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Adultery भटकइयाँ के फल

andyking302

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Update-1

टिंग टोंग….टिंग टोंग….टिंग टोंग
इसी तरह कुछ देर तक doorbell बजने पर सत्तू उर्फ सतेंद्र की नींद खुली, थोड़ा झुंझलाकर उठते हुए कमरे के दरवाजे तक आया और दरवाजा खोलकर बोला- कौन है इतनी सुबह सुबह यार?

पोस्टमैन- सत्येंद्र आप ही हैं

सत्येंद्र- हां मैं ही हूं।

सतेंद्र सामने पोस्टमैन को देखकर थोड़ा खुश हो गया, समझ गया कि घर से चिट्ठी आयी है जरूर।

पोस्टमैन एक चिट्ठी थमा कर चला गया, सतेंद्र लेटर देखकर खुश हुआ, लेटर उसके गांव से आया था, आंख मीजता वापिस आया औऱ वापिस बिस्तर पर लेटकर अपनी माँ द्वारा भेजा गया लेटर खोलकर पढ़ने लगा।

सतेन्द्र उत्तर प्रदेश के राजगढ़ गांव का रहने वाला एक लड़का था जो कि लखनऊ में रहकर अपनी पढ़ाई के साथ साथ एक छोटी सी पार्ट टाइम नौकरी भी करता था।

सतेन्द्र के घर में उसके पिता "इंद्रजीत", मां "अंजली", बड़े भैया "योगेंद्र", बड़ी भाभी "सौम्या", छोटे भैया "जितेंद्र" छोटी भाभी "अल्का" थी।

सतेन्द्र की एक बहन भी थी "किरन", जिसकी शादी हो चुकी थी, सतेन्द्र सबसे छोटा होने की वजह से सबका लाडला था, लखनऊ उसको कोई आने नही देना चाहता था क्योंकि वो सबका लाडला था उसका साथ सबको अच्छा लगता था, पर जिद करके वो पढ़ने के लिए लखनऊ आया था अभी एक साल पहले, कॉलेज में दाखिला लिया और खाली वक्त में आवारागर्दी में न पड़ जाऊं इसलिए एक पार्ट टाइम नौकरी पकड़ ली थी, बचपन से ही बड़ा नटखट और तेज था सतेन्द्र, इसलिए सबका लाडला था, खासकर अपनी माँ, बहन और भाभियों का। अपने बाबू से डरता था पर छोटी भाभी और बहन के साथ अक्सर मस्ती मजाक में लगा रहता था, बड़ी भाभी के साथ भी मस्ती मजाक हो जाता था पर ज्यादा नही और माँ तो माँ ही थी

सतेन्द्र के दोनों भैया दुबई में कोई छोटी मोटी नौकरी करते थे, पहले बड़ा भाई गया था दुबई फिर वो छोटे भैया को भी लिवा गया पर सतेन्द्र का कोई मन नही था दुबई रहकर कमाने का, वो तो सोच रखा था कि एग्रीकल्चर की पढ़ाई खत्म करके किसानी करेगा और खेती से पैसा कमाएगा, दोनों भाई दुबई से साल में एक बार ही एक महीने के लिए आते थे, उस वक्त मोबाइल फ़ोन की सुविधा नही होने की वजह से चिट्टी का चलन था।

सतेन्द्र अपनी बड़ी भाभी को भाभी माँ और छोटी भाभी को छोटकी भौजी बोलता था, दरअसल जब अलका इस घर में ब्याह के आयी थी उस वक्त सत्तू उनको भी भाभी माँ ही बोलता था पर एक दिन अलका ने ही कहा कि मेरे प्यारे देवर जी मुझे तुम छोटकी भौजी बुलाया करो, इसका सिर्फ एक कारण था कि अलका और सत्तू की उम्र में कोई ज्यादा अंतर नही था, इसलिए अलका को बहुत अजीब लगता था जब सत्तू उनको भाभी माँ बोलता था, इसलिए उसने सत्तू को भाभी माँ न बोलकर छोटकी भौजी बोलने के लिए कहा था, दोनों में हंसी मजाक भी बहुत होता था, छोटे छोटे कामों में वो घर के अंदर अपनी छोटकी भौजी का हाँथ बंटाता था।

पर सत्तू की बड़ी भाभी ने तो सत्तू का काफी बचपना देखा था जब वो ब्याह के आयी थी तो सत्तू उस वक्त छोटा था, इसलिए वो उनको भाभी माँ बोलता था और उन्हें ये पसंद था क्योंकि सौम्या ने सत्तू को बहुत लाड़ प्यार से पाला पोसा भी था। बचपन से ही उसकी आदत बड़ी भाभी को भाभी माँ बोलने की पड़ी हुई थी

सतेन्द्र को माँ को चिट्ठी पढ़कर पता चला कि उसको अब शीघ्र ही घर जाना होगा अब कोई बहाना नही चलेगा क्योंकि उसकी शादी को अब मात्र एक महीना रह गया था और शादी के 15 दिन पहले उसे परंपरा के अनुसार एक कर्म पूरा करना होगा तभी उसकी शादी हो सकती है और उसका आने वाला वैवाहिक जीवन सुखमय होगा, ये कर्म उस शख्स को तब बताया जाता था जब उसकी शादी को एक महीना रह जाए, इस कर्म के बारे में किसी को कुछ पता नही होता था कि इसमें करना क्या है?
शानदार bro
 

andyking302

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Update- 2

उस चिट्ठी में भी सत्तू की माँ ने बस उसे जल्द ही वक्त रहते घर बुलाया था, कर्म के बारे में उन्होंने ज्यादा कुछ लिखा नही, क्योंकि उन्हें खुद नही पता था इसके बारे में, बस उन्होंने यही लिखा था कि तेरे बाबू ही बात करेंगे इस विषय में तू बस अब आ जा, ज्यादा दिन नही रह गए हैं, सत्येन्द्र ने चिट्टी पढ़ी और थोड़ा सोच में डूब गया कि आखिर कौन सा कर्म, क्या करना होगा इसमें, इससे पहले तो उसे ये सब पता नही था, खैर अब तो गांव जा के ही पता चलेगा, एक उत्सुकता ने उसे अब जल्दी से जल्दी गांव जाने के लिए विवश कर दिया।

सत्तू ने अपनी कंपनी और कॉलेज से अगले ही दिन छुट्टी ली और पहुंच गया अपने घर, घर जब पहुंचा तो उसकी छोटकी भाभी ने उसे घर के द्वार पर नीम के पेड़ के पास ही रोक दिया उसे आता देखकर वो पहले ही घर के अंदर से एक लोटा जल लेकर आई थी उसमे कुछ चावल के दाने और तुलसी के पत्ते डालकर उन्होंने सत्तू के सर के ऊपर सात बार घुमाया और फिर नीम के पेड़ को जल अर्पित करके अपने देवर का घर में बहुत ही स्नेह और लाड़ से स्वागत किया।

अलका- आओ मेरे देवर जी, अब चलो घर में।

सत्तू- छोटकी भौजी...जब भी मैं घर आता हूँ हर बार आप लोटे में जल लेकर मेरी नज़र उतारती हो ये क्यों करती हो, क्या है ये?

अलका- ये….ये तो इसलिए किया जाता है मेरे देवर जी कि रास्ते में अगर कोई ऊपरी छाया या हवा या नज़र लगी हो तो वो उतर जाए और घर का प्यारा सदस्य स्वक्छ होकर घर में प्रवेश करे…..समझे बुद्धूराम

सत्तू- जिसकी छोटकी भौजी इतना ख्याल रखने वाली हो उसको भला किसी की क्या नज़र लगेगी।

अलका और सत्तू दोनों एक साथ द्वार से चलकर घर के दरवाजे की ओर बातें करते हुए जाने लगे।

अलका- तभी अपनी छोटकी भौजी का बहुत खयाल है न तुम्हें, जब शादी को एक महीना रह गया तब ही आये हो, इससे पहले नही आ सकते थे, कितनी याद आती थी तुम्हारी।

सत्तू- याद तो मुझे भी बहुत आती थी तुम सबकी भौजी...ऐसा मत बोलो तुम तो मेरी प्यारी भौजी हो, अपने परिवार से कोई कितने दिन दूर रहेगा, तुम्हे तो पता है पढ़ाई की वजह से जल्दी जल्दी नही आ सकता, एक बार पढ़ाई पूरी हो जाये फिर तो यहीं रहूंगा अपनी भौजी के पास।

अलका- भौजी के पास रहोगे या अपनी दुल्हनिया के साथ रहोगे।

सत्तू- अरे बाबा दोनों के साथ

और अलका जोर से हंस पड़ती है कि तभी सत्तू के बाबू घर से बाहर आते हैं जिन्हें देखकर अलका झट से घूंघट कर लेती है।

सत्तू अपने बाबू के पैर छूकर प्रणाम करता है।

इन्द्रजीत- आ गए बेटा, सफर कैसा रहा, रास्ते में कोई दिक्कत तो नही हुई न।

सत्तू- नही बाबू कोई दिक्कत नही हुई आराम से आ गया, आप कैसे हैं?

इंद्रजीत- मैं ठीक हूं बेटा….तू घर में जा, पानी वानी पी...मैं जरा एक घंटे में खेत से आता हूँ कुछ काम है।

सत्तू- ठीक है पिताजी।

सत्तू घर में जाता है

सत्तू ने बड़ी भाभी मां (सौम्या) और अपनी माँ (अंजली) के पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया और जब जानबूझकर छोटकी भाभी (अल्का) के पैर छूने चला तो वो लपककर पीछे हटते हुए ये बोली " अरे न न सत्तू, मेरे पैर न छुआ कर मुझे बहुत अजीब लगता है, फिर भी सत्तू ने जानबूझकर मजाक में जबरदस्ती छोटकी भाभी के पैर छू ही लिए और वो शरमा कर फिर हंसते हुए खूब आशीर्वाद देने लगी और सब हंसने लगे।

अंजली- अरे तो क्या हो गया दुलहिन, है तो सतेंद्र तुमसे पद में छोटा ही न, पैर छू कर आशीर्वाद लेता है तो दे दिया करो, अब आ गया है न तो दे खूब आशीर्वाद….(सत्येन्द्र की तरफ देखते हुए) सतेंद्र देख जब तक तू नही आया था तब तक ये मेरी जान खा रखी थी कि अम्मा देवर जी कब आएंगे?...कब आएंगे?….तेरे से न जाने कितना लगाव है इसे…..ले अब आ गया तेरा देवर…..अब शर्मा मत दे आशीर्वाद…..अब तो खुश है न।

अलका- हां अम्मा बहुत….अम्मा भले ही मेरा पद बड़ा है पर मैं अपने देवर जी को अपना दोस्त मानती हूं, इसलिए मुझे अजीब लगता है और रही बात मेरे आशीर्वाद की तो वो तो हमेशा ही इनके साथ है।

अंजली- बेटा मुझे तो लगता है तेरी शादी न इसी के साथ होनी चाहिए थी, इतना तो ये जितेंद्र को नही याद करती होगी जितना तुझे करती है।

ये सुनकर अलका बेहद शर्मा गयी और सब हंस पड़े।

सौम्या(बड़ी भाभी माँ) - तो अम्मा बदल देते हैं न

और सब फिर जोर से हंस पड़े, अलका और शर्मा गयी- क्या दीदी आप भी, बस भी करो, वो मेरा लाडला देवर है याद नही करूँगी।

सौम्या- लाडला तो ये हम सबका है...अच्छा जा अपने लाडले के लिए पानी वानी तो ले आ।

अल्का गयी और झट से मिठाईयां और पानी लेकर आई।

सत्तू का जबरदस्त स्वागत हुआ, सत्तू की बहन किरन भी आ चुकी थी, खूब हंसी मजाक भी हुआ, शादी का घर था सब प्रफुल्लित थे, कई काम हो चुके थे कई काम होने अभी बाकी थे, जिसमे सबसे बड़ा काम था वो कर्म, जिसे सत्तू को पूरा करना था।

शाम को ही सतेन्द्र के पिता ने उसको कमरे में बुलाया वहां उसकी माँ भी बैठी थी।

इंद्रजीत- बेटा तुम्हे एक महीना पहले इसलिए बुलाया है कि अब वक्त बहुत कम रह गया है, मुझे तुम्हे कुछ बताना है।

सतेन्द्र- हां बाबू जी कहिए।

इंद्रजीत- बेटा हमारे खानदान में, हमारे कुल में और हमारे कुल के अलावा दो चार कुल और हैं गांव में, जिनमे न जाने कब से एक अजीब तरीक़े की परंपरा चली आ रही है, जिसको पूरा करना ही होता है, और अगर उसको न किया जाए तो शादी नही हो सकती, और अगर जबरदस्ती शादी कर भी दी तो आने वाले उस शख़्स के जीवन में अनेक तरह की परेशानियां आती ही रहती हैं और उसका जीवन नर्क हो जाता है, और कभी कभी तो अनहोनी भी हो जाती है, इसलिए इस कर्म को उसे करना ही पड़ता है जिसकी शादी हो।

सत्तू ये सुनकर चकित रह गया, उसके मन में कई सवाल उठने लगे, इससे पहले उसे इस बारे में बिल्कुल पता नही था, क्या इससे पहले किसी को बताया नही जाता? आखिर ये परंपरा और कर्म क्या है? क्यों है? हमारे खानदान के अलावा गांव के और कौन कौन से कुल में भी ये परंपरा है? और सबसे बड़ी बात इस कर्म के बारे में किसी को कुछ पता क्यों नही होता? अगर ये परंपरा है तो इसको इतना गुप्त क्यों रखा गया है? और यह पीढ़ी दर पीढ़ी संचालित कैसे किया जाता है? क्या दोनों भैया ने भी अपनी शादी के वक्त ये कर्म किया था जरूर किया होगा और देखो सच में मुझे इसका आभास तक नही हुआ, कितना गुप्त कर्म है ये।

सत्तू के मन में कई तरह की भावनाएं जन्म लेने लगी, आश्चर्य, कौतूहल, जिज्ञासा, कि परंपरा शुरू किसने की होगी और क्यों की होगी? ऐसा क्यों होता है कि अगर इसको न किया जाए तो अनेकों परेशानियां आती है।

उसने ये सारे प्रश्न एक ही बार में अपने बाबू के सामने रख दिया तो उसके बाबू ने उससे कहा- देखो बेटा ये किसने शुरू किया, क्यों किया, किन परिस्थितियों में किया होगा और इसको न करने से परेशानियां क्यों आती हैं ये तो मुझे नही पता और न ही मेरे पिता ने मुझे बताया, बताते भी क्या उन्हें भी नही पता होगा, पर हमारे गांव में एक कुल में एक बार इस कर्म को करने से मना कर दिया और शादी के दो महीने बाद ही दुल्हन की मौत हो गयी, इसलिए भी सब डर गए और दुबारा किसी की हिम्मत नही हुई कि इसको टाल दें, और फिर सब वैसे भी सोचते हैं कि जब इतना कुछ होता ही है तो मन्नत के तौर पर एक कर्म और कर लेते हैं इसमें क्या हो जाएगा, इसमें कुछ घट तो नही जाएगा, इसलिए इस कर्म को करते ही है, जोखिम उठाकर क्या फायदा?

सत्तू- हां बाबू बात तो सही है। पर विस्तार से बताइए कि इसमें क्या करना होता है, कैसे पता चलता है और आगे इसको कैसे संचालित किया जाता है।
शानदार bhai
 
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andyking302

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Update- 3

इंद्रजीत- बेटा परंपरा के अनुसार हर पुरुष अपने जीवन में अपनी शादी होने और पुत्र होने के बाद, जब बच्चे हो जायें और वो वयस्क हो जाये तो अपने पुत्रों के हिसाब से अपने पोतों के लिए, पुत्र के लिए नही बल्कि अपने पोतों के लिए कर्म लिखता है, वो लगभग ये मानकर चलता है कि उसके पांच पोते होंगे और पांच कर्म पांच पोतों के लिए लिखता है, ये मानकर चलता है कि पांच पोते होंगे और अगर कम हुए तो जो बचेंगे वो खाली चले जायेंगे और अगर ज्यादा पैदा हुए तो क्रम से वही कर्म दुबारा बचे हुए पोतों के लिए दोहराया जाएगा, अब जैसे कि तुम्हारे दादा ने पांच कर्म लिखे होंगे और तुम हुए तीन भाई तो दो कर्म खाली चले गए होंगे और अगर पांच से ज्यादा होते तो वही कर्म दोहरा दिया जाता। ये कर्म बेटे के लिए नही पोतों के लिए लिखा जाता है, और कर्म लिखकर उसको रखा कहाँ है ये बताया बेटों को जाता है वो भी उनकी शादी के वक्त जैसे कि मेरे लिए मेरे दादा जी ने लिखा था और तुम तीनो भाइयों के लिए तुम्हारे दादा जी ने लिखा है

सत्तू अब और अचंभित हो गया - तो क्या भैया लोग अपना कर्म पूरा कर चुके हैं?

इंद्रजीत- हाँ बिल्कुल, तभी तो उनकी शादी पूर्ण हुई है।

सत्तू- और दोनों भैया अपने अपने पोतों के लिए कर्म लिख चुके हैं।

इंद्रजीत- हाँ बेटा बिल्कुल।

सत्तू- देखो जरा भी भनक नही लगी, मुझे तो पता ही नही।

इंद्रजीत- यही तो रहस्य है इस कर्म का की इस कर्म के बारे में तब बातचीत की जाती है और केवल उसी से बातचीत की जाती है जिसकी शादी हो, कर्म पूरा होने के बाद उससे प्रण कराया जाता है कि वह किसी को भी इस विषय में बिल्कुल नही बताएगा, वह बताएगा तो सिर्फ अपने बेटे को की उसने वह कर्म अपने पोते के लिए लिखकर कहाँ रखा है फिर उसका बेटा अपने बेटे को उसकी शादी के वक्त ये बताएगा कि वह कर्म उसे कैसे पता चलेगा कि वह कहां रखा है।

सत्तू- मैं समझा नही बाबू जी

इंद्रजीत- देखो जैसे तुम्हारे दादा जी ने तुम तीनो भाइयों के लिए कर्म लिखकर रख दिया और जब मेरी शादी होने लगी तो मुझे ये बताया कि मेरे दादा जी ने मतलब तुम्हारे परदादा ने मेरे लिए मेरा कर्म कहाँ रखा है और उन्होंने अपने पोतों के लिए मतलब तुम लोगों के लिए कर्म कहाँ रखा है, सिर्फ ये बताया कि कर्म कहाँ रखा है ये नही बताया कि उसमे लिखा क्या होगा क्योंकि ये तो उन्हें खुद ही नही पता होगा, मेरे कर्म के लिए उन्हें नही पता होगा और जो कर्म उन्होंने तुम्हारे लिए लिखा है वो तो उन्हें पता ही होगा पर वो वचनबद्ध होने की वजह से मुझे बताएंगे नही, इसलिए मुझे ये नही पता कि तुम्हारे कर्म में लिखा क्या है परंतु ये पता है कि वो रखा कहाँ है। इसी तरह तुम तुम्हारी शादी पूर्ण होने के बाद जब तुम्हे पुत्र हो जाएंगे तो उनके अनुसार पांच का हिसाब लगाते हुए अपने पोतों का कर्म लिखोगे और उसको कहाँ रखोगे ये अपने पुत्र को बताओगे जब तुम्हारे पुत्र की शादी होने लगेगी उस वक्त और उसे ये भी बताओगे की मैंने उसके लिए जो कर्म लिखा है वो कहाँ रखा है।

सत्तू- अच्छा मतलब दो काम हुए जब पुत्र की शादी होने लगेगी तो उसको ये बताना है कि उसके दादा ने उसके लिए कर्म लिखकर कहाँ रखा है और खुद उसने अपने पोतों के लिए कर्म लिखकर कहाँ रखा है, औऱ कर्म पांच पोते होंगे ये मानकर पांच कर्म लिखना है, फिर यही सिलसिला आगे चलता जाएगा। इसमें ये तो पता होता है कि मैंने अपने पोतों के लिए क्या कर्म लिखा है पर ये नही पता होता कि मेरे पुत्र के लिए उसके दादा ने क्या कर्म लिखा होगा और अपना लिखा हुआ भी कभी किसी को बताना नही है।

इंद्रजीत- बिल्कुल बिल्कुल बेटा अब सही समझे।

सत्तू- तो बाबू जी आपने मेरे पुत्र मतलब अपने पोते के लिए कर्म लिख दिया है, लेकिन आप तो हम तीनों भाइयों के पुत्रों के लिए कर्म लिखोगे न।

इंद्रजीत- लिखूंगा नही लिख कर रख भी दिया है, बच्चे हो जाने के बाद जब वो किशोर अवस्था में प्रवेश करने लगे तो उनके हिसाब से पोतों के लिए कर्म लिखा जाता है जितने बेटे हों उसी हिसाब से पांच पांच मान कर लिखा जाता है, अब जैसे तुम तीन भाई हो तो मैंने 15 कर्म लिखकर रख दिया है, पांच तुम्हारे पुत्रों के लिए, पांच योगेंद्र और पांच जितेंद्र के पुत्रों के लिए, समझे अब।

सत्तू- हां बाबू जी समझ तो गया पर मान लो उस पुरुष की किसी वजह से मृत्यु हो जाये तो ये सिलसिला तो टूट ही जायेगा फिर उसके पुत्र और पोतों को उनका कर्म कैसे पता चलेगा? और इस कर्म को लिखकर हर कोई रखता कहाँ है?

इंद्रजीत- यह कर्म लिखकर गांव के किसी भी परिवार में कोई भी एक दूसरे के यहां रखते हैं, जैसे कि तुम्हारा कर्म सुखराम नाई के घर में जमीन में गाड़कर रखा हुआ है, तुम्हारे दोनों भाइयों का कहाँ रखा हुआ था ये मैं तुम्हे नही बता सकता, कर्म लिखकर रखने के बाद जिस घर में जिस परिवार के लोगों को ये जिम्मेदारी दी जाती है ये उनका भी फ़र्ज़ होता है कि समय आने पर जिसका वो कर्म है उसको वो लोग जानकारी दें, ये उनका भी फ़र्ज़ होता है, और यह इश्लिये है कि मान लो किसी की मृत्यु हो जाय तो उसके पुत्र और पोतों को अपने कर्म मिल जाएं और उनको इस परंपरा की जानकारी उस परिवार द्वारा दे दी जाय, इश्लिये कर्म किसी दूसरे परिवार के यहां उनकी जिम्मेदारी पर उनके वहां रखा जाता है। तुम्हारा कर्म सुखराम नाई के यहां तुम्हारे दादा जी ने रखा हुआ है। अगर मैं तुम्हे ये सब न भी बताऊं तो सुखराम नाई तुम्हे जरूर बताएगा क्योंकि ये उसकी भी जिम्मेदारी है, देख लेना वो कल ही घर आएगा तुमसे मिलने और तुम्हे अपने घर लिवा जाएगा, तुम कल खुद ही चले जाना उसके घर और अपना कर्म ले लेना और एकांत में उसको पढ़कर समझकर कर्म पूरा होने पर उसको जला देना।

सत्तू- ठीक है बाबू जी और बाबू जी इस कर्म को लिखकर रखते कैसे हैं? क्या हमारे घर भी किसी कुल के लोगों का कर्म रखा हुआ है?

इन्द्रजीत- कर्म को एक अच्छे से मोटे कागज पर लिखकर एक अच्छे से पके हुए मिट्टी के घड़े में डालकर उसपर अपना नाम अपने पुत्र का नाम और फिर किस नम्बर का वो कर्म है वो लिखना होता है जैसे एक, दो, तीन….जो भी हो, जैसे तुम्हारे कर्म के घड़े पर पहले सबसे ऊपर तुम्हारे दादा जी का नाम होगा फिर मेरा नाम लिखा होगा फिर लिखा होगा तीन, समझे अब

सत्तू- हाँ बाबू जी समझ गया

इन्द्रजीत- और हमारे घर भी दो कुल के परिवारों का कर्म रखा जाता है, दो घर की जिम्मेदारी हमारे पास है, वो मैं तुम्हे बाद में बताऊंगा की किस परिवार की है वो।

तभी सतेन्द्र का ध्यान अपनी माँ पर गया जो कि सब सुनते हुए बड़े प्यार से बीच बीच में मुस्कुरा दे रही थी।

सत्तू- पर बाबू जी जैसा कि आपने कहा कि किसी और को नही पता चलना चाहिए तो आपने तो माँ के सामने ही मुझे सबकुछ बताया।

इन्द्रजीत- घर की स्त्रियों के लिए कोई परहेज नही है, उनको बताया जा सकता है पर ये नही बताना की तुमने अपने पोतों के लिए क्या कर्म लिखा है बस ये सब बता सकते हो कि तुम्हारा कर्म कहाँ रखा हुआ है, तुम्हारे खुद के कर्म में लिखा क्या है अगर उसको पूर्ण करने में घर की किसी स्त्री या पुरुष की भागीदारी है तब तो उसको बताना ही पड़ेगा पर वचन भी लेना होगा कि वो कभी किसी को न बताएं।

सत्येंद्र सारी बात समझ जाता है, उसके बाबू उठकर चले जाते है और उसकी माँ अंजली उसके लिए खाना लगाने को उसकी बड़ी भाभी को कहती है, आज का दिन बड़ी जिज्ञासा में बीतता है पर घर का माहौल बहुत खुशनुमा था, छोटकी भाभी अलका सत्तू से दिन भर हंसी मजाक करती रहती है जिसमे बीच बीच में बड़ी भाभी सौम्या और बहन किरन भी खूब खुलकर हंसी मजाक में लगी हुई थी। कभी कभी सत्तू थोड़ा अश्लील मजाक से झेंप भी जाता पर फिर भाभियों को ऐसा छेड़ता की वो भी शर्म से लाल हो जाती।
शानदार bhai
 
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andyking302

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Update- 4

अगले दिन सत्तू सुबह सुबह ही सुखराम के घर गया, सुखराम अपने द्वार पर बैठ सुबह सुबह बांस की टोकरी बिन रहा था, वह नाई का काम करने के साथ साथ बांस और अरहर की लकड़ी की टोकरियाँ बनाकर बाजार में बेचता था, सत्तू को देखते ही वो समझ गया और उसका स्वागत करते हुए बोला- आओ बेटा आओ, कब आये शहर से?

सत्तू- कल ही आया चाचा, आप कैसे हो?

सुखराम- ठीक हूँ बेटा, आओ बैठो, आज मैं आने ही वाला था तुम्हारे घर, एक जिम्मेदारी है तुम्हारी हमारे पास, उसी के विषय में तुम्हे बताने आता, पर तुम ही आ गए तो अच्छा ही किये।

सत्तू- हां चाचा मैं ही आ गया, बाबू ने बता दिया सब और बोला कि आपके पास मेरा कर्म रखा हुआ है।

सुखराम- हां बेटा तुम्हारा कर्म हमारे घर पर रखा हुआ है, लो पहले पानी पियो, फिर देता हूँ निकाल कर।

सत्तू ने पानी पिया, सुखराम ने अपने घर वालों को थोड़ी देर के लिए बाहर बैठने के लिए बोला और कुदाल लेकर आंगन में आकर खोदने लगा, लगभग दो हाँथ गहरा गढ्ढा खोद डाला तो सत्तू ने देखा कि एक पुराना सा बक्सा रखा था, उसको सुखराम ने खोला तो उसमे एक घड़ा रखा था, सुखराम ने वो घड़ा उठाकर सत्तू को पकड़ाते हुए बोला- लो बेटा ये अपनी अमानत, यही है तुम्हारा कर्म, इसको एकांत में कहीं रास्ते में खोलना।

सत्तू ने सुखराम को धन्यवाद किया और बड़ी ही उत्सुकता से वो घड़ा लेकर चल पड़ा, रास्ते में काफी दूर आने के बाद, जब उसने देखा कि कोई आस पास नही है तो एक पेड़ के पास बैठकर उस घड़े को फोड़ा, उसके अंदर एक पुराना से कागज था, उस कागज को देखकर उसकी धड़कने बढ़ गयी, बड़ी ही उत्सुकता से उसने अपने हिस्से के कर्म को पढ़ने के लिए उस कागज को खोला तो उसमे जो कर्म सत्तू के दादा जी ने उसके लिए लिखा था वो कुछ इस प्रकार था-

"मेरे प्रिय पौत्र,
अपने सुखी विवाहित जीवन के लिए तुम्हे यह कर्म करना अनिवार्य है, मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इसे जरूर पूरा करोगे।
तुम्हारा कर्म-
" भटकइयाँ के पके हुए रसीले फल को घर की सभी शादीशुदा स्त्री (बहन, बुआ और रिश्ते में कोई बेटी लगती हो उसको छोड़कर) की योनि में रखें फिर अपने लिंग की चमड़ी को बिना खोले लिंग योनि में डालकर भटकइयाँ के फल को योनि की गहराई में गर्भाशय तक लिंग से ठेलकर ले जाएं, बच्चेदानी के मुहाने पर भटकइया का फल पहुँचने के बाद स्त्री अपने हांथों से योनि में पूर्णतया समाये हुए लिंग को आधा बाहर निकलकर उसकी चमड़ी पीछे खींचकर योनि के अंदर ही लिंग को खोले और फिर पुरुष अपने लिंग से योनि में ठोकर मार मार कर बच्चेदानी के मुहाने पर पड़े भटकइया के फल को कुचलकर, दबाकर फोडें और लिंग से ही फल को मसल मसल कर मीज दे, फल फूटने पर पट्ट की आवाज आने के बाद योनि और लिंग जब उसके रस से सराबोर हो जाये तो योनि को लिंग का सुख देते हुए योनि को चोदें, योनि और लिंग स्लखित होने के बाद निकलने वाले काम रस को किसी चीज़ में इकठ्ठा करें, ध्यान रहे यह कर्म घर की सभी स्त्रियों के साथ एक साथ नही होना चाहिए और न ही उन्हें एक दूसरे के बारे में पता चलना चाहिए कि यह कर्म उनके साथ भी हुआ है,ताकि उनकी शर्मो हया, मान सम्मान, घर की इज़्ज़त बरकरार रहे, सभी के साथ किये गए इस कर्म से इकट्ठा काम रस को मिलाकर इकट्ठा करें और अपनी सुहागरात में अपने लिंग पर यही लेप लगाएं और अपनी पत्नी का योनि भेदन करें।

सुखमय विवाहित जीवन का आनंद लें।

मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा।"
शानदार
 
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andyking302

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Update- 5

कागज में लिखे कर्म को पढ़कर सतेंद्र सन्न रह गया, एक बार में विश्वास नही हुआ तो चार पांच बार पढ़ा, माथे पर पसीने की बूंदें उसका अचरज बयां कर रही थी, दिमाग सुन्न हो गया, विश्वास ही नही हो रहा था कि उसके दादा ऐसा कर्म उसके लिए लिख गए हैं, आखिर क्या उनके दिमाग में सूझा जो उन्होंने उसके हिस्से में ऐसा कर्म लिखा, क्या वो ये चाहते थे? कि मैं उनका पोता घर की सगी स्त्रियों के साथ जिसमे से कोई मेरी भौजी है तो कोई माँ है वो करूँ जो अनैतिक है, महापाप है।
और चाहते भी थे तो क्यों? ये कैसा कर्म लिख दिया मेरे दादा ने मेरे लिए? क्या उन्हें इतना विश्वास था कि घर की स्त्रियां इसके लिए राजी हो जाएंगी। हे भगवान! ये मेरे हिस्से में क्या आ गया। क्या दादा जी ने भैया के हिस्से में भी ऐसा कुछ कर्म लिखा होगा? क्या पता कौन जाने? क्या दादा जी इतने कामुक थे कि वो सगे रिश्ते में भी ऐसा सोचते थे, क्या उन्होंने खुद भी ये सब किया होगा? जो मेरे लिए लिख दिया।

सत्तू यही सब काफी देर तक सोचता रहा। बार बार उस कागज को देखता रहा। समझ में नही आ रहा था कि अपने को कोसे या खुशी के मारे झूमे, कैसे होगा ये सब?, कैसे कहेगा और करेगा वो भौजी और मां के साथ ये सब?

बताएगा भी तो कैसे? उसी स्त्री को बताना है जो कर्म में साथ है और तो और इसमें ये भी लिख दिया है की सभी स्त्रियों को एक दूसरे के बारे में पता भी नही लगना चाहिए, अगर ये कागज प्रमाण के तौर पे भी दिखाऊंगा तो उस स्त्री को तो पता चल ही जायेगा कि ये कर्म घर भी सभी स्त्री के साथ करना है, और एक स्त्री का राज दूसरी स्त्री को पता भी नही लगने देना है, ये कागज तो दिखा नही सकता, इसमें तो दोनों ही बातें लिखी है, और ये भटकइयाँ का फल साला इसको कहाँ ढूंढूं मैं?, पता नही कहीं मिलेगा भी की नही, मुझे तो देखे हुए भी काफी वक्त हो गया उसको।

सतेंद्र अपनी दोनों भौजी, उसमें से भी छोटकी भौजी से हंसी मजाक जरूर करता था पर आज तक उसने कभी उन्हें वासना की नज़र से नही देखा था, न ही उसके मन में कभी ऐसा कोई ख्याल आता था, और माँ तो माँ ही थी, भाभी माँ भी माँ के समान ही थी, जिन्होंने लगभग उसे बचपन से ही देखा था, सन्न बैठा हुआ था वो, कुछ सूझ ही नही रहा था कि कागज में लिखी इन चीजों को वास्तविकता में कैसे बदलेगा? संभोग की बात तो दूर स्त्री की योनि को भी अभी तक वास्तविक रूप से उसने नही देखा था, ब्लू फिल्म की बात अलग थी, अभी तक तो वो अपने जीवन में आने वाली अपनी दुल्हन के साथ मनाए जाने वाले सुहागरात की बात को ही सोच सोच कर हर वक्त उत्तेजित होता आ रहा था, पर आज इस कर्म की वजह से जब जेहन में अपनी छोटकी भौजी, भाभी माँ और माँ का ख्याल आया तो एक अजीब सी सुरसुरी से बदन का रोवाँ रोवाँ खड़ा हो गया। न चाहते हुए भी हल्की हल्की उत्तेजना उसे होने ही लगी, क्योंकि आने वाली दुल्हन के साथ संभोग के विषय में सोच सोच कर वो उत्तेजित पहले ही रहता था और अब तो उन स्त्रियों के साथ यौन सुख मिलना था जो उसके साथ बचपन से हैं, कैसा लगेगा? कैसी होंगी छोटकी भौजी अंदर से, भाभी माँ और अम्मा? बार बार हल्की हल्की वासना चढ़ती और बार बार वो उसे झटक सा देता, फिर उस कागज में लिखे कर्म की ओर देखता जिसमे वही कर्म करने को लिखा था जिसे वह बार बार ख्याल आने पर झटक सा दे रहा था।

तभी उसके ध्यान कर्म में लिखी उस बात पर गया कि "योनि के मुख पर भटकइयाँ का फल रखकर लन्ड की चमड़ी को बिना पीछे खिंचे लन्ड से भटकइयाँ के फल को ठेलकर योनि की गहराई में गर्भाशय द्वार तक ले जाना है"

सत्तू सोचने लगा अब ये कैसे संभव होगा? योनि के अंदर लंड जाते ही रगड़ से चमड़ी तो पीछे को खुलती चली ही जाएगी, भला ये कैसे संभव है कि लन्ड गर्भाशय तक उतर जाए और उसकी चमड़ी भी न खुले, ये एक और समस्या खड़ी हो गयी।

तभी लन्ड पर ध्यान गया जो कि सोचकर ही फुंकार मारने लगा था, एक हाँथ से उसने लन्ड को आखिर न चाहते हुए मसल ही दिया।

आज तक उसने स्त्री की योनि के दर्शन भी अच्छे से नही किये थे योनि के अंदर लिंग डालकर परम सुख लेना तो दूर की बात थी, कैसे करेगा वो? ये ऐसी चीज़ थी न तो निगला जा रहा था न उगला, उत्तेजना, शर्म, घबराहट, ग्लानि सब का मिला जुला अहसास बार बार बदन के रोएँ खड़े कर दे रहा था।

फिर जेहन में ये आया कि अम्मा के साथ भी करना होगा, वो मेरी माँ हैं, उन्होंने जन्म दिया है मुझे, कैसे करूँगा मैं ये सब उनके साथ, क्या वो तैयार होंगी, कैसे कहूंगा मैं उनसे की मेरे कर्म में ये लिखा है, लेकिन जब ध्यान में ये आया कि "मां की योनि" कैसी होगी? तो हलचल तो हुई, जरूर हुई, उस वक्त सत्तू को ये हल्का सा महसूस हो ही गया कि लिंग और योनि का कोई रिश्ता नही होता, योनि किसी की भी हो ख्याल करने पर ये साला हरकत करता ही करता है, पर क्यों, अगर ये गलत है तो ईश्वर के यहां से ही इस पर अंकुश क्यों नही लगा हुआ है, क्यों ऐसा हो रहा है, एक सीमा तक न न करने के बाद उत्तेजना होनी ही लग रही है।

बहुत उधेड़बुन सत्तू के मन में चल रहा था, समझ नही आ रहा था कि अफसोस करूँ या खुशी से नाचूँ, अपने दादा को कोसूं या धन्यवाद दूँ, कभी मन खुश हो जाता तो कभी ग्लानि से भर जाता, कैसे घर जाए अब वो? बहुत कुछ बदल चुका था उसके जेहन में अब।

अगर एक चींटे ने पैंट के अंदर घुटनों तक चढ़कर वहां पर न काटा होता तो शायद सत्तू झनझना कर न उठता अभी भी वो खोया ही रहता, पैंट के ऊपर से ही उसने कस के चींटे को मारकर मसल दिया और हाँथ अंदर डालकर दर्द से थोड़ा सी सी करता हुआ मरे हुए चींटे को बाहर निकाल कर फेंका, देखा तो वहां पर काटकर साले ने लाल कर दिया था, कागज को मोड़ कर जेब में रखा और उठकर बहुत बेचैनी से घर की तरफ चल दिया।

रास्ते में सामने से आता हुआ उसका एक गांव का पुराना दोस्त दिखाई दिया, जिसका नाम था विकास।

विकास- अरे सतेंद्र, आ गया, यार कोई खबर नही, कुछ पता भी नही कब आता है कब चला जाता है, शादी है न तेरी, बताया था काका ने की शादी पड़ गयी है अब आने वाला है।

सतेंद्र- हां यार एक दो दिन हुए आये, शादी में बारात में चलना है जरूर, अभी से बोल दे रहा हूँ, फिर मत बोलियो की बोला ही नही, शादी का कार्ड भी लेकर आऊंगा घर पे, सबको आना है।

विकास- अबे तू नही भी बुलायेगा न तो भी आएंगे और बोल, यार की शादी में भला हम न आएं। अच्छा ये बता सुबह सुबह इधर से कहाँ से आ रहा है।

सतेंद्र- कुछ नही यार काका के यहाँ कुछ काम था। अच्छा ये बता ये भटकइयाँ कहाँ मिलेगी।

विकास- भटकइयाँ.... वो जंगली फल

सतेंद्र- हां वही जो छोटी छोटी लाल लाल सी होती है, हम लोग बचपन में जब कभी खेत में जाते थे तो रास्ते में उगी रहती थी मेड़ों पर, खाते नही थे तोड़ तोड़ के, वही तो?

विकास- हां तो जब तेरे को पता ही है कि खेतों में मेड़ों पर उगी हुई मिल जाती है तो पूछ क्यों रहा है।

सतेंद्र- अबे चूतिये confirm कर रहा हूँ कि आज कल भी मिल जाती है न आस पास, है भी या लुप्त हो गयी, अब मैं तो गांव में ज्यादा रहता नही हूँ इसलिए पूछ रहा हूँ।

विकास- मिलेगी क्यों नही आस पास न मिले तो नहर पे चले जा, वहां तो बहुत मिल जाएंगी, जंगली पौधा ही तो होता है, मिल जाएगी, पर तूझे चाहिए क्यों? आने वाली भौजी को खिलायेगा क्या, की देखो जी हम लोग यही खा खा के बड़े हुए हैं।

सत्तू- पागल हो गया है क्या? अरे कुछ काम है इसलिए पूछ रहा था, दवाई भी बनती है न उसकी, उसी के पत्ते चाहिए थे।

विकास- मिल जाएगी यार नहर पे बहुत मिल जाएगी।

सत्तू- चल ठीक है, चलता हूँ आऊंगा एक दो दिन में तेरे घर पे।

विकास- चल ठीक है

सतेंद्र घर की ओर चल पड़ता है, फिर से वही सारी बातें दिमाग में आने लगती हैं।
जबरदस्त भाई
 
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andyking302

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सत्येन्द्र रास्ते में सोचता जा रहा था कि वो इस कागज़ का करे क्या? क्या इसे नष्ट कर दे या प्रमाण के तौर पर रखे, पर यह किसी को दिखाना तो है नही, हां जिस स्त्री के साथ कर्म करना है उसको दिखा सकते हैं पर इसमें लिख ऐसा दिया है कि घर की हर स्त्री (बेटी, बुआ और बहन को छोड़कर) के साथ यह करना है और ये भी लिखा है कि एक दूसरी स्त्री को आपस में कभी पता भी नही चलना चाहिए तो यह कागज प्रमाण के तौर पर दिखाऊंगा भी कैसे? अगर एक स्त्री को दिखाया तो वो तो पढ़ ही लेगी की घर की सभी स्त्रियों के साथ करना है।

यह तो संभव ही नही, इसको घर जा के जला ही दूंगा। परंतु इस कर्म को अंजाम भी जल्द से जल्द ही देना होगा क्योंकि शादी का घर है और
जैसे जैसे शादी नज़दीक आएगी रिश्तेदार इकट्ठा होने शुरू हो जाएंगे, भैया भी आने वाले हैं। यही सब सोचता हुआ वो घर पहुंचा तो दोपहर हो चुकी थी।

उसकी छोटकी भाभी अलका और भाभी माँ सौम्या दोनों बड़े से कटोरे में चूने का लाल और सफेद घोल लेकर कच्चे व पक्के घर की दीवारों पे हाँथ के छापे मार कर सजा रही थीं।

अलका ने लाल रंग के घोल का कटोरा लिया हुआ था और सौम्या ने सफेद रंग के घोल का कटोरा लिया हुआ था, सौम्या आगे आगे थी और अलका उनके पीछे पीछे, सौम्या एक हाँथ में कटोरे में लिए सफेद घोल में दूसरे हाँथ का पंजा डुबोती और दीवार पर ऊपर नीचे छपाक से दो छापे मारती फिर थोड़ा दूरी पर ऐसे ही दुबारा छापे मारते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी और अलका लाल रंग से बीच में बची जगह पर अपने हाँथ से लाल छापा मारती हुई आगे बढ़ रही थी, सौम्या का हाँथ थोड़ा बड़ा था अलका से, तो दोनों हाँथ से बने छापे के आकार में साफ पता चल रहा था कि कौन सा अलका का हाँथ है और कौन सा सौम्या का।

जैसे ही सतेंद्र घर पहुंचा, अलका ने मुड़कर अपने देवर को देखा तो मुस्कुराते हुए छापे मारने लगी, सत्तू थोड़ी दूर पर पेड़ के नीचे खाट डालकर बैठ गया और थोड़ा जोर से बोला- मेरी जो भौजी जैसी है वैसा ही रंग भी चुन रखा है।

सौम्या सत्तू को देखकर हंसने लगी और अलका बोली- अच्छा तो मैं लाल हूँ और दीदी सफेद?

सत्तू- बिल्कुल, कब से लगी हो भौजी घर सजाने में?

अलका- जब से तुम गए हो बाहर तभी से, अब तो पूरा होने वाला है, देख लो अपनी देवरानी के आने की खुशी में, उसके स्वागत में कोई कमी नही रखूंगी पर वसुलूंगी जरूर तुमसे।

सत्तू- वसूल लेना मेरी लाल भौजी? हमने कब मना किया, पहले तो हम आप ही के हैं।

अलका ने सत्तू की तरफ कनखियों से देखा और मुस्कुराने लगी, सौम्या भी हंसने लगी और बोली- मेरे देवर जी अभी इसमें एक काम बाकी है।

सत्तू- क्या भौजी?

सौम्या- इसमें अभी पीले रंग का बड़ा सा बिंदु बीच में बनाना है अब मैं तो हो गयी सफेद और अलका हो गयी लाल तो पीले हो जाओ तुम या किरन, हम तो बाबा दो घंटे से खड़े खड़े थक गए।

सत्तू- अरे मेरी भाभी माँ आप रहने दो मैं और किरन दीदी बाकी का कर देंगे, ओ मेरी लाल भौजी अब रहने दो आपका देवर आ गया है (सत्तू ने अलका को चिढ़ाते हुए कहा)

अलका- हां मेरे पीले देवर जी, जब अब खत्म होने वाला है तब आये हो, पहले आये होते तो साथ में शुरू करते, अब लगाओ तुम पीला रंग अकेले अपनी बहिनिया के साथ, भाभी चली दूसरा काम करने।

(अलका ने सत्तू की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा)

सतेंद्र आज पहली बार अपनी दोनों भाभियों के बदन को न चाहते हुए भी चुपके चुपके निहार रहा था, ऐसी नज़र से उसने आजतक उन्हें देखा नही था पर आज न जाने क्यों अनायास ही उसकी कामुक नज़र अलका और सौम्या के गदराए बदन पर चली ही जा रही थी, दोनों ने ही साड़ी के पल्लू को ब्लॉउज के ऊपर से चूचीयों को ढकते हुए कमर में खोंस रखी थी ताकि वो बार बार उड़कर रंग में न चला जाये।

सौम्या का बदन अलका से थोड़ा ज्यादा भारी था, वह अलका से बड़ी तो थी ही पर अलका
की दोनों मदमस्त चूचीयाँ सौम्या की गदरायी चुचियों को बराबर टक्कर देती थी, सौम्या के दो बच्चे हो जाने के बाद भी उसके बदन की कसावट में कोई कमी नही थी, उसका बदन अलका के बदन से थोड़ा ज्यादा भरा हुआ था, वहीं अलका बेइंतहां खूबसूरत और चंचल थी, अलका के बदन पर अनावश्यक चर्बी बहुत कम थी, उसको देखकर ही बदन में गर्मी चढ़ने लगती थी न जाने कैसे सत्तू आज तक अपने आप को संभाले रहा, पर आज जिस नज़र से वो उस खजाने को निहार रहा था, यह साबित हो चुका था कि नजरिया अब उसका बदल गया है।

जहां अलका चंचल और थोड़ी अल्हड़ सी थी वहीं सौम्या सौम्य और शीतल स्वभाव की थी, ऐसा नही था कि वो सुंदर नही थी, वो भी बहुत सुंदर थी, पर बदन थोड़ा अलका से भारी था।

अल्का को अभी कोई बच्चा नही हुआ था, वो चाहती तो थी पर उसके पति का कहना था कि अभी नही बाद में, एक दो साल बाद।

सौम्या और अलका भी सतेन्द्र को बार बार अपनी तरफ देखते हुए देखती, सौम्या तो हल्का सा हंसकर अपने काम में लग जाती पर अलका की नज़रें अपने देवर की नज़रों में कुछ देर उलझी रहती फिर वो बड़ी कामुकता से मुस्कुराकर अपने काम में लग जाती, फिर दुबारा देखती तो सत्येन्द्र उसे ही देख रहा होता था, आज पहली बार उसके बदन में भी सिरहन सी दौड़ गयी, आज तक सतेंद्र ने उसे ऐसे नही देखा था, उसे बहुत अच्छा लगने लगा, प्यासी तो दोनों थी ही, क्योंकि साल भर में ही सत्तू के भैया आते थे।

अलका ने सौम्या से नज़र बचा के सत्तू से पूछा- क्या बात है? बहुत बदमाशी हो रही है आज।

सत्तू ने इशारे से "कुछ नही" कहा और अलका फिर मुस्कुराकर अपना काम करने लगी, दोनों देवर भाभी की नजरें आज उलझ गई थी, जब से सत्तू बाहर से आया है उसकी नज़रों में कुछ अलग है ये बात अल्का समझ गयी, कुछ अहसास सौम्या को भी हुआ, पर क्योंकि उसने सत्तू को बचपन से पाला था तो उसने इसे शायद भ्रम समझा, पर अलका के दिल में हलचल हो चुकी थी।

अभी सत्तू अपनी दोनों भाभियों को चोरी चोरी निहार ही रहा था कि किरन घर में से बाहर आई- अरे भाई आ गया, कहाँ गया था सुबह से।

सत्तू ने किरन को देखा तो ठीक से बैठ गया खाट पे और बोला- दीदी गया था किसी काम से, बाबू कहाँ गए हैं?

किरन- वो तो गए है बाजार तेरी शादी का कार्ड लेने, छप के तैयार हैं न, अब बाटना भी तो है, वक्त ही कितना रह गया है, और भी बहुत काम है।

सत्तू- हां दीदी काम तो बहुत है, मैं भी जल्दी जल्दी और दूसरे काम संभाल लेता हूँ, बाबू अकेले कितना करेंगे।

किरन- हाँ भाई जरूर, पर शादी के पंद्रह दिन पहले से गीत और हल्दी-उबटन लगाने की रसम शुरू हो जाएगी, तो ऐसे में दूल्हे राजा को कहीं बाहर नही जाना होता है, तो उससे पहले जो करना है कर ले, उसके बाद तुझे कहीं बाहर नही जाना, हां खेत वगैरह में आस पास जा सकता है, पर दूर नही, दोनों बड़े भैया भी शादी के एक हफ्ते पहले तक ही आएंगे, उनका खत आया था।

सत्तू- दीदी फिक्र न कर मैं तो हूँ न, पंद्रह दिन में लगभग सारे काम निबटा दूंगा, बाबू जी को इतना परेशान होने की जरूरत नही।

दोनों बहन भाई ऐसे ही बातें कर रहे थे, और सत्तू की नजरें अपनी दोनों भाभियों से बार बार टकरा रही, जिसको सौम्या तो सहज तरीक़े से ले रही थी पर अल्का के दिल में अब तूफान मचा हुआ था।

किरन- रुक तेरे लिए पानी लाती हूँ...... भाभी ओ भाभी पानी लाऊं.....पानी पी लो कब से लगी हो...थक गई होगी।

सौम्या- हां जा ले आ, प्यास तो लगी है बहुत।

अल्का- प्यास तो मुझे भी लगी है, ननद रानी थोड़ी प्यास बुझा दो।

ऐसा कहकर अल्का सत्तू को चुपके से देखते हुए हंसकर फिर छापे मारने लगी।

किरन- चिंता मत करो जल्द ही सारी प्यास बुझेगी, छोटकी भौजी।

किरन ने कह तो दिया पर फिर अपनी ही बात पर झेंप गयी, अलका भी शर्मा गयी, सत्तू खाट पर लेटकर अपनी दोनों भाभी को फिर निहारने लगा।
शानदार bhai
 
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andyking302

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Update- 7

किरन पानी लेकर आई, दोनों भौजियों ने पानी पिया और अल्का बोली- लो अब हमारा काम तो खत्म हुआ अब पीले छापे मारेंगे मेरे पीले देवर जी और हमारी ननद रानी, हम तो चले दूसरा काम करने।

सौम्या भी मुस्कुराकर पास में रखी बाल्टी से पानी लेकर हाँथ धोने लगी, तो अल्का बोली- दीदी मेरे हाँथ पर भी डालो पानी, मेरे भी हाँथ धुला दो।

सौम्या ने पहले अपना हाँथ धोया फ़िर अल्का का धुलाया, सत्तू दोनों भौजियों को निहारते निहारते पानी पी रहा था।

किरन- भौजी ये पीला रंग हमे लगाना है, मेरे को और भाई को।

सौम्या- हां तुम दोनों कर दो थोड़ा सा ही है, हम लोग जा के कुछ दूसरा काम कर लेती हैं। खाना भी बनाना है न, अम्मा और बाबू भी आते होंगें।

सत्तू- हां हां भाभी मां जाओ, मैं और दीदी कर लेंगे, पर अम्मा नही दिख रही कहाँ गयी है?

अल्का- खेत में गयी हैं मेरे देवर जी.....खेत में.... अब अम्मा की फिक्र छोड़ो.... और आने वाली दुल्हनिया की फिक्र किया करो, कब तक अम्मा के पल्लू से चिपके रहोगे....हम्म्म्म

सत्तू- अब मेरी लाल भौजी ने कभी मेरी ये आदत छुड़वाई ही नही, मुझे कभी ये अहसास ही नही करवाया की अब उम्र दुल्हन का पल्लू पकड़ने की है न कि अम्मा का, तो मैं क्या करूँ.....इतनी प्यारी लाल भौजी के होने के बावजूद भी मैं अभी तक बच्चा ही हूँ तो इसमें मेरी क्या गलती....बोलो

(सत्तू ने अल्का को छेड़ते हुए सौम्या और किरन के सामने ये बात कह दी)

अल्का- अच्छा जी......अले अले मैंने अपने देवर की आदत नही छुड़वाई तो लो अब छुड़वा देती हूं......लो ये लो पकड़ो मेरा पल्लू और चलो मेरे पीछे पीछे।

सब हँसने लगते हैं, सौम्या अल्का को एक चपत मारते हुए बोलती है कि "तू बहुत आगे बढ़ जाती है बोलते बोलते, तेरा पल्लू पकड़ेगा तो उसकी दुल्हनिया का क्या होगा, बेचारी अभी तो आयी भी नही है"

अल्का- कोई बात नही दीदी जब तक देवरानी साहिबा नही आती मेरे देवर जी मेरा ही पल्लू पकड़ सकते है।

किरन- देख लेना भौजी कहीं फिर ऐसा न हो कि इसी पल्लू की आदत हो जाये।

सब फिर जोर से हंसने लगे।

सौम्या- अच्छा अब चल.....मस्ती करवा लो इससे दिन भर बस।

अल्का- क्यों दीदी काम नही किया क्या? देखो कितना सारा तो काम किया सुबह से मैंने।

सौम्या- अच्छा चल और काम कर.....थक गई क्या तू?

अल्का- थके मेरे दुश्मन..

किरन- अरे भौजी....थक जाना तो मुझे बताना मैं भैया से मालिश करवा दूंगी।

अलका का चेहरा शर्म से लाल, सौम्या भी किरन की इस बात पे लजा गयी, खुद किरन भी बोलकर थोड़ी शर्मा गयी।

अल्का- क्यों तुम करवाती हो क्या अपने भैया से मालिश

(अल्का ने जल्दी से किरन के कान में कहा- "दिन में भैया रात में सैयां....हम्म्म्म")

अब बारी किरन की शर्माने की थी वो बिल्कुल झेंप गयी और "धत्त भौजी", "रुक तुझे बताती हूँ, बहुत बौरा गयी हो तुम बिल्कुल", कहते हुए उसके पीछे भागी, अल्का ने तुरंत अपना कटोरा उठाया और मस्त इठलाते हुए, गदराये बदन को छलकाते हुए घर में भागी, सत्तू तो दौड़ने से अल्का और अपनी बहन के भारी भरकम नितंब थिरकते हुए देखता ही रह गया।

सौम्या जोर से- अरे क्या बोला इसने तेरे कान में किरन?

और इतना बोलकर सौम्या ने पलटकर सत्तू की ओर देखा जो कि उसे ही देख रहा था तो वो भी हंसने लगी और बोली- ये अल्का भी न...बस हर वक्त इसे मस्ती ही करनी होती है...

सत्तू सौम्या को एक टक देख रहा था और मुस्कुराए जा रहा था, सौम्या- ऐसे क्या देख रहा है सत्तू.....अपनी भाभी मां को आज पहली बार देखा है क्या?

ऐसा कहते हुए सौम्या सत्तू के बगल में खाट पे बैठ गयी।

सत्तू- देख रहा हूँ कि मेरी भाभी माँ कितनी सुंदर और प्यारी हैं

सौम्या- अच्छा जी.......आज बहुत प्यार आ रहा है अपनी भाभी माँ पे.....क्या बात है? कहीं ऐसा तो नही की अब दुल्हनिया के आने की खुशी में ये जताया गया आखिरी प्यार हो, वो कहते हैं न कि शादी होने के बाद सब भूल जाते हैं।

सत्तू- कैसी बातें करती हो भाभी मां, क्या बचपन से आपका दिया गया प्यार इतना कमजोर है कि मैं आपको भूल जाऊंगा, आप तो मेरी माँ समान हैं, अपने मुझे पाल पोश के बड़ा किया है आपको मैं कैसे भूल जाऊंगा, ये आपने सोचा भी कैसे? जितना प्यार आपने मुझे दिया है उतना तो अम्मा ने भी नही दिया, जब कभी शरारत करता था और अम्मा पीटने दौड़ती थी तो वो आप ही तो थी जो मुझे गोद में समेट कर छुपा लेती थी, मुझे बचा लेती थी, क्या ये गोद अब मैं भूल जाऊंगा? अपनी माँ को कोई भूलता है क्या भला?

सौम्या ये सुनकर गदगद हो गयी, उसकी आँखों में हल्की सी नमी आ गयी परंतु उसने उसे छुपाते हुए हल्का सा इधर उधर नज़र दौड़ा कर देखा और बाहें फैलाकर सत्तू को आगोश में भर लिया, सत्तू भी बच्चे की तरह अपनी भाभी माँ की बाहों में आ गया, आज कई सालों बाद सौम्या ने इस तरह सतेंद्र को बाहों में लिया था, दरअसल जब से सतेन्द्र पढ़ाई के सिलसिले में बाहर रहने लगा था तब से सौम्या का उसे इस तरह दुलार करना छूट गया था, क्योंकि वो अब बड़ा भी हो गया था और आदत भी छूट जा रही थी, पर आज इस तरह की बातों से सौम्या का वात्सल्य प्रेम छलक गया और वो खुद को रोक नही पाई, क्योंकि इस वक्त वो घर के बाहर थी इसलिए झिझक भी रही थी कि कहीं कोई देख न ले, वैसे तो कोई उल्टा नही सोचेगा, क्योंकि सब जानते हैं कि सौम्या ने ही सत्येंद्र को माँ का प्यार उसकी सगी माँ से ज्यादा दिया है पर फिर भी अब वो बड़ा हो चुका है। अगर घर में होती तो पहले की भांति ही प्यार करती, पर बाहर वो खुलकर दुलार भी नही सकती थी।

लेकिन सतेंद्र का मन बदल चुका था, मां कहने के बाद भी वो सौम्या के भरपूर गदराये बदन को पापी भावनाओं की गिरफ्त में आकर वासना से महसूस करने से रोक नही पा रहा था, लन्ड में उसके हलचल शुरू हो गयी थी, बार बार वो अपना ध्यान गंदी भावनाओं से हटा रहा था, पर क्या करे आखिर वो उस गदराये बदन से चिपका भी तो हुआ था, सौम्या के बदन की वो मदमस्त खुश्बू उसने नथुनों से होकर उसके शरीर में समाने लगी। सौम्या की 34 साइज की मोटी मोटी चूचीयाँ सतेंद्र के सोने से मानो कुचल सी उठी थीं पर सौम्या के मन में अभी तक पाप नही आया था वो तो इन सब चीजों से बेखबर थी।

सत्येन्द्र को एक तरकीब सूझी उसने अपनी भाभी मां से कहाँ- भाभी माँ, आप मुझे अब वैसा प्यार दुलार क्यूँ नही करती जैसा बचपन में करती थीं, क्या मैं अब आपका लाडला नही रहा? मैं कितना मिस करता हूँ उस प्यार को, जो आप मेरे गालों को चूम चूम के मुझे प्यार करती थी।

सौम्या ये सुनते ही बड़ी हसरत भरी निगाहों से सत्तू को देखने लगी और बोली- सच......तू बहुत मिस करता है?

सत्तू- हां भौजी बहुत।

सौम्या- मैं भी बहुत मिस करती हूं बहुत, पर तू अब बड़ा हो गया है, कोई देखेगा तो क्या सोचेगा, इसलिए नही करती अब।

सत्तू- चुपके से अकेले में तो दुलार सकती हो न भाभी माँ, क्या अब जमाने के डर से मुझे मेरी भाभी माँ का वो प्यार दुलार नही मिलेगा, और मैं बड़ा हो गया तो इसमें मेरी क्या गलती, बड़ा तो मुझे होना ही था, सब बड़े होते हैं, तो क्या आप मुझे दूर कर दोगी अपने से।

सौम्या की आंखों से हल्का सा आंसू छलक ही गए और बोली- अरे न.....ये तू कैसी बातें बोल रहा है......मैं तुझे कभी अपने से अलग नही कर सकती........मैं भी बहुत याद करती हूं रे पगले तुझे......बहुत तरसती हूं तुझे बचपन के जैसे दुलारने के लिए, पर डरती हूँ कोई क्या सोचेगा, पर अब नही.....बहुत हुआ....बहुत डर लिया, मुझे मौका मिलने दे, खूब दुलारूँगी अपने लाडले देवर को अकेले में......खूब.......अब खुश।


सत्तू- बहुत.....बहुत खुश मेरी भाभी माँ.....बहुत.....ईश्वर ऐसी भाभी सबको दें।


तभी अलका घर में से निकलकर किरन को ठेंगा दिखाती हुई भागती हुई बाहर को आयी, किरन उसे पकड़ने के लिए दौड़ी।
शानदार
 
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Update- 8

अल्का दरअसल किरन को घर में भी चकमा देकर भाग निकली थी, पर जैसे ही बाहर बरामदे तक पहुंची किरन ने पकड़ ही लिया, और अल्का के कान पकड़ के खींचें तो अल्का विनती करते हुए गिड़गिड़ाई- ओह दीदी बस.....ऊऊईई अम्मा मेरे कान

किरन- अब बोलो.....अब बोलोगी ऐसे.....भाई है वो मेरा.....कुछ भी बोलती हो "दिन में भैया रात में सैयां", भैया भी कहीं सैयां होता है"।

तभी अल्का ने किरन को जोर से गुदगुदी लगाई जिससे किरन की पकड़ छूट गयी और अल्का फिर जान छुड़ा के भागी- "हां बोलूंगी......बना के देखो सैयां मजा बहुत आएगा ननद रानी", एक बार बना लो मेरे कहने पे, मालिश कराती होगी भैया से तभी पता है....तुम्हें की थकने के बाद मालिश जरूरी है"।

किरन फिर अल्का के पीछे दौड़ी- रुक जाओ भौजी आज तुम्हारी गर्मी तो मैं निकाल के रहूंगी, छोडूंगी नही।

जैसे ही अल्का भागती हुई बाहर द्वार पे आयी तो सौम्या और सत्तू को देखकर ठिठक गयी, किरन एकदम उसके पीछे थी, वो भी रुकते रुकते अल्का से टकराकर उसके ऊपर गिरते गिरते बची।

दोनों अपनी मस्ती भूलकर सामने हो रहे लाड़ दुलार को देखकर ठिठक गयी, और हंस पड़ी।

अलका- लो मैं तो अभी पल्लू भी नही पकड़ा पाई देवर जी को ठीक से और दीदी को देखो बाजी मार ली।

किरन- अरे भौजी ऐसे मत बोल बड़ी भाभी ने सुन भी लिया तो गुस्सा हो जाएंगी, भैया को बेटा मानती हैं वो।

अल्का- वो तो मैं जानती हूं, पर आज पहली बार देख रही हूं किरन मैं, देवर भाभी के रूप में बसे माँ बेटे का ऐसा दुलार।

अल्का सौम्या को छेड़ते हुए- अरे दीदी रो क्यों रही हो तुम्हारे लाडले बेटे की बिदाई थोड़ी होगी, शादी के बाद वो दुल्हन लेके आएगा न कि जाएगा, वो कहीं नही जाने वाला तुम्हे छोड़के।

किरन और अलका हंसने लगे, सत्तू और सौम्या भी मुस्कुरा उठे।

सौम्या और सत्येंद्र उनको देखकर झेंपते हुए अलग हुए तो सत्येन्द्र ने अल्का को दिखाते हुए अपनी सौम्या भाभी की नम आंखों को पोछा और बोला- ये मेरी भाभी माँ है न जो इनका दिल बहुत नरम है, झट से आंसू छलक आते हैं।

सौम्या- पगले ये खुशी के आंसू है।

अल्का- आज बहुत प्यार आ रहा है मेरे देवर जी को अपनी बड़ी भौजी पर, कभी हमें भी कर लिया करो प्यार.....जी

किरन अल्का को चिकोटी काटते हुए बोली- तुम्हें तो दूसरा वाला प्यार मिलेगा.......नरम वाला प्यार नही सख्त डंडे वाला प्यार.......बहुत बौरा गयी हो न तुम।

सब जोर से हंस पड़े, अलका झेंप गयी और किरन को इशारे से "बाद में बताऊंगी तुन्हें" बोलकर सत्तू की तरफ देखने लगी, जो अल्का को ही देख रहा था।

अभी ये सब हंसी मजाक और ठिठोली हो ही रही थी कि सौम्या के बडे भाई दूर से आते हुए दिखाई दिए तो सब चुप हो गए, किरन बोली- भाभी आपके भैया आ गए, मैं एक और खाट बिछा देती हूं।

द्वार पर नजदीक आकर उन्होंने साईकल रोकी और सत्तू ने उठकर उनसे प्रणाम किया, सौम्या भी उठ गई और सबने उन्हें नमस्ते किया, अल्का दौड़कर गयी उनके लिए पानी लेकर आई।

सौम्या- भैया कैसे आना हुआ सब ठीक तो है, और साईकल से क्यों बाइक कहाँ है?

सौम्या के भैया- बहन सब ठीक है, बाइक खराब थी इसलिए साईकिल से ही चला आया, अम्मा ने तुम्हारे लिए कुछ सामान भेजा है, सुनार के यहां से पायल बनाने के लिए जो तुम बोल के आयी थी न वो बन गयी थी, तो वही अम्मा ने भेजा है और अपने हाँथ से देसी लड्डू और लाई भेजी है, लो ये रखो, और हाँ वो पायल देख लेना, डिज़ाइन सही बनाया है न, कुछ कमी हो तो अभी बता दे, तुरंत सुधार के दूसरा दे देगा, नही तो लगन का टाइम चल रहा है, बाद में बहुत व्यस्त हो जाएगा।

सौम्या- अच्छा भैया अभी देख के पहन के बताती हूँ, किरन अल्का ले देख कैसी है ये पायल

सौम्या ने किरन और अल्का को देखते हुए बोला।

दोनों पायल की डिज़ाइन देखने लगी।

सत्तू और सौम्या के भैय्या खाट पे बैठ गए और बातें करने लगे।

सौम्या- पर भैया मैंने तो तीन पायल बनाने को बोला था, अपनी ननद और देवरानी के लिए भी, वो कहाँ है?

भाई- बहना अभी ये खाली तुम्हारा ही बनाया है, अगर ये डिज़ाइन अच्छा लग रहा है तो ऐसे ही बाकी के भी बनाने हैं या कोई और डिज़ाइन चाहिए।

अल्का- दीदी ये डिज़ाइन तो बहुत अच्छा लग रहा है क्यों किरन यही बनवा लेते हैं।

किरन- हां भौजी ये डिज़ाइन अच्छा है.....बड़ी भाभी यही वाला मेरे लिए भी बनवाओ न।

सौम्या- भैया यही वाला बोलना सोनार को, ऐसे ही दो डिज़ाइन और चाहिए, शादी में एक जैसा ही पहनेंगे हम तीनों।

किरन और अल्का- हां भैया ऐसा ही, साइज तो दे दिया था न दीदी।

सौम्या- हाँ वो तो मैं पहले ही दे आयी थी।

तभी सौम्या के भैया उठकर खड़े हुए और बोले- अच्छा तो फिर मैं चलता हूँ बहना, यही समान देना था, अब शादी नज़दीक आ जायेगी तब ही आना होगा।

अल्का- अरे भैया ऐसे कैसे, खड़े घोड़े पे सवार होके आये और वैसे ही जल्दी से चले भी जा रहे हो, क्या बहन के यहां अच्छा नही लग रहा क्या?

सौम्या के भैया- अरे नही बहना ऐसी बात नही, दरअसल आना तो है ही शादी में तो आना ही है, अभी ये काम जरूरी था इसलिए वक्त निकाल कर चला आया, अभी रोको मत आऊँगा फिर जल्दी ही।

सबने रोकना चाहा पर सौम्या के भैय्या " जरूरी काम है मुझे बहुत" ऐसा बताकर पानी वानी पीकर वापिस चले गए।

अल्का का मन थोड़ा उदास हो गया, दरअसल अल्का का कोई भाई नही था, वो बस चार बहनें ही थी, अल्का उनमें से सबसे छोटी थी, कभी कभी वो इस बात को सोचकर उदास हो जाती थी कि काश उसका भी कोई सगा भाई होता, तो वो भी आज उसके मायके से उसके लिए ऐसे ही आता जैसे दीदी के भैया आते रहते हैं।

अल्का का मन हल्का सा उदास हो गया उसको छुपाने की उसने कोशिश की पर तब तक सब समझ गए, ये बात तो सब जानते ही थे कि अलका सिर्फ चार बहनें हैं, उनका एक चचेरा भाई है पर चाचा लोगों से हमेशा दोनों परिवार का छत्तीस का आंकड़ा रहता है तनाव इतना है कि बोलचाल बहुत पहले से ही बंद है, आना जाना तो बहुत दूर की बात है।

सब भांप गए कि कौन सी बात अल्का को थोड़ा सा उदास कर गयी है, पर हंसी उसके चेहरे पर बरकरार थी, फिर भी अपनों ने जान ही लिया था।

अल्का- अच्छा दीदी चलो मैं अब खाना बनाती हूँ, पिताजी भी आने वाले होंगे, किरन दीदी तुम मेरे प्यारे देवर जी के साथ मिलकर पीला रंग दीवार पे लगा दो, मैं जाके खाना बना लेती हूं।

अल्का ऐसा कहकर घर में चली गयी, सत्तू ने किरन को बोला- दीदी तुम रंग लगाना शुरू करो मैं आता हूँ।

सत्तू ने बड़ी भाभी का हाँथ हल्का सा दबाकर इशारा किया कि वो छोटकी भाभी के मन में आई उदासी को झट से दूर करके आता है, इस दुनियां में मेरी सबसे अच्छी हरदम चहकने वाली भाभी के मन में उदासी आये ये उसे बर्दाश्त नही, अलका ने भी मुस्कुराकर सहमति दी, और किरन बोली- भैया जा संभाल ले भौजी को मैं शुरू करती हूं तब तक, उदास होके गयी है घर में, पर चहरे पर झलकने नही दिया पगली ने।

सौम्या- झलकने तो तू भी नही देती कभी।

सत्तू- किस बात के लिए भाभी माँ।

किरन बीच में टोकते हुए- कुछ नही भैया, भाभी भी न बस, भाभी बोलना नही, आपको कसम है।

सौम्या अब चुप हो गयी- अच्छा बाबा नही बोलती।

सत्तू- क्या दीदी, बताओ न, बताने लायक बात नही है क्या?

किरन- हां बस यही समझ ले........अब जा न तू..... जा जल्दी छोटकी भौजी के होंठों पे मुस्कुराहट ला के जल्दी आना, तेरे से ही खुश होती हैं वो।

सत्तू घर में जाने लगा पर उसके मन में अब ये एक बात और खटकने लगी कि किरन दीदी का क्या राज है, क्या ऐसा है जो वो चेहरे पर झलकने नही देती पर मन में है, भाभी माँ तो यही कह रही थी, पर दीदी ने उन्हें कसम देकर रोक दिया खैर पता तो मैं लगा ही लूंगा।

सत्येंद्र घर में गया- भौजी ओ मेरी छोटकी भौजी?

अल्का मिट्टी की मटकी में रखे चावल छोटी सी कटोरी से एक थाली में बीनने के लिए निकाल रही थी सत्तू की आवाज सुनकर झट से पलटी और हंसते हुए बोली- कर चुके तुम ब्याह मेरे देवर जी, भौजी के बिना रह पाते नही हो जरा भी, और चले हो शादी करने, इतने दिन शहर में कैसे रहते हो फिर........हम्म्म्म।

सत्तू ने कुछ नही बोला अपना हाँथ बढ़ा के प्यारी सी भाभी का प्यारा सा चेहरा दोनों हांथों में ले लिया और एक टक कुछ पल आंखों में देखता रहा, अल्का मुस्कुराती रही वो भी आंखों में थोड़ा हिचकिचा कर देखने लगी, सत्तू बोला- ये मेरी छोटकी भौजी न बहुत शातिर है, देखो कितनी देर से आंखों में झांक रहा हूँ, उस दर्द को ढूंढने की कोशिश कर रहा हूँ, पर इतनी माहिर है कि उस दर्द को इतनी गहराई में छुपा रखा है कि आसानी से वो किसी को नज़र भी न आये।

इतना सुनते ही अलका की आंखों में उसके दिल में छुपा दर्द आंसू बनकर ऐसे बाहर आया जैसे पानी की गहराई में कोई तैरने वाली चीज जबरदस्ती डुबोई गयी हो और छूटते ही वो तैरकर ऊपर आ जाये, सुबक पड़ी वो।

सत्तू ने झट से गले लगा लिया- भौजी.......ओ मेरी भौजी......न रोना नही......मैं जानता हूँ तुम्हारी प्यारी आंखों में क्यों आ रहे है आंसू।

अल्का रोते हुए- काश की मेरा कोई भाई होता?

सत्तू ने तुरंत अल्का का चेहरा फिर आगे किया और जल्दी से उसके आंसू पोछे- आज के बाद बिल्कुल रोना नही, मुझे बिल्कुल बर्दाश्त नही इन आँखों में आंसू।

अल्का- नही रोउंगी, पर इस खालीपन को तो कोई नही भर सकता न, मैं खुद अपने आपको समझाती हूँ पर कभी कभी मन उदास हो ही जाता है।

सत्तू- आज मैं अपनी इस प्यारी भाभी की उदासी हमेशा हमेशा के लिए जड़ से खत्म ही कर देता हूँ, तुमने ये कैसे सोचा कि तुम्हारा कोई भाई नही है, मैं ही हूँ तुम्हारा भाई, मैं बनूंगा तुम्हारा भाई, अपनी भौजी को मैं किसी कीमत पर उदास नही देख सकता, तुम्हे ये कमी हमेशा खलती है न, अब नही खलने दूंगा मैं।

अल्का आश्चर्य से सत्तू की आंखों में देखने लगी- ये क्या बोल रहे हो तुम, तुम मेरे देवर हो, ऐसा कैसे हो सकता है, मैं भौजी हूँ तुम्हारी, मैं अपने देवर को नही खोना चाहती, ऐसा कैसे हो सकता है की तुम मेरे भाई बनोगे?

सत्तू- मेरी प्यारी भौजी, मैंने कब कहा कि तुम अपने देवर को खो दोगी, ये मेरा और तुम्हारा सीक्रेट रहेगा, देवर तो मैं अपनी भौजी का हूँ ही, पर उस खालीपन को, उस जगह पर जहां थोड़ा सा अंधेरा है जिसकी वजह से मेरी चहेती भौजी कभी कभी उदास हो जाती है, उसको जड़ से खत्म करना चाहता हूं, मैं नही चाहता कि मेरी भौजी जीवन में अब कभी इस बात को लेकर उदास हो कि उसका कोई भाई नही है, इसलिए मैं अपनी ही सगी भौजी का भैया भी बनने के लिए तैयार हूं, आज से मैं ही तुम्हारा भाई भी हूँ और देवर भी।

अल्का एक टक सत्येंद्र की आंखों में देखती रह गयी, कुछ देर के लिए मानो शून्य हो गयी, फिर बोली- तूने तो मुझे एक ही बार में सबकुछ दे दिया मेरे सत्तू.......ओह मेरे देवर जी, और कस के उससे लिपट गयी, कुछ देर उसने सत्तू को महसूस किया, सत्तू भी अल्का से लिपट गया, उन दोनों के बदन में एक दूसरे के बदन के स्पर्श से आज जो मिली जुली अजीब सी सनसनाहट पैदा हो रही थी वो दोनों को ही कंफ्यूज कर रही थी, मन डोल भी रहा था और स्वयं को बहकने से संभाल भी रहा था, जीवन में आज पहली बार भावनाओं के आवेश में बहकर दोनों एक दूसरे से लिपट गए थे।

अल्का ने धीरे से सत्तू के कान में कहा- भैया

सत्तू गनगना सा गया फिर बोला- बहना

अल्का- सिर्फ बहना

सत्तू- ओ मेरी प्यारी बहना..... मेरी दीदी

अल्का- और

सत्तू- और....भौजी

अल्का- अच्छा मैं तुम्हारी बड़ी बहन हूँ या छोटी।

सत्तू- तुम कैसा चाहती हो भौजी?

अल्का- मैं तो छोटी बहन बनना चाहती हूं, तुम मेरे बड़े भैया, मैं तुम्हारी छोटी बहन।

सत्तू- ठीक है, आज से हम छुप छुपकर ये रिश्ता निभाएंगे।

अल्का- बिल्कुल, पर राखी के दिन?

सत्तू- तुम छुपकर मुझे राखी बांध देना न।

अल्का मुस्कुरा उठी, चेहरा उसका खिल गया कुछ देर सोचकर बोली- ढेर सारे गिफ्ट लूंगी मैं अपने भैया से।

सत्तू- तो हम कौनसा पीछे हटने वाले हैं, ले लेना।

अल्का चहक उठी, उसकी खुशी का ठिकाना नही था, एक बार फिर उसकी आंखें नम हो गयी, बोली- एक ही बार में तूने कितनी खुशियां दे दी मुझे मेरे सत्तू, एक मैं हूँ जो तुम्हे कुछ न दे पाई।

सत्तू- अब दुबारा ऐसा मत बोलना, नही तो कभी बात नही करूँगा फिर।

अल्का- फिर तो मर ही जाएगी तेरी भौजी तेरे बिना और ये नई नवेली बहन।

सत्तू- फिर वही उल्टी बात।

अल्का- अच्छा बाबा अब नही बोलूंगी उल्टी बात।

कुछ देर एक दूसरे की आंखों में देखने के बाद अल्का मुस्कुराकर बोली- अच्छा मेरे भैया जी अब छोड़ो भी बहना को, वो जरा खाना बना ले, नही तो कोई देख लेगा तो गज़ब हो जाएगा।

सत्तू ने अल्का को बाहों से आजाद कर दिया, पर जल्दी से गालों पे आज पहली बार एक चुम्बन लिया तो अलका सनसना गयी, उसे ये बिल्कुल अंदाजा नही था कि सत्तू ऐसा करेगा।

अल्का चौंकते हुए- ये क्या.....बहन को कोई ऐसे चूमता है।

सत्तू- ये चुम्बन बहन के लिए नही भौजी के लिए था, वही भौजी जो कुछ देर पहले मुझे आंखों से प्यार बरसा रही थी दीवार सजाते वक्त।

अल्का का चेहरा शर्म से लाल हो गया, धीरे से बोली- अच्छा जाओ अब.....भैया,..... मेरे देवर जी कोई देख लेगा।

सत्तू अल्का को देखता हुआ जाने लगता है अल्का शर्माते हुए उसे जाता हुआ देखती रह जाती है।
जबरदस्त भाई
 
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andyking302

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अल्का सत्तू को जाता हुआ देखती रहती है पर जैसे ही सत्येंद्र द्वार के बाहर होने को होता है उसके मन में एक इच्छा होती है और वो तुरंत आवाज देकर सत्येंद्र को रोकती है- देवर जी सुनो।

सत्येंद्र- हां भौजी

अल्का- मेरा एक काम करोगे?

सत्येन्द्र- बोलो न भौजी आपके लिए तो जान भी हाज़िर है।

सत्येंद्र वहीं रुक जाता है और कहते हुए फिर अलका के नज़दीक आने लगता है।

दोनों एकदम करीब आ जाते है अल्का सत्येन्द्र की आंखों में देखते हुए बोलती है- देवर जी मुझे आज मेरे भैया मिल गए हैं, आज मैं बहुत खुश हूं.....बहुत

सत्येंद्र- अच्छा जी......मेरी भौजी को उनके भैया मिल गए.......ये तो बहुत खुशी की बात है........तब तो आपको इस खुशी में सबका मुँह मीठा कराना चाहिए, कम से कम अपने देवर का तो जरूर।

अल्का- हाँ तो कराऊँगी न, पर पहले एक काम करना होगा आपको अपनी इस भौजी के लिए।

सत्येंद्र- क्या भौजी......बोलो

अल्का- अपनी इस भौजी के लिए एक राखी बाजार से लानी होगी, मुझे अपने भैया को बांधनी है।

अल्का सत्येंद्र की आंखों में देखते हुए मुस्कुराकर कहने लगी, सत्येंद्र भी थोड़ा हैरान हो गया कि इतनी जल्दी राखी भी।

सत्येंद्र- भौजी मैं जानता हूँ कि आपके भैया भी आपसे राखी बंधवाने के लिए तरस रहे हैं।

अल्का- हां.... सच

सत्येंद्र- बिल्कुल.......पर

अल्का- अब पर क्या?

सत्येंद्र- पर इस समय राखी बाजार में कहां मिलेगी, वो तो त्योहार पर मिलती है न।

अल्का- मिठाई तो मिलेगी न देवर जी।

सत्येंद्र- हां भौजी वो तो मिलेगी ही।

अल्का- तो तुम जाके चुपके से मिठाई ला देना मुझे आज ही राखी का त्यौहार मनाना है अपने भैया के साथ, राखी का पवित्र धागा मैं स्वयं ही घर पर बना लूँगी, आज मेरे लिए बहुत खुशी का दिन है, मैं इसे यादगार बनाउंगी अपने भैया को राखी बांधकर। भले ही आज राखी का त्योहार हो न हो, ये तो भाई बहन का प्रेम है, ये प्रेम और रक्षा का धागा जब बांधो तभी त्योहार है समझो।

अल्का सत्येंद्र की आंखों में देखते हुए मुस्कुरा मुस्कुरा कर कह रही थी और सत्येंद्र भी अपनी भाभी के इस नए तरीके से अचंभित भी था और खुश भी।

सत्येन्द्र- भौजी चाहते तो आपके भैया भी यही है पर घर में सब है, ये सब कैसे हो पायेगा, कोई देख लेगा तो।

अल्का- रात को जब सब सो जाएंगे तब छत पर अपने भैया को राखी बाँधूंगी, तुम भैया को बोल देना की उनकी ये बहन रात को 2 बजे उसका छत पर बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करेगी....बोल दोगे न

कहकर फिर अल्का मुस्कुरा पड़ी।

सत्तू मुस्कुराहट पर फिदा हो गया, और जैसे ही गालों को चूमने के लिए झुका, अल्का ने उसके होंठों पर अपनी गोरी गोरी उंगली रखकर रोकते हुए कहा- इस तरह अपनी बहन को नही चूमते....गंदी बात......

सत्येंद्र अल्का की आंखों में मुस्कुराकर गहराई से झांकने लगा।

अल्का- बोलो.....बोल दोगे न मेरे भैया को....

सत्येंद्र- बोलना क्या भौजी मैं तो उन्हे पकड़ कर आपके पास ले आऊँगा, जाएंगे कहाँ, (अल्का हंसने लगी) और वैसे भी वो तो खुद तड़प रहे हैं आपसे राखी बंधवाने के लिए, वो जरूर आएंगे रात के 2 बजे आपके पास छत पर अपनी बहन से राखी बंधवाने।

अल्का- फिर मौका लगते ही बाजार से मिठाई ला देना मेरे देवर जी।

सत्येन्द्र- ठीक है मेरी छोटकी भौजी.....जरूर।

कुछ देर दोनों खड़े खड़े दूसरे की आंखों में देखते रहे फिर सत्येंद्र बोला- अब कभी इन प्यारी और नशीली आँखों में आंसू मत आने देना।

अल्का- नशीली

सत्येंद्र- हां नशीली......बहुत नशीली

अल्का- बहन की आँखे भी कहीं नशीली होती हैं।

सत्येंद्र- अब जो है उसे नज़रंदाज़ भी तो नही कर सकते न, नही तो उस खूबसूरती की अवहेलना नही होगी, किसी की बहन की हो चाहे न हो पर मेरी बहन की तो है न, अब इन आँखों में देख रहा हूँ तो नशा तो चढ़ ही रहा है न।

अल्का ने सत्येंद्र के गाल हल्के से खिंचे और बोली- नशा चढ़ रहा है, बस अब बस भी करो.....अपनी बहन से ऐसी बात बार बार नही, दीवारों के भी कान होते हैं, कोई सुन लेगा तो।

सत्येंद्र- अच्छा....पर कर तो सकते हैं न ऐसी नशीली बात अपनी बहन से।

अल्का थोड़ा सोचने के बाद- हम्ममम्म....संभल संभाल के कभी कभी....कोई सुन न ले बस।

सत्येंद्र- इसका मतलब ग्रीन सिग्नल है।

अल्का- किस बात का?

सत्येंद्र- अपनी बहना को छेड़ने का।

अल्का ने कस के सत्येंद्र की कमर में चिकोटी काटी और बोली- धत्त....गन्दू भैया हो तुम...अब जाओ..... और जो बोला है उसका ध्यान रखना।

सत्येंद्र सब्र रखकर जाने लगता है अल्का धीरे से बोलती है- रात को ठीक 2 बजे छत पर।

सत्येंद्र- जो आज्ञा मेरी बहना।

सत्येन्द्र बाहर चला जाता है और अल्का मुड़कर खाना बनाने के लिए जाती है, सत्येंद्र बाहर आ कर देखता है कि किरन उसकी बहन दीवार पर पीला रंग जल्दी जल्दी लगाए जा रही थी, और सौम्या भाभी बाग में गाय को बांधकर उसे नहला रही थी।

सत्येंद्र को देखते ही किरन मुस्कुरा उठी और बोली- बहुत देर लगा दी भाई, भाभी खुश नही हो रही थी क्या जल्दी?

(कहकर हँसने लगी।)

सत्येंद्र- हां बस यही समझ ले, बहुत मेहनत करनी पड़ी तब जाकर चेहरे पर से उदासी छटी उनके।

किरन ने मुस्कुराते हुए सत्येंद्र की तरफ देखा और जैसे ही सत्येंद्र की नज़रे किरन से टकराई वो और ज्यादा मुस्कुराते हुए दीवार की तरफ देखने लगी।

सत्येंद्र- दीदी, लाओ मैं भी लगवा देता हूँ जल्दी हो जाएगा।

किरन- हाँ वो जो रद्दी कपड़ा पड़ा है न उसी में से किनारे से थोड़ा सा चीर ले, और कटोरे में पीला रंग लेके, गोल गोल बस इन दोनों छपे हांथों के बीच में बिंदु बनाना है।

सत्येंद्र- बीच में

किरन- हां बीच मे

सत्येंद्र ने फिर जोर देकर कहा- बीच में

किरन को जब बात का अर्थ समझ आया तो वो शर्मा गयी और कुछ देर चुपचाप मंद मंद मुस्कुराते हुए अपना काम करती रही, सत्येंद्र कनखियों से उसे देखता रहा, ये बात किरन भांप रही थी कि उसका भाई कनखियों से उसे देख रहा है जिससे वो और लजा जा रही थी, भले ही वो कुछ देर पहले अल्का के साथ सब के सामने थोड़ी अश्लील मजाक कर रही थी पर उसने ये कभी नही सोचा था कि उसका भाई किसी एक शब्द को पॉइंट करके जोर देकर उसे ऐसा अहसाह कराएगा, उसके लिए ये अचरज वाली बात थी, आज सत्येंद्र उससे ऐसी हिम्मत क्यों कर रहा है जबकि पहले कभी उसने ऐसा नही किया, उसे कुछ समझ में नही आया कि वो कैसी प्रतिक्रिया करे, इसलिए वो बस लजाते हुए दीवार की तरफ ही देखने लगी।

सत्येंद्र- दीदी

किरन- हम्ममम्म

सत्येंद्र- शर्मा गयी

किरन- अब ऐसी बातें करेगा तो शर्म नही लगेगी।

सत्येंद्र- अच्छा, आपने भाभी मां को कसम क्यों दी।

किरन फिर असहज हो गयी, कुछ देर बाद बोली- क्योंकि वो बात तुझे जानने लायक नही है।

सत्येन्द्र- पर क्यों दीदी? क्या वो बात इस लायक नही है या मैं उस बात के लायक नही हूँ, मुझे तो ऐसा लगता है कि मैं ही उस बात के लायक नही हूँ।

किरन- ये क्या बोले जा रहा है तू सत्येंद्र, तू मेरा भाई है, भला तू उस बात के लायक क्यों नही होगा, बस ये समझ ले कि वो बात ही तेरे लायक नही है, बहुत छोटी है।

सत्येंद्र- तो जब इतनी अहमियत है मेरी अपनी बहन की नज़र में, तो क्या मैं इस काबिल भी नही की अपनी बहन का दुख हर सकूं, क्या उस राखी के धागे की कोई अहमियत नही जो तुम हर साल मुझे बंधती हो, कहते हैं कि बहन भाई का रिश्ता मित्र की तरह होता है, पर मुझे इस बात का हमेशा दुख रहेगा कि मेरी बहन मुझे इस लायक नही समझती की मैं उसका दुख उससे दूर नही कर सकता।

किरन- भाई ये तू कैसी बातें कर रहा है, मैंने तो कभी सपने में भी ऐसा नही सोचा, और न कभी सोच सकती हूं, मैं तो बस इसलिए तुझे नही बताना चाहती कि कभी कभी कुछ बातें ऐसी होती है जिसे हम जानते हैं कि उसका हल नही है, बस इसलिए नही सांझा करना चाहती, पर अगर तू ऐसी बाते करेगा की मैं ऐसा सोचती हूँ कि मेरा भाई इस काबिल नही है, या मैं तुझे बाकी दोनों भाइयों से कम आंकती हूँ, तो ये मेरे लिए बहुत दुख की बात है, बल्कि मैं तो तेरे ज्यादा करीब हूँ दोनों भैया की अपेक्छा, तू मेरा भाई बाद में दोस्त पहले है, मैं तो ऐसा कभी सोचती भी नही।

सत्येंद्र- तो मेरी बहना, फिर क्यों तुमने मुझे उस बात से पराया कर रखा है, अगर नही बताओगी तो जीवनभर अब मेरे दिल में ये हलचल बनी रहेगी, की कोई एक वजह तो है जिसकी वजह से मेरी बहन अंदर से कभी कभी उदास हो जाती है।

किरन- ठीक है मैं तुझसे लिखकर मेरे दिल की बात बता दूंगी, कहकर नही बता पाऊंगी मुझे शर्म आती है, कल सुबह अपने तकिए के नीचे देख लेना मेरे मन का दुख एक कागज पर लिखा हुआ मिलेगा।

ऐसा कहकर किरन सत्येंद्र की ओर देखने लगती है, सत्येंद्र भी उसे देखने लगता है, दोनों काम भी करे जा रहे थे और बातें भी।

सतेंद्र- ये हुई न एक अच्छी बहना की बात, मेरे होते हुए भला मेरी बहन क्यों उदास रहेगी।

किरन ने हल्का मुस्कुराकर सत्येंद्र की तरफ देखा और सत्येंद्र सूर्य की तरफ देखकर बोला- हे सूर्य देव जल्दी से अस्त हो जाओ, ताकि जल्दी जल्दी सवेरा हो।

किरन हंस पड़ी और बोली- सब्र नाम की चीज़ तो तेरे अंदर बचपन से नही.....पगलू, चल जल्दी जल्दी खत्म कर इसको, देख सौम्या भाभी ने गायों को नहला भी दिया और दूसरी जगह बांध भी दिया, लो बाबू भी आ गए शादी के कार्ड लेकर।

सत्येंद्र के बाबू आते हुए दिखाई दिए, उन्होंने द्वार पर आकर साईकल रोकी और बड़ा सा थैला साईकल से उतार कर खाट पर रखा और खाट पर बैठते हुए बोले- किरन...... बिटिया पानी ला.....आज गर्मी कितनी है बाप रे बाप, सर पर अंगौछा नही बांधा होता तो साला खोपड़ी ही जल जाती आज तो मेरी।

सत्येंद्र दीवार पर छापे मारता रहा और किरन ने हाँथ धोया फिर "हाँ बाबू लायी" बोलते हुए घर में पानी लेने चली गयी।
शानदार bhai
 
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andyking302

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किरन घर में जाते ही आवाज लगाते हुए बोली-भौजी......कहाँ हो?......बाबू जी आ गए हैं......पानी दे जरा उनको पीने के लिए।

अल्का- हां दीदी......अभी आयी.....ये आंटा गूंध रही हूं, जरा ले लोगी, मेरे हांथ में आंटा लगा है।

किरन- अच्छा रहने दे मैं खुद ही ले लूँगी....... काला वाला देसी गुड़ कहाँ रखा है।

अल्का- वहीं कोठरी में बड़की संदूक के बगल में मटकी में रखा है।

किरन ने जल्दी से भउकी उठायी और उसमे गुड़ निकाल कर एक लोटे में पानी लिया और कोठरी से निकल कर रसोई के सामने से जब जाने लगी, तो अचानक ही सामने अल्का पर नज़र पड़ी जो उकडू बैठ कर हुमच हुमच कर आटे को अच्छे से गूँथने में लगी थी, पल्लू सरक कर नीचे गिरा हुआ था और ब्लॉउज में गोरी गोरी दोनों मखमली चूचीयाँ ऐसे थिरक रही थी की उनको देखकर किरन की भी सिसकी निकल गयी, दोनों गुदाज दूध के कलश ऐसे उभरकर बाहर आने को तैयार थे की मानो ब्लॉउज के अंदर उनका दम घुट रहा हो, गोरी गोरी दोनों चुचियों के बीच की घाटी ने तो किरन का मन मोह लिया।

वो तुरंत रुककर बोली- हाय भौजी काश मैं भैया होती।

अल्का का ध्यान अब किरन पर गया- क्यों?

जल्दी से किरन ने जीभ को बड़े ही कामुक ढंग से अपने होंठों पर फिराते हुए आंखों से छलकती चूची की ओर इशारा किया, तो अल्का ने सर झुका कर अपनी चूचीयों को देखा और लजाते हुए मुस्कुराकर बोली- तेरे खरबूजे क्या कम हैं क्या, हाय देखो कैसे दोनों खरबूजे की दोनों मूंगफली ब्लॉउज के ऊपर से ही झलक रही है, गुड़ तो तू ले ही जा रही है, बस उसमे ये मूंगफली मिला ले और फिर बन जायेगा ग़ज़्ज़क और बाबू को खिला देना, मस्त न हो जायें बाबू तो कहना। हाय तुम्हारे खरबूजे मेरी ननद रानी।

अल्का तो थी ही बदमाश, ईंट का जवाब पत्थर से दे दिया उसने, किरन शर्म से दोहरी हो गयी - तुम आंटा गूंथ लो फिर बताती हूँ तुम्हे, मूंगफली की ग़ज़्ज़क बहुत बनानी आती है न तुम्हें, तुम्हारी मूंगफली नही दबोची न तो मेरा नाम नही।

दोनों हंसने लगी, अल्का बोली- अच्छा जा पहले खरबूजा खिला के आओ फिर मूंगफली दबोचना।

किरन शर्म की लाली चेहरे पर लिए बाहर आई और तब तक सत्तू ने काम खत्म कर लिया था, तब तक सौम्या भी वहां आ गयी थी और सत्तू की अम्मा भी, सत्तू के बाबू ने पानी पिया और सब शादी का कार्ड देखने लगे, इधर उधर की बातें होने लगी। किरन बार बार कनखियों से सत्तू को देखती, हल्का मुस्कुराती, सत्तू कभी अपनी भाभी मां को देखता कभी बहन किरन और मां को, शादी के कार्ड को कल से ही बांटने का निर्णय लिया गया, सत्तू के बाबू ने कल दो चार रिश्तेदारियों में जाने की बात कही, सत्तू बोला- बाबू जी मैं चला जाऊंगा। तो उन्होंने उसको एक दो दिन बाद से बाटने के लिए बोला, उनका कहना था कि अभी एक दो दिन तुम घर के काम देख लो, फिर कार्ड बाटने में मदद करना, बातचीत खत्म हुई और सबने खाना खाया, शाम हो गयी।

सत्तू शाम को बहाना करके बाजार गया, उसने रसगुल्ले लिये और एक नाक की नथनी खरीदी, घर आके समान छुपा के रख दिया। रात का इंतज़ार होने लगा, इधर किरन ने अपने मन का दुख एक कागज पर लिखा और उसको अपने ब्लॉउज में खोंस लिया, अल्का ने रात को सबका खाना परोसने से पहले अपने कमरे में रेशम के सुंदर धागों से एक प्यारी सी राखी बनाई और थाली का सारा सामान तैयार कर लिया, सबने फिर खाना खाया और अपनी अपनी खाट पर सोने की तैयारी होने लगी, सौम्या और किरन अपने अपने कमरे में सोती थी, किरन वैसे तो कभी अल्का के साथ या कभी सौम्या के साथ या फिर कभी बाहर अम्मा के बगल में खाट डाल के सो जाया करती थी, पर आज वो अम्मा के साथ बाहर ही सो रही थी। अल्का ने सोने से पहले नहाया और अपने कमरे में आके लेट गयी, नींद न तो सत्तू की आंखों में थी और न ही अल्का के, किरन का भी मन हल्का हल्का मचल रहा था, कुछ देर न जाने क्या सोचते सोचते वो नींद की आगोश में चली गयी।

जैसे ही 2 बजने में कुछ वक्त बाकी रह गया सत्तू धीरे से खाट से उठा और दबे पांव घर में चला गया, अल्का ने दरवाजा पहले ही खुला रख छोड़ा था, रात के अंधेरे में बहुत हल्का हल्का दिख रहा था, किसी तरह अपने कमरे तक पंहुचा, सत्तू ने अपने कमरे में जाकर कुर्ता पहना, अब तक आंखें अंधेरे में अभ्यस्थ हो गयी थीं, उसने रसगुल्ले का डब्बा लिया और नथनी की डिब्बी जेब में डालकर धीरे से दबे पांव छत पर गया, रात के अंधेरे में वो छत पर इधर उधर देखने लगा, अंधेरा होने के बावजूद भी हल्का हल्का दिखाई दे रहा था, आंखें अब तक तो इतनी अभ्यस्त हो ही गयी थी, छत पर उत्तर की तरफ कोने में छत की बाउंड्री की दीवार से सटकर अल्का खड़ी थी, सत्तू नजदीक गया, दोनों एक दूसरे को देखकर मानो चहक उठे, सत्तू से रहा नही गया उसने अल्का को बाहों में भर ही लिया, अल्का धीरे से भैया कहते हुए सत्येन्द्र की बाहों में ऐसे समा गई मानो बरसों की प्यासी हो, रेशमी साड़ी में उसका बदन और भी उत्तेजना बढ़ा रहा था, अल्का बार बार सत्तू को "भैया....मेरे प्यारे भैया....कहाँ थे अब तक......क्यों तड़पाया अपनी बहन को इतना.....अब कभी मुझे अकेला मत छोड़ना......आज मैं कितनी खुश हूं अपने भैया को पाकर" बोले जा रही थी।

सत्येंद्र के मुंह से भी "ओह मेरी बहन.....आज मुझे एक और बहन मिल गयी, तू कितनी प्यारी है.....अपनी ही भौजी को बहन के रूप में पाकर बहुत प्यारा और गुदगुदी जैसा अहसास हो रहा है।"

ये सुनकर अल्का मुस्कुरा उठी।

ऐसा कहकर सत्येंद्र ने अल्का को और कस के बाहों में भींच से लिया, उसके हाँथ हल्का सा अल्का की पीठ सहलाने लगे, जिसका अहसाह अल्का को बखूबी हुआ और लजाते हुए उसने "आह भैया" कहकर अपनी आँखें बंद कर ली, और जब अल्का के मुंह से आह भैया निकला तो सत्येन्द्र मन ही मन झूम उठा, उसने एक दो बार और कस कस के अल्का की पीठ को सहलाया तो अल्का अब हल्का सा सिसक भी उठी पर जल्दी से अपने को संभालते हुए बोली- ये सब बाद में पहले राखी।

सत्येन्द्र- क्या सब बाद में मेरी बहना।

अल्का हल्का सा शर्माते हुए- यही......बहन को बाहों में लेना।

सत्येन्द्र- अभी मन नही भरा।

अल्का- मैं चाहती भी नही की मेरे भैया का मेरे से मन भरे (अल्का ने ये बात सत्तू के कान में धीरे से कही)...पर पहले पूरी तरह बहन तो बना लो।

सत्येन्द्र- बहन तो तुम मेरी हो ही.....बन गयी न बहन।

अल्का- पवित्र राखी का धागा बंधने के बाद......जितना जी करे उतना बाहों में भर लेना.....चलो बैठो...... मेरे भैया राजा।


अल्का ने बगल में रखी चटाई अंधेरे में बिछाई और दोनों आमने सामने बैठ गए, अल्का ने राखी की थाली बीच में रखी।

अल्का- किसी को आहट तो नही लगी तुम्हारे आने की।

सत्तू- नही......सब सो चुके हैं।

अल्का हल्का सा हंस दी फिर बोली- इसलिए ही तो रात के 2 बजे का वक्त रखा था।

ऐसा कहते हुए अल्का ने जैसे ही थाली में रखी माचिस उठा के जलाई, एक छोटी सी रोशनी ने दोनों के चहरे को जगमगा दिया, सत्तू अपनी अल्का को देखता ही रह गया, अल्का ने पल्लू सर पर रख लिया था, गोरा गोरा चांद सा मुखड़ा इतना खूबसूरत था कि कुछ पल वो अल्का को देखता ही रह गया, आज की अल्का उसने पहले कभी नही देखी थी, अल्का ने भी सत्तू को एक पल के लिए निहारा फिर मुस्कुराकर थाली में रखे दिए को जला दिया, दिए कि हल्की रोशनी फैल गयी, सत्तू तो एक टक अल्का को देखे ही जा रहा था और अल्का मुस्कुरा मुस्कुरा कर थाली सजा रही थी।

जैसे ही अल्का ने अपनी हाँथ की बनाई हुई रेशम के धागे की राखी थाली में रखी सत्तू ने उसे उठाकर देखा- कितनी प्यारी राखी बनाई है मेरी बहना ने, सच ये राखी बहुत अनमोल है, कितनी खूबसूरत है ये बिल्कुल मेरी बहन जितनी।

अल्का- तुम्हें पसंद आई भैया.....जल्दी जल्दी में बनाई मैंने, ज्यादा वक्त मिल नही पाया न।

सत्तू- इतनी खूबसूरत राखी मैंने आजतक नही देखी, कितना पवित्र है ये धागा.....पवित्र धागा।

अल्का- जैसे मेरा और आपका प्यार।

दोनों एक दूसरे को मुस्कुराते हुए देखने लगे।

अल्का- मिठाई लाये हो न भैया।

अब जाके सत्तू का सम्मोहन टूटा, अल्का हंस पड़ी- आज पहली बार देख रहे हो क्या?

सत्तू- सच आज जो देख रहा हूँ......पहली बार ही देख रहा हूँ.......कितनी खूबसूरत हो तुम.....बहुत.....बहुत खूबसूरत हो।

अल्का हंस पड़ी- बस बस, दुबारा बेसुध मत हो जाना मेरे भैया।

सत्तू ने रसगुल्ले का डिब्बा अल्का को थामते हुए कहा- बिल्कुल ऐसी ही मीठी हो तुम।

अल्का हंस पड़ी और डिब्बा खोला- सफेद बडे बडे रसगुल्ले देखकर वो सत्तू को देखने लगी और मुस्कुरा उठी, मेरे भैया को पता है मेरी पसंद।

सत्तू- क्यों नही पता होगी, बहन की पसंद भाई को तो पता होती ही है।

अल्का ने डब्बा बगल में रखा और सत्तू ने एक रुमाल निकाल कर अपने सर पर रख लिया, अलका ने थाली उठाकर सत्येंद्र की आरती की, सत्तू मंत्रमुग्ध सा अल्का को देख रहा था, आरती करने के बाद अल्का ने थाली में रखी रोली से सत्तू के माथे पर टीका किया, और अब उसने राखी उठायी और सत्तू ने सीधा हाँथ आगे कर दिया, अल्का "भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना" वाला गाना हल्का हल्का गुनगुनाते हुए राखी का पवित्र धागा उसकी कलाई पर बांधने लगी, दोनों के बदन में अलग ही रोमांच भरता जा रहा था सत्तू बस एक टक अल्का को देखे जा रहा था।

राखी बांधने के बाद अल्का ने कलाई में बंधी राखी को बड़े प्यार से चूमा और जैसे ही सर उठा के सत्तू को देखा वो उसे एक टक निहार रहा था, अलका ने धीरे से कहा- लो बन गयी मैं अब आपकी बहन.....ये कितना सुखद है.....इस राखी की लाज रखना मेरे भैया।

सत्तू ने बीच से थाली बगल में सरकाई और अल्का को खींच बाहों में भर लिया, अल्का भी झट से सत्तू की बाहों में जा समाई, सत्तू- "मेरी बहन"

अल्का थोड़ा भावुक होकर- "मेरे भैया आज से मैं और आप एक हैं।"

काफी देर तक दोनों चुपचाप एक दूसरे की बाहों में समाय एक दूसरे की रूह तक उतरते रहे, फिर अल्का धीरे से बोली- दिया जल रहा है, रोशनी में कोई देख न ले, पहले अंधेरा कर लो भैया, दिए को थोड़ा ओट में सरका दो।

सत्तू ने दिए को एक हाँथ से दीवार के किनारे रखकर उसके चारों तरफ बगल में पड़ी ईंट रखकर कुछ ऐसा ढंक दिया कि रोशनी बहुत कम हो गयी।

जैसे ही अल्का को दुबारा बाहों में कसना चाहा अल्का ने बगल में पड़े रसगुल्ले के डब्बे को उठाकर एक रसगुल्ला उसमें से निकालकर बोला- रसगुल्ला तो मैंने खिलाया ही नही अपने भैया को।

सत्तू- इस पवित्र बंधन की रसीली मिठाई तो हम एक साथ खाएंगे।

अल्का- एक साथ......मतलब

सत्तू ने अल्का के हाँथ से वो रसगुल्ला लिया और बोला तुम मुँह खोलो।

अल्का ने आ कर दिया।

सत्तू ने वो बड़ा सा रस टपकाता रसगुल्ला अलका के मुंह मे आधा भरा और बोला पकड़े रहना, अल्का को समझते देर न लगी और वो गनगना सी गयी, उसने आँखे बंद कर ली, सत्तू ने आधे रसगुल्ले को धीरे से मुंह मे भरा, दोनों के होंठ टकरा गए, अल्का पूरी तरह सिरह उठी और झट से सत्तू से कस के लिपट गयी, चूचीयाँ तो दोनों मानो रगड़ सी गयी सत्तू से सीने पर इतनी कस के अल्का उससे लिपटी हुई थी।

सत्तू- कितना मीठा बना दिया बहना तुमने इस रसगुल्ले को अपने होंठों से छूकर।

सत्तू ने रसगुल्ला मुँह में भरे भरे अल्का के कान में धीरे से कहा तो वो और भी सिरह गयी, चुप करके बस लिपटी हुई थी सत्तू से, और दोनों एक दूसरे से लिपटे हुए रसगुल्ले का आनंद लेने लगे, सत्तू- बहना एक और

अल्का ने एक रसगुल्ला और उठाया तो सत्तू बोला- पहले मेरी गोद में ठीक से बैठो।

अल्का- कैसे बैठूं बताओ।

सत्तू- दोनों पैर मेरी कमर के अगल बगल लपेटकर मेरी गोद में बैठो न।

अल्का- वैसे? (अल्का बेहद शर्मा गयी)

सत्तू- हां वैसे.....बैठो न

अल्का ने एक बार आस पास घूम कर देखा, हालांकि अंधेरा था, पर फिर भी वह पहले आश्वस्त हुई और धीरे से एक हाँथ में रसगुल्ला लिए दूसरे हाँथ से अपनी रेशमी साड़ी को थोड़ा ऊपर करके अपने दोनों पैर सत्तू के अगल बगल रखकर उसकी गोद मे बैठती चली गयी,
अब क्योंकि वो दोनों पैर खोलकर और अपने भैया की कमर पर लपेट कर उसकी गोद में बैठी थी जिससे उसकी साड़ी घुटनों तक उठ गई थी और उसकी अंदरूनी मांसल नग्न जांघे सत्तू की जाँघों पर सेट हो गयी थी, आज जीवन में पहली बार कोई जवान स्त्री जो कि उसकी भौजी और बहन थी जिसने अभी अभी उसे राखी बांधी थी, उसकी गोद में इस तरह साड़ी उठाकर सिर्फ एक बार कहने पर ही बैठ गयी थी, इस अहसाह से ही सत्तू का लंड संभालते संभालते भी तनकर लोहे ही तरह खड़ा हो ही गया, और क्योंकि पायजामे का कपड़ा हल्का था तो बखूबी उसका सख्त लन्ड अल्का की कच्छी के ऊपर से उसकी प्यासी बूर पर छूने लगा, जिससे अल्का बार बार सिरहकर, सिसक कर "ओह भैया" बोलते हुए सत्तू से लिपट ही जा रही थी, दोनों ही जान रहे थे कि वो क्या कर रहे हैं, लेकिन करना भी चाह रहे थे।

जोश के मारे सत्तू के तने हुए लन्ड की हलचल को जब अल्का ने अपनी बूर पर महसूस किया तो एक अजीब सी सनसनाहट से उसका बदन गनगना गया, लज़्ज़ा से भरकर वो झट से फिर से सत्तू की गोद में बैठे बैठे उससे लिपट गयी, उसके दिल की तेज धड़कन को सतेंद्र बहुत अच्छे से महसूस कर रहा था।

सत्येन्द्र के हाँथ अल्का की पीठ को हौले हौले सहला रहे थे जिससे अल्का सिसक उठी।

अल्का ने थोड़ा भारी आवाज में धीरे से कहा- भैया रसगुल्ला खा लो न, सारा रस टपक रहा है।

सत्तू- खिलाओ न मेरी बहना।

अल्का ने बड़ी अदा से रसगुल्ला आधा मुँह में लिया और सत्तू के होंठ जैसे ही रसगुल्ला काटते वक्त अल्का के होंठ से छुए, अल्का "बस" बोलते हुए झट से सत्तू से लिपट गयी।

सत्तू तरसता हुआ बोला- बहन.......छूने दो न

अल्का धीरे से कान में- क्या भैया?

सत्तू- अपने नाजुक होंठ।

अल्का शर्म के मारे दोहरी हो गयी, चुप से लिपटी रही साँसे उसकी काफी तेज ऊपर नीचे होने लगी।

सत्तू ने उसकी ब्लॉउज में से झांकती नंगी पीठ को हल्का सा दबाया और फिर बोला- बोलो न बहना, क्या इस पल को यादगार नही बनाओगी?

अल्का फिर भी कुछ न बोली बस उसकी साँसे ऊपर नीचे होती रहीं, कुछ पल के बाद उसने धीरे से "भैया" बोलते हुए सत्तू की गर्दन पर हल्का सा अपने नाजुक होंठ रगड़कर सिग्नल दिया, दोनों के रोएँ तक रोमांच में खड़े हो गए।

सत्तू अल्का को गोद में लिए लिए धीरे धीरे चटाई पर लेटता चला गया, जैसे जैसे अल्का चटाई पर लेटती गयी सत्तू अपनी बहन पर चढ़ता चला गया, दोनों के बदन एक हो गए, लज़्ज़ा और शर्म के साथ दोनों बुरी तरह एक दूसरे ले लिपटे हुए थे, अल्का के मुँह से हल्की हल्की सिसकियां निकलने लगी, सत्तू ने अल्का के दोनों पैरों को अलग किया तो अल्का ने पैर उठाकर सत्तू की कमर पर लपेट दिए, ऐसा करने से सत्तू के दहाड़ते लन्ड को रास्ता मिल गया और जैसे ही उसने कच्छी के ऊपर से अलका की फूली हुई प्यासी बूर पर दस्तक दी, अल्का बुरी तरह शर्माकर सत्तू से चिपकते हुए मचल उठी "बस भैया", इतना ही उसके मुंह से निकला और मस्ती में उसकी आंखें बंद हो गयी।

सत्तू ने धीरे से उसका चेहरा थामा और उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिये।

सब भूल गए दोनों, कुछ पता ही नही चला कि कब अल्का के होंठ खुल गए और दोनों एक दूसरे के मुँह में जीभ डाल डाल के एक दूसरे को चूमने लगे, हल्का हल्का अल्का सिसकते हुए "आह भैया....मेरे भैया....कहाँ थे अबतक" और सत्तू "मेरी बहना... मेरी जान....कितनी रसीली है तू.....तेरे गाल तेरे होंठ" बोले जा रहे थे।

दोनों बेसुध होकर तब तक एक दूसरे के चुम्बन में डूबे रहे जब तक होंठों में हल्का हल्का दर्द नही होने लगा, सत्तू का लन्ड पूरा सख्त होकर कच्छी के ऊपर से अल्का की बूर पर कब से दस्तक दे रहा था, जिसे महसूस करके अल्का लजाकर बार बार सिसक जा रही थी, सत्तू से रहा नही जा रहा था क्योंकि अल्का की बूर की फांके कच्छी के ऊपर ही उसे बखूबी महसूस हो रही थी जिसके बीच में वो अपना बेकाबू लन्ड काफी देर से हल्का हल्का रगड़ ही रहा था, अल्का के लिए भी बर्दाश्त कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा था पर जैसे ही सत्तू ने एक दो सूखे धक्के बूर पर मारे अल्का ने सिसकते हुए उसके नितम्बों पर हाँथ रखते हुए उसे रोक लिया और स्थिति को काबू करते हुए बड़ी मुश्किल से सत्तू को समझाते हुए बोली-
"आह भैया सुनो न.....ये सब अभी नही"

सत्तू - मुझसे बर्दास्त नही हो रहा बहना, मुझे चखना है.....आज तक कभी नही चखा इसको।

ये सुनकर अल्का बहुत गर्म हो गयी फिर भी संभलते हुए बोली- आपको क्या लगता है आपकी बहन आपको चखायगी नही, इस चीज़ से आपको वंचित रखेगी, वो तो खुद तड़प रही है।

सत्तू- फिर मेरी बहना..... फिर.....चखने दो न।

अल्का- पर मेरे भैया अभी थोड़ा सब्र रखो, ऐसी चीज़ अच्छे से खाई जाती है, जल्दबाजी में नही, मैं नही चाहती कि मेरी इस अनमोल चीज़ को मेरे भैया जल्दी जल्दी खाएं, अभी देखो वक्त बहुत कम है हम पकड़े जा सकते हैं.... इसलिए अभी सब्र रखो.... जैसे इतना दिन सब्र रखे वैसे ही थोड़ा सा और.....जल्द ही मौका निकाल के चखाउंगी इसको तुम्हें।

सत्तू- "ओह मेरी बहन...तू कितनी अच्छी है"

दोनों फिर बुरी तरह लिपट गए, सत्तू ने धीरे से अल्का के कान में कहा- "बहुत रसीली हो तुम"

अल्का ने भी धीरे से मचलते हुए कहा- "मेरे भैया"

सत्तू ने जल्दी जल्दी अल्का के गालों और होंठों को कई बार फिर चूमा और अल्का हौले हौले मचलती सिसकती रही।

सत्तू ने कहा- पता है मैं अपनी बहना के लिए क्या गिफ्ट लाया हूँ।

अल्का - गिफ्ट

सत्तू- ह्म्म्म गिफ्ट

अल्का- तो लाओ दो मेरा गिफ्ट, राखी की बंधाई।

अल्का थोड़ा हंस के बोली।

सत्तू ने जेब से नथनी का डिब्बा निकाला और उसके हाँथ पर रख दिया।

दिए को थोड़ा पास लेके आया।

अल्का- ये क्या है?

सत्तू- डिबिया तो खोलो।

अलका ने डिबिया खोली और नथनी देखते ही खुशी से झूम उठी- इतनी प्यारी?

सत्तू- प्यारी बहना के लिए तो प्यारी सी ही नथनी होगी न।

अल्का फिर खुशी से लिपट गयी सत्तू से, सत्तू ने उसे फिर हल्के हल्के चूमा, अल्का बोली- तो पहनाओ अपने हाँथ से भैया अपनी बहना को।

सत्तू ने नथनी अल्का को पहनाई और उस नथनी को चूम लिया "कितनी प्यारी लग रही है मेरी बहना इसे पहनकर....बहुत खूबसूरत"

अल्का- मेरे भैया का प्यार है न इसमें, तो मेरी सुंदरता तो निखारेगी ही ये।

फिर अल्का और सत्तू उठ गए, समान समेटकर दोनों नीचे आये, सत्तू ने नीचे उतरते वक्त एक बार फिर अल्का को सीढ़ियों पर बाहों में भरकर चूम लिया, किसी तरह दोनों ने अपने को संभाला और सत्तू फिर चुपके से बाहर आ गया, अल्का दबे पांव अपने कमरे में चली गयी समान रखा, नथनी उतारकर संभाल कर रखी और साड़ी बदली और पलंग पर लेट गयी, नींद अब भी आंखों से कोसों दूर थी, वो छुवन वो अहसाह अलग ही सनसनी बदन में पैदा कर रही थी, मंद मंद मुस्कुराते हुए जैसे ही उसने अपनी योनि को छुआ, मखमली योनि पूरी तरह गीली हो चुकी थी, मुस्कुराते हुए वो बस न जाने कब तक "मेरे भैया...ओ मेरे सैयां" बुदबुदाते हुए धीरे धीरे सो गई।
शानदार jandar bhai
 
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