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*महफिल-ए-ग़ज़ल*
हैलो दोस्तो,,,,
इस थ्रीड में आप सभी का तहे-दिल से स्वागत है और सभी से ग़ुज़ारिश भी है कि आप सब भी अपनी तरफ से इस थ्रीड पर अपनी पसंदीदा ग़ज़लें पोस्ट करें।
शेरो-शायरी अथवा ग़ज़ल ये ऐसी चीज़ें होती हैं जिनका एक अलग ही प्रभाव है, जो हमारे दिलों के तारों को छू कर हमे एक अनोखे एहसास से रूबरू कराती हैं। तो दोस्तो, आइये और इसके अनोखे एहसास से रूबरू होते हैं।
हर आने जाने वाले का मुँह देखता रहा।
मैं रहगुज़र पे ज़ीस्त की तन्हा खड़ा रहा।।
इस ज़िंदगी ने ज़ख़्म दिए बारहा मगर,
जाने हर एक ज़ख़्म को क्यों चूमता रहा।।
छोड़ा है आंधियों ने न बाक़ी निशान-ए-राह,
फिर भी मैं तेरा नक़्श-ए-क़दम ढूँढता रहा।।
तन्हा नहीं रहा हूँ मैं तेरे फ़िराक़ में,
दिल पर तेरे ही दर्द का पहरा लगा रहा।।
दिन को तो सिलसिले थे ग़म-ए-रोज़गार के,
शब भर तिरे ख़याल का ताँता लगा रहा।।
याद-ए-'हबीब' थी कि धुंधलकों में खो गई,
दिल में सिवाए ख़ाक के बाक़ी भी क्या रहा।।