहीं लड़की उसके पीछे हाथ में एक पतली सी छड़ी लिए दौड़ रही थी और दौड़ते हुए ही दोनों एक दूसरे को अपने शब्दों से चिढ़ा रहे थे। पर जब काफी देर तक दौड़ते हुए भी वो लड़का उसकी पकड़ में ना आया तो उस लड़की के मुखड़े पर उदासी का भंवर अपना डेरा जमाने को आतुर होने लगा। संयोग से उसी पल, अपने और उस लड़की के बीच की दूरी का अंदाज़ा लगाने हेतु उस लड़के ने पीछे देखा, और दूर से ही उस लड़की के चेहरे पर गर्दिश करते उन भावों को उसने पढ़ लिया। उसने दोबारा अपना रुख सामने की ओर किया, पर अचानक ही उसकी दौड़ने की गति पहले से काफी धीमी हो चुकी थी, उसके चेहरे पर भी एक अनजानी सी मुस्कान उभर आई थी और तभी उसकी पीठ पर उस छड़ी का स्पर्श हुआ। उसे धीरे से ही लगी थी, पर फिर भी वो एक दम से चिल्ला दिया और उस लड़की को “राक्षसी" कहकर संबोधित करने लगा।
इधर जैसे ही उस लड़की ने उस लड़के की गति धीमी पड़ते देखी, उसके होंठों पर भी एक दबी सी मुस्कान उभर आई और उसकी सारी उदासी गायब हो गई थी। वो लड़का छड़ी लगने के बाद रुक गया और वहीं नीचे बैठ गया। उसे देखकर वो लड़की भी उसके पास ही बैठ गई। दौड़ते – दौड़ते दोनों मैदान के उत्तरी छोर पर पहुंच गए थे जहां से वो छोटी सी नदी गुजरती थी। दोनों एक – दूसरे को ही देख रहे थे और फिर अचानक ही दोनों खिलखिला कर हंसने लगे। उस लड़के ने अपने हाथ आगे बढ़ाते हुए उस लड़की के पैरों को अपनी गोद में रख लिया और नदी का पानी जो उनके सामने से ही गुजर रहा था, उसे अपने हाथ में लेकर उसके पैरों को धोने लगा। दोनों ही नंगे पांव भाग रहे थे इसीलिए दोनों के ही पैरों के नीचे काफी धूल लग गई थी। उस लड़के ने उसके दोनों पैरों को अच्छे से धोने के बाद अपनी जेब से एक रुमाल निकाला, और फिर उन्हें पोंछने लगा। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान वो लड़की बड़े प्यार से उसके चेहरे को देख रही थी।
खैर, उसके पांव जब सूख गए तो उस लड़के ने उन्हें वापिस ज़मीन पर रख दिया और फिर उस लड़की की ओर देखा जो उसे ही अपलक निहार रही थी। अभी वो कुछ कहता उससे पहले ही,
लड़की : तेरे पैर भी तो गंदे हैं विवान..
विवान : तो?
लड़की : तूने अपने पांव क्यों नहीं धोए?
विवान : घर जाकर धो लूंगा।
लड़की : तो मेरे अभी क्यों धोए? मैंने भी तो घर जाना ही है ना।
विवान : परियों के आस – पास भी धूल नहीं होनी चाहिए तो तेरे पैरों पर कैसे रहने देता।
उसकी बात सुनकर जहां वो लड़की हैरानी से मुंह खोले उसे देखने लगी वहीं उसके हृदय में उसे एक अनजानी सी खुशी का अनुभव भी हुआ!
दृश्य : 3...
“तू कभी मुझे छोड़कर नहीं जाएगा ना"?
“ऐसा क्यों पूछ रही है तू, आरोही"?
“मेरे सवाल का जवाब दे"।
“कभी नहीं.. कभी भी नहीं"...
“वादा कर मुझसे"।
“वादा.. पक्का वादा"।
“याद रखना विवान अगर तूने अपना वादा तोड़ा ना तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा"।
“तुझसे बुरा और कोई है भी नहीं मेरी छिपकली"।
इतना कहकर वो हर बार की तरह भागने लगा। हर बार यही होता, विवान चिढ़ाता और फिर उससे भागने लगता, आरोही उसका पीछा करती और उसे ना पकड़ पाने पर उदासी उसके चेहरे पर उभरने लगती, जैसे ही विवान ये देखता उसकी गति स्वतः ही धीमी हो जाती और आरोही के उन फूलों जैसे हाथों से फिर उसकी अच्छे से मरम्मत होती। आज भी कुछ अलग नहीं हुआ, सिवाए एक चीज़ के और वो ये की आज आरोही ने जब विवान की कमर पर मुक्का जमाया तो आज सत्य में विवान के मुंह से कराह निकल गई। उसके चेहरे पर उभरे दर्द ने आरोही को विचलित सा कर दिया और तभी आरोही के दोनों हाथों ने उसके मुंह पर अपना डेरा जमा लिया, कारण थी वो हैरानी जिसने आरोही को जकड़ लिया था।
विवान की सफेद रंग की कमीज़ पर, कमर के हिस्से पर उभरता लाल रंग आरोही की आंखों को तर कर देने के लिए काफी था। उसने एक दम से विवान की कमीज़ ऊपर उठानी चाही पर विवान ने उसका हाथ पकड़ लिया और अपनी दर्द से भरी आंखों से उसे देखते हुए ना में सर हिलाने लगा। पर जब आरोही के हाथ अपनी क्रिया जारी रखने को हुए तब, “तू नहीं देख पाएगी आरोही"।
ये सुनकर तो जैसे आरोही का कलेजा ही मुंह को आ गया। पर उसने विवान की बात को नज़र अंदाज़ किया और उसकी कमीज़ को कमर से ऊपर उठा दिया। जो दृश्य अब आरोही ने देखा वो देखते ही उसकी रुलाई तीव्र होने लगी। बड़े धीमे से आरोही ने अपनी चुनरी को उस घाव पर रखा और फिर विवान की कमर पर ही उस चुनरी को लपेट दिया। आरोही अब तक नीचे घुटनों के बल बैठ चुकी थी पर उसका चेहरा ऊपर की ओर था जो विवान को प्रश्नों और आंसुओं से भरी निगाहों से देख रहा था। विवान भी घुटनों के बल उसके सामने ही बैठ गया, इस दौरान उसे कमर के मुड़ने से तकलीफ भी हुई पर उसने अपने चेहरे से ये ज़ाहिर नहीं किया।
विवान ने नीचे बैठकर आरोही के आंसुओं को अपना हाथों से पोंछा और उसके माथे पर एक गहरा चुम्बन अंकित कर बोला,
“कुछ मत पूछना, सच मैं बता नहीं सकता और तुझसे झूठ बोल नहीं पाऊंगा। पर वादा करता हूं सबसे पहले तुझे ही सब बताऊंगा"।
दृश्य : 4...
“तुझे पता है ना तू मेरे लिए क्या है, इसीलिए सिर्फ मेरी खातिर अपना ध्यान रखना। अपना ध्यान रखेगी और खुद खुश रहेगी तो मैं भी खुश रहूंगा, चाहे मैं कहीं भी रहूं"...
विवान एक कमरे के दरवाज़े के बाहर से उसपर अपना चेहरा टिकाए खड़ा था और तभी उसने ये शब्द धीरे से कहे थे। अंदर की ओर से दरवाज़े पर अपना चेहरा लगाए खड़ी आरोही की भीगी आंखों में पानी और भी बढ़ गया ये सुनकर पर वो कुछ नहीं बोली।
“हम्म्म.. नाराज़ है मुझसे। अपना वादा जो तोड़ रहा हूं। पर मुझे पता है मेरी प्यारी सी परी ज़्यादा देर तक मुझसे नाराज़ नहीं रह सकती। अच्छा सुन, मैंने तेरे पसंदीदा जूते अपने कमरे में अलमारी के पीछे छुपाए थे, ले लेना"।
ये कहने के बाद आरोही के रूदन में आई तीव्रता से विवान भी डगमगा सा गया पर फिर भी अपने निचले होंठ को अपने दांतों में भींच, अपने आंसू रोकता हुआ बोला,
“हां, वादा तो एक और भी किया था तुझसे। अब हर वादा तोडूंगा तो तू मुझे मारेगी ना"...
बोलते – बोलते विवान का भी खुद पर से काबू छूट गया और उसके भी आंसू बह निकले वहीं आरोही का रोना और सिसकियां बदस्तूर जारी ही थी। विवान ने आगे कहा,
“मेरे कमरे में, अलमारी के अंदर एक तिजोरी है जो एक पासवर्ड से खुलती है। वो पासवर्ड तू खुद सोच लेना और उसमें रखी डायरी पढ़ लेना। पर तुझे मेरी कसम तू किसी से भी वो सब नहीं कहेगी। शायद.. शायद किस्मत यही चाहती है आरोही। अच्छा.. अब मैं जा रहा हूं। पर अपना ध्यान रखना"...
इसके बाद विवान अपने काबू से बाहर हो चुके आंसुओं को लेकर वहां से निकल गया। वहीं आरोही दरवाज़े के इस ओर जमीन पर धम से गिर पड़ी।
दृश्य : 5...
आरोही अपनी आंखों में आंसू लिए उस कमरे की हर चीज़ को छूकर महसूस कर रही थी। वो नहीं था तो क्या, उसकी खुशबू, उसकी कशिश आरोही से अछूती नहीं थी। वो सब कुछ महसूस कर सकती थी, सब कुछ... आरोही ने धीरे – धीरे लगभग पूरे ही कमरे को छूकर देखा और फिर अलमारी के नीचे हाथ डालकर कुछ ढूंढने लगी जो उसे शीघ्र ही प्राप्त भी हो गया। जैसे ही उसने अपना हाथ बाहर निकाला उसके हाथ में एक जोड़ी जूते थे, जोकि दिखने में महिलाओं के प्रतीत हो रहे थे। आरोही ने एक दम से उन जूतों को अपने सीने से लगा लिया और आंखें बंद कर कुछ सोचने लगी, या शायद कुछ याद करने लगी।
कुछ पलों बाद उसने उन जूतों को वहीं रख दिया और अलमारी खोलकर उस तिजोरी को देखने लगी। वो जानती थी उसे क्या करना था। जैसे ही उसने उस तिजोरी पर अपना खुद का नाम और जन्म की तारीख को दर्ज किया, वो तिजोरी खुलती चली गई। अंदर केवल दो ही चीज़ें थीं जिनमें से प्रथम को देखकर आरोही समझ ही नहीं पाई की वो क्या करे। वो वही तस्वीर थी जिसमें आरोही विवान के कान खींच रही थी और वो रोने का अभिनय कर रहा था। आरोही ने उस तस्वीर, उन जूतों और तिजोरी में मौजूद दूसरी वस्तु, उस डायरी को लिया और अपने कमरे में चली गई।
रात के किसी पहर, जब चारों और अंधेरा फैला हुआ था, तब आरोही अपने कमरे में बैठी, आंखें अपनी आखिरी हद तक फैलाए उस डायरी के पन्ने पलट रही थी। जैसे ही उसने वो अंतिम शब्द पढ़े, उसके हाथ से डायरी छिटक गई और अपने आंसुओं से सने चेहरे को पोंछते हुए स्वतः ही एक गुज़ारिश भरी आवाज़ उसके मुंह से निकली...
“क्यों किया तुमने ऐसा विवान.. क्यों किया"...
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